- डॉ. जयसिंह मीणा
शोध सार : स्वतंत्र भारत के सपनों और आम जनता की उम्मीदों को मध्यनजर रखते हुए रेणु भारतीय समाज में हो रहे बुनियादी परिवर्तन और प्रतिक्रियाओं को अपनी पैनी दृष्टि से देख रहे थे। जमींदारी उन्मूलन, भूमि सुधार, काश्तकारी अधिनियम, स्त्री-पुरुष संबंध, जाति-व्यवस्था, राजनीति के बदलते स्वरूप और नौकरशाही जैसे पहलुओं पर जो अंतरंग विचार-भाव पैदा हुए उनको साहित्य – विशेषत: उपन्यासों के माध्यम से अभिव्यक्ति प्रदान करने का ऐतिहासिक कार्य रेणु ने किया। सवाल ये उठता है कि सामंतवाद का ऐतिहासिक दौर खत्म हो जाने पर भी क्या आजाद भारत में उसके अवशेष शेष रह गए? सामंती प्रवृत्तियों के बचे रहने के कौनसे कारण रहे? वर्तमान भारतीय समाज के कौन से क्षेत्र इनसे प्रभावित हैं? इन सभी सवालों के आलोक में रेणु के उपन्यासों का विवेचन-विश्लेषण करना इस आलेख का प्रमुख उद्देश्य है?
बीज शब्द : आंचलिकता, सामंतवाद, जमींदारी-व्यवस्था, स्त्री-पुरुष संबंध, जातिवाद, दलित, आदिवासी, सामंती-संस्कृति, मध्यकाल, पूंजीवाद, स्वाधीनता, आधुनिक-समाज, अवसरवाद, राजनीति।
मूल आलेख : पूर्व मध्यकालीन भारत के सामंती समाज की विविध सामंती प्रवृत्तियाँ मसलन- जमींदारी प्रथा, महाजनी प्रथा, जाति व्यवस्था, नारी एवं दलित शोषण आदि का स्वतंत्र भारत में बने रहना यह दर्शाता है कि सामंतवाद भले ही अपने क्लासिकल रूप में खत्म हो गया हो, लेकिन वह स्वतंत्र भारत में जीवन के विविध क्षेत्रों में, विभिन्न रूपों में अपना स्थान बनाए हुए है। “जिन लोगों ने भी स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास को गहराई से देखा है, वे सब इस निष्कर्ष पर आने के लिए विवश हुए हैं कि अपने आखिरी दौर में यह आंदोलन ब्रिटिश विरोध के साथ जमींदार विरोध को भी आत्मसात कर चुका था। इसका कारण था राष्ट्रीय आंदोलन का धीरे-धीरे किसान तबकों में विस्तार। ग्रामीण अंचलों में अंग्रेज विरोधी रुख से अधिक जमींदार विरोधी रुख दिख रहा था। देश के अन्य हिस्सों के मुकाबले बिहार में किसान आंदोलन अधिक सांद्र था. इसका एक कारण यह भी था कि गवर्नर जनरल लार्ड चार्ल्स कार्नवालिस ने 1793 में जिस स्थाई बंदोबस्त की नीति को अंजाम दिया था उससे समाज में जमींदारों का एक प्रभुवर्ग ग्रामीण इलाकों में उभर आया था। ये जमींदार जोंक की तरह किसानों का खून चूस रहे थे।हर जगह इन्हें लेकर किसानों में विद्रोह भाव था।”1 आंचलिक उपन्यासकार फणीश्वरनाथ रेणु इस बात को भलीभाँति पहचान रहे थे। इसीलिए उन्होंने अपने लगभग सभी उपन्यासों में सामंती जीवन के इस स्याह पक्ष को मुखरता से रखा है। “'मैला आँचल' की कथाभूमि में ब्रिटिश उपनिवेशवाद से भारत की आज़ादी के तुरंत बाद के परिदृश्य हैं, तो 'परती परिकथा' में ज़मींदारी उन्मूलन के तुरंत बाद के।”2 वे आजाद भारत के सुनहरे सपनों के बीच आम आदमी और सरकारों को सचेत कर रहे थे। इस दृष्टि से इनके उपन्यासों का विश्लेषण होना अभी बाकी था।
‘मैला आँचल’ 1954 में राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुआ। यह फणीश्वरनाथ रेणु का पहला और सर्वाधिक चर्चित उपन्यास है। रेणु ने इस उपन्यास में बिहार के पूर्णिया जिले के गाँव की संस्कृति को अपना आधार बनाया है। गाँव की कथा गाँव की भाषा में ही लिखने के इस प्रयास ने साहित्य में आंचलिकता को एक अलग औपन्यासिक विधा के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया। ‘मैला आँचल’ के शिल्प और उसकी सरसता आदि पर विस्तृत चर्चाएँ हुई हैं, लेकिन सामंती अवशेषों को पहचानने के लिहाज से भी यह उपन्यास महत्त्वपूर्ण है, खासकर इसलिए कि यह आजादी के तुरंत बाद मेरीगंज नाम के गाँव में होने वाली हलचलों और संक्रमण को अपना विषय बनाता है। बकौल रेणु मेरीगंज में ‘बारहों बरन’ के लोग रहते हैं, इस गाँव में जहाँ पारंपरिक श्रम विभाजन मौजूद है, वहीं वे जातीय शोषण और सहअस्तित्व के जटिल संबंध में बंधी हुई हैं और इसीलिए अलग-अलग जातियों ने अपने हितों के हिसाब से गुट बनाए हुए हैं। गाँव में तीन मुख्य दल हैं, ‘कायस्थ, राजपूत और यादव। बाकी जातियाँ भी सुविधानुसार इन्हीं तीन दलों में बंटी हुई हैं।’ ‘मैंला आँचल’ में जाति आधारित व्यवहार के प्रसंग बहुत बार आए हैं। असल में ग्रामीण समाजों में व्यक्ति की वास्तविक पहचान तो उसकी जाति से ही होती है। इसी तथ्य को पहचानते हुए रेणु ने डॉ. प्रशांत से जुड़ा एक प्रसंग ‘मैला आँचल’ में रखा है, जिसमें प्रशांत से उसका नाम पूछने के बाद लोग उसकी जाति जानना चाहते हैं। अपने वास्तविक माँ-बाप से अनजान डॉ. साहब मजाक में कहते हैं ‘जाति डॉक्टर’ तब भी लोग पीछा नहीं छोड़ते और डॉ. सोचता है ‘‘जाति बहुत बड़ी चीज है, जाति-पाति नहीं मानने वालों की भी जाति होती है। सिर्फ हिन्दू कहने से ही पिंड नहीं छूट सकता, ब्राह्मण है?... कौन ब्राह्मण! गोत्र क्या है? मूल कौन है?... शहर में कोई किसी से जाति नहीं पूछता। शहर के लोगों की जाति का क्या ठिकाना! लेकिन गाँव में तो बिना जाति के आपका पानी भी नहीं चल सकता।"3 ऐसा इसलिए है कि सामंती समाज में व्यक्ति की हैसियत उसके अपने कर्मों से नहीं उसके जन्म से तय होती है, पवित्रता-अपवित्रता, व्यक्ति के जन्म से ही तय हो जाते हैं।
रेणु ने ‘मैला आँचल’ में ग्रामीण शक्ति संबंधों को बहुत बारीकी से पहचाना है। ऐसा नहीं है कि उच्च जाति के सभी सदस्य जमींदार हों,
लेकिन सभी जमींदार उच्च जातियों के ही हैं और लगभग सभी दलित तथा आदिवासी या तो भूमिहीन हैं या लगभग भूमिहीन हैं, अगर उन्हें जीने-खाने के लिए कुछ भूमि मिली हुई भी है तो वह जमींदारों की दया पर ही है। ‘मैला आँचल’ में भोला बाबू जैसे लोगों का जिक्र है, जिसके पास तीस हजार बीघा जमीन है और गुरू मुंशी बाबू की तो बात ही निराली है, उन्होंने वार फन (वार फंड) और सहायता फन (फंड) में सबसे ज्यादा रुपया दिया है ‘‘लोगों ने झूठ-मूठ अफवाह फैला दी है कि नोट बनाता है। अरे भई, नोट तो बनाती है उनकी कोसी गंगा किनारे की हजारों बीघा जमीन, जिसमें न हल लगता है न बैल, न मेहनत-मजदूरी।’’4 इस पंक्ति में तहसीलदार विश्वनाथ प्रसाद भी हैं। जब जमींदारी उन्मूलन की घोषणा हुई तो सभी भू-स्वामी जो कि उच्चजाति के थे, इकट्ठे हो गए, इसका कारण दोहरा था -अपनी आर्थिक स्थिति पर लगने वाली चोट और दलितों में इससे आने वाली आत्मनिर्भरता और स्वाभिमान।
‘मैला आँचल’ में रेणु ने स्त्रियों के प्रति समाज में मौजूद सामंती सोच को भी प्रकट किया है। अपनी बेटी की दवाई पर एक किसान ज्यादा पैसे नहीं खर्च कर सकता, क्योंकि वह लड़की की बीमारी है। ‘हुजूर लड़की की जाति बिना दवा-दारू के ही आराम हो जाती है।’ महिलाओं के नाम पर दी जाने वाली गालियाँ सामंती समाज में उन्हें भोग की वस्तु के रूप देखे जाने की मानसिकता को प्रकट करती हैं। ‘मैला आँचल’ में ऐसे बहुतेरे प्रसंग हैं, जैसे मठ पर आने वाला नागा साधु बात-बात में जो माँ की गालियाँ देता है, उसे उद्धृत करने की जरूरत नहीं है। मठ में धर्म की आड़ में महंत लछमिन दासिन का शोषण करता है। मठ की महंतई के उम्मीदवार लछमिन को भी मठ की ‘संपत्ति’ मानते हैं। महादेव मिसिर महंगू को कर्ज देने के बदले उसकी बेटी फुलिया से शारीरिक संबंध बनाता है और वे चुप रहते हैं। उपन्यास में जोतखी नाम का एक घोर अन्धविश्वासी और सामंती अभिरुचि वाला पात्र है। जोतखी बहु-विवाह करता है। रूढ़िवादी व्यवहार के कारण जोतखी की स्त्री मर जाती है।लेकिन तब भी वह पछताने की बजाय डॉ. के ऊपर हैरान होता है ‘शिव हो! शिव हो! पराई स्त्री को बपर्द करने की बात कैसे उसके मुंह से निकली?’रेणु के मैला आँचल का एक मार्मिक प्रसंग वह है, जब एक सीधी-सादी बुर्जुग महिला गणेश की नानी को डायन कहकर उसकी हत्या कर दी जाती है।
इसके अलावा रेणु ने राजनैतिक और प्रशासनिक व्यवस्था के पतन को भी ‘मैला आँचल’ में पहचानने का प्रयास किया है। वामनदास नाम का एक प्रतिबद्ध राजनैतिक कार्यकर्ता महसूस करता है कि भारत माता अब भी रो रही हैं। ‘मैला आँचल’ इस लिहाज से महत्त्वपूर्ण उपन्यास है कि वह समग्रता में भारत के ग्रामीण अंचलों में हो रहे सकारात्मक-नकारात्मक, सामाजिक-राजनैतिक परिवर्तनों की पड़ताल करता है। यह उपन्यास उन तथ्यों को रेखांकित करता है जो एक वास्तविक आधुनिक, लोकतांत्रिक समाज की स्थापना में आज भी बाधक बने हुए हैं।
रेणु का ‘दीर्घतपा’ उपन्यास पूरी तरह आधुनिक और शहरी परिवेश की आधुनिक समस्याओं पर केंद्रित है। बावजूद इसके उपन्यास में जगह-जगह सामंती अवशेष की झलक मिल जाया करती है। स्त्री-समस्या प्रधान उपन्यास होने के कारण लेखक ने नारी के सामाजिक, राजनीतिक एवं नैतिक उत्पीड़न की कथा कही है। एक आधुनिक समाज में स्त्री की स्थिति और उसके प्रति समाज की सोच में कहीं भी आधुनिकता के निशान नहीं मिलते। उपन्यास में शुरू से लेकर अंत तक स्त्री तरह-तरह के बंधनों से घिरी हुई है। उसका मानसिक और शारीरिक शोषण किया जाता है। उपन्यास में समाज सेवा, देश सेवा के लिए समर्पित कर देने वाली पात्र हैं - श्रीमती रमला बनर्जी और मिस बेला गुप्ता। बेला ‘वर्किंग वीमेंस हॉस्टल’ की संचालिका है, जिसने सदैव त्याग, अनुशासन व मनुष्यता का व्रत धारण किया है। इसके बरक्स एक दूसरी स्त्री पात्र श्रीमती आनन्द हैं, जो ‘वीमेंस वेलफेयर सोसायटी’ की सेक्रेटरी हैं। वह अधिकारी होने के कारण किसी सामंत की तरह अपने अधीन काम करने वालों के साथ गुलामों जैसा अमानवीय व्यवहार करती है। नौकरशाही की तानाशाही स्वतंत्र भारत में वैसे ही बरकरार है। खुद एक स्त्री होने के बावजूद श्रीमती आनन्द स्त्रियों का शोषण करवाती है, ‘वीमेंस वेलफेयर सोसायटी’ व ‘हॉस्टल’ में रहने वाली लड़कियों का देह व्यापार करती है। अर्थलोलुप प्रवृत्ति के कारण वह मानवीय मूल्यों का गला घोंट देती है।
सामंती समाज में चीजों के निर्धारण में जाति एक प्रमुख भूमिका निभाती है। सामंती व्यवस्था समाप्त हो गई,
लेकिन अपने अवशेष वह व्यक्ति के जीवन में भीतर तक छोड़ गई। स्वतंत्र भारत का आधुनिक समाज भी अधिकतर व्यक्तियों के चरित्र का निर्णय सामंती समाज की तरह धर्म, जाति, लिंग, क्षेत्र और रंग के आधार पर ही करता है। स्त्री को सिर्फ एक सामान की तरह अपनी इच्छानुसार प्रयोग में लेना यह सबकुछ सामंती समाज की ही देन है। स्वतंत्रता से पूर्व जिन मानवीय मूल्यों के साथ संघर्ष किया गया था, समता और बंधुत्व का नारा दिया गया था, वे सब आधुनिक काल में खोते हुए से नजर आ रहे हैं। स्वाधीन भारत में आदिवासियों में कितनी चेतना विकसित हो पाई है, इसका उदाहरण बागे है। आदिवासियों पर सदैव ही उच्चवर्ग एवं जाति के लोगों तथा अधिकारियों द्वारा जुल्म ढहाए गए हैं- बलात्कार और शोषण किया गया है। स्वतंत्रता के बाद जिस तरह सामाजिक और आर्थिक शोषण को बढ़ावा मिला, राजनीति का स्वरूप विकृत होता गया, वैसे-वैसे देश में निराशा और शिथिलता का वातावरण भी कायम होता गया। राजनीति में चल रहे अवसरवाद, जातिवाद तथा भाई-भतीजावाद से देश के कल्याण की बात सोचना, मूर्खता होगी। ‘दीर्घतपा’ में इन प्रवृत्तियों का उद्घाटन करते हुए राजनीति का विकृत रूप बताते हुए रेणु अपने एक पात्र से कहलवाते हैं ‘‘कोई भी पार्टी पावर में आवे, जातीयता फूलेगी, फलेगी, फेवरटिज्म मिटेगा नहीं। भाई-भतीजावाद भी कायम रहेगा।’’5 इससे राजनीति में सच्चे देशभक्तों एवं समाज सुधारकों का प्रवेश करना नामुमकिन हो जाएगा और चारों तरफ भ्रष्टाचार व शोषण को बढ़ावा मिलेगा। रेणु भारत की राजनैतिक आजादी से भी संतुष्ट नहीं दिखते। ‘मैला आँचल’ में भी वे भारत की आजादी पर सवाल उठाते हैं और ‘दीर्घतपा’ में भी। उनकी दृष्टि में आजादी का जो स्वरूप पहले था, वैसा ही अब भी है। ‘दीर्घतपा’ की बेलागुप्ता, ‘जुलूस’ की पवित्रा तथा ‘परती परिकथा’ की इरावती के माध्यम से हम देख सकते हैं कि राजनीतिक नेताओं द्वारा महिलाओं का किस तरह शोषण किया जा रहा है। बाँके बिहारी जैसे चरित्रों के माध्यम से रेणु ने ऐसे सामंती चरित्र वाले राजनीतिज्ञों की कथा कही है, जिन्होंने अवसर देखकर चोला बदल लिया और खुद को क्रांतिकारी कहने लग गए। आधुनिक भारत में राजनीति स्वयं एक व्यापार बन गई और तरह-तरह के धूर्त व्यक्तियों ने उसे अपनी आकांक्षाओं को पूरा करने का साधन बना लिया है।
स्वाधीनता संघर्ष के अन्तिम चरण में भारत को विभाजन की त्रासदी का आघात झेलना पड़ा। हिंदी में ऐसी कोई रचना नहीं लिखी गई जो पूर्व की त्रासदी पर केन्द्रित हो और न ही बांग्ला में पश्चिम की त्रासदी पर। इस दृष्टि से देखें तो फणीश्वरनाथ रेणु का उपन्यास ‘जुलूस’ पहला उपन्यास है जो पूर्व के शरणार्थियों और विभाजन की त्रासदी को आधार बनाकर लिखा गया। बिहार में आए पूर्व बंग के शरणार्थियों पर लिखा गया यह उपन्यास सन् 1965 में प्रकाशित हुआ था जिसमें स्वतंत्रता के बाद के 14 वर्ष की अवधि को आधार बनाकर उसमें देश की राजनीति, उसके सामाजिक-सांस्कृतिक आचरण में आए बदलाव व बदली हुई आर्थिक स्थिति को चित्रित करने की कोशिश की है। राष्ट्र एक आधुनिक अवधारणा ही नहीं, आधुनिक वास्तविकता भी है। राष्ट्र का अर्थ केवल हवा, पानी, मिट्टी नहीं है बल्कि उसमें राष्ट्रभूमि में रहने वाला हर एक इंसान आ जाता है। राष्ट्र को प्रेम करने का अर्थ उसमें रहने वाले इंसानों के प्रति अपनापन महसूस करना है। बंगाल से आने वालों ने किसी का घर नहीं कब्जा किया था, लेकिन फिर भी बिहार के रहने वालों को वे पराए लगते थे और खुद वे भी अपने आप को अलग ही समझते थे। सामंती समाज में व्यक्ति अपने समूह से, अपने स्थान, अपनी बोली से पहचाना जाता है। एक आधुनिक राष्ट्र के रूप में विविधता में एकता भारत के लिए आदर्श था, लेकिन अगर आज भी भाषा के नाम पर, क्षेत्र के नाम पर झगड़े होते हैं।
जातिवाद का बोलबाला भी प्रान्तीयता के भेदभाव की तरह स्वतंत्र रूप में और कई जगह प्रान्तीय भेदभाव के साथ जुड़कर आया है। ‘मैला आँचल’ और ‘परती परिकथा’ की तरह ही रेणु ने ‘जुलूस’ उपन्यास में भी भोज के आयोजन की व्यवस्था करवाई है। भोज की घोषणा होते ही यहाँ भी जाति,
वर्ण के मसले उठने लगते हैं तथा बंगाली शरणार्थियों के साथ खाने से परहेज करने लगते हैं। शारदा बर्मन इन लोगों के साथ ‘खिलान-पिलान’ और ‘मिलान’ की बात को बुरा मानता है। गोपाल पाइन की स्त्री इन सामंती मूल्यों एवं भेदभाव मूलक समाज को ढहता देखकर दुखी होती है और कहती है - ‘जाति, धर्म बाकी था सो सब गया।’ डॉक्टर रामचंद्र चौधरी भी अपने मन की भड़ास और तालेबर गोढ़ी से दुश्मनी निकालने के लिए इस मेल मिलाप और भोज का विरोध करता है, उसके विरुद्ध भड़काता है। सामंती समाज में रूढ़ि, परंपरा, धर्म एवं रीति रिवाजों को मनुष्यता से अधिक महत्त्व दिया जाता है। खान-पान, रहन-सहन एवं शादी-विवाह के नियम जातिगत श्रेष्ठता से बुरी तरह प्रभावित थे।
‘जुलूस’ उपन्यास की कथा गोढ़ियर गाँव से प्रारंभ होती है। तालेवर गोढ़ी गाँव का सबसे सुखी, संपन्न, शिक्षित और चालाक व्यक्ति है। जमींदारी और महाजनी कार्य करने एवं बड़ा पूँजीपति होने की वजह से गाँव के सभी लोग उसकी कृपा एवं दया पर निर्भर रहते हैं। जनता को अंधकार में डुबोकर रखना, उनमें नवीन ज्ञान एवं नई सोच को विकसित नहीं होने देने की प्रवृति पूर्व मध्यकाल के सामंती युग की ही देन है जो औपनिवेशिक शासन के दौरान नए रूप में विकसित हुई। ‘जुलूस’ उपन्यास में नवीन नगर और गोढ़ियर गाँव के निवासी अंधविश्वासों के चक्र में फंसे हुए हैं। वे तंत्र-मंत्र और जादू टोना में विश्वास करते हैं। तंत्र मंत्र की शक्ति के नाम पर स्त्रियों का शोषण करने की प्रवृत्ति सामंती समाज के केन्द्र में रही है।
स्वतंत्र भारत में पूँजीपति वर्ग द्वारा धन से धन पैदा करने की नीति अपनाई गई। ‘अर्थ’ अधिक से अधिक बढ़ाने की प्रवृत्ति से ही समाज में रिश्वतखोरी, काले-धंधे, डकैती, अवैध व्यापार जैसे गैर कानूनी कार्यों के नए-नए रूप विकसित हुए। रेणु ऐसे कथाकारों में हैं जो समाज के उत्पीड़क तबकों की खोज करने में अग्रणी रहे। ‘जुलूस’ उपन्यास में पूँजीपति भी है, पूँजीवादी शोषण भी है, अर्थलोलुप व्यापारी-जमींदार भी हैं जो अवैध कार्यों से पूँजीपति बनने का सपना देख रहे हैं। गोढ़ियर गाँव की आर्थिक दशा अच्छी नहीं है, खासतौर से वहाँ के निम्नवर्ग की। उच्च एवं निम्न वर्ग के मध्य की आर्थिक विषमता का उदाहरण देखें तो एक तरफ जहाँ तालेबर गोढ़ी जैसा धन लोलुप व्यक्ति है जिसके पास जमीन भी है और पूँजी भी तो दूसरी तरफ बीस घर ग्वालों के हैं जिनमें से न किसी के पास भैंस है और न गाय। किसी के पास एक धुर भी जमीन नहीं है। उपन्यास में रेणु ने ऐसी कई छवियाँ प्रस्तुत की हैं जो जमींदारी उन्मूलन का एहसास कराती हैं। काशीनाथ चटर्जी हों चाहे पं. रामचंद्र चौधरी, उनके पूर्व जमींदार होने का उल्लेख मिलता है जिनकी जमींदारी अब खत्म हो गई है। सिर्फ यही नहीं, रेणु ने जमींदारी उन्मूलन के बाद जमींदारों द्वारा पूँजीपति बनने का सपना देखने तथा उस सपने को साकार करने हेतु उनके द्वारा अपनाए जाने वाले वैध-अवैध धंधों का भी पर्दाफाश किया है जो स्वतंत्र भारत की सच्चाई है। पं. चौधरी आर्थिक संकट के समय अपनी पुरानी जमींदारी एवं खोई हुई सारी संपत्ति वापस जमाकर तालेबर गोढ़ी का प्रतिद्वंद्वी बनने हेतु अपने बेटे कामदेव द्वारा दिए गए प्रस्ताव - गाँजा के अवैध व्यापार द्वारा मुनाफा कमाने - से सहमत हो जाता है।
गोड़ियर गाँव में अचानक हुई भीषण वर्षा से बाढ़ और प्रलय की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। प्रलय या ऐसी किसी अन्य विभीषिका के समय जमींदार, सामंत एवं महाजनों को निम्न वर्ग की जनता का शोषण करने का बेहतर अवसर मिलता है। तालेबर गोढ़ी गाँव का शक्तिसंपन्न जमींदार भी है और बड़ा महाजन भी। उसकी अर्थलोलुपता ही है कि वह प्रलय से मरती हुई गाँव की जनता की सहायता करने की अपेक्षा उजड़े एवं बेघर हुए गरीबों को ‘सूद’ पर कर्ज देने की बात सोचता है। उनकी सारी जमीन अधिकृत करके उन्हें बंधुआ मजदूर बनने को विवश करने वाली यह सोच सामंती दृष्टि से ही प्रेरित है। तालेबर ही नहीं, जमींदारी उजड़ जाने के बाद अवैध रूप से ‘गाँजा व्यापार’ द्वारा अधिक मुनाफा प्राप्त कर पूँजीपति बनने वाला पं. रामचंद्र चौधरी भी इस विभीषिका से उत्पन्न संकट से दुखी नहीं होता अपितु प्रसन्न है। क्योंकि वह भी ‘ड्योढ़े के सूद’ पर रुपए लगाएगा। स्वतंत्र भारत में सूदखोरी को तो गैर कानूनी घोषित कर दिया गया था लेकिन आर्थिक क्षेत्र में मौजूद ये सामंती अवशेष स्वतंत्र भारत में भी मौजूद हैं। इस प्रलय एवं बाढ़ से उत्पन्न स्थिति से रेणु एक महत्त्वपूर्ण संकेत और देते हैं। संकेत रेणु का इस ओर है कि स्वतंत्र भारत में जमींदार, महाजन एवं पूँजीपति इतने शक्तिशाली हो गए हैं कि राजनेता, गाँव के निवासी एवं मंत्री-गण सहायतार्थ सरकार पर नहीं, उन्हीं पर निर्भर हो गए हैं।
जब भारत को विधिवत रूप से 1947 में आजादी मिली उसके बाद से देश की राजनीति में बड़े-बड़े परिवर्तन हुए। कांग्रेस पार्टी पूरी तरह से जमींदारों और पूँजीपतियों के आगोश में चली गई तथा ‘‘पूर्व राजनीतिज्ञों में जो राजनीतिक त्याग, निस्पृहता, आत्मसंयम और आजीवन देश सेवा तथा संघर्ष की भावना थी वह अचानक लुप्त हो गई। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद अर्जित मूल्यों का सर्वनाश शुरू हो गया जिसके मूल में व्यक्तिगत स्वार्थ की राजनीति थी।’’6 देश की विकृत राजनीति को देखकर कोई भी सजग व्यक्ति इस आजादी को ‘झूठी आजादी’ ही कहेगा। अतः ‘जुलूस’ उपन्यास में रेणु ने एक तरफ जहाँ सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक क्षेत्र में व्याप्त विद्रूपताओं को पूरी सजीवता के साथ उठाया, वहीं दूसरी तरफ वे ऐसी दुष्प्रवृत्तियों एवं कुप्रथाओं के विरोधी चरित्र भी प्रस्तुत करते हैं।
रेणु का अंतिम (लघु) उपन्यास ‘कितने चौराहे’ स्वराज्य प्राप्ति के लिए किए गए राष्ट्रीय आंदोलन को आधार बनाकर रचा गया,
जो 1979 में प्रकाशित हुआ। इस उपन्यास की विषय वस्तु 1933 से 1942 के मध्य की है। स्वराज्य प्राप्ति के लिए किए जाने वाले आंदोलन की अगुवाई मुख्यतः मनमोहन, प्रियोदा और ‘किशोर क्लब’ के सदस्य करते हैं। इसके अलावा राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान होने वाले अनशन, हड़ताल एवं विदेशी वस्त्रों के त्याग जैसी महत्त्वपूर्ण घटनाओं की प्रस्तुति भी हमें ‘कितने चौराहे’ में देखने को मिलती है। उपन्यास में हड़ताल, अनशन आदि तो हो रहे हैं, सरकार व पुलिस का दमनचक्र भी चल रहा है। अनशन करते हुए यतीन बाबा की मृत्यु होने पर प्रियोदा मोना से कहता है - ‘‘रोता क्यों है? रोता क्यों है? बात रोने की नहीं, हंसने की है। अब देरी नहीं। स्वराज करीब आ रहा है- धीरे-धीरे और भी मरेंगे। मारे जाएँगे।’’7 उपन्यास में कई कथाएँ - प्रियोदा, हफीज साहब, शरबतिया आदि - होने के बावजूद मूल कथा के रूप में मनमोहन की कथा है। मनमोहन के माध्यम से रेणु ने जाति, अंधविश्वास, राजनीति एवं आर्थिक क्षेत्र की कुछ मूल समस्याओं को उठाया है जो स्वतंत्रता की राह में बाधा उत्पन्न करती हैं। लेखक इन समस्याओं को अभिव्यक्त कर औपनिवेशिक भारत में मौजूद सामंती प्रवृत्तियों का दस्तावेज भी प्रस्तुत करता है जो एक परंपरा के तहत पूर्व मध्यकाल से अब तक चलती आ रही हैं। उपन्यास में कृत्यानंद के पिताजी छोटे जमींदार है,
आर्यसमाजी हैं। इसी प्रकार शिवनाथ और हरेन्द्र भी जमींदार के लड़के हैं मगर ‘केनिंग’ यानी बेंत लगने के दिन से दोनों खादी पहनकर किशोर क्लब के सदस्य बन जाते हैं और देश सेवा करने की प्रतिज्ञा कर लेते हैं। जमींदारी के ऐसे छोटे-छोटे प्रसंग ही उपन्यास में आए हैं।
रेणु के उपन्यास लेखन की अगली कड़ी है- ‘पल्टू बाबू रोड़’। हालाँकि इसका रचनाकाल ‘परती परिकथा’ के ठीक बाद का है,
लेकिन पुस्तकाकार रूप में इसका प्रकाशन 1979 में रेणु की मृत्यु के पश्चात हुआ। यह उपन्यास अपने दो पूर्ववर्ती महाकाव्यात्मक उपन्यासों की तुलना में छोटी कथावस्तु वाला है जिसमें एक ऐसे समाज को आधार बनाया गया है जो लगातार विकृत और ह्रासोन्मुख हो रहा है। इस उपन्यास में भारतीय समाज में व्याप्त कुंठा तथा स्त्रियों को केवल देह मानने वाली सामंती सोच पर प्रहार किया गया है। राजनीतिक एवं सामाजिक जीवन की विभिन्न समस्याओं तथा स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हुए जमींदारी उन्मूलन के परिणामस्वरूप उत्पन्न स्थिति को चित्रित करने के लिहाज से यह उपन्यास काफी महत्त्वपूर्ण है। पल्टू बाबू नवनिर्मित बैरगाछी कस्बे के लिए एक ऐसी राह का निर्माण करता है जिस पर सभी लोग -ठेकेदार, राजनीतिज्ञ, व्यापारी, वकील आदि चलते जाते हैं। ये ठीक शतरंज के मोहरों की तरह गाँव वालों का संचालन करते हैं। उपन्यास में उच्चवर्गीय मानसिकता, जातिगत श्रेष्ठता की भावना गृहस्वामिनी के माध्यम से अभिव्यक्त हुई है। प्रेम और सद्भाव के स्थान पर ईर्ष्या, प्रतिशोध एवं उपभोगवादी मानसिकता का परिचय मिलता है। ’पल्टू बाबू रोड’ में नीलिमा और सुशील झा का प्रेम भी इसकी भेंट चढ़ता है।
यह उपन्यास स्वतंत्रता के बाद लिखा गया है इसलिए राजनेताओं का नैतिक पतन,
राजनीति और प्रशासन में व्याप्त भ्रष्टाचार, देशभक्ति का ढोंग एवं पाखंड आदि को रेणु ने गम्भीरता से दिखाया है। ’पल्टू बाबू रोड’ का राय परिवार कांग्रेस और सोशलिस्ट में विभाजित है। ऐसा किसी राजनीतिक विचारधारा में आस्था के कारण नहीं बल्कि राजनीतिक प्रभाव एवं शक्ति व प्रभाव का संतुलन कायम करने के उद्देश्य से है। कांग्रेस पार्टी में मुरलीमनोहर व बिजली एक दूसरे से संबद्ध हैं तो सोशलिस्ट पार्टी में गोधन लाल और छवि। यह एक ओर अवसरवादी राजनीति का उदाहरण है वहीँ दूसरी ओर इस समस्या की ओर संकेत भी कि किस तरह स्वतंत्र भारत में सारी राजनीतिक शक्ति कुछ भ्रष्ट परिवारों तक सीमित हो गई। वास्तव में पल्टू बाबू के लिए राजनीति कोई आदर्श नहीं बल्कि स्वार्थ साधन,
प्रभाव-शक्ति कायम रखने और लोगों को आपस में लड़ाने का माध्यम भर है जिसका राजनीतिक लाभ उठाता है। हम देखते हैं कि एक तरफ मैला आँचल के बावन दास जैसे कर्मठ एवं समर्पित कार्यकर्ता हैं जो भ्रष्टाचार का विरोध करते-करते प्राण गवाँ देते हैं वहीं ’पल्टू बाबू रोड’ में पल्टू बाबू, मुरली मनोहर जैसे नेता हैं जो भ्रष्टाचार को बढ़ावा देते हैं। मुरली मनोहर मेहता और गोधन राजनीति में क्रमश: कांग्रेस और सोशलिस्ट पार्टी में शामिल होते हैं, किसी राजनीतिक अभिरूचि के कारण नहीं, बल्कि राजनीतिक प्रभाव बढ़ाने हेतु। गोधन पुलिस के द्वारा किसी भारी केस में फंसाए जाने के डर से पल्टू बाबू जैसे चालाक राजनीतिज्ञ की सहायता से सोशलिस्ट पार्टी का लीडर बन जाता है। यह राजनीति के अपराधीकरण का एक उदाहरण है, जिससे खुद को समाजवादी कहने वाली पार्टियाँ भी नहीं बच सकी हैं। जिस तरह सामंती व्यवस्था में बाहुबल ही सत्ता की कुंजी हुआ करता था, वही हाल हमारी राजनीति का भी है। प्रशासन में व्याप्त भ्रष्टाचार की पोल रेणु ने एस.डी.ओ. के माध्यम से खोली है। छोगमल राजनीति का सहारा लेकर एक ऐसी जमीन पर टिम्बर कंपनी खोलना चाहता है जहाँ पर मजदूरों के झोंपड़े हैं। प्रशासन का राजनीति से और राजनेताओं का संबंध बड़े-बड़े उद्योगपतियों एवं कंपनियों के संचालनकर्ताओं से होता है। वे आम जनता- किसान, मजदूरों- की जमीनों पर कंपनी बनाने, उद्योग खोलने का सपना देख सकते हैं क्योंकि वे जानते हैं ऊपरी शक्ति और सत्ता के दमन के आगे वह कुछ नहीं कर सकते। लोकतांत्रिक कहे जाने वाले समाज में अगर बहुसंख्यक जनता अपने-आपको लाचार पाती है तो यह लोकतंत्र पर प्रश्न चिह्न है।
स्वतंत्रता के पश्चात भूमिहीनों की विशाल जमात में कमी लाने एवं उन्हें भूमि देने हेतु जो जमींदारी उन्मूलन किए गए,
रेणु उसके बाद की स्थिति को अपने उपन्यास की कथा में चित्रित करते हैं। जमींदारों ने अपनी जमीन की रक्षा करने हेतु विविध तरीकों से उन्मूलन कार्यों में बाधा पहुँचाई। मसला यह भी था कि कई जमींदार पहले ही जमींदारी छोड़कर राजनीति में शामिल हो गए तथा कई सामंत या जमींदारों का संबंध महत्त्वपूर्ण पार्टियों के नेताओं व कार्यकर्ताओं से होने के कारण भी राजनेताओं ने उनकी भूमि की रक्षा का प्रत्यत्न किया। उसी दौरान जमींदार और किसान आपस में संघर्ष भी करने लगे थे- भूमिहीन भूमि प्राप्त करने के लिए और जमींदार उसे भूमि न देकर उसकी रक्षा करने के लिए। रेणु ने ‘पल्टू बाबू रोड’ उपन्यास में स्वतंत्र भारत में जमींदार उन्मूलन के समय की स्थिति का चित्रण किया है। साथ ही पुलिस और राजनीति की भूमिका का भी उल्लेख करते हैं। हम जानते है कि यह एक कानून के तहत चलाया जाने वाला कार्यक्रम था, यह महत्त्वपूर्ण है कि भूमि सुधार आन्दोलन का काम कांग्रेस सरकार के नेतृत्व में हुआ और अधिकतर सामंत और जमींदार कांग्रेस में चले गये थे, ऐसे में सही ढंग से भूमि सुधारों की उम्मीद किससे और कैसे की जा सकती थी।
स्वतंत्रता के बाद लिखे गए हिन्दी आँचलिक उपन्यासों में ‘परती परिकथा’ का स्थान अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। रेणु ने स्वतंत्र भारत के ग्रामीण जीवन के यथार्थ को केंद्र में रखकर दूसरा महत्त्वपूर्ण उपन्यास ‘परती परिकथा’ लिखा जो 1957 में प्रकाशित हुआ। ‘मैला आँचल’ बिहार के पूर्णिया जिले के मेरीगंज गाँव को आधार बनाकर लिखा गया था। ‘मैला आँचल’ की तरह ही ‘परती परिकथा’ में भी इसी क्षेत्र का दूसरा गाँव परानपुर कथा के केंद्र में है। परानपुर में लाखों एकड़ परती पड़ी हुई भूमि, लेखक के शब्दों में ‘धूसर, वीरान, अंतहीन प्रांतर। पतिता भूमि, परती जमीन, वन्ध्या धरती...’ को आधार बनाकर रेणु ने वहाँ के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक एवं साँस्कृतिक जीवन की विशेषताओं एवं विसंगतियों को यथार्थवादी ढंग से चित्रित करने का सफल प्रयास किया है। हम देखते हैं कि यहाँ भी लोक विश्वास हैं, अंधविश्वास हैं जहाँ सकारात्मक परिवर्तनों के विरुद्ध विभिन्न तरह विरोधी प्रतिक्रियाएँ होती हैं। रेणु ने सिर्फ इसमें परती भूमि की समस्या ही नहीं दिखाई है, बल्कि यह भी दिखाया है कि परानपुर की ऊसर, वीरान, वंध्या धरती के समान यहाँ के लोगों का दिल और दिमाग भी ऊसर हो गया है, परती की तरह बंजर हो गया है; उन्होंने लिखा है ‘एक परती का संबंध धरती से है और दूसरी का मन से है; अर्थात बंजर जमीन ही नहीं होती, मन भी हो जाता है।’8 इसीलिए आगे वे कहते हैं कि ‘इतनी ही नहीं है इस उपन्यास की कथा। कथा है बंजरता से उभरने, उसे तोड़ने और पुनः उर्वर बनाने की; प्रतीकार्थ में कहें तो राजनीतिक मुक्ति के बाद मानव-मन को मुक्त करने की।’9
उपन्यास का काल भूमि सुधार के आर्थिक कार्यक्रम लागू होने के समय का है। यह विडम्बना ही है कि किसान कृषि उत्पादन करने के बावजूद सदैव आर्थिक रूप से पिछड़ा रहा है,
क्योंकि खेत पर कानूनन मालिकाना हक़ जमींदार का रहा है। जमींदार भूमि सुधारकों को मात देकर, अनैतिक तरीके अपनाकर अपनी जमींदारी कायम रख पाने में सफल रहे। “उपन्यासकार ने जमींदारी व्यवस्था को केंद्र में रखकर देश भर के सामंतों और पूँजीपतियों का चेहरा साफ किया है। जमींदारी व्यवस्था को लेकर रेणु की दृष्टि बहुत ही पैनी है। रेणु ने 'परती-परिकथा’ में यह दिखाने का प्रयास किया है कि जमींदारी या पूँजीपति वर्ग के लोग, आमजनों का सदियों से शोषण करते आ रहे हैं। वे समय के साथ-साथ अपनी नीति भी बदलते रहे हैं। आमजनों के दिलों में बैठने के लिए सहानुभूति दिखाते रहे हैं। साथ में अपनी जमीन या धन को किसी तरह बरकरार रख, उसी के बल पर लोगों का शोषण भी करते रहे हैं। यह उपन्यास, इसलिए भी प्रासंगिक है कि आजादी के पहले से लेकर आज तक यही स्थिति बनी हुई है। उदाहरण के लिए, शिवेन्द्र मिश्र ने जायदाद, जालसाजी, डकैती आदि सभी हथकंडे का सहारा लेकर खड़ा किया। पड़ोस की जमींदारिन विधवा मिसेज गीता मिश्र का मैनेजर बनकर, प्रेमी और पति हो गया। जमींदारी उन्मूलन होने के समय दाव-पेंच और लाठी के बल पर सारी जमीन शिवेन्द्र मिश्र के बेटे जितेन्द्र मिश्र के नाम कर दी जाती है। जितेन्द्र मिश्र उस जमींन को बचाने के लिए जनता के प्रति सहानुभूति दिखाकर उसके दिल में बैठ जमीन बचाने में सफल रहता है। इस तरह से उपन्यास में जमींदार का बेटा जमींदार बनकर जीता है और गरीब और अधिक गरीब होते जा रहे हैं।”10 ‘स्वतन्त्रता के बाद औपचारिक रूप से कागजी स्तर पर जमींदारी उन्मूलन, भूमि सुधार संबंधी अन्य कानून- काश्तकारी, हदबंदी, भूदान आंदोलन चलाने के बावजूद समाज में जमींदारी प्रथा, भूमि का असमान वितरण कायम है तथा भूमिहीनों की समस्याएँ ज्यों की त्यों पड़ी हुई हैं, जबकि उपरोक्त सारे कानून भूमिहीनों के लिए ही बनाए गए थे।इसका एक कारण ये भी था कि “ज़मींदारी उन्मूलन कानून को ज़मींदारों ने अपने अनुकूल कर लिया। नये संविधान में संपत्ति रखने का अधिकार था और पुराने ज़मींदारी सिस्टम में जमींदार को भी जोत की जमीन रखने का अधिकार था। इन दोनों को मिला कर पुराने जमींदार अब बड़े किसान हो गए। उन सब ने अपने नाम सैकड़ों-हजारों एकड़ जमीन रख ली। ट्रैक्टर और अन्य आधुनिक साधनों से खेती करने की योजना भी बनी। इन्हीं बिंदुओं पर रेणु ने ध्यान खींचने की कोशिश की है। सर्वे सेटलमेंट अभियान इसी दिशा में उठाया गया एक कदम था कि वास्तविक किसानों को कानून का संरक्षण मिल सके।”11
भारत में महाजनी प्रथा भी सामंतवाद की देन है। इसमें एक तरफ जमींदारी शोषण तो दूसरी तरफ महाजनी शोषण विद्यमान था। महाजन वर्ग के बारे में बिपन चन्द्र ने ठीक ही कहा है कि ‘औपनिवेशिक भारत में लैण्ड सिस्टम में महाजन वर्ग ऑयल का ही काम करता था।’ ‘परती परिकथा’ में महाजनी शोषण की अभिव्यक्ति कर रेणु ने उसकी वास्तविकता को उजागर किया है। उपन्यास में रोशन बिस्वां गाँव का सबसे बड़ा महाजन है। यह मुकाम उसने बंधकी सूद-रेहन के व्यापार द्वारा हासिल किया है। उसके पास जमीन कम थी,
लेकिन सर्वे के समय इस कमी को भी पूरा कर लिया- महाजन बनकर। सामंतों द्वारा किए जाने वाले इस शोषण को विराम आज भी नहीं मिला है। हम देखेंगे कि महाजन वर्ग प्रत्येक गाँव में चौधरी, जमींदार या गाँव का मुखिया बनकर अपना अस्तित्व बनाए हुए हैं, बस महाजनी शोषण का रूप थोड़ा परिवर्तित हो गया है।
जाति आधारित राजनीति, अवसरवाद, भ्रष्टाचार तथा भोग-विलासिता का जीवन जीना सामंतवादी राजनीति के लक्षण हैं। ‘परती परिकथा’ में जित्तन अपने निजी अनुभवों से राजनीति के चरित्र एवं कटुता को देखकर उसके प्रति वितृष्णा से भर जाता है। ‘परती परिकथा’ के अन्त में रेणु ने जित्तन के माध्यम से कहलवाया है कि ‘‘राजनीतिक पार्टियों के कार्यकर्ताओं से मैं कहूँगा कि जनता की सरलता का दुरुपयोग अपने स्वार्थ के लिए न करें। ...क्षतिपूर्ति, पुनर्वास तथा जमीन- वितरण आदि ऐसे मसले हैं जिनमें सरकारी लालफीताषाही और घूसखोरी से आप ही बचा सकते हैं,
जनता को।”12 रेणु ने वर्तमान भारतीय समाज में लाल-फीताशाही, अफसरशाही की कड़ी आलोचना करते हुए राजनीति को ऐसा हथियार माना है जो इन सब से मानव-मन को मुक्त कर सकती है।
निष्कर्ष : सामंती समाज के आर्थिक पक्ष - जमींदारी प्रथा, बेगारी एवं महाजनी प्रथा इन उपन्यासों के केंद्र में है। जमींदारी प्रथा को बनाए रखने में भ्रष्ट राजनीतिज्ञों तथा घूसखोर नौकरशाही की साँठ-गांठ, महाजन और जमींदारों के निकट संबंध,फलस्वरूप भूमि-सुधार और समाज सुधार कार्यकर्मों की विफलता भी इन उपन्यासों का मूल उत्स है। रेणु समस्याओं के चित्रण के साथ समाधान की दिशा भी प्रदान करते हैं। राजनीतिक पार्टियों के अवसरवाद, उनकी पाखंडपूर्ण नीतियों, राजनीति में पसरे जातिवाद पर ये उपन्यास बहुत गहरी चोट करते हैं। सामंती समाज की व्यवहारिक सच्चाइयों को मूर्त रूप में प्रस्तुत कर सकने के कारण ये असाधारण सामाजिक महत्त्व के उपन्यास हैं।
1. समालोचन, परती परिकथा की पहेली: प्रेमकुमार मणि, samalochan.com, 2021, पृ.1
2. वही, पृ. 2
3. फणीश्वरनाथ रेणु - मैला आँचल, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2002, पृ. 49
4. वही, पृ. 72
5. भारत यायावर (सं.)- रेणु रचनावली- 3, राजकमल प्रकाशन, 1995, पृ. 50
6. डॉ. रामचन्द्र हजारी- फणीश्वरनाथ रेणु के कथा साहित्य में सामाजिक विसंगतियाँ, अजगैवी पब्लिकेशन प्रा.लि., मुंबई 2003, पृ.162
7. भारत यायावर (सं.)- रेणु रचनावली-3, राजकमल प्रकाशन, 1995, पृ. 283
8. भारत यायावर (सं.)- रेणु रचनावली-2, राजकमल प्रकाशन, 1995, ‘परती परिकथा की भूमिका’
9. वही, भूमिका
10. समीक्षा : 'परती-परिकथा’ और ज़मीदारी व्यवस्था / सुरेश कुमार ‘निराला’, अपनी माटी, वर्ष-2, अंक-21 (जनवरी, 2016)
11. समालोचन, परती परिकथा की पहेली: प्रेमकुमार मणि, samalochan.com, प्रकाशन – 2001, पृ. 3
12. भारत यायावर (सं.)- रेणु रचनावली-3, राजकमल प्रकाशन, 1995, पृ. 378-379
डॉ. जयसिंह मीणा
सहायक प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, लक्ष्मीबाई कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय
jaijnu@gmail.com,
9968340438
सहायक प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, लक्ष्मीबाई कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय
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अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) फणीश्वर नाथ रेणु विशेषांक, अंक-42, जून 2022, UGC Care Listed Issue
अतिथि सम्पादक : मनीष रंजन
सम्पादन सहयोग : प्रवीण कुमार जोशी, मोहम्मद हुसैन डायर, मैना शर्मा और अभिनव सरोवा चित्रांकन : मीनाक्षी झा बनर्जी(पटना)
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