- अंजना
शोध सार : फणीश्वरनाथ रेणु को एक आँचलिक कथाकार के रूप में जाना जाता है यद्यपि आँचलिक कथाकार से अलग भी उनकी एक पहचान है जो है जनवादी रचनाकार के रूप में। हिन्दी साहित्य में जनवादी आंदोलन की शुरुआत व्यवस्थित रूप से भले ही 80 के दशक में हुई हो लेकिन जनवादी चेतना के चिन्ह इससे कहीं पहले प्रेमचंद युग में ही दिखाई देने लगे थे। रेणु के साहित्य में भी जनवादी चेतना को विकसित होते देखा जा सकता है। वस्तुतः जनवाद जिस हाशियाग्रस्त, शोषित व पीड़ित वर्ग का हिमायती है वह वर्ग रेणु के कथा संसार के एक बड़े फलक को घेरे हुए है। उनकी कहानियों में सामाजिक विद्रूपताओं का समग्र तथा यथार्थ चित्रण हुआ है। रेणु ने अपने पात्रों के माध्यम से कथा-सूत्रों को कुछ इस प्रकार बुन दिया है कि समाज की वास्तविकता अपने समस्त जटिल और उघड़े हुए रूप में सामने आ गई है। अतः यह कहना अनुचित न होगा कि रेणु की कहानियों ने अपनी विशिष्ट संरचना, स्वभाव तथा प्रकृति के माध्यम से हिन्दी कहानी परंपरा में अपनी एक अलग पहचान कायम की है।
बीज शब्द : समाज, जनवाद, प्रगतिवाद, यथार्थ, परिस्थितियाँ, व्यंग्य, जीवंतता, मानवीय दृष्टि, शोषित वर्ग, श्रमजीवी, साधारण जन, संघर्ष, लोक।
मूल आलेख : फणीश्वरनाथ रेणु ग्रामीण-जीवन और लोक-जीवन के अन्यतम कथाकार है। हिंदी साहित्य की यथार्थवादी कथा-परंपरा में फणीश्वरनाथ रेणु की कहानियाँ अपना एक सशक्त स्थान रखती है। छठे तथा सातवें दशक के अधिकांश कथाकार जहाँ मात्र सतही तौर पर, केवल फैशन स्वरूप महानगर के संत्रास, व्यक्ति के अकेलेपन, जीवन की अर्थहीनता की कहानियाँ लिख रहे थे, जब बनी-बनाई लीक पर चलकर शहरी और मध्यवर्गीय जीवन की कहानी लिखना सबसे आसान समझा जा रहा था, उस समय रेणु की कहानियाँ असल में अनेक समस्याओं से जूझती हुई उन जिंदगियों की कथा कह रही थीं जिनका अस्तित्व हर पल समस्याओं से घिरा हुआ है। रेणु के साहित्य का समाज काल्पनिक नहीं, बल्कि वास्तविक है उन्होंने जो जिस रूप में देखा, उसे उसी रूप में प्रकट किया। उनकी कहानियों को पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि वे अपने द्वारा देखे गए सत्य तथा भोगे गए यथार्थ और जीवनानुभवों को कहानी में पिरो कर, पूरी ईमानदारी और निष्ठा के साथ प्रस्तुत करते हैं। यही कारण है कि उनकी रचनाओं को पढ़ते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि मानो वे घटनाएँ, विवरण तथा पात्र साक्षात पाठक के सामने हों, पाठक उन्हें घटित होते हुए देख रहा हो, इसीलिए रेणु की रचनाओं का पाठक साहित्य के माध्यम से जीवन के यथार्थ से रूबरू होता है। जिस कारण इनकी कहानियों में मानवीय दृष्टि समग्रतापूर्वक व्यक्त होती है। निर्मल वर्मा लिखते हैं कि "रेणु की इस समग्र मानवीय दृष्टि को अनेक जनवादी और प्रगतिवादी आलोचक संदेह की दृष्टि से देखते थे- कैसा है यह अजीब लेखक, जो गरीबी की यातना के भीतर भी इतना रस, इतना संगीत, इतना आनंद छलका सकता है, सूखी करती जमीन के उदास मरुस्थल में सुरों, रंगों और गंधों की रसलीला देख सकता है। सौंदर्य को बटोर सकता है, आंसुओं को परखता है, किंतु उसके भीतर से झांकती, धूल-धूसरित मुस्कान को देखना नहीं भूलता, एक सौंदर्यवादी की तरह नहीं, जो सुंदरता को अन्य जीवंत तत्वों से अलग करके उसका रसास्वादन करता है।"[1]
फणीश्वरनाथ रेणु की कहानियाँ हिंदी कहानी की परंपरा में अपनी संरचना, प्रकृति और शिल्प के माध्यम से एक अलग पहचान बनाती हैं। इनकी कहानियों से एक नवीन कथाधारा का आरंभ होता है जो प्रेमचंद की कहानियों की वास्तविक जमीन पर होते हुए भी उनसे बहुत भिन्न है। रेणु अपनी कहानियों में मानवीय जीवन से जुड़े प्रत्येक पहलुओं को एक साथ लेकर चलते हैं। रेणु की कहानियों की इस विशिष्टता को स्पष्ट करते हुए भारत यायावर लिखते हैं कि "रेणु हिंदी के पहले कथाकार हैं जो 'प्राणों में घुले हुए रंग' और 'मन के रंग' को यानी मनुष्य के राग-विराग और प्रेम को, दुख और करुणा को, हास-उल्लास और पीड़ा को अपनी कहानियों में एक साथ लेकर 'आत्मा के शिल्पी' के रूप में उपस्थित होते हैं। साथ ही वे मनुष्य का चित्रण एक ठोस जमीन पर, एक काल विशेष में करते हैं। पर स्थानीकता या भौगोलिक परिवेश और इतिहास की एक कालावधि में साँस लेते हुए पात्र सार्वदेशिक और समकालीन जीवन के मर्म को उद्घाटित करते हैं। कहा भी गया है कि रेणु का महत्व आँचलिक ता में नहीं, अपितु उसके अतिक्रमण में है।"[2]
फणीश्वरनाथ रेणु को आँचलिक कहानीकार की संज्ञा देकर अधिकांश आलोचकों ने प्राय: उनके जनवादी दृष्टिकोण की उपेक्षा की है। व्यापक रूप में भले ही जनवाद को देश और काल के संदर्भ में अलग-अलग रूप में देखा जा सकता है, किंतु वास्तव में जनवाद की अवधारणा हर देश में पूंजीवाद के उदय के साथ अस्तित्व में आई। भारत में 1857 का विद्रोह, तत्कालीन सामंतो एवं असंतुष्ट देशी राजाओं का ही विद्रोह था, लेकिन उसमें जनवादी चेतना भी विद्यमान थी। क्योंकि यह विद्रोह साम्राज्यवाद और पूंजीवाद के विरुद्ध था। हिंदी साहित्य में भी प्रगतिवादी दौर के बहुत पहले से लेखकों में एक राष्ट्रीय जनवादी चेतना मौजूद थी। भले ही वे लेखक मार्क्सवादी नहीं थे किन्तु उनमें मानवीय मूल्यों के लिए गहरी आस्था थी तथा समाज की प्रगतिशील शक्तियों एवं मानवता के प्रति पूरी सहानुभूति भी। जिस शोषित और पीड़ित वर्ग की पक्षधरता के लिए हम किसी व्यक्ति या किसी रचना को जनवादी मानते हैं रेणु की कहानियों में वह शोषित और पीड़ित जनसामान्य वर्ग बहुत पहले से विद्यमान था। रेणु की कहानियों के अधिकांश पात्र उस वर्ग से आते हैं, जो श्रमजीवी है तथा निरंतर श्रम करने के बावजूद भी भूखे पेट रहना उनकी नियति है, क्योंकि वह अपने श्रम का वास्तविक मूल्य प्राप्त नहीं कर पाते तथा अभावों से जूझते रहना ही उनका जीवन बन जाता है।
फणीश्वरनाथ रेणु के लेखन में उनके सामाजिक एवं राजनीतिक जीवन का महत्त्वपूर्ण योग देखने को मिलता है। वे सामाजिक और राजनीतिक रूप से बेहद सक्रिय व्यक्ति थे। वे आम जनता के जीवन से, और उनमें भी मुख्य रूप से ग्रामीण समाज के जीवन से बहुत गहरे अर्थों में जुड़े हुए थे। यही कारण है कि वे अपनी कहानियों में आम व्यक्ति के जीवन की सच्चाई को पूरी तटस्थता के साथ अंकित करने में सफल रहे हैं और ग्रामीण भारतीय के इस यथार्थ को इतनी बारीकी से उकेरने के कारण इनकी रचनाएँ एक बड़े पाठक वर्ग के बीच अपनी जगह बनाने में कामयाब रही हैं क्योंकि रेणु की कहानियों में मौजूद भारतीय समाज का जो मूल्यबोध है वो कभी पुराना नहीं पड़ेगा, उनकी छोटी-छोटी कहानियाँ भी पाठकों को विवश करने और विचारों के प्रवाह में डूबने पर मजबूर कर देती हैं। जिस तरह प्रेमचंद की कहानियों में हमें आम जनता को लेकर गहरी संवेदना दिखाई पड़ती है, वैसी ही गहन-संवेदना हमें रेणु की कहानियों में भी देखने को मिलती है। रेणु ने अपनी कहानियों में शोषित और आम-जन की आशाओं-आकांक्षाओं, दुख-दर्द और जीवन की छोटी-छोटी घटनाओं को बड़े ही आत्मीय ढंग से चित्रित किया है। 'रसप्रिया' कहानी का मृदंगिया और मोहन, 'ठेस' कहानी का सिरचन, 'संवदिया' का हरगोविंद और 'तीसरी कसम' का हीरामन, गाँव में रहने वाले सामान्य जन समुदाय का प्रतिनिधित्व करने वाले ऐसे पात्र हैं जिनके माध्यम से रेणु ने अपनी कहानियों में ग्रामीण समाज की स्थितियों-परिस्थितियों को खोलकर रख दिया है। इन पात्रों को गढ़ने का उद्देश्य लोकजीवन में व्याप्त जनवादी मूल्यों और परंपरा का वहन करते हुए लोगों में चेतना विकसित करना भी रहा है।
रेणु अपनी कहानियों में सामाजिक यथार्थ का वास्तविक रूप प्रदर्शित करते हैं। वे समाज में व्याप्त विसंगतियों और विडंबनाओं पर व्यंग करने से कभी पीछे नहीं हटते। जब मृदंगिया परमानपुर के एक ब्राह्मण लड़के को प्यार से बेटा कह देता है, तो सारे गाँव के लड़के उसे पीटने को आमादा हो जाते हैं, उसकी मृदंग फोड़ देते हैं, क्योंकि छोटी जाति का होकर उसने बड़ी जाति के लड़के को बेटा कह दिया है।[3] यह सामाजिक विषमता रेणु की कहानियों में इतनी सहजता से वर्णित होने पर भी पाठक के हृदय को झकझोर देती है। पाठक सोचने पर मजबूर हो जाता है, इन परिस्थितियों को बदलने के लिए विचलित हो जाता है।
ग्लोबल के बरकस लोकल की अवधारणा सन 1990 के बाद अपनी जगह बनाती हुई दिखाई पड़ती है। जब ग्लोबलाइजेशन का शिकंजा पूरी दुनिया को कसने लगता है तब उस से टकराने के लिए, उसका मुकाबला करने के लिए एक ही सहारा बचता है, वह है लोकल। लोकल ही वह अवलंब है जिससे ग्लोबलाइजेशन के इस शिकंजे को तोड़ा जा सकता है। इस बात को रेणु ने पहचाना। उनकी कहानियों में यह लोकल भीतर तक उपस्थित है। ग्लोबलाइजेशन एकरूपता की बात करता है और एकरूपता विविधता को निगलकर बनती है। रेणु की कहानियों में विविधता दिखाई पड़ती है, वहाँ अलग रूप है, अलग रंग है, जीवन वहाँ पूरी विविधता में उपस्थित है और यही विविधता हमें लोकतंत्र की तरफ लेकर जाती है। इसके विपरीत एकरूपता हमें फासिज़्म की तरफ ले जाती है। हिंदुस्तान विविधताओं का देश है और यह विविधता भीतरी रूप से कहीं ना कहीं एकसूत्र से जुड़ी हुई है। आधुनिक समय लोक को स्वीकार नहीं करता, क्योंकि वह विकास का एक ऐसा स्वरूप हमारे सामने प्रस्तुत करता है जहाँ लोक है ही नहीं, किंतु रेणु ऐसे समय में भी लोक को लेकर आते हैं तथा हमें लोक से जोड़ते हैं। फ्रेडरिक जेम्सन के अनुसार 'विकास में प्रकृति पर वर्चस्व के लिए प्रकृति को कुचल दिया है।' शहरीकरण के नाम पर ग्रामीण संस्कृति को नष्ट किया गया है और लगातार किया जा रहा है। इस सबके साथ जब हम रेणु के साहित्य को देखते हैं, तो उस संस्कृति के निकट जाने का अवसर पाते हैं। रेणु का साहित्य हमें मनुष्यता को पहचानने का सामर्थ्य देता है। यही कारण है कि हम रेणु से जुड़ पाते हैं। नेमीचंद्र जैन के अनुसार रेणु की अपने परिवेश के प्रति अपूर्व आत्मीयता है।[4]
रेणु जीवित मानवीय संबंधों के कथाकार के रूप में हमारे सामने उपस्थित होते हैं। वे अमानवीय समाज को मानवीय बनाने के लिए निरंतर प्रयासरत रहे और इस प्रयास को सफल करने के लिए उन्होंने अपने साहित्य में लोक-जीवन में बसी लोक-संस्कृति का चुनाव किया। विडंबना यह है कि सामंती परिवेश में लोक संस्कृति को भी बाजार में लाकर खड़ा कर दिया गया है। 'ठेस' कहानी में गाँव के इसी सामंती परिवेश में जीने को मजबूर एक कलाकार सिरचन के दुखी-मन, उसके निरंतर होते शोषण का वर्णन किया गया है। जहाँ उस कलाकार के काम को बेकार व बेमतलब समझा जाता है और इसी कारण उस कलाकार को बार-बार अपमान का सामना भी करना पड़ता है। "खेती-बारी के समय, गाँव के किसान सिरचन की गिनती नहीं करते। लोग उसको बेकार ही नहीं, 'बेगार' समझते हैं।"[5] रेणु ने इस तरह की कहानियों के माध्यम से गाँव में बसने वाले इन कलाकारों की गरीबी, मजबूरी और मासूमियत का फायदा उठाने वाले, इनका शोषण करने वाले, शोषक-वर्ग की सच्चाई को उजागर किया है।
रेणु समाज-व्यवस्था में मानवीयता के पक्षधर है। समाज में लगातार होते मानवीयता के दमन को वास्तविक रूप में सामने लाकर वे समाज-विरोधी शक्तियों पर कटाक्ष करते हैं। रेणु एक ऐसे समाज का गठन करने के लिए प्रयासरत रहे जिसमें मानवीयता की रक्षा हो सके तथा जनता के जीवन की वास्तविकता को ध्यान में रखकर उनकी आकांक्षाओं के अनुरूप समाज-व्यवस्था का निर्धारण किया जाए। रेणु की कहानियों को पढ़कर ऐसा महसूस होता है कि हम एक ऐसी दुनिया में जी रहे हैं जहाँ मनुष्य-विरोधी समाज-व्यवस्था है और उस व्यवस्था को निरंतर बनाए रखने के लिए शोषक-वर्ग समस्त प्रकार के छल करके ऐसा ताना-बाना बुनता है जिससे समाज अधिकाधिक अमानवीय होता जाता है। पाठक एक ऐसी दुनिया को देख पाता है जहाँ निरंतर मानवीय संवेदनाओं का दमन हो रहा है, मानवीय संबंध निरर्थक होते जा रहे हैं तथा सामाजिक-चेतना खत्म होती जा रही है। वास्तविकता की इस तस्वीर को स्पष्ट करने के साथ-साथ ही रेणु अपनी कहानियों को इंसान और इंसानियत की तलाश का माध्यम भी बनाते हैं तथा इसमें उन्हें सफलता भी प्राप्त हुई है। रेणु भले ही क्रांतिकारी कथाकार न रहे हों, किंतु उन्होंने अपने साहित्य के माध्यम से सामाजिक परिवर्तन और विकास की प्रक्रिया में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी है। इनकी कहानियाँ मानवता की पहचान कराती हैं, उसमें आस्था जगाती हैं और मानव-विरोधी व्यवस्था के विरुद्ध खड़े होने के लिए प्रोत्साहित भी करती हैं। ठुमरी की भूमिका में रेणु ने स्वयं लिखा है कि "एकाधिक कथाओं में, एक ही विशेष मुहूर्त को विभिन्न परिवेश में रखकर रूपायित किया गया है।"[6] इसी विषय में मैनेजर पांडे लिखते हैं कि "इस संग्रह की सभी कहानियों का मूल स्वर मानवीयता की तलाश है। विभिन्न कहानियों में जीवन के अलग-अलग संदर्भों, संबंधों, अनुभवों और भावों में मानवीयता की अभिव्यक्ति को रूपायित किया गया है। ठुमरी में मूल स्वर के साथ सहायक स्वर भी होते हैं। इन ठुमरी-धर्मा कहानियों के कथागायक ने मूल स्वर के साथ सहायक स्वरों को भी साधा है। मानवीयता की तलाश की प्रक्रिया में अमानवीय स्थितियों को भी उजागर किया है: तभी मानवीयता की तलाश संदर्भ और पूर्णता के साथ व्यक्त हुई है।"[7]
रेणु की कहानियों में
सामाजिक परिवेश के यथार्थ का वर्णन करते हुए जाति-प्रथा तथा अंधविश्वास जैसी समस्त
कुरीतियों को भी उजागर किया गया है। 'रसप्रिया' कहानी इसका एक सशक्त उदाहरण है
जिनमें गाँव की भयंकर गरीबी, सामाजिक व्यथा और पीड़ा को व्यक्त किया गया है। जहाँ
समाज द्वारा उपेक्षित होते पात्र हैं जो लगातार अपमान सहते हुए, गाँव में रहकर
उपेक्षा की नजर से देखे जाते हुए भी, जीवन जीने को विवश है।
उनका दोष सिर्फ उनकी जाति है, उनका एक निम्न-जातीय परिवार में जन्म लेना उनका दोष
बन जाता है। समाज में व्याप्त इस जाति-भेद से आज भी भारतीय समाज को मुक्ति नहीं
मिल पाई है, आज भी न सिर्फ गाँवों में, बल्कि शहरों में भी जाति के आधार पर भेदभाव
आसानी से देखा जा सकता है। दूसरी तरफ इस कहानी में गाँव के जीवन की असुविधाओं का
वर्णन भी किया गया है, जहाँ गाँव के लोग तकनीकी सुविधाओं से बहुत दूर नजर आते हैं,
बड़ी से बड़ी बीमारियों का इलाज वे घरेलू
चीजों के माध्यम से ही करते हैं। इसके साथ ही साथ इस कहानी के माध्यम से ग्रामीण
समाज में विद्यमान अंधविश्वासी प्रवृति को भी समझा जा सकता है जहाँ किसी सामान्य
बीमारी को भी डायन का प्रकोप समझा जाता है। इस अंधविश्वास का कारण अशिक्षा और मूलभूत-सुविधाओं
का भी प्राप्त न होना है।
समाज में व्याप्त अनैतिकता का वर्णन भी इनकी कहानियों में विस्तारपूर्वक किया गया है। शहरी तथा ग्रामीण समाज में निरंतर नैतिक मूल्यों का विघटन होता रहा है। समाज में व्यवस्था और संतुलन बनाए रखने के लिए तथा मनुष्य के व्यवहार और आचरण को नियंत्रित करने के लिए रेणु नैतिक प्रतिमानों के पक्ष में खड़े नजर आते हैं। रेणु ने अपने साहित्य में नैतिक मूल्यों के इस विघटन के प्रत्येक आयाम को सफलतापूर्वक चित्रित किया है। 'अच्छे आदमी' कहानी में रेणु ने तथाकथित अच्छे आदमियों की अनैतिकताओं को उजागर किया है। ठेकेदार, मिस्त्री, लाल गाड़ी का ड्राइवर, लाला के बेटे आदि सभी का अच्छापन रेणु ने इस कहानी में बेनकाब किया है। इस कहानी के माध्यम से रेणु ने मुख्य रूप से समाज में नारी की दयनीय स्थिति को भी उजागर करने की कोशिश की है जहाँ स्त्री को मात्र भोग्या समझा जाता है, तथा उसके स्वतंत्र अस्तित्व की न तो कोई कल्पना की जाती है और न ही स्वयं स्त्री को इस विषय में सोचने के अधिकार व अवसर प्रदान किए जाते हैं। रेणु जीवन के उस यथार्थ का चित्रण करते है जहाँ स्त्री इस्तेमाल करने की वस्तु तो है किंतु उसके अस्तित्व को स्वीकार करना इन अच्छे आदमियों के बस की बात नहीं है। "लाल गाड़ी का ड्राइवर ऐसी जगह पर गाड़ी लगाता है जहाँ से प्रदीपकुमार की माय की आँखे, तिरछी निगाह से देखने पर टकरा जाती हैं।"[8] इसका एक और उदाहरण रेणु की कहानी 'अग्निखोर' में भी देखने को मिलता है जब सूर्यनाथ अपनी पत्नी की अनुपस्थिति में आभा का इस्तेमाल करता है तथा आभा के गर्भवती हो जाने पर उसके चरित्र का ठेकेदार बन उसे यह कहकर चरित्रहीन तथा अपने दामन को बेदाग साबित कर देता है। कि "मैंने एम्बुलेंस के ड्राइवर के साथ कई बार सिनेमा हॉल में देखा है..."[9]
रेणु की कहानियाँ जिन्हें बहुधा प्रेम की कहानियाँ कहा जाता है, दरअसल वे जटिल संबंधों की कहानियाँ है। वह अपने भीतर अनेकार्थ छिपाए रहती हैं जिन्हें पढ़ते हुए पाठक परत-दर-परत खोलता है और उनसे जुड़ता जाता है। वहाँ प्रेम है तो जाति की समस्या भी है, समाज है तो वर्ग भी है। 'रसप्रिया' कहानी में प्रेम के साथ-साथ कलाकार का संघर्ष तो है ही, साथ ही साथ जाति की समस्या भी उद्घाटित होती है। जाति यहाँ प्रेम से बड़ी है इसलिए मृदंगिया अपनी जाति छिपाकर जीता है। समाज में व्याप्त अलिखित आचार संहिताएँ और अदृश्य खाप पंचायतें उसे ऐसा करने पर मजबूर करती हैं।[10] 'पंचलाइट' कहानी में भी सामाजिक राजनीति दिखाई पड़ती है। इस कहानी में खाप पंचायतें दृश्य में उपस्थित हैं, उनकी भ्रष्ट नियतें रेणु के सामने प्रत्यक्ष है तथा रेणु भी उन्हें अपने पाठक के समक्ष रखने से नहीं चूकते। "पंचों की निगाह पर गोधन बहुत दिन से चढ़ा हुआ था। दूसरे गाँव से आकर बसा है गोधन, और अब तक टोले के पंचों को पान-सुपारी खाने के लिए भी कुछ नही दिया। परवाह ही नही करता है। बस, पंचों को मौका मिला। दस रुपया जुरमान। न देने से हुक्का-पानी बंद। आज तक गोधन पंचायत से बाहर है।"[11]
रेणु ने अपनी कहानियों में स्त्री पात्रों को बड़े मन से रचा है, यही कारण है कि उनके स्त्री पात्र बहुत सबल है। 'तीसरी कसम' कहानी के माध्यम से रेणु एक ऐसी स्त्री को प्रतिष्ठित करते हैं जिसे समाज स्थान नहीं देता, समाज को चुनौती देते हुए रेणु मात्र इस स्त्री को प्रतिष्ठित ही नही करते बल्कि हीराबाई के लिए सियासुकुमारी जैसे शब्द का प्रयोग भी करते हैं। "चेहरा-मोहरा और बोली-बानी देख-सुनकर पलटदास का कलेजा काँपने लगा; न जाने क्यों। हाँ! रामलीला में सिया सुकुमारी इसी तरह थकी लेटी हुई थी। जै! सियावर रामचन्द्र की जै!... पलटदास के मन में जै-जैकार होने लगा। वह दास-वैस्नव है, कीर्तनिया है।"[12] इससे उनका मंतव्य स्पष्ट होता है, उनकी पक्षधरता स्पष्ट होती है कि वे किसके साथ खड़े हैं। यही कारण है कि रेणु अपने विचारों से प्रगतिशील और उदात्त दिखाई पड़ते हैं।
निष्कर्ष : अतः हम देखते हैं कि फणीश्वरनाथ रेणु हिंदी साहित्य के ऐसे कथा-शिल्पी हैं जिन्होंने अपनी कहानियों में ग्रामीण-समाज के यथार्थ को उद्घाटित किया है। इनकी कहानियों में उनके गहरे जन-सरोकार और उनके संवेदनात्मक आयतन का विस्तार दिखलाई पड़ता है। नयी कहानी का दौर जहाँ मध्यवर्ग पर केंद्रित है और मध्यवर्ग के नाम पर एक सीमित दायरे को चुनता है, वहाँ रेणु गाँव को लेकर आते हैं। वे भले ही अपनी कहानियों के लिए एक बहुत छोटा लोकेल चुनते हैं किंतु उसके फलक को इतना विस्तृत कर देते हैं कि प्रत्येक पाठक न केवल उससे जुड़ जाता है बल्कि गहराई से उसे महसूस भी कर पाता है। रेणु अपनी कहानियों में जिन सवालों को उठाते हैं, वे केवल किसी क्षेत्र विशेष तक सीमित न रहकर समूचे भारत के सवाल बन जाते हैं प्रत्येक व्यक्ति, समाज, जाति उससे अपना संबंध स्थापित कर पाती है। शहरीकरण और विकास की बलि चढ़ती हुई ग्रामीण संस्कृति और लोक के निकट जाकर मनुष्यता को पहचानने का सामर्थ्य रेणु का साहित्य हमें देता है। उनकी कहानियों की विशेषता है कि वह एकात्मकता के स्थान पर सामूहिकता का चयन करती हैं। उनकी कहानियों में समाज में व्याप्त अनेक विसंगतियों से एक साथ पर्दा उठता दिखाई पड़ता है। उनकी कहानियों में नयी संवेदना का नयापन है, प्रकृति परिवेश है और मनुष्य का समूचापन है, जिसमें नए बन रहे भारत से जुड़े नए प्रश्न भी हैं जिन्हें रेणु के पात्र बड़ी कुशलता से सामने लाते हैं। उनके पात्र जिजीविषा से लबरेज जीवंत पात्र हैं। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा है कि “जीवनी शक्ति ही जीवन शक्ति को प्रेरणा देती है”[13] रेणु के पात्र इस जीवनी शक्ति से भरे हुए हैं जो सारे संघर्षों से निकलकर, समस्त कठिनाइयों को पार करके जीवन शक्ति की तरफ बढ़ते दिखाई पड़ते हैं। विडंबना ही कही जा सकती है कि इतने पर भी नयी कहानी के पूरे दौर में रेणु को वह स्थान नहीं मिला जिसके वे हक़दार थे। नामवर सिंह जैसे गंभीर आलोचकों ने भी रेणु को बिसरा दिया। किंतु इसका कोई असर रेणु की रचनाओं पर नहीं पड़ता। रेणु अपने पाठकों के हृदय में अपना साम्राज्य स्थापित करते हैं और लोकप्रियता के शिखर तक पहुँचते हैं और दुनिया भर का ध्यान आकृष्ट करते हैं। रॉल्फ फॉक्स का कथन है कि “साहित्य में जीवन के विषय में लेखक की राय की दरकार नहीं, वहाँ जीवन की तस्वीर चाहिए”[14] रेणु की कहानियों में जीवन आता है। रेणु गाँव की मिट्टी से हिंदुस्तान की तस्वीर बना देते हैं।
संदर्भ :
[1]
परिषद पत्रिका, फणीश्वरनाथ रेणु विशेषांक, जुलाई-दिसंबर, 2001, अंक 2-3, पृ. 22
[2]
भारत यायावर, फणीश्वरनाथ रेणु अर्थात मृदंगिये का मर्म, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण 1991, पृ. 133
[3]
सं. भारत यायावर, फणीश्वरनाथ रेणु : चुनी हुई रचनाएँ-1, ‘रसप्रिया’ कहानी, वाणी
प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण 1990, पृ. 67
[4]
नेमीचंद्र जैन, अधूरे
साक्षात्कार, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, संस्करण 2007, पृ. 35
[5]
फणीश्वरनाथ रेणु, ठुमरी, ‘ठेस’ कहानी, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण 1959, पृ. 54
[6]
फणीश्वरनाथ रेणु, ठुमरी, भूमिका, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण 1959, पृ. 6
[7]
मैनेजर
पांडे, अनभै साँचा, मानवीयता की तलाश का
कलात्मक प्रयास, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2012, पृ. 174
[8]
सं. भारत यायावर, फणीश्वरनाथ रेणु : चुनी हुई रचनाएँ-1, ‘अच्छे आदमी’ कहानी, वाणी
प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण 1990, पृ. 182
[9]
सं. भारत यायावर, फणीश्वरनाथ रेणु : चुनी हुई रचनाएँ-1, ‘अग्निखोर’ कहानी, वाणी
प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण 1990, पृ. 365
[10]
सं. भारत यायावर, फणीश्वरनाथ रेणु : चुनी हुई रचनाएँ-1, ‘रसप्रिया’ कहानी, वाणी
प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण 1990, पृ. 67-78
[11]
फणीश्वरनाथ रेणु, प्रतिनिधि कहानियाँ, 'पंचलाइट' कहानी, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण 1994, पृ. 42
[12]
सं. भारत यायावर, फणीश्वरनाथ रेणु : चुनी हुई रचनाएँ-1, ‘तीसरी कसम उर्फ मारे गए
गुलफाम’ कहानी, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण 1990, पृ.
96
[13]
हजारीप्रसाद द्विवेदी, चुने हुए निबंध, कुटज निबंध, किताबघर प्रकाशन, दिल्ली 2006 पृ. 20
[14]
सं. राजेश्वर सक्सेना, प्रताप ठाकुर, भीष्म साहनी : व्यक्ति और रचना, वाणी प्रकाशन 1982, पृ. 115
सम्पादन सहयोग : प्रवीण कुमार जोशी, मोहम्मद हुसैन डायर, मैना शर्मा और अभिनव सरोवा चित्रांकन : मीनाक्षी झा बनर्जी(पटना)
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