- डायमंड साहू
शोध सार : फणीश्वरनाथ रेणु ने अपने कथा साहित्य में एक अति पिछड़े क्षेत्र में आधुनिकता के प्रवेश से होने वाले परिवर्तनों को दर्शाया है जिसमें पुराने विश्वासों के कारण विरोध होता हैI रेणु के पात्र सामाजिक अन्याय का अलग - अलग ढंग से विरोध करते हैं। उनके यहाँ लोक - संस्कृति की गरिमा अत्यन्त सजीवता के साथ अंकित हुई हैI लेकिन रेणु जागृति के संकेतों और नवनिर्माण को भी महत्त्व देते हैंI वे राजनीतिक स्वार्थ पूर्ति के लिए भोली-भाली ग्रामीण जनता को अंधेरे में रख शोषणकारी तत्त्वों की पहचान करते हैंI रेणु समाज को मानवीय बनाने की जीवन - दृष्टि अपने कथा साहित्य के माध्यम से ध्वनित करते हैं, जिसके मूल में लोक सांस्कृतिक समाज की रचना है, जो किसी भी राजनीतिक मतवाद पर आधारित न होकर उनके वह जीवन के अनुभवों से निकलकर आयी है।
बीज शब्द : आधुनिकता बोध, राजनीतिक प्रतिबद्धता, सामंती मानसिकता, नवजागृति, जनतांत्रिक मूल्य, युगीन चेतना, जनसंघर्ष आदि I
मूल आलेख : फणीश्वरनाथ रेणु आंचलिक उपन्यास और नयी कहानी दौर के विशिष्ट कथाकार हैं। वे हिन्दी के पहले कथाकार हैं, जिन्होंने आधुनिकता बोध के माध्यम से सामाजिक पिछड़ेपन को दूर करने का प्रयास किया। यह सर्वदा सत्य है कि अति पिछड़े क्षेत्र में आधुनिकता का प्रवेश होता है, तब उन क्षेत्रों में पुराने विश्वासों के कारण विरोध होता है। रेणु जी ने अपने साहित्य के माध्यम से इस सामाजिक जड़ता, अज्ञानता तथा सामंती मानसिकता जैसे पुराने विश्वासों को दूर करके आंचलिक जीवन में युगीन चेतना लाना चाहते थे। रेणु ने अपनी रचनाओं से ग्रामीण परिवेश में व्याप्त विभिन्न समस्याओं के विरुद्ध आवाज उठाकर असहाय एवं नीरस पड़ी हुई जनता को जगाने का प्रयत्न किया है। रेणु के जन संघर्षों में सक्रिय भागीदारी, राजनीतिक प्रतिबद्धता, गंभीर अध्ययन तथा अनुभव ने उन्हें यथार्थ साहित्य लिखने के लिए प्रेरित किया। रेणु का साहित्य हमारी संवेदनाओं को स्पंदित करता है। उनकी रचनाओं में युग चेतना का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है। रेणु ग्रामीण अंचल की प्रत्येक समस्याओं अथवा जटिलताओं को बड़े ही सरल भाषा एवं भाव के साथ प्रस्तुत करते हैं। उन्होंने अपने साहित्य में नये यथार्थ को प्राथमिकता दी है। उनका यथार्थ परंपरागत पिछड़ेपन का विरोध करके आधुनिकता की पक्षधर रही है।
रेणु जी ने ‘परती परिकथा’ उपन्यास में लिखा है कि - ‘‘स्वतंत्रता के पश्चात् स्वाधीनता-संघर्ष के कारण नवीन सामाजिक चेतना के फलस्वरूप गाँव ने करवट ली और समाज बदलने लगा। परिवर्तन अवश्यंभावी हुआ। यहाँ तक की परिवर्तन की गति भी तीव्र हुई।’’1 इसी संदर्भ में ‘परती परिकथा’ में जितेन्द्रनाथ जब दस-पंद्रह साल बाद पुनः अपने गाँव लौटता है तो देखता है कि पुराना सब कुछ समाप्त हो रहा है। नवीनता का तेजी से संक्रमण हो रहा है और न केवल परानपुर बल्कि ‘‘सभी गाँव टूट रहे हैं। गाँव के परिवार टूट रहे हैं, व्यक्ति टूट रहा है रोज-रोज, कांच के बर्तनों की तरह। निर्माण भी हो रहा है... नया गाँव, नए परिवार और नए लोग।’’2 रेणु जी ने ठुमरी, अग्निखोर, रसप्रिया, ठेस, आदिम रात्रि की महक, तीसरी कसम उर्फ मारे गए गुल्फाम, मैला आँचल, परती परिकथा, कितने चैराहे आदि रचनाओं में समकालीन यथार्थ को कलात्मक ऊँचाई प्रदान की है। उन्होंने अंचल विशेष के लोक-जीवन व लोक-संस्कृति को स्वाभाविकता, सूक्ष्मता, सुन्दरता तथा प्रभावोत्पादकता से चित्रित करके जनमानस के समक्ष प्रस्तुत किया है।
रेणु के कथा-साहित्य में युगीन चेतना की अभिव्यक्ति पूरी ताकत के साथ है। रेणु जी की रचनाओं में समाज की अनेक विसंगतियाँ परिलक्षित होती हैं। उन्होंने अंचल विशेष के स्वार्थी तत्त्वों से फैले महामारी की विभीषिका, भ्रष्टाचार, कराहती दरिद्रता, पिछड़े वर्ग की दयनीयता और चरमराती व्यवस्था, राजनीतिक दाँव-पेंच, धार्मिक रूढ़ियाँ एवं सांस्कृतिक-सामाजिक विषमताओं को जीवन्तता के साथ प्रस्तुत किया है। रेणु जी नवजागृति व नवनिर्माण को महत्त्व देते हुए सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, राजनीतिक आदि सभी क्षेत्रों में फैले अंधविश्वास पर आधारित रूढ़िग्रस्त परंपराओं व मान्यताओं के प्रति अनास्था प्रकट करते हैं। साथ ही साथ अंचल के लोगों में अपने अधिकारों के प्रति सचेतना व शोषण के प्रति विद्रोह के लक्षण भी दृष्टिगत करते हैं।
रेणु ग्रामीण युगीन परिस्थितियों के कुशल रचनाकार थे। उन्होंने ग्रामीण अंचल की विभिन्न समस्याओं एवं कुरीतियों को बहुत नजदीक से देखा एवं अनुभव किया था। इसलिए उनके विचार हमेशा ही उन समस्याओं के निवारण में सहायक बनी रही। उनकी रचनाओं में सम्पूर्ण मानवीयता, आस्था और अस्मिता दिखाई देती है। रेणु ने लोकगीतों, लोक-कथाओं, लोक नृत्यों, पर्व-त्योहारों आदि के चित्रण से अंचल की संस्कृति और परिवेश को यथार्थ रूप में उजागर किया है। रेणु के कथा-साहित्य में ‘मैला आँचल’ उपन्यास से लेकर ‘पल्टू बाबू रोड’ उपन्यास तक देश में, जो स्वतंत्रता के बाद हलचल हुई, राजनीतिक कुचक्रों से जो प्रवृत्तियाँ पनपी, उसका ग्रामीण समाज और संस्कृति ही नहीं अपितु शहरों में भी कुप्रभाव देखा गया। स्वतंत्रता के बाद सामाजिक जीवन में होने वाले परिवर्तनों ने धार्मिक विश्वास को हिला दिया। उनकी परम्परागत धार्मिक मान्यताओं एवं आस्थाओं के समक्ष प्रश्न चिह्न आ गया। इसी कारण यहाँ धर्म के नाम पर अनेक प्रकार की अनियमितताएँ देखने को मिलती हैं। रेणु जी की ‘तीर्थोदक’ कहानी ग्रामीण समाज में व्याप्त आस्तिकता को उजागर करने वाली प्रमुख कहानी है। सम्बद्ध अंचल के जन-सामान्य की यह मूलभूत धारणा है कि पौष-पूर्णिमा के अवसर पर गंगा स्नान करना आवश्यक माना जाता है। बुढ़िया द्वारा अपने बेटे को कहा गया कथन इस संदर्भ में प्रस्तुत है कि ‘‘फिर मेरी देह की शपथ खाता है ? लाज नहीं आती ? नाती पोते मेरे गंगा नहा आए और मैं अभागी ऐसी गंगा की कौन कहे पौषी पूर्णिमा में कभी कोसी की किसी गढ़हिया में भी एक डुबकी नहीं लगा पाई।’’3 रेणु के उपन्यासों में युग-चेतना की सच्ची अभिव्यक्ति हुई है। ‘मैला आंचल’ में डॉ. प्रशांत उस पिछड़े ग्राम में आकर आधुनिक चेतना की किरण प्रज्ज्वलित करते हैं, वहीं गाँव की सभी बीमारियों को दूर करके गाँव के जीवन में नवीन संजीवनी का संचार करते हैं। युगीन चेतना के फलस्वरूप ही जाति-पाति के बन्धन कुछ कम हुए हैं। फणीश्वरनाथ रेणु की कहानियों में पात्र जहाँ एक तरफ धार्मिक रूढ़ियों और अन्धविश्वासों से ग्रस्त हैं, वहीं दूसरी तरफ ऐसे भी पात्र हैं जो उदात्त जीवन-मूल्यों की स्थापना के लिए प्रयत्नशील हैं। ये ऐसे पात्र हैं, जो मानव-धर्म की भावना से प्रेरित होने के कारण अपने कर्तव्यों से तनिक भी विचलित नहीं होते हैं। इस संदर्भ में डॉ. प्रशांत का कथन है कि - ‘‘मैं प्यार की खेती करना चाहता हूँ। आँसू से भीगी हुई धरती पर प्यार के पौधे लहराएँगे। मैं साधना करूँगा ग्रामवासिनी भारत माता के मैले आँचल तले। कम से कम एक ही गाँव के कुछ प्राणियों के मुरझाए होंठो पर मुस्कुराहट लौटा सकूँ उनके हृदय में आशा और विश्वास को प्रतिष्ठित कर सकूँ।’’4 रेणु की कहानियों में लोक-संस्कृति की गरिमा अत्यन्त सजीवता के साथ अंकित हुई है। उन्हें अंचल विशेष के जीवन तथा यहाँ होने वाले पर्व-त्योहारों, मेले, लोक-कथाओं आदि का विस्तृत ज्ञान है। रेणु के कथा-साहित्य में युगीन चेतना एवं मूल्यबोध एक ही है। रेणु के मन में भोली-भाली जनता के शोषण और उन पर हो रहे सामाजिक अन्याय के खिलाफ एक टीस थी। इस अन्याय के खिलाफ उसकी आत्मा झटपटाती है। उन्होंने अपने कथा साहित्य में इस सामाजिक अन्याय पर विरोध प्रकट किया है। उदाहरण के लिए 'मैला आँचल' में मठ जैसे धार्मिक स्थल पर चल रहे व्यभिचार या असामाजिक बर्ताव हो, ग्रामीण जनता की आँखों में धूल झोंककर नरसिंह दास को मठाधीश घोषित करना हो, सहदेव द्वारा फुलिया का शोषण हो अथवा रामदास द्वारा मठ पर रखैल रखने की घटना हो। रेणु इन सभी सामाजिक अन्याय का अलग-अलग पात्रों के माध्यम से विरोध करते हैं। युगीन सामाजिक चेतना के फलस्वरुप मठ पर हो रहे अन्याय का सबसे पहले लछमी दासिन और रामदास मिलकर विरोध करते हैं। अपने को असफल होता देख लछमी जनमत को अपने पक्ष में करने का प्रयास करती है। फिर गाँव में घूमकर सबको इस अन्याय से अवगत कराती है। इस प्रकार रेणु सामाजिक अन्याय के खिलाफ विकसित होते जन चेतना को अपनी कथा साहित्य में जगह देते हैं। समाज के परिप्रेक्ष्य में रेणु की लेखकीय संवेदना व सोच में शीघ्र ही समाधान प्राप्त करने की कसक है। लोक अनुभव और सामाजिक यथार्थ पर उनकी गहरी और मानवीय पकड़ है। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भारतीय सामाजिक जीवन में बहुत बदलाव आया है। पुराने मूल्य अब बदल रहे हैं। इनकी जगह नये मूल्य ले रहे हैं। इसी बदलते मूल्यों के फलस्वरूप रेणु ने अपने कथा-साहित्य में सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक आदि युगीन चेतना का विकास किया है। सामाजिक मूल्य के अन्तर्गत आज परिवार और गाँव टूट रहे हैं, हमारे संस्कारों का हनन हो रहा है। अपने स्वार्थ पूर्ति के लिए एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को हमेशा नीचा दिखाने का प्रयास करता है। रेणु ने अपने कथा-साहित्य में युगीन चेतना का प्रवेश कर ग्रामीण अंचल में एक जागरूकता पैदा किया है। अपने मूल्यों की रक्षा करने तथा सामाजिक चेतना लाने के लिए रेणु के उपन्यासों के विभिन्न पात्र हैं, जैसे - ‘मैला आँचल’ का प्रशान्त, बालदेव, लक्ष्मी, ‘परती परिकथा’ का जितेन्द्र, ताजमनी, ‘दीर्घतपा’ की बेलागुप्त, ‘कितने चैराहे’ का मनमोहन आदि ऐसे पात्र हैं, जिनके माध्यम से मूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता को उजागर किया गया है। प्रशान्त समाज सेवा और जितेन्द्र परती जमीन को उपवाऊ बनाता है। आज के सामाजिक एवं राजनीतिक परिदृश्य को रेणु खूब समझते थे। आज भी राजनीतिक मूल्यों के कारण विभिन्न दंगे-फसाद होते हैं। पदलोलुपता भी नेताओं को पूरी तरह जकड़े हुए हैं। पद पर बने रहना एवं अपनी कुर्सी की रक्षा करना ही उनका लक्ष्य रह गया है। वे अपने स्वार्थ पूर्ति के लिए भोली-भाली ग्रामीण जनता को अंधेरे में रखते हैं। लाचारी और बेबसी के कारण अंचलों के युवा न चाहते हुए भी अनिच्छित कार्य करने पर मजबूर हैं। आज ग्रामीण आंचलिक जीवन में सभी राजनीतिक पार्टियों का प्रवेश हो चुका है। लोग भी अब अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग कर रहे हैं। ‘‘राजनीतिक सरगर्मी के कारण परानपुर के लोग अब नामेनेशन, मेजरौटी, पौलटीस, पौलीसी, दिमाकृषि (डेमोक्रेसी) शब्दों को समझने व उनका धड़ल्ले से प्रयोग भी करने लगे हैं।’’5
स्वतंत्रता के इतने वर्षों बाद भी युवकों को अपने आर्थिक स्तर को सुधारने के लिए कोई भी उपाय सामने नहीं है। जाति और वर्ग भी नौकरी करने में आड़े आती है। आज यही स्थिति देखने को मिलती है। बेरोजगारी चारों तरफ मुँह फैलाए खड़ी है। कहीं लोग आर्थिक तंगी के कारण आत्महत्या कर लेते हैं तो कोई गाँव छोड़कर शहर की ओर पलायन करने लगते हैं। रेणु की कहानियों में भी यह चित्र उभरा है। ‘मैला आंचल’ में सुभरितदास द्वारा जूट मिल खुलने का समाचार देना नगरीकरण प्रक्रिया की ओर संकेत करता है। ‘उच्चाटन’ का रामविलास, ‘विघटन के क्षण’ का फुलकन, ‘आजाद परिन्दे’ कहानी का सुदर्शन अपनी रसपूर्ण बातों से अंचलवासियों को शहर की ओर आकर्षित करने का काम करते हैं। ‘परती परिकथा’ में रेणु ने निम्नवर्ग में निर्धनता और बेकारी से जूझ रहे लोगों की स्थिति का सजीव चित्रण किया है - ‘‘बच्चे मर गए हाय रे। बीबी मर गई हाय रे। उजड़ी दुनिया हाय रे। हम मजदूर हो गए घर से दूर हो गए वर्ष महीना एक कर खून पसीना एक कर बिखरी ताकत जोड़कर पर्वत पत्थर तोड़कर इस डायन को साधेंगे। उजड़े को बसाना है।’’6 ‘मैला आंचल’ में युगों से पीड़ित दलित शोषित संथालों को सोशलिस्ट पार्टी की सभा की खबर जितना आलोकित करती है, उतना गाँव में अस्पताल खुलने की खबर भी नहीं। कॉमरेड सैनिक जी का भाषण समस्त ग्रामीण चाव से सुनते हैं।’’7 कालीचरण जब संथालों को समझाता है कि जमींदारी प्रथा अब समाप्त हो गई है। ‘‘जमीन जोतने वालों की है, जो जोतेगा वही बोयेगा और खायेगा उससे उन्हें कोई बेदखल नहीं कर सकता तो उनके मस्तिष्क की उलझी हुई गुत्थी सुलझ जाती है।’’8
भारतीय समाज में जाति प्रथा का विष युगों से फैला चला आ रहा है, उसने सामाजिक व्यवस्था को और भी अस्त-व्यस्त तथा कुंठाग्रस्त कर रखा है। रेणु ने इस कुप्रथा और इसके दुष्परिणामों को अपने कथा साहित्य में उभारा है। 'मैला आंचल' में रेणु ने मेरीगंज का वर्णन करते हुए लिखा है कि - "गाँव विभिन्न जाति में बँटा है। सभी जाति वाले दूसरी जाति से घृणा करते हैं। डॉ. प्रशांत को भी सबसे पहले नाम बताने के बाद जाति बताने के लिए विवश किया जाता है। जाति की यही कुण्ठा डॉ. प्रशांत को जीवन भर सताती है। जाति बहुत बड़ी चीज है।"9
हमारे रूढ़िग्रस्त समाज में अनाथ, असहाय, सुंदर एवं विधवा स्त्रियों की सहायता करने के स्थान पर उनको चुड़ैल की उपाधि दे देना साधारण बात हो गई है। 'मैला आंचल' में विपत्तिग्रस्त, भाग्यहीन पारबती की विधवा माँ अर्थात गणेश की नानी के प्रति सहानुभूति रखना तो दूर लोग उन्हें 'डाइन' शब्द से अपमानित करते हैं। गणेश को जब खून की पेचिश होने लगता है, तब पारबती की माँ उसके लिए दवा लेने डॉ. प्रशांत के पास जाती है तो उस गाँव की स्त्रियाँ कहने लगती है - "पारबती की माँ डाइन है। तीन कुल में एक को भी नहीं छोड़ा। सब को खा गई। पहले भतार को, इसके बाद देवर-देवरानी, बेटा-बेटी सब को खा गई। अब एक नाती है, उसको भी चबा जायेगी।"10 इस पर डॉ. प्रशांत को विश्वास नहीं होता। वह सोचने लगता है - "बुढ़ापे की सुंदरता स्नेह बरसाती है। लेकिन लोग इसे डाइन कहते हैं, आश्चर्य !"11 समाज में अंधविश्वास की जड़ें बहुत मजबूत हैं, इन्हें हटाने के लिए लोगों की मानसिकताओं में परिवर्तन करना होगा। जो वर्तमान ग्रामीण अंचल में पिछड़ी जातियों में अपने अधिकारों के प्रति जागरूकता व सजगता दिखाई देने लगी है। मेरीगंज गाँव के निर्धन मजदूर अब चुपचाप शोषण को सहन नहीं करते हैं। वे विद्रोह करते हैं। इस संदर्भ में तहसीलदार हरगौरी सिंह विश्वनाथ बाबू से कहते हैं - ‘‘कल से ही रामकिरपाल काका के गुहाल में गाय मरी पड़ी है। चमार लोगों ने उठाने से साफ इंकार कर दिया है।...राजपूत टोले के लोगों को देखिए, दाढ़ी कितनी बड़ी-बड़ी हो गई है। नाइयों ने काम करना बंद कर दिया है।’’12 रेणु ने पुछल्ले वर्ग के सामर्थ्य को दर्शाया है। वे उसी के दम पर आगे बढ़ना चाहते हैं। ‘नैना जोगिन’ की रतनी अपने फूहड़ व्यक्तित्व के लिए समाज को ही जिम्मेदार ठहराती है। वह अपने को समाज की ही ऊपज मानती है। रतनी, माधो बाबू के माध्यम से पूरे समाज को चुनौती भरा प्रश्न करती है - ‘‘ बोलिए मैं पापिन हूँ ? मैं अछूत हूँ ? रंडी हूँ ? जो भी हूँ आपकी हवेली में पली हूँ ।’’13
रेणु एक ईमानदार और समय के साथ जीवन जीने वाले रचनाकार हैं। रेणु के साहित्य में ग्रामीण जीवन के प्रति अदम्य आस्था और वहां के सांस्कृतिक सामाजिक परिवेश से रची-बसी संस्कृति का परिचय मिलता है। उनके लेखन में मिट्टी की सोंधी महक, जनतांत्रिक मूल्य, युगीन चेतना तथा जनसंघर्ष की सार्थक अभिव्यक्ति है। उसके साहित्य में मानवीय संवेदनशीलता, मानव संबंधों का उद्घाटन और नए मूल्यों का अन्वेषण दिखाई देती है। रेणु ग्रामीण अंचल में अशिक्षा, संस्कार जन्य रूढ़ियों, अंधविश्वास आदि को दूर करके चेतना की किरण फैलाना चाहते थे, जिससे देश का सच्चा विकास हो सके। उनका सदैव मानना था कि भारत की आत्मा देहातों में निवास करती है। उनके कथा साहित्य में स्थानीयता के आकर्षण के साथ-साथ गतिशील युगीन चेतना की सम्पूर्णता का आकर्षण भी है। उनकी रचनाएँ अपने समय की आवाज बनकर उभरी हैँ। रेणु की रचनाओं में जहाँ सामाजिक अन्याय के खिलाफ शोषितों की चेतना जागृत हो रही है, वहीं दूसरी ओर शोषक वर्ग भी इस जागृति से प्रभावित होकर हथियार डालते हुए प्रतीत हो रहा है। समाज को मानवीय और मनुष्य को सामाजिक बनाना यही वह जीवन-दृष्टि है, जो रेणु के कथा साहित्य के माध्यम से ध्वनित होती है, जिसके मूल में लोक सांस्कृतिक समाज की रचना जो किसी भी राजनीतिक मतवाद पर आधारित नहीं, उनकी अपनी है। रेणु वैचारिक और कार्मिक दोनों स्तरों पर संघर्षशील व्यक्ति थे। इसीलिए उनके जो विचार हैं, वह जीवन के अनुभवों से निकलकर आयी है।
1. फनीश्वरनाथ रेणु, परती परिकथा, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, संस्करण 1963, पृ.सं. 277
सहायक प्राध्यापक हिन्दी, आईएसबीएम विश्वविद्यालय नवापारा छुरा, जिला-गरियाबंद (छ.ग.)
diamondsahu99@gmail.com, 9977004429
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) फणीश्वर नाथ रेणु विशेषांक, अंक-42, जून 2022, UGC Care Listed Issue
अतिथि सम्पादक : मनीष रंजन
सम्पादन सहयोग : प्रवीण कुमार जोशी, मोहम्मद हुसैन डायर, मैना शर्मा और अभिनव सरोवा चित्रांकन : मीनाक्षी झा बनर्जी(पटना)
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