- प्रो. संजय कुमार
फणीश्वरनाथ रेणु हिंदी के बड़े कथाकारों में से एक हैं। इन्होंने अपनी विशिष्ट कथा लेखन शैली से हिंदी कथा साहित्य को एक नया अभिधान दिया है जिसे आंचलिक कथा कहते हैं। हिंदी के आंचलिक कथाकारों में इनका नाम अप्रतिम है। इन्होंने अपने उपन्यास- ‘मैला आंचल’ और कहानी- ‘‘तीसरी कसम, अर्थात् मारे गए गुलफाम’, ‘रसप्रिया’, ‘लालपान की बेगम’, ‘पंचलाइट’ आदि के माध्यम से उत्तर बिहार के मिथिलांचल क्षेत्र के जीवन, जगत, दृश्यों और भावों से हिंदी जगत को परिचित कराया। ये उपन्यास और कहानियाँ अलग-अलग भावों और दृश्यों को आधार बनाकर लिखी गई हैं पर यदि इन सब का अध्ययन एक साथ किया जाए तो ऐसा लगता है कि ये सभी उपन्यास और कहानियाँ मिथिलांचल के ही अलग-अलग दृश्यों, जीवनानुभूतियों, राग और द्वेषों को अभिव्यक्त प्रदान करती हैं और एक साथ मिलकर संपूर्ण मिथिलांचल का व्यापक और संपूर्ण चित्र प्रस्तुत करती हैं। रेणु की महत्ता संपूर्ण मिथिलांचल के फीके और गढ़े, सफेद और स्याह रंगों और रेखाओं को बारीकी से प्रस्तुत करने में है। रेणु भी प्रेमचंद की तरह ही ग्रामीण जीवन को अपने कथा का आधार बनाते हैं परंतु ग्रामीण जीवन को देखने और प्रस्तुत करने की उनकी दृष्टि प्रेमचंद से नितांत भिन्न है। रेणु साहित्य के मर्मज्ञ विद्वान और संपादक भारत यायावर प्रेमचंद से रेणु की भिन्नता को उद्घाटित करते हुए रेणु रचनावली के संपादकीय में स्पष्ट रूप से लिखते हैं कि- “रेणु प्रेमचंद के बाद ग्रामीण जीवन के सबसे प्रमुख कथाकार हैं। इनकी प्रमुखता का सबसे बड़ा कारण है- ग्रामीण जीवन को अपने कथा-क्षेत्र का आधार बनाते हुए भी प्रेमचंद के कथा-शिल्प से अपने को विलगाना। जबकि उनकी पीढ़ी के अन्य कथाकार, जो ग्राम-केंद्रित कहानियाँ लिख रहे थे, प्रेमचंद के नक्शे-कदम पर चले। पर रेणु की कहानियाँ आज भी अलग ही अंदाज दिखाती हैं। इसका कारण क्या है? प्रेमचंद और रेणु दोनों के पात्र निम्नवर्गीय हरिजन, किसान, लोहार, बढ़ई, चर्मकार, कर्मकार आदि हैं। दोनों कथाकारों ने साधारण पात्रों की जीवन-कथा की रचना की है, पर दोनों के कथा-विन्यास, रचना-दृष्टि और ‘ट्रीटमेंट’ में बहुत फर्क है। प्रेमचंद की अधिकांश कहानियों में इन उपेक्षित और उत्पीड़ित पात्रों का आर्थिक शोषण या उनकी सामंती और महाजनी व्यवस्था के फंदे में पड़ी हुई दारुण स्थिति का चित्रण है, जबकि रेणु ने इन सताये हुए शोषित पात्रों की सांस्कृतिक संपन्नता, मन की कोमलता और रागात्मक तथा कलाकारोचित प्रतिभा का मार्मिक चित्र प्रस्तुत किया है।”1
रेणु के लिए कथा साहित्य का सृजन ‘अपने को अर्थात् आदमी को’ तलाश करने का माध्यम था। रेणु के कथा साहित्य को समझने में रेणु का यह आत्म-कथ्य ध्यान देने योग है,
जिसे उद्धृत करते हुए भारत यायावर रेणु रचनावली के संपादकीय में रेणु की विशेषताओं को रेखांकित करते हैं- “अपनी कहानियों में मैं अपने को ही ढूँढता फिरता हूँ : अपने को अर्थात् आदमी को !... अर्थात् रेणु के कथाकार ने जो इतने पात्रों से, इतनी जीवन-स्थितियों से परिचित कराया है- दरअसल उसकी पूरी कोशिश ‘आदमी’ की तलाश के तहत है और इसी में उसके ‘कथाकार होने’ की सार्थकता है। अपने पात्रों में स्वयं को खोजना अपनी पूर्णता की तलाश है, साथ ही समाज के हर अंग में स्वयं को समाहित करना भी। ... पर यहाँ देखना यह है कि वह ‘आदमी’ कौन है, जिसमें रेणु अपने-आप को तलाश करते हैं या जिसके जीवन के चित्रण में अपने जीवन की सार्थकता पाते हैं? – पंचकौड़ी मृदंगिया (‘रसप्रिय’)- जो नाच-गाना सिखाकर अपना पेट पालता है, बुढ़ापे में जिसकी बोली ‘फटी भाँथी’ की तरह हो गई है; हिरामन (‘तीसरी कसम’)- काला-कलूटा, चालीस-साला गाड़ीवान- प्रेम से परिप्लावित, भोला-भाला; हीराबाई- मेले में नचानेवाली पतुरिया, पर निश्छल, कोमल; सिरचन (‘ठेस’)- खाने-खाने को मोहताज पर अक्खड़, स्वाभिमानी कलाकार; बिरजू की माँ (‘लालपान की बेगम’)- ‘सर्व सेटलमेंट’ से प्राप्त थोड़ी सी धनहर जमीन पर ही ‘लालपान की बेगम’ की तरह दीखती; हरगोबिन संवदिया- मानवीय संवेदना से ओतप्रोत भावुक प्राणी; रात-भर मिट्टी की गंध से मदमाता करमा (‘आदिम रात्रि की महक’); गाँव की संकीर्ण वर्णवादिता व आपसी ईर्ष्या-द्वेष को रोकने की खातिर अपने को बलिदान कर देने वाला, ‘एकता चलो रे’ के दर्शन को माननेवाला किशन महाराज... सांप्रदायिकता के खिलाफ संघर्ष करती फातिमादि! – हजारों पात्र !- यही वे ‘आदमी’ हैं, व्यवस्था के द्वारा सताये हुए, उपेक्षित, दलित, पर बेहद मानवीय, जमीन से जुड़े हुए, सांस्कृतिक संपदा से संपन्न, प्रेम और राग में पगे हुए लोग !... जिनके जीवन से एकाकार होकर रेणु ने ये कहानियाँ लिखी हैं। या कहें उनके अपार पात्रों से ही निर्मित है रेणु का कथाकार।”2
रेणु इसी प्रकार के ‘उपेक्षित, दलित, पर बेहद मानवीय, जमीन से जुड़े हुए, सांस्कृतिक संपदा से संपन्न, प्रेम और राग में पगे हुए लोग’ को अपने कथा संसार का केंद्र बनाते हैं और उनके सुख-दुख, जीवन-मरण, जय-पराजय, हास्य-रुदन, राग-द्वेष का मार्मिक चित्रण अपने कथा साहित्य में करते हैं। ‘तीसरी कसम, अर्थात् मारे गए गुलफाम’ रेणु की एक प्रतिनिधि कहानी है जिसका लेखन उन्होंने 1956 में किया था। और उसका प्रकाशन 1957 में पटना से निकलने वाली पत्रिका ‘अपरंपरा’ में हुआ जिसे बाद में ‘ठुमरी’ नामक कथा संग्रह में संकलित और प्रकाशित किया गया। आगे चलकर शैलेंद्र ने इस कहानी पर ‘तीसरी कसम’ नामक फिल्म (1966 ई. में) बनाई।3 इस कहानी का नायक सीधा सादा देहाती नौजवान हिरामन है जो बैलगाड़ी चलाता है। वह चालीस साल का हट्टा-कट्टा, काला-कलूटा, देहाती नौजवान है जो अपनी गाड़ी और अपने बैलों के सिवाय दुनिया की किसी और बात में विशेष दिलचस्पी नहीं लेता है।4 वह एक विधुर है जिसकी पत्नी पाँच वर्ष की उम्र में ही काल के गाल में समा गयी थी। और उसकी भाभी अभी तक उसकी दूसरी शादी नहीं होने देती है।
प्रेम एक शाश्वत भाव है जिसके प्रभाव से कोई भी जीव अछूता नहीं है। आदिकाल से ही वह साहित्य और अन्य कला माध्यमों का विशेष रूप से उपजीव्य रहा है। रेणु ग्रामीण जीवन के सशक्त चितेरे हैं। गाँव देहात के साधारण लोगों के मन में भी प्रेम की उमंगे हिलोरें मारती हैं। रेणु मिथिलांचल के साधारण लोगों के मन में उठने वाले प्रेम की तरंगों की मार्मिक अभिव्यक्ति अपनी कहानियों में करते हैं। ‘तीसरी कसम,
अर्थात् मारे गए गुलफाम’ इसका स्पष्ट उदाहरण है। ‘तीसरी कसम’ का नायक नौजवान विधुर गाड़ीवान हिरामन है। कहानी की शुरुआत ही नायक हिरामन की नौटंकी कंपनी की एक बाई– हीराबाई (नायिका) से मुलाकात से होती है जिसे गाड़ीवान हिरामन को चंपानगर मेले से फारबिसगंज में लगने वाले मेले में पहुंचाना था। कंपनी का बक्सा ढोने वाला एक नौकर हिरामन से फारबिसगंज के मेले में पहुँचाने का भाड़ा तय कर और हीरा बाई को उसकी बैलगाड़ी में बैठाकर रात के अंधेरे में गायब हो जाता है। पहले तो एक अकेली औरत- हीराबाई को देखकर हिरामन को डर लगता है। उसे लगता है कि पता नहीं वह कौन है- “हिरामन को सब कुछ रहस्यमय अजगुत–अजगुत लग रहा है। ... कहीं डाकिन –पिशाचिन तो नहीं।”5 क्योंकि जब से हीराबाई बैलगाड़ी में बैठी है तब से गाड़ी में चंपा फूल की सुगंध फैल गई है। हिरामन को समझ में नहीं आ रहा है कि “औरत है या चंपा का फूल! जब से गाड़ी में बैठी है, गाड़ी मह मह महक रही है।”6 हिरामन के पीठ में लगातार एक अनजानी गुदगुदी हो रही है। वह अपने मनोभाव और आंखों पर नियंत्रण नहीं कर पाता है। वह पीछे मुड़कर अपनी सवारी पर एक नजर डालता है- “हिरामन की सवारी ने करवट ली। चांदनी पूरे मुखड़े पर पड़ी तो हिरामन चीखते चीखते रुक गया- अरे बाप! ई तो परी है!”7
आगे चलकर उस खूबसूरत परी से उसका परिचय होता है और दोनों में बातचीत प्रारंभ होती है। हीराबाई हिरामन के नाम को जानकर उसे मीता (मित्र या दोस्त) कहने लगती है- “तब तो मीता कहूँगी, भैया नहीं- मेरा नाम भी हीरा है।”8 बातचीत के क्रम में अकेले जवान हिरामन के मन में प्रेम एवं राग की अनजानी रागिनी बजने लगती है- “हिरामन ने आंख की कनखियों से देखा, उसकी सवारी... मीता... हीराबाई की आंखें गुजुर गुजुर उसको हेर रही हैं। हिरामन के मन में कोई अजानी रागिनी बज उठी। सारी देह सिर सिरा रही है।”9
इसलिए अब वह दूसरे गाड़ीवालों के पूछने पर झूठ बोलने लगता है। वह अपनी सवारी और उसके गंतव्य स्थान के बारे में लोगों को गलत सूचनाएं देने लगता है। दिन होने पर वह बैलगाड़ी में पर्दा लगा देता है। भीड़ भाड़ वाली सड़क को छोड़कर लंबे एकांत रास्ते से जाने का निश्चय करता है ताकि उसकी यात्रा में कोई बाधा उत्पन्न ना हो। किसी के ज्यादा पूछताछ करने पर वह खीझ जाता है- “इस मुलूक के लोगों की यही आदत बुरी है। राह चलते एक सौ जिरह करेंगे। अरे भाई,
तुमको जाना है जाओ।... देहाती भुच्च सब!”10 हिरामन अब दुनिया भर की निगाहों से हीराबाई को बचाकर रखना चाहता है। इसलिए दोपहर में जब वह तेगछिया के बाग में विश्राम करने के लिए रुकता है तो वहाँ पहले से एक साइकिल सवार बैठकर सुस्ता रहा होता है। हिरामन उसे भगाने के लिए एक चाल चलता है। वह उसकी जवानी को धिक्कारते हुए उसपर व्यंग करता है- “कहाँ जाना है? मेला? कहाँ से आना हो रहा है? बिसनपुर से? बस इतनी ही दूर में थस थसाकर थक गए? ... जा रे जवानी।”11 साइकिल वाला दुबला पतला नौजवान मीन मीनाकर कुछ बोलता है और बीड़ी सुलगाकर उठकर चल देता है। हिरामन यही तो चाहता था कि वह नौजवान वहाँ से चला जाए और वह अकेले हीरा बाई के साथ वहाँ विश्राम करे।
अब निश्चिंत होकर हिरामन भरी दुपहरी की चिलचिलाती धूप में पास के गाँव में जाता है और नहा धोकर खाने के लिए दही,
चूड़ा, चीनी और पीने का पानी लेकर आता है। वह सोती हुई हीराबाई को जगाता है और उससे अनुरोध करता है कि वे कुछ जलपान कर ले। हीराबाई जब उसे भी साथ में खाने को कहती है तो उसका दिल बल्लियाँ उछालने लगता है। उसे लगता है कि देवी-देवता आज उस पर सहाय हैं- “हिरामन का जी जुड़ा गया। हीराबाई ने अपने हाथों से उसका पत्तल बिछा दिया, पानी छींट दिया, चूड़ा निकालकर दिया।- इस्स! धन्न है, धन्न है! हिरामन ने देखा- भगवती मैया भोग लगा रही है।”12 फारबिसगंज की पूरी यात्रा के दौरान हिरामन को अलग-अलग प्रकार की अनुभूति होती रही। पीठ के अलावा उसके दिल दिमाग में भी लगातार गुदगुदी होती रही। आह्लादित होकर उसका मन सपने देखने लगता है। सड़क तेगछिया गाँव के बीच से गुजरती है। जब गाँव के बच्चे हिरामन के पर्दे वाली गाड़ी को देखते हैं तो वे तालियाँ बजा बजाकर गाने लगते हैं-
“लाली-लाली डोलिया में / लाली रे दुलहिनिया / पान खाए! / हिरामन हंसा। ... दुलहिनिया... लाली लाली डोलिया! दुलहिनिया पान खाती है; दुलहा की पगड़ी में मुंह पोंछती है। ओ दुलहिनिया, तेगछिया गाँव के बच्चों को याद रखना। लौटती बेर गुड़ का लड्डू लेती आइयो। लाख बरिस तेरा दुलहा जिये! कितने दिनों का हौसला पूरा हुआ है हिरामन का! ऐसे कितने सपने देखे हैं उसने!... वह अपनी दुलहिन को लेकर लौट रहा है। हर गाँव के बच्चे तालियाँ बजाकर गा रहे हैं। हर आँगन से झांक कर देख रही हैं औरतें। मर्द लोग पूछते हैं कहाँ की गाड़ी है, कहाँ जाएगी? उसकी दुलहिन डोली का पर्दा सरका कर देखती है। और भी कितने सपने...”13
अब हिरामन का मन अपने और हीराबाई के विवाह और साथ रहने के सपने दिन में ही देखने लगता है। आह्लाद की इस अवस्था में उसका मन रह रह कर गुनगुनाने लगता है-
अरे, चिठिया हो तो सब कोई बांचे; चिठिया हो तो
हाय! करमवा, हाय करमवा...
कोई न बांचे हमारो, सजनवा... हो करमवा...”14
“सजन रे झूठ मति बोलो, खुदा के पास जाना है!
नहीं हाथी, नहीं घोड़ा, नहीं गाड़ी-
वहाँ पैदल ही जाना है। सजन रे!...”15
गाता है। उसके मधुर गीत को सुनकर हीराबाई उसकी प्रशंसा करती है। हीराबाई की प्रशंसा सुनकर वह लाज से लाल हो जाता है। जब हीराबाई उससे अपनी बोली में कोई गीत सुनाने का अनुरोध करती हैं तो वह अपना प्रिय गीत ‘महुआ घटवारिन’ का गीत सुनाने का फैसला करता है। वह कहता है- “अच्छा, जब आपको इतना सौख है तो सुनिए महुआ घटवारिन का गीत। इसमें गीत भी है, कथा भी है। ... कितने दिनों के बाद भगवती ने यह हौसला भी पूरा कर दिया। जय भगवती! आज हिरामन अपने मन को खलास कर लेगा। वह हीराबाई की थमी हुई मुस्कुराहट को देखता रहा।”16 और हिरामन महुआ घटवारिन का गीत गाने लगा। किस तरह महुआ घटवारिन की सौतेली मां उसे सताती है और नशेबाज पिता महुआ का ध्यान नहीं रखता है। महुआ की सौतेली मां उसके जवान होने पर उसे एक सौदागर को बेच देती है। सौदागर उसे अपने पानी के जहाज पर जबरदस्ती चढ़ा लेता है और अपने साथ लेकर चल देता है। उससे बचने के लिए महुआ नदी की बीच धार में कूद जाती है। सौदागर का एक नौकर, जो महुआ को पहली बार देखते ही उस पर मोहित हो गया था, भी उसे बचाने के लिए पानी में कूद जाता है। वह महुआ को कहता है कि तुम रुक जाओ, मैं तुम्हें पकड़ने नहीं आ रहा हूँ। मैं तुम्हारा साथी हूँ। जिंदगी भर हम लोग साथ रहेंगे। लेकिन महुआ को विश्वास नहीं होता है। वह आगे निकल जाती है और वह नौकर तैरते तैरते थक जाता है। ... इस दुख भरी कथागीत को सुनाते सुनाते हिरामन भावविभोर हो जाता है। उसकी आंखों से सावन भादो की नदी बहने लगती है। उसको लगता है कि वह खुद सौदागर का नौकर है। उसका मन खुद कल्पना करने लगता है कि हीराबाई महुआ है और वह सौदागर का नौकर है। उसे लगने लगता है कि इस बार ‘महुआ घटवारिन’ की कथा का अंत दुखांत नहीं बल्कि सुखांत होगा- “इस बार लगता है, महुआ ने अपने को पकड़ा दिया। खुद ही पकड़ में आ गई। उसने महुआ को छू लिया है, पा लिया है, उसकी थकान दूर हो गई है। पंद्रह बीस साल तक उमड़ी हुई नदी की उलटी धार में तैरते हुए उसके मन को किनारा मिल गया है। आनंद के आँसू कोई रोक नहीं मानते।...”17 सुखांत अंत और अपने और हीराबाई के साथ की कल्पना कर हिरामन खुशी से रोने लगता है।
यहाँ एक बात ध्यान रखने की है कि एक तरफ रेणु इस कहानी में हिरामन को इन गीतों को गाते दिखाकर उसके मन में उठने वाले कोमल एवं मधुर भावों की तरंगों को अभिव्यक्ति प्रदान करते हैं तो दूसरी ओर वे मिथिलांचल के ग्रामीण जीवन में लोक गीत,
लोक संगीत एवं लोक कला की गहन व्याप्ति और उसके प्रति लोगों के मोह एवं आकर्षण को भी रेखांकित करते हैं। रेणु के संपूर्ण कथा साहित्य में इसकी बानगी कई स्थानों पर देखने को मिलती है।
लेकिन कोई भी यात्रा अनंत काल तक तो चलती नहीं रह सकती है। कभी न कभी उसकी भी मंजिल आती है। हिरामन और हीराबाई की फारबिसगंज की यात्रा का भी अंत होता है। वे दोनों रात में फारबिसगंज मेला पहुंच जाते हैं और उनके सुखद यात्रा का अंत हो जाता है। रौता नौटंकी कंपनी में जाने से पहले हीराबाई हिरामन को भाड़ा के अलावा उचित पुरस्कार भी देती है और कंपनी में नाच देखने आने का निमंत्रण भी देती है। हिरामन आज तक कभी भी मेले में किसी का नाच देखने नहीं गया था। पर इस बार वह अपने दिल के हाथों मजबूर होकर अपना बनाया हुआ नियम तोड़ता है और अपने साथियों के साथ दूसरे दिन नाच देखने पहुँच जाता है। पर नाच देखने जाने से पहले वह अपने गाँव के सभी साथी गाड़ीवानों से यह वादा करवाता है कि वे गाँव में किसी को इस बात की भनक नहीं लगने देंगे। सभी के यह वादा करने पर ही वह नाच देखने जाता है। कंपनी में जाकर वह हीराबाई से मिलता है। हीराबाई भी उसे पहचान कर उसका स्वागत करती है और अपने दरबानों और पहरेदारों को यह कह देती है कि यह मेरा आदमी है। इसलिए कोई इसे आने और नाच देखने से न रोके। वह हिरामन को पाँच अठनीया पास भी दिला देती है ताकि नाच देखने में उसे और उसके साथियों को कोई ना रोके।
पहले दिन ही नाच देखते हुए दूसरे दर्शक हीराबाई को पतुरिया और रंडी कहकर संबोधित करते हैं जिससे हिरामन नाराज हो जाता है और उन दर्शकों से लड़ पड़ता है। हिरामन और उसके साथी गाड़ीवान दूसरे दर्शकों को मारने लगते हैं। इस पर दरबान और पुलिस वाले उन्हें पकड़ लेते हैं। पर हीराबाई का आदमी जान कर वे उन्हें सबसे आगे ले जाकर एक रुपये वाले दरजे में कुर्सी पर बैठा देते हैं। हिरामन अब रोज दिन में भाड़ा कमाता है और रात्रि में हीराबाई का नाच देखने जाता है। हिरामन को हीराबाई साक्षात सरस्वती की प्रतिमूर्ति और अपने सपनों की रानी लगती है जिसे देखकर उसका दिल बाग बाग हो जाता है और उसके ठूँठ मन में प्रेम की हरी कोंपलें उगने लगती हैं। उसकी सारी दुनिया प्रेम के रंग में रंगीन हो जाती है।
हिरामन को हीराबाई पर इतना विश्वास हो जाता है कि वह मेले की अपनी संपूर्ण कमाई एक थैली में डालकर हीराबाई को रखने के लिए दे देता है। लेकिन कुछ ही दिनों के बाद हीराबाई अपनी नई रौता कंपनी को छोड़कर पुरानी मथुरामोहन कंपनी में लौटने का निर्णय करती है। वह हिरामन के साथी के द्वारा हिरामन को रेलवे स्टेशन पर आकर मिलने का संदेश भिजवाती है। हिरामन जल्दी से जाकर हीराबाई से मिलता है। हीराबाई उसकी कमाई के जमा किए गए पैसों की थैली उसे लौटा देती है और फिर उसे मिलने के लिए बनैली मेला में आने को कहती है। गाड़ी आने पर हीराबाई चली जाती है। हिरामन का दिल टूट जाता है। वह पूरी तरह से निराश हो जाता है।
हीराबाई के अचानक चले जाने से जो वज्राघात हिरामन के दिल पर होता है उसे वह पूरी तरह टूट जाता है। उसे ऐसा लगता है जैसे उसकी दुनिया ही खाली और वीरान हो गई हो। मेला अभी अपने उफान पर था। इसलिए हर गाड़ीवान को अच्छी कमाई की पूरी संभावना थी। पर वह उस कमाई को छोड़कर घर लौटने का फैसला करता है। उसके लिए तो मेला उखड़ चुका है,
उसकी पूरी दुनिया वीरान हो चुकी है। वह अपने साथी लालमोहर से पूछता है कि “तुम कब तक लौट रहे हो गाँव?” लालमोहर आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहता है कि “अभी गाँव जाकर क्या करेंगे? यही तो भाड़ा कमाने का मौका है।”18 वह हिरामन को समझाने की कोशिश भी करता है लेकिन हिरामन की तो दिल की दुनिया ही उजड़ चुकी है। वह पूरी तरह से खाली हो चुका है। अब उसके लिए मेला में धरा ही क्या है! उसके लिए तो अब मेला खोखला हो चुका है। ‘इसलिए वह मेले को छोड़कर अपनी गाड़ी गाँव की ओर जाने वाली सड़क की ओर मोड़ देता है।’19
हीराबाई के चले जाने के बाद निराशा की गर्त में गोते लगाता हुआ हिरामन अपने जीवन की ‘तीसरी कसम’ खाता है- “कंपनी की औरत की लदनी ... !”20 नहीं करेगा। हिरामन ने इसके पूर्व भी दो कसमें खाईं हैं- “एक चोरबाजारी का माल नहीं लादेंगे। दूसरी – बाँस।”21 यहाँ यह ध्यान देने वाली बात है कि अपने जीवन के आरंभिक दो कसमें वह आर्थिक हानि और जेल जाने से बचने के लिए करता है। लेकिन वह ‘तीसरी कसम’- “कंपनी की औरत की लदनी ... !” नहीं करेगा। इससे उसे खुद भविष्य में आर्थिक नुकसान होगा क्योंकि कंपनी की औरत यानी हीराबाई की लदनी करने से उसे अच्छा भाड़ा और पुरस्कार की राशि प्राप्त हुई थी। पर वह भविष्य में फिर उस प्रकार की किसी भी परिस्थिति से बचना चाहता है, भले ही उससे उसका कितना भी आर्थिक नुकसान क्यों ना हो जाए। उसके इस ‘तीसरी कसम’ से यह लगता है कि हिरामन अपना दिल बिना कहे हीराबाई को दे चुका है। और अब किसी और को देने के लिए उसके पास कुछ भी नहीं बचा है। जैसे सूरदास की गोपियाँ उद्धव से कहती हैं- “ऊधो! मन नाहीं दस बीस। एक हुतो सो गयो हरि के सँग को अराध तुव ईस।।”22
पर यह स्थिति आमजन के लिए अच्छी तो नहीं होती है। दिल के साथ साथ भविष्य में आर्थिक नुकसान उठाने की कसम व्यावहारिक जीवन में अच्छी तो नहीं है। इसलिए रेणु इस कहानी का शीर्षक ‘‘तीसरी कसम,
अर्थात् मारे गए गुलफाम’ रखते हैं। हिरामन को भी इसका एहसास है कि उसके साथ क्या कुछ घटित हुआ है। इसीलिए घर लौटते हुए वह खुद ही यह गीत गुनगुनाने लगता है- “अजी हाँ, मारे गए गुलफाम...।”23 पर जीवन में क्या आर्थिक लाभ ही सब कुछ है! क्या दिल के इस नुकसान का कोई भी महत्व नहीं है! क्या जीवन की सार्थकता प्रेम के इस राग और उससे उत्पन्न नुकसान को गुनगुनाने में नहीं है! जो हिरामन के ठूंठ जीवन को कुछ देर के लिए ही सही सरस बना देती है। रेणु अपनी इस कहानी में शायद इसी बात को प्रस्तावित करते हैं जो जायसी के ‘पद्मावत’ का भी ब्रह्म वाक्य है- “मानुष पेम भएउ बैकुंठी। नहिं त काह, छार भरि मूठी।।”
इस पूरी कहानी में रेणु ने नायक हिरामन के पक्ष और भावों की मनोवैज्ञानिक अभिव्यक्ति को ही प्राथमिकता दी है। वे हिरामन के हीराबाई से मिलने से लेकर उसके बिछड़ने के समय तक उसके मन में उठने वाले भावों और विचारों को सूक्ष्मता से चित्रित करते हैं। वे हिरामन के दिल के एक-एक रेशे और उसमें उठने वाले हूक को खोल कर रख देते हैं। पर क्या यह कहानी हिरामन के एकतरफा प्रेम की कहानी है?
क्या हिरामन हीराबाई से जबरदस्ती एकतरफा प्रेम करता है? क्या हीराबाई के दिल में हिरामन के लिए कोई भाव नहीं है? नहीं, ऐसा कदापि नहीं है। रेणु ने एक दो स्थानों पर हीराबाई के मन के भावों का भी संकेत किया है। हाँ, यह जरूर है कि लेखक ने उसे विस्तार नहीं दिया है बल्कि वहाँ संकेत से काम लिया है- “हीराबाई चंचल हो गयी। बोली- हिरामन इधर आओ, अंदर। मैं फिर लौट कर जा रही हूँ मथुरामोहन कंपनी में, अपने देश की कंपनी है। ... बनैली मेला आओगे ना? हीराबाई ने हिरामन के कंधे पर हाथ रखा... इस बार दाहिने कंधे पर। फिर अपनी थैली से रुपया निकालते हुए बोली- एक गर्म चादर खरीद लेना...। हिरामन की बोली फूटी, इतनी देर बाद- इस्स ! हरदम रुपैया-पैसा; रखिए रुपैया! ... क्या करेंगे चादर? हीराबाई का हाथ रुक गया। उसने हिरामन के चेहरे को गौर से देखा। फिर बोली- तुम्हारा जी बहुत छोटा हो गया है। क्यों मीता?... महुआ घटवारिन को सौदागर ने खरीद जो लिया है गुरुजी। गला भर आया हीरा बाई का।”24 पर क्या कोई रंडी या पतुरिया किसी का दिया हुआ पैसा लौटाती है, क्या किसी मर्द को कंबल खरीदने के लिए पैसा देती है, क्या किसी मर्द को अपनी बेबसी बताती है, क्या किसी मर्द के लिए आँसू बहाती है? नहीं। तो फिर हीराबाई ये क्यों करती है? क्या उसे भी हिरामन से प्रेम हो गया था! पर हीराबाई अपने मन के निश्छल भाव, कोमल हृदय, अपनी मजबूरी और बेबसी को हिरामन के सामने स्पष्ट कर हमेशा के लिए चली जाती है। हीराबाई के जाने से हिरामन का मन चीत्कार कर उठता है और कहानी का पूरा वातावरण त्रासद हो जाता है। एक त्रासदी घटित होती है जो हिरामन के मन को चाक चाक कर देती है। भारत यायावर रेणु की कहानियों की विशेषताओं को उद्घाटित करते हुए लिखते हैं कि- “रेणु मनुष्य की लीलाओं का भाव-प्रवण चित्रण करते हैं। ... मनुष्य के पूरे संघर्ष, उसकी आपदा-विपदाओं, उसके दुख-दारिद्रय के बीच ये लीलाएं ही उस जीवन को आधार देती हैं, उसे टूटने से बचाती हैं, उसकी संघर्षशीलता को बढ़ाती हैं।... यह लीला-भाव खासकर उनकी ठुमरी-धर्मा कहानियों में कुछ ज्यादा ही है। इसमें दो विरोधी भाव एक साथ उपस्थित होते हैं। कभी हताशा-निराशा का वातावरण वे सृजित करते हैं, तो कभी हर्ष-उल्लास का। इसके बीच प्रकृति की भी अर्थ-छवियाँ उद्घाटित होती चलती हैं। जीवन और प्रकृति की बारीक से बारीक रेखाओं से निर्मित ये कहानियाँ एक संगीत की तरह पाठकों के भीतर गूँजती रहती हैं। ‘एक नीच ट्रेजेडी’ में फंसी जिंदगी का चित्रण हमें बल देता है।”25
निष्कर्ष : निष्कर्षतः ये कहा जा सकता है कि रेणु की ‘तीसरी कसम, अर्थात् मारे गए गुलफाम’ एक श्रेष्ठ प्रेम कहानी है। इस कहानी में रेणु ने एक आम इंसान के दिल में उठने वाले प्रेम की तरंग और हूक की मार्मिक अभिव्यक्ति की है। मानव जीवन छोटी छोटी खुशियों और त्रासदियों से भरा हुआ है। रेणु हिरामन और हीराबाई की कथा के माध्यम से जीवन की इस सच्चाई का उद्घाटन करते हैं। इसलिए भारत यायावर लिखते हैं कि- “रेणु हिन्दी के पहले कथाकार हैं, जो ‘प्राणों में घुले हुए रंग’ और ‘मन के रंग’ को, यानी मनुष्य के राग-विराग और प्रेम को, दुख और करुणा को, हास-उल्लास और पीड़ा को अपनी कहानियों में एक साथ लेकर ‘आत्मा के शिल्पी’ के रूप में उपस्थित होते हैं।”26
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) फणीश्वर नाथ रेणु विशेषांक, अंक-42, जून 2022, UGC Care Listed Issue
अतिथि सम्पादक : मनीष रंजन
सम्पादन सहयोग : प्रवीण कुमार जोशी, मोहम्मद हुसैन डायर, मैना शर्मा और अभिनव सरोवा चित्रांकन : मीनाक्षी झा बनर्जी(पटना)
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