- ज्ञान चन्द्र पाल
कहानी में वर्णित ‘महुआ घटवारिन’ की ‘लोककथा तथा फिल्म में फिल्मांकित ‘दुनियाँ बनाने वाले क्या तेरे मन में समायी...’ गीत सौतेली माँ की क्रूरता और महुआ की दीनता और विवशता को प्रकट करता है। फिल्म में फिल्मांकित ‘पान खाए सइयाँ हमारो’, लाली-लाली डोलिया में...’, ‘चलत मुसाफिर मोह लियो रे...’ तथा ‘मारे गए गुलफाम’ आदि गीत नौटंकी परंपरा के गीतों की मार्मिक अभिव्यक्ति के रूप में चित्रित हुए हैं। हिरामन और हीराबाई अपनी कला के प्रति पूर्णतः समर्पित और प्रतिबद्ध हैं। जैसे हिरामन को बैलगाड़ी चलाने का नशा है वैसे ही हीराबाई को लैला और गुलबदन करने का नशा है।
बीज शब्द : लोक-तत्त्व, लोकगीत, लोकनाट्य, लोककथा, नौटंकी, लोकपरिवहन।
मूल आलेख : ‘लोक’ शब्द का आशय स्थान-विशेष की संस्कृति को अपनी पहचान बनाने वाली तथा उसी अनुरूप जीवन-यापन करने वाली साधारण जन-समुदाय से है। लोक शब्द का ही परिष्कृत रूप लोग है। इन जनसमुदाय (लोक) द्वारा सहज रूप में ही व्यवहृत क्रियाकलाप, मान्यताएँ, विश्वास, अनुष्ठान, रूढ़ियाँ, रीति-रिवाज, संस्कार आदि ही लोक-तत्त्व के अंतर्गत आते हैं। अतः लोक की अभिव्यक्ति में जो तत्त्व दिखाई देते हैं, वे ही लोकतत्त्व कहलाते हैं। हिंदी साहित्य कोश के अनुसार, “लोक मनुष्य समाज का वह वर्ग है जो आभिजात्य संस्कार, शास्त्रीयता और पांडित्य की चेतना, पांडित्य के अहंकार से शून्य है और जो परंपरा के प्रवाह में जीवित रहता है।”1 उपर्युक्त परिभाषा के अनुसार पांडित्य या शास्त्रीय संस्कारों से मुक्त जीवन-पद्धति तथा सहज और सरल व्यवहार ही लोक की प्रमुख पहचान है।
हिंदी के आंचलिक कथाकार के रूप में प्रसिद्ध फणीश्वरनाथ रेणु के कथा साहित्य में लोक-तत्त्व व्यापक रूप में देखने को मिलता है। उनकी चर्चित कहानी ‘तीसरी कसम उर्फ मारे गए गुलफाम’ तथा इस पर आधारित बासु भट्टाचार्य द्वारा निर्देशित ‘तीसरी कसम’ (1966) फिल्म लोक-नाट्य ‘नौटंकी’ की नर्तकी हीराबाई और ‘लोक परिवहन’ ‘बैलगाड़ी’ के गाड़ीवान हिरामन के जीवन पर आधारित है। कहानी और फिल्म दोनों में लोक-तत्त्व के विविध रूपों के दर्शन होते हैं।
अपने कार्य के प्रति प्रतिबद्धता की अभिव्यक्ति :
ग्रामीण समाज के लोगों में अपने कार्यों के प्रति बेहद निष्ठा होती है। मुंशी प्रेमचंद के गोदान का पात्र होरी जानता है कि ‘खेती-किसानी में जो मरजाद है वह मजदूरी में नहीं है।’ इसलिए खेती में उचित मुनाफा न होने पर भी वह दूसरा काम करने को तैयार नहीं होता है। उसी प्रकार चालीस साल के हिरामन को अपनी गाड़ीवानी से इतना लगाव है कि वह इसको छोड़कर और दूसरा कोई भी काम करने को तैयार ही नहीं है। यही लोक की विशेष पहचान है। वे अपना सब कुछ त्याग सकते हैं; पर अपनी मान्यताओं और रुचियों से समझौता करने को तैयार नहीं होते हैं। हिरामन का अपनी गाड़ीवानी से इतना लगाव है कि वह इसके लिए जीवनभर कुँवारा रहने को तैयार है- “अब हिरामन ने तय कर लिया है, शादी नहीं करेगा। कौन बलाय मोल लेने जाए। ब्याह करके फिर गाड़ीवानी क्या करेगा कोई! और सब-कुछ चाहे छूट जाये, गाड़ीवानी नहीं छोड़ सकता हिरामन।”2 इस प्रकार अपने कार्यों के प्रति प्रतिबद्धता ही लोक-तत्त्व की महत्ता को प्रतिपादित करती है और यही उसकी प्रमुख पहचान है। कहानी में वर्णित हीराबाई ‘मथुरामोहन नौटंकी कंपनी’ की नर्तकी है। इस बार वह ‘रौता सगीत नौटंकी’ कंपनी के सौजन्य से फारबिसगंज के मेले में आई है। जिस प्रकार हिरामन को अपनी गाड़ीवानी पसंद है और इसे वह किसी मूल्य पर नहीं छोड़ना चाहता, ठीक उसी प्रकार हीरबाई भी नौटंकी में नाचने की कला को किसी मूल्य पर नहीं छोड़ना चाहती है। नौटंकी में लोग उसे रंडी, पतुरिया आदि नामों से संबोधित करते हैं। हिरामन इससे नाराज़ होता है। वह चाहता है कि हीराबाई नौटंकी का काम छोड़ दे। इस पर हीराबाई अपने कार्य के प्रति समर्पण, लगाव और प्रतिबद्धता को व्यक्त करते हुए उसे समझाती है- “गुस्सा न करो हिरामन! ये बात नामुमकिन है। तुम समझते क्यों नहीं? नशा जो हो गया।... जैसे तुम्हें बैलगाड़ी चलाने का नशा है, वैसे मुझे लैला और गुलबदन करने का नशा है। देश-देश घूमना, सज-धज के रोशनी में नाचना-गाना, जीने के लिए सिवा इस नशे के और क्या है ही मेरे पास।”3 हीराबाई की अपने कार्य के प्रति इतनी गहरी निष्ठा है कि वह अंततः अपने अव्यक्त प्रेम को छोड़कर दूसरी कंपनी में चली जाती है। इस प्रकार हिरामन और हीराबाई दोनों अपने कार्य के प्रति निष्ठा प्रकट करते हुए दिखाई देते हैं। यही लोक-तत्त्व की प्रमुख पहचान है।
लोकनाच और लोककथा का वर्णन :
प्रस्तुत कहानी और फिल्म में ‘छोकरा-नाच’ नामक ‘लोकनाच’ तथा ‘महुआ घटवारिन’ और ‘नामलगर ड्योढ़ी का जमाना’ नामक ‘लोककथा’ का चित्रण मिलता है। छोकरा-नाच बिहार राज्य का प्रमुख लोक-नाच है। भिखारी ठाकुर इस विधा के प्रतिस्थापक आचार्य रहे हैं। इसमें स्त्री-वेश धारण कर पुरुष ही नाचते हैं। हीराबाई के चेहरे को देखकर हिरामन को छोकरा-नाच के मनुआ नटुआ की याद आ जाती है- “छोकरा-नाच के मनुआं-नटुआ का मुँह हीराबाई जैसा ही है।... कहाँ चला गया वह जमाना? हर महीने गाँव में नाचने वाले आते थे। हिरामन छोकरा-नाच के चलते अपनी भाभी की न जाने कितनी बोली-ठोली सुन चुका है।”4 बहुत दिनों के बाद आज हीराबाई को देखकर उसे फिर से अचानक छोकरा-नाच के लड़कों की याद आ जाती है। वह हीराबाई को एकटक देखने लगता है। उसके इस प्रकार देखने पर हीराबाई पूछती है तो हिरामन संकोच के साथ अपने दिल की बात को प्रकट कर देता है-
“क्या देख रहे हो?”
“जी,
आपका मुँह बिल्कुल...”
“बिल्कुल क्या?
बोलो न...।”
“आपका मुँह बिल्कुल छोकरा-नाच के मनुआ नटुआ जैसा दिखता है।”
“हाय राम! मैं क्या छोकरा जैसे दिखती हूँ?”
“जी नहीं! वे छोकरे ही लड़कीनुमा हुआ करते थे।”5
हमारे समाज में व्याप्त लोककथाएँ हमारी संस्कृति के हर्ष-विषाद, उत्थान-पतन और जीवन के उतार-चढ़ाव की मौखिक दस्तावेज़ हैं। महुआ घटवारिन की कथा सौतेली माँ के शोषण और अत्याचार पर आधारित है। जिस प्रकार हिरामन को लोककथा/लोकगीत सुनाने का शौक है उसी प्रकार हीराबाई कथा को सुनने का शौक रखती है। वह असमंजस में पड़ जाता है- “कौन गीत गाए वह? हीराबाई को गीत और कथा दोनों का शौक है... इस्स! महुआ घटवारिन? वह बोला- अच्छा जब आपको इतना शौक है तो सुनिए महुआ घटवारिन का गीत। इसमें गीत भी है, कथा भी है। ... कितने दिनों के बाद भगवती ने यह हौसला भी पूरा कर दिया।”6
कहानी और फिल्म में वर्णित ‘महुआ घटवारिन’ की लोककथा हीराबाई और हिरामन की कथा से साम्यता रखती है। जिस प्रकार महुआ घटवारिन को सौदागर खरीद लेता है उसी प्रकार हीराबाई भी हिरामन के हृदय में प्रेम के बीच बोकर दूसरी कंपनी में चली जाती है। लोककथा सुनाते हुए कथाकार कथा में इस प्रकार डूब जाता है जैसे वह भी कथा का ही कोई पात्र हो। जिस प्रकार लोगों को लोककथा सुनने की भूख होती है, उसी प्रकार लोककथाकार के हृदय में इसे सुनाने की बेचैनी होती है। लोककथा सुनाने की अपनी कला होती है। कथा में आए उत्साह, वियोग और दुख के क्षण को वह उसी प्रकार तेज, धीमे और दुख से भरे स्वर में सानकर सुनाता है। हिरामन इस कला में माहिर है- “महुआ घटवारिन गाते समय उसके सामने सावन-भादों की नदी उमड़ने लगती है।– अमावस्या की रात, और घने बादलों में रह-रह कर बिजली चमक उठती है। उसी चमक में लहरों से लड़ती हुई महुआ की झलक उसे मिल जाती है। सफ़री मछली की चाल और तेज हो जाती है। उसको लगता है, वह खुद सौदागर का नौकर है।”7 इस प्रकार जैसे कथाकार कथा के नायक से, अभिनेता अभिनय-पात्र से तादात्म्य स्थापित कर लेता है; कथा में डूबा हिरामन सौदागर के नौकर से तादात्म्य स्थापित कर लेता है।
लोकगीत और लोकनाट्य की अभिव्यक्ति :
सजनवा बैरी हो ग य हमार! सजनवा...!
अरे, चिठिया हो तो सब कोई बाँचे; चिठिया हो तो...
हाय! करामवा, हाय करामवा...
कोई न बाँचे हमारो, सजनवा... हो करमवा...”9
जिस प्रकार आज का ‘टीवी कल्चर’ बाहर से श्रम करके घर लौटे लोगों का आराम के समय मनोरंजन करता है, उसी प्रकार लोकगीत श्रम करके लौटे ग्रामीण समाज के मनोरंजन का साधन है। आज का टीवी कल्चर एकांत मनोरंजन का साधन है जबकि, लोकगीत सामूहिक मनोरंजन के रूप में दिखाई देता है। इसलिए यह अपनी व्यापकता में सामूहिकता का गीत है। इसी बहाने ग्रामीण समाज के लोग एक-दूसरे के सुख-दुख से भी परिचित होते हैं। फारबिसगंज के मेले में दूर-दूर से सामान लादकर आए गाड़ीवान एकत्रित होने के लिए लोकगान का आयोजन करते हैं। हिरामान भी हीराबाई को अपनी गाड़ी में सोने का इंतजाम करके गीत में सम्मिलित हो जाता है। फिल्म में फिल्मांकित उनका यह लोकगान भी अन्योक्ति रूप में हीराबाई और हिरामन पर ही आधारित है। अपने ही बारे में अन्योक्ति रूप में गीत के बोल सुनकर हिरामन के टप्पर गाड़ी में नज़दीक ही बैठी हीराबाई मंद-मंद मुस्करा रही है। उनके गीत के बोल देखिए-
चलत मुसाफिर मोह लियो रे पिंजरे वाली मुनिया...
उड़-उड़ बैठी हलवइया दुकनिया...
उड़-उड़ बैठी हलवइया दुकनिया...
अरे, बर्फी के सब रस ले लिया रे पिंजरे वाली मुनिया...”10
‘नौटंकी’ नाटक का देशी संस्करण है। जिस प्रकार नाटक की परवरिश राज दरबारों में होती थी उसी प्रकार नौटंकी की परवरिश ग्रामीण समाज में होती देखी जाती है। कम संसाधन में मुख्यतः नाच और पद्यात्मक संवादों द्वारा भिन्न-भिन्न रूप धारणकर ग्रामीण लोगों का मनोरंजन करना ही इस लोक विधा का प्रमुख उद्देश्य है। आरंभ में इसमें महिला का किरदार पुरुष ही निभाते थे। आज की नौटंकियों में महिला पात्रों का अभिनय महिला ही निभाती हुई देखी जा सकती हैं। हीराबाई भी फारबिसगंज के मेले में कभी लैला तो कभी गुलबदन का अभिनय करती है। कहानीकार हीराबाई के अभिनय का वर्णन करते हुए लिखता है- “गुलबदन दरबार लगाकर बैठी है। ऐलान कर रही है : “जो आदमी तख्त हजारा बनाकर ला देगा, मुँहमाँगी चीज लाकर दी जाएगी- अजी, है कोई ऐसा फनकार, तो हो जाए तैयार, बनाकर लाए तख्त हजारा- आ किड़ किड़- किर्रि...”11 रेणु यहाँ पर न केवल नौटंकी के पात्र के संवाद लिखते हैं बल्कि नगाड़े की ध्वनि भी उन्हें उसी आवाज में सुनाई देती है। नगाड़े की किड़, किड़ ध्वनि के बाद किर्रि.... ध्वनि की आवाज को आनंद तो वही जान सकता है जो कभी नौटंकी देखा हो। किर्रि.... ध्वनि की आवाज के बाद ‘नचनिया’ (नर्तकी) का एक सांस में नाचना और दर्शक का सांस रोककर देखना फिर बाद में ताली बजाना और पुरस्कार देना। उसके बाद पुरस्कार की घोषणा होना आदि तो नौटंकी देखे बिना नहीं जाना जा सकता है।
फिल्म में नौटंकी परंपरा का अक्षरतः पालन किया गया है। पर्दे में राम सीता के बने चित्र पलटदास को सिया सुकुमारी की स्मृति दिलाते हैं। वह हाथ जोड़कर प्रणाम करता, तो वहीं बैठा शराबी को हीराबाई बड़ी नेम वाली रंडी प्रतीत होती है। अपने मीता को रंडी कहने वाले से हिरामन भिड़ जाता है। ‘पान खाए सैन्य हमारो’, ‘मारे गए गुलफाम’, ‘कैसे होता है शुरू पाक इश्क रंगून’, ‘तेरी बाँकी अदा पर मैं खुद हूँ फिदा’, ‘हाय! गजब कहीं तारा टूटा’, रहेगा इश्क तेरा ख़ाक में मिला के मुझे, आ... आ भी जा’ आदि गाने की सुंदर प्रस्तुतियां फिल्मी पर्दे पर लोक नाट्य ‘नौटंकी’ को जीवंत कर दिये हैं। ये सभी गाने नौटंकी की तर्ज पर लिखे और प्रस्तुत किए गए हैं। हीराबाई का नृत्य-अभिनय नौटंकी की तर्ज पर हुआ है। इन सभी गानों को सुनते हुए नौटंकी विधा का जानकार दर्शक अपने गाँव में देखी गई नौटंकी की स्मृति में खो जाता है। ठाकुर विक्रम सिंह का किरदार भी नौटंकी के अनुरूप ही बुना गया है। कहानी में इस किरदार का कोई जिक्र नहीं है। फिल्म में लोकनाट्य नौटंकी-विधा की इस प्रकार की अभिव्यक्ति कहानी को आगे बढ़ाती हुई प्रतीत होती है।
मेला और बाज़ार का वर्णन :
मेला और बाज़ार लोक संस्कृति के प्रमुख अंग हैं। शहरों से कोसों दूर बसे गाँव के लोग इन मेले और बाज़ार से ही अपनी आवश्यकता की चीजें खरीदते हैं। उनके पास न तो शहर जाने की फुरसत होती है और न ही शहर की दुकान से ब्रांडेड सामान खरीदने के लिए पैसा ही होता है। अतः गाँव में लगने वाली बाज़ार और मेला ही उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति का प्रमुख साधन होता है। गाँव में लगने वाला मेला उन्हें अपने आस-पास के लोगों से मिलने का मौका भी प्रदान करता है। कहानीकार फारबिसगंज शहर और मेले की रोशनी की चर्चा करते हुए लिखता है- “सामने फारबिसगंज शहर की रोशनी जगमगा रही है। शहर से कुछ दूर हटकर मेले की रोशनी।... टप्पर में लटके लालटेन की रोशनी में छाया नाचती है आसपास।... डबडबाई आँखों से हर रोशनी सूरजमुखी फूल की तरह दिखाई देती है।”12
इस प्रकार हम देखते हैं कि कहानी और फिल्म में लोक संस्कृति के विभिन्न तत्वों जैसे- लोकगीत, लोककथा, लोकनाट्य, लोकपरिवहन, मेले, बाज़ार आदि का न केवल वर्णन हुआ है, बल्कि नौटंकी और छोकरा-नाच के गीतों की सफल और मनोहारी प्रस्तुति भी दिखाई देती है। चम्पा नगर का मेला, फारबिसगंज का मेला, महुआ घटवारिन की कथा, नामलगर ड्योढ़ी की कथा आदि कहानी और फिल्म में ग्रामीण संस्कृति के लोकतत्त्व की याद सहज ही ताजा कर देते हैं।
1. धीरेन्द्र वर्मा एवं अन्य ( सं.) : हिंदी साहित्य कोश, भाग-1,(1998) पारिभाषिक शब्दावली, ज्ञान मण्डल, वाराणसी, पृष्ठ- 591
4. फणीश्वरनाथ रेणु : प्रतिनिधि कहानियाँ, राजकमल पेपरबैक्स, नई दिल्ली, पृष्ठ- 125
6. फणीश्वरनाथ रेणु : प्रतिनिधि कहानियाँ, राजकमल पेपरबैक्स, नई दिल्ली, पृष्ठ- 129
11. फणीश्वरनाथ रेणु : प्रतिनिधि कहानियाँ, राजकमल पेपरबैक्स, नई दिल्ली, पृष्ठ- 141
शोधार्थी, हिंदी विभाग
इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय जनजातीय विश्वविद्यालय, अमरकंटक (म. प्र.)
gyan.mgahv@gmail.com, 7020629954
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) फणीश्वर नाथ रेणु विशेषांक, अंक-42, जून 2022, UGC Care Listed Issue
अतिथि सम्पादक : मनीष रंजन
सम्पादन सहयोग : प्रवीण कुमार जोशी, मोहम्मद हुसैन डायर, मैना शर्मा और अभिनव सरोवा चित्रांकन : मीनाक्षी झा बनर्जी(पटना)
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