- डॉ. अपर्णा वेणु
शोध-सार : सन् 1970 के पश्चात् का समय भारतीय रंगमंच के लिए एक ऐसा समय रहा है जबकि महिला रंगकर्मियों ने रंगमंच पर निहित पुरुष-वर्चस्व की आलोचना की तथा हमारे तथाकथित पुरुष-केन्द्रित रंगमंच के समानांतर, बहुत कुछ उसे चुनौती देते हुए एक ऐसी रंगमंचीय संकल्पना को स्थापित किया, जिसे ‘स्त्रीवादी रंगमंच’ की अभिधा से अभिहित किया जाता है। इस प्रकार की एक नवीन संकल्पना का प्रभाव भारत के विभिन्न भाषाई रंगमंचों में देख सकते हैं जिनमें हिन्दी तथा मलयालम का अवदान अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। वैचारिक एवं व्यावहारिक स्तर पर स्त्रीवादी रंगमंच की इस नवीन संकल्पना को गहराई के साथ प्रतिष्ठित करने के लिए महिला रंगकर्मियों ने स्त्रियों की प्राथमिकता में संचालित नाट्य-मंडलियों की स्थापना की जिसे रंगमंच के क्षेत्र में स्त्रियों की अस्मिता को स्थापित करने का सृजनात्मक एवं व्यावहारिक कदम माना जा सकता है। प्रस्तुत प्रपत्र में हिन्दी तथा मलयालम के कुछ प्रमुख महिला संचालित नाट्य-मंडलियों के रंगकर्म का परिचय देते हुए स्त्रीवादी रंगमंच के विकास में उनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका पर विचार करने का प्रयास किया गया है।
बीज शब्द : नाट्य-मंडली, पितृसत्ता, लिंग-स्थिति, स्त्रीवादी रंगमंच, सौंदर्यशास्त्र, स्त्रीत्व, संरचना, स्त्रीपक्षीय, अवधारणा, संकल्पना, वर्चस्व, परिप्रेक्ष्य।
मूल आलेख :
कलात्मक
एवं सौन्दर्यशास्त्रीय संकल्पनाओं को प्रभावित करने वाले
समकालीन स्त्रीवादी चिंतन ने भारतीय रंगमंच को वर्तमान जीवन के विविध व व्यापक परिदृश्यों
से जुड़ने वाले एक नवीन परिप्रेक्ष्य से देखने
की दृष्टि प्रदान की है। स्त्रीवादी कला-चिंतकों तथा
नाट्य-विचारकों
ने रंगमंच पर निहित पुरुष-वर्चस्व को
चुनौती देते हुए रंगमंच के तथाकथित प्रतिमानों की तीखी आलोचना की तथा स्त्री-पक्षीय
रंगकर्म की सार्थकता पर विचार भी किया है। इस स्त्रीपक्षीय दृष्टि ने व्यावहारिक स्तर
पर रंगमंच के स्वरूप को ही बदल डाला तथा सैद्धांतिक व वैचारिक स्तर पर
‘स्त्रीवादी
रंगमंच’
जैसी
विशेष परिकल्पना को स्थापित भी किया। स्त्रीवादी रंगमंच एक ऐसा रचनात्मक रंगमंच है
जो रंगमंच संबंधी पारंपरिक, रूढ़ीवादी अवधारणाओं पर
सकारात्मक परिवर्तन लाने के विशेष उद्देश्य के साथ-साथ
रंगमंच पर निहित पुरुष-वर्चस्व को
तोड़कर स्त्री के निजी स्वत्व को स्थापित करने का सृजनात्मक उपक्रम है। स्त्रीवादी
नाट्य चिंतक
जानेट ब्राउन के शब्दों में "स्त्रीत्व की
आन्तरिक प्रेरणा को प्रस्तुत करने वाले किसी भी रंगमंच को हम स्त्रीवादी रंगमंच की
कोटि में रख सकते हैं। यह आन्तरिक प्रेरणा स्त्रियों के लिए
एक ऐसा रास्ता खोल देता है जिसके द्वारा पुरुष-सत्तात्मक
समाज के दबाव से मुक्ति पायी जा सकती है। मुक्ति
का यह संघर्ष जब किसी नाट्य प्रदर्शन का
मूल भाव
हो जाता है तब उस नाट्य प्रदर्शन को
स्त्रीवादी रंगमंच की कोटि में रख सकते हैं।"1
बीसवीं
सदी के अंतिम तीन दशक पूरे विश्व के लिए एक ऐसा महत्त्पूर्ण समय रहा है जबकि स्त्रीवादी
रंगमंच जैसी अर्थपूर्ण परिकल्पना प्रबल रूप से प्रतिष्ठित हुई। भारत में स्त्रीवादी
रंगमंच की गतिविधियों का सही आकलन सन् 1970 के बाद ही हुआ,
जिसमें
हिन्दी तथा मलयालम रंगमंच का अवदान अत्यंत महत्त्पूर्ण
रहा है।
लिंग-स्थितीय
विभेदन से दूर रहने वाली तथा स्त्री-स्वत्व को मंच
पर स्थापित करने की सृजनात्मक प्रक्रिया पर बल देने वाली रंगमंचीय प्रस्तुतियों को
रूपायित करने के लिए मात्र वैचारिक स्तर पर बहस करना काफी नहीं है बल्कि आर्थिक रूप
से स्त्रियों की प्राथमिकता में संचालित नाट्य-मंडलियों
की स्थापना अत्यंत आवश्यक है। इस प्रकार के महत्त्पूर्ण मुद्दे पर जब भारतीय रंगमंच
के क्षेत्र में गहनता से विचार-विमर्श शुरू
होने लगा तब उसके फलस्वरूप कुछ नाट्य-मंडलियों का
उदय हुआ जो स्त्रीपक्षीय चिंतन से परिपुष्ट थीं। इन नाट्य मंडलियों को सामान्यतः दो
रूपों में विभाजित करके देखा जा सकता है-
1. महिला मुक्ति संगठनों की विशेष इकाई
के रूप में कार्यरत नाट्य मंडलियाँ
2. महिलाओं की प्राथमिकता में संचालित स्वतंत्र
रूप से कार्यरत नाट्य मंडलियाँ
सन्
1970 के
बाद का समय भारतीय समाज के लिए स्त्रीवादी विचारों तथा आन्दोलनों के प्रभाव का समय
रहा है। उस समय में भारत के प्रमुख शहरों में कई ऐसे स्त्री संगठन रूपायित हुए,
जो
महिला मुद्दों के प्रति चेतना जागृति में कार्यरत थे। इन स्त्री संगठनों के लिए रंगमंच
एक ऐसा प्रभावशाली माध्यम रहा जिसके माध्यम से वे अपने विचारों की अभिव्यक्ति सशक्त
रूप से कर सके। दिल्ली में स्थापित ‘स्त्री-संघर्ष’
नामक
संगठन इसका एक अच्छा उदाहरण है। मशहूर रंगकर्मी अनुराधा कपूर,
रति
बर्तीलोम्यू तथा माँया राव के संयुक्त प्रयासों से ‘स्त्री
संघर्ष’
ने
‘थियटर
यूनियन’
नाम
की इकाई का गठन किया जिसका उद्देश्य नाटकों के माध्यम से स्त्री अधिकारों के प्रति
जनता में जागरूकता पैदा करना था। सन् 1980 में पहली बार
थियटर यूनियन द्वारा ‘ओम स्वाहा’ नामक
नुक्कड़ नाटक खेला गया जो जनता के बीच काफी चर्चित रहा। दहेज जैसी कुप्रथा के खिलाफ
आवाज़ उठाने वाले इस नाटक के संबंध में अनुराधा कपूर बताती हैं कि
"ओम
स्वाहा जैसे नाटक ने जनता में यह सन्देश फैलाने में सफलता हासिल कर ली थी कि घरों के
बंद दरवाजों के भीतर अभी बहुत कुछ ऐसा है जिस पर बात किया जाना ज़रूरी है।"2
भारत
में महिला थियटर ग्रुप के रूप में थियटर यूनियन ने न सिर्फ दहेज़ ह्त्या जैसे मुद्दों
को उठाया बल्कि सती-प्रथा और पुलिस हिरासत में होने वाले
बलात्कारों को भी अपने प्रदर्शनों में मुद्दा बनाया।3
ज्योति
म्हापसंकर द्वारा महाराष्ट्र में संचालित स्त्री मुक्ति संगठन की थिएटर इकाई काफी सशक्त
थी। इस संगठन ने ‘मुलगी झाली आहे’
नामक
एक नाटक का रूपायन किया था और जिसे महाराष्ट्र के 2000 लोगों
के बीच प्रदर्शित भी किया। इसके संबंध में निर्देशिका ज्योति म्हापसंकर बताती है कि
“यह
नाटक उन महिलाओं से प्रेरित था जो इतने शोषणकारी एवं दमनकारी परिस्थितियों में अपना
जीवन गुजारती हैं, इस नाटक को देखने के बाद कई लोग इस संगठन
के सदस्य बने।”4
पितृसत्ता
के गहरे दबाव से खामोश हो गए स्त्री समूह की आवाज़ को पुनः प्राप्त करने के उद्देश्य
से रूपायित स्त्री संगठन थी केरल की ‘मानुषी’। सन्
1986 में
स्थापित इस संगठन ने रंगमंच को माध्यम बनाकर स्त्री-शोषण
के खिलाफ आवाज़ उठायी। मलयालम की प्रमुख स्त्रीवादी चिन्तक एवं साहित्यकार प्रो.सारा
जोसफ के नेतृत्व में रूपायित ‘मानुषी’
ने
स्त्रियों की समस्याओं, शोषण आदि को
संबोधित करते हुए कई नुक्कड़ नाटकों की प्रस्तुतियाँ की थीं।5
रंगमंच
को एक सांस्कृतिक एवं राजनीतिक हथियार के रूप में प्रयुक्त करने वाली केरल की एक और
महिला नाट्य-मंडली
थी
‘समता’। इस
मंडली की स्थापना सन् 1987 में हुई थी। समाज की आधी आबादी
महिलाएँ जो हाशियेकृत हैं, उनको मुख्यधारा
में लाने के विशेष उद्देश्य से कार्यरत समता की नाट्य-मंडली
में छात्राएं,
कामकाजी
महिलाएँ,
किसान
स्त्रियाँ,
सांस्कृतिक
कार्यकर्ता आदि शामिल थीं।6 इसके
नेतृत्व में प्रोफ. टी. उषाकुमारी,
पी.विजयम्मा,
के.पुष्पा,
सी.एस.चंद्रिका
आदि प्रमुख थीं। इन्होंने स्त्री की मुक्ति को मजदूर-वर्ग
की मुक्ति के साथ जोड़कर देखने की कोशिश की थी। ब्रेख्त का नाटक
‘मदर
करेज’
की
पात्र
‘मेरी
फेरारिन’
की
कथा पर केन्द्रित सती, माता आदि ‘समता’
की
नाट्य-प्रस्तुतियाँ
काफी बहुचर्चित रही है। इस नाट्य-मंडली में करीब
पंद्रह स्त्रियाँ सदस्य के रूप में कार्यरत थी। ‘समता’
की
नाट्य-प्रस्तुतियों
में पुरुष पात्रों की भूमिका भी स्त्रियों के द्वारा निभाई जाती थी। समता की नाट्य-प्रस्तुतियों
में
‘जाति’,
‘जान
स्त्री’
आदि
प्रमुख हैं। स्त्रीवादी विचारधारा को जनता तक पहुँचाना तथा सामाजिक असमानताओं को तोड़कर
एक समतावादी समाज को स्थापित करने के लिए प्रेरक होना ये ‘समता’
नाट्य
मंडली के लक्ष्य थे स्त्री की समस्याओं के अलावा जातीयता, सांप्रदायिकता,
भ्रष्टाचार,
साम्राज्यवाद
आदि मुद्दों को भी ‘समता’ ने
अपनी नाट्य-प्रस्तुतियों
के सहारे उठाया था।7
हिंदी
तथा मलयालम के क्षेत्रों में कार्यरत पूर्व सूचित महिला नाट्य मंडलियों ने रंगमंच के
माध्यम से महिला मुद्दों को जनता के सम्मुख उठाने के साथ साथ सार्वजनिक स्थानों में
महिलाओं की उपस्थिति को स्थापित करने का कार्य भी किया था। स्वतंत्र रूप से कार्यरत
महिला निर्देशकों, महिला नाट्यकारों तथा अभिनेत्रियों को
स्त्रीवादी विचारों से जोड़ने की प्रवृत्ति इन नाट्य मंडलियों की महत्त्वपूर्ण उपलब्धि
है।
सन्
1990 तक
आते आते भारतीय रंगमंच में महिला रंगकर्मियों ने सजीव रूप से अपनी उपस्थिति स्थापित
की। सदियों से रंगमंच के क्षेत्र पर निहित पुरुष वर्चस्व को तोड़कर स्त्रियों के निजी
स्वत्व को स्थापित करने का महत्त्वपूर्ण कदम उठाया गया तथा वैचारिक एवं व्यावहारिक
स्तर पर स्त्रीवादी रंगमंच जैसी नवीन संकल्पना को गहराई के साथ आत्मसात भी किया गया।
महिला रंगकर्मियों के लिए रंगमंच पर अपनी बात कहने के लिए, अपने
अनुभवों को अभिव्यक्त करने के लिए तथा अपनी अस्मिता को स्थापित करने के लिए ऐसे
‘स्पेस’
की
ज़रुरत है,
जो
काफी
‘डेमोक्रेटिक’
हो।
इस विचार को साथ लेकर चलने वाली रंगकर्मियों ने ऐसी नाट्य-मंडलियों
की स्थापना की जिन्हें स्त्रीपक्षीय नाट्य-मंडली
की अभिधा से अभिहित की जा सकती हैं। स्त्रीपक्षीय नाट्य-मंडली
का मतलब मात्र स्त्री सदस्यों से शामिल एक संस्था के रूप में नहीं लिया जा सकता है
बल्कि जो पितृसत्तात्मक मूल्यों से मुक्त तथा मानवता एवं समता से युक्त दृष्टिकोण को
अपनाने वाली हो। इस प्रकार की नाट्य-मंडलियों में
ऐसे पुरुष भी शामिल होते हैं जो स्त्रीपक्षीय राजनीति की प्रासंगिकता को समझने वाले
तथा प्रगतिशील विचारों को अपनाने वाले हो। स्त्रीपक्षीय विचारों से परिपुष्ट होने के
कारण ऐसी नाट्य-मंडलियों
के भीतर किसी भी पहलू में स्त्री-पुरुष भेदभाव
या स्त्री के दोयम दर्जे की स्थिति नहीं होती। पुरुष केन्द्रित नाट्य मंडलियों का सामान्य
स्वभाव यह होता है कि वहाँ पुरुषों का ही एकाधिकार रहता है। वहाँ निर्णय पुरुष ही लेता
है तथा स्त्री उसके पालन का जिम्मेदार होती है। मलयालम रंगमंच की प्रमुख अभिनेत्री
‘आतिरा’
ने
स्त्री पक्षीय रंग-मंडली और पुरुष केन्द्रित रंग-मंडली
की भिन्नता को सूचित करते हुए जो बात कही है वह यहाँ उल्लेखनीय है
“मेरे
अपने अनुभव में कहा जाए तो एक आर्टिस्ट के रूप में मेरे लिए सबसे कम्फर्टबल स्पेस स्त्रीपक्षीय
नाट्य-मंडली
में मिली है। मुझे लगता है कि रंगमंच से जुडी नब्बे प्रतिशत स्त्रियों का भी अनुभव
ऐसा ही रहा होगा। पुरुष केन्द्रित नाट्य-मंडलियों में
कार्यरत होने के लिए स्त्रियों को जो ‘इनहिबिशन’
होता
है वह स्त्रीपक्षीय नाट्य-मंडलियों में
नहीं होता है।”8
समग्र
रूप से स्त्रीवादी रंगमंच की प्रवृत्तियों की प्रयुक्ति इन स्त्रीपक्षीय नाट्य-मंडलियों
के कार्य व्यापारों तथा इनके द्वारा प्रस्तुत नाट्य-प्रदर्शनों
में देखा जा सकता है। हिन्दी तथा मलयालम के क्षेत्रों में कार्यरत प्रमुख स्त्रीपक्षीय
नाट्य-मंडलियों
का परिचय आगे दिया जाएगा।
1. रंगकर्मी,
जिसकी
स्थापना उषा गांगुली के द्वारा हुई है। इस नाट्य मंडली की स्थापना में बंगाल में हुई।
इसका उद्देश्य पूरे देश और देश से बाहर के दर्शकों तक पहुंचना है। छत्तीस प्रस्तुतियाँ
और अपने खाते में अनेक प्रतिष्ठित पुरस्कारों को जोड़ते हुए इस नाट्य-मंडली
ने हिन्दी रंगमंच में सफलतापूर्वक अपना स्थान स्थापित किया है। राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय
ख्याति के नाट्य उत्सवों में प्रतिभागिता की है, स्त्रियों
एवं युवा महत्वाकांक्षियों के लिए कार्यशालाएं और प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित किए हैं
और रंगोली नामक एन जी ओ के सहयोग से समाज के कमज़ोर वर्ग के बच्चों के लिए रंगमंच प्रशिक्षण
कक्षाएं भी चलाई हैं।9 रंगकर्मी
की अन्य महत्त्वपूर्ण योजना है स्टूडियो थिएटर, बेहतर
रंगमंच को समर्पित यह उन दो स्त्रियों की अमर भावना को श्रद्धांजलि है जिन्होंने बंगाली
रंगमंच को नया आयाम दिया। कोर्ट मार्शल, रुदाली,
काशीनामा,
हिम्मतमाई,
अंतर्यात्रा,
चंडालिका,
हम
मुखतारा आदि रंगकर्मी की प्रमुख प्रस्तुतियाँ हैं।
2. द कंपनी,
जिसकी
स्थापना पद्मश्री नीलम मानसिंह चौधरी के द्वारा हुई है। इस नाट्य मंडली ने पंजाबी तथा
हिन्दी दोनों भाषाओं में कई नाटकों की प्रस्तुति की जो काफी बहुचर्चित रही हैं। सन्
1984 में
जब नीलम मानसिंह जी ने अपने समूह ‘द कंपनी’
की
स्थापना चंडीगढ़ में की तब वे शहरी अभिनेताओं के प्रशिक्षण के तरीकों के बारे में खोजबीन
कर रही थीं और उन्हें यह तरीका मिला पंजाब की पारंपरिक शैलियों में। पंजाब के ग्रामीण
प्रदेश की नक्काल परंपरा के माध्यम से उन्होंने अपनी नाट्य-भाषा
की खोजबीन शुरू की। पर यह पारंपरिक ग्रामीण नाट्य-परंपरा
सौन्दर्यबोध,
तकनीक
और प्रस्तुति के तरीकों में पूर्णतया विकसित नहीं थी। इन पारंपरिक कलाकारों एवं शहरी
अभिनेताओं के साथ मिलकर काम करते हुए नीलम जी ने एक नई रंग भाषा का निर्माण किया,
जहां
स्वरूपों का सम्मिश्रण है, उनकी टकराहट
है। इसने इतिहास, प्रदर्शन-स्थल,
बिंबों
और कथानक को देखने की एक नई दृष्टि दी। इस तरह के सम्मिश्रण ने जहां एक तरफ जुड़ाव पैदा
करने का काम किया वहीं ज़ोरदार विरोध और टकराहट भी खडी की। यही जुड़ाव और टकराहट उनके
रंगमंच की नाटकीयता को एक बड़े प्रतीक में बदल देता है। समाज के विभिन्न तबकों विभिन्न
आर्थिक-सांस्कृतिक
पृष्ठभूमि के लोगों द्वारा साथ मिलकर एक रंगमंचीय अनुभूति पैदा करना इनके काम के मूल
में है।10 नागमंडल, किचन
कथा,
एरमा,
द
लाईसेंस,
ब्लड
वेडिंग,
द
स्यूट आदि इस नाट्य-मंडली की प्रमुख प्रस्तुतियाँ हैं।
3. ‘विवादी’,
जिसकी
स्थापना अनुराधा कपूर ने की है। इस नाट्य-मंडली
की स्थापना सन्
1989 में
नई दिल्ली में हुई। विवादी नाट्य-मंडली नाट्य-प्रस्तुतियों
के साथ-साथ
चित्रकार,
संगीतकार,
रचनाकार
आदि कला से जुडी विभिन्न पहलुओं के प्रतिभा-धनी
लोगों को भी प्रोत्साहन देती आ रही हैं। विवादी की प्रमुख विशेषता है कि यह अन्तःविषयों
में कार्य करते हुए अभ्यास और अनुसंधान के बीच विनिमय का प्रयास करता है। परफॉरमेंस
स्कल्प्चेर्स और इंस्टालेशन प्रोजेक्ट्स आदि से लेकर कार्य करने वाले विवादी ने टगोर,
रुसवा,
महेश
एल्कुचवार,
विजय
तेंदुलकर,
शेक्सपियर,
इब्सन,
हेनर
मुल्लर आदि मशहूर रचनाकारों की रचनाओं को लेकर प्रस्तुतियाँ की हैं। सुन्दरी एन एक्टर
प्रिपेयेर्स,
नवलाखा,
जीवित
या मृत,
अन्टिगनी,
उमराव,
विरासत
आदि विवादी की बहुचर्चित नाट्य-प्रस्तुतियाँ
हैं।
4. ड्रामाटिक आर्ट
एंड डिजाईन अकादमी, जिसकी स्थापना अमाल अल्लाना ने अपने
पति निस्सार अल्लाना के सहयोग से की है। रंगमंचीय प्रस्तुतियों के साथ-साथ
अन्य दृश्य एवं प्रदर्शनकारी कलाओं को प्रोत्साहन देती आने वाली इस नाट्य-मंडली
में प्रमुख रूप से पांच कोर्स का प्रावधान किया गया है। अभिनय,
निर्देशन,
कोस्ट्यूम
डिजाईन,
एन्करिंग
आदि विषयों पर केन्द्रित कोर्स है। रंगमंच के विभिन्न पहलुओं से जुड़े प्रतिभा-धनी कलाकारों के सहयोग से चलने वाली
इस नाट्य-मंडली
ने एक नयी रंगभाषा और नयी प्रशिक्षण शैली को विकसित करने का प्रयास किया है। नटी विनोदिनी,
महाभोज,
आधे
अधूरे,
खामोश
अदालत जारी है,
आषाढ़
का एक दिन,
किंग
लियर,
बीगम
बरवे आदि इस नाट्य - मंडली की प्रमुख प्रस्तुतियाँ हैं।
5. 'एकजुट',
जिसकी
स्थापना विख्यात रंगकर्मी नादिरा ज़हीर बब्बर ने अपने पति मशहूर फिल्म अभिनेता राज
बब्बर के सहयोग से किया। नादिरा ज़हीर बब्बर के कुशल मार्गदर्शन में चलने वाली इस
नाट्य मंडली का गढ़न सन् 1981 में मुंबई में हुई थी। पिछले तीन दशकों से हिंदी
रंगमंच क्षेत्र में परिवर्तन, प्रयोग और
गुणवत्ता के लिए एकजुट सबसे आगे रहा है। आगा हशर कश्मीरी, बर्टोल्ट
ब्रेख्त,
भास,
अल्बर्ट
कामु,
बादल
सरकार,
जयवंत
दलवी,
जॉन
ओसबोर्न,
यूजीन
ओ'नील जैसे विख्यात लेखकों की रचनाओं को रूपांतरित करके मंच पर प्रस्तुत करने में
एकजुट काफी सक्षम रहा है। देश के हर प्रमुख कला मंचों पर नाटकों की प्रस्तुति करने
वाली इस नाट्य मंडली ने अपने प्रदर्शनों को महानगरों तक सीमित नही रखा है। इस
नाट्य मंडली ने एम एफ हुज़ैन, उमा डोगरा
जैसे संगीत,
कला
एवं नृत्य के क्षेत्र में दिग्गज कुछ कलाकारों के साथ सफलतापूर्वक सहयोग भी किया
है। यहूदी की लड़की' नामक नाटक से अपना निर्देशन सफर शुरू करने वाली इस नाट्य
मंडली ने अब तक अस्सी से भी अधिक नाटकों का मंचन किया है। मंडली द्वारा प्रस्तुत
चर्चित नाटकों में 'संध्या छाया', 'लुक बैक
इन एंगर',
'बल्लबपुर
की रूपकथा',
'बात
लात की हालात की', 'भ्रम के भूत' और 'बेगम जान' आदि
शामिल हैं।
6. द क्रिएटिव
आर्ट्स,
जिसकी
स्थापना हिन्दी की प्रमुख रंगकर्मी रमनजीत कौर के द्वारा हुई है। रंगमंच एवं अन्य कलाओं
में औपचारिक तथा सुचारू प्रशिक्षण के प्रसार तथा लोगों को इसके प्रति जागरूक करने के
उद्देश्य से स्थापित इस नाट्य-मंडली सन्
2002 में
प्रारंभ हुई। राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय मेल-जोल
के लिए कला के विभिन्न क्षेत्रों के लोगों को अपने साथ जोड़ना भी इसका उद्देश्य है।
पद्मश्री नीलम मानसिंह चौधरी, गोविन्द निहलानी,
सुजाता
सेन,
आनंद
लाल,
संचयन
घोष जैसी जानी-मानी
हस्तियों ने समय-समय पर समूह के साथ सहभागिता निभाई है।
समूह ने कार्यशाला, सेमीनार तथा साईट स्पेसिक प्रस्तुतियों
के आयोजन के साथ-साथ मूल आलेखों की रचना तथा कला-प्रदर्शनियों
के आयोजन का काम भी किया है, जिसे लोगों
तथा संचार माध्यमों द्वारा खूब सराहना मिली। इस नाट्य-मंडली
द्वारा प्रस्तुत मूल प्रस्तुतियों में द फोरस्ट पार्टी, क्लोज्ड
स्पेस,
बावरे
मन के सपने इत्यादि महत्त्वपूर्ण हैं।
7. अलारिपु,
जिसकी
स्थापना हिन्दी की प्रसिद्ध रंगकर्मी त्रिपुरारी शर्मा द्वारा हुई है। सन्
1983 में
स्थापित इस नाट्य-मंडली ने अव्यावसायिक रंगमंच,
युवा
स्त्रियों एवं लोक रंगमंच पर विशेष ध्यान देते हुए कई कार्यक्रम किये हैं। बाल रंगमंच
को प्रोत्साहन देते हुए स्कूलों में रंग-कार्यशालाओं
का आयोजन भी इस नाट्य-मंडली के कार्यक्रमों में प्रमुख है।
इस नाट्य-मंडली
के अनुसार रचनात्मकता न केवल प्रत्येक व्यक्ति में अन्तर्निहित है बल्कि यह स्वयं के
अनुभव और अनुभव को विस्तारित करने और अभिव्यक्त करने के तरीकों में से एक है। अतः यह
नाट्य-मंडली
अपनी कार्यशालाओं तथा कार्यक्रमों के द्वारा एक ऐसे स्पेस को विकसित करने की कोशिश
करती है,
जहाँ
प्रत्येक व्यक्ति अपनी सृजनात्मकता को प्रदर्शित कर सकता है। बाल रंगमंच से जुडी कार्यक्रमों
में क्रिएटीव ड्रामा, कविता, गीत,
आर्ट
एंड क्ले बर्क,
फोटोग्राफी,
रचना,
कथावाचन
आदि का प्रयोग किया है। इस नाट्य-मंडली की प्रमुख
प्रस्तुतियों में आधा चाँद, संपदा,
रूप-अरूप,
बहू,
लाडो
मौसी,
बदलाव
आदि काफी लोकप्रिय हैं।
8. निरीक्षा,
जिसकी
स्थापना केरल की मशहूर रंगकर्मी सी.वी.
सुधी
तथा डॉ.राजराजेश्वरी
के संयुक्त तत्वावधान में हुई। सन् 1999 में निरीक्षा
की स्थापना के पश्चात के रंगकार्यों की शुरुआत बच्चों के लिए आयोजित कार्यशालाओं से
हुई। स्कूलों में औपचारिक रूप से बच्चों को देने वाली शिक्षा में लिंग-समानता
के बोध का अभाव होता है। अतः जेंडर से संबंधित सूक्ष्म बोध रखने वाली रंगकर्मियों के
कार्यान्वयन में आयोजित कार्यशालाएं लिंग-समानता
का बोध बच्चों में फैलाने में अवश्य समर्थ होंगे।11 इसके
अलावा स्त्रियों के लिए भी विशेष रूप से कार्यशालाओं का आयोजन निरीक्षा करती आ रही
है। रंगमंच से जुड़ने वाली स्त्रियों के संबंध में समाज में प्रचलित जो बुरी धारणा है
उसको बदलना तथा स्त्रियों की इनहिबिशन को दूर करके उन्हें रंगमंच की ओर आकर्षित करना
आदि इन कार्यशालाओं के उद्देश्य हैं।12 रंगमंच
से जुड़े विभिन्न विषयों पर संगोष्ठियों का आयोजन तथा रंगमंचीय प्रस्तुतियों का रूपायन
आदि निरीक्षा के द्वारा करता आ रहा है। निरीक्षा की प्रमुख प्रस्तुतियों में प्रवाचाका,
आनुन्गल
इल्लात्ता पेंनुन्गल, कुडियोषिक्कल,
द
ट्रोल,
पुनर्जनी
आदि काफी बहुचर्चित एवं लोकप्रिय हैं।
9.
क्ले
प्ले हाउस,
जिसकी
स्थापना सुरभी तथा उनके पति रियाज़ के संयुक्त कार्यान्वयन में हुई। इस नाट्य-मंडली
की स्थापना सन्
2011 में
केरल में हुई। क्ले प्ले हाउस रंगकर्म में विशेष रुचि रखनेवाले करीब बीस लोगों का एक
समूह है। यह नाट्य-मंडली, जिसमें
अभिनय,
निर्देशन,
लाइट
डिसैनिंग,
कोस्ट्यूम
डिसैनिंग,
संगीतकार
आदि विभिन्न पहलुओं में प्रवीण कलाकार शामिल हैं। रंगमंच पर स्त्रियों की उपस्थिति
को बढाने के उद्देश्य से स्त्रियों के लिए कार्यशालाएं आयोजित करना इस नाट्य-मंडली
का प्रमुख कार्यक्रम रहा है। इसके अलावा लाइट डिज़ाइन, अभिनय,
निर्देशन
आदि में रुचि रखनेवालों के लिए विशेषज्ञों के भाषण, प्रशिक्षण
आदि का आलोचना भी किया जा रहा है। इस नाट्य-मंडली
द्वारा प्रस्तुत प्रमुख नाट्य प्रदर्शन है ओच्चा, घोरराक्षसम,
आडु
पुलियाट्टम,
पटप्पाट्टू,
पालम
आदि।
10. कला
पाठशाला,
जिसकी
स्थापना के.वी.
श्रीजा
तथा उनके पति नारायणन के संयुक्त तत्वावधान में हुई। केरल के एक ग्रामीण क्षेत्र में
स्थित इस नाट्य-मंडली
के कार्यक्रमों में ग्रामीण जीवन की सादगी, सरलता
और लोक-संस्कृति
की झलक देखने को मिलता है। फसल की कटाई का उत्सव हर साल यह नाट्य-मंडली
के द्वारा अनोखे ढ़ंग से मनाई जाती है। इस दिन गीत, नृत्य,
नाट्य
आदि की प्रस्तुति भी होती है। कला पाठशाला में अभिनय, नृत्य,
मार्शल
आर्ट आदि पर विशेष रूप से बच्चों, तथा युवाओं
को प्रशिक्षण देता आ रहा है। इन सबके अलावा रंगमंचीय प्रस्तुति से जुडी विभिन्न पहलुओं
पर केन्द्रित कार्यशालाओं का आयोजन होता रहता है। इस नाट्य-मंडली
के द्वारा प्रस्तुत नाट्य-प्रदर्शनों
में प्रमुख हैं लेबर रूम, कल्याणसारी,
ओरोरो
कालाङलिल,
कलमकारियुडे
कथा13
आदि।
इन स्त्रीपक्षीय नाट्य-मंडलियों से
जुड़ने वाली महिला रंगकर्मियों ने रंगमंच पर परिव्याप्त पुरुष केन्द्रिता को चुनौती
देते हुए नवीन बिम्ब, दृश्य-विधान,
रंग-भाषा,
अभिव्यक्ति-शैली
आदि को विकसित करने का प्रयास किया। इसके साथ साथ इन्होंने स्त्री मुद्दों पर केंद्रित
विभिन्न विषय-वस्तुओं
को भी रंगमंच पर लाने की कोशिश की।
इस
प्रकार हम देख सकते हैं कि भारत में स्त्रीवादी रंगमंच की परिकल्पना को व्यवहारिक तौर
पर साकार कराने में हिन्दी तथा मलयालम की नाट्य-मंडलियों
की जो भूमिका रही है वह ऐतिहासिक ढंग से महत्त्वपूर्ण है। एक ओर महिला मुक्ति संगठनों
से जुड़ने वाली नाट्य-मंडलियों ने स्त्रीवादी विचारों के प्रचार
तथा स्त्री मुद्दों के प्रति जनता में चेतना जागृत करने के विशेष उद्देश्य की पूर्ति
के लिए आवश्यक सशक्त एवं प्रभावशाली माध्यम के रूप में रंगमंच को प्रयुक्त करने का
कार्य किया तो दूसरी ओर स्त्रीपक्षीय नाट्य-मंडलियों
ने रंगमंच संबंधी परंपरागत अवधारणाओं तथा उस पर निहित पुरुष वर्चस्व को तोड़कर पूरे
रंगमंच की संरचना को स्त्रीपक्षीय दृष्टि से पुनर्निर्मित करने का प्रयास भी किया।
स्त्रीवादी रंगमंच की परिकल्पना तभी सार्थक एवं सफल हो जाएगी जब पूरे भारतीय रंगमंच
का क्षेत्र पुरुष-वर्चस्व से मुक्त होकर स्त्री के पक्ष
को भी उजागर करने वाला एक सृजनात्मक उपक्रम बन जाएगा। हिन्दी तथा मलयालम की महिला संचालित
नाट्य-मण्डलियां
अपने इस लक्ष्य को आत्मसात करते हुए सफलता की ओर अग्रसर है।
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