शोध आलेख : रेणु कृत ‘मारे गये गुलफाम उर्फ़ तीसरी कसम ’ कहानी का फ़िल्मी रूपांतरण : एक अवलोकन / बिभूति बिक्रम नाथ

रेणु कृतमारे गये गुलफाम उर्फ़ तीसरी कसमकहानी का फ़िल्मी रूपांतरण : एक अवलोकन
- बिभूति बिक्रम नाथ

शोध सार : साहित्य और सिनेमा परस्पर संबंधित हैं। इसके केंद्र में व्यक्ति की सत्ता और सामाजिक प्रमुल्यबोध के अनेक पहलू हैं। साहित्य गहन मानवीयता का दर्शन है। मानवीय भावनाएं एवं सामाजिक स्थिति की दास्तान लिए साहित्य और सिनेमा कालजयी एवं कालजीवी बनते हैं। साहित्य अपनी अस्मिता में मानव जीवन के अनेक पक्षों का उद्घाटन करता है और उन्हीं पक्षों को सिनेमाई कला में निर्देशक लाइट, कैमरा, एक्शन के यांत्रिक शैली से और अधिक प्राणवंत कर डालता है। भारतीय सिनेमा के आरंभिक वर्षों पर नजर डालें तो ऐसी कई फिल्में जनमानस में आई हैं, जो हिंदी के अनेक साहित्यकार के साहित्यिक कृतियों पर फिल्माया गया। यह सिनेमाई कला प्रौढ़ता, सहजता और सुबोधता से ओत-प्रोत है। फणीश्वरनाथ रेणु हिंदी के प्रसिद्ध साहित्यकार हैं। उनका साहित्य सौष्ठव मानवीय चेतना के कल्याणकारी स्वरूप से सराबोर है। उसमें फैंटेसी के काल्पनिकता होकर यथार्थ जीवन दर्शन है। उन्होंने हिंदी साहित्य में आंचलिकता के संदर्भ को मुखर किया और मानवीय चेतना के चाक्षुष बिंब को संकल्पित किया। रेणु की कहानी "मारे गए गुलफाम"  पर तीसरी कसम फिल्म को फिल्माया गया और इस बात को स्पष्ट सिद्ध किया कि कल्पना और अनुभूतिजन्यता से फिल्म निर्देशक साहित्य और सिनेमा के सामजंस्य सापेक्षिकता को सुदृढ़ कर सकता है। रेणु अपनी कहानियों में ग्रामीण जीवन संजीवनी के चित्र खींचते है, जिसमें लोक-ग्रामीण संस्कृति का चित्रण, ग्रामीण समाज की अज्ञानता एवं अंधविश्वासी मान्यताओं का चित्रण तथा गांव के सहज, सरल मानवीय संवेदनाओं का चित्रण इत्यादि अंतर्निहित हैं। रेणु की "मारे गए गुलफाम" कहानी बहुचर्चित है। इस कहानी के द्वारा उन्होंने ग्रामीण शहरी सभ्यता के बीच अपनत्व के सूत्र पिरोये हैं। गाड़ीवान हिरामन और हीराबाई दोनों पात्रों के बीच प्रणय संबंधों को भी दर्शाया गया है। "मारे गए गुलफाम" का "तीसरी कसम" फिल्म के रूप में सही रूपांतर ही इसे एक क्लासिक कृति बना देता है। इसमें वासनाजनित प्रेम नहीं, प्रेम का उदात्त स्वरूप है। फिल्मांकन में पात्रों के आंतरिक द्वंद्व उभरकर सामने आए हैं। प्रस्तुत कहानी के अधिकांश पहलू फिल्म में और अधिक प्रबल एवं प्राणवंत रूप में दर्शाए गए हैं। आगे इस पर सुव्यवस्थित रूप से चर्चा की जाएगी।

बीज शब्द : साहित्य, सिनेमा, रूपांतरण, संस्कृति, आंचलिकता, तादात्म्य, जनमानस, अभिव्यंजना, अभिनय, सिनेमेटोग्राफी।

मूल आलेख : फणीश्वरनाथ रेणु आधुनिक हिंदी साहित्य के प्रसिद्ध एवं सशक्त साहित्यकार हैं। उन्होंने अपने कहानी एवं उपन्यास साहित्य में ग्रामीण सभ्यता की रम्यता, जनमानस के जीवन संवेदना, राग-विराग, लोकगीत एवं लोक जीवन के तादात्म्य चित्र खींचे हैं। ठुमरी, आदिम रात्रि की महक, अगिनखोर इन तीन कहानी संग्रहों के वे सृजनकर्ता हैं। उनके विशाल एवं भव्य कहानी साहित्य में "मारे गए गुलफाम" एक बहुचर्चित आंचलिक कहानी है, जिस पर 1996 में बासु भट्टाचार्य के निर्देशन में बनी "तीसरी कसम" फिल्म फिल्माई गई। इस फिल्म के गीतकार शैलेंद्र और हसरत जयपुरी थे और मुख्य कलाकारों के रूप में राज कपूर और वहीदा रहमान थे। यह फिल्म ग्रामीण जनमानस की सादगी एवं सभ्यता को दिखाती है। इस फिल्म की पटकथा नबेंदु घोष ने लिखी और संवाद स्वयं फणीश्वरनाथ जी के थे। रेणु की "मारे गए गुलफाम" कहानी के फिल्म रूपांतरण का इन्हीं बिंदुओं के साथ विश्लेषण किया जाएगा-

            अभिव्यक्ति के सशक्त माध्यम साहित्य और सिनेमा परस्पर एक दूसरे के पूरक हैं। सिनेमा की रचनात्मकता साहित्य और कला के संगम से ही है। कल्पना इच्छा शक्ति  के साथ चाक्षुष बिम्ब में ही साहित्य सिनेमा प्राणवंत बनती हैं। रेणु की "मारे गए गुलफाम" कहानी की कथानक पात्र हिरामन और हीराबाई  के प्रणय संबंधों की गहरी पीड़ा से संलग्न है। इस कहानी का नायक हिरामन बैलगाड़ी चलाने वाला सहज, सरल युवक है और हीराबाई एक नर्तकी है। "तीसरी कसम" फिल्म में इन्हीं पात्रों के इर्द-गिर्द पटकथा को फिल्माया गया है। नायक हिरामन अपने जीवन में तीन कसमें खाते हैं। नेपाल से तस्करी का सामान ढोकर भारत लाने का काम हिरामन करता था। एक दिन सेठ के कपड़े की गांठ पकड़े जाने पर उसने रात के अंधेरे में अपनी बैलों के साथ भागकर जान बचाई थी। उस समय उसने पहली कसम खाई कि वह कभी तस्करी का माल नहीं ढोयेगा। हिरामन आगे चलकर जानवरों की ढुलाई और बांस धोने का काम करने लगा। एक दिन अपनी गाड़ी में बांस लेकर वह जा रहा था लेकिन बांस का कुछ अंश गाड़ी से निकल रहा था और आगे जाकर गाड़ी एक बग्धी से टकरा गई और बग्धी की छतरी छूट जाने के कारण बग्धी हाँकने वाले ने हिरामन के पीठ पर कोड़ों से मारा। उस समय हिरामन ने दूसरी कसम खाई कि वह कभी गाड़ी में बांस नहीं ढोयेगा। इसके बाद की घटना में हीराबाई हिरामन की बैलगाड़ी में एक दिन सवार हुई और एक सरल अपनत्व के संबंध में दोनों जुड़ गए। उस समय हिरामन ने तीसरी कसम खाई कि भाड़ा चाहे जितना भी मिले ऐसी नर्तकी फिर नहीं बिठाऊंगा। अंत में जब हीराबाई हिरामन से विदा होती है तब हिरामन बहुत दुःखी होते हैं क्योंकि वह हीराबाई से प्रेम करने लगा था। रेणु की मारे गए गुलफाम कहानी का फिल्मांकन "तीसरी कसम" के रूप में सुव्यवस्थित, सुशृंखलित एवं रोचक वर्णन हुआ है, जो दर्शकों को सुग्राह्य लगा।

            पात्रों के व्यक्तित्व को तीसरी कसम फ़िल्म में उसी रूप में दर्शाया गया हैं, जैसे मूल कहानी में रेणु ने पात्रों के व्यक्तित्व को मुखर किया हैं। हिरामन के बारे बताते हुए कहानीकार लिखते हैं- ‘हीराबाई ने हिरामन के जैसा निच्छल आदमी बहुत कम देखे हैं। पूछा-आपका घर कौन ज़िला में पड़ता है? कानपुर नाम सुनते ही जो उसकी हंसी छूटी तो बैल भड़क उठे। हिरामन हंसते समय सिर नीचा कर लेता है। हंसी बंद होने पर उसने कहा- वाह रे कानपुर तब तो नागपुर भी होगा और जब हीराबाई ने कहा कि नागपुर भी है तो वह हँसते-हँसते दुहरा हो गया।'1 फ़िल्म रूपांतरण में इन सभी तथ्यों को सुव्यवस्थित रूप से संभाला गया हैं। फ़िल्म में भी हिरामन की सहजता, सुबोधता एवं हँसमुख स्वभाव को दर्शाया गया हैं। मारे गए गुलफाम कहानी में हिरामन और हीराबाई की पहली मुलाकात के क्षण का बड़ी ही तल्लीनता से वर्णन किया गया हैं। कहानीकार के अनुसार, "हिरामन की सवारी ने करवट ली। चांदनी पूरे मुख पर पड़ी तो हिरामन चीखते चीखते रुक गया... अरे बाप! तो परी है! परी की आँखें खुल गईं। हिरामन ने सामने सड़क की ओर मुँह कर लिया और बैलों को टिटकारी दी। वह जीभ को तालू से सटाकर टि-टि-टि-टि आवाज निकालता है। हिरामन की जीभ जाने कब से सूखकर लकड़ी जैसी हो गई थी। भैया, तुम्हारा नाम क्या हैं? 2

"तीसरी कसम" फ़िल्म में इसी के अनुरूप ही हिरामन के चरित्र को निर्मित किया गया हैं। भोलेनाथ के मंदिर से निकलकर हिरामन जब अपनी बैलगाड़ी को चलाने के लिए उद्यत होता है तभी बैलगाड़ी में हीराबाई को देखता है और तब कहता है-

हिरामन : अरे बाप रे! ये तो परी है

हीराबाई : परी! कहाँ है परी?

हिरामन : जी(घबराते हुए)

(हिरामन अपने बैल को झिड़की देने लगे, हीराबाई रोकती है)

हिरामन : बैल को मारने से आपको बुरा लगता है?

हीराबाई : धीरे-धीरे चलने दो , जल्दी क्या है।

(हिरामन बीड़ी पीने लगता है)

हीराबाई : तुम्हारा नाम क्या है भैया?

हिरामन : मेरा नाम हिरामन। 3

  एक जगह कहानीकार हिरामन का चरित्र-चित्रण करते हुए लिखते हैं-"हिरामन होशियार हैं। कुहासा छंटते ही अपना चादर से टप्पर में परदा कर दिया- 'बस दो घण्टा! उसके बाद रास्ता चलना मुश्किल है। कातिक की सुबह की धूल आप बर्दास्त कर सकिएगा।4 इसमें यथार्थ का चित्रण है। फ़िल्म में भी हिरामन के साहसी व्यक्तित्व का चित्रण हुआ है। हिरामन कसमों के सिलसिले में जीवन अवश्य व्यतीत करते हैं लेकिन उसके मासूम व्यक्तित्व ने उसकी जीवन जिजीविषा को उत्साहपूर्ण बनाए रखा।

परिवेश एवं वातावरण चित्रण किसी भी साहित्यिक कृति की कसौटी है। कहानी साहित्य की संक्षिप्त परिधि को फ़िल्म की विस्तृत परिधि तक रूपांतरण करने के सिलसिले में परिवेश एवं वातावरण के परिप्रेक्ष्य को ध्यान रखना अत्यावश्यक है। रेणु ने अपनी कहानी "मारे गए गुलफाम" की वातावरण निर्माण में बड़ी सतर्कता दिखाई। पात्रों के चरित्रगत क्रिया-प्रतिक्रियाओं के अंतरंग को सहजता से वातावरण की सघनता में ढाल दिया है। उन्होंने वातावरण चित्रण में आंचलिकता की कलात्मकता को सहज प्रतीकात्मक रूप से उभारा है। प्रस्तुत कहानी में वातावरण चित्रण मानवीय चेतना के निकट है, उसमें रहस्यमय मिथक नहीं है। कहानीकार ने हिरामन और हीराबाई की पहली मुलाकात के क्षण का परिवेश चित्रण बख़ूबी किया है। कहानीकार के शब्दों में "हिरामन की सवारी ने करवट ली। चांदनी पूरे मुखड़े पर पड़ी तो हिरामन चीखते-चीखते रुक गया- अरे बाप! तो परी है! परी की आँखें खुल गई। हिरामन ने सामने सड़क की ओर मुँह कर दिया और बैलों को टिटकारी दी। वह जीभ को तालु से सटाकर टि-टि-टि-टि आवाज निकलता है। हिरामन की जीभ जाने कब से सूखकर लकड़ी जैसी हो गई थी।"5

"मारे गए गुलफाम" कहानी के फ़िल्म रूपांतरण में मूल कहानी के वातावरण को ही आधारभूमि स्वरूप मान्यता दी गई है। कहानी पात्रों के संक्षिप्त परिवेश में फ़िल्म की विस्तृत परिधि को नहीं समेटा जा सकता। इसलिए तीसरी कसम में कहीं-कहीं वातावरण में नूतनता आई है। फ़िल्म में कहानी की उद्देश्यधर्मिता की सार्थकता के हिसाब से कहीं-कहीं उपकथाएँ जोड़ी गई हैं।

             किसी साहित्य कृति का जब फिल्मी रूपांतरण किया जाता है तो भाषा एवं संवाद महत्त्वपूर्ण कड़ी बन जाते हैं। फिल्मांकन की तकनीकी में साहित्यिक कृति की भाषा काफी बदल जाति है। कहीं-कहीं साहित्यिक भाषा के शब्दचित्र फिल्मांकन में जनमानस के चाक्षुष बिम्ब बन जाते हैं। "मारे गए गुलफाम" कहानी की भाषा ग्रामीण जनमानस की भाषा है। फिल्म के संवादों में लोकभाषा का प्रयोग परिलक्षित है। कहीं-कहीं ऐसे प्रसंग आए हैं, जहाँ फिल्म में किसी संवाद का प्रयोग किया ही नहीं गया है। वहाँ परिवेश एवं पात्रों के हाव-भाव ही अर्थ को अभिव्यक्त करते हैं। फिल्म की भाषा सरल है, उसमें प्रतीकात्मकता के साथ-साथ कहीं-कहीं दार्शनिकता की झलक भी मिलति है। शैलेंद्र के गीत ने फिल्म की भाषा में वही सरलता भर दी, जो रेणु की मूल कहानी में मुखर होती थी।

दुनिया बनाने वाले क्या तेरे मन में समाई,

काहे को दुनिया बनाई तूने काहे को दुनिया बनाई

काहे बनाए तूने माटी के पुतले

धरती पर प्यारी-प्यारी मुखड़े ये उजले।6

             इस तरह के गीत भाषा की सरलता के साथ-साथ दार्शनिकता के गहराइयों से भी ओत-प्रोत है। इसकी भाषा प्रवाहमयी है। इसमें लोकभाषा के अंश हैं। यह गीत हिरामन और हीराबाई पर फिल्माया गया है। इस फिल्म में रेणु की मूल कहानी "मारे गए गुलफाम" की अर्थ व्यंजना को मद्देनजर रखते हुए एक गीत भी फिल्माया गया है। इसमें स्थानीय बोली के शब्द और उर्दू मिश्रित हिंदी का प्रयोग हुआ है। गीत की अभिव्यंजना मूल कहानी की अर्थ व्यंजना के सापेक्ष है। इसकी भाषा में ग्रामीण परिवेश के तत्त्व है। भाषा की दृष्टि से मूल कहानी और फिल्म में ज्यादा भिन्नता नहीं है।

मारे गए गुलफाम

अजी हां मारे गए गुलफाम

मारे गए गुलफाम

अजी हां मारे गए गुलफाम

उल्फत भी रास ना आई

अजी हां मारे गए गुलफाम।7

             एक साहित्यिक कृति के फिल्म रूपांतरण में अभिनय पक्ष महत्त्वपूर्ण है। साहित्यिक कृति पर बनी फिल्म तभी प्राणवंत बनती है, जब उसके पात्र का अभिनय कौशल जीवंत हो। नहीं तो उत्कृष्ट अभिनय के अभाव में उच्च कृति के फिल्मी रूपांतरण की सार्थकता शून्य बन जाएगी। यूँ कहें कि अभिनय की कसौटी पर ही पात्रों का व्यक्तित्व निखरता है। "तीसरी कसम" फिल्म में हिरामन(राज कपूर) का अभिनय दर्शकों को आकर्षित करता है। ग्रामीण जीवन की सहज एवं सरलता इस पात्र के माध्यम से उभरकर आई है। अभिनय कला में हिरामन के गाड़ीवान की छवि बखूबी उभरती है। हीराबाई(वहीदा रहमान) अभिनय कला एवं वेशभूषा से फारबिसगंज की नौटंकी में नाचने वाली लगती है। इन पात्रों के सफल अभिनय ने कहानी के मूल स्वर को फिल्मी पर्दे पर बखूबी उतारा है, जो लोगों को बहुत पसंद आए। हिरामन(राज कपूर) और हीराबाई(वहीदा रहमान) की अभिनय ने साहित्यिक कृति पर निर्मित फिल्म को एक क्लासिक व्यावसायिक स्तर पर ज़ोर दिया और दर्शकों के बीच इसकी लोकप्रियता दुगुनी बड़ी। "तीसरी कसम" शैलेंद्र जी के जीवन की अंतिम फिल्म है। उनकी उत्कृष्ट अभिनय कला ने उस साल का राष्ट्रपति स्वर्ण पदक प्राप्त किया। इस फिल्म को देखते हुए ऐसा लगता है मानो राजकपूर हिरामन का अभिनय नहीं कर रहे हैं वो रेणु के कहानी नायक पात्र हिरामन में ढल गया हो।

             सिनेमेटोग्राफी किसी भी फिल्म के लिए बहुत ही महत्त्वपूर्ण  तत्त्व है। कैमरे के उत्कृष्ट प्रयोग पर किसी भी फिल्म की उत्कृष्टता निर्भर करती है। सिनेमेटोग्राफी से किसी साहित्यिक कृति पर बनी फिल्म की संवाद योजना एवं कथ्य प्रभावी बन जाते हैं। रेणु की "मारे गए गुलफाम" पर बनी फिल्म तीसरी कसम की सार्थकता में सिनेमेटोग्राफी का बहुत बड़ा हाथ है। ग्रामीण परिवेश की सहजता, अंचल विशेष की स्थानीयता, पात्रों के वाचिक, सात्विक, आहार्य आदि भाव की स्पष्ट अभिव्यक्ति, पात्रानुकूल संवादों की सार्थकता आदि सिनेमेटोग्राफी के कारण प्राणवंत बन गई। जिस आंचलिकता को अपनी कहानियों में प्रतिध्वनित करते हुए रेणु जी अग्रसर होते हैं,  उसी आंचलिकता को सिनेमेटोग्राफी ने "तीसरी कसम" में बखूबी मुखर किया है। कैमरा केवल हिरामन और हीराबाई की क्लिप लेने तक ही सीमित नहीं रहकर उसकी परिधि गांव के कच्चे रास्ते से लेकर शहरी सभ्यता की हर गली को खोजती हैं। हिरामन का हीराबाई को शयन मुद्रा में देखना, हीराबाई और हिरामन का आँखों के इशारे से बात करना,  हीराबाई और हिरामन के आंतरिक द्वंद्व को बाहरी हाव-भाव के द्वारा अभिव्यक्त करना आदि सभी कार्य-शृंखला मूल कहानी के तहत ही "तीसरी कसम" में सिनेमेटोग्राफी तकनीकी के द्वारा फिल्माया है। ग्रामीण वातावरण को छायांकन में पूरी तरह उतारा गया है। फिल्म में दृश्य-पृष्ठभूमि छायांकन के माध्यम से बहुत सशक्त होकर सामने आई है। गांव की सुंदरता, हिरामन और हीराबाई की सहजता, छायांकन में स्पष्ट परिलक्षित होती है।

उद्देश्यधर्मिता एवं फ़िल्मी रूपांतरण की सार्थकता की दृष्टि से "तीसरी कसम" फ़िल्म प्रासंगिक है। यह फ़िल्म हिंदी फ़िल्मी जगत् के लिए मील का पत्थर सिद्ध हुई। गीतकार शैलेन्द्र ने शिल्पकार की भांति मूल कहानी के घटनाक्रम को फ़िल्मी पर्दे पर सुव्यवस्थित रूप से उतारा। यह फ़िल्म स्वानुभूति की गहनता लिए दुखांत हैं। यह फ़िल्म मूल कहानी के अंचल विशेष को बड़े पर्दे पर सुशोभित करती हैं। ग्रामीण जीवन की परिवेश का चित्रण करते हुए इसमें कृषि संस्कृति एवं पशु पालन को जीविकोपार्जन का साधन बताया गया हैं। फ़िल्म का शुभारंभ हिरामन हांकते हुए बैलगाड़ी चलाने की घटनाक्रम से होता है। इसी घटनाक्रम में आगे चलकर हीराबाई जुड़ जाती है। हिरामन हीराबाई को लोक संस्कृति के अनेक कहानियाँ और लोकगीत सुनाते हैं। हिरामन भावुक होकर अपने पुराने दिन को याद करते हैं।

इस फ़िल्म में नायक-नायिका के मूक प्रणय को दर्शाया गया है। दोनों गरीबी की त्रासद से आघातग्रस्त हैं। हीराबाई के चले जाने पर हिरामन का हृदय टूट जाता है। हीराबाई के प्रति हिरामन का प्रेम पावन है, निच्छल है एवं अगाध है। लेकिन वह अपनी प्रणय- पावनता को हीराबाई के समक्ष कह नहीं पाया। हीराबाई भी हिरामन से बेइंतहा प्यार करती है लेकिन अपनी जीविकापार्जन हेतु नौटंकी में नाच दिखाने के लिए उसे अलग राह से जाना पड़ा। हीराबाई को विदा करने के बाद हिरामन भावुक होकर "तीसरी कसम" खाता हैं कि वह कभी किसी नर्तकी को अपने गाड़ी में नहीं ले जाएगा। यह फ़िल्म साहित्य और सिनेमा दोनों की कलात्मकता में निकटता लाई है। निर्देशन के क्षेत्र में यह फ़िल्म अद्वितीय है। ग्रामीण वातावरण को एक साहित्यिक कृति से रूपांतरित कर फिल्मी कला में ले जाना इतना सरल कार्य नहीं हैं। लेकिन इस मामले में निर्देशक ने महारथ हासिल की हैं। 

"सजन रे झूठ मत बोलो, खुदा के पास जाना है

हाथी है ना घोड़ा है, वहां पैदल ही जाना है

तुम्हारे महल चौबारे, यही रह जाएंगे सारे

अकड़ किस बात की प्यारे

अकड़ किस बात की प्यारे, ये सर फिर भी झुकाना है

"सजन रे झूठ मत बोलो, खुदा के पास जाना है।"8

यहाँ ग्रामीण वातावरण के सहज, सरल संवाद एवं भाषा शैली का प्रयोग किया गया। कितनी ही सहजता से दार्शनिक विचारों को यहाँ काव्यत्व से सराबोर किया है, वह विचारणीय हैं।

निष्कर्ष : साहित्य और सिनेमा अपनी रचनात्मकता के साथ समाज के बहुमुखी विकास को मूर्त रूप प्रदान करती है। साहित्य के सकारात्मकता एवं सृजनात्मकता के स्वरूप ने सिनेमा को प्रभावित किया और समाज के विभिन्न आयामों की शृंखला ने सिनेमा में भाषाई कलात्मकता को सुदृढ़ किया। हिंदी सिनेमा के विकसित परंपरा में हिंदी के प्रसिद्ध साहित्यकार जुड़े रहे। प्रेमचंद से लेकर रेणु तक अनेक हिंदी साहित्यकार हिंदी फिल्मी दुनिया की सृजनात्मकता के हिस्से बने। रेणु ने पात्रानुकूल भाषा एवं संवाद का प्रयोग 'मारे गए गुलफाम' कहानी में किया हैं। उनकी वही शब्द चित्र "तीसरी कसम" फिल्म में दृश्य बिम्ब में परिवर्तित हो जाते हैं। फिल्म में कहानी के मूल कथ्य का हनन नहीं हुआ है। कुछ पन्नों की कहानी पर एक भव्य फिल्म का निर्माण करना इतना सरल काम नहीं है। मूल कहानी के परिवेश परिकल्पना एवं संवाद योजना के अस्तित्व को फिल्म में सुरक्षित रखा गया है।  कहीं-कहीं कल्पना के रंग भी हैं। बहरहाल, साहित्य कृति से सटीक फ़िल्म रूपांतरण की संज्ञा में "तीसरी कसम" फिल्म को नामांकित किया जा सकता है।

              "मारे गए गुलफ़ाम उर्फ़ तीसरी कसम" कहानी का फ़िल्म रूपातंरण गीत, संगीत, पटकथा, संवाद योजना, भाषाई कलात्मकता आदि सभी दृष्टि से बेजोड़ हैं।" तीसरी कसम" फ़िल्म अभिनय एवं निर्देशन कला दोनों दृष्टि से उत्कृष्ट है। इसमें ग्रामीण आंचलिकता के पहलू भी हैं और मूक प्रणय कहानी की दु:खांत परिणति। भारतीय सिनेमा और हिंदी साहित्य अपनी कलात्मकता एवं सृजनात्मकता के विविध आयामों से सदा ही प्रगतिशील रहे हैं। निःसंदेह "तीसरी कसम" फ़िल्म साहित्यिक कृति के फिल्मी रूपातंरण का उत्कृष्ट उदाहरण हैं।


सहायक ग्रन्थ :
रज़ा, राही, मासूम. (2015). सिनेमा और साहित्य (तीसरा संस्करण ). नई दिल्ली: वाणी प्रकाशन.
तिवारी, रामचन्द्र.(2016). हिंदी का गद्य साहित्य (तीसरा संस्करण).वाराणसी:  विश्वविद्यालय प्रकाशन

बिभूति बिक्रम नाथ
शोधार्थी, हिंदी विभाग, तेजपुर विश्वविद्यालय, असम

अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  फणीश्वर नाथ रेणु विशेषांकअंक-42, जून 2022, UGC Care Listed Issue

अतिथि सम्पादक : मनीष रंजन

सम्पादन सहयोग प्रवीण कुमार जोशी, मोहम्मद हुसैन डायर, मैना शर्मा और अभिनव सरोवा चित्रांकन मीनाक्षी झा बनर्जी(पटना)

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