- डॉ. दर्शनी प्रिय
शोध सार : टेम्सुला आओ का दृष्टिकोण लेखन को लेकर बड़ा ही व्यापक और समदर्शी रहा है। पूर्वोत्तर समाज में घटित होने वाली घटनाओं को आत्मसात करते हुए जिस जीवंतता के साथ वे मर्मिक चित्र उकेरती है वो कृषक समाज की साहित्य में उपादेयता को अनायास ही उकेरता है। यथार्थपरकता के धागे में सत्य को पिरो कर वाकई अद्भुत व् प्रभावशाली प्रभाव छोड़ती है। प्रस्तुत लेख में कृषक समाज को लेकर उनका व्यापक दृष्टिकोण दृष्टिगोचर होता है। जिस तरह समाज के सबसे श्रमशील समुदाय उनकी कलम की धार पैनी होती है वो काबिलेगौर है। साहित्य में सर्वहारा वर्ग की चेतना को प्रतीकात्मक, रूपात्मक और यथार्थवादी हर अंदाज़ में अपने समय के सियासी , सामाजिक, आर्थिक और मानसिक स्थितियों का वर्णन वे बखूबी करती है। वैसे तो वह मूल रूप से वे अंग्रेजी की लेखिका है लेकिनउनकी अनुदित कृतियां हिंदी पाठकों पर कहीं ज्यादा प्रभाव छोड़ती है। हिंदी रुपान्तरण में जो छँटा उभरकर आती है वो मूल कृति में भी नहीं उभरती। उन्होंने किसान और कृषक जीवन की कठिनाइयों पर भी खुलकर कलम चलाया है। चाहे वो पूर्वोत्तर का समाज हो या फिर उत्तर भारतीय समाज उन्होंने प्रत्येक समाज के इस सर्वहारे की उपेक्षा का काला चिठ्ठा समाज के समक्ष प्रस्तुत किया है। जिस सहजता के साथ वे समस्त सामाजिक समस्याओं को हमारे समक्ष प्रस्तुत करती है वो उनके विषय को विस्तार देता है। कृषक समाज की चुनौतियां और साहित्य में सर्वहारा को केंद्र में रखकर लिखी गई उनकी असंख्यक कहानियां और लेख समाज के लिए दर्पण है।
बीज शब्द : सर्वहारा, किसान, साहित्य, उपादेयता, उपनिवेशवाद, मध्यमवर्गीय, मानवता, मार्क्सवाद, नागार्जुन, समाज की पीड़ा, मुख्यधारा, बेबसी, जन
समर्थन, आशा, आकांक्षा, समाज से धकियाया हुआ, दासता, प्रगतिशील
उपेक्षित वर्ग, काव्य का सर्वहारा, शोषित और उत्पीड़ित, संघर्ष।
मूल आलेख : सर्वहारा और साहित्य एक दूसरे के पूरक रहे हैं। भारतीय चिंतन परंपरा
में साहित्य के परिपेक्ष्य में हम हासिये के जन के स्वरूप,
प्रभाव और उसकी वैविध्यपूर्णता को कालजयी इतिहास के रूप में देखते रहे हैं। साहित्य के इतिहास
की संचेतन भूमिका के केंद्र में हमेशा से एक वर्ग ऐसा रहा
जिसने लेखकों, सुधारकों और चिंतकों का ध्यान बार-बार अपनी ओर आकृष्ट किया है। हाल
के दिनों में महामारी से बदली परिस्थितियों ने ही केवल उन्हीं विमर्श की भूमिका
में नहीं रखा अपितु एक विशिष्ट कालखंड भी इनके कालजयी सर्जन का गवाह रहा। हालांकि महामारी काल की विद्रूप स्तिथि और भी अधिक
जुगुप्साकारक बन जाती है, जब लेखक और चिंतक अभिशप्त जीवन जीने को मजबूर इस वर्ग के जीवन-मूल्यों का विघटन देखता
है। मौज़ूदा चुनौतियों ने दुनियांभर के समीक्षकों,
लेखकों और चिन्तकों को हासिये के मानुष के प्रति सायास गम्भीर मंथन
के लिए प्रेरित किया है।
क्या अभिव्यक्ति का ये भाव साहित्य
के इतिहास के दूसरे काल में भी मुखर रहा। इसकी पड़ताल से ये बात स्पष्ट होती है की
बीते समय में भी उनकी भूमिका और तात्कालीन परिस्तिथि को लेकर प्रखर साहित्यकारों
के बीच साहित्यिक लामबन्दी रही। विमर्श के उस दौड़ से आम जनमानस में लोक कल्याण और
लोक जागरण की भावना प्रस्फुटित हुई। उन्हें केंद्र में रख कर तमाम चरित्र गढ़े जाने लगे और उन्हें आख्यान काव्यों
में रचा जाने लगा। कुल मिलाकर सर्वहारा के समाज निरपेक्ष अस्तित्व की स्वीकृति
मौजूदा विमर्श की प्रमुख प्रवृत्ति बन गई।
उत्तरवर्ती साहित्य के आलोक में
अध्ययन से स्पष्ट
होता है की शोषक और शोषित के द्वन्द्व को तब के साहित्य में बड़ा दायरा मिला। हालाँकि भारतेन्दू से लेकर
प्रेमचंद के साहित्य में ये संवेदना स्पष्ट रूप से दिग्दर्शित होती है। लेकिन 60 के दशक के बाद का साहित्य इसकी बड़ी बानगी बना। इस काल के लेखकों
द्वारा जो व्यापक जनसमर्थन सर्वहारा वर्ग के प्रति दिखा वो किसी और काल में इतने
विपुल रूप में नहीं दिखा। संभवतः
प्रोयगवाद और प्रगतिशील साहित्य ने ही सर्वहारा को हासिये से इतर मुख्यधारा में
खड़ें होने का माद्दा दिया। समाज के सबसे उपेक्षित वर्ग ने साहित्य के केंद्र में
सहसा अपनी जगह बना ली। यद्यपि इस परम्परा की विधिवत शुरुआत प्रेमचंदकालीन साहित्य से ही हो गयी थी लेकिन
छायावाद से इतर साहित्य में वामपंथी विचारधारा के उदय से इसे अत्यधिक बल मिला।
तब के कवियों ने समाज के सबसे
उपेक्षित वर्ग के लिए सर्जन
को अपना सबसे मज़बूत हथियार बनाया और तत्कालीन हुकूमत का ध्यान उनकी व्यथा और दुर्दशा की ओर आकृष्ट किया। उन्होनें
समाज की पीड़ा, दुर्बलता, दयनीयता, निरीहता, बेबसी, उत्पीड़न, असमानता, पक्षपात
और दमन के अकांड तांडव का चित्रण किया।
"रामेश्वर शर्मा ने इस संदर्भ में ठीक ही कहा है- साहित्य जनता की आशा, आकांक्षा और कर्मेक्षा की अभिव्यंजना है जो देश, समाज और मनुष्य की आर्थिक, राजनीतिक एवं बौद्धिक दासता से मुक्त होने की प्रेरणा देती है। "1 सर्वहारा के संदर्भ
में साहित्य की उपादेयता को लेकर उनकी यह टिप्पणी बिल्कुल सटीक प्रतीत होती है।
भगवती चरण वर्मा ने अपनी कविता 'भैसागाड़ी' में समाज
के पद दलित और तिरस्कृत प्राणी का यथार्थ चित्रण अंकित करते हुए लिखा है-
"चांदी के टुकड़ों को लाने प्रतिदिन,
पीसकर भूखों मर- मर
भैंसा गाड़ी पर लदा हुआ, जा रहा मानव जर्जर "। 2
कहना न होगा की तत्कालीन कवियों और लेखकों ने हासिये पर पड़े मनुष्य की पीड़ा की
अभिव्यक्ति का जो बीड़ा उठाया था उसे बखूबी अपनी सशक्त लेखनी के ज़रिये आगे बढ़ाया।
इसकी पुष्टि सन् 1838 में कलकत्ता में रविंद्र नाथ ठाकुर
द्वारा दिये वक्तव्य से पता चलता है जिसमें उन्होनें कहा था-"जनता से अलग
रहकर हम बिल्कुल अजनबी बन जाएंगे। साहित्यकारों को मिलजुलकर उन्हें पहचानना है। जो
साहित्यकार, मानवता से तादात्म्य स्थापित न कर सका
वह अपने लक्ष्य और आकांक्षाओं को पाने में विफल रहेगा। "3
जाहिर है यहां जनता का तात्पर्य उसी
सर्वहारे वर्ग से है जो समाज से धकियाया और तिरस्कृत किया गया था।
इस वर्ग विशेष के साहित्य के केंद्र
में आने की यात्रा स्वतंत्रता पूर्व के उपन्यासों में यथार्थवादी प्रवृत्ति के उदय
के साथ ही हो गयी थी। प्रेमचंद ने इसकी विधिवत शुरुआत की। उन्होनें अपनी कहानियों
और उपन्यासों में शुरु से ही किसानों और मध्यमवर्गीय भद्र पुरुषों के यथार्थ जीवन
का चित्रण किया। किस तरह परिस्थितिवश किसान, मजदूर
बनने के लिए विवश हो गया था और उसकी सामाजिक
विशिष्टता उस काल विशेष में क्या रही इसका
अंकन उन्होने अपनी कहानी 'गोदान' में कर दिया था। प्रेमचंद की परंपरा
को बाद में नागार्जुन, भैरव
प्रसाद गुप्त, फणीश्वर नाथ रेणु आदि लेखकों की कहानियों और उपन्यासों में देखा जा
सकता है। पूर्व के उपन्यासों में मजदूरों के जीवन पर उस तरह नहीं लिखा जा सका। जिस
तरह उस युग में और बाद में प्रगतिशील साहित्य के दौड़ में लिखा गया। जैसा कि नामवर
सिंह का मानना था प्रयोगवाद के दौर के कथा साहित्य में मध्यवर्गीय जीवन को ही
ज्यादा अभिव्यक्ति मिल पाई। सर्वहारा वर्ग फलक पर आया तो सही लेकिन पूरी तरह नहीं।
कुछेक कवियों ने फुटकर तौर पर उन्हें भलें ही स्थान दिया था लेकिन वे अब भी सर्जन की मुख्य धूरी नहीं बन पाये थे।लेकिन प्रगतिशील दौर के रचनाकारों ने
अपने उपन्यासों और कहानियों में सिर्फ किसान और मजदूरों के जीवन को ही नहीं
प्रस्तुत किया अपितु उन्हें कहानियों का महानायक भी बनाया। यही स्थिति कमोबेश नयी
कहानी के दौर में भी बनी रही।
"छायावाद के उत्तर काल का साहित्य जो मार्क्सवाद और साम्यवाद के
प्रभाव में थी और जिन्होंने छायावाद के रूमानी प्रभाव से मुक्त होकर यथार्थवाद को
वामपंथी नजरिए से कविता में पेश किया। उसमें यह वर्ग खूब दिखा। "4
"नरेंद्र शर्मा, रामेश्वर शुक्ल अंचल, रामविलास शर्मा , शिवमंगल सिंह सुमन, नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल, मुक्तिबोध, त्रिलोचन शास्त्री, शंकर शैलेंद्र आदि प्रमुख ऐसे कवि थे जिन्होंने अपनी कविता को शोषित
और उत्पीड़ित जनता विशेषतः किसान और मजदूर जनता की तरफ मोड़ा और उनके जीवन को कविता का विषय
बनाया"। 5
निराला ने 'कुकुरमुत्ता', 'बेला', और
'नए पत्ते' में किसानों और मजदूरों के मुक्ति के स्वप्न को कविता के माध्यम से
सच करने की कोशिश की।
सन्1917
में रूस की बोल्शेविक क्रांति और सोवियत संघ के अस्तित्व में आने के
बाद दुनियांभर के कलाकारों और बुद्धिजीवियों को इसने प्रभावित और प्रेरित किया था।
सोवियत यूनियन ने उपनिवेशवाद के
खिलाफ संघर्ष को अपना समर्थन दिया। "दूसरे विश्व युद्ध के दौरान फाँसीवाद पर सोवियत संघ की लाल सेना की
निर्णायक जीत ने दुनिया भर के वामपंथी और प्रगतिशील ताकतों के हौसले बुलंद किए। इसका
असर भारत के लेखकों पर भी पड़ना स्वाभाविक था। पहली बार किसान और मजदूरों के प्रति गहरी सहानुभूति और
लगाव की अभिव्यक्ति हुई। और तब शोषण उत्पीड़न से मुक्ति के सामूहिक प्रयासों की
जरूरत को रेखांकित ही नहीं किया गया बल्कि यह भी बताया गया कि जनक्रांति इसका
एकमात्र रास्ता है। "6
मुक्तिबोध ने इस संदर्भ में अपनी
रचना 'चकमक की चिंगारियां' में रचनाकारों से यह प्रश्न उठाया है की वे इस वर्ग संघर्ष में किस ओर है -
"बशर्ते तय
करो,
किस ओर हो तुम, अब
सुनहले उधर्व आसन के
दबाते पक्ष में, अथवा
कहीं उससे लुटी- टूटी
अंधेरी निम्न कक्षा में
तुम्हारा मन
कहाँ हो तुम "7
1930 के दशक तक जब स्वाधीनता आन्दोलन में किसान - मज़दूर जनता की भागीदारी बढ़ने
लगी थी, तब छायावाद की प्रासंगिकता भी समाप्त होने लगी थी। पन्त और निराला के
काव्य में परिवर्तन के संकेत मिलने लगे।
मजदूरों की दुर्दशा को प्रमुखता से
उठाने की परंपरा भारतेंदु युग से ही शुरू
हो गई थी। इस काल के रचनाकारों ने भक्ति और श्रृंगार परक साहित्य के साथ-साथ अपने
समाज के अधिकतर बड़े और प्रमुख सवालों पर अपनी कलम चलाई।। आगे बढ़ती हुई यह
प्रवृत्ति मुंशी प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, सुदर्शन , विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक आदि की कहानियों,
उपन्यासों, नाटकों आदि में भी दिखाई देती है।
नागर्जुन ने गरीबी-भुखमरी से पीसते
सर्वहारा के आत्म-निर्वासन की प्रक्रिया को तेज़ करते हुए लिखा है-
"हरिजन गिरिजन नंगे भूखे हम तो डोले वन
में
खुद तुम रेशम साड़ी
टाँगें उड़ती फिरो गगन में
महंगाई की सूर्पनखा को
ऐसे पाल रही हो
शासन का गोबर जनता पर
डाल रही हो"8
"तब के रचनाकारों ने जहां अपने शब्दों में शोषित वर्ग के प्रति सहृदयता प्रकट किया। वहीं
दूसरी ओर शोषक वर्ग के प्रति घृणा व्यक्त की है। शोषक वर्ग में जमींदार उद्योगपति
व मालिक आते हैं। यह वर्ग मजदूरों और किसानों के खून पसीने की कमाई से विलासिता और
वैभव का जीवन व्यतीत करता है। "9 बेचारे मजदूरों के बच्चों को दूध की बूंद तक नहीं मिलती और
पूंजीपतियों के कुत्ते दूध का पान करते हैं। उनकी इस प्रवृत्ति की भर्त्सना करते
हुए कवि दिनकर ने कहा था-
"श्वानों को मिलता दूध-वस्त्र,
भूखे बालक अकुलाते हैं
माँ की हड्डी से चिपक
ठिठुर जाड़ों की रात बिताते हैं
युवती के लज्जा वसन बेच
जब ब्याज चुकाए जाते हैं
मालिक जब तेल-फुलेलों
पर पानी-सा द्रव्य बहाते हैं"10
"उधर निराला जी ने 'चोटी
की पकड़', 'काले कारनामे आदि उपन्यासों में मजदूर जीवन दर्शन को प्रस्तुत किया
है। प्रेमचंद और निराला के प्रगतिवाद कविता की श्री वृद्धि करने में हिंदी के अनेक
कवियों ने अपना योगदान दिया है।
पन्त
के 'युगवाणी', 'युगांत', 'ग्राम्या' जैसी कृतियों में मजदूरों का स्वर
मुखरित हुआ और उन्होने एक नये तरह का समाज़ बनाने का स्वप्न
देखा। "11
इसी संदर्भ में मैकाले की कही गई बात को भी रखा जा सकता है जब आम आदमी
बेड़ियों में जकड़ा गुलामी में पिस रहा था तब मैकाले ने पूरे देश में भ्रमण कर आम
जन के बारे में अपनी तत्काल ये प्रतिक्रिया दी थी
और कहा था-भारतीय समाज की सबसे बड़ी समस्या शिक्षा है। शिक्षा सबसे शक्तिशाली हथियार है जिसका इस्तेमाल भारत
की चुनौतियों को सफलता में बदलने में कर सकते हैं। समाज को शिक्षित और विवेकशील
बनाने में सबसे बड़ी रुकावट यहां के कट्टरपंथियों ने ही पैदा नहीं की बल्कि
औपनिवेशिक शासकों ने भी बाधाएं बनाई थी। "मैकाले
ने 2 फरवरी
1935 को ब्रिटिश संसद में प्रस्ताव पेश करते हुए कहा था कि मैं भारत के कोने
कोने में घूमा हूं लेकिन मुझे कहीं कोई ऐसा व्यक्ति दिखाई नहीं दिया जो भिखारी हो।
इस देश में मैंने इतनी धन-दौलत देखी है, इतने गुण मनुष्य देखे हैं कि मैं नहीं समझता कि
हम कभी इस देश को जीत पाएंगे। जब तक हम इसकी रीड की हड्डी को नहीं तोड़ देते हैं
जो है इसके आध्यात्मिक और सांस्कृतिक विरासत। इसलिए मैं प्रस्ताव रखता हूं कि
पुरातन शिक्षा व्यवस्था उसकी संस्कृति को बदल डालें। सोचें किजो भी विदेशी है और
अंग्रेजी है वे उनकी चीजों से बेहतर नहीं है। जब तुम कहोगे कि मेरे पास एक
सांस्कृतिक परंपरा है और मेरी संवेदना है और बाकी तो सिर्फ उपरी चीजें है तो इससे
तमाम लोग आपसे सहमत होंगे जो यह मानते हैं की किसी भी देश की सांस्कृतिक परंपरा और
सर्जनकर्ताओ
की संवेदना ही उस देश के व्यक्ति के
अस्तित्व का आधार है। "11
कहना अतिशयोक्ति
न होगी की आज का सर्वहारा तबके साठोत्तरी साहित्य में भी मुखरित था और प्रसंगवश आज
भी विमर्श के केंद्र में है। इस वर्ग ने लेखक वर्ग को सतत ये भान कराया की साहित्य
की उपादेयता उसके चित्रण के बगैर अधूरी है। "कार्ल मार्क्स ने सर्वहारा के प्रति आमजन में संवेदना की जो अलख जगाई
वो आज तक अपने यात्रा-काल में है। यद्यपि तथाकथित संभ्रांत बस्तियों में आज भी वो
तिरस्कृत और अपकृत हो पर साहित्य के धुरंधरों ने हमेशा उसे सिरमौर बनाया। "12जाहिर है सर्जन के अनंत सफ़र तक उसकी जिजीविषा की यात्रा जारी रहेगी। समाज का दर्पण
कहलाने वाला साहित्य उसके अभिशप्त छायांकन के बगैर अधूरा है। सर्वहारा जो कल भी
मौज़ू था, आज भी प्रासंगिक है और आने वाले कल में समीचीन बना रहेगा। साहित्य ने
सर्वहारा के जीवन को केन्द्र में रखकर अनेकों कृतियों और रचनाओं को उत्कर्ष तक
पहुंचाया है। प्रत्येक काल और समय ने हासिये के इस आम आदमी की पीड़ा को सुधि
पाठकों तक इस खूबसूरती से पहुंचाया कि यह कृषक वर्ग अनंत काल तक साहित्य का एक
अभिन्न हिस्सा बन गया। हालांकि इतिहास ने इसके अवसान को भी देखा। छायात्तर कविता
के मर्म में यह बिल्कुल न के बराबर दिखता है अपितु साठोत्तरी कविता -कहानियां इसकी
सशक्त उपस्थिति की बानगी बनी। ऐतिहासिक दृष्टि से देखें तो साहित्य और संस्कृति
जीवन-जगत का केवल आईना ही नहीं है वह उसकी दिशा और दृष्टि भी रही है। संस्कृति को
साहित्य के आईने में देखने पर जहां उसके कई उदात्त,
उदार पक्ष व स्तर दिखाई देते है वहीं उसके अनेक घृणित दाग-धब्बे भी
दिखाई देते हैं। साहित्य की जड़ में अगर सत्यम् शिवम् और सुन्दरम्आदि
शुभ तत्त्वोंका समावेश है तो अनेक विकृतियां और
दोषपूर्ण व्याधियां जैसे अशुभ तत्त्व भी व्याप्त हैं। इस प्रकार साहित्य में विरुद्धों का सामंजस्य होता है। संस्कृति में निरंतर संग्रह और त्याग की प्रक्रिया जारी
रहती है। साहित्य अपने अतीत, वर्तमान और भविष्य की संस्कृति की केवल भावपूर्ण कथावाचक ही नहीं
होती है। वह एक तरफ जहां इतिहास की संस्कृति के उज्ज्वल और उदार रुपों को व्यक्त करती है वहीं उसके घृणित और बर्बर रुपों को
भी प्रस्तुत करती है। दूसरी ओर अपने समकालीन संस्कृति की अगर वह कटु आलोचक होती है
तो भविष्य की संस्कृति की दृष्टि-निर्माता और दिशा निर्देशक-सर्जनकर्ता भी होती है।
सन्दर्भ :
1.भगवती चरण वर्मा, 'भैसागाड़ी' (कविता संग्रह), पृष्ठ संख्या 43
4. सुमित्रानंदन पन्त, 'युगवाणी', पृष्ठ संख्या 78
शोधार्थी, अनुवाद प्रभाग , भारतीय भाषा केन्द्र, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय
darshanipriya99@gmail.com, 8920458241
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-41, अप्रैल-जून 2022 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक एवं जितेन्द्र यादव, चित्रांकन : सत्या सार्थ (पटना)
कई नए तथ्यों की रोचक छानबीन!
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर आलेख
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