बलचनमा और
कोठे खड़क सिंह के आँचलिक सौंदर्य का तुलनात्मक अध्ययन
- ज्योति एवं डॉ. बिजय कुमार प्रधान
शोध-सार : आँचलिकता की प्रवृत्ति ने विश्व साहित्य को प्रभावित किया है। इस प्रवृत्ति ने उपन्यास विधा को माटी की गंध से जोड़ने का प्रयास किया है। इसनें व्यष्टि की अपेक्षा समष्टि को ही लक्ष्य बनाया है। इस प्रवृत्ति ने जनसाधारण के जीवन को स्थानीय भाषा से जोड़ने का प्रयास किया है। किसी भी क्षेत्र का साहित्य हो वहां आँचलिकता की प्रवृत्ति देखने को मिल जाती है। हिंदी साहित्य में नागार्जुन ने अपने उपन्यास बलचनमा के माध्यम से आँचलिकता की प्रवृत्ति को उजागर किया है वहीं पंजाबी साहित्यकार रामसरूप अणखी जी के उपन्यास कोठे खड़क सिंह आँचलिकता की प्रवृत्ति से अछूता नहीं रहा है। बलचनमा में बिहार के दरभंगा जनपद के संपूर्ण परिवेश का वर्णन किया गया है वहीं कोठे खड़क सिंह में पंजाब के मालवा क्षेत्र की संपूर्ण कहानी प्रस्तुत की गई है। दोनों रचनाओं में स्वतंत्र्योत्तर भारत के शासक-शोषक वर्ग की काली करतूतों से उत्पन्न विडम्बनाजनक कटु यथार्थ को उसके शोषण का शिकार होते ईमानदार आमजन, कृषक व मजदूर वर्ग की पीड़ा को व्यक्त किया गया है। बलचनमा और कोठे खड़क सिंह उपन्यास कृषक जीवन के अभावों, दर्दों व विषमताओं का मूर्तिमान स्वरूप है। आधुनिक समाज में यह समस्या व्यक्तिगत समस्या न रहकर समष्टिगत समस्या बन गई है। दोनों उपन्यासकारों ने अपने उपन्यासों में अंचल विशेष के ग्रामीण जीवन, आस्था-अनास्था, रीति-रिवाज, संघर्ष, अनैतिकता, ग्रामीण वातावरण आदि का सजीव चित्रण किया है। आँचलिक उपन्यास अंचल विशेष के जीवन सत्यों एवं विकास, संघर्षों को मूर्त रूप प्रदान करते हैं लेकिन उनमें पूरे राष्ट्र के जीवन सत्यों का चित्रण होता है।
बीज-शब्द : आँचलिकता, बलचनमा, कोठे खड़क सिंह, व्यक्तिगत समस्या, समष्टिगत समस्या, ग्रामीण वातावरण, कृषक जीवन, मजदूर वर्ग।
मूल आलेख : साहित्य में गद्य का
विकास आधुनिक काल की देन है। चाहे किसी भी भाषा का साहित्य हो गद्य लेखन में अनेक
साहित्यकारों का योगदान रहा है। गद्य में जब आंचलिकता का परिदृश्य हो तो यह और भी
अधिकमहत्त्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि ग्रामीण जीवन यथार्थ उपन्यास साहित्य कीमहत्त्वपूर्ण
कड़ी है। किसी साहित्यिक रचना में आँचलिक समस्या का चुनाव वातावरण की और पात्रों की
भाषा द्वारा उत्पन्न की जाती है। ऐसी रचना जो किसी विशेष क्षेत्र में निवास कर रही
किसी विशेष जाति के सभ्याचार और जाति के विकास क्रम को समझने में सहायक होती है।
आँचलिक शब्द अंचल में ‘इक’ प्रत्यय लगाने से
बना है जिसका अर्थ है अंचल संबंधी। अंचल संज्ञा शब्द से विशेषण बन गया जिसके
संस्कृति में विभिन्न अर्थ है - साड़ी का छोर, पल्ला आदि। इसके अतिरिक्त
हिन्दी में इसका स्पष्ट अर्थ है - ‘जनपद
या क्षैत्र की सम्पूर्ण भौगोलिक इकाई।’1
उस
अंचल विशेष में अपने रीति रिवाज,
अपने
सुख दुःख,
अपनी
जीवन प्रणाली,
अपनी
परम्पराएं एवं मान्यताएं शामिल होती है जिनसे वह गतिशील रहता है। आँचलिक उपन्यास
एक सीमित अंचल या क्षेत्र विशेष के सर्वागीण जीवन को जिसमें वहां के
साधारण-जनसाधारण विवरण,
परिचित-अपरिचित
भूमियों का उद्घाटन निहित है।2
डा.
रामदरश मिश्र,
‘‘आँचलिक
उपन्यास तो अंचल के समग्र जीवन का उपन्यास है उसका संबंध जनपद से होता है, ऐसा नहीं कि वह जनपद
की कथा है।’’3
डा.
नगीना जैन,
‘‘किसी
भूखंड या अंचल विशेष के जीवन का अध्ययन जो उसकी समग्र क्षेत्रीयता का प्रतीक है वह
आँचलिकता है और अंचल के भौगोलिक,
सामाजिक
तथा सांस्कृतिक क्षेत्र के सामान्य जीवन की एकरूपता को दिखाना ही आँचलिक उपन्यास
का आदर्श है।’’4
प्रेमचन्द
के गोदान,
फणीश्वरनाथ
रेणु के मैला आँचल,
शिवपूजन
सहाय के देहाती दुनिया,
जैसे
उपन्यास में देहाती जीवन को उकेरने वाला एक और महत्त्वपूर्ण उपन्यास है ‘बलचनमा’। मैथिली भाषा में
लिखे इस उपन्यास को हिन्दी का पहला आंचलिक उपन्यास माना जाता है। विभिन्न गद्य
लेखकों में नागार्जुन का हिंदी साहित्य में महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है वहीं
पंजाबी साहित्य में रामसरूप अणखी का विशेष योगदान है। इन्होंने अपने कलम की लेखनी
से साहित्य में आँचलिकता की प्रवृत्ति को उजागर किया है। नागार्जुन और रामसरूप
अणखी दोनों ही आँचलिक उपन्यासकार की कला में यथार्थवादी रचनाकार है। आँचलिकता इन
दोनों साहित्यकारों की प्राथमिकता रही है। नागार्जुन की अपने औपन्यासिक कृतियों
में आँचलिकता की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ उपन्यास बलचनमा है वही अणखी जी की अपने
औपन्यासिक रचनाओं में कोठे खड़क सिंह उपन्यास में आँचलिकता की प्रवृत्ति पायी गयी
है।
नागार्जुन
द्वारा रचित बलचनमा एक आँचलिक उपन्यास है जो सन 1952 में प्रकाशित हुआ। इस
उपन्यास में नागार्जुन ने बिहार के दरभंगा जनपद के संपूर्ण परिवेश का चित्रण किया
है। आँचलिक क्षेत्र का पूरा परिवेश सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक, सांस्कृतिक समस्याओं
का बखूबी चित्रण इस उपन्यास में किया गया है। प्रस्तुत उपन्यास का नायक ग्वाला
जाति का बलचनमा है उसी को नागार्जुन ने कथा का केंद्र बनाया है। बलचनमा के माध्यम
से उसकी वैयक्तिक परिस्थितियों तथा बाध्यताओं द्वारा वर्ग संघर्ष संबंधी समस्याओं
का चित्रित किया गया है साथ ही ग्रामीण समाज में फैले शोषण उत्पीड़न तथा सामाजिक
उपेक्षा में विविध पहलुओं को उजागर किया है। बलचनमा धरती और किसान से संबंधित
उपन्यास है। वह किसान भी है और मजदूर भी। वह अपने मानवीय अधिकारों की प्राप्ति के
लिए पुरानी परंपरा से विद्रोह करने में लगा हुआ है। अन्याय तथा शोषण की प्रक्रिया
में गुजरने से वह वास्तविकता को समझने का प्रयास करता है। अपने हक के लिए संघर्ष
करता है जो व्यक्तिगत समस्या न होकर समष्टिगत समस्या ही है वहीं अणखी जी का ‘कोठे खड़क सिंह’ उपन्यास में ग्रामीण
जीवन की बनती बिगड़ती समाजिक जिंदगी, राजनैतिक, आर्थिक विकृतियों को जनता के
सामने प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। अणखी जी ने मालवा के भू मालिकों की
जिंदगी को बहुत सूक्ष्म दृष्टि से देखा था। बलचनमा की भांति अणखी जी ने मालवा के
गांवो की जमीन प्राप्त करने के लिए जमींदार किस तरह उचित और अनुचित साधन अपनाते
हैं,
शोषण-शोषित
प्रवृत्ति देखने को मिली है उसका विस्तारपूर्वक वर्णन ‘कोठे खड़क सिंह’ में किया गया है।
अणखी जी ने ‘कोठे खड़क सिंह’ उपन्यास में पंजाब
के मालवा क्षेत्र की संपूर्ण कहानी प्रस्तुत की है।5
बलचनमा
उपन्यास में बलचनमा के माध्यम से सामाजिक, राजनीतिक, बाल-मजदूरी, शोषण-शोषित प्रवृत्ति
आदि समस्याओं को सामने रखा है। आधुनिक समाज में यह समस्या व्यक्तिगत न होकर
समष्टिगत है वहीं अणखी जी ने ‘कोठे खड़क सिंह’ में एक व्यक्ति के
माध्यम से नहीं बल्कि विभिन्न पात्रों के माध्यम से इन समस्याओं को सामने लाने का
प्रयास किया है। दोनों उपन्यासकारों का मुख्य उद्देश्य कैसे उच्च वर्ग के लोग
निम्न वर्ग के लोगों पर कितना अत्याचार करते हैं उन्हें दो वक्त का खाना नसीब नहीं
होता उनके अधिकारों का हनन किया जाता है, इन्हीं समस्याओं को सामने लाकर लेखक ने पाठकों
को जागरूक करने का प्रयास किया है।
नागार्जुन
हिंदी के प्रतिष्ठित उपन्यासकार है। ये मैथिली में ‘यात्री’ के नाम से लिखते थे
इसी नाम से इन्होंने कविताएं एवं उपन्यास लिखे हैं। इन दोनों विधाओं में
उपन्यासकार के रूप में इन्होंने अधिक ख्याति अर्जित की है। उपन्यास के क्षेत्र में
नागार्जुन आँचलिकता के जनक एवं समाजवादी यथार्थ के प्रबल समर्थक हैं। उन्होंने
अपने युग की प्रत्येक सामाजिक,
धार्मिक, आर्थिक एवं राजनीतिक
समस्याओं को गहराई से अनुभव कर अपनी रचनाओं में प्रकाशित किया है। कई विद्वान
नागार्जुन को हिंदी का पहला आँचलिक उपन्यासकार मानते हैं। नागार्जुन ने अपने उपन्यासों
में मिथिला के अंचल के ग्रामीण जीवन का चित्रण कर उनकी समस्याओं को प्रस्तुत करने
का सफल प्रयास किया है।6
मालवा
अंचल से संबंधित पंजाबी के प्रतिष्ठित उपन्यासकार रामसरूप अणखी का पंजाबी साहित्य
मेंमहत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। अणखी जी का जीवन ग्रामीण क्षेत्र से संबंधित रहा
है। अणखी एक अध्यापक होने के कारण अपने वास्तविक अनुभव को उन्होंने अपनी रचनाओं
में प्रस्तुत किया है। मालवा क्षेत्र से संबंधित होने के कारण ग्रामीण जीवन में
आजादी के बाद बदलाव जमीन-जायदाद के झगड़े, सभ्याचार, नैतिक मूल्य और साथ ही
राजनीतिक उथल-पुथल का जो चित्रण उन्होंने कोठे खड़क सिंह में किया है, वह अणखी जी ने अपने
जीवन का यथार्थ रूप ही प्रस्तुत किया है। इसके साथ ही अणखी जी ने मालवा अंचल की
संस्कृति,
जीवन-मूल्य, अंधविश्वास, भाषा, बोली, रीति-रिवाज को
उपन्यास के माध्यम से प्रस्तुत कर आँचलिक प्रवृत्ति हासिल की है।
बलचनमा
यों तो नागार्जुन की दूसरी औपन्यासिक कृति है परंतु आंचलिक तत्वों का अपने
औपन्यासिक विधा के रूप में विकास इसी रचना में दिखाई देता है। इस उपन्यास की आधार
भूमि मिथिला की विराट संस्कृति की भूमि है। एक नौजवान के करूण जीवन वृत्त के द्वारा
इस अंचल की संपूर्ण ऐतिहासिक,
आर्थिक
तथा अन्य जीवन स्तरों की अभिव्यक्ति दी गई है। पूंजीवादी व्यवस्था के द्वारा लादी
गई जमींदारी प्रथा से उत्पन्न श्रम की गुलामी की व्याख्या और शोषक विलास कथ्य का
आधार है। वहीं अणखी जी ने कोठे खड़क सिंह उपन्यास में पंजाब के मालवा क्षेत्र की
लंबी कहानी प्रस्तुत की हैं। साहित्य अकादमी से पुरस्कृत कोठे खड़क सिंह उपन्यास
पंजाबी साहित्य के इतिहास में मील का पत्थर साबित हुआ है। अणखी जी ने इस रचना में
मालवा के गांवों की जमीन प्राप्त करने के लिए जमींदार किस तरह उचित और अनुचित साधन
अपनाते हैं उनका वर्णन बड़े विस्तारपूर्वक किया है।
डा.
रघुवीर सिंह डण्ढ के अनुसार,
‘‘इस
उपन्यास की सारी विशेषता यह है कि यह उपन्यास मालवा के ग्रामीण जीवन का खास करके
जमींदारों के जीवन का --- असली दर्पण है। जाटों की जमीन के लिए भूख और इस भूख के
इर्द-गिर्द घूमते हुए सारे रिश्ते हैं।’’7
बलचनमा
सात कट्टा जमीन के स्वामी ललचनमा का पुत्र है। इस निम्नवर्गीय किसान के पुत्र के
यातनापूर्वक जीवन का प्रारंभ उसके बाप की मृत्यु के बाद होता है जिसका दोष इतना था
कि उसने जमींदार के बाग से दो किसुनभोग चुरा लिए थे। पिता की विरासत को मंझले बाबू
द्वारा रख लिया जाता है और एक मासूम, अशिक्षित, बेसहारा किशोर खाने-खेलने के
दिनों में पेट की फिक्र में लग गया। राक्षस जैसे मंझले मालिक की दैत्यवृत्ति गरीब
का शोषण करने के लिए सदा व्याकुल रहती हैं और जिसकी दृष्टि से न तो बलचनमा की जमीन
बच सकती है और न ही बहन की इज्जत। बलचनमा किसान जीवन के अभावों, दर्दों और सामाजिक
विषमताओं का मूर्तिमान स्वरूप है। अर्थव्यवस्था के असंतुलित धरातल पर खड़े सामाजिक
ढांचे की अमानुषिकता नागार्जुन के यथार्थ पर इस रूप में उजागर होती है कि सहृदय की
संवेदना उभरकर बलचनमा उनकी पीड़ा से तादातम्य करती है और चौधरियों की काली करतूतें
सड़ी-गली व्यवस्था के प्रति विद्रोह की भावना पैदा करती है। राधा बाबू के संपर्क
में आने पर बलचनमा में नई विद्रोह की भावना उत्पन्न हुई है।8
‘‘धरती किसकी जोते
बोये उसकी किसान की आजादी आसमान से उतरकर नहीं आएगी, यह प्रगट होगी नीचे छूती
धरती के भूर भूर ढेलों को फोड़कर ---।’’9
जहां
नागार्जुन ने बलचनमा के व्यक्तिगत रूप में समष्टिगत समस्या को उजागर किया है वहीं
कोठे खड़क सिंह उपन्यास में तीन पीढ़ियों में ऐतिहासिक क्रमानुसार हो रहे परिवर्तन
की कहानी है। इस उपन्यास में जमींदारी प्रथा पर प्रकाश डाला गया है कि जमींदारी
समाज में साधारण लोग इनके बंधनों में बंधकर जीवन जीने के लिए मजबूर हो जाते हैं।
इस उपन्यास का मुख्य पात्र झंडा सिंह जमींदारी समाज का प्रतिनिधि पात्र है। झंडा
सिंह के अपने छोटे भाई अर्जुन सिंह के कत्ल होने पर उसके जमीन उसके पास रहने की
खुशी है। अपने भाई की मृत्यु का इतना अफसोस नहीं जितना उसको जमीन प्राप्ति की खुशी
है। इस प्रकार जमींदारी समाज में जमींदार गांव के किसानों की जमीन पहले गिरवी रख
लेते हैं फिर उस पर अपना अधिकार जमा लेते हैं। इस प्रकार जाटों की जमीन इकट्ठी
करने के लिए अलग-अलग ढंग को अपनाना और जमीन एकत्रित कर सेठ स्वभाव बनने पर आर्थिक
रूप से मजबूत बनकर राजनीतिक नेताओं के साथ अपनी जान पहचान बनाने की परिस्थितियों
का मनोविश्लेषण जो इस उपन्यास में मुख्य तौर से आया है वहीं दृश्य बलचनमा में भी
प्रस्तुत हुआ है। बलचनमा में इस व्यक्तिगत समस्या को दर्शाकर समष्टिगत समस्या में
लाने का प्रयास किया गया है वहीं कोठे खड़क सिंह में इसे समष्टिगत रूप में ही
प्रस्तुत किया गया है।10
डा. सुषमा धवन का कथन है, ‘‘होरी ग्रामीण
संस्कृति का प्रतीक है,
वही
बलचनमा भावी निर्माण का प्रतीक है। होरी वंचित होकर टूटता है बलचनमा संघर्ष लेकर
आगे बढ़ता है और भूमि पर अधिकार करना चाहता है।’’11
इसीलिए बलचनमा कहता है कि-
‘‘जमीन नहीं छोड़ेंगे
चाहे कुछ भी हो जाए।’’12
नागार्जुन
ने बलचनमा में जिस सामाजिक वातावरण का चित्रण किया है वह स्वातंत्र्योत्तर भारत के
ग्रामीण जीवन और ग्राम की समाजिक चेतना में आए परिवर्तनों को उनके यथार्थ रूप में
प्रस्तुत किया है वहीं अणखी जी ने स्वतंत्रता के बाद पंजाब के मालवा क्षेत्र की
बदलती परिस्थितियों पर प्रकाश डाला है। नागार्जुन ने बिहार के ग्रामीण क्षेत्रों
में बोले जाने वाली भाषा के शब्दों का बलचनमा उपन्यास में प्रयोग किया है। यह
उपन्यास बलचनमा के मुंह से कहीं उसी की कहानी है। भाषा में स्थानीय शब्दों का
भरमार है। लोकगीतों का भी प्रयोग किया गया है। वही अणखी जी के कोठे खड़क सिंह
उपन्यास के पात्र स्थान स्थान पर मलवई भाषा बोलते हैं। स्थानीय शब्दों का प्रयोग
करते हैं जो कि उपन्यास की आँचलिक प्रवृत्ति में सफल सहायक है जैसे ‘नहीं’ के स्थान पर ‘नी‘, ‘अपने‘ के स्थान पर ‘आवदे’, ‘कुछ‘ को ‘कुश’।
रघुवीर
सिंह डण्ढ का कथन हैं,
‘‘पात्र
चित्रण में अणखी ने बड़ी स्वभाविकता का सबूत दिया है। पात्र इतने स्वभाविक रूप से
व्यवहार करते हैं कि न तो लेखक की कठपुतली है और न ही उसकी उंगली पकड़कर चलते हैं।
हमें इस तरह के पात्र मालवा के किसी भी गांव में मिल जाएंगे। उपन्यास के पात्र
गांव के लोगों की असली तस्वीर है।’’13
बलचनमा
उपन्यास में मेले,
त्योहार, विवाह, लोकगीत आदि दृश्य
उपन्यास की आँचलिकता को उभारने का प्रयास करते हैं। वही कोठे खड़क सिंह भी मालवी
जीवन की सांस्कृतिक सभ्याचार मेले, त्योहार, लोकगीत प्रस्तुत कर आँचलिक
प्रवृत्ति से अछूता नहीं रहा है। बलचनमा में लोकगीत का प्रयोग भी है जो उनकी
स्थानीय भाषा में होने के कारण उपन्यास की आँचलिकता को सफल बनाता है –
‘‘सखि हे मजरल आमक बाग
कुहू
कुहू चिकररा कोइलिया
झींगुर
गावन फाग।’’14
दरभंगा की राजनीति और आर्थिक
स्थिति का चित्रण भी नागार्जुन ने जितनी सूक्ष्मता से किया है वह आँचलिक उपन्यासों
में कम ही देखने को मिलते हैं। आश्रम का वर्णन, जमींदारों के कारनामें, आर्थिक विषमता, राजनीतिक विसंगतियों
का चित्रण सफल रूप से किया गया है। वही अणखी जी ने भी कोठे खड़क सिंह में जाति
भेदभाव का मूल कारण आर्थिक विषमता को ही माना है। इन सब के विरुद्ध बलचनमा और उसके
साथियों द्वारा आवाज उठाना जागरण का चिन्ह् प्रस्तुत करता है। बलचनमा और कोठे खड़क
सिंह में यह संघर्ष खेतीहर किसानों के अपने अस्तित्व को पाने का संघर्ष है।
डा.
अरविंद पांडे,
‘‘बलचनमा
को होरी की समाधि का बिरवा कहते हैं।’’15
अणखी
जी के उपन्यास कोठे खड़क सिंह में भी इसी स्थिति को दर्शाया गया है। जोगिंदर राही
के शब्दों में,
‘‘अपने
लेख कोठे खड़क सिंह को एकमहत्त्वपूर्ण रचना मानता हूं। वह कहता है कि यह उपन्यास
समस्या का वर्णन करने और उपन्यास की कला पर अणखी के पहले उपन्यासों से अधिक प्रभाव
डालता है। इस उपन्यास को किसान,
मजदूर, साहूकार, क्रांतिकारी, धार्मिक डेरे, विद्यार्थी, अध्यापक और स्त्री
के विभिन्न प्रतिनिधि पात्रों के द्वारा सृजित किया गया है।’’16
इस
प्रकार दोनों उपन्यासकारो ने समाजवादी चेतना का यह परिणाम निकाला है कि होरी की
निराशावादी दृष्टि बलचनमा की आशावादी दृष्टि में बदलती है। बलचनमा में भीतर बिखराव
में बाहरी संश्लेषण और बाहरी बिखराव में भीतर संश्लेषण की प्रवृत्ति दिखाई देती
है। बलचनमा इसे व्यक्तिगत स्तर पर झेलता है पर कोठे खड़क सिंह में इसी समस्या को
समष्टिगत स्तर पर प्रस्तुत किया गया है। दोनों उपन्यासों में यह संघर्ष खेतीहर के
अपने अस्तित्व को पाने का संघर्ष है। जमींदारी समाज की समस्त विडंबना और विकृतियों
को तिरस्कार करने का सफल प्रयास किया गया है।
डा. बेचन के शब्दों में, ‘‘नागार्जुन के
उपन्यासों में न केवल बिहार बल्कि संपूर्ण राष्ट्र बोल रहा है। घटनाओं का यह जमघट
आज जीवन की वास्तविकता है जिसे संपूर्णता में लाने का प्रयास नागार्जुन ने किया है
यही नागार्जुन की सफलता है।’’17
निष्कर्ष : बलचनमा और कोठे खड़क सिंह
उपन्यास आँचलिक श्रेणी में सफल उपन्यास है। इन दोनों उपन्यासों में मजदूरी, शोषण-शोषित
प्रवृत्ति,
जमींदारी
प्रथा,
राष्ट्रीय
आंदोलन,
लोक-संस्कृति, लोक भाषा, खानपान, रीति-रिवाज, अंधविश्वास आदि का
यथार्थ रूप में प्रस्तुत हुआ है। बलचनमा और कोठे खड़क सिंह के माध्यम से दरभंगा और
मालवा के ग्रामांचल क्षेत्र की समस्याओं को प्रस्तुत किया गया है। उपन्यासकारों ने
जमींदारी की शोषण वृत्ति,
कामुकता, सामंतवादी नीतियों
का भी उल्लेख किया है। बलचनमा में बलचनमा और कोठे खड़क सिंह में बद्रीनारायण को ऐसा
अभावग्रस्त जीवन अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ने की ओर अग्रसर करता है। दोनों
उपन्यासकारों ने अपने उपन्यास में जिस समाज का चित्रण किया था उसे अच्छी तरह देखा
है और उसी समाज में रहते हुए संघर्ष को सहन किया है। इस तरह कोठे खड़क सिंह को एपिक
नॉवेल की संज्ञा में प्रस्तुत किया गया है वही नागार्जुन ने बलचनमा में समाज के
यथार्थ रूप को प्रस्तुत किया है।
आधुनिक
संदर्भ में देखा जाए तो जमींदारी प्रथा भले ही नही हैं परंतु किसान जीवन की अनेक
समस्याएं हैं जो कर्ज की समस्या से संपृक्त है। फर्क यह है कि शोषण तंत्र का
स्वरूप बदल गया है। इसी तरह किसान के लिए हर स्तर पर मुश्किलें खड़ी की जा रही है चाहे
वो महंगे बीज या रसायनिक खादें हो उन्होंने मिट्टी की उर्वरता तो बढ़ा दी पर फसलें
सस्ते दाम पर बिकने लगी। इसके साथ स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं को भी इन कीटनाशक
दवाइयों ने बढ़ा दिया है। किसान चाहें किसी भी प्रदेश का क्यों ना हो वह सरकारी
नीतियों के आगे विवश है। किसान की फसल और समर्थित मूल्य में अंतर देखने को मिलता
है। इस तरह किसान के अस्तित्व पर गहरा संकट है इसलिए अपेक्षित है कि श्रमिक और
मध्यम वर्ग के लोग इस लड़ाई में शामिल हो और उचित नेतृत्व प्रदान करें।
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-41, अप्रैल-जून 2022 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक एवं जितेन्द्र यादव, चित्रांकन : सत्या सार्थ (पटना)
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