- अरुणा त्रिपाठी
बीज शब्द : नारीवाद, स्त्री अधिकार, स्त्री विमर्श, यौन-नैतिकता, पितृसत्तात्मकता, पुरुषवादी मानसिकता, स्त्री अधिकार, मैला आँचल, रेणु, आंचलिक, आंचलिकता, स्त्री अस्मिता।
मूल आलेख :
‘मैला आँचल’ निर्विवाद रूप से हिंदी की आंचलिक परंपरा की एक शिखर रचना है। इसके प्रकाशन को कई कारणों से हिंदी उपन्यास के इतिहास में एक क्रांतिकारी घटना होने का गौरव प्राप्त है। आंचलिकता का सर्वोत्कृष्ट रूप, ग्राम्य भाषा के साथ-साथ अद्भुत प्रयोगशीलता का परिचय देते हुए एक नई सृजनात्मक उपलब्धि, लोकगीत, लोकसंगीत के तत्त्वों का उपन्यास में अत्यधिक उपयोग, किसी गांव समाज के हर एक सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक पक्ष पर कलम चलाना जैसी विशेषताएँ प्रमुख हैं। इन सबके अतिरिक्त महिलाओं के मुद्दों को भी बड़ी बारीकी से उपन्यास में घुला दिया गया है।
एक दफा उपन्यास को पढ़ते समय ऐसा महसूस होता है कि नारी की स्थिति पर रचनाकार ने विशेष रूप से ध्यान नहीं दिया है,
किंतु हर दूसरे-तीसरे पृष्ठ पर नारी से जुड़ी व्यथा कहीं सीधे सपाट शब्दों में, तो कहीं व्यंग्य के माध्यम से दिखाई गई है। कई प्रसंगों में चलते-चलते ही ऐसी टिप्पणियां है जो नारी की परतंत्र और निम्न स्थिति को व्यक्त करती हैं। दरअसल रेणु एक लेखक होने के साथ सक्रिय रूप से राजनीतिक और सामाजिक कार्यकर्ता भी थे। उन पर समाजवादी विचारधारा का अच्छा खासा प्रभाव था। उन्होंने जयप्रकाश नारायण की ‘सम्पूर्ण क्रान्ति’ में सक्रिय रूप से भाग लिया था। उनकी इस वैचारिक मान्यता में नारी के लिए भी एक समानुभूतिपूर्ण स्थान था, जो उपन्यास में अनेक स्थानों में झलकता है।
यद्यपि उपन्यास में 15 से अधिक नारी पात्र हैं, लेकिन मुख्यतः पाँच नारी पात्रों के आधार पर रेणु की नारी दृष्टि का मूल्यांकन किया जा सकता है। जिनमें कमली, लक्ष्मी, संथालनें, मंगलादेवी और फुलिया प्रमुख हैं।
रेणु का उद्देश्य मेरीगंज के आसपास के सामाजिक जीवन का रोजनामचा लिखना नहीं था। उनकी कलम की महत्ता इसी बात में है कि उन्होंने सामान्य कहानी को कहते हुए बारीक मुद्दों को इस तरह घुला दिया की सूक्ष्म दृष्टि वाला पाठक ही उन बिंदुओं को समझ पाता है जिन्हें रेणु वास्तव में कहना चाहते थे। नारी शोषण,
चाहे वह पारिवारिक हो या संस्थागत दोनों को अपने कटु और वीभत्स रूप में रेणु ने दिखाया है। लक्ष्मी का किरदार रेणु ने गढ़ा ही इसीलिए है ताकि धार्मिक संस्थाओं में, मठों में होने वाले शोषण और व्यभिचार को उभारा जा सके। इससे पाठक समाज की ‘लिंग-भेदी नैतिकता’ के सामाजिक निहितार्थों को सोचने पर मजबूर होता है।
उपन्यास की शुरुआत में पात्रों का परिचय देते हुए, रेणु लक्ष्मी के महंत सेवादास द्वारा किए जाने वाले शोषण पर व्यंग्य के माध्यम से तीखी बात लिखते हैं- 'लक्ष्मी अब जवान हुई है, लेकिन लक्ष्मी के जवान होने से पहले ही महंत सेवादास की आंखें अपनी ज्योति खो चुकी थीं। पता नहीं लक्ष्मी की जवानी को देखकर उसकी क्या हालत होती!'[1]
रेणु ने लक्ष्मी के मन के भीतर चल रहे उस अंतर्द्वंद्व को भी बड़ी बारीकी से दिखाया है जिसमें लक्ष्मी उस शोषण से आजिज़ हो चुकी है, फिर भी उसके खिलाफ आवाज उठाने की हिम्मत नहीं जुटा पाती और मन ही मन कसमसाती रहती है। वह अपने शोषण के खिलाफ कोई प्रतिरोधमूलक या हिंसात्मक तरीका नहीं अपनाती, वह अनुनय-विनय से इससे मुक्ति पाना चाहती है। वह अपने गुरु को बीजक की कसम दिलाकर ब्रह्मचर्य का पालन करने के लिए तैयार करती है, लेकिन बार-बार पुकारे जाने पर बस मन ही मन कुंठित और व्यथित होती है कि अनेक बार कसम खाने के बाद भी उसे आज फिर महंत साहेब पुकार रहे हैं।
उपन्यास में लक्ष्मी नारी शोषण के चरम का प्रतीक तो है ही,
लेकिन समाज में एक विधवा और अबला नारी की क्या स्थिति होती है इस बात पर रेणु ने मंगला देवी का आधार लेकर कलम चलाई है। मंगला देवी चरखा सेंटर की मास्टरनी है जो कई साल से अपना घर-बार छोड़कर विधवा आश्रम और अबला आश्रम में रह रही हैं। उन्होंने जीवन का कठिन संघर्ष देखा है और कई बड़े बाबू के घर आया का काम किया है। उनके शोषण पर व्यंग्य है- 'मंगला देवी ने दुनिया को अच्छी तरह पहचाना है। आदमी के अंदर के पशु को उन्होंने बहुत बार करीब से देखा है। xxxxx अबला नारी हर जगह अबला ही है। एक असहाय औरत देवता के संरक्षण में भी सुख चैन से नहीं सो सकती।' [2] इस पंक्ति के माध्यम से रेणु ने पुरुष की यौन हिंसक और पितृसत्तात्मक प्रवृत्ति को तीक्ष्णता के साथ उजागर किया है।
किसी भी शोषण का सबसे चरम और निकृष्टतम रूप वह होता है जब शोषण से पीड़ित व्यक्ति अपने शोषण के लिए स्वयं को ही जिम्मेदार मानता है। 'दलित विमर्श' में इस बात को बहुत जोर-शोर से उठाया जाता है कि धर्मग्रंथों का लेखन ही इस प्रकार से हुआ है कि संस्थागत और सामाजिक शोषण के बावजूद भी दलितों को ही स्वयं इसके लिए जिम्मेदार माना गया है। आजकल स्त्रीवादी, पारिवारिक संरचना और पितृसत्तात्मक व्यवस्था को इसी आधार पर चुनौती देते हैं कि शोषण होने से भी ज़्यादा खराब यह है कि धर्म में स्त्री के शोषण को सही और जायज ठहराया गया है। एक लंबे अंतराल तक धर्म के आधार पर पालन पोषण और सामाजिक संरचना में पले-बढ़े व्यक्ति को इस शोषण का पता ही नहीं चलता, चाहे वह शोषक हो या शोषित। वह अपने इस शोषण पर अपने पूर्वजन्म, अपने कृत्यों या अपने दुर्भाग्य को ही दोष देता है। उपन्यास में रेणु ने लक्ष्मी के माध्यम से इस मानसिक द्वंद्व को दिखाया है जिसमें लक्ष्मी, महंत के व्यभिचार का दोष स्वयं को ही देती है कि उसके मठ में रहने के कारण महंत अपनी इंद्रियों पर वश नहीं कर सके और इंद्रियों के अधीन हो गए। रेणु ने लिखा है कि लक्ष्मी सोचती है- 'यह तो महंत साहेब का दोख नहीं। उसका भाग ही खराब है। यदि वह नहीं होती तो महंत साहेब सतगुरु के रास्ते से नहीं डिगते। दोख तो लक्ष्मी का है। एक ब्रह्मचारी का धरम भ्रष्ट करने का पाप उसके माथे है।'[3]
रेणु ने आदिवासियों की स्थिति का भी बड़ा बारीक और मर्मान्तक चित्रण किया है। उन्होंने दिखाया है कि गांव के कुछ चालाक लोग,
जमींदारों और तहसीलदार के साथ मिलकर किस तरह भोले-भाले संथालों पर जुल्म तो करते ही हैं, उनकी औरतों का खुलेआम बलात्कार भी करते हैं। जोत की जमीन को लेकर दोनों के बीच हिंसक संघर्ष हो रहा है और जैसा कि किसी दार्शनिक ने कहा है- "किसी भी युद्ध का सबसे गंभीर परिणाम औरतों को ही भुगतना पड़ता है।" तीर कमान बंदूक से गांव वाले संथालों पर आक्रमण कर रहे हैं, उन्हें घेरकर मार रहे हैं, और यहां पर उनकी पुरुषवादी मानसिकता भी साफ झलक रही है। वे खेत में छिपी हुई संथालनों को घेरकर चिल्लाते हैं- "एकदम फ्री आजादी है जो जी में आवे करो। बूढ़ी जवान बच्ची जो मिले आजादी है। कोई परवाह नहीं, फांसी हो या काला पानी, छोड़ना नहीं।" संथालनों के सामूहिक बलात्कार का रेणु बारीक और हृदयविदारक चित्रण करते हुए लिखते हैं कि 'संथालने रोती हैं, दर्द से छटपटाती हैं....... फिर चिल्ला चिल्ला कर रोती हैं।'[4] पुरुषवादी सत्ता की लड़ाई में औरतों का क्या हश्र होता है, इस बात का एकदम सटीक चित्रण इस उपन्यास में किया गया है।
लेखक ने समाज की उस मानसिकता को दिखाया है जहां परिवार में लड़का 'वंश, गद्दी का वाहक' है और लड़की 'एक पराया धन।’ लड़का-लड़की को लेकर यह भेद तो हमारी संस्थागत और धार्मिक जड़ों से आया है लेकिन लड़की पैदा होने के बाद भी पूरे जीवन उसके साथ होने वाला दोयम दर्जे का व्यवहार और असंवेदना की हद तक किया जाने वाला बर्ताव भी चिंता का विषय है, रेणु ने बड़ी बारीकी से इस पर व्यंग्य किया है। अपनी बेटी की बीमारी पर एक किसान बाप का डॉक्टर से यह कहना कि "लड़की की जात बिना दवा-दारू के ही आराम हो जाती है।"[5] स्त्री के प्रति समाज में फैली निम्न मानसिकता का परिचायक है। रेणु ने फिर से व्यंग्य किया है कि 'बेचारे बूढ़े का इसमें कोई दोष नहीं। सभ्य कहलाने वाले समाज में भी लड़कियां बला की पैदाइश समझी जाती हैं।'
ग्रामीण समाज का सामाजिक ढांचा ही ऐसा रहा है जिसमें स्त्री का वस्तुकरण कर दिया जाता था। समाज में एक लंबे समय तक स्त्री को सिर्फ एक क्षुधासाधन और उपभोग की वस्तु माना गया। एक विशेष काल में स्त्री को पुरुषों द्वारा आदान-प्रदान या क्रय- विक्रय का जरिया तक समझा गया। महिला के वस्तुकरण पर लेखक ने कई बार उपन्यास में संदर्भ स्पष्ट किए हैं। गांववालों में महिलाओं के प्रति यही मानसिकता है 'जोरू जमीन जोर का नहीं तो किसी और का।'[6]
जमीन जैसी निर्जीव वस्तु के साथ महिला की तुलना अपने आपको समाज की असंवेदनशीलता को दर्शाती है और जोर आजमाइश की कुंठित मानसिकता को भी उजागर करती है।
गांव समाज के होने वाले झगड़ों में बंदिशें सबसे पहले महिलाओं पर ही लगाई जाती हैं, शिकंजा सबसे पहले महिलाओं पर कसा जाता है और इस शिकंजा कसने की डोर पुरुषवादी सत्ता के हाथ में होती है। रामपियरिया जब नए महंत की दासिन बनने जा रही है तो भी पंचायत उसे जाति के आधार पर नियंत्रित करना चाहती है। एक अन्य प्रसंग में तंत्रिमा टोली में होने वाली पंचायत में यह निर्णय होता है कि अब कोई भी औरत बाबू टोला के किसी आंगन में काम करने नहीं जाएगी। ऐसे ही अन्य प्रतिबंध गहलोत कुर्मी, पोलिया और कुशवाहा टोले में भी लगाए जाते हैं। बड़ी बारीकी से देखें तो ये प्रतिबंध पुरुषों के लिए नहीं हैं, सिर्फ महिलाओं के लिए हैं। पुरुष आजाद है किसी भी टोले में आने-जाने और उठने-बैठने के लिए।
रेणु ने यह भी दिखाने की कोशिश की है कि जाति के आधार पर भी महिलाओं की आर्थिक, सामाजिक और यौन स्वतंत्रता, साथ ही उनके प्रतिमान भी अलग-अलग हैं। उच्च जाति की महिलाएं अधिक बंधनों की शिकार हैं जबकि तथाकथित दलित महिलाएं इन मामलों में अधिक स्वतंत्र है। दरअसल यह स्वतंत्रता उनके लिए कोई उपलब्धि नहीं है, इस स्वतंत्रता के पीछे भी, उन्हे नीचे समझने की सोच छिपी हुई है। उच्च जाति की महिलाएं जहां जातिगत भेदभाव से परे हैं तो लैंगिक भेदभाव की ज्यादा शिकार हैं- ब्राह्मण अपनी पत्नी का इलाज इसलिए नहीं करवाना चाहता क्योंकि वह दूसरे पुरुष (डॉक्टर) के सामने उसे अर्धनग्न नहीं देखना चाहता। इसी प्रकार कमली का गर्भधारण पूरे परिवार के लिए कलंक है जिसे वह एक साल तक छिपाकर रखती है। इसके विपरीत फुलिया जो अपना यौन संबंध तीन व्यक्तियों के साथ रखती है, को इस बात का ना तो कोई अपराध बोध है और ना ही नैतिकता की कोई परवाह। यद्यपि रेणु ने इस स्वतंत्रता को दर्शाते हुए समाज में, दलित महिलाओं के प्रति यौन आग्रह को लेकर फैले पूर्वाग्रह को भी दिखाया है। उच्च जातियों के बीच होने वाली बातचीत और हंसी-मजाक में दलित महिलाओं का अधिक सामंती और कुरूप चित्र दिखाई देता है। इसके अलावा लेखक ने कुछ चरित्रों के माध्यम से स्त्रियों के प्रति दोहरी मानसिकता का परिचय भी दिया है- बालदेव और कालीचरण एक ओर स्त्रियों के प्रति एक विशेष प्रकार की सोच और कुंठा से ग्रसित हैं और दूसरी ओर कुछ स्त्रियों के प्रति उनके मन में श्रद्धा और आदर का भाव भी है। दरअसल इस दोहरी मानसिकता के पीछे स्त्रियों के प्रति एक ‘सर्व-स्वीकार्य सामाजिक समानता’ का भाव न होना प्रमुख है।
प्रेम एक उन्मुक्त और बंधन तोड़ अभिव्यक्ति है। नियम और कायदे भंग करने की कामना और कोशिश ही इसका मूल है। जबकि समाज का आधार ‘नियम प्रधान व्यवस्था’ है और इससे बाहर जाने वालों पर समाज लगाम लगाने की कोशिश करता है। इसी लगाम और नियंत्रण के भय से प्रेम कई बार एक छिपी हुई या छिपाई जाने वाली अभिव्यक्ति बन कर रह जाता है। प्रेम की परिभाषाएं और प्रतिमान हर समाज के लिए अलग-अलग हैं। साम्यवादी तो प्रेम पर व्यंग्य करते हैं कि प्रेम सिर्फ एक 'पूंजीवादी अवधारणा' है क्योंकि लड़कियों के सपनों में राजकुमार आते हैं मजदूर नहीं।' रेणु मैला आँचल में समाज, प्रेम और व्यक्ति के इस जटिल सम्बन्ध को अभिव्यक्त करते हुए विद्रोह की चिंगारियाँ दिखाते हैं- कमली और डॉक्टर का प्रेम इन्हीं संबंधों की परिणति है। डॉक्टर कमली को इंजेक्शन का डर दिखाता है फ़िर ‘मीठी दवा’ के रूप में ब्रोमाइड देना शुरू कर देता है। वह मीठी दवा और बेतार के यन्त्र ‘रेडियो’ से कमली का इलाज़ करता है लेकिन धीरे-धीरे उसके प्रेम में बीमार होता चला जाता है।
रेणु ने बड़ी ही सरलता किन्तु साहस के साथ सामन्ती और पितृसत्तात्मक सामाजिक साँचे के विरुद्ध जाकर कमली और प्रशांत का मिलन दिखाया है। समाज एक नियंत्रणकारी (अथॉरिटेटिव) अवधारणा है और 'विवाह पूर्व प्रेम या यौन संबंधों' में उसका सामूहिक चरित्र तो एक तानाशाह का ही होता है। समाज के लिए चरित्रहीनता की परिभाषा बड़ी उथली और नाजुक है। रेणु दिखाते हैं कि कमली के कुँवारी माँ बनते ही समाज की नजर में उसका आँचल मैला हो गया है। उसकी अपनी मां ही उसकी अवस्था पर कहती है- "यह क्या रे अभागी! हतभागिन! आँचल को मैला मत करना बेटी, दुहाई!" [7] रेणु ने कमली और प्रशांत के चरित्र और प्रेम संबंध के माध्यम से इस स्त्री मुद्दे को एक विशेष दिशा दी है।
रेणु पर 'मैला आँचल’के माध्यम से नारी और समाज को गलत तरीके से प्रदर्शित करने और अश्लीलता फैलाने के आरोप भी लगे हैं। समीक्षक श्री लक्ष्मीनारायण भारतीय ने लिखा है कि “ऐसा प्रतीत होता है कि यहाँ हर कोई एक दूसरे से फँसा हुआ है।’’ अथवा “हर टोला नियमित, व्यवस्थित और खुले रूप से अनैतिकता का अड्डा ही है क्या?”[8]
रेणु ने सुश्री गौरा एम. ए. के नाम से एक लेख लिखकर ‘मैला आँचल’ पर लगाए गये सभी आरोपों का बड़ी शालीनता से जवाब दिया है– “मेरी राय से सब लोग सहमत न होंगे। नैतिकता का अर्थ मेरे लिए बहुत व्यापक है, उस व्यापकता में यौन-नैतिकता का बड़ा गौण स्थान है। नैतिक मूल्यों की चर्चा में मैं मानवीयता को सबसे अधिक महत्त्व देता हूँ, किसी सामाजिक, राजनीतिक या धार्मिक मतवाद पर अनावश्यक ध्यान नहीं देता।”
प्रेम और काम को इसके पहले भी हिन्दी उपन्यासों की विषयवस्तु रहे हैं, पर ज़्यादातर में विचारधारा का आग्रह रहा है। अधिकांश फ्रायड या युंग के मनोविश्लेषणवाद के सिद्धान्त की मान्यताओं के प्रसार हैं या फिर पाप और पुण्य के चश्मे से संस्कारों का मूल्यांकन करते हैं। रेणु ने विचारधारा के मोह से ऊपर उठकर सहजता को जगह दी है। उन्होंने नारी मुद्दों की खालिस अभिव्यक्ति की है। यहाँ न तो भावना का उदात्तीकरण है न ही यथार्थ का चीत्कार। सत्य के खोज की शुष्क तार्किकता की जगह बिना किसी बनाव-शृंगार के जीवन की भाव-प्रवण सरसता इसका प्राण है।[9]
मैला आँचल को प्रेम कहानियों का दस्तावेज भी कह सकते हैं। हर एक प्रेम कहानी के पीछे एक विशेष नारी मुद्दे की अभिव्यक्ति जुड़ी हुई है- प्रशांत और कमली की प्रेम कहानी; ममता और प्रशांत की कहानी; बालदेव और लछमी की कहानी; मंगला और कालीचरण की कहानी; खलासी बाबू और फुलिया की कहानी; फुलिया और सहदेव मिसिर की कहानी और अँग्रेज नीलहे साहब मार्टिन और गोरी मेम मेरी की कहानी।
‘मैला आँचल’ यथार्थ की जड़ साधना और सिद्धि को तोड़ने वाला उपन्यास है। यह उपन्यास ‘प्रेम’ और ‘काम’ सम्बन्धों में लिंग आधारित वर्चस्व और भेद को अपनी पूरी रचनात्मकता में बहुत ही सलीके से आलोचित करता है।[10] एक दृष्टि में मैला आँचल, ग्राम्य भाषा में गांव-समाज में होने वाली घटनाओं की अभिव्यक्ति मात्र लगता है पर नारी मुद्दों की अभिव्यक्ति और नारी दृष्टि से मूल्यांकन करने पर हम उन छिपे हुए तंतुओं को जोड़ पाते हैं जो रेणु की ‘नारी विषयक सूक्ष्मदृष्टि’ के मूल थे।
(1) ‘मैला आँचल’, फणीश्वरनाथ रेणु, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली (1984), पृष्ठ 26
(10) www.forwardpress.in/2017/02/maila-anchal-men-jati-rud-smaj-ka-ling-ytharth/%3famp
(11) वर्धमान और पतनशील – विजयदेव नारायण साही, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली
(12) रेणु, फणीश्वरनाथ. (2007). रेणु रचनावली. खंड I-V नई दिल्ली: राजकमल प्रकाशन (संपादन: गोल्डी/नवल/अनिल)
शोधार्थी, हिन्दी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय
arunatripathi28@gmail.com, 8920059925
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) फणीश्वर नाथ रेणु विशेषांक, अंक-42, जून 2022, UGC Care Listed Issue
अतिथि सम्पादक : मनीष रंजन
सम्पादन सहयोग : प्रवीण कुमार जोशी, मोहम्मद हुसैन डायर, मैना शर्मा और अभिनव सरोवा चित्रांकन : मीनाक्षी झा बनर्जी(पटना)
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