– कनकलता यादव
बीज शब्द: पाकिस्तान, दलित, दलित महिला, जातिगत भेदभाव।
मूल आलेख: पाकिस्तान में जातिगत भेदभाव की संरचना को समझने से पहले हमें पाकिस्तान में दलितों की स्थिति एवं जातीय संरचना की पड़ताल करनी ज़रूरी है, क्योंकि हिन्दू और मुस्लिम जनसंख्या के बाद तीसरी सबसे बड़ी आबादी निम्नतर यानी दलित जातियों की थी। यह जानना ज़रूरी है कि ब्रिटिश इंडिया की तीसरी सबसे बड़ी आबादी दलित, पाकिस्तान पर क्या विचार रखती थी? दलित, भारत और पाकिस्तान या किसी नये विकल्प में अपने लिए क्या चाहते थे? इत्यादि कई संबंधित सवालों पर चर्चा ज़रूरी है।इन सभी सवालों के जवाब कुछ हद तक हमें ब्रिटिश इंडिया में करवाई गई जनगणना (1872-1931) के जातिगत आँकड़ो से मिलते हैं। जनगणना के जातिगत आंकड़ों से यह काफी हद तक स्पष्ट है कि हिन्दू दलित, मुस्लिम दलित, सिख दलित, ईसाई दलित और धर्म परिवर्तन की हुई निम्न जातियों के साथ जातिगत भेदभाव के मामले आंकड़ों में पाए गये हैं। पंजाब प्रान्त की सन 1872-1931 तक की जनगणना को देखा जाए तो जाति और इसमें शामिल भेदभाव को स्पष्टतः देखा जा सकता है।
ऐतिहासिक पहलूओं के आधार पर हम औपनिवेशिक विरासत से समझने का प्रयास करेंगे कि भारत और पाकिस्तान का विभाजन कहीं न कहीं धर्म के आधार पर न होकर अंदरूनी रूप से जाति के आधार पर बुना गया था जिसकी शुरुआत बिहार से की गई थी। बिहार को भी विभाजित करने की मांग मुस्लिम लीग ने की थी। मुस्लिम लीग के साथ-साथ बिहार में दलित-पिछड़े मुसलमानों की बात करने वाला ‘मोमिन कॉन्फ्रेंस’[i] नाम का एक संगठन था जो 1937 तक एक सामाजिक संगठन था, इसके नेता अब्दुल कयूम अंसारी थे। 1938 से यह संगठन सियासी हो गया था। मोमिन कांफ्रेंस के लोग यह आरोप लगाते थे कि निम्न जाति के लोग जब अपने अधिकारों की बात करने लगे तो इन सभी मुद्दों से ध्यान हटाने के लिए मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान की मांग उठा दी,[ii] जिसका समर्थन नवाबों, जागीरदारों, सरमायदारों तथा अशराफ आदि ने किया, जबकि जनगणना में निम्नतर बताई गई मुसलमान जातियाँ लगातार मुस्लिम लीग से इस बात पर विरोध जाहिर कर रही थीं।[iii] इस संदर्भ में असगर अली इंजीनियर अपने लेख “पिछड़ा वर्ग मुसलमानों की समस्या” में कहते हैं कि “मुस्लिम लीग द्वारा उठाई गई पाकिस्तान की माँग का विरोध करने के लिए मई 1940 में दिल्ली में एक विशाल प्रदर्शन किया गया। जिसमें आल इंडिया जमीअत उलेमा, आल इंडिया मोमिन कॉन्फ्रेंस, आल इंडिया मुस्लिम पार्लियामेंट्री बोर्ड, द अंजुमन-ए-वतन (बलूचिस्तान), आल इंडिया मुस्लिम मजलिस, जमीअत अहल-ए-हदीस एवं अधिकांश मुस्लिम छात्रों ने भागीदारी की तथा 27 अप्रैल, 1940 को एंटी-पाकिस्तान कॉन्फ्रेंस भी किया। यह खबर हिंदुस्तान टाइम्स अखबार में 27 अप्रैल, 1940 को तथा द सन्डे स्टेट्समैन अखबार में 28 अप्रैल 1940 में छापी गयी थी। डॉ. राम मनोहर लोहिया भी लिखते हैं कि “वैसे मुसलमानों में पिछड़ी जातियाँ आमतौर पर मुस्लिम लीग से अलग ही रही हैं। किसी-किसी अवसर पर राष्ट्रीय आंदोलनों ने पिछड़े मुसलमानों, मोमिनों को प्रोत्साहित करने की नीति को ज़रूर अपनाया, लेकिन यह नीति इतनी दाँव पेंच भरी थी कि संतोषप्रद नतीजे नहीं निकले। यदि सभी पिछड़ी जातियों, हिन्दू और मुसलमानों को जातिप्रथा का नाश करने और बराबरी लाने की नीयत से प्रोत्साहन दिया जाता और यदि राष्ट्रीय आंदोलनों में, कम से कम असहयोग आंदोलन के समय इस नीति पर ढंग से अमल होता तो भारत विभाजन न होता।”[iv]
पाकिस्तान में जातिगत भेदभाव हिन्दू दलित, ईसाई दलित, सिख दलित और मुस्लिम दलित के साथ देखने को मिलता है। इन समुदायों के साथ हो रहे भेदभाव का कारण उनका किसी खास समुदाय में जन्म लेना, ऐसे व्यवसाय जो जीविकोपार्जन के लिए सामाजिक रूप से अशुद्ध माने जाते हैं, आदि शामिल हैं। इन समुदाय के लोगों के साथ कई तरीके के भेदभाव अलग-अलग क्षेत्रो में देखे जा सकते हैं। यह जातिगत भेदभाव दलित समुदायों के प्रति शिक्षा, स्वास्थ्य, रोज़गार, आवासीय ढांचे, राजनीतिक बराबरी, सम्मानजनक जीवन जीने जैसे अधिकारों का हनन करता है।[v]
सन् 1957 में पाकिस्तान के कानून मंत्रालय ने एक शैडयूल्ड कास्ट ऑर्डिनेन्स पारित किया और 42 जातियों को अनुसूचित जाति का दर्जा दिया। इन जातियों में बाजीगर, भंगी, कुच्रिया, मेघ, हलालखोर, नत, ओढ़, पासी, जातिया, पेरना, रामदासी, कलाल, सपेला, सीकरी, सिरकिबंद, खटिक, सोची, बरार, चूरा, धनक, दागी, कोल्ही, हलाल, सांसी, बागरी, वाल्मीकि, दुमना, मेघवार, भील, अद, धर्मी, चमार, चुरा/वाल्मीकि, गागरा, ढेड, बवारियां, बंजारा, गंधीला आदि जातियाँ शामिल हैं। मुख्यतः पाकिस्तान में हिन्दू दलित जातियाँ सिंध की तरफ दक्षिणी पंजाब में पाई जाती हैं। इन जातियों के लोगों के पास जमीनों का मालिकाना हक़ बहुत ही कम है। इसलिए अधिकांश लोग जमींदारों के यहाँ काम करते हैं या बंधुआ मजदूरी करते हैं क्योंकि गरीबी और अशिक्षा के कारण इन जातियों के पास रोज़गार की समस्या है। इसलिए इनको मजबूरन जीविकोपार्जन के लिए जमींदारों के घर बंधुआ मजदूरी और अशुद्ध माने जाने वाले कार्य करने पड़ते है। इसके अतिरिक्त उन्हें अपने ही धर्म में दलितों का दर्जा देकर धार्मिक व सामाजिक रूप से शोषित किया जाना, हिन्दू उच्च जातियों द्वारा अछूतों की तरह व्यवहार, पाकिस्तान में धार्मिक अल्पसंख्यक होना आदि समस्याओं से भी आये दिन सामना करना पड़ता है।[vi]
सार्वजनिक स्थलों पर भी दलितों के साथ भेदभाव देखने को मिलते हैं। उच्च जातियों के कार्यक्रमों में दलितों को आमंत्रित नहीं किया जाता और अगर किया भी जाता है तो उनके खान-पान के बर्तन अलग कर दिए जाते हैं। इतना ही नहीं होटलों, रेस्तरां में भी दलितों के साथ ऐसा ही भेदभाव और व्यवहार किया जाता है। ‘सिंध बाथ मजदूर फेडरेशन’ के अध्यक्ष पुन्हो भील यह बताते हैं कि ‘सोनेरी कप’[vii] निचली जातियों के साथ भेदभाव का एक उदाहरण है। हैदराबाद में ज़्यादातर होटल निम्न जाति के हिन्दुओं को खाना नहीं देते हैं। सिंध में सोनेरी कप, ग्लास, प्लेट (आधा भूरे तथा आधा सफ़ेद रंग का पात्र) में हिन्दू निम्न जातियों को खाना परोसा जाता है, ऐसे ही लाल रंग की गिलास का इस्तेमाल दलितों के लिए किया जाता है। मिथि शहर में दो होटल मेघवर और अन्य दलित जातियों द्वारा खोले गये हैं जहाँ मजदूर और कामगार दलित काम करने के बाद बैठकर जलपान करते हैं और संगीत सुनते हैं। इन होटलों को उच्च जाति के हिन्दुओं और उच्च जाति के मुसलमानों द्वारा भेदभाव का सामना करना पड़ता है क्योंकि वे इन जातियों के होटलों में नहीं आते हैं। पुन्हो भील आगे बताते हैं कि मिथि में दो मंदिर हैं जो कि लोहाना जाति के लोगों के लिए काफी मायने रखते हैं लेकिन निम्न हिन्दू जातियों को उन मंदिरों में जाने की इजाजत नहीं होती है।’[viii]
राजनीतिक दृष्टि से भी देखा जाए तो राजनीतिक दल के लोग भी उच्च जातियों को ही टिकट देते हैं जिसके कारण दलितों की राजनीतिक सत्ता में हिस्सेदारी नगण्य ही है।[ix] ‘पाकिस्तान चुनाव आयोग’ के आंकड़ों के अनुसार थारपारकर सिंध और पाकिस्तान का एकमात्र ऐसा जिला है जहाँ दलित हिन्दू क्षेत्रीय चुनावों में सीधे चुनाव लड़ सकते हैं। अतः मिथि तहसील के जिला चुनावों में पीपीपी से टिकट मिलने पर चेतन मल एक्सप्रेस ट्रिब्यून की खबर में कहते हैं कि, “हमारे इलाके में सिर्फ ठाकुर ही चुनाव जीतते हैं, मैं हमारे मेघवर परिवार का राजनीति में पहला आदमी हूँ।”[x] उनका विरोधी उम्मीदवार सघिर मेघवर भी ऐसी ही कहानी साझा करते हैं। इसीलिए दलित जातियों के नेता और दलित आंदोलनों के कार्यकर्ता क्षेत्रीय समितियों में अपने प्रतिनिधित्व की मांग करते रहते हैं और कहते हैं कि दक्षिणी सिंध में उनकी पूरी जनसंख्या 90 प्रतिशत है।[xi]
दलित आंदोलनों और दलित समुदायों का अपने अधिकारों और मुद्दों को लेकर सचेत होने की वजह से राजनीतिक दलों का भी रुझान दलित जनसंख्या की तरफ गया, जिससे 2018 के सीनेट चुनाव में पीपीपी ने दलित स्त्री कृष्णा कोल्ही[xii] को टिकट दिया और वे चुनाव में जीत भी हासिल की। अतः कृष्णा पहली दलित महिला सीनेटर हैं। कृष्णा के भाई वीरजी कोल्ही भी दलित जातियों की बंधुआ मजदूरी के खिलाफ आन्दोलनों में शामिल रहे हैं और कृष्णा कोल्ही के चुनाव जीतने के कुछ दिन पहले जेल से रिहा भी हो गए थे। कृष्णा कोल्ही स्वयं बहुत गरीबी में पली बढ़ी और उच्च जाति के जमींदारों के यहाँ बंधुआ मजदुर करती थीं। कृष्णा कोल्ही कहती हैं कि वो भागने में सफल हुई और मेहनत मजदूरी करके जिन्दगी बिताई। कृष्णा कोल्ही ने समाजशास्त्र में एम ए की डिग्री भी हासिल की हैं।
ऑल पाकिस्तान शेड्यूल्ड कास्ट हिन्दू कांफ्रेंस के दौरान भी यह माँग की गई कि दलित अल्पसंख्यकों के घरों को बनाने के लिए सरकार को जमीन देनी चाहिए। हिन्दू, खासकर दलित जिसमें भील, मेघवर, कोल्ही आदि जातियां शामिल हैं, 0.5 मिलियन की संख्या में हैं। ‘शेड्यूल्ड कास्ट राईट मूवमेंट पाकिस्तान’ के अध्यक्ष रमेश जयपाल ‘एक्सप्रेस ट्रिब्यून’ से बातचीत में कहते हैं कि “हमें पहले से ही धार्मिक असहिष्णुता, अपहरण, जबरदस्ती धर्म-परिवर्तन झेलना पड़ता है, इन सब से ऊपर हम भूमिहीन हैं।” अतः ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो के समय में बस्तियों में प्रमाण-पत्र बांटे गये थे लेकिन वो उन्हीं लोगों तक सीमित रह गये जो शहरी इलाकों में थे, जो दूर थे उन्हें कुछ नहीं मिला। जमीनों के आवंटन के प्रमाण-पत्र परवेज मुशर्रफ के समय भी बांटे गये थे। 6 दिसम्बर, 2013 को पंजाब असेम्बली में ओनरशिप अधिकारों की मांग को लेकर भी विरोध प्रदर्शन हुए और मुख्यमंत्री शाहबाज शरीफ ने 426,000 परिवारों को भूमि आवंटित करने की घोषणा भी की, लेकिन दलितों को फिर भी कुछ नहीं मिला। इसी संदर्भ में अंजुमन-ए-मुज़रीक के अध्यक्ष डॉक्टर क्रिस्टोफर कहते हैं कि “ हम ओनरशिप अधिकार के लिए पिछले 14 वर्षों से संघर्ष कर रहे हैं, लेकिन सब बेकार है। पाकिस्तान के कृषि उत्पादन में हमारा बहुत बड़ा योगदान है, लेकिन हम भूमिहीन हैं और यहाँ तक कि जिन जमीनों पर हम फसलें उगाते हैं वहां भी हमारा कोई अधिकार नहीं हैं। सभी जमींदार, सामंत और सरकारी विभाग उनका शोषण करते हैं।”
डॉ. नजीर एस. भट्टी द्वारा सम्पादित पाकिस्तान क्रिश्चियन पोस्ट 2001 में स्थापित की गयी थी। इसकी वेबसाइट पर यह बताया गया है कि इसके पहले पाकिस्तानी इसाईयों का कोई भी दैनिक अखबार या ऑनलाइन समाचार का साधन नहीं था। इसका मुख्य उद्देश्य बीस लाख पाकिस्तानी इसाईयों के मूलभूत अधिकारों के लिए आवाज उठाना और पाकिस्तान के संघ में उनके संवैधानिक हिस्से के संसाधनों को सुरक्षित करना है। इसी वेबसाइट पर छपे चंदर कुमार कोली अपने लेख में लिखते हैं कि “पाकिस्तान के 5 प्रान्तों में दलितों की संख्या सिंध पंजाब, बलूचिस्तान, खैबर पख्तून एवं गिलगिट बलिस्तान में क्रमशः अधिक है। सिंध में दलित डेवलपमेंट प्रोगाम द्वारा की गई कई जांचो से यह पता चलता है कि दलितों की क्या-क्या समस्याएं हैं। जातिगत भेदभाव, शिक्षा की कमी, स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी, कंप्यूटर और तकनीकी कौशल की कमी, पानी की कमी, बेरोज़गारी, काम और वेतन की कमी, नौकर की तरह या जेल जैसी जिन्दगी, बाल श्रम और बाल विवाह आदि जैसी समस्याओं से दलितों को रोजमर्रा की जिन्दगी में सामना करना पड़ता है। वह आगे बताते हैं कि जातिगत भेदभाव की मुख्य समस्या बदिन, उमरकोट, संघर, थट्टा और थारपारकर में पायी जाती है। इन जगहों पर एक दलित को होटल या रेस्टोरेंट में प्रवेश भी करने नहीं दिया जाता। पहले उनसे पूछा जाता है कि वे कहाँ जा रहे हैं और वे कौन हैं? अतः जाति पता चलते ही उनका प्रवेश वर्जित है या प्रवेश है भी तो उनके बर्तन अलग होते हैं जिसका किसी भी व्यक्ति की सकारात्मक जिन्दगी पर नकारात्मक असर पड़ता है जिससे मन में एक गहरी पीड़ा और टीस उभर जाती है।[xiii]
चंदर कोल्ही के अनुसार, “मिथि में कुछ ही निजी विद्यालय हैं जिसमें दलित छात्रों का प्रवेश वर्जित है लेकिन यह स्पष्तः न दिखकर अप्रत्यक्ष रूप में दिखता है। क्योंकि विद्यालय में सीट न होने का बहाना देकर दलितों को प्रवेश नहीं देते हैं लेकिन उसी जगह ब्राह्मण व उच्च जाति के लड़कों को प्रवेश दे दिया जाता है। ऐसा ही कम्प्यूटर सेण्टर और अंग्रेजी भाषा सीखाने जैसे केन्द्रों में भी होता है। मिथि के थारपकर में कुछ ऐसे अंग्रेजी और कंप्यूटर भाषा के केंद्र भी हैं जहां केवल उच्च जाति के परिवार के छात्रों को ही प्रवेश के लिए उत्तरदायी माना जाता है लेकिन किसी भी दलित छात्र को जो भले ही शिक्षित परिवार से संबंधित क्यों न हो उसे प्रवेश नहीं दिया जाता है। जिले में इसी तरह बादीन दलित बच्चों को भी शिक्षा के क्षेत्र में अपने मकान मालिकों द्वारा आलोचना का सामना करना पड़ता है। वे सरकारी स्कूलों में भी प्रवेश पाने के लिए असहाय होते हैं। क्योंकि गांवों में कई सरकारी स्कूल मकान मालिकों के पास हैं कभी-कभी जमींदारों द्वारा स्पष्टतः यह कहा जाता है कि जाकर खेतों में काम करो, अगर विद्यालयों में तुम्हें प्रवेश दे दिया तो उनके पूर्वजों की ज़मीनों की देखभाल कौन करेगा?[xiv]
जातिगत भेदभाव के कारण ही दलित समाज अपने परिवारों के साथ दिन-रात मजदूरी करने के लिए बाध्य रहते हैं। वह रोजमर्रा की जिंदगी की खाद्य वस्तुओं का भी खर्च वहन नहीं कर पाते हैं जिसकी वजह से उन्हें अपने छोटे बच्चों से भी मजदूरी करवाने के लिए बाध्य होना पड़ता है ताकि वह सक्षम हो सकें और अपने माता-पिता की आमदनी का नेतृत्व कर सकें, क्योंकि उनके माता-पिता जमींदारों के कर्जदार रहते हैं। सिंध के कई अन्य क्षेत्रों में खासकर कृषि क्षेत्रों में काम करने वाले किसान इतने गरीब और अशिक्षित होते हैं कि अधिक मजदूरी करने पर भी ज़मींदारों द्वारा वह अपने वार्षिक लाभ और हानि में लगभग छले ही जाते हैं।
जैसा कि सिंध के 70% समुदाय कृषि पर ही निर्भर होते हैं इसलिए अधिकतर किसानों में अपने बच्चों को शिक्षित और जागरूक करने की इच्छा तो होती है लेकिन वे असहाय होते हैं क्योंकि अधिक मेहनत और मजदूरी करने वालों किसानों को जमींदार अपने यहाँ बंधुआ मजदूर बनाकर रखने की कोशिश करते हैं जिसके कारण किसान खानाबदोशों की तरह एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाना पड़ता है जिसके कारण उनके बच्चे शिक्षा से वंचित हो जाते हैं। इन समस्याओं का विश्लेषण करते हुए दलित समुदाय के वरिष्ठ विश्लेषक कहते हैं कि ‘थारपकार में सूखे की स्थिति के कारण कुल आबादी का 42% से अधिक भोजन की तलाश में अपने आवास/ स्थान छोड़ देते हैं जो एक बड़ा अनुपात है और यह दुनिया के किसी अन्य क्षेत्र में नहीं मिलता है।’[xv] चंदर कोल्ही ने भी लिखा है कि ‘निस्संदेह तमाम सक्रिय सामाजिक संगठन दलितों के बेहतर भविष्य के सुधार के लिए काम कर रहे हैं, लेकिन कई वास्तविक समस्याओं को संगठनों द्वारा नहीं देखा गया है, क्योंकि कई अन्य समस्याओं की जांच तब की जा सकती है जब हम दलित इलाके या संबंधित क्षेत्र की वास्तविकता से रूबरू होंगे।’
चंदर कोल्ही ने अपने लेख में बताया है कि जहाँ दलित बहुमत में रहते हैं वहाँ स्वास्थ्य सुविधा हाशिये पर हैं। उन्होंने दो जिलों उमरकोट और थारपाकर का उदाहरण दिया है। इस क्षेत्र में जोगी, कोली, भील, ओध, कलाल, बरार, बागरी, संसी, ढेद, मेनघवार, मेघवार आदि दलित बहुमत में हैं। खराब स्वास्थ्य सुविधाओं के कारण यहाँ कई महिलाएं गर्भावस्था के दौरान अपने बच्चों को जन्म देते वक़्त मर जाती हैं। जिसके कारण छोटे बच्चे अनाथ हो जाते हैं और उनकी देखभाल की जिम्मेदारी भी कोई नहीं लेता है। थारपारकर जिले में 6 से अधिक लाख दलित निवास करते हैं, लेकिन यहाँ केवल एक सिविल अस्पताल है जो मिथि में है। साँप के काटने, पेट संबंधी समस्या, परिशिष्ट, गर्भावस्था आदि के अतिरिक्त लगभग सभी मामलों को स्थानांतरित कर दिया जाता है और फिर वहाँ से ये मामले अन्य उप-मंडल और फिर मीरपुरखास और हैदराबाद में स्थानांतरित किए जाते हैं। पाकिस्तान में दलितों को सबसे गरीब समुदाय के रूप में जाना जाता है। वे दिन-रात मेहनत-मजदूरी करते हैं तब कहीं जाकर एक वक्त का भोजन जुटा पाते हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य, भोजन, रोज़गार आदि जैसी मूलभूत आवश्यकताओं से वंचित आपातकालीन स्थिति के लिए दलित समुदाय के इस विशाल समूह के लिए केवल एक ही रक्त बैंक है जो गरीब दलित या अन्य गरीब लोगों को रक्त प्रदान करने के लिए बेहद कम क्षमता वाला है। मरीजों के लिए बिस्तर भी कम हैं और उन मरीजों के परिचायकों के लिए कोई सुविधा नहीं होती है जो उनके साथ आते हैं और वहां सोते हैं। कई बीमारियों के परीक्षण के लिए तकनीकी मशीन भी उपलब्ध नहीं हैं। अगर कोई जांच करानी होती है तो कई लोगों को मीरपुरखास या हैदराबाद जैसे किसी अन्य जिले में जाना पड़ता है जहां ये परीक्षण मशीन उपलब्ध हैं।”[xvi]
निष्कर्ष: पाकिस्तान में दलितों के साथ हुए जातिगत भेदभाव का अवलोकन करने पर यह स्पष्ट होता है कि दलितों की पहचान धार्मिक और सामाजिक रूप से निर्मित की गई थी। एक लंबी प्रताड़ना और भेदभाव का इतिहास होने के कारण दलित और पिछड़ी जातियों की बहुत सारी इच्छाएं जैसे- स्वतंत्रता के विचार, पढ़ने-लिखने की आजादी, समाज में बराबरी से जीने का अधिकार, गरिमामय जीवन, आवास का स्थान चुनने की स्वतंत्रता आदि जैसे तमाम भावनाओं और विचारों का दमन हुआ है और लगातार इन विचारों को दबाया गया। जनगणनाओं में दिए गये सभी जातियों में साक्षरता अनुपात, सभी जातियों के पास उपलब्ध संसाधन आदि के आंकड़ों की पड़ताल करने पर पता चलता है कि ज्यादातर संसाधनों पर उच्च जातियों का ही प्रभुत्त्व रहा है और ‘अन्य’ की श्रेणी में रखे गये दलित, अछूत कहे जाने वाली जातियों के पास संसाधनों की पहुँच न के बराबर है। 1881 की जनगणना में सभी जातियों में पढ़ने-लिखने का एक आँकड़ा दिया गया था जिसमें यह देखा गया कि अन्य की श्रेणी में रखी गई जातियों का आँकड़ा पढ़ने-लिखने के क्षेत्र में एकदम नगण्य है। आंकड़ों के माध्यम से ही यह भी समझा जा सकता है कि कुछ उच्च जातियां जैसे शेख, ब्राह्मण, सैय्यद में ही कुछ महिलाओं के पढ़ने का प्रतिशत दिखाई देता है, जबकि दलित महिलाओं की शैक्षणिक स्थिति बेहद ख़राब दिखाई देती है। किन्तु वर्तमान में अपने अधिकारों के प्रति दलितों के भीतर जो जागरूकता दिखाई देती है उससे प्रतीत होता है कि पाकिस्तान में शोषण और गैरबराबरी पर आधारित सामाजिक व्यवस्था के प्रति बदलाव अवश्य होंगे।
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-41, अप्रैल-जून 2022 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक एवं जितेन्द्र यादव, चित्रांकन : सत्या सार्थ (पटना)
Kitne sarm ki bat hai ki pakistan me bhi farwad log dalito ko untouchable karte haj
जवाब देंहटाएंनीची जातियों में खटिक का नाम क्यू जोड़ दिया।।।। खटिक खुद sc st की जातियों से भेदभाव करते हे।।।।
हटाएंमें पाकिस्तान का हिंदू खटिक हु सिंध प्रांत में रहता हु।।। यहां खटिक ऊंचे होते हे।।।।। यहां खटिक भी भेदभाव करते हे दलितों से
हटाएंखटिक खुद sc st की जातियों से भेदभाव करते हे
जवाब देंहटाएंपाकिस्तान जैसे इस्लामिक देश में भी हिंदुओं का जातिगत भेदभाव, अस्पृश्यता, बधुआ , मूलभूत बुनियादी सुविधाओं जैसे स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार व सम्मानपूर्ण जीवन जीने की विवशता...... I आश्चर्य तो यह है कि जो इस्लाम छुआछुत भेदभाव आदि नहीं मानता फिर मुस्लिम लोग भी दलितों के साथ छुआछुत व भदभाव करते हैं । अत्यंत शर्मनाक व दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति । पाकिस्तानी शासन तथा हिन्दु के अन्य जातियो को सकारात्मक पहल कर सुधारात्मक प्रयास करने चाहिए ।
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