यात्रा साहित्य में आधी आबादी और उनके मुद्दे
- डॉ. छोटू राम मीणा
शोध-सार : यात्रा साहित्य में आधी आबादी के लिए प्रमुख सवाल
कौन-कौनसे हैं?
स्त्री-रचनाकारों द्वारा लिखित यात्रा साहित्य में उनका ध्यान किन प्रमुख बिंदुओं
पर रहता है?
यात्रा से पहले सुरक्षा का सवाल सबसे पहले उनके ज़हन में क्यों रहता है? सुरक्षा से जुड़े हुए सवालों में ही
साफ-सफाई, स्वास्थ्य, आर्थिक संपन्नता के साथ मानसिकता का मुद्दा प्रमुख रूप से
आते हैं। तीर्थाटन, यायावरी, पर्यटन के बारें में सोचने से पहले इन सवालों से
जूझना पड़ता है। इन यात्राओं में सुरक्षा का ड़र ज्यादा बड़ा दिखता है। यह सुरक्षा
इन रचनाओं में कभी सुंदरता के नाम पर, कभी दहेज के नाम पर, कभी अर्थ को लेकर, कभी
पुरुषसत्तात्मक सोच बदले हुए अनेक रूपों को लेकर आती है। इस लेख में शामिल यात्रा
साहित्य की रचनाओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि कुछ मसलों में यूरोपीय देश,
अमेरिका, रूस, चीन व भारत सभी एक समान लगते हैं। विकसित देशों की कुछ असमानताएँ
उन्हें अलग खड़ा कर देती है। कानून के संदर्भ में यह बात कह सकते हैं कि कानून सब
जगह का मजबूत हैं लेकिन उसके क्रियान्वयन में बड़ा भेद मिलता है। आधी आबादी को
यायावरी के लिए वैश्वीकरण के दौर में भी तमाम खतरे विकसित व विकासशील देशों में
बराबर उठाने पड़ते हैं। इस मामले में विकसित और विकासशील देशों की रेखाओं में बहुत
बड़ा अंतर स्त्री रचनाकारों के यहाँ दिखाई नहीं देता है।
बीज शब्द : तीर्थयात्रा, सुरक्षा, साफ-सफाई, स्वास्थ्य, सुंदरता,
आर्थिक संपन्नता।
मूल आलेख : हिंदी साहित्य में आत्मकथा, रिपोर्ताज, जीवनी, संस्मरण,
यात्रा-साहित्य आदि विधाओं को गैरकाल्पनिक माना जाता है। यात्रा-साहित्य में
यथार्थ व देखे हुए का वृत्तांत होता है। अनुभवजन्य विधा होने के कारण यह विशुद्ध
रूप से गैरकाल्पनिक विधा है। अनुभव या वृत्तांत का आख्यान वही रच सकता है जिसने उस
जगह को देखा है। आधुनिक काल से पहले कवि कल्पना की आँख से सब देख लेते थे। लेकिन
वह शुद्ध काल्पनिक रचना होती थी। स्त्री के लिए घुमक्कड़ी, पर्यटन और तीर्थयात्रा
के अवसर सहज ही उपलब्ध नहीं रहे हैं। अन्य क्षेत्रों की तरह यात्रा में भी पुरुषों
का अधिकार रहा है। स्त्रियों के लिए यात्राएँ विशेष तौर से धार्मिक रहती थी, जो
परिवार या समाज की भीड़ के साथ ही संभव होती थी। उनमें भी पहले नकार का भाव पहले रहता
है। अकेले पर्यटन करना असंभव रहा है। तीर्थयात्राओं की सीमित संभावना स्त्रियों को
रही है। उसमें भी कुछ प्रयोजन विशेष के कारण यात्रा की अनुमति होती है। तीर्थों
में मुक्ति की चाह या फिर कोई मनोकामना होती थी। इन तीर्थयात्राओं में स्वंय से ज्यादा पति व परिवार की मुक्ति की कामना प्रमुख
होती है। मुक्ति की कामना में भी दोयम दर्जे पर स्त्रियों को रखा गया है। वहीं
यायावरी और पर्यटन में स्वावलंबन के साथ आर्थिक स्वतंत्रता का सवाल जुड़ा हुआ है।
भारत में यात्रा का मतलब तीर्थयात्रा है। घुमक्कड़ी, यायावरी व पर्यटन का चलन भारत
में नहीं रहा है। किसी उद्देश्य के कारण ही घुमक्कड़ी या यायावरी के अवसर भारत में
मिलते हैं। यायावरी में अज्ञात के बंद ताले को खोलने का प्रयास रहता है। लेकिन
इसकी चाभी सभी के लिए नहीं बनायी गई है। यात्रा साहित्य में स्त्रियों द्वारा जो
लेखन हुआ है। उसमें कौन-कौन से सवाल दुहराये गये हैं? उन रचनाओं से ही हम इन सवालों को समझ
सकते हैं। यात्राओं के संदर्भ में पदमा सचदेव लिखती हैं कि “पृथ्वी के आँचल में छिपे हर देश को
आँखों से देखने, हाथों से छूने और कदमों से नापने का लालच होता है”1। इस लालच के कारण ही मानव कल्पना की
आंख के बदले अपनी भौतिक आँखों से देखना समझना चाहता है। मानव ने मन की यात्रा के
बाद तन की यात्राएँ मीलों मील पैदल चलकर दूर-दराज के रास्ते तय किये।
भौतिकयात्राओं का अलग आकर्षण रहा है। इस आकर्षण के साथ यात्राएँ संशकित भी करती
है। मानव को यह सोचने के लिए मजबूर करती है कि न जाने क्या होगा?, कैसे होगा?, कितने दूर या कितनी देर में
पहुँचेगें? प्रकृति की छटा व जिज्ञासावृत्ति को देखकर जो लोग आगे बढ़ते चले गये वे
इतिहास में एक नया अध्याय जोड़ने में सफल हो पाये। उन नये अध्यायों में आधी आबादी
की हिस्सेदारी नहीं दिखती है।
नये लोगों से मिलना, नयी भाषा को सुनना,
अपने समाज के अलावा दूसरे रहवासियों के जीवन को समझना, नये लोगों के पहनावे,
खानपान, तौर-तरीके को सीखना (संस्कृति) अपने जैसे किसी को नजदीक से देखकर आश्चर्य
में पड़ना। यह कम आश्चर्य की बात नहीं थी। आज जब इक्कसवीं सदी में मानव ने संचार व
आवागमन के तीव्र से तीव्रतम साधन ईजाद कर लिये हैं, तो तीर्थयात्राएं और यायावरी
आसान व सुगम बन पड़ी है। कोई कहीं से उड़कर अमेरिका से आटाकामा या अरेबिया से उलन
बटोर के रेगिस्तान में पहुंच सकता है। इससे पहले यह इतना आसान नहीं था। महीनोंका
माल-असबाब लेकर चलना पड़ता था। आज तकनीकी व संचार के साधनों ने यात्रा की सुविधा
को आसान बना दिया है। आवागमन के साधनों से प्रकृति, पहाड़, जंगल व दुनिया और नजदीक
आ गई है। जब-जब इंसान को यात्रा करने के नये साधने मिलते गये वह यात्रा के लिए
बहाने ढूँढ़ने लगा। नयी योजनाएँ बनाने लगे। इन नयी योजनाओं में स्त्री कहाँ है यह
समझने का प्रयास किया गया क्या?
आवागमन व संचार साधनों के कारण ही यह
संभव हुआ कि वैश्वीकरण का विचार पूरी दुनिया में फैलता चला गया। इसी विचार ने हमें
ग्लोबल बना दिया। ग्लोबल नागरिकता ने पर्यटन के अवसर को ज्यादा प्रचारित किया है।
संचार, आवागमन व तकनीकी संभावनाएँ सभी सुख सुविधाओं के साथ मिलने लगी। ग्लोबल बनने
का सुख सभी ने भोगा। (इसका दुख भी पूरी दुनिया को कोविड-19 के रूप में मिला।) इसके
परिणामस्वरुप भारत या दुनिया में बैठा हुआ इंसान दुनिया की हर मानव जाति के बारे
में जानने लगा। यायावरी में साधनों की सुविधा के साथ-साथ यात्रा के उद्देश्य भी
बदलते चले गये। रोजी, रोटी के अलावा धर्म, व्यापार व संस्कृति भी यात्राओं के लिए
इंसान को लालच देते रहे हैं।
यात्राओं का जिक्र आता है तो आधी आबादी
के लिए यात्राओं के अवसर व चुनौतियाँ सीमित हो जाते हैं। किसी स्त्री के लिए
यात्रा का मतलब वही नहीं रहता, जो एक पुरूष के लिए होता है। ख्वाजा मीर दर्द का यह
शेर सभी के लिए समान रूप से लागू नहीं होता हैं-
‘सैर कर दुनिया की ग़ाफ़िल़ जिंदगानी फिर कहाँ,
ज़िंदगी ग़र कुछ रही तो ये जवानी फिर कहाँ’।
यात्रा करने की सोचने से पहले एक स्त्री
अनेक सवालों से घिर जाती है। यात्रा के संबंध में जब आधी आबादी की बात होती है।
परिवार के सभी लोग समवेत स्वर में मीडिया की तरह से सवाल करने लगते हैं। कब जाना
है?, क्यों जाना है?, कहाँ जाना है?, किसके साथ जाना है?, कैसे जाना है? और इस बात के साथ खत्म होते हैं कि
कहीं नहीं जाना है घर पर ही ठीक है। ये सवाल परिवार के सदस्यों के जहन में इसलिए
आते हैं कि सुरक्षा की व्यवस्था पुख्ता नहीं है, दुनिया के अनेक देशों में अच्छी
नहीं है। स्त्री अकेली है, तो उसके साथ कोई भी दुर्घटना, हिंसा, अत्याचार, अनाचार
और लूट की घटनाएं घट सकती है। परिचितों के बीच में भी असुरक्षा का ड़र बना रहना
यायावरी के सारे रास्ते बंद कर देने के लिए पर्याप्त होते हैं। भारत में सुरक्षा
के साथ सामाजिक ताने-बाने ऐसे हैं कि परिवार से ज्यादा तो पड़ोसी दुखी हो जाते
हैं। परिवार की परेशानी से बड़ी बातें पड़ोसी करने लगते हैं। भारत में यात्रा का
संबंध परिवार व समाज की मानसिकता से गहरे रूप में जुड़ा हुआ है। इनके अलावा सफाई,
स्वास्थ्य और सूचनाएं भी पूरी नहीं मिलती है। ये कारण मिलकर अभिभावक के मन में
तमाम तरह के सवाल पैदा कर देते हैं। पौराणिक आख्यानों से कौन अनजान है। वे भी इस
बात की पुष्टि करते हैं कि मिथकीय आख्यानों में स्त्री पात्र को धरती निगल गयी थी।
इक्कीसवीं सदी में न सिर्फ भारत बल्कि
अनेक देशों में आधी आबादी को दूसरे दर्जे का नागरिक समझा जाता रहा है। हालांकि
बहुत सीमित अवसर भी मिलें हैं। एक स्त्री के लिए इतने सारे सवाल न सिर्फ
तीर्थयात्रा में बल्कि यायावरी और पर्यटन सभी जगह मुँह बांए खड़े रहते हैं।
तीर्थयात्रा में पवित्रता, भक्ति, मुक्ति और कल्याण की कामना होती है। उनमें भी
अगर कोई अकेली स्त्री मिल जाती है, तो उसके साथ अत्याचार की संभावना बढ़ जाती है।
यायावरी में प्रकृतया थोड़ी भिन्नता होती है। इसमें तीर्थयात्रा की तरह हुजूम नहीं
चलता है। इसलिए यहाँ खतरे या दुर्घटनाओं की संभावना बहुत ज्यादा बढ़ जाती है।
पर्यटन का सीधा संबंध सुख, सुविधा और आर्थिक संपन्नता से जुड़ा हुआ है। भारत में
घुमक्कड़ी, यायावरी व पर्यटकी सब तीर्थयात्रा में ही शामिल है। तीर्थाटन है तो
इनका भी आनंद लिया जा सकता है। घुमक्कड़ी और पर्यटन का संबंध आर्थिक स्वावलंबन से
जुड़ा हुआ है। घुमक्कड़ी अकेले और समुह दोनों में संभव होती है। इसमें सुरक्षा,
सफाई का खतरा न होकर किसी के द्वारा ठगे जाने का मामला सबसे बड़ा हो जाता है। फिर
भारतीय समाज के सोचने समझने के तरीके अनूठे है। अकेले किसी स्त्री को घूमते हुए
देखने पर उसके चरित्र से जोड़कर देखा जाता है। यूरोप-अमेरिका जैसे देशों की
महिलाएं इस मामले में ज्यादा स्वतंत्र हैं।
दुनिया में आजादी या मुक्ति के कौन से
रास्ते हैं? भारत
में उसको परिवार व समाज से देखकर समझा जाता है। इस संदर्भ में रमणिका गुप्ता ने
अपने शब्दों में कहा कि “मैं महसूस करती हूँ-स्त्री के लिये यात्राओं का मतलब वही
नहीं होता, जो किसी पुरुष के लिये होता है। स्त्री के लिये यात्रा यथास्तिवाद का
प्रतीक है, और जब वह घर की दहलीज लाँघती है तो मुक्ति की दिशा में उसकी वह पहली
यात्रा होती है। यात्राएँ स्त्री को यथास्थतिवाद की रूढ़ि से बाहर निकालती हैं,
जीवन में बेहतरी की उम्मीद जगाती हैं”2। कुछ हद तक ही इस बात से सहमत हुआ जा सकता है कि घर की
दहलीज स्त्री को बंधन में रखती है। घर से बाहर निकलना मुक्ति की निशानी है।
तीर्थयात्रा या यात्राओं में यह माना जाता है कि यात्रा के बाद इंसान को घर की
जरुरत पड़ती है। यात्रा का फेरा पूरा करने पर जिस घर को छोड़कर जाते हैं, उसमें
आना होता है। फिर से आगे की यात्रा के लिए ताजादम होना पड़ता है। यात्राएँ
मुक्तिदायक होती है, लेकिन आधी आबादी के लिए घर की दहलीज सुरक्षा की सुनिश्चितता
भी निर्धारित करती है। उनकी मुक्ति का अर्थ जीवन की रूढियों, पांखड़ों, अत्याचार
या शोषण को खत्म करने के संदर्भ में ही लिया जा सकता है।
यायावरी करने पर स्त्री के लिए
पुरूषद्वारा खींची गई लक्ष्मणरेखा हमेशा मौजूद रही है। स्त्री के लिए यात्रा में
अनेक रुकावटें रही हैं। भारतीय समाज की सांमती संरचना, अंधविश्वास, अत्याचार,
शोषण, जातीय उत्पीड़न व दोयम दर्जे की नागरिकता, वर्चस्ववादी मानसिकता, गैरबराबरी
का माना जाना प्रमुख है। कोई लड़का सहज ही यह कह देता है कि मैं जरा थोड़ा टहल आता
हूँ। किसी लड़की के लिए ऐसा कहने पर एक हजार सवाल माता-पिता की आँखों के सामने
तैरने लगते हैं। किसी स्त्री के लिए यात्रा का मतलब है-सामंती संरचना को चुनौती
देना। बराबरी की बात करना, आजाद महसूस करना, दिमाग में लगे ताले को तोड़ना, पुरुष
द्वारा खींची गई लक्ष्मण रेखा को कूदना, अपनी मर्जी करना, अनेक रूढ़ियों को
तोड़ना, अच्छे घर की लड़की न होना आदि।
परिवार व समाज के अनूठे गठजोड़ को
अनुराधा बेनीवाल समझती हैं इसलिए वे बेबाकी से इन दोनों संस्थाओं के मनोविज्ञान पर
लिखती है कि “मैं
जिस समाज में पैदा हुई, पली-बढ़ी, उसमें व्यक्तिगत स्वतंत्रता जैसी कोई चीज़ नहीं
थी। वहाँ किसी घर में कोई संतान पैदा हुई नहीं कि उसे संस्कारी और लायक बनाने की
हर कोशिश उसके माता-पिता, परिवार और रिश्तेदार-सबकी तरफ से शुरू हो जाती। उसके
कोरे दिमाग़ में समाज के क़ायदे-कानून और रिवाजों-परम्पराओं को पूरा का पूरा उतार
देने के सभी जाने-पहचाने तरीके आजमाए जाते। बच्चों को अपनी पारिवारिक और सामाजिक
मान्यताओं के अनुकूल ढाल देना-बस यही होती है संस्कार की शिक्षा भी”3। यायावरी के लिए लोक की चिंता छोड़नी
होती है। मानसिक रूप से स्त्री को मजबूत होना होता है। यदि आर्थिक स्वतंत्रता हो
जाए तो सोने पर सुहागा वाला मामला होता है। एक परिधि से निकलने पर दूसरी दुनिया के
नये रास्ते आपका स्वागत करने के लिए तैयार रहते हैं। उनका मानना है कि सामाजिक
मान्यताओं को तोड़कर यायावरी करें तो पूरी दुनिया आपके स्वागत भी करती है। ऐसे
अवसर बहुत कम स्त्रियों को उपलब्ध हो पाते हैं।
अनुराधा बेनीवाल अपने अंदाज में यायावरी
को सामाजिक पाठशाला का रूप में ढाल देती है। दूसरी तरफ वे यह भी लिखती हैं कि “अगर ‘चार लोग’ कुछ कहने वाले न होते, उस कहे को
सुनने-सुनाने के लिए घरवाले और रिश्तेदार नहीं होते तो आपका जीवन कैसा होता? क्या आप यही कर रहे होते जो आज कर रहे
हैं? आपका जीवन कितना आपका है और कितना ‘चार-लोग-क्या-सोचेंगे’ की देन है? अगर आप लड़की हैं तो इन ‘चार लोगों’ के साथ परिवार, रिश्तेदार, आसपास को तो
जोडें ही, गाम-गोहांड को और जोड़ लें”4। परिवार के साथ रिश्तेदार. गाँव और समाज आपको अपने
अनुसार निर्णय तक नहीं लेने देते। यह चार लोग ही समाज को संचालित करते हैं जो
लोक-लाज, लज्जा, शर्म की जिम्मेदारी लिए रहते हैं। यदि कोई लड़की है तो संस्कार,
शिक्षा, विवाह का निर्धारण भी यह चार लोग करवाते हैं। इस दृष्टिकोण से जो समाज और
चार लोगों की सुनता है वह कभी अपनी मनमर्जी नहीं कर सकता। यात्रा में स्त्री के
बारें सिर्फ यह चार लोग ही निति-नियंता बने रहते हैं। समय से पहले ही वे बातें
करने लगते हैं। लड़की को इन्हीं बातों के आगे बेबस कर दिये जाने की बातें हमारा
समाज अच्छे से जानता है।
यात्रा के संदर्भ में परिवार के बाद
समाज का दूसरा स्थान आता है। समाज अपने से ज्यादा दूसरे के बारे में अधिक बैचेन
रहता है। हमारा समाज यात्रा को किस दृष्टिकोण से देखता है। इसके बारे में स्त्री
रचनाकारों ने जरूरी सवालों को उठाया है। विवाह के संदर्भ में शिवानी ने लिखा है कि
“आज हमारा समाज बनियों एवं कायस्थों से
होड़ ले रहा है। प्राय: ही देख रही हूँ, मध्यवर्गीय घरों के होनहार छोरे आई.ए.एस.
में आते ही काफी ऊँची नाकवाले बन जाते हैं। रोमांस लड़ाते हैं किसी लड़की से,
किन्तु चाँदी का जूता खाकर घुटने टेक देते हैं किसी समर्थ पिता की पुत्री के सामने”5। यह एक ऐसा सवाल है जिसमें प्रेम पर
पैसा भारी होने का प्रमाण दे रहा है। समाज में दहेज रहेगा तब तक शोषण, अत्याचार,
हत्या, आत्महत्या जैसे चीजें होती रहेगी। सबसे मजेदार बात तो यह है कि समाज में
बड़े बड़े ओहदों पर बैठे लोग ही अपनी लिए इस प्रथा को चलाये रखना चाहते हैं। दहेज
प्रथा के कारण स्त्री शोषण का सवाल यात्राओं में आता है।
यह सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि विदेश
में भी शोषण स्त्रियों पर अधिक होता है परिवार के संदर्भ में पदमा सचदेव लिखती है
कि “मैं जिस धरती पर खड़ी हूँ, जहाँ छुआछूत
नहीं हैं, जहाँ दहेज की कोई समस्या नहीं है। यदि दहेज की समस्या न हो, तो बहुओं को
जलना न पड़े। किसी औरत के हाथ के बगैर कोई औरत जल नहीं सकती। सास ही मिट्टी का तेल
डालती है। ननद ही उसे पकड़कर रखती है, इसीलिए स्त्री के माथे पर सबसे बड़ा कलंक
स्त्री ही है। स्त्री ही स्त्री की सबसे बड़ी दुश्मन है। अगर स्त्रियाँ एकजुट हो
जाएँ, तो पुरुष क्या खाकर स्त्रियों पर जुल्म करेंगे। पुरुष तो बुद्धू होता है,
उससे निपटा जा सकता है”6। कहने का मतलब यह है कि एक स्त्री यदि पुरुष का साथ न
देकर दूसरी स्त्री का साथ दे, तो पुरुष कभी किसी स्त्री का शोषण नहीं कर सकता है।
लेकिन पुरुष ने बहुत ही चालाकी से स्त्री को मानसिक रूप से गुलाम बनाकर परिवार को
भी पुरुषवादी मानसिकता में ढाल देता है। इसलिए एक सास अपनी बहु को मिट्टी का तेल
डालकर जला डालती है।
रूस जैसे समाजवादी देश में देखती हैं कि
“पुरुष हमें देवी बनाकर पूज भी सकता है
और पशुवत् व्यवहार भी कर सकता है परन्तु बराबरी का दरजा नहीं दे सकता। देश में अमन
हो या जंग, भुखमरी हो या पेटभरी, औरत का शोषण होता ही है। दंगे-फसाद में सबसे पहले
औरतों पर ज्यादतियाँ होती हैं। हमें मनुष्य कब समझा जाएगा, मालूम नहीं”7। यह एक शाश्वत सवाल है जो यायावरी के
दौरान एक समाजवादी देश की यात्रा के दौरान उनके मन में उभरता है। यात्राओं का
संबंध बराबरी से शुरु होता है। जब तक स्त्री को पुरुषवादी मानसिकता के खोल में फिट
किया जाता रहेगा तब ऐसे बराबरी वाले समाज की कल्पना नहीं की जा सकती है। पुरुष को
कुछ करने की जरुरत नहीं पडेगी। वह शोषण के अलग-अलग हथकंडे अपनाता रहेगा।
हमारे पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान की
स्त्रियों के बारें में कम जानकारी हमें मिलती है। जो उपलब्ध है उनमें भारत और
पाकिस्तान की स्त्रियों के आख्यान बहुत अलग नहीं है। इस संबंध में नूर जहीर ने
लिखा है कि “जब से
सिन्ध शुरू हुआ था एक अजीब बात देखने को मिल रही थी। औसतन औरतें इधर-उधर यूँ ही
जाती हुई दिखाई दे रही थीं। खेतों में काम कर रही, कच्चे घरों की लिपाई करती,
गाय-भैंसों को चारा डालती औरतें भला कहाँ बुर्का संभाल सकती हैं। शायद औरत की
आजादी के लिए इकोनोमिक आज़ादी से ज्यादा काम करने की आज़ादी जरुरी है और मार्क्स
की थियोरी कि माली आज़ादी इन्सान की आजादी की चाभी है शायद औरतों के लिए सही नहीं
हैं। अगर उसे काम करने की आजादी होगी तो बाक़ी मुश्किलों को वह खुद ही सुलझा लेगी
और उसके साथ चलने वाला मर्द भी इस पर एतराज नहीं करेगा क्योंकि बहरहाल मदद की तो
उसे भी जरूरत है”8। आजादी के संदर्भ में नूर ज़हीर लिखती है कि “कैसे अजीब हैं ये लोग, जो अपने देश में
सोचने-समझने की आज़ादी और जम्हूरियत की सरकार बनाने की छूट तो चाहते हैं, मगर अपनी
जनसंख्या में से आधी को, पर्दे की कैद में रखना चाहते हैं। ऐसी आजादी जब इन्हें
मिलेगी और आशा करती हूँ कि जल्द मिले, तो उसमें औरतों का क्या मकाम होगा। क्या तब
भी सिर्फ मर्द ही आजाद होंगे और औरतें, उधार की, माँगें की आज़ादी पर सन्तुष्ट
रहेंगी। और अगर ये लोग, उस समय औरतों को पूरी आज़ादी दे देगें तो फिर उन्हें अभी
से ही उस आजादी के संघर्ष में क्यों नहीं भागीदार बनाते”9। जितनी आजादी पुरुष अपने लिए चाहता है
उतनी आधी आबादी के लिए जरुरी है। यह ख्याल पुरुषवादी दिमाग में कभी नहीं आया।
स्त्री अधिकारों के संबंध में जब आप
विदेशों में बराबरी का व्यवहार स्त्री-पुरुष के बीच देखते हैं तब भी आपको भारत का रूढिग्रस्त
समाज याद आता है। एक भारतीय स्त्री के मन में जो सवाल आते हैं उनको आप यात्राओं के
माध्यम से समझ सकते हैं मसलन माला वर्मा ने लिखा है कि “निश्चिन्त मन से फुटपाथ पर चलना क्या
होता है ?इसे
सिर्फ विदेशों में ही देखा व महसूसा जा सकता है। ऐसा अनुभव अब तक भारत में कहीं
नहीं मिला और न कभी मिलेगा”10। एक निश्चिन्तता का होना बहुत बडी बात है, भारत में
फुटपाथ ही किसी लड़की को खा जाता है। निराश होकर लेखिका लिखती है कि आने वाले समय
में भी कोई रास्ता नजर नही आता। वे बराबर सवाल करती हुई चलती है- क्यों भारत ऐसा
बन जाता है? विदेश में जब कोई मजदूर मिलता है तो उनसे बात करके उनका हाल जानती हैं
और यह हाल बताने वाली कोई स्त्री हो तो बात ज्यादा संवेदनशील व गंभीरता से उनके
सामने रखती है। बांग्लादेश की दो स्त्रियों को देखकर यही होता है वे जवाब सुनकर “हमें यहाँ किसी तरह की कोई परेशानी
नहीं। पैसे अच्छे मिलते हैं तथा हर तरह की सुरक्षा व सुविधा हमें दी जाती है औऱ हम
भी पूरी निष्ठा व ईमानदारी से काम करते हैं। ये जरूर है कि हम अपने वतन व
घर-परिवार से दूर हैं पर हमारी जैसी कई औरतें यहाँ है और हम मिलजुल कर रहते हैं।
इस तरह से अलग सुरक्षा व सुविधा भारत में काम करने वाली किसी दाई को नहीं मिलती है”11। शादी होने के बाद भी समाज एक स्त्री
को अलग दृष्टकोण से देखता है। वह अपने पति के साथ भी घूमती है तो पुरुषसत्ता उसे
अच्छा नहीं मानती है। इसी बात को गीता गैरोला ने इस तरह से लिखा है कि “आधी रात को पति के साथ घूमने के रिवाज
को आज भी समाज, परिवार, रिश्तेदार हजम नहीं कर पाते”12।
इंदिरा मिश्र ने अपनी यात्रा में यह
अनुभव किया है कि “दुनिया में कहीं भी महिलाओं को वास्तविक बराबरी नहीं मिली है।
भारत और मैक्सिको में स्थिति बुरी है, पर अमेरिका और ब्रिटेन में भी कोई खास अच्छी
नहीं है।... क्या वे कभी पुरुषों की बराबरी का सपना भी देख सकती है?”13। विदेश यात्राएं रचनाकार को अपने
देश से तुलना करने पर मजबूर करती है। वह अपने समाज की तुलना उस देश के समाज से
करती है।
पारिवारिक व सामाजिक पक्षों के साथ
धार्मिक पक्ष को भी समझने की जरूरत है। इसलिए इन रचनाकारों के यहाँ धार्मिक पक्ष
तीर्थयात्रा से जुड़कर देखा गया है। यदि कोई स्त्री अकेले तीर्थयात्रा करती है तो
पुरुष सहयात्री अलग तरह का व्यवहार करने के साथ रोमांस में साथ देने की उम्मीद पाल
लेता है। इसी संदर्भ में दीपा तिवारी ने लिखा है कि “धार्मिक आजादी के नाम पर, समाज में
उन्मादी प्रवृत्ति के लोग साम्प्रदायिकता फैला रहे हैं। धर्म की आड़ में पाखंड़ी
पुरुष, स्त्रियों की अस्मिता से खिलवाड़ करते हैं। धार्मिक स्वतंत्रता के नाम पर
मुझे ऐसे ही उच्छृंखल पुरुष अधिकारी से आपराधिक व्यवहार से गुजरना पड़ा”14। भारत की सबसे बड़ी और पवित्र मानी
जाने वाली तीर्थयात्रा में एक महिला तीर्थयात्री को ऐसा अनुभव हुआ जिसका यह संदेश
जाता है कि कुछ प्रवृत्ति विशेष के लोग तीर्थयात्रा में होने के बाद भी सद्चरित्र
नहीं हो सकते हैं। तीर्थयात्राएँ भी भारत जैसे देश में सुरक्षित नहीं है। सुविधाओं
के नाम पर गौर करें तो इसी यात्रा में वे देखती हैं कि “टॉयलेट गंदे थे और उनमें पानी का कोई
इंतज़ाम नहीं था। गुस्सा भी बहुत आ रहा था लेकिन किसके सामने गुस्सा करते”15। साफ-सफाई के साथ पानी के बगैर
तीर्थयात्राओं का संचालन करवाना सरकारी खानापूर्ति के साथ मोटी कमाई का जरिया भी
लगता है। सुविधा और पैसे में से सरकारी अमला पैसे का चुनाव करता है सफाई और सुविधा
की तरफ से वह आँख मूंद लेता है।
धार्मिक यात्राओं के संदर्भ में
सुरक्षा, साफ-सफाई के बाद बड़े-बड़े मंदिरों में स्त्रियों के प्रवेश को वर्जित
मानने का मुख्य सवाल सामने आता है। यदि प्रवेश ही वर्जित है तो अधिकांश
तीर्थयात्रा उनकी अधुरी ही रहेगी। यात्रा का मकसद पूरा नहीं हो पाता है। क्या
मंदिरों में स्त्रियों को प्रवेश का अधिकार नहीं है उनपर कहीं कोई तर्क या सवाल
स्त्री लेखन में आता है? यह बात समुद्र के किनारे केरल से लेकर उत्तरकाशी तक बराबर
दिखाई देती है। दलितों की ही तरह स्त्रियों को भी मंदिर प्रवेश से वंचित किया गया
है। गीता गैराला ने इस बात पर सवाल उठाया है कि “सवर्ण मानसिकता पहाड़ों से समुद्र के
किनारे बिना एक-दूसरे की भाषा समझे बिल्कुल एक जैसी है। सुना है ईश्वर सबका होता
है। पर वास्तविकता बिल्कुल अलग है। कहीं केवल हिंदुओं का ईश्वर है बाकी लोगों का
नहीं। कहीं केवल पुरुषों का भगवान होता है महिलाओं को उस भगवान के पास जाने की
इजाजत नहीं होती”16। तीर्थयात्राओं के अनुभव के बाद ही ईश्वरीय सत्ता पर एक
स्त्री ऐसा सवाल उठा सकती है। यदि ईश्वर सबका और महान् है तो उसकी महानता
स्त्रियों व दलितों के संदर्भ में अलग क्यों है?
तीर्थ यात्राओं के ही अन्य उद्धरण हिंदी
की प्रथम महिला आत्मकथाकार स्फूरना देवी की आत्मकथा में भी देख सकते हैं। इसमें एक
तीर्थ की यात्रा का वर्णन आता है। ‘स्फूरना देवी’ की आत्मकथा के एक उदाहरण से यह बात समझ सकते हैंकि “तीर्थ-यात्रा में हम हरिद्वार पहुँचे।
वहाँ एक मंदिर में ठहरे। वह मंदिर भी एक बड़े महन्त के अधिकार में था। महन्त जी
अपने व्यभिचार के लिए प्रसिद्ध थे। यद्यपि उस समय उनकी आयु चालीस वर्ष से कम न रही
होगी। जब मैं महन्त जी को भेंट चढ़ाने गई, तो उनकी कुटिल नज़र से मैं उनका भाव
समझकर सावधान हो गई; और इसलिए अकेली एक मिनट तक भी वहाँ न ठहरी। पंडित जी को साथ
लेकर हम लोग बैलगाड़ी पर ऋषीकेश गए। रास्ते में मैं बैलगाड़ी के धक्के से थककर उतर
गई और पैदल चलने लगी। गाड़ी बहुत धीरे-धीरे जाती थी अकेली तेजी से आगे बढ़ गई; और मेरा उनका बहुत फ़ासला पड़ गया।
इतने में ऋषीकेश के एक क्षेत्र के महन्त जी मोटर पर उस रास्ते से जा रहे थे। मुझे
देखकर मोटर पर चढ़ने को कहा। मुझे मोटर की सवारी की बड़ी रुचि थी, तुरन्त बैठ गई।
ऋषीकेश में पहुँचने पर महन्त जी ने क्षेत्र में एक अच्छा कमरा हमारे लिए खुलवा
दिया, जिसमें मैं बैठकर अपने घरवालों के आने की बाट देखने लगी। थोड़ी देर बाद
महन्त जी आए और मेरे रूप-लावण्य की प्रशंसा करके पाप-कामना प्रकट की तथा मुझे पकड़ने
के लिए हाथ फैलाए। मैं घबड़ाई और पैतरा बदल, कमरे के बाहर आकर खड़ी हो गई। महन्त
जी लज्जित होकर चले गए; और जब तक मेरे घरवाले न पहुँचे, मैं कमरे में न गई”17। अकेले यायावरी करने पर गिद्धों की
तरह नोच खाने वाले लोग तैयार मिलते हैं। स्त्री के लिए गिद्ध व आदमखोर परिवार व
समाज के भीतर ही मौजूद है। अवसर की ताक में वे अपने खोल से बाहर निकल आते हैं।
इसलिए स्त्री के लिए अकेले तीर्थयात्रा भी संभव नहीं है। अकेले होने पर
तीर्थयात्राओं में भी मुक्ति की बात करने वाले धर्मानुष्ठानिक लोग उनको बाज की तरह
झपट्टा मारकर निगल जाने की कोशिश करते हैं। मुक्ति और भक्ति को छोड़कर भोग करने से
चूकते नहीं है।
स्त्रियों को सुंदरता के नाम पर शोषित
किया जाता है। यह मापदंड सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि दुनिया की महाशक्तियों में
देख सकते हैं। चीन में महिलाओं के पैरों की लंबाई को देखकर रश्मि झा ने लिखा है कि
“पहले पुरुष नहीं चाहते थे कि महिलाएं घर
से बाहर निकलें। उनके पैर कपड़ों से बुरी तरह प्लास्टर की तरह बांध दिए जाते थे और
टाट के जूते पहनाये जाते थे। कभी-कभी लकड़ी और धातु के जूते पहनाये जाते थे। ऊपर
से तुर्रा यह कि छोटे पैर खूबसूरत होतें हैं। आज वो सातवां, आठवां दशक पार करने के
बाद भी वैसी ही है। एक निश्चित अवधि तक शरीर का विकास होता है, जोर-जबरदस्ती पैरों
से बहुत मुश्किल से चल पाती हैं। बैलेंस गड़बड़ा जाता है। ऐसा लगता है, बीमार हैं।
ईश्वर ने शरीर का पूरा भार उठाने के लिए उसके अनुपात में पैर बनाए हैं। चीनियों ने
प्रकृति से विरोध करके अपनी मर्जी से स्त्रियों को लाचार बना दिया था”18। अनेक देशों के अनुभव आधारित यात्रा
लेखन को पढ़ने के बाद यह समझ बनती है कि स्त्री की स्वतंत्रता आर्थिक महाशक्तियों
के यहाँ भी बहुत सम्माननीय नहीं है। कुछ मामलों में आदिम समाज का जीवन दर्शन
ज्यादा अच्छा रहा है। वहाँ लोकतांत्रिक, बराबरी, सहजीविता व सहधर्मिता के मूल्य
सामाजिक जीवन का अंग हैं। कहीं कहीं विकास का अर्थ दूसरे के शोषण की नींव पर खड़ा
दिखायी देता है। इस तरह के शोषण व अत्याचार को सुंदरता या खूबसूरती से जोड़कर
शोषित की मानसिकता को दूसरी तरफ सोचने के लिए विवश कर दिया गया।
विदेश यात्राएँ बिना पैसे संभव नहीं है।
विदेशों के अनुभव भी बहुत अलहदा नहीं है। क्या आर्थिक संपन्नता के बावजूद स्त्री
के लिए शोषणरहित समाज का निर्माण संभव है। इसका उत्तर पदमा सचदेव के यात्रा संस्मरण
में मिलता है। यदि आपके पास कुछ साधन, संगत व सुविधाएँ हों तो अनेक परेशानियों से
बचने की संभावनाएँ बना सकते हैं। भारत में एक उम्र के बाद सास बनकर एक दूसरे की
निंदा करती है। वहीं विदेश में वे कामकाजी महिलाएँ होती हैं। उनको इस तरह की
फुर्सत नहीं होती है। यायावरी के संदर्भ में महिलाओं के लिए स्वर्ग का निर्माण तब
ही हो सकता है जब वे अकेले, बिन्दास निरुद्देश्य घूमना हर जगह शुरू कर दें। क्या
भारतीय शहरों में कोई स्त्री इस तरह अकेले, बिन्दास व गहने पहनकर घूम सकती है उसका
उत्तर नहीं ही होगा। दिल्ली जैसे महानगर में सामूहिक बलात्कार की घटनाएँ इस तरह की
सभी संभावना को खत्म कर देती है।
जब तक किसी स्त्री ने दुनिया को पुरूष
की नजर से देखा है तब तक कही हुई बातों पर ही संतोष करना पड़ा है। लेकिन जब वह
स्वयं यात्रा पर निकलती है तो दुनिया के लिए नयी स्थापनाएं देती है। जिसमें
समानता, अधिकार व प्रेम की अधिकारीणी होने की बात करती है। तमाम गैरबराबरियों को
खत्म करके भारत में भी स्त्री-पुरूष समानता की बात करती है। स्त्री को सहानुभूति
की बजाय संवेदनाओं व सहयोग की ज्यादा दरकार है यदि हम ऐसा करें तो यायावरी के
क्षेत्र में भी तमाम सवालों से छुटकारा पा सकते हैं।
यात्रा के संदर्भ में व्यक्ति, परिवार,
पास-पड़ोस, रिश्तेदार, ‘चोर-लोग’, समाज जैसी अनौपचारिक संस्थाओं को सुधारने की जगह अपने मन
और रूचि का कार्य करने की जरूरत है। वे संस्कार, शिक्षा, शर्म, लज्जा, ईज्जत के
नाम पर दूसरे लोगों को चलाने का काम करते हैं। जो बिगडे हैं वे सुधरे हुए को
सुधारने की बात करते हैं। इस मानसिकता को बदलना होगा। स्त्रियों को भी आर्थिक रूप
से संपन्न बनाना होगा। धर्मस्थलों व पर्यटन स्थलों को सुरक्षित बनाने की जरूरत है।
राज्य को कानून सख्त बनाने की जरूरत नहीं है। जो कानून है उसको ढंग से पालन करने
की जरूरत है। ऐसा करके ही किसी स्त्री को बेरोकटोक घूमने देने की आजादी प्रदान कर
सकते हैं। यदि यह संभव होता है तो हमें यात्रा-साहित्य में भी आधी आबाधी का उचित
प्रतिनिधित्व देखने को मिलेगा। भारत की पारिवारिक, सामाजिक, धार्मिक व अन्य
संस्थाओं को सुंदर व बेहतर बना सकेंगे। दुनिया को देखने समझने के अवसर देकर ही हम
अपनी आधी आबादी को शोषण के शिकंजे से निकालने का काम कर सकते हैं। आँखों देखी विधा
को संपन्न व समृद्ध कर सकते हैं। सरकारें नागरिकों की सुरक्षा का ख्याल करें तो
यायावरी के अनेक सवाल जो एक स्त्री के दिमाग में आते हैं, वे दूर होने पर वह
बेखटके यात्रा(तीर्थ), घुमक्कड़ी व पर्यटन का आनंद ले सकती है। विदेशी पर्यटकों के
साथ होने वाली घटनाएँ भी आधी आबादी को घर की चौखट तक सीमित रखने को विवश कर देती
है। सवाल भी है कि ‘अतिथि देवो भव’ अकेली स्त्री के लिए अतिथि लूटो या नौंचने का भाव पैदा
कैसे कर देता है। इन सवालों को इन रचनाओं को पढकर समझा जा सकता है कि वे सारे मसले
किसी परिवार, आस-पड़ोस व समाज में मौजूद रहते हैं। इसलिए बड़ी मुश्किल से हम
अनुराधा बेनीवाल जैसी रचनाकार समाज व देश को दे पा रहे हैं। यह हम तब ही कर सकते
हैं जब उनको अपना निर्णय स्वयं लेने का हक दे सकेंगे।
संदर्भ :
1. पद्मा सचदेव - मैं कहती हूँ आंखिन देखी, पृष्ठ-11, भारतीय
ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली, दूसरा संस्करण-1997
2. रमणिका गुप्ता - लहरों की लय, पृष्ठ-3, नेहा प्रकाशन,
दिल्ली, प्रथम संस्करण-2008
3. अनुराधा बेनीवाल– यायावरी आवारगी- आजादी मेरा ब्रांड,
पृष्ठ 8, राजकमल प्रकाशन प्राइवेट लि., दिल्ली, पहला संस्करण-2013
4. अनुराधा बेनीवाल- लोग जो मुझमें रह गए, पृष्ठ 41, राजकमल
प्रकाशन प्राइवेट लि., दिल्ली, पहला संस्करण- जून 2022
5. शिवानी - यात्रिक, पृष्ठ 63, राधाकृष्ण पेपरबैक्स,
दिल्ली, प्रथम संस्करण-2007
6. पदमा सचदेव- मैं कहती हूँ आँखिन देखी, पृष्ठ 38, भारतीय
ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली, दूसरा संस्करण-1997
7. पदमा सचदेव- मैं कहती हूँ आँखिन देखी, पृष्ठ 69, भारतीय
ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली, दूसरा संस्करण-1997
8. नूर जहीर -
सुर्ख कारवाँ के हमसफ़र, पृष्ठ 29. मेधा बुक्स, दिल्ली, प्रथम संस्करण-2008
9. वही, पृष्ठ 63, मेधा बुक्स, दिल्ली, प्रथम संस्करण-2008
10. माला वर्मा- जार्डन यात्रा, पृष्ठ-195, बोधि प्रकाशन,
जयपुर, प्रथम संस्करण-2016
11. वही, पृष्ठ-196, बोधि प्रकाशन, जयपुर, प्रथम
संस्करण-2016
12. . गीता गैराला – ये मन बंजारा, पृ.-213, संभावना प्रकाशन,
हापुड़, प्रथम संस्करण-2021
13. इंदिरा मिश्र-दो तरह के लोग, पृष्ठ 46-47.नेशनल
पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली, प्रथम संस्करण-1990
14. दीपा तिवारी – कैलास मानसरोवर यात्रा - कच्चे रास्ते
पक्के सबक, पृ. 29 समय साक्ष्य, देहरादून, प्रथम संस्करण-2021
15. वही, पृ.-92, समय साक्ष्य, देहरादून, प्रथम
संस्करण-2021
16. गीता गैरोला – ये मन बंजारा रे, पृ.-148 संभावना
प्रकाशन, हापुड़, प्रथम संस्करण-2021
17. स्फूरना देवी - अबलाओं का इन्साफ़ (संपादन:नैया), पृष्ठ 117-118, राधाकृष्ण
प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण-2013
18. रश्मि झा - चीन के दिन, पृष्ठ-52, सामयिक बुक्स,
दिल्ली, प्रथम संस्करण-2014
डॉ. छोटू राम मीणा, सह-आचार्य
हिंदी विभाग, देशबंधु कॉलेज, कालकाजी,
नयी दिल्ली-110019
cr.deshbandhu08@gmail.com, 09968619551
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-41, अप्रैल-जून 2022 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक एवं जितेन्द्र यादव, चित्रांकन : सत्या सार्थ (पटना)
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