शोध आलेख :- सिद्ध सरहपा का समय तथा उनकी ऐतिहासिकता : मिथक से इतिहास तक / करमचंद साहू

सिद्ध सरहपा का समय तथा उनकी ऐतिहासिकता : मिथक से इतिहास तक
(क्या सिद्ध सरहपा के नाम से एकाधिक व्यक्ति हुए हैं? )
- करमचंद साहू

शोध सार : सरहपाजितने विवादित हैं, उतने ही चर्चित भी हैं। साहित्येतिहास के अंतर्गत हिंदी, ओड़िया तथा बांग्ला आदि में और भौगोलिक दृष्टि से भारत, तिब्बत तथा नेपाल में उनसे चर्चित व्यक्ति कोई और नहीं है। कुछ अनुश्रुतियों के अनुसार वे अग्र सिद्ध हैं। अग्र सिद्ध होने के कारण उनकी एक समृद्ध पंथ-परंपरा चली। किंतु सरहपा के नाम से एकाधिक व्यक्तित्व की परिकल्पना कार्देयर आदि विद्वानों ने की है। इसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। एकाधिक अनुश्रुतियों तथा व्यक्तित्व के कारण सरहपा के समय के बारे में पता लगा पाना मुश्किल हो जाता है। किसी ने उनको धर्मपाल, तो किसी ने उनको रत्नपाल के समय विद्यमान रहने की परिकल्पना की है। ओड़िशा में भुवनेश्वर म्यूजियम में स्थित एक मूर्ति के आधार पर उड़िया के विद्वान् उनका समय शुभाकर देव राजा के विद्यमान के समय, 8 वीं से 9 वीं शती के बीच निर्धारित करते हैं।1 विनयतोष भट्टाचार्य जी उनको 7 वीं शती का मानते हैं, तो राहुल जी 8 वीं शती का और धर्मवीर भारती जी उनका समय 9 वीं शती मानते हैं। इस तथ्य के साथ अगर फिर हम शबरिपा को मिला लें तो यह और बोझिल हो जाएगा, क्योंकि कुछ अनुश्रुतियों में शबरपा को भी सरहपा (छोटे सरहपा) के नाम से पुकारा जाता है। मैं आगे इतिहासकारों के विवरणों तथा सरहपा की रचनाओं से साक्ष्य ढूँढकर उनके समय निर्धारण करने तथा उनकी ऐतिहासिकता की खोज करने की कोशिश करूँगा।

बीज शब्द : प्रत्नतात्विक साक्ष्य, सिंहावलोकन, बौद्ध, विसंगति, अभिजात वर्ग, तंत्र, भागवत नरेश, विजयिनी अरब सेना, इस्लाम की काशी, क्रौंच-मिथुन, निष्कासन, स्थूल शरीर, कीर्तिशरीर, प्रज्ञा, करुणा, रहस्य, तिब्बती अनुश्रुति, वंश वृक्ष आदि।

मूल आलेख : किसी भी महान् कवि के समय निर्धारण करते वक्त शोधकर्ताओं को, सबसे पहले उनकी रचनाओं से गुजरना पड़ता है। फिर अभिलेखों, प्रत्नतात्विक साक्ष्यों आदि की ओर रुख करना पड़ता है। फिर अगर इनसे काम न चले, तो अनुश्रुतियों, कहानियों आदि की ओर भी ध्यान देना पड़ता है। सरहपा के मामले में यह कार्य बहुत कठिन है, कारण कई हैं। जिनमें प्रमुख उनकी संपूर्ण रचनाओं का न मिल पाना तथा उनके नाम से वैज्ञानिक तथ्य न मिल पाना है। राहुल जी उनकी खोई हुई रचनाओं की प्राप्ति की आशा रखते हैं। अभी तक सरहपा के बारे में जो कुछ लिखा गया है, तथा सरहपा के नाम से उपलब्ध रचनाओं का सिंहावलोकन कर मैं, कुछ निर्णयों का उल्लेख करने की कोशिश करूँगा।

अगर हम सभी विद्वानों के द्वारा दिए गए समय को एक धागे में पिरो दें तो, मोटा-मोटी इस नतीजे पर पहुँच सकते हैं कि उनका जन्म 7वीं से 10 वीं शती के बीच में कभी हुआ होगा। 7वीं से 10वीं के लंबे समय के बीच भारत की परिस्थिति कैसी थी, इसका जानना बेहद जरूरी है। क्योंकि एक सच्चा साहित्यकार या कवि अपने समय को अपनी रचनाओं में प्रत्यक्ष तथा परोक्ष रूप से पुनर्रचित करता है। अतः हमें एक शोधकर्ता के रूप में सरहपा की रचनाओं तथा उनसे संबंधित अन्य विद्वानों के द्वारा लिखित रचनाओं समेत तत्कालीन इतिहास, समाज, राज्य व्यवस्था आदि का भी अध्ययन करना पड़ेगा। इसके लिए अगर हमें शुद्ध इतिहास, समाजशास्त्र आदि का सहारा लेना पड़े तो कोई अशुद्धि नहीं होगी। आगे यही कोशिश होगी।

कुंभनदास ने कहा है, ‘संतन को कहाँ सीकरी सों काम’, तुलसीदास ने लिखा है, ‘खेती न किसान को भिखारी को न भिख बलि’, ‘माँगि कै खैबो, मसीत को सइबो’, सिख गुरुओं ने राज्य सत्ता के खिलाफ़ विद्रोह किया है। भारतेंदु आदि ने अंग्रेज़ी राज को फटकारते हुए कितनी रचनाएँ की हैं। निराला, नागार्जुन, मुक्तिबोध, धूमिल आदि कितने ही कवि अपने समय की विसंगतियों को बेबाकी से अपनी कविताओं में उतारा है। सरहपा के समय भी ऐसे कवि संस्कृत में हुए हैं, जिन्होंने समाज में फैली समस्याओं को अपनी रचनाओं में रेखांकित किया है। सरहपा के समय के आसपास भी ऐसे कवि संस्कृत में हुए हैं, जिन्होंने समाज में फैली समस्याओं को शब्द प्रदान किया है- “दीना दीनमुखैः सदैव शिशुकैराकृष्टजीर्णाम्बरा/क्रोशद्भिः क्षुधितैर्निरन्नविधुरा दृश्यान चेदेहिनी/ या च्ञा भङ्ग भयेन गददगलत्-त्रुट्यद्विलीनाक्षरं/ को देहीति वेदत्स्वदग्धजठरस्यार्थे मनस्वी पुमान्।। ये भर्तृहरि की पंक्तियाँ हैं। कोसम्बी साहेब ने इनका समय तीसरी सदी के आसपास का माना है। भर्तृहरि अभिजात वर्ग के कवि थे, किंतु तथापि उन्होंने तत्कालीन समाज की जो विसंगतियाँ व्यक्त की हैं, उन्हें देखकर आश्चर्य होता है।”2 एक महान् लेखक हम किसे कहेंगे? कोसाम्बी को उद्धृत करते हुए मैनेजर पाण्डेय ने लिखा है-

“एक महान् लेखक अपनी रचना में स्वयं को सीधे-सीधे प्रकट नहीं करता। वह अपने अनुभवों के साथ-साथ दूसरे के अनुभवों को भी व्यक्त करता है। लेकिन इन अभिव्यक्ति की प्रक्रिया में वह जिन बिंबों और मुहावरों का प्रयोग करता है, उनमें उसके वर्ग और सामाजिक संरचना की छाप मौजूद रहती है।”3 सरहपा में तत्कालीन सामाजिक संरचना की छाप तो मौजूद है किंतु आर्थिक - राजनीतिक परिस्थितियों के प्रति उनकी चुप्पी उलझनों में डाल देती है। तत्कालीन सामाजिक, राजनीतिक तथा धार्मिक विसंगतियों के यथार्थ चित्रण की आशा करते हुए, आदिकवि सरहपा से अधिक उम्मीद रखी ही जा सकती है।

सरहपा आदि सिद्ध हैं, साथ ही अवश्य ही एक महान् लेखक भी हैं। सरहपा की शृखंला में आए सिद्ध विरूपा की पंक्तियों में चमत्कारों द्वारा दो बार म्लेच्छ के विरोध का उल्लेख है।4 अब यह प्रश्न उठना लाजमी है कि सरहपा की रचनाएँ इन सब के मामले में क्यों चुप हैं?

7 वीं से 10 वीं शताब्दी के बीच का सामाजिक परिदृश्य कैसा था? राज्य व्यवस्था कैसी थी? धार्मिक परिस्थिति का स्वरूप कैसा था? क्या इन सबका वर्णन सरहपा ने अपनी रचनाओं में किया है? अगर हाँ, तो सरहपा इस समय अवश्य पैदा हुए होंगे। अगर नहीं, तो सरहपा का इस समय पैदा होना संदिग्ध है। यही प्रश्न मुझे आंदोलित कर रहे हैं कि इतने बड़े तथा प्रखर कवि, जो क्रांतिकारी माने जाते हैं, जिन्होंने स्वयं ब्राह्मण होते हुए भी, तत्कालीन ब्राह्मण व्यवस्था को फटकारा है, जकड़ी बौद्ध व्यवस्था को नवीन राह पह चलने की नसीहतें दी हैं, ऊँच-नीच के भेदभाव को त्यागकर एक शर बनाने वाली महिला को अपनी संगी बनाया है, गुह्य तंत्र को सर्व सुलभ किया है, उनकी कविताओं में वैष्णव तथा शैव राजाओं के अत्याचार, अरब सेना के द्वारा बौद्धों का नर संहार, नालंदा में ही फैले दुराचार आदि पर चुप्पी, सरहपा के उस समय वर्तमान होने को, संदेह के घेरे पर ले आता है। क्या जान बूझकर सरहपा इन विषयों पर चुप हैं? क्या उनको इन गंभीर विषयों पर बात करने की जरूरत महसूस नहीं हुई होगी? क्या राजद्रोह के भय से वे चुप हैं, क्या सरहपा तक सुदूर उत्तर-पश्चिम में क्या घट रहा था, उसकी ख़बर पहुँच नहीं पाई होगी? क्या इनके विद्यमान होने के समय ये सारी बातें समाज में नहीं थीं? क्या उन्होंने इसपर बात की है, किंतु आज वे रचनाएँ अप्राप्य हैं? ऐसे कई प्रश्न मुझे आंदोलित कर रहे हैं।

राहुल जी ने ‘दोहाकोश’ में सरहपा के समय की विभिन्न परिस्थितियों को रेखांकित किया है। धर्मवीर भारती जी ने भी व्यापकता में इस पर बात की है। किंतु किसी ने भी इस बात की चर्चा नहीं की है कि सरहपा ने इन सबके खिलाफ़ आवाज़ क्यों नहीं उठाई है! बकौल धर्मवीर भारती-

“इस बीच में राजाश्रय तथा राजधर्म ने सिद्धों की परंपरा तथा बौद्ध तंत्रों के उद्भव प्रचार तथा ह्रास को विशेषतया प्रभावित किया है…”5

इतिहासकार बताते हैं कि सिद्धों को राजाश्रय प्राप्त था। कुछ लोकप्रिय सिद्ध तो स्वयं राजा थे। कुछ विक्रमशीला तथा नालंदा जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों से संबंध रखते थे। सबकुछ सही चल रहा था। किंतु राज्यसत्ता के परिवर्तन के साथ बहुत कुछ में परिवर्तन आता है। उस समय जिस राजा का झुकाव जिस धर्म की ओर अधिक था, वह धर्म उतना ही समृद्ध था। राजा अगर जैन हो तो, जैन धर्म की उत्तरोतर उन्नति होती थी। राजा बौद्ध हो तो बौद्धों का तथा शिव या वैष्णव हो तो शिव वा वैष्णव-धर्म को समाज में राजाश्रय प्राप्त होता था। सिद्धों के समय बंगाल में पाल वंश, ओड़िशा में भौमकर वंश का राज था। ये दोनों सिद्धों के लिए उदार थे। किंतु जल्द ही बौद्ध-सिद्धों के आकाश में शंशांक रूपी कलंक मंडराने वाला था। धर्मवीर भारती ने लिखा है-

“सिद्धों की समकालीन राजनीतिक परिस्थिति को भलीभांति समझने के लिए हर्ष और शशांक की प्रतिद्वंद्विता का थोड़ा सा इतिहास जान लेना अत्यंत आवश्यक है। इसलिए नहीं कि वह एक पूर्वीय तथा एक मध्यदेशीय सम्राट की प्रतिद्वंद्विता थी, वरन् इसलिए कि उस प्रतिद्वंद्विता के मूल में शैव और बौद्ध प्रतिद्वंद्विता भी थी।”6

बौद्ध धर्म जब अपनी चरम सीमा पर पहुँच रहा था, तब पूर्वी भारत में नवीन धार्मिक शक्तिओं का उदय हो रहा था। जिस शैव ने आगे चलकर सिद्धों में अपने आप को पराभूत किया, उसी में एक शशांक नामक राजा हुआ, जिसने सिद्धों को बहुत सताया। धर्मवीर भारती जी आगे लिखते हैं-

शशांक के प्रारंभिक जीवन के विषय में अधिक नहीं ज्ञात है। … 606 ई. के पूर्व वह सम्राट पद पर आसीन हो चुका था और बंगाल, उड़ीसा तथा मगध उसकी अधीनता में थे।… शशांक बौद्धों का कट्टर शत्रु था। बुद्ध के पद चिह्नों वाला एक पत्थर गंगा में फिंकवा दिया था, बोधिवृक्ष की शाखाएँ कटवा डाली थीं और बुद्ध प्रतिमा को नष्ट कर शिव प्रतिमाओं की स्थापना करनी चाही थी।”7

शशांक एक तरह से बौद्धों के लिए सिर-दर्द बन गया था। माना जाता रहा है कि बौद्धों पर हानि वैष्णव तथा ब्राह्मण धर्म को मानने वालों ने अधिक पहुँचाई है। किंतु शशांक इस बात को ग़लत साबित करता है। उसने जितनी क्षति बौद्धों को पहुँचाई है, किसी और ने नहीं। इस तरह पूर्वी बंगाल का वर्मन भी बौद्ध विरोधी था। ऐसे और भी राजा उस समय तक अवश्य रहे होंगे। ऐसे में यह आश्चर्य लगता है कि किसी एक सिद्ध ने भी इन राजाओं के अत्याचार के खिलाफ़ क्यों आवाज़ नहीं उठाई है? डॉ. राम कुमार वर्मा ने भी बहुत रोचक तथ्य दिया है-

“यों तो बौद्ध धर्म को समय-समय पर संघर्षों का सामना करना पड़ा- गुप्त वंश के परम भागवत नरेशों द्वारा भी बौद्ध-धर्म की गति में बाधा पड़ी, लेकिन उसे सबसे बड़ा आघात ईसा की आठवीं शताब्दी में कुमारिल और शंकराचार्य द्वारा वैदिक धर्म की पूर्ण प्रतिष्ठा में सहन करना पड़ा।”8

 इससे यह पता चलता है कि सिद्धों को सिर्फ राजाओं से नहीं अपितु वैदिक धर्म प्रचारकों से भी समस्या होने लगी थी। अगर राहुल जी को मानें तो सरहपा शंकर-कुमारिल के समय विद्यमान थे।

शशांक तथा वर्मन के बौद्धों पर अत्याचार एवं वैदिक धर्म प्रचारकों के द्वारा बौद्धों के विरोध की बात को जानने के बाद हम पाल वंश के संबंध में कुछ जान लेते हैं। कहा जाता है कि सिद्धों पर पाल वंश का संरक्षण प्राप्त था। बंगाल में गोपाल का राज्याभिषेक करीब 750 ई. को हुआ।9 770 ई. में धर्मपाल(गोपाल का पुत्र) गद्दी पर बैठा। धर्मपाल का शासनकाल धार्मिक तथा राजनीतिक दोनों दृष्टियों से महत्वपूर्ण था। तारानाथ का कहना है, कि धर्मपाल ने अपनी तथा अपनी पत्नी के वज़न के बराबर सोना बौद्धों को दान किया था, उनके लिए एक नए बौद्ध-विहार विक्रमशीला की स्थापना की थी। पुराने विहार सोमपुरी का पुनरुद्धार किया था। अन्य कितने ही बौद्धहितों का उल्लेख मिलता है।10

धर्मपाल के बाद देवपाल 810 ई. में शासन भार संभालता है। इसके बाद पाल वंश की प्रतिष्ठा का ह्रास प्रारंभ हुआ। जब कोई राजा इतना उदार हो, तब यह निश्चित है कि उसका प्रत्यक्ष या परोक्ष जिक्र, उसकी उदारता को प्राप्त करने वाले सिद्धों में से कोई न कोई अवश्य करता। व्यापकता से नहीं न सही, गौण रूप से तो अवश्य करता। न ही सरहपा न किसी और सिद्धों की पंक्तियों में इन राजाओं का जिक्र मिलता है, न ही प्रशस्ति सुनने को मिलती है।

अब हम थोड़ा तत्कालीन विदेशी आक्रमण की बात पर भी गौर करें। सरहपा के समय के आसपास से ही एक बहुत बड़ी हलचल भारत के उत्तर-पश्चिम की ओर शुरू हो गयी थी। अरब में नई सैन्य-शक्ति का अभ्युदय हो गया। उसने एक-एक करके कई सांस्कृतिक रूप से समृद्ध देशों को न सिर्फ हराया बल्कि उनकी सांस्कृतिक धरोहर को मिट्टी में मिला दिया। राहुल जी इसका वर्णन करते हैं-

“इनके मैदान में आने से पहले ही भारत से बाहर अपने प्रभाव को फैलाती एक विश्वशक्ति पश्चिम की ओर से भारत की ओर बढ़ती चली आ रही थी। यह थी अरब या इस्लाम की शक्ति। अभी प्रतापी हर्ष कान्यकुब्ज में विराजमान ही थे, जबकि 639 ई. में अरब-सेना ने महाबंद के युद्ध क्षेत्र में ईरान के प्रतापी सासानी राजवंश का उच्छेद किया। अगले तेरह वर्षों में विजयिनी अरब सेना ख्वारेज्म और तुखारिस्तान [मध्य आमू(वक्षु) उपत्यका]तक पहुँच गई। अरब केवल अपने शासन की ही स्थापना के लिए दिग्विजय नहीं कर रहे थे, बल्कि साथ ही वह विजित देशों की संस्कृति और प्राचीन विश्वासों को ध्वस्त कर एक नये रूप देने का प्रयत्न कर रहे थे। इस लिए उनके प्रतिद्वंद्वि भी आसानी से हथियार डालने के लिए तैयार नहीं थे।”11

अरब शक्ति अपनी चरम सीमा तक पहुँच गई थी। यह पूरे विश्व इतिहास में एक महत्वपूर्ण पड़ाव था, जिसने न सिर्फ वर्तमान को अपितु भविष्यत् को भी प्रभावित किया था। विश्व धार्मिक तथा सांस्कृतिक परिवर्तन में अरब सेना के अभ्युदय का बहुत बड़ा हाथ है। राहुल जी ने अरब सेना के द्वारा नए देशों के अधिग्रहण तथा उनका बौद्धों पर पड़े प्रभाव पर विशेष दृष्टि डाली है-

“तुखारिस्थान मध्य एशिया में बौद्धों का गढ़ था, जहाँ दत्तामित्र- आधुनिक तेर्मिज और बलख(वाहलीक) अपने महान् बौद्ध-विहारों तथा विद्वानों के लिए मशहूर थे।… तुखारिस्तान की भूमिका में इस्लाम और बौद्धधर्म के लिए जो खूनी संघर्ष हो रहे थे, उससे भारतीय शासक चाहे अप्रभावित रहे, पर बौद्ध-जगत् के महान् शिक्षा केंद्र नालंदा और दूसरे विहारों में तो सैकड़ों भुक्तभोगी मध्य एशियाई भिक्षु अध्ययन करते थे, इसलिए वह सारी घटनाओं से पूरी तौर से अवगत थे। यद्यपि वहाँ भारत से कोई सहायता नहीं पहुँच सकती थी, पर भारतीय बौद्धों की सहानुभूति तुखारिस्तानियों के साथ थी।”12

यद्यपि आज की तरह संचार माध्यम तब उपलब्ध नहीं थे, किंतु ख़बरें तो एक जगह से दूसरी जगह, एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक अवश्य ही पहुँचती थीं। उत्तर-पश्चिम में जो भी हलचलें हो रही थीं, उनकी हवा पूरब की ओर अवश्य बहती होगी। अगर हम राहुल जी को ही मान लें कि सरहपा का जन्म 769 ई. के आसपास हुआ था, तो ऊपर वर्णित घटनाएँ, हाल ही में, उनके जन्म से पहले घट चुकी थीं। किंतु सिर्फ यही कुछ घटनाएँ नहीं थीं, जो कुछ काल तक चलकर समाप्त हो गईं। ये तो शुरुआत थी। अरब सेना लगातार पश्चिम से पूरब की तरफ बढ़ रही थी और रास्ते में आने वाली हर एक चीज़ को नष्ट करती जा रही थी। इस तरहः

“आठवीं सदी के साथ इस्लाम की विजयिनी ध्वजा सिर और सिंधु महानदियों के किनारे फहराने लगी। आज से 1245 वर्ष पहिले 711 ई. में उमैया खलीफ़ा वलीद अब्दुल्मलिक पुत्र के सेनापति मुहम्मद बिन कासिम ने आपसी फूट से लाभ उठाकर सिंध को अरब साम्राज्य में मिला लिया और सिंधु हमेशा के लिए इस्लाम का विजित देश हो गया। … 709 ई. में बुखारा बौद्ध विहार के कारण पड़े इस नामवाले महानगर- को अंतिम संघर्ष के बाद आत्मसमर्पण करना पड़ा और वह आगे चलकर बौद्ध की जगह इस्लाम की काशी बना। 714 ई. में पूर्वी तुर्किस्तान में भी इस्लाम की विजयी-वैजयंती पहुँच गई, जब कि काशगर और खुतन ने घुटने टेक दिए और सैकड़ों वर्षों से बौद्ध धर्म प्रधान इस देश के हज़ारों संघारामों को लूटकर नष्ट कर दिया गया, भारी संख्या में भिक्षु तलवार के घाट उतार दिए गए। यह सारी घटनाएँ भारत के बौद्ध आचार्यों के लिए अपने सामने घटित सी मालूम होती थीं।”13

सरहपा का अगर यही समय है तो यह बौद्धों के लिए सबसे ख़तरनाक दौर अवश्य रहा है। बाहर इस्लाम का आक्रमण और अंदर शैव तथा ब्राह्मणों का अत्याचार बौद्धों के लिए दुहरा दर्द था। ऐसे वातावरण से और ऐसी परिस्थिति में सरहपा का जन्म होता है। सरहपा की एक भी पंक्ति में इन अत्याचारों का विरोध तो क्या जिक्र तक न होना आश्चर्य में डाल देता है। कारण क्या हो सकता है? यद्यपि राहुल जी ने इसके कारण के बारे में ‘दोहाकोश’ में कुछ नहीं कहा है, किंतु ‘हिंदी काव्यधारा’ में इसपर चर्चा अवश्य की है। उन्होंने कवि की चुप्पी को उनकी मजबूरी बताया है। वे लिखते हैं-

“जिस परिस्थिति के कारण कवियों को यह मौन धारण करना पड़ा, उस परिस्थिति पर भी आपको ध्यान देना होगा। यदि कमाऊ जनता की सारी यातनाओं के असली कारण को वह चाहे न भी बतलाते और सिर्फ लोगों की इन यातनाओं का नग्न चित्र खींच देते, तो उससे रेशम और रतन से ढँका अमीरों के भोगमय जीवन नग्न हो उठता, दोनों की तुलना होने लगती और फिर जनता के कितने ही लोग वैसे समाज से क्षुब्ध हो उठते, जिसका परिणाम अवश्य अमीरों के लिए अच्छा नहीं होता। इस लिए आपको समझना होगा कि क्रौंच-मिथुन में से एक के वध के लिए कवि का आँसू बहाना जितना आसान था, उतना उस काल के बहुसंख्यक समाज की विपदाओं का वर्णन करना आसान नहीं था। यदि कोई आदमी तत्कालीन भोगी समाज के विरुद्ध लिखने के लिए अपनी कवि प्रतिभा का कुछ भी दुरुपयोग करता, तो वह केवल पुरोहितों के धर्म-दंड का ही भागी नहीं होता, बल्कि उसके सरपर पड़ता क्रूर राज-दंड- छिपकर हत्या, भयंकर शारीरिक यातना, सीधे शूली, देश और समाज से निष्कासन और अपमान। इन दंडों को सामने रखकर जब आप इन कवियों की चुप्पी को देखेंगे, तो मालूम होगा कि उनके वैसे करने के लिए प्रबल कारण मौजूद थे।यही नहीं, कवियों ने अपनी काव्य-प्रतिभा की जो करामात दिखलाई है, उसका बचा-खुचा अंश भी शायद राजा-पुरोहित-सेठ की कोपाग्नि से न बच पाता। कवि अपने स्थूल शरीर और कीर्तिशरीर दोनों ही से नष्ट होने का भय सोच यदि मौन रहा, तो उसके विरुद्ध किसी कठोर फ़ैसले के देने का हमें अधिकार नहीं हैं।”14

राहुल जी की उपर्युक्त उक्ति क्या सरहपा के लिए भी लागू होती है? क्या सिद्ध सरहपा को राजदंड आदि का भय था? आज सरहपा की केवल सांप्रदायिक रचनाएँ प्राप्त होती हैं। उनमें यदाकदा उन्होंने समाज के उच्च तबके में से ब्राह्मणों के खिलाफ आवाज उठाई है। राज अत्याचार के खिलाफ वे चुप नज़र आते हैं। क्या सरहपा ने इनके खिलाफ आवाज उठाई होगी, जिसके कारण उनको उच्च वर्ग के कोप का सामना करना पड़ा होगा? क्या सरहपा आदि कवियों के बेबाकीपन के कारण उनकी समाजिक रचानाएँ ज़ब्त कर दी गईं या जला दी गईं होंगी, या फिर राहुल जी जैसे कह रहे हैं, सरहपा ने जान बूझ कर ऐसा किया होगा? दरअसल फिर से एक बात यहाँ दोहराना आवश्यक है कि सरहपा के नाम से जितनी भी रचनाएँ आज उपलब्ध हैं, उनमें से अधिकांश संदिग्ध हैं, प्रक्षिप्त हैं तथा उनके अनुयायियों द्वारा सरहपा के तिरोधान के पश्चात् रची गई हैं। राहुल जी 800 क़रीब पदों का अब भी नेपाल तथा तिब्बत में होने की शंका जताते हैं। यह संख्या और भी हो सकती है। अतः हो सकता है सरहपा ने इनके खिलाफ आवाज उठाई हों!यह भी संभव है कि उनकी रचनाएँ नालंदा में संगृहीत हों, जो आगे पुस्तकालय के दाह में जल गईं हों। नालंदा उस ज़माने के विश्व के सबसे चर्चित विश्वविद्यालयों में एक था। क्योंकि सरहपा ने नालंदा में अध्यापन किया है, अतः यह संदेह किया ही जा सकता है कि उनकी रचनाएँ या उनका जीवन-वृत नालंदा में अवश्य संगृहीत होंगे, जो या तो जल गए होंगे या उनके अनुयायियों द्वारा तिब्बत चले गए होंगे और फिर कहीं दबे पड़े होंगे।

अब विदेशी आक्रमण के खिलाफ सरहपा की चुप्पी की बात आती है। सरहपा के विद्यमान रहने के समय में भी विदेशी ताक़तों का भारतीय बौद्धों पर आक्रमण हो रहा होगा। सरहपा इसके बारे में भी क्यों चुप हैं? एक बौद्ध दूसरे बौद्ध के ख़ून गिरते वक्त चुप कैसे रह सकता है? खास कर सरहपा जैसे बेबाक कवि! आगे विरुपा ने जैसे म्लेच्छ आक्रमण का जिक्र किया है, सरहपा भी वैसे कुछ न कुछ कह ही सकते थे। किसी न किसी रूप में अत्याचार, युद्ध आदि चीज़ें उनकी रचनाओं में आ सकती थीं। किंतु इस पर भी वे चुप हैं। क्या सरहपा बौद्ध नहीं थे, जिस कारण उन्होंने बौद्धों की तकलीफ को रेखांकित नहीं किया ? मेरा यह प्रश्न विवाद पैदा करेगा। किंतु इस ओर हमें सोचना चाहिए। सरहपा ने ‘बौद्धगान ओ दोहा’ में संकलित पंक्तियों में एक बार बुद्ध का नाम लिया है। किंतु किस संदर्भ में लिया है, इस ओर ध्यान दीजिए। कबीर ने अपनी पंक्तियों में हरि, राम आदि का नाम बार-बार लिया है। किंतु क्या इससे कबीर वैष्णव या राम भक्त साबित होते हैं? सरहपा की उस पंक्ति को यहाँ फिर से उद्धृत कर रहा हूँ :- पंडिअ सअल सत्त बखाणई, देह हि बुद्ध वसंत न जाणई।

अर्थात् देह में ही बुद्ध हैं, शास्त्र में नहीं हैं। हो सकता है सरहपा बौद्धों को नसीहत दे रहे हों, जैसे कबीर ने हिंदुओं और मुसलमानों को दिया है ।कबीर ने अपनी रचनाओं में राम और हरि का बार-बार वर्णन किया है। तो क्या उस वजह से हम उनको राम या हरि भक्त कह सकते हैं? इस दृष्टि से इस पर विचार करना अभी बाक़ी है। सवाल उठता है, सरहपा में बुद्ध किस रूप में थे? नाम के रूप में या दर्शन के रूप में या आराध्य के रूप में या किसी और रूप में? जहाँ तक प्रज्ञा, करुणा आदि तत्वों को देखकर हम यह अंदाजा लगाते हैं, भारत में सारे दर्शन एक दूसरे से ऐसे मिले हुए हैं, कि हम किसी एक नतीजे में पहुँच नहीं सकते। गाँधी में अहिंसा है तो क्या गाँधी जैन या बौद्ध ठहरते हैं। ध्यान देने कि बात यह है कि सरहपा में कोई एक तत्व समाविष्ट नहीं है कि उसे देखकर हम किसी एक निर्णय तक पहुँच सकते हैं। अगर देखा जाए तो सरहपा तथा अन्य सिद्धों में बुद्ध से अधिक गुरु, तंत्र, रहस्य आदि तत्व अधिक दिखते हैं।

इस दृष्टि से संकलन का नाम ‘बौद्धगान ओ दोहा’ भी अयुक्तिपूर्ण लगता है। दूसरे सिद्ध ने भी बुद्ध का नाम न के बराबर लिया है। वैसे तो भारत के सारे धर्म, सभी दर्शन एक दूसरे से अंगांगी जुड़े हुए हैं। अतः इस दिशा में हमें फिर से सोचना होगा कि सिद्धों में बुद्ध कितने अंदर तक प्रविष्ट हैं?

फिर से हम उस प्रश्न पर आते हैं, सरहपा का समय क्या हो सकता है? कैसे पता किया जाए? अनुश्रुतियों तथा परिकल्पनाओं के आधार पर किसी महान् व्यक्ति का ऐतिहासिक समय पता नहीं किया जा सकता। अगर किसी समय का निर्णय भी कर लिया गया, तो उसे ऐतिहासिक नहीं माना जाना चाहिए। सरहपा ने स्वयं अपनी रचनाएँ नहीं लिखीं। उनके संबंध में जो अनुश्रुतियाँ प्रचलित हैं, वे भी उनके समय के काफी बाद यहाँ तक की 16वीं-17वीं शताब्दी के समय गढ़ी गई हैं। (तारानाथ आदि के तथ्य जिसके संबंध में धर्मवीर जी ने लिखा है कि, तारानाथ की इन कथाओं के पीछे इतिहास कम है, लोकवार्ता अधिक है15) सरहपा के तिरोधान के पश्चात् उनकी परंपरा में ‘सरहपा’ नाम एक उपाधि बन गयी है, जिसका इस्मेमाल उनके शिष्यों ने कई बार किया है। इसे समझने के लिए हम धर्मवीर भारती जी को सुन सकते हैं-

“जहाँ तक समय का संबंध है, यह सिद्ध परंपरा अधिक से अधिक दो या तीन शतियों की परिधि में आ जाती है, क्योंकि इनमें से बहुत से सिद्ध समकालीन थे। इनके समय का निर्णय करने के लिए अंतर्साक्ष्यों का सर्वथा अभाव है। बहिर्साक्ष्य के रूप में जो सामग्री मिलती है, वह भी सर्वथा भ्रामक है।”16

सिद्ध तथा सरहपा के संबंध में इतने भ्रम क्यों हैं? क्योंकि जो भी साक्ष्य प्राप्त होते हैं, वे अधिकांश संप्रदायों से जुड़े होने के कारण संदिग्ध हैं। संदिग्ध तथ्यों को इतिहास का आधार बनाना कितना सही है? इससे पहले चर्चा हो चुकी है कि भट्टाचार्य जी, राहुल जी आदि ने जो समय निर्धारण किया है, वे अनुश्रुतियों तथा अनुमान आधारित हैं। अतः इनको सरहपा के समय निर्धारण में उपयोग नहीं करना चाहिए। यहाँ प्रो. बैरेकलो की उक्ति को उद्धृत करना जरूरी है-

“हम जो इतिहास पढ़ते हैं, हालांकि वह तथ्यों पर आधारित हैं, ठीक-ठीक कहा जाए तो एकदम यथातथ्य नहीं है, बल्कि स्वीकृत फैसलों का एक सिलसिला है।”17

इतिहास वैज्ञानिक साक्ष्यों पर आश्रित है, स्वीकृत फैसले कहाँ तक इतिहास बन सकते हैं, इस पर विचार करना बाक़ी है। सरहपा के समय निर्धारण से पूर्व हम भ्रामक सामग्री के विषय में दोबारा विचार कर सकते हैं। धर्मवीर भारती ने लिखा है-

“बहिर्साक्ष्य के रूप में प्रमुख आधार वे सांप्रदायिक अनुश्रुतियाँ हैं, जो तिब्बती बौद्ध ग्रंथों या भारतीय शैव(नाथ) ग्रंथों में मिलती हैं। किंतु उनके लेखकों का दृष्टिकोण अत्यंत भ्रामक, एकांगी और कल्पनारंजित है। उनमें निम्न दोष पाए जाते हैं- (क) अति- प्राकृतिक चमत्कार और सिद्धि की कथाओं ने उनमें असंभाव्य कल्पनाओं की भरमार कर दी है। (ख) साम्प्रदायिक संकीर्णता और प्रतिद्वंद्विता इतनी अधिक है कि जानबूझकर तथ्यों को तोड़ा- मरोड़ा गया है। शैव ग्रंथों में बौद्ध आचार्यों को शैवों का शिष्य माना गया है, शैवाचार्यों को प्राचीन और बौद्धों को परवर्ती सिद्ध करने का प्रयास किया गया है और बौद्ध ग्रंथों में यही व्यवहार शैव आचार्यों के साथ हुआ है। (ग)कभी कभी एक ही अम्नाय के कई आचार्यों को एक ही आदि सिद्ध का अवतार सिद्ध करने का प्रयास कर कई युगों तथा कई देशों में एक ही आचार्य का अस्तित्व माना गया है, जैसे तारानाथ ने विरुपा का अस्तित्व कई युगों में और कई देशों में माना है। (घ) कई स्थानों पर एक ही सिद्ध पुरुष को विभिन्न संप्रदाय अपना मान लेते थे और उसका सारा इतिहास अपने ही रंग में रंग डालते थे। मत्येंद्र के विषय में भी यही हुआ है। नेपाल में वे शिव के अवतार माने जाते थे और तिब्बत में अवलोकितेश्वर के इसी प्रकार जालंधरिपा और हाड़ीपा को एक ही मान कर यह कह दिया था कि वे दो रूप धारण करके रहते थे। पश्चिम में जालंधरीपा और पूर्व में हाड़ीपा का। (ङ) तारानाथ जिनकी साक्षी बहुत से विद्वानों ने ग्रहण की है। 16वीं या 17वीं शती में हुए थे और कभी स्वयं भारत में आए भी नहीं थे। उनकी तिथियाँ, वंशावली, संप्रदाय निर्णय बिल्कुल प्रामाणिक नहीं है। (च) तारानाथ द्वारा उल्लिखित गुरुशिष्य परंपरा भी सर्वथा विश्वसनीय नहीं है, क्योंकि तत्कालीन संप्रदायों की दो तीन प्रवृतियाँ बहुत ही विचित्र थीं। निगुरा रहना उस समय अशुभ माना जाता था। अतः कभी कभी सिद्ध अपने गुरु ऐसे आचार्यों को परिकल्पित कर लेते थे, जो उनसे कई शती पहले हुए हैं। उन्हीं का अम्नाय ग्रहण करते थे कि मैंने उनसे व्यक्तिगत रूप से दीक्षा ली है। कभी कभी ऐसी भी कथाएँ मिलती हैं कि शिष्य पहले उत्पन्न हुआ और जब कोई भी ऐसा न दीखा जिसे वह गुरु बना सके तो उसने अपनी चमत्कार शक्ति से एक गुरु भी पैदा कर दिया। चूँकि सिद्ध अजर-अमर माने गए हैं, अतः कभी कभी बहुत पहले कई शताब्दियों पहले उत्पन्न होने वाले सिद्ध भी अपने परवर्ती सिद्धों से गोष्ठी या शास्त्रार्थ करते हुए दिखाए गए हैं। यह परंपरा संतों तक चलती रहीं और नानक तथा चौरंगी और कबीर तथा गोरख की गोष्ठी का वर्णन पाया जाता है। इन समस्त दोषों को दृष्टि में रखते हुए इन साप्रदायिक अनुश्रुतियों को किसी भी ऐतिहासिक निर्णय का आधार बनाना उचित नहीं कहा जा सकता।”18

सरहपा के काल निर्धारण के समय उपर्युक्त समस्त बातों को ध्यान में रखना चाहिए। जिन सांप्रदायिक अनुश्रुतियों के साहारे सिद्धों तथा सरहपा का काल निर्धारण किया जाता रहा है कि सरहपा अमुक राजा के समय विद्यमान थे, वे अधिकांश संदिग्ध ही हैं। सरहपा को आदि सिद्ध भी कहना तथा उससे सरहपा का काल निर्धारण करना भ्रामक है क्योंकि अन्य संप्रदाय अन्य किसी सिद्ध को आदि सिद्ध मानता है। तिब्बती अनुश्रुतियों (तिब्बत में रहकर) तथा भारतीय ऐतिहासिक दस्तावेजों (ह्वेनसांग के भारत आगमन) में भी कई बातें साम्यता नहीं रखतीं। सरहपा की रचनाओं में बौद्ध पर  इस्लाम के आक्रमण का कोई ज़िक्र नहीं मिलता तथा तत्कालीन शैवादि राजाओं का बौद्ध- सिद्धों पर अत्याचार का भी कोई वर्णन नहीं मिलता। ऐसी कई बातें सरहपा के विद्यमान रहने के समय को संदिग्ध में डाल देती हैं। सिर्फ सरहपा के होने की ही बात को अगर देखें तो, धर्मवीर भारती ने इस विषय की और अच्छे से व्याख्या की है-

“चक्रसंवर- तंत्र में सरह को आदिगुरु बताया गया है। किंतु कुछ परंपराओं में लुईपा को आदि सिद्ध कहा गया है। टुची ने भी यह संकेत किया है कि शांतरक्षित की एक रचना में लुईपा का उल्लेख है। यद्यपि यह लुईपा केवल उपाधि है या नाम इसका निर्णय नहीं किया जा सकता। संभव है लुईपा सरह से पहले हुए हों, क्योंकि कुछ अम्नाय ऐसा मानते हैं। पुनश्च सरह के विषय में कई तरह के उल्लेख मिलते हैं। उनका नाम राहुलभद्र है। एक राहुल कामरूप के निवासी हैं और शूद्र हैं। दूसरे राहुलभद्र हैं और तीसरे उड़ीसा के एक ब्राह्मण हैं। इनमें से राहुलभद्र सरहपा कौन हैं, यह नहीं कहा जा सकता।”19

जब तक कौन राहुलभद्र सरहपा हैं, यह नहीं कहा जा सकता तबतक हम कैसे सरहपा, जिनको आदि सिद्ध घोषित कर दिए हैं, जिनको कभी रहस्यवादी तो कभी क्रांतिकारी घोषित कर दे रहे हैं, उनका निर्दिष्ट समय निर्धारण कर सकते हैं? राहुल जी ने जिसके आधार पर सिद्धों का वंश वृक्ष दिया है, उनके बारे में धर्मवीर जी ने लिखा है-

“राहुलजी ने सिद्धों का जो वंश-वृक्ष दिया है, उसका आधार उन्होंने तिब्बत के सस्क्य मठ के पाँच गुरुओं की ग्रंथावली सस्क्य ब्कम् बुम का आधार लिया है। इन गुरुओं का समय 1091- 1279 ई. माना गया है, अतः यह तारानाथ से अधिक प्रामाणिक होगी, इनमें संदेह नहीं किया जा सकता। किंतु फिर भी जो कारण पहले गिनाए गए हैं, उनके आधार पर इसे भी सर्वथा विश्वसनीय नहीं माना जा सकता।”20

स्वयं धर्मवीर भारती जी ने कई विद्वानों के तथ्यों से गुजरकर सरहपा का काल निर्धारण किया है कि “इस प्रकार अन्य प्रामाणिक सामग्रियों के अभाव में अभी हम जो काल-परिधियाँ अनुमानित कर सकते हैं, वे इस प्रकार हैं- लगभग 800 ई. से 875 ई. सरहपा, शबरपा, लुईपा तथा उनके समकालीन सिद्ध।…”21

निष्कर्षतः हम यह मान सकते हैं कि सरहपा जैसे महान् कवि के काल निरधारण आदि पर विचार करते वक्त हमें जल्दबाजी या अंध नहीं बनना चाहिए। सरहपा कई कारणों से महान् हैं। उनकी परंपरा इतनी बड़ी है कि उसमें अधिकांश भारतीय भाषाओं के आदिकाल व भक्तिकाल के बड़े कवि प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से जुड़े हुए हैं। सरहपा तथा सिद्धों की प्रतिक्रिया से गोरखनाथ जैसे नाथ आए। गोरखनाथ से ज्ञानदेव तथा नामदेव फिर कबीर- नानक आदि संत जुड़े हुए हैं। ओड़िशा में पंचसखा जो ऊपर से वैष्णव कहलाते हैं अंदर से प्रच्छन्न बौद्ध हैं और वे भी सरहपा की परंपरा में आते हैं। यहाँ तक कि जयदेव की कुछ पंक्तियाँ ऐसी हैं, जिनमें सरहपा- काम, ज्ञान व रहस्य बन कर विद्यमान हैं।(इसकी अधिक संभावना है क्योंकि दोनों न सिर्फ पूर्वी-भारत के भूगोल से संबंध रखते हैं, अपितु गीति परंपरा से भी। हो न हो जयदेव में गीति-तत्व सरहपा आदि सिद्धों से अवश्य आया है।) उनकी कुछ पंक्तियाँ गुरुग्रंथ साहेब में भी जुड़ी हुई हैं।22 फिर यह और आगे बढ़ती, जो भीमभोई जैसे संत कवियों तक फैली हुई है। सरहपा ने अपनी परंपरा में न सिर्फ समय को लांघा है बल्कि भूगोल का भी अतिक्रमण किया है। विद्वानों का यह कर्तव्य होना चाहिए कि सरहपा से संबंधित सबकुछ, वैज्ञानिक साक्ष्य आधारित हो। कुछ हो न हो, कम से कम सही काल निर्धारण की कोशिश तो होनी ही चाहिए, जबतक यह संभव नहीं हुआ है तबतक किसी निर्दिष्ट नतीजे पर नहीं पहुँचना चाहिए। ध्यान देने की बात यह है कि धर्मवीर जी ने भी कोई निर्दिष्ट काल निर्धारण नहीं किया है, बल्कि काल परिधि में सरहपा के विद्यमान होने के समय को रखा है। किंतु तथापि यह कह पाना मुश्किल है कि सरहपा उपर्युक्त काल परिधि के अंतर्गत आते हैं। दरअसल निर्दिष्ट काल निर्धारण करना अभी कठिन है। क्योंकि सरहपा जैसे कवि की सारी रचनाएँ अभी प्राप्त नहीं हुई हैं, अतः उनके वर्तमान रहने के संबंध में कुछ भी पुख्ता नहीं कहा जा सकता। तब तक हमें सरहपा को लेकर यह निर्दिष्ट नहीं होना चाहिए कि सरहपा उक्त राजा या उक्त वर्ष विद्यमान थे। तिब्बत में अभी भी सरहपा को लेकर तथ्य विद्यमान हो सकते हैं। इस ओर अधिक शोध की आशा है।

 संदर्भ :
1.विशिष्ट ऐतिहासिक डॉ. नवीन कुमार साहु ने कहा है, ओड़िशा म्युज़ियम में जो अवलोकितेश्वर की मूर्ति सुरक्षित है, उसके निम्नभाग में एक अभिलेख संरक्षित है, जिसमें लिखा है- इस मूर्ति को महामंडलाचार्य परमगुरु राहुलरुचि ने शुभाकर देव के राज्यकाल में प्रतिष्ठित किया था।डॉ. साहु ने राहुलरुचि को सिद्ध सरहपा माना है और शुभाकर देव को 790-839 . के बीच विद्यमान रहने को माना है।”- चर्यागीति, सुरेंद्र कुमार महारणा, जगन्नाथ रथ पुस्तक प्रकाशक और विक्रेता कटक, दूसरा संस्करण- 2020, पृ. 20
2.मैनेजर पाण्डेय, साहित्य के समाजशास्त्र की भूमिका, हरियाणा ग्रंथ अकादमी, 2014, पृ. 68
3.वही, पृ. 69
4.धर्मवीर भारती, सिद्ध साहित्य, लोकभारती प्रकाशन, द्वितीय संस्करण, 2016, पृष्ठ- 49
5.वही, पृ. 42-43
6.वही, पृ. 43
7.वही, पृ. 46
8.रामकुमार वर्मा, हिंदी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, 1958, पृ. 41
9.धर्मवीर भारती, सिद्ध साहित्य, लोकभारती प्रकाशन, द्वितीय संस्करण, 2016, पृ. 45
10.वही, पृ. 45
11.राहुल सांकृत्यायन, दोहा-कोश, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना, 1957, पृ. 2
12.वही, पृ. 2
13.वही, पृ. 3
14.राहुल सांकृत्यायन, हिंदी काव्यधारा, किताब महल, इलाहाबाद, 1945, पृ. 21
15.धर्मवीर भारती, सिद्ध साहित्य, लोकभारती प्रकाशन, द्वितीय संस्करण, 2016 पृ. 49
16.वही, पृ. 15
17.. एच. कार, इतिहास क्या है? , ट्रिनिटी प्रेस, द्वितीय संस्करण, 1987, 2016 पृ. 7
18.धर्मवीर भारती, सिद्ध साहित्य, लोकभारती प्रकाशन, द्वितीय संस्करण, 2016, पृ. 17
19.वही, पृ. 19
20.वही, पृ. 40
21.वही, पृ. 45
22.परशुराम चतुर्वेदी- कबीर साहित्य की परख, भारती भंड़ार प्रयाग, 1954, पृ. 15

करमचंद
शोधार्थी, हैदराबाद विश्वविद्यालय, हैदराबाद
20hhhl04@uohyd.ac.in, 75046 81454

 अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  अंक-41, अप्रैल-जून 2022 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक एवं जितेन्द्र यादव, चित्रांकन सत्या सार्थ (पटना)

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