- कुलदीप उपाध्याय
शोध सार : रेणु ग्रामीण जीवन के यथार्थ के कहानीकार हैं। वे ग्रामीण जीवन में टूटते बिखरते और जीवित मानवीय सम्बंधों के कथाकार हैं। अपनी कहानियों में वे मानवीयता का विकास सामान्य जन के जीवन में देखते हैं और मनुष्य विरोधी शक्तियों के रूप में सामंत वर्ग और उसकी सामाजिक मान्यताओं को दिखाते हैं। वे अपनी कहानियों के मार्फ़त सामाजिक संरचना में व्याप्त भेद यथा वर्ग-भेद, वर्ण-भेद, लिंग-भेद का यथार्थांकन करते हुए जर्जर रूढ़ियों, शोषण-दमन युक्त सामाजिक नियमों, और वर्चस्व को बढ़ावा देने वाली प्रत्याशाओं से बढ़ रहे सामाजिक अवमूल्यन को सामने रखते हैं।
बीज शब्द : संस्कृति, आंचलिकता, ग्रामीण, संवेदना, लोक, स्थानीयता, विसंगतियाँ।
मूल आलेख : आजाद भारत के पूर्वोत्तर गाँवों की सोंधी महक को अपने साहित्य में संजोने वाले फणीश्वरनाथ रेणु को आलोचकों ने न सिर्फ 'आंचलिकता' का जामा पहनाया। वरन उन्हें आंचलिक कथाकार कहकर साहित्य के एक पृथक कम्पार्टमेंट में डाल दिया। परंतु रेणु के कथासाहित्य को सजग दृष्टि से अवलोकित करने पर, उसमें बहती जीवनधारा ऐसे कैनवास का सृजन करती है, जिसमें आंचलिकता बिंदु मात्र प्रतीत होती है। संस्कृतियों के समुच्चय को समुन्नयन मानने वाले रेणु गाँवों में राष्ट्र को रूपायित करते हैं, और मानवीय संवेदना को नैसर्गिकता के बरक्स सामाजिक अनुशीलन पर आरोपित करते हैं।
रेणु की कहानियाँ पात्रों के मनोविज्ञान के बजाय उनके सामाजिक संस्कारों को अधिक, तरजीह देती हुई प्रतीत होती हैं। मुहावरे, लोकोक्तियाँ, साहित्यिक सूक्तियाँ अनायास ही उनकी कहानी में नहीं आती हैं, उनमें गहरा इतिहासबोध है, यथातथ्यवाद की अपेक्षा उत्तरदायी संघटकों की तलाश है। इनमें सहज सम्प्रेषणीयता के साथ-साथ ऐतिहासिक संरचना की अनेक संवेदनाएँ मौजूद होती हैं। इतिहास, व्यक्ति और समाज संस्कृति के प्रमुख संघटक हैं, जिसमें सर्वाधिक गतिशील है- व्यक्ति, सर्वाधिक प्रभावी है- समाज, और पृष्ठभूमि में है- इतिहास। सांस्कृतिक हलचल कैसी होगी, इसका निर्धारण इनकी सापेक्ष गतिशीलता पर निर्भर होती है। रेणु अपनी अधिकांश कहानियों में ग्राम्य परिवेश का चयन करते हैं, जिसमें एक तरफ वृद्ध सांस्कृतिक विरासत तो दूसरी तरफ जिजीविषा के भाव-अभाव का पात्रानुकूल चित्रण है।
1. सामाजिक मानक – रूढ़ि, नियम जिससे कोई समाज विशेष संचालित होता है।
2. आदर्श – प्रेरक व्यक्ति, वस्तु, घटना जिसका अनुकरण किसी समाज विशेष का अभीष्ट होता है।
3. प्रत्याशाएँ – समाज, व्यक्ति विशेष से यह उम्मीद करता है कि वह उसके नियमों, रुढ़ियों के अनुकूल आचरण करें।
कुछ मानक ,आदर्श, प्रत्याशाएँ विषमता, पूर्वाग्रह, आडम्बर, अंधविश्वास का नित्य सृजन करती रहती हैं, इन्हीं प्रतिगामी ताकतों से सामाजिक विषमता, दुर्भावनाएँ, कुप्रथाएँ आदि संचालित होती हैं और सांस्कृतिक अवमूल्यन पैदा करती हैं।
रेणु की कहानियों में अभिव्यक्त ग्राम्य जीवन का परिवेश महज ग्राम्य जीवन का खालिस चित्रण मात्र नहीं है वरन रेणु अपनी कहानियों में “अहा ग्राम्य जीवन क्या है!” के भाव से ऊपर उठकर समाज में व्याप्त समस्यायों, विषमताओं के कारण-कार्य प्रभाव को भी दिखलाते हैं। सामाजिक संरचना में व्याप्त भेद यथा वर्ग-भेद, वर्ण-भेद, लिंग-भेद का यथार्थांकन करते हुए जर्जर रूढ़ियों, शोषण-दमन युक्त सामाजिक नियमों, और वर्चस्व को बढ़ावा देने वाली प्रत्याशाओं से बढ़ रहे सामाजिक अवमूल्यन का सार्थक चित्रण करते हैं।
अब बात करते हैं,
रेणु की कहानियों की; रेणु की पहली कहानी "बट बाबा" विश्वामित्र साप्ताहिक (कलकत्ता 27 अगस्त 1943) में प्रकाशित होती है। इस कहानी में एक बूढ़ा बरगद का पेड़ लोक आस्था का केंद्र रहता है, जिसे जमींदार कटवा देता है। इसी कहानी में एक दृश्य आता है- "निरधन साहु की बेटी 'लछमनिया' रो आयी थी -"बटबाबा! गाँव-मुहल्ला, टोला-पड़ोस तथा जाति बिरादरी के लोग हँस रहे हैं। मैं इतनी बड़ी हो गयी, कोई दूल्हे का बाप एक हजार से नीचे तिलक की बात ही नहीं करता है। बाबू और घर की दशा तुमसे छिपी नहीं है। दुनिया के लिए तुम सूख गए हो, पर तुम्हारा परताप तो नहीं सूखा है। बाबा! यदि किसी दूल्हे के बाप का मन फेर दो, तो मैं आठ आने की मिठाई, सवा हाथ लंगोट और प्रत्येक रविवार को दिया और नयी बत्ती जला दूँ ।"1 इस कहानी में यह दिखाया गया है कि आस्था जब रूढ़ हो जाती है, तो वही धीरे-धीरे अंधविश्वास का रूप ग्रहण कर लेती है, साथ ही दहेज जैसी कुप्रथा को भी दिखाया गया है, जो वैवाहिक संस्था पर प्रश्नचिह्न खड़ा करती है।
रेणु की कहानी "रसप्रिया" [विकल (1955),
ठुमरी में संकलित] में सांस्कृतिक अवमूल्यन का विकृत रूप सामने आता है। रसप्रिया का पात्र पँचकौड़ी, कलाकार (मृदंग वादक) रहता है, जो समाज उपेक्षित है, जिसे मिरदंगिया" नाम दिया गया है, एक बच्चा (मोहना) जो चरवाहा रहता है, उसके प्रति वात्सल्य जाग्रत होता है, किंतु उसे वह बेटा कहते-कहते रुक जाता है -"....परमान पुर में उस बार एक ब्राह्मण के लड़के को उसने प्यार से बेटा कह दिया था। सारे गाँव के लड़को ने उसे घेरकर मारपीट की तैयारी की थी --बहरदार होकर ब्राह्मण के बच्चे को बेटा कहेगा ? मारो साले बुड्ढ़े को घेरकर ! मृदंग-- फोड़ दो।"2 यह कहानी है- रसप्रिया को जनप्रिया बनाने वाले पँचकौड़ी की, और पँचकौडी के मिरदँगिया बनाए जाने की। कला के उपासक, श्रमशील वर्ग की स्थिति के अवमूल्यन को दिखाती यह कहानी समाज के सांस्कृतिक अवमूल्यन को प्रदर्शित करती है।
"अनभै साँचा" में डा० मैनेजर पाण्डेय कहते हैं- “जिस समाज में मानवीयता का दमन होता है, वहाँ समाज विरोधी मनुष्य बढ़ते हैं, और जो शक्तियाँ मानवीयता का दमन करती हैं, वही समाज विरोधी मनुष्यों को बढ़ावा देती हैं। रेणु ऐसी समाज व्यवस्था और शक्तियों का असली रूप सामने लाते हैं। वे जनजीवन की मानवीयता का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत लोक-संस्कृति को मानते हैं और लोकसंस्कृति में मानवीयता के विकास की सम्भावनाएँ देखते हैं।”3
रेणु की बहुचर्चित कहानी 'तीसरी कसम, मारे गए गुलफाम " में स्त्री-चरित्र के सांस्कृतिक ह्रास का स्पष्ट रूप से अंकन हुआ है। कहानी में अंकित "महुआ घटवारिन की कथा" कहानी का एक उपादेय है। महुआ का बाप दारू-ताड़ी पीकर दिन-रात बेहोश पड़ा रहता। उसकी सौतेली माँ साक्षात राकसनी | महुआ सौदागर के हाथों बेच दी जाती है, हीरामन प्रचलित गीत गाता है -
नोनवा चटाई काहे नाहिं मारल सौरी-घर-अ-अ ।
एहि दिनवाँ खातिर छिनरो धिया
तेंहुँ पोसलि कि नेनू-दूध उटगन...।”4
ये महुआ की ही नहीं,
समस्त स्त्री जाति की चीख है। पंकज सुबीर की लोकप्रिय कहानी "महुआ घटवारिन" जो 19 वें कथा यूके अवार्ड से सम्मानित है, रेणु की इसी अन्तर्कथा की उपज है। ये लोककथाएँ, लोकगीत स्त्री-मूल्यों के सांस्कृतिक अवमूल्यन को प्रदर्शित करती हैं, इनमें एक करुण वेदना है, जो व्यवस्था की विषमता की उपज है, ऐसे कई गीत लोक में प्रचलित हैं, खुसरो की "काहे को ब्याहे बिदेस, अरे, लखिया बाबुल मोरे..."
जैसे गीत उनमें से एक हैं। 'तीसरी कसम' कहानी में हीरामन और हीराबाई" के मध्य का आलाप- वार्तालाप लोक संस्कृति के मानवीयता को दिखाता है तो दूसरी ओर "हीराबाई" पर कसी गई फब्तियाँ, बातों द्वारा उसका चरित्र हनन किया जाना स्त्री-मूल्यों के अवमूल्यन का द्योतक है।
रेणु की कहानी "लाल पान की बेगम "[ कहानी पत्रिका (जनवरी 1957),
ठुमरी में संकलित ] ग्राम्य परिवेश के खाके में आकांक्षाओं, रिक्तियों और पूर्तियों के अनुसार बदलते मानवीय भावरंगों को भरती है।
“क्यों बिरजू की माँ नाच देखने नहीं जाएगी क्या?”5 मखनी फुआ के पूछने पर बिरजू की माँ का जवाब- "बिरजू की माँ के आगे नाथ और पीछे पगहिया न हो तब न फुआ ।”6 'दमनशील संस्कृति को वहनशील संस्कृति में परिवर्तन को दिखाता है किंतु यह मुहावरा "न आगे नाथ न पीछे पगहा" गुलाम वृत्ति को पुष्ट करता है। सुदामा पाण्डेय " धूमिल" की ये पंक्तियां याद आती है - "लोहे की कीमत लुहार से नहीं, उस घोड़े से पूछो, जिसके मुँह में लगाम लगा हुआ हो।" बाइस्कोप के गाने के लिए चम्पिया को हरजाई कहना, दस साल की चम्पियां के उठने बैठने में खोट निकालना, यह पितृसत्तात्मक समाज-व्यवस्था की उपज है, लड़का-लड़की में भेद करना, भ्रूण हत्या, उठने-बैठने-चलने का खास लड़कियों वाला स्टेप सिखाना, मानवीय मूल्यों का हनन है; यह एक प्रकार से सांस्कृतिक अवमूल्यन की उपज है। कहानी में दिखाया गया है कि बिरजू की माँ की आकांक्षा पूर्ण होने पर उसका व्यवहार कटु से मृदु बन जाता है यह ग्राम्य-परिवेश की मानवीय सरलता है, वह अपने बैलगाड़ी में जंगी की पतोहू ,सुनरी और लरेना की बीवी को भी बलरामपुर का नाच दिखाने ले जाती है, और "लाल-पान की बेगम " बन जाती है। कहानी का शीर्षक "लाल पान की बेगम" क्यों है? इसकी जानकारी हमें रेणु की दूसरी कहानियों में मिलती है, जिसमें ‘टौंटी नैन का खेल’ [ राष्ट्र संदेश (अप्रै. 1953), अच्छे आदमी में संकलित] नामक कहानी प्रमुख है।
"टौटी नैन का खेल” कहानी मुहावरे, लोकोक्तियों, साहित्यिक सूक्तियों में रचे-बसे सामाजिक संस्कार के तलाश की कहानी है। कहानी की शुरुआत सीप्रसाद बाबू की बेटी के "वरछकाई" से होता है, लड़का "सुमरचन्ना" निठल्ला है, जो दिन भर ताश के अड्डे पर डटा रहता है। "चिड़िया का गुलाम किसका है? रंग और काटो।" चिडिया का गुलाम लाल पान की बीवी से कट गया और खेल खत्म। खेल में अब किसी का जी नहीं लग रहा है, सुमरचन्ना तेज हो गया, खेल में जी कैसे लगे?”7 कहानी में आगे रेणु सुमरचन्ना का व्यंग्यात्मक चित्रण करते हुए कहते हैं- "सुमरचन्ना मिडिल पास भी नहीं लेकिन रमैन और महाभारथ और कीरतन में उससे कोई पार नहीं पा सकता है। जब कीर्तन में ''झाँखी' गाने के समय पैर में झुनकी बाँधकर ‘झाँखी जुगल मोहनिया हो राम’ गाता है, तो सुनने वालों के आँखो से प्रेम के आँसू झरने लगते हैं।"8 लड़की के दादा लामलरैन बाबू पक्के धार्मिक भक्त है। कहानी में रेणु लिखते हैं -“इसीलिए दादा ने उसका नाम रखा है- आरती। माँ कहती है- अर्ती! बूढ़े लामलरैन बांबू ने आरती की शादी किसी भगवान भक्त से ही करने की प्रतिज्ञा की थी। पूरा भक्त, कण्ठधारी वैष्णव हो, भले ही गरीब हो, अपढ़ हो, लेकिन अपनी ही जाति का हो। आरती सतरहवाँ पार कर चुकी, लेकिन उसके जोग वर नहीं मिल रहा था। पढ़ाई लिखाई की बात होती तो आजकल एमे बीए की भी कमी नहीं थी, लेकिन वैष्णव, भगवान का असली भक्त, कण्ठीधारी कहाँ मिले ? मुर्गी के अण्डे खाने वालों की बात रहती तो एक बात भी थी। बस ढालगंज, नवकुंज में लामलरैन बाबू को आरती के जोग वर मिल गया। .. स्वजाति का, भक्त, वैष्णव और कण्ठीधारी सुमरचन्ना !”9
कहानी आगे नया मोड़ लेती है;
सीप्रसाद बाबू के यहाँ सोशलिस्ट पार्टी के 'लाल पताका' के सम्पादक ‘चिंगारी’ जी आए थे, एकदम नास्तिक। हरदम मुँह में सिगरेट और आँख पर चश्मा। रेणु लिखते हैं- "शाम को जब उन्होंने आरती देवी का भजन कीर्तन सुना तो उनकी आँखे एकदम खुल गई। प्रेम- विह्वल नारी, गोरा शरीर, सुडौल मुखमण्डल, और गेरुआ वस्त्र में लिपटी हुई पवित्र जवानी ! बस उसी क्षण भगवान भक्त हो गए।.. लेकिन लोग जो कहते हैं कि आरती देवी से उनका....हो गया था, सो झूठी बात है। सुनी हुई बात दूनी होती है।"10 चिंगारी जी, अब चंदन जी हो गए और कीरतनिया समाज के गवैया बन गए हैं। इधर, बारात की तैयारियाँ चल रही होती हैं, लामलरैन बाबू बड़े- बड़े कीरतनिया समाज को निमंत्रित करते हैं, चंदन जी भी आते हैं और गाते हैं -
अरे नैनों को दर्शन सुख दे दो
मिटे हृदय की साध
दरश बिनु है बेकार आ मेरो..."11
“मेरे मानस की मीरा ! ..तुम जिसके गले में जयमाला डालने वाली हो, वह एकदम निपट गंवार है। बात करने का ढंग नहीं। सिर्फ गला सुरीला है। कीरतन गाता है, मगर पुराने जमाने का । पढ़ा लिखा बहुत कम है। शायद लोअर पास भी नहीं। सीप्रसाद बाबू भी कैसे हैं, उन्होंने खुद जाकर क्यों नहीं देखा ? लड़का तो एक दम चिड़ी का गुलाम है। …
चंदन तेरा दास
करो मत मुझको प्रिय निराश " 12
इधर बारात आती है,
लड़की की माँ, दूल्हे को देखकर निराश हो जाती है, बूढे लामलरैन बाबू, आरती देवी की माँ को समझा रहे हैं, गुस्से में उनकी पोपले मुंह की बोली ठीक अंग्रेजी की तरह सुनाई पड़ती है - "छिवई की छाजी में भी गौई की माई इछी लयह ओची छी! किछि अम्मयमी, मुगीखाय, चे छाजी होची चो बहुत अच्छा। छें ? भगवाँय का भगच कभी छुजय नहीं होगा। छुजय छईया किछ काम का? हंउमानजी। अर्थात.. वर अधरमी और मुर्गीखोर नहीं। भगवान का भक्तसुंदर नहीं होता। हनुमान जी सुंदर थे ? सुंदर शरीर किस काम का?”13 शादी के मण्डप में जाते समय आरती चंदन जी के खत में लिखे "चिड़ी के गुलाम” को सोचते -सोचते बेहोश हो जाती है। "सुमरचन्ना के बहरे बाप ने हल्ला मचाना शुरू किया-"हम जानते थे। लड़की को मिरगी की बीमारी है। हम लोगों को गरीब जान खूब उल्लू बना रहे थे। अरे बाबू! हमारे खानदान में कभी मिरगी नहीं हुई। चल रे सुमरचन्ना !"14 कहानी में आगे उसी रात चंदन आरती को लेकर "चक्का पार" कर जाते हैं।
कहानी का अतिम अंश कुछ इस प्रकार है- "गाँव के निठल्लों का ताश का अड्डा गुलजार है।...सुमरचन्ना को सभी चिड़िया का गुलाम कहकर चिढ़ाते है--- "रंग और करो रे!" लाल पान की बीबी से चिड़िया का गुलाम काट लिया जाता है। जीतने वाले खुशी से ताली पीटते हैं।– टौंटी नैन का खेल जारी रहता है।"15 इस कहानी में स्पष्टतः स्त्री के सांस्कृतिक अवमूल्यन के साथ-साथ धर्म-पाखंड संस्कार से बढ़ती बेरोजगारी का चित्रण किया गया है। बेरोजगारी बढ़ाने में, अव्यवस्था में, सरकार के साथ-साथ सामाजिक संस्कारों की भी महती भूमिका है।
"पंचलाइट" कहानी [सुप्रभात (जन-फर 1958) ठुमरी में संकलित] में जातिगत - विषमता और अशिक्षा को समाज-उन्नति में सर्वाधिक बाधक तत्वों के रूप में दर्शाया गया है। "हरेक जाति की अलग- अलग समाचट्टी है।"16 यह जातिगत -विषमता को दर्शाता है। महतो टोली में जब पंचलाइट आ जाती है और उसे जलाना कोई नहीं जानता, तो दूसरी जाति के टोली वाले सहायता करने के बजाए, उनका उपहास करते हैं; ये प्रतिगामी शक्तियों के रूप में उभरकर सामने आते हैं- "एक नौजवान ने आकर सूचना भी दी- राजपूतटोली के लोग हँसते-हँसते पागल हो रहे हैं। कहते हैं, कान पकड़कर पंचलैट के सामने पाँच-बार उठो बैठो, तुरंत जलने लगेगा"17
रेणु की "संवदिया कहानी" [ सारिका (1962),
एक श्रावणी दोपहर की धूप में संकलित ] कहानी में धन- लोलुपता और स्वार्थ परकता से पनपते पारिवारिक विघटन को तथा साथ ही साथ ही विधवा समस्या को दर्शाया गया है। समाज का विधवा के साथ रवैया, मानवीय संवेदना को तार-तार करता है। बड़ी हवेली की बड़ी बहुरिया; संवदिया (संवाद पहुंचाने वाला) हरगोविंद को बुलाती हैं, डाकघर होते हुए संवदिया को बुलावा भेजना संवदिया को एक बार अचंभित करता है। बड़ी बहुरिया अब विधवा हो चुकी है: "भगवान् भले आदमी को ही कष्ट देते हैं। नहीं तो एक घण्टे की बीमारी में बड़े भैया क्यों मरते? बड़ी बहुरिया के देह से जेवर खींच-छीनकर बँटवारे की लीला हुई थी, हरगोबिन ने देखी है, अपनी आँखों से द्रौपदी चीर हरण लीला! बनारसी साड़ी को तीन टुकड़े करके बँटवारा किया था, निर्दय भाइयों ने। बेचारी बड़ी बहुरिया।”18 बड़ी बहुरिया के देवर-देवरानी शहर में जाकर बस गए हैं, समय-समय पर आकर चावल, आम आदि ले जाते हैं, इधर बड़ी बहुरिया को पेट चालना दूभर हो रहा है। बड़ी बहुरिया, संवदिया से कहती है:- "माँ से कहना मैं भाई-भाभियों की नौकरी करके पेट पाल लूंगी। बच्चों की जूठन खाकर एक कोने में पड़ी रहूंगी। लेकिन यहाँ, अब नहीं...अब नहीं रह सकूँगी। कहना यदि माँ, मुझे यहाँ से नहीं ले जाएगी तो मैं किसी दिन गले में घड़ा बाँधकर पोखरे में डूब जाऊँगी। बथुआ साग खाकर कब तक जिऊँ ? किसलिए-- किस के लिए।”19 संवदिया कहानी में एक गीत आता है -
नैहर को सुख सपन भयो अब,
इस कहानी में यह दिखाया गया है कि इस समाज में एक विधवा का जीवन कैसा होता है, और इसके इस वैधव्य को करम की गति कहकर उसे शाश्वत झेलने पर मजबूर किया जाता है। बड़ी बहू के इस प्रकार से संवदिया से संलाप मात्र उसके गरीबी के कारण ही नहीं, वरन नेपथ्य में कई विषमपूर्ण दमनकारी शक्तियाँ उसके ऊपर कार्यरत हैं।
रेणु की कहानी "ठेस" [ठुमरी में संकलित] में "सिरचन" एक आत्मस्वाभिमानी कलाकार रहता है, किंतु उसके इस स्वाभिमान को अपने को सम्भ्रांत मानने वाला वर्ग सदैव कुचलने को तैयार रहता है। रेणु, इस कहानी में पात्र का चरित्र चित्रण करते हुए कहते हैं-
"बिना मजदूरी के पेट - भर भात पर काम करने वाला कारीगर! दूध में कोई मिठाई न मिले तो कोई बात नहीं किंतु बात में वह जरा भी झाल बर्दाश्त नहीं कर सकता।"21 मानू के ससुराल वाले दहेज में तीन जोड़ी फैशनेबल चिक और पटेर की दो शीतलपार्टियाँ माँगते हैं, इसे बनाने के लिए मानू की माँ, सिरचन को काम पर रखती है। एक दिन सिरचन जब काम पर था, मानू की माँ रसोई घर से अपने मंझली बहू को सिरचन को बूँदियाँ देने के लिए कहती है। मंझली बहू मुट्ठी भर बूँदियाँ सूप में फेंककर चली जाती है। सिरचन पानी पीकर कहता है- “मँझली बहुरानी अपने मैके से आयी हुई मिठाई भी इस तरह हाथ खोलकर बाँटती हैं क्या?”22 सिरचन यह तब कहता है जब उसे मंझली बहू का बूँदियाँ देने का व्यवहार अच्छा नहीं लगता। परंतु इसी पर बार-बार उसे फब्तियाँ सुननी पड़ती है, जो जातिविषयक होती हैं.. असह्य होती हैं-“छोटी जाति के आदमी का मुँह भी छोटा होता है। मुँह लगाने पर सिर पर चढ़ेगा ही ।”23
कलाकार के दिल पर "ठेस" लगती है, वह काम छोड़कर चला जाता है; यह अपमान उसे एक बार नहीं, अपने जीवनकाल में बार-बार सहना पड़ा होगा। वर्ण-व्यवस्था से पनपती यह ऐसी कई गालियाँ समाज को नित्य पतनशील बनाती है। यद्यपि "सिरचन" सहृदय था, वह अपने घर मानू के लिए सामान तैयार करता है, और मानू जब ससुराल जाने के लिए गाड़ी पर बैठी होती है; सिरचन सामान लादे हुए दौड़ते पहुंचता है। “खिड़की में पास खड़े होकर 'सिरचन' ने हकलाते हुए कहा, "यह मेरी ओर से है। सब चीज है दीदी! शीतलपाटी, चिक और एक जोड़ी आसनी, कुश की। "गाड़ी चल पड़ी।... मानू फूट-फूट कर रो रही थी।"24 ठेस कहानी अंतर्मन को झकझोर देने वाली कहानी है, एक तरफ मानवीय संवेदना की गरिमा है, तो दूसरी तरफ ओछा - झूठा बडप्पन। कहानी में कलाकार की उपेक्षा उसके जाति के कारण होती है, जो समाज के व्यवस्था के इस वीभत्स रूप को अनावरित करता है और यदि ऐसा चलता रहा तो मृतप्राय संवेदनाएं पूर्णतः मृत हो जाएंगी।
रेणु अपनी कहानियों में मानवीयता का विकास सामान्य जन के जीवन में देखते हैं और मनुष्य विरोधी शक्तियों के रूप में सामंत वर्ग और उसकी सामाजिक मान्यताओं को दिखाते हैं। मानवीयता को खतरा है वर्ग भेद,
शोषण, गरीबी, बेरोजगारी, अशिक्षा और फरेबी राजनीति से, जो दिन-प्रतिदिन पुष्ट होती जा रही है, जो समाज में अराजकता फैलाती है, लोक संस्कृति का दमन करती है, सांस्कृतिक अवमूल्यन पैदा करती है। रेणु ग्रामीण जीवन के यथार्थ के कहानीकार है। वे ग्रामीण जीवन में टूटते बिखरते और जीवित मानवीय सम्बंधों के कथाकार हैं। नयी कहानी के दौर में गांव के जीवन पर कहानियाँ लिखने वाले कुछ और भी कहानीकार थे । उनकी कहानियों में "अहा! ग्राम्य जीवन क्या है" का जो भाव है, वह रेणु के कहानियों में नहीं है। वे न तो गाँव के विरह में व्याकुल कथाकार हैं, न गाँव को जड़ता का गढ़ मानते वाले। उनकी दृष्टि ग्रामीण जीवन के सम्पूर्ण यथार्थ पर है; उसमें फैले, रस, सौंदर्य, विसंगतियों, विद्रूपताओं पर है, जिसमें “फूल भी है, शूल भी, कीचड़ भी, चंदन भी।"
रेणु की कई कहानियाँ नगरीय जीवन पर भी हैं,
जैसे आत्मसाक्षी, अगिनखोर, दीर्घतपा आदि। उन्हें आंचलिकता में बाँधना विसंगतिपूर्ण है। निर्मल वर्मा के शब्दों में, “रेणु का स्थान यदि अपने पूर्ववर्ती और समकालीन आँचलिक कथाकारों से अलग और विशिष्ट है तो वह इसमें है कि आंचलिक उनका सिर्फ परिवेश था, उसके भीतर बहती जीवनधारा स्वयं अपने अंचल की सीमाओं का उल्लंघन करती थी। रेणु का महत्त्व उनकी आंचलिकता में नहीं आंचलिता के अतिक्रमण में निहित है।"25
निष्कर्ष : रेणु अपनी कहानियों में दर्शाते हैं कि समाज के कुछ मानक, आदर्श प्रत्याशाएँ ऐसी हैं जो विषमता, पूर्वाग्रह, आडम्बर, अंधविश्वास का नित्य सृजन करती रहती है, इन्हीं प्रतिगामी ताकतों से सामाजिक उच्छृंखलता, दुर्भावनाएँ, कुप्रथाएँ, आदि संचालित होती हैं, और ये समाज में सांस्कृतिक अवमूल्यन पैदा करती हैं। यहाँ सांस्कृतिक अवमूल्यन का अर्थ किसी खास संस्कृति के अवमूल्यन से नहीं है, अपितु संस्कृति में वे परम्पराएँ वे मानक जो रूढ़ हो गयी हैं, जर्जर हो गयी हैं; जिससे सामाजिक वैषम्यता, अंधविश्वास फैल रहा है, जो विकास विरोधी हैं, समता - मानवता विरोधी हैं, उनसे पनपने वाली स्थिति विशेष है।
1) भारत यायावर : रेणु रचनावली भाग- 1 : राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 1995, सं०- पृ० 23, 24
2) वही, पृ० - 126
3) मैनेजर पाण्डेय (सम्पादक) : अनभै साँचा, वाणी प्रकाशन, प्रथम संस्करण 2012, पृ०- 172
4) भारत यायावर : रेणु रचनावली भाग- 1 : राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 1995, पृ० - 149
5) वही, पृ.164
6) वही, पृ.164
7) वही, पृ.112
8) वही, पृ.113
9) वही, पृ.114
10) वही, पृ.115
11) वही, पृ.116,117
12) वही, पृ.117
13) वही, पृ.118
14) वही, पृ.119
15) वही, पृ.119
16) वही, पृ.193
17) वही, पृ.195
18)वही, पृ. 326
19) वही, पृ.- 327
20) वही, पृ. -331
21) वही, पृ. - 176
22) वही, 2 - 177
23) वही, पृ. 178
24) वही, पृ. - 179
25) दिनमान पत्रिका, अंक- 24. पृ० - 27.
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) फणीश्वर नाथ रेणु विशेषांक, अंक-42, जून 2022, UGC Care Listed Issue
अतिथि सम्पादक : मनीष रंजन
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