तुलनात्मक साहित्य में अनुवादक की भूमिका एवं प्रासंगिकता
- डॉ. रघुनाथ यादव
शोध सार : विश्व के ग्लोबल गांव
में तब्दील हो जाने के बाद से दुनियाभर के साहित्य को जानने की जिज्ञासा बलवती हुई
है। साहित्य के तुलनात्मक अध्ययन द्वारा वैचारिक साम्य अथवा वैषम्य प्रदर्शित करने
के लिए अनुवादक की भूमिका महत्वपूर्ण हो गई है। वह एक तरह से मध्यस्थ की भूमिका में
है। अनुवादक केवल दो भाषाओं का जानकार ही नहीं होता बल्कि वह भाषाओं के साथ-साथ भौगोलिक, सांस्कृतिक परिवेश से भी अवगत होता है,
जो भावार्थ को समझने में सहायता करता है। प्रस्तुत शोध पत्र में तुलनात्मक साहित्य
में अनुवादक की भूमिका पर विचार करते समय आने वाली कठिनाइयों और उसके समाधान पर प्रकाश
डाला गया है।
बीज शब्द : तुलनात्मक साहित्य, अनुवादक, भाषा, संस्कृति, साहित्य, विचार, भाव।
मूल आलेख : तुलनात्मक साहित्य शब्द अंग्रेजी के ‘कम्परेटिव लिटरेचर’ का ही प्रतिरूप है। अंग्रेज कवि मैथ्यू आर्नल्ड ने सबसे पहले सन् 1848 में अपने एक पत्र में ‘कम्परेटिव लिटरेचर’ पद का उल्लेख किया था। तुलनात्मक साहित्य का आशय है वह विद्या शाखा, जिसमें दो या दो से अधिक भिन्न भाषायी, राष्ट्रीय या सांस्कृतिक समूहों के साहित्य का अध्ययन किया जाता है। दो भाषाओं के साहित्य की तुलना करना इसका मुख्य अंग है। वस्तुतः यह दो या दो से अधिक अलग-अलग भाषा साहित्य को पढ़ने की एक विशेष पद्धति है। तुलनात्मक साहित्य के संबंध में इंद्रनाथ चौधरी लिखते हैं, “हिन्दी में तुलनात्मक साहित्य पर पहली पुस्तक सन् 1982 में मेरे द्वारा लिखित ‘तुलनात्मक साहित्य की भूमिका’ प्रकाशित हुई थी। वस्तुतः बीसवीं शती के छठे दशक में डाः नगेंद्र ने दिल्ली विश्वविद्यालय में एम. ए. हिन्दी के पाठ्यक्रम में ‘काम्पोजिट कोर्स’ के नाम से एक नया विषय समाविष्ट कर हिन्दी में भारतीय साहित्य के अध्यापन का सूत्रपात किया था।”1 विश्वकवि गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर ने सन् 1907 में ‘विश्व साहित्य’ का उल्लेख करते हुए साहित्य के अध्ययन में तुलनात्मक दृष्टि की आवश्यकता पर बल दिया। वहीं “सन् 1908 में ‘तिरुवाचकम’ तथा ‘नालडियार’ के अनुवाद की भूमिका में जी. यू. पोप ने तमिल भाषा-भाषी विद्वानों से यह आग्रह किया था कि तमिल के इन ग्रंथों के वास्तविक आस्वाद के लिए अंग्रेजी में लिखित धार्मिक कविताओं से परिचित होना जरूरी है। क्योंकि कोई भी साहित्य अपने-आप अलग अस्तित्व बनाकर टिक नहीं सकता।” 2 दो भाषाओं के साहित्य की तुलना के लिए स्त्रोत और लक्ष्य भाषा का ज्ञान होना जरूरी है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए जादवपुर विश्वविद्यालय में सन् 1956 में तुलनात्मक विभाग की स्थापना हुई। साहित्यिक अध्ययन में दो पक्ष होते हैं एक कलात्मक और दूसरा समाज-सांस्कृतिक संदर्भ। दुनिया के देशों की सामाजिक संरचना के अनुसार उनकी संस्कृतियाँ भी भिन्न हैं। वहाँ के साहित्य में भाषा के माध्यम से समाज और संस्कृति प्रतिबिंबित होती हैं। दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा का उच्च शिक्षा शोध संस्थान पहला विश्वविद्यालय था, जहाँ एम. ए. हिन्दी के पाठ्यक्रम में ‘तुलनात्मक साहित्य’ को स्थान दिया गया। “बहुसंस्कृतिवाद तथा सांस्कृतिक अध्ययन के लिए विभिन्न भाषाओं के साहित्य के अनुवाद की आवश्यकता है और उच्च शिक्षा में इन अनुवादों के प्रयोग के लिए तुलनात्मक साहित्य का ज्ञान नितांत जरूरी है। विशेष रूप से भूमंडलीकरण के इस युग में विभिन्न भाषाओं और संस्कृति के विनियोजन, समांगीकरण और सहयोजन के चलते यह और भी अधिक आवश्यक हो गया है कि अंग्रेजी भाषा और पश्चिमी संस्कृति के वर्चस्व को तोड़कर अर्थात भूमंडलीय एक प्रस्तरीय दृष्टि को नकारकर एक नये तुलनात्मक साहित्य की रचना की जाए।” 3 इंद्रनाथ चौधरी ने अपनी पुस्तक के सिद्धांत विवेचन के अंतर्गत कई अध्यायों में अनुवाद सिद्धांत का विस्तार से विवेचन किया है। वे लिखते हैं कि, “आखिरकार अनुवाद ही इस अनुशासन की आधारपीठिका है और आज के संदर्भ में संस्कृति अध्ययन के लिए अनुवाद ने एक बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान बना लिया है।” 4
विवेचन : तुलनात्मक साहित्य में तुलनाकार जब तुलना करता है, तब उसे दोनों साहित्यिक भाषाओं के ज्ञान होने के साथ-साथ अनुवादक की भूमिका भी निभानी पड़ती है। अनुवाद संप्रेषण का सशक्त साधन सिद्ध हुआ है। “अनुवाद की वजह से भाषाएं समृद्ध हो रही हैं। किसी रचना का अनुवाद किसी दूसरी भाषा में हो जाता है तो वह रचना अधिक पाठकों तक पहुंचती है। अनुवाद के बल पर रचनाओं का भौगोलिक विस्तार हो जाता है और उक्त भाषा की महत्ता का बोध अन्य क्षेत्र के लोग अनुभव करने लगते हैं। बंगाल के दो लेखक विश्वकवि गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर तथा शरतचंद्र चट्टोपाध्याय एवं ऐसे अनेक लेखक अनुवाद के बल पर सारे भारतवर्ष में ही नहीं, विश्व के प्रिय हो गए। उन्हें पढ़कर अन्य लेखकों को अपनी-अपनी भाषा में चिंतन करने की प्रेरणा मिली।” 5 इस दृष्टि से तुलनात्मक साहित्य में अनुवादक की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है। भारत जैसे बहुभाषिक राष्ट्र में अनुवाद अपना अलग महत्व रखता है। अनुवाद के माध्यम से पाठक केवल परिवेश से ही नहीं लेखक की मूलचेतना से जुड़ना चाहता है। ऐसे में अनुवादक की भूमिका बड़ी मुश्किल हो जाती है। नीत्शे का कहना है कि भाषा तत्व को जानती है, व्यक्ति को नहीं। इसका अर्थ है भाषा के आगे व्यक्ति का महत्व गौण हो जाता है। भाषा के आगे लेखक भी लाचार है। ऐसे में अनुवादक की स्थिति क्या हो सकी है? एक-दूसरा सवाल यह भी बना रहता है कि एक व्यक्ति कितनी भाषाएं जान सकता है? यहां भाषा का मतलब केवल लिपि से नहीं बल्कि सांस्कृतिक प्रतीक के रूप में समझना है। कोई व्यक्ति जब किसी भाषा को जानने का दावा करता है तब वह उस भाषा-भाषी संस्कृति की हर बारीकियों को जानने का दावा करता है। लेखक दरअसल यही काम करता है। वह भाषा के जरिये संस्कृति को पाठक के सामने इस तरह से प्रस्तुत करता है कि पाठक उस प्रदेश की सांस्कृतिक चेतना को पहचान जाता है। यह काम लेखक के लिए भी आसान नहीं है। तब अनुवादक के लिए कितना कठिन हो सकता है, हम समझ सकते हैं। अनुवाद के समय अनुवादक को अलग-अलग प्रकार की भूमिकाएं निभाना पड़ता है। उसे अनेक बातों का ध्यान रखना पड़ता है। जहाँ शब्दानुवाद नहीं हो पाता, वहाँ उसे खासतौर से काव्य के क्षेत्र में भावानुवाद से काम लेना पड़ता है। जब कोई कृति को वह हाथ में लेता है, तब वह उसे एक पाठक की तरह पढ़ता है, उसके सांस्कृतिक मूल्यों को पहचानता है, उसके प्रतीकार्थों को पहचानकर अर्थग्रहण करता है और अंत में उसे कथ्य भाषा में अनुदित या पुर्नस्थापित करता है।
लेखक के कार्य से अनुवादक का कार्य कुछ अलग और विशेष उत्तरदायित्वपूर्ण होता है, जहाँ लेखक स्वतंत्र रूप से सोचता हुआ अपने विचारों और भावों को प्रकट करता है। वहीं अनुवादक को कभी-कभी लेखक के विचारों से असहमत होने पर भी उसे उनके विचारों को प्रकट करना पड़ता है।
अनुवादक को कृतिकार और कृति की मूल चेतना से सदैव जुड़े रहना होता है। ऐसा नहीं है कि अनुवादक ने किसी कृति का अनुवाद संपन्न कर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ ली। उसे पाठक को भी उस स्तर पर लाने का दायित्व निर्वहण करना पड़ता है। तुलनाकार अनुवाद के द्वारा पाठक को दोनों रचनाओं के साम्य और वैषम्य से अवगत कराकर दोहरी रसानुभूति से जोड़ना है। दो भाषाओं में जो तात्विक अलगाव रहता है, वह पाठक को ध्यान में नहीं आता, लेकिन अनुवादक उस अंतर को पहचान लेता है। हर भाषा में शब्द, अर्थ अपने परिवेश और प्रकरण आदि के अनुसार अलग-अलग हो सकते हैं। इसलिए अनुवादक को दोनों भाषाओं का व्याकरण, संरचना, कहावतें, मुहावरें, शब्दों के अर्थ आदि का ज्ञान हो वरना अर्थ का अनर्थ हो सकता है। वस्तुतः “श्रेष्ठ अनुवादक को मूल भाषा और लक्ष्य भाषा पर समान अधिकार होना जरूरी है, इसमें भी लक्ष्य भाषा पर अधिक। श्रेष्ठ अनुवादक की यह भी कसौटी है कि वह परावलंबी नहीं होना चाहिए। अनुवादक को मूल कृति से पूरा न्याय करना चाहिए। काव्यानुवाद में और सांस्कृतिकता लिए हुए शब्दों के अनुवाद में कठिनाई उपस्थित होती है। उदाहरण के लिए ‘प्रेमचंद के लिए गणित गौरीशंकर था’ का अनुवाद Mathematics was very tough subject for Premchand योग्य है, लेकिन गौरीशंकर की अर्थच्छाया very tough में पूरी तरह से व्यक्त नहीं होती है।” 6 इस प्रकार तुलनाकार को द्विभाषी ही नहीं, द्विसांस्कृतिक भी बनना होगा। “संपूर्ण सांस्कृतिक जानकारी प्राप्त करना तुलनाकार के लिए असंभव है, फिर भी अनुवादक के अभ्यास में उसे दोनों कृति की सांस्कृतिक भूमिका से परिचित होना जरूरी है।” 7 मूल कृति अगर भाषा कर्म पर अवलंबित होगी तो उसका अनुवाद अधिक चुनौतीपूर्ण प्रतीत होगा। लेखक भाषा का जितना अधिक रचनात्मक इस्तेमाल करेगा, अनुवाद उतना ही दुष्टकर होगा। कविता एवं अन्य रचनात्मक साहित्य की तुलना में अनुवादक को खुद की गुंजाइश से पार उतरना है। यह काम कठिन अवश्य है, लेकिन अनिवार्य भी है। जान फ्लेचर ने ठीक ही कहा है, “संस्कृति के महालय में अनुवाद एक सर्वव्यापक तत्व है।”8 अनुवादक स्वयं एक अर्थगठन है, एक ऐसी रचनात्मक प्रक्रिया है, जिसमें अनुवाद को लेखक के विश्व में पुनः प्रवेश करना होता है। यह बात कभी-कभी उसके ध्यान से हट जाती है। इसका अर्थ ऐसा नहीं है कि उस मूलपाठ से निष्ठा बनी रहने की चिंता न हो। अनुवादक की अपनी एक मर्यादा भी होती है कि वह मूल रचना को ठीक उसी रूप में रख नहीं पाता। इसका मूल कारण यह है कि एक अनुवादक की अपनी शैली होती है जो उसको प्रतिभा एवं युगचेतना से प्रभावित करती है और दूसरा मूलभाषा और लक्ष्य भाषा का अर्थ और स्वरूप की संरचना शायद समान हो, किंतु वही तो कभी नहीं होती। ऐसी स्थिति में अनुवाद समरूप न होकर समतुल्य बना रहता है। जैसे अंग्रेजी में हम कहते हैं She with me यहाँ She अंग्रेजी में नारी का सूचक है। हिन्दी में इसका अनुवाद होगा ‘वह मेरे साथ है ’ यहां वह में स्त्री या पुरुष भी हो सकता है। अतः वह शब्द से मूल अर्थ प्रकट नहीं होता।
निष्कर्ष: आज अनुवाद मानव समाज में ज्ञान विज्ञान के क्षेत्र में सेतु की भूमिका अदा कर रहा है। अनुवादक की उपादेयता जीवन के हर क्षेत्र में असंदिग्ध है। तुलनात्मक साहित्य के अध्ययन में तुलनाकार को अनुवादक की भूमिका निभाते समय अनेक कठिनाइयों का सामना करते हुए अनुवाद को सफलता के स्तर पर पहुंचाना पड़ता है। तुलनात्मक साहित्य में अनुवाद में आने वाली समस्या को अनुवादक हल करने का प्रयास करता है। तुलनात्मक साहित्य में अनुवादक को अनुवाद का संधान करने में अहम भूमिका निभाना पड़ता है। आधुनिक युग में अनुवाद की महत्ता भूमंडलीकरण के विकास के साथ ही अधिक व्यापक हुई है। विश्व की संस्कृति को हम अनुवाद के माध्यम से आसानी से समझ सकते हैं। ऐसे में अनुवादक की भूमिका को अनदेखा नही किया जा सकता है। अनुवादक का कौशल ही दो संस्कृतियों अथवा दो भाषाओं के बीच पुल बनकर भाषा की बाधा को दूर करता है। अत: अनुवाद के क्षेत्र में अनुवादक की भूमिका एवं प्रासंगिकता महत्वपूर्ण है।
संदर्भ :
2. वही, आमुख 8
3. वही, आमुख 9
4. वही, आमुख 10
5. तुलनात्मक साहित्यः सिद्धात और विनियोग, डॉ. प्रसाद ब्रह्मभट्ट, यूनिवर्सिटी ग्रंथ निर्माण बोर्ड, गांधीनगर, पृ. 56
6. तुलनात्मक साहित्य भारतीय भाषाएं और साहित्य, संपादक: डॉ. राजूरकर, डॉ. राजकमल बोरा, वाणी प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली, पृ. 22
7. तुलनात्मक साहित्य: भारतीय संदर्भ, अनुवादक, संपादक डॉ. चैतन्य जसवंतराय देसाई, यूनिवर्सिटी ग्रंथ निर्माण बोर्ड, गांधीनगर पृ. 107
8. तुलनात्मक माहित्य: सिद्धांत और विनियोग, डॉ. प्रसाद ब्रह्मभट्ट, यूनिवर्सिटी ग्रंथ निर्माण बोर्ड, गांधीनगर, पृ. 89
डॉ. रघुनाथ यादव
हिन्दी विभाग, तिनसुकिया महाविद्यालय
dryadavraghunath@gmail.com, 9435019791
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-41, अप्रैल-जून 2022 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक एवं जितेन्द्र यादव, चित्रांकन : सत्या कुमारी (पटना)
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