- विष्णु कुमार शर्मा
हिंदी के पहले स्त्रीवादी ब्लॉग ‘चोखेर बाली’ से अपनी पहचान बनाने वाली सुजाता कविता संग्रह ‘अनंतिम मौन के बीच’ और उपन्यास ‘एक बटा दो’ की लेखिका हैं। वे ब्लॉग व पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर लेखन कार्य करती रही हैं। स्त्री विमर्श पर यह उनकी पहली पुस्तक है, बावजूद इसके पुस्तक में विषय को गंभीरता से अभिव्यक्त किया गया है जो उनकी गहन अध्ययनशीलता को दर्शाता है। पुस्तक के पहले परिचय में वे स्त्रीवाद की सैद्धांतिकी पर प्रकाश डालते हुए बताती हैं कि ‘स्त्रीवाद क्या हैं ?’ सूत्र रूप में वे बताती हैं कि सामाजिक संरचना में व्यवस्थित रूप से स्त्री को निर्णयों में भागीदारी से वंचित किया गया है, स्त्री को दोयम बनाने वाली समस्त व्यवस्था में परिवर्तन स्त्रीवाद के मूल में है। इसमें वे हाशिए के विमर्शों के महत्ता पर प्रकाश डालते हुए वैश्विक परिप्रेक्ष्य के साथ भारत में स्त्रीवादी आन्दोलनों को लेकर पुरुषों, राजनीतिज्ञों और मीडिया के कुटिल मुस्कान के साथ उपेक्षा किए जाने की पड़ताल करती हैं। उन्होंने ‘स्त्रीवाद’ को एक राजनीतिक व दार्शनिक अवधारणा माना है। उनका मानना है कि “स्त्रीवाद का पहला चरण स्त्री मुद्दों के राजनीतिकरण का ही दौर है ......जिनका राजनीतिकरण होता है, वे मुद्दें ध्यान पाते हैं और जिन्हें संस्कृति या निजी और घरेलू के नाम पर दबाया जाता है, वे दरअसल यथास्थिति को बनाए रखने के लिए नज़रअंदाज किए जाते हैं, क्योंकि हम उन पर बात नहीं करना चाहते।”[1] वे साफगोई से स्वीकार करती हैं कि स्त्रीवाद के अपने विरोधाभास है और स्त्रीवादी बहसें बहुत हद तक भटकी हुए और गतिहीन हैं। इसके कारणों की पड़ताल करते हुए वे कहती हैं कि “स्त्रीवाद कोई इकहरी विचारधारा नहीं है। अलग-अलग समय पर अपने भिन्न उद्देश्यों के साथ यह अलग-अलग शत्रुओं के खिलाफ उभरती रही है।”[2] उनका मानना है कि नई लड़ाइयों व नई चुनौतियों ने ही सोशलिस्ट स्त्रीवाद, व्यक्तिवादी स्त्रीवाद, अराजक स्त्रीवाद, अश्वेत स्त्रीवाद, दलित स्त्रीवाद, मार्किस्ट समाजवादी स्त्रीवाद, भौतिकतावादी स्त्रीवाद, लिबरल स्त्रीवाद, समलिंगी स्त्रीवाद, रेडिकल फेमिनिज्म, फेमिली फेमिनिज्म, ईको फेमिनिज्म जैसे विभिन्न स्त्रीवादी आन्दोलनों जन्म दिया।
सुजाता लिखती हैं कि स्त्री विमर्श को समझने से पहले हमें इसके गुप्त शत्रु पितृसत्तात्मक व्यवस्था को समझना आवश्यक है। फ्रेडरिक एंगेल्स, जूलियट मिशेल व गर्डा लर्नर के हवाले से वे बताती हैं कि मातृप्रणाली को धीरे-धीरे नष्ट कर पितृसत्तात्मक व्यवस्था ने निर्णय व सामाजिक उत्पादन तथा मुनाफा व संपत्ति पर एकाधिकार स्थापित कर लिया। यह व्यवस्था आरम्भ से असमानता पर टिकी है जिसका उद्देश्य स्त्री की देह, उसके श्रम व संपत्ति पर अधिकार करना है। सिमोन के प्रसिद्ध कथन “स्त्री पैदा नहीं होती, बनाई जाती है” की व्याख्या करते हुए वे कहती हैं कि दुनिया भर के तमाम देशों व संस्कृतियों ने स्त्री को तैयार करने की एक ‘सोशल कंडिशनिंग’ बनाई जिसमें धर्म, जाति, वर्ग,भाषा, साहित्य और कानून की बड़ी भूमिका है। धर्म व कानून के नियंताओं ने उसकी स्वतंत्रताओं का हनन किया। साहित्यकारों ने स्त्री को त्याग व समर्पण की मूर्ति बताया, उसकी कोमलता व मातृत्व का गुणगान किया। उसे प्रेम-कलाओं में दीक्षित करने के सूत्र रचे।
“जेंडर एक पूरी तरह सामाजिक-सांस्कृतिक निर्मिति है, जैविक नहीं। हम जन्म लेते हैं और वक्त के साथ-साथ यह सिखा दिया जाता है कि जिस लिंग में हमने जन्म लिया है, उसे मंच पर क्या भूमिका अदा करनी है।”[3] एक सुनियोजित तरीके से उसे गुलामी की तरफ धकेला गया और यह कार्य इतनी चालाकी से किया गया कि उसे इसका अहसास भी वर्षों तक नहीं हुआ। बीसवीं शती में जाकर कुछ विदुषी स्त्रियों को जब इस गुलामी का अहसास हुआ और उन्होंने अपने अधिकारों की मांग उठाना आरम्भ किया। लेकिन अभी भी पुरुष इसे लेकर नकार की मुद्रा में है। भारत में स्त्री आंदोलनों का इतिहास पर प्रकाश डालते हुए वे बताती हैं कि भारत में इसकी शुरुआत पुरुषों के नेतृत्व में हुई। राजा राममोहन राय, स्वामी दयानन्द, स्वामी विवेकानंद, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, ज्योतिबा फुले जैसे समाज-सुधारकों ने इस लैंगिक भेदभाव को परखा और सती प्रथा, विधवा- विवाह, पर्दा-प्रथा, अशिक्षा जैसी समस्याओं के उन्मूलन हेतु कार्य किया। महिलाओं में ताराबाई शिंदे, सावित्रीबाई फुले, पंडिता रमाबाई का नाम लिया जा सकता है। भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन में महिलाओं की भागीदारी के साथ स्त्रीवादी आन्दोलन का दूसरा चरण आरम्भ हुआ जो हिन्दू कोड बिल की मांग तक जाता है। “भारतीय पवित्र ‘घर’ के भीतर सेंध लगाकर स्त्री को सार्वजानिक जीवन में ले आने में महात्मा गाँधी का भी बड़ा योगदान रहा।”[4] गांधीजी व प्रेमचंद के स्त्री उत्थान विषयक विचारों का मूल्यांकन करते हुए वे कहती हैं कि “एक तरफ भीकाजी कामा और सरोजनी नायडू जैसी स्त्रियां थीं जो पितृसत्ता को चुनौती दे रही थीं, दूसरी तरफ स्वयं गांधीजी के विचारों से पितृसत्ता को कोई खतरा नहीं था। वे स्वीकृत परिभाषाओं के दायरे में रहकर ही बात कर रहे थे। प्रेमचंद जब गोदान में स्त्री को देवी व तितली वाली बाइनरी में परिभाषित करते हैं तो पितृसत्ता को कोई चुनौती नहीं मिलती।”[5] स्वतंत्रता मिलते ही अधिकांश स्त्रियां वापस घरों को लौट गयी। भीमराव आंबेडकर के प्रयासों से निर्मित ‘हिन्दू कोड बिल’ इस दिशा में मील का पत्थर साबित होता लेकिन तत्कालीन राजनेताओं के पितृसत्तात्मक सामंती दृष्टिकोण की वजह से पारित नहीं हो सका। हालांकि पंडित नेहरू व उनके बाद की सरकारों ने समय की माँग के मुताबिक विवाह, तलाक, उत्तराधिकार, समान काम के लिए समान वेतन, मातृत्व अवकाश आदि रूपों में इसे टुकड़ों-टुकड़ों में संवैधानिक अमलीजामा पहनाया लेकिन यह अपने मूल रूप में पारित नहीं हो सका। यदि यह कार्य 1947 ई. या 1955 ई. में हो गया होता तो भारत में स्त्री अधिकारों की दिशा में बड़ा कदम होता। इसके परिणाम भी आए लेकिन देर से आए। इसीलिए सुजाता ने भारत में स्त्रीवादी आन्दोलन के सबसे महत्त्वपूर्ण तीसरे चरण की शुरुआत 1975 ई. के आसपास से मानी है जिसमे संयुक्त राष्ट्र द्वारा 1975 को अंतर्राष्ट्रीय महिला वर्ष घोषित किए जाने ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसके पश्चात् हिंदी साहित्य में लेखिकाओं की एक लम्बी फेहरिश्त देखने को मिलती है। कहानी, उपन्यास और आत्मकथाओं के द्वारा लेखिकाओं ने स्त्री समस्याओं की मुखर अभिव्यक्ति की।
प्रेम को लेकर स्त्रीवादी नजरिये को स्पष्ट करते हुए वो कहती हैं कि “अपने सहज रूप में प्रेम स्त्री को आज़ाद करता है, मुक्ति का उत्सव है स्त्री के लिए प्रेम। उत्सव अकेले नहीं मनाया जाता। एक पुरुष को भी यह उतना ही आज़ाद करता है। यह बने-बनाए जीवन सिद्धांतों, परंपरागत नियमों और स्थापित संस्थाओं को तक पर रखता है, अपने रास्ते व मंज़िलें खुद तय करता है, दोनों में से किसी एक को झुके बिना।”[6] प्रेम के सहज रूप से पितृसत्ता सदैव आतंकित रही है, वह इसे कुचल देना चाहती है। इक्कीसवीं शती में भी ‘ऑनर किलिंग’ इसका उदहारण है। भारतीय परिवेश में प्रेम परदे के पीछे की कोई गोपनीय या जादुई चीज है। जिस पर बात करने का अधिकार कवियों, दार्शनिकों व चिंतकों को ही है। व्यावहारिक रूप में यह गैर-बराबरी वाला मामला है जो एक को स्वामी बनाता है और एक को दास।
‘देह पर कब्ज़ा और पुनः प्राप्ति’ प्रकरण में लेखिका कहती हैं कि स्त्री की देह को ही उसके लिए अपमानजनक बना दिया गया है। जो देह एक ओर पूजनीय है दूसरी ओर वही उसके शोषण का साधन भी है। उसे अपनी देह से पृथक कर उसके व्यक्तित्व को खंडित कर दिया गया है। परिवार, समाज, धर्म, बाजार व मीडिया सब उस पर अपने-अपने तरीके से दावा करते हैं। स्त्रीवादी आन्दोलन का उद्देश्य उसे अपनी देह पर कब्ज़ा कर पूर्ण व्यक्तित्व बनाना है जिसममें शिक्षा का उन्होंने सबसे बड़ा हथियार माना है । स्त्री को अपमानित व पीड़ित करने का पितृसत्ता का सबसे बड़ा हथियार जो उसके विरुद्ध सदियों से काम लिया जाता रहा है वह है – बलात्कार। बलात्कारी की मानसिकता की पड़ताल करती हुई लेखिका कहती है कि “बलात्कारी पैदा नहीं होते बनाए जाते हैं.... बलात्कार पितृसत्तात्मक-शक्ति-संरचना से संचालित संबंधो का उत्पाद है, जिसे सैद्धांतिक रूप से और संस्थाबद्ध तरीके से लागू किया जाता है, मनवाया जाता है। बलात्कार प्राकृतिक नहीं, यह सामाजिक है। सामाजिक ट्रेनिंग का हिस्सा।एक राजनीतिक कृत्य। यौनिक राजनीति।”[7]
स्त्री को श्री-हीन बनाए रखने तथा उसे एक उत्पाद के रूप में प्रस्तुत करने में बाज़ार व मीडिया की भी बड़ी भूमिका को स्पष्ट करती हुई लेखिका कहती हैं कि ये उसे केवल देह के रूप में प्रस्तुत करते हैं , उसके सौंदर्य को ‘कैश’ करते हैं । तमाम सौंदर्य प्रतियोगिताएँ व विज्ञापन उसकी देह की नुमाइश भर है। सिनेमा की पड़ताल करती हुई लेखिका बताती हैं कि स्त्री दृष्टिकोण से हमारे पास वाटर, बैंडिट क्वीन, फायर, क्वीन, डर्टी पिक्चर, हाईवे, मेरिकॉम जैसी उँगलियों पर गिनने लायक फिल्में हैं। भाषा निर्मिति व साहित्य के इतिहास के हवाले से वो बताती हैं कि भाषा पर भी सदैव पुरुष का आधिपत्य रहा है। पुरुष रचित सारी गालियां स्त्री अंगो व उसकी यौनिकता पर प्रहार करती हैं। साहित्य के इतिहास में स्त्री लेखन को अत्यंत गौण स्थान दिया गया है, यह भी पितृसत्तात्मक सत्ता का पक्षपातपूर्ण रवैया है। स्त्री द्वारा रचित लोक-साहित्य मुख्यधारा के साहित्य से सिरे से नदारद हैं।
अंत में स्त्री साहित्य के कुछ वर्ल्ड क्लासिक्स का संक्षिप्त परिचय देती हुई यह पुस्तक कुछ चुभते प्रश्न छोड़ जाती हैं। कुल-मिलाकर पुस्तक पितृसत्ता को स्त्री शोषण के मुख्य शत्रु के रूप में चिह्नित करती है; परिवार, समाज, धर्म, राजनीति सब उसके औजार हैं । पुस्तक बेहद पठनीय है। भाषा में रवानगी है। सूक्तियों, मुहावरों व फ़िल्मी डायलॉग्स ( थप्पड़ से डर नहीं लगता साहब, प्यार से लगता है ) का प्रयोग भाषा को जीवंत बनाता है।
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-41, अप्रैल-जून 2022 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक एवं जितेन्द्र यादव, चित्रांकन : सत्या सार्थ (पटना)
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