हिंदी उपन्यासों में अभिव्यक्त कश्मीर की ‘सांझी
संस्कृति’
- सोनू कुमार भारती
शोध-सार : देवी पार्वती और हिमालय के गोद में बैठा पृथ्वी का यह सुन्दरतम प्रदेश आज इक्कीसवीं सदी के इस भूमण्डलीकृत समय में रक्तरंजित रणक्षेत्र में परिवर्तित हो चुका है। देश को आजादी मिलने तक जिस प्रदेश ने अपनी सामाजिक समरसता और संगठन का अद्भुत परिचय दिया था। उसी कश्मीर में सन् 1980 ई. के बाद सामाजिक व्यवस्था लड़खड़ाने लगी। कुछ अवसरवादी और अलगाववादियों ने धर्म और संप्रदाय के नाम पर यहाँ की सांस्कृतिक विरासत को तोड़ने का प्रयास किया और उसमें सफल भी हुए। जिससे दोनों संप्रदाय के लोगों में एक-दूसरे के प्रति अविश्वास उत्पन्न हो गया और सामाजिक एकता में दरारें पड़ने लगी। कश्मीर में जगह-जगह सांप्रदायिक दंगे होने लगे। जिसका परिणाम दूरगामी हुआ और कश्मीर के सीने में आज भी वह घाव बनकर रिसता रहता है।
रचनाकारों एवं
लेखकों ने वर्तमान परिदृश्य में कश्मीर के दोनों सम्प्रदायों ( हिन्दू-मुस्लिम) के
बीच पड़ी दरारों की अनदेखी न करते हुए,आपसी सौहार्द और सदभाव को वर्तमान समस्या के
समाधान के रूप में देखा है।जिसमें बदलते सामाजिक परिवेशकी करुण अनुभूति को देखा जा
सकता है,परंतु एक उम्मीद भरी दृष्टि से सदियों से चली आ रही सांझी संस्कृति को
अपने उपन्यासों में उदारवादी पात्रों, लोकविश्वास और परम्पराओं के माध्यम सेजिंदा
रखने का प्रयास किया है। इस आलेख में उन्हीं महिला उपन्यासकारों को सम्मिलित किया
गया है जो मूल रूप से कश्मीर से संबंधित हैं।
बीज शब्द : सांझी संस्कृति, कश्मीर, कश्मीरियत, हिन्दू, मुस्लिम, बौद्ध,
शैव।
मूल आलेख : कश्यप ऋषि के
आश्रम पर बसा कश्मीर अपने भौगोलिक सौन्दर्य के लिए समस्त विश्व में प्रसिद्ध है।
कश्मीर की सुन्दर वादियाँ किसी भी सहृदयी मनुष्य के मन को मोहने की क्षमता रखती
हैं जिसके कारण इसे धरती का स्वर्ग कहा जाता है। कश्मीर के सन्दर्भ में कहा जाता
है ‘गर फिरदौस बर रुये ज़मी अस्त/हमी अस्तो, हमी अस्तो,हमी अस्त अर्थात्
धरती पर कहीं स्वर्ग है तो यहीं है, यहीं है, यहीं है। लेकिन भौगोलिक सौन्दर्य के
इतर कश्मीर का अपना एक स्वर्णिम सामाजिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक इतिहास भी रहा
है। ऋषि कश्यप की यह धरती विद्या की उत्कृष्ट केंद्र रही है । इसकी प्राचीन विद्या
परम्परा, संस्कृत की ज्ञान परम्परा का सर्वोच्च उदहारण प्रस्तुत करता है।
प्राचीनकाल से लेकर मध्यकाल तक विभिन्न विषयों के अग्रणी विद्वानों- पंचतंत्र के
रचयिता विष्णुशर्मा, नागसेन, वाग्भट, भामह, मम्मट, कैय्यट, अभिनवगुप्त, आनंदवर्धन,
क्षेमेंद्र, कल्हण, जल्हण,
शारंगदेव इत्यादि की एक लम्बी सूची है। जिन्होंने भारतीय संस्कृति को निरंतर
समृद्ध किया है। आज भी हमारा समाज और साहित्य इनकी दी हुई रोशनी में अपने लक्ष्य
की ओर बढ़ रहा है।
इसी साहित्यिक
परम्परा के बरक्स लोक संस्कृति में ललद्यद (लल्लेश्वरी) आती है, जिन्होंने कश्मीरी संस्कृति में मानवतावाद का सूत्रपात
किया। ललद्यद को वाचिक इतिहास के अन्तर्गत लोक जीवन में बड़ी बहन का स्थान दिया गया
है। लल्लेश्वरी के वाख आज भी कश्मीर के ग्रामीण इलाकों में लोगों को कंठस्त हैं।
ललद्यद के ही शिष्य परम्परा में आगे चलकर नुन्द ऋषि (नंद) हुए। जहाँ एक ओर
लल्लेश्वरी ने हिन्दू समाज में सदियों से व्याप्त उन रीतियों और जड़ परम्पराओं पर
प्रहार किया जो अप्रासंगिक हो चुके थे तो दूसरी ओर उनके मुसलमान शिष्य नंद ऋषि ने
जनसाधारण की भाषा में अपने समाज को मुल्ला-मौलवियों के प्रभावों से सजग करते हुए
वास्तविक अध्यात्म की ओर ले जाने का प्रयास किया। इन दोनों ने धर्म, जाति, मजहब, मत-मतान्तर से दूर रह कर मनुष्य और मानवता
को सर्वोपरी माना। कश्मीरी समाज पर इनका बहुत गहरा प्रभाव पड़ा और इससे एक ऐसी
संस्कृति का निर्माण हुआ जिसे ‘कश्मीरियत’ कहा गया। इसी कश्मीरियत को कालांतर में
कश्मीर की ‘सांझी संस्कृति’ कहा जाने लगा।
कश्मीर की
सांस्कृतिक विरासत के संदर्भ में भारतेश कुमार मिश्र लिखते हैं- “कश्मीर घाटी अपनी
प्राकृतिक सुंदरता की तरह ही अपनी सांस्कृतिक विरासत के लिए प्रसिद्ध है। हमारे
प्राचीन ग्रंथों में भी कश्मीर को स्वर्ग की उपमा दी गई है। कश्मीर इतिहास,
साहित्य, संस्कृति, सभ्यता, भाषा, दर्शन आदि की दृष्टि से अत्यन्त समृद्ध रहा है।
सदियों से इसने विभिन्न सभ्यताओं और धर्मों को अपनाया तथा आत्मसात किया। हिन्दू,
मुस्लिम और बौद्ध धर्म के समामिलन से यहां मानवतावाद, धर्मनिरपेक्षता तथा सहिष्णुता
की एक मिली- जुली संस्कृति का विकास हुआ ।”1
इसी मिली-जुली
संस्कृति या सांझी संस्कृति की अभिव्यक्ति चन्द्रकान्ता, संजना कौल, क्षमा कौल,
मीरा कान्त के कश्मीर केन्द्रित उपन्यासों में हुई है जो कश्मीरियत को अपने सीने
में दबाये उसकी ऊष्मा और खुशबू से हम सबको अवगत करवाती हैं। सांझी संस्कृति को
कश्मीर के परिप्रेक्ष्य में देखें तो वहाँ की सांस्कृतिक विरासत अद्वितीय है। यहां
की सांझी संस्कृति में शैव, बौद्ध और इस्लाम तीनों धर्मों की संस्कृतियाँ मिलकर
एकाकार हो गई।
चन्द्रकान्ता
अपने उपन्यास ‘ऐलान गली ज़िन्दा है’ में लिखती हैं- “फागुन में शिवरात्रि के मौके
पर थोड़ा सा फर्क आ जाता..... फिर भी ‘शिवरात्रि’ पंद्रह दिन धूम-धड़ाके से
मनती।.... एक तो शिवरात्रि’ उस पर सलाम के दिन ईद। दोनों उत्सवों पर मेल-मिलाप और
मुबारकबाद देने की प्रथा को बरकरार रखना जरुरी था।”2 यही मुबारकबाद
देने की जरुरी प्रथा, आधार बनी उस कश्मीरियत की जिसके छाँव तले दोनों समुदाय के
लोग सदियों तक एकता के सूत्र में बंधे रहे और सामाजिक सौहार्द को बनाये रखा।
हिन्दू, सिक्ख, बौद्ध या फिर मुसलमान किसी भी धर्म के लोगों का त्यौहार क्यों न हो
उसमें सभी शामिल होते और एक दूसरे से प्रेम से मिलते तथा बधाइयाँ दी जाती। सभी एक
दूसरे के दुःख-सुख में शामिल होते।
कश्मीर में
ऋषि और सूफियों की सांझी परम्परा रही है। इन्हीं के साथ शैव और बौद्ध दर्शन का
प्रभाव भी यहाँ के जनमानस पर पड़ा। सभी धर्मों के लोग सह-अस्तित्व की भावना के साथ
रहते चले आये थे। कश्मीरियों ने अपने-अपने धर्म का सम्मान करते हुए भी कभी धार्मिक
कट्टरता को अपने मध्य आने नहीं दिया। इसी सामाजिक सौहार्द को चन्द्रकान्ता अपने
उपन्यास ‘कथा सतीसर’ में व्यक्त करते हुए लिखती हैं-“छोटा आदमी हो या बड़ा ‘सलाम’
के दीन बधाई देने वालों के हाथों में अपनी हैसियत के अनुसार दान दक्षिणा जरुर देगा।
सलाम तो देने का दिन है। पूरा दिन बधाई देने वालों का ताता लगा। दोस्त, नातेदार, हिन्दू, मुसलमान, सिक्ख, जो भी दोस्तों
में शामिल थे, आते रहे।”3
कितने ही बुरे
दौर आये चाहे सिकंदर बुतशिकन के द्वारा हिन्दुओं और उनके धर्म को नष्ट करना हो या
अफगानों की बर्बरता का युग। लेकिन जैनुल आबदीन (बड़शाह) तो कभी तेगबहादुर और महाराजा
रणजीत सिंह जैसे धर्म के रक्षकों ने यहां की आवाम की रक्षा की और वहाँ की संस्कृति को
बचाए रखने का प्रयास किया। तभी तो वहाँ के लोग अलग-अलग धर्म के होते हुए भी मैत्री
भाव और समन्वय की लोक संस्कृति में रचे-बसे जीते रहे । यही उनकी कश्मीरियत है जिस
पर पूरा कश्मीर गर्व करता है- “ताता ने गर्व से जोड़ दिया कि शिवरात्रि ठेठ हिन्दू
पर्व होते हुए भी अपनी वादी में हिन्दू, मुसलमान और सिक्खों का मिला जुला महापर्व
बन गया है। कभी शायद यह मज़बूरी रही हो, पर डोगरा राज्य में भी हमने ‘सुन्नीपुतल’,
‘वागरबाह’ की पूजा बरकरार रखी, यह हमारी धार्मिक सहिष्णुता का प्रमाण है और यही
हमारी कश्मीरियत है|”4
देश को आजादी
मिलने से पहले तक शासन द्वारा जनता पर जो ज्यादतियां हुई, चाहे वह कोई भी काल-खण्ड
हो उसमें कश्मीरियों ने कभी सहयोग नहीं दिया। भारत विभाजन के समय देश के विभिन्न भागों
में जहाँ हिन्दू-मुस्लिम थे वहाँ सांप्रदायिक दंगों में दोनों धर्मो के लोग मारे
गए। उस प्रतिकूल समय में भी कश्मीर की जनता ने धार्मिक सहिष्णुता का परिचय दिया और
विकट परिस्थितियों में एक दूसरे का सहारा बने। कश्मीरी आवाम ने भारत वर्ष के सामने
कश्मीरियत की मिसाल पेश की जिसकी प्रशंसा करते हुए महात्मा गाँधी ने कहा था- “जब
हिन्दुस्तान में चारों तरफ अँधेरा छाया हुआ है। तब सिर्फ कश्मीर ही अकेली उम्मीद
बची है।”5 गांधी ने सच ही कहा
था क्योंकि उस संकटपूर्ण समय में देश के अन्य भागों में दोनों समुदायों (हिन्दू
-मुसलमान) के बीच अविश्वास उत्पन्न हो चुका था और दोनों धर्मों के लोग एक-दूसरे को
अपना दुश्मन समझने लगे थे। परन्तु कश्मीर में दोनों कौम के लोग शांति के साथ रहते
चले आये। इन्होंने कबाइली हमले के वक्त भी आपसदारी निभाई।
यह वही भूमि है जहाँ से जिन्ना को उलटे पाँव लौटना पड़ा था । जब उन्होंने मुसलमानों को खुदा का वास्ता देकर एक कलमा और एक झंडे के नीचे आने की बात की । इसके पीछे वही कश्मीरियत थी जो यहां के जन-जीवन में दिखाई पड़ती है। हिन्दू, शैव, बौद्ध और मुस्लिम धर्मों की तहजीब को निभाने वाली इस संस्कृति और समाज ने सियासत और बर्बर ताकतों का जितना दंश सहा है, उतना शायद ही कही देश के अन्य भागों में सहा गया होगा। यहाँ का समाज सबसे अधिक धर्मनिरपेक्ष समाज रहा है, इसका प्रमाण कश्मीर के सामाजिक संरचना में मौजूद है। कश्मीर के लोकविश्वास और यहां के व्रत, पर्व, त्यौहार, इनको मनाने के तौर-तरीके के साथ ही रहन-सहन, वेशभूषा में भी उस सांझी संस्कृति का परिचय मिलता है जिसे कश्मीरियत कहा जाता है। ‘ऐलान गली ज़िन्दा है’ उपन्यास में चन्द्रकान्ता लिखती हैं- “ब्राह्मण वर्ग ही नहीं अनवर मियाँ, मौलवी साहब, गुलाम नबी आदि भी सदियों से चले आते विश्वास में दरार बरदाश्त नहीं कर सकते थे। हिन्दू-मुसलमान दोनों की दृष्टि में जो एकरूपता थी, उसका कारण मास्टरजी वादी के इतिहास में खोजते हैं। वे कहते हैं, ‘चौदहवीं शदी से पहले तो वादी में हिन्दूधर्म, बौद्धधर्म व शैव मत प्रचलित थे । इस्लाम के आगमन पर हिन्दुओं का मत-परिवर्तन कर उन्हें मुसलमान बनाया गया । यों दोनों में कोई मूल भेद नहीं है, तभी तो खान-पान, रहन-सहन, लगभग एक जैसा है और कहीं-कहीं तो दोनों ईश्वराधना भी एक ही जगह करते हैं, शाहे-हमदान और काली देवी का मंदिर क्या एक ही जगह पर स्थित नहीं है?”6
कश्मीर में
सांझी संस्कृति को बनाये रखने में वहाँ के भौगोलिक और स्थापत्य कलाओं का भी
महत्वपूर्ण योगदान रहा है क्योंकि भौगोलिक परिस्थितियां भी संस्कृति के विकास में
अपनी भूमिका निभाती है। स्थापत्य कलाओं में मार्तण्ड मंदिर कश्मीरियत का परिचय
देता है तो हारी पर्वत भौगोलिक रूप से धार्मिक और सामाजिक सौहार्द का प्रतीक है,
जहाँ अलग-अलग धर्म समूह के लोग एकत्रित होते हैं, “झील डल से गुजरते हुए एक तरफ
हारी पर्वत दिखाई पड़ता, दूसरी तरफ शंकराचार्य पर्वत। यों तो अनवर मियाँ हारी पर्वत की मस्जिद में
नमाज के लिए कभी-कभी जाते थे महीप भी गुरूद्वारे में मत्था टेकने जाता। हारी पर्वत
पर मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा तीनों बने हैं......।”7
कश्मीर के
अनेक मुस्लिम परिवारों की वंशावली की हिन्दू पृष्ठभूमि है। अनेक परिवारों के आपस
में रिश्ते हैं, अंतर्धर्मीय शादियाँ भले अधिक न होती रही हों परन्तु पारिवारिक
उत्सवों, प्रतिभोजों, समारोहों एवं अन्य संस्कारों में दोनों समुदाय के लोग शामिल
होते रहे हैं। चन्द्रकान्ता अपने उपन्यास ‘कथा सतीसर’ में ‘दोदु मोज्य’ परम्परा का
उल्लेख करती हैं जिसमें मुसलमान स्त्रियाँ हिन्दू बच्चों को अपना दूध पिलाकर ‘दोदु मोज्य’ कहलाती थीं। यह परम्परा भारतवर्ष के अन्य भागों में
दृष्टिगोचर नहीं होती। यह परम्परा कश्मीर में
सामाजिक सद्भावना का अनमोल उदाहरण है। जहाँ दीन-धर्म आड़े नहीं आता मुस्लिम
स्त्रियाँ हिन्दू बच्चों की जीवन दायनी माँ बन जाती हैं। “सनातनधर्मी कौल भी सोचते
हैं कि कभी सुभान भट्ट और गुलाम मुहम्मद पंडित उनके ही हमजात रहे होंगे। सिकंदर
बुतशिकन और अफगान तुर्कों के जुल्मोसितम से धर्म बदलने पर मजबूर हो गए, पर थे तो
उन्हीं के भाई-बंद।”8
यह वही कश्मीर
है जहाँ संत लल्लेश्वरी और नुन्द ऋषि ने धर्म और जाति का भेद मिटाते हुए मानवता को
सर्वोपरी माना। लल्लेश्वरी हिन्दू-मुसलमानों के बीच बढ़ते खाई को देखते हुए उन्हें
शिव को जानने का संदेश देती हैं-
“शेव छुय
थलि-थलि रोज़ान
मो जान क्योन हयोंद
त मुसलमान,
त्रुखई छुख पननुई
जान परजान,
सोई छय सहिबस सत्य
असली जान...।”9
(शिव सबमें व्याप्त है। हिन्दू-मुसलमान में कोई
भेद न समझो। पहले अपने-आपको पहचानों, वही शिव के साथ असली पहचान होगी।)
यहां ऋषि- सूफियों की परम्पराओं के साथ शैवमत का भी अस्तित्व रहा, कश्मीरियों ने तीनों मतों को आत्मसात किया। लोगों ने किसी परम्परा को छोटा बताए बगैर तीनों को जिया किया। कश्मीरी मानस के निर्माण में इन संत और ऋषियों की अहम् भूमिका रही है। दोनों समुदाय के लोग एक-दूसरे की अहमियत को पहचानते थे। सदियों से एक-दूसरे की आदत बने, एक दूसरे पर निर्भर थे। चाहे जमींदार बल्जू हो या काश्तकार सुल्जू दोनों अपनी जगह ठीक थे और लिहाज और मोहब्बत के साथ रहते चले आये थे।
यों तो कश्मीर
में 1931 से ही सांप्रदायिक घटनाएँ घटने लगी थी, परन्तु कश्मीरी जनमानस पर इसका बहुत अधिक प्रभाव नही पड़ा था।
सांझी संस्कृति और परम्परा में पली बढ़ी कश्मीरी अवाम ने अपने आपको एकता के सूत्र
में बांधे रखा। परन्तु देश को स्वतंत्रता मिलने के बाद कश्मीर में परिस्थितियां
बिगड़ने लगी। जो कश्मीर गंगा-जमुनी संस्कृति का केंद्र रहा, जहाँ हिन्दू और
मुसलमान मैत्री भाव से रहते चले आये, उसी कश्मीर को 1980
आते-आते आतंकवादियों ने रक्तरंजित कर दिया और हिन्दू-मुसलमानों की सांझी विरासत
रही ‘कश्मीरियत’ चूर-चूर हो कर बिखरने लगी। जिस ‘सांझी संस्कृति’ पर कश्मीरियों
और भारतवर्ष को गर्व होता था उसी की छाती में मजहब के नाम पर सांप्रदायिकता और
आतंकवाद का का खंजर घोपकर उसे लहुलुहान कर दिया गया। जिसका भीषण परिणाम 19 जनवरी
1990 को लाखों कश्मीरी हिन्दुओं के
विस्थापन के रूप में हुआ। कश्मीर में जगह-जगह सांप्रदायिक घटनाओं को अंजाम दिया
जाने लगा। मीरा कांत अपने उपन्यास ‘कोई था कहीं नहीं-सा’में अम्बरनाथ के माध्यम से
इस तथ्य को उजागर करती हैं। वह कहता है - “पहले फ्यूडल ऑटोक्रेसी एक चुनौती थी
....फिर कबाइली हमले ने चुनौती पेश की... अब अपने घर में मजहब के नाम पर तो हम बट
ही रहे हैं.... हम जिस कश्मीरियत की बात करते हैं ये दंगे क्या उसकी पीठ पर लात
नहीं है ।”10
इन महिला
उपन्यासकारों ने जहाँ एक ओर ‘सांझी संस्कृति’ के निर्माण में भूमिका निभाने वाले
कारकों का मुक्तकंठ से प्रशंसा किया है तो दूसरी तरफ उन कारणों को भी उजागर किया
है जिसने सांझी संस्कृति में शिगाफ़ (दरार) डाला। इसके पीछे इन लेखिकाओं ने नेताओं के उन कार्यों को जिम्मेदार ठहराया है
जिनके कारण लोगों के दिलों में जहर घुल
गया और एक रची-बसी संस्कृति मजहबी ताकतों के नाम पर टूट गई। कश्मीर की ‘सांझी
संस्कृति’ की विरासत को विघटित करने में सबसे बड़ा हाथ आतंकवादियों व मजहबी लोगों
द्वारा फैलाई गई उस धार्मिकविद्वेष का है, जिसके कारण कश्मीरी समाज में व्याप्त
आपसी सौहार्द की सांसे टूटने लगी।
संजना कौल के
उपन्यास ‘पाषाण युग’ में इस तथ्य को उजागर किया गया है कि कैसे धर्म और जिहाद के
नाम पर कश्मीरी युवाओं के हाथों में हथियार थमा दिया जाता है और वे अपने ही
पड़ोसियों पर कहर बरपाते हैं तथा वे हिन्दुओं को अपना दुश्मन समझने लगते हैं। एक
पूरी की पूरी युवा पीढ़ी को गुमराह कर दिया गया है। न उन्हें कश्मीर के इतिहास की
सही जानकारी दी जाती है न संस्कृति की। उनके मन-मस्तिष्क में धर्म के नाम पर
सांप्रदायिकता का जहर घोल दिया जाता।
एक आतंकवादी
के मौत पर मुस्लिम समाज के कुछ लोग हलवा बांटते हैं, पाकिस्तान जिन्दाबाद के नारे
लगाते हैं। उसे शहीद का दर्जा देते हैं।
अंजलि अपने अम्मा से कहती है- “मैंने तो नजीर की बेटी से सुना है। वह कह रही थी,
वह शहीद हुआ है। उसकी मौत हम सबके लिए फक्र की बात है। इस पर गम नहीं होना चाहिए।
ख़ुशी मनानी चाहिए।”11 धीरे-धीरे हिन्दू-मुसलमानों के दिलों में एक
दूसरे के लिए नफरत भरता जा रहा था। इस तरह की घटनाओं का समाज पर दूरगामी प्रभाव
पड़ा और हिन्दू समाज में दहशत फैलने लगी।
सामान्य सी
घटनाओं को मजहबी रंग देकर दोनों समुदायों के बीच अविश्वास पैदा किया गया।
आतंकवादियों ने वहाँ के मंदिरों में घुसकर उन्हें नष्ट-भ्रष्ट किया। वैसे तो
उन्होंने मुसलमानों के पूजा स्थलों को भी नहीं छोड़ा और सांझी संस्कृति को उखाड़
फेंकने का प्रयास किया। परन्तु अब कश्मीरी अवाम इसके पीछे बैठे ताकतों को पहचानने
लगी है।बृज मोहन जी सज्जाद को समझाते हुए कहते हैं – “मेरी बात सुनो सज्जाद। यह यहाँ
के लोगों की बोली नहीं है। यह उन अड्डों का ज़हर है, जहाँ लोगों को इकट्ठा करके
इसके इंजेक्शन दिए जाते हैं। देख लेना,
अभी हालत और बिगड़ जाएगी।”12
यहाँ की सांझी
सांस्कृतिक विरासत को तोड़ने में धर्म के सौदागरों ने कोई कसर बाकी नहीं छोड़ा।
हिन्दुओं को कश्मीर से निष्कासित कर, उनकी सांस्कृतिक पहचानों को मिटा कर, उनके वापस आने की उम्मीदों पर भी
पानी फेर दिया गया। लेकिन आज भी एक आम कश्मीरी अपने सामाजिक सौहार्द को बनाये रखने
के लिए यही कहता है- अनवर मियाँ कहते हैं– “मैं अपने घर
में अपनी इबादत करता हूँ वो अपने घर में
अपना पूजा-पाठ। घड़ी दो घड़ी मिल-बैठकर हम अपना सुख-दुःख बाँट लेते है। यह हमें भी
अच्छा लगता है, उन्हें भी। फिर पीढ़ियों से घरों में आना जाना है।”13....
कश्मीर घाटी में अलगाववादी, नफरत और सांप्रदायिक अंधियारे के बीच प्रेम और सौहार्द की रौशनी अभी भी बची हुई है। तभी तो वहाँ के साधारण लोग वादी में अमन और शांति की राह देख रहे हैं। नन्दन, प्रेम से कहता है कि “क्या मैं मान लूँ, आप भी उम्मीदें खो चुके हैं? मान चुके हैं कि हमारी नुन्दऋषि और ललद्यद की ऋषि-सूफी परम्परा में दरारें पड़ चुकी है।” तब प्रेम कहता है- “हमारे दोस्तों के दिलों में अभी दरारें नहीं पड़ी नन्दन! तुमने एहसान मलिक का प्यार महसूस नहीं किया क्या? हाँ सियासत ने काफी नुकसान किया हमारा। इसे हमारा दुर्भाग्य ही समझ लो।”14 आज भी कश्मीर में प्रेम जैसे हिन्दू तो अनवर मियाँ जैसे मुसलमान उपस्थित हैं जो हिन्दू मुस्लिम सह-अस्तित्व और ऋषि-सूफी परमंपरा अर्थात सांझी संस्कृति को बनाये रखने में विश्वास करते हैं।अतः कश्मीर की सांझी संस्कृति अलगाववादी चेतना और सांप्रदायिक जड़ता के विरुद्ध ज्ञानात्मक संवेदना है,जो हर काल-खण्ड में अविरल प्रावाहमान रही है।
संदर्भ :
- भारतेश कुमार मिश्र,संस्कृति (कश्मीर विशेषांक) पत्रिका, अंक 19,पृ. 5
- चन्द्रकान्ता, ऐलान गली जिंदा है,राजकमल पेपरबैक्स, दिल्ली, 2015, पृ.99-100.
- चन्द्रकान्ता, कथा सतीसर, राजकमल पेपरबैक्स, दिल्ली,2013, पृ.167,
- वही, पृष्ठ 165
- मीरा कान्त,कोई था कहीं नहीं-सा, वाणी प्रकाशन,दिल्ली, 2009, पृ. 124,
- चन्द्रकान्ता, ऐलान गली जिंदा है, राजकमल पेपरबैक्स, दिल्ली, 2015,पृ.114
- वही, पृष्ठ 47
- चन्द्रकान्ता, कथा सतीसर, पृष्ठ 59
- चन्द्रकान्ता, ऐलान गली जिंदा है, पृष्ठ143
- मीरा कान्त, कोई था कहीं नहीं-सा’, पृष्ठ 152
- सजना कौल, पाषाण युग, आधार प्रकाशन, हरियाणा, 2003, पृ.31
- वही, पृष्ठ 32
- चन्द्रकान्ता, ऐलान गली जिंदा है, पृ.51
- चन्द्रकान्ता, कथा सतीसर, पृ.407
सोनू कुमार भारती
शोधार्थी(हिंदी), हिमाचल प्रदेश केन्द्रीय विश्वविद्यालय, धर्मशाला, 176215
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-41, अप्रैल-जून 2022 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक एवं जितेन्द्र यादव, चित्रांकन : सत्या कुमारी (पटना)
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