कविशिरोमणि कालिदास :
कृतियाँ एवं वैशिष्ट्य
श्रीमती कृती भारद्वाज
शोध सार - कविताकामिनीकान्त कविकुलगुरु महाकवि कालिदास सरस्वती के वरदपुत्र के रूप में भारत में अवतरित हुए थे। इनकी रचनाएँ काव्य, खण्डकाव्य तथा नाटक के रूप में गंगा, यमुना, सरस्वती के पावन संगम की भाँति भारतीय साहित्य को आध्यात्मिक बल प्रदान करती रहती हैं। यही कारण है कि इनकी प्रसिद्धि संपूर्ण विश्व में महाकवि के रूप में है और वैदेशिक विद्वानों ने इन रचनाओं का अपनी भाषाओं में रूपान्तर करके इनका आदरपूर्वक प्रचार एवं प्रसार किया है। ऐसा स्नेह अन्य किसी कवि की रचनाओं को प्राप्त नहीं हुआ। लाक्षणिक आचार्यों ने काव्य के जिन लक्षणों का उल्लेख अपने लक्षणग्रन्थों में किया है उन सबका समानरूपेण अस्तित्व कालिदास के काव्य-नाटकों में निहित है।
बीज शब्द -कालिदास, नाटक ,महाकाव्य, महाकवि, रचना
जन्मभूमि –
यशस्वी
व्यक्ति से अपना सम्बन्ध जोड़ने की लालसा सबके हृदय में रहती है, यही स्थिति कालिदास की जन्मभूमि-निर्णय के सम्बन्ध में
भारतीय विद्वानों की रही है। रघुवंश इनका सुप्रसिद्ध महाकाव्य है। इसमें वर्णित
रघु की दिग्विजय यात्रा विद्वानों को इनके जन्मभूमि-विवेचन के लिए प्रेरित करती
है। उक्त यात्राप्रसंग में इन्होंने जिन-जिन स्थलों का सूक्ष्म परिचय प्रस्तुत
किया है,
विद्वानों की दृष्टियाँ वहाँ-वहाँ टिक जाती हैं। परन्तु यह
सम्भव नहीं है कि एक व्यक्ति इतने स्थानों का मूल निवासी हो । इस प्रसंग में
प्रमुख रूप से बंगाल और कश्मीर के नाम लिये जाते हैं। इसके अनन्तर मेघदूत, जो ‘खण्डकाव्य' के रूप में अथवा ‘निरंकुश काव्य' के रूप में रचित इनकी कृति है| मेघदूत में प्रस्तुत वर्णन के अनुसार कालिदास ने उज्जैयनी
का उल्लेख किया गया है| अतः अधिकांशतः
विद्वानों का मत है कि ये उज्जैन के निवासी थे। यही महाकवि का सार्वभौम स्वरूप है।
कालिदास का धार्मिक स्वरूप –
कालिदास
परमशैव थे। रघुवंश का मंगलाचरण पद्य, कुमारसम्भव का
शिवराजधानी-वर्णन, 'अभिज्ञानशाकुन्तलम्' का अष्टप्रकृति शिवस्वरूप-चित्रण एवं अन्तिम भरतवाक्य 'ममापि च क्षपयतु नीललोहितः’, ‘विक्रमोर्वशीयम्' का मङ्गलाचरण पद्य और 'मालविकाग्निमित्र' का मङ्गलाचरण पद्य ये इनकी नैष्ठिक शिवभक्ति को प्रकट करते
हैं। इसके अतिरिक्त 'रघुवंशमहाकाव्य' में इन्होंने उस राम की चर्चा की है जिन्होंने स्वयं विष्णु
का अवतार होते हुए भी श्रीरामेश्वरम् की स्थापना के बहाने अपने को शिवभक्त
प्रसिद्ध किया।
कालिदास और उनकी कृतियाँ
कालिदास
की रचनाओं की जितनी प्रशंसा की जाये अल्प ही प्रतीत होती है। यद्यपि इनकी
रचनाओं में सभी अलंकार व रसों की योजना देखने को मिलती है परन्तु
तत्रापि अलंकार प्रयोग
में उपमा का प्रयोग विश्वविख्यात है। इसके अतिरिक्त कालिदास ने अन्य अलंकारों
एवं सभी रसों का प्रयोग भी प्रचुर मात्रा में किया है।
कालिदास का प्रकृतिप्रेम, वात्सल्य, संवेदनशीलता, धार्मिक आदि स्वभाव उनकी कृतियों में अंकित है। इनकी
प्रचलित व प्रख्यात
सप्तकृतियाँ हैं-
१. ऋतुसंहारम् -
यह
कालिदास की प्रथम कृति मानी जाती है, परन्तु इसके क्रम के विषय में सभी विद्वानों का एक मत नहीं
है। इसमें ग्रीष्म से आरम्भ कर क्रमश: मनोरम षड्ऋतुवर्णन समाहित है।
‘प्रचण्डसूर्य: स्पृहणीयचन्द्रमाः सदावगाहक्षतवारिसंचय: |
दिनान्तरम्योभ्युपशान्तमन्मथो निदाघकालोऽयमुपागतः प्रिये ||
२. कुमारसंभवम् -
इसमें
कवि ने कुमार कार्तिकेय के उद्भव का संकल्प लिया| शिव और पार्वती के प्रेम प्रसंग से लेकर कुमार के उद्भव तक
कवि ने अपनी अद्भुत प्रतिभा का परिचय दिया है। यह १७ सर्गों में विभाजित है।
अपि क्रियार्थ सुलभं समित्कुशं, जलान्यपि स्नानविधिक्षमाणि ते |
अपि स्वशक्त्या तपसि प्रवर्तसे, शरीरमाद्यं खलु धर्म साधनम् ||
३. मेघदूतम् -
यह
महाकवि की मौलिक प्रतिभा का अनुपम निदर्शन है। मेघदूत दो भागो में विभाजित है। इसमें
कवि ने विप्रलम्भ श्रृंगार मार्मिक चित्रण किया है। कुबेर द्वारा दण्डित किये गया
यक्ष अपनी प्रेयसी के वियोग में जड़ व चेतन के मध्य भेद को विस्मृत कर मेघ को दूत
बनाकर अपनी मनोदशा अपनी पत्नी तक प्रेषित करने का विचार करता है। कवी ने इस प्रसंग
को इस प्रकार द्योतित किया है कि सहृदय उसे निजजीवन से पूर्णत: जोड़ने का प्रयास
करने लगता है।
'नन्वात्मानं बहुविगनयन्नात्मनैवावलम्बे,
तत्कल्याणि त्वमपि नितरां मा गम: कातरत्वम् |
कस्यात्यन्तं सुखमुपनतं दुखमेकान्ततो वा,
नीचैर्गच्छत्युपरि च दशा चरनेमि क्रमेण ||’
४. रघुवंशम् -
कविकुलगुरु
महाकवि कालिदास ने रघुवंश महाकाव्य में रघुवंशियों का साहित्यिक वर्णन किया है। यह
वाल्मीकि रामायण में चरितार्थ वंशावली से भिन्न है। इसमें २९ सर्ग हैं। कवि ने
रघुवंशियों के उदात चरित्र का लोकोत्तर वर्णन किया है व यह दर्शाया है कि वस्तुत:
शासक वही है जो प्रजा के हृदय को जीत सके|
'मुखार्पणेषु प्रकृतिप्रगल्भा: स्वयम् तरन्गाधरदानदक्षः |
अनन्यसामान्यकलत्रवृत्तिः पिबत्यसौ पाययते च सिन्धूः ||
५. मालविकाग्निमित्रम् -
यह
नाटक पाँच अंकों में विभाजित है। इसमें मालविका व अग्निमित्र के परस्पर प्रेम का
अद्वितीय वर्णन प्राप्त होता है। कवि ने राजाओं के अंतःपुर में होने वाले प्रेम, ईर्ष्या, कामुकता, कामक्रीड़ा आदि विषयों का शिष्ट वर्णन किया है।
'सूर्योदये भवति य सूर्यस्तमये च पुण्डरीकस्य |
वदनेन सुवदनायास्ते समवस्थे क्षणादूढे ॥'
६. विक्रमोर्वशीयम् -
यह
पाँच अंकों का त्रोटक है। इसमें पुरुरवा और उर्वशी की प्रणय कथा वर्णित है। पुरुरवा
और उर्वशी का प्रसंग मूलत: ऋग्वेद में वर्णित है। कवि ने उसी प्रसंग को एक कथा का
रूप दे दिया। यही प्रणय उन्माद कवि का मुख्य वर्ण्य विषय रहा है-
'एषा मनो मे प्रसभं शरीरात् पितुः पदं मध्यममुत्पतन्ति |
सुराङ्गना कर्षति खण्डिताग्रात् सूत्रं मृणालादिव राजहन्सी ||'
७. अभिज्ञानशाकुंतलम् -
प्रस्तुत
नाटक में कवि ने प्रणयकथा, प्रकृति
प्रेम,
वात्सल्य, मनुष्य
व प्रकृति के मध्य प्रेम का अद्भुत वर्णन चित्रित किया है। दुष्यंत और शकुंतला के
प्रेम से लेकर, दुर्वासा द्वारा दिए
गए शाप व उस शाप से मुक्त होकर पुनर्मिलन की गाथा का अत्यंत मार्मिक वर्णन मिलता
है। यद्यपि यह महाभारत से लिया गया एक अंश है परन्तु कवि ने इसे अपनी प्रतिभा के अनुसार नवीन व
अद्वितीय रूप दिया जो अखिल विश्व में प्रसिद्ध होगया।
'अर्थो हि कन्या परकीय एव तामद्य
संप्रेष्य परिग्रहीतुः ।
जातो ममायं विशदः प्रकामं प्रत्यर्पितन्यास इवान्तरात्मा ||
कालिदास का वैशिष्ट्य
महाकवि कालिदास संस्कृत साहित्य
के कविकुलगुरू के रूप में प्रतिष्ठित हैं। ये नाटक महाकाव्य तथा ज्योतिष
परम्परा में भी निष्णात माने गयें है। इन्होंने कुल सात ग्रन्थों की रचना की है, जिनमें
तीन महाकाव्य, तीन नाटक और एक ऋतुसंहार नाम का ग्रन्थ
रचा था। इसके अतिरिक्त ज्योतिष शास्त्र से सम्बन्धित ज्योतिविदाभरणम् नाम का इनका
प्रसिद्ध ग्रन्थ है। इन रचनाओं में जो वैशिष्ट्य है उसी के कारण वर्तमान में भी
कालिदास की उतनी ही प्रतिष्ठा है जितनी पूर्व में थी। कालिदास महाकाव्यों के रचना
में तो प्रवीण हैं ही बल्कि वे नाटकीयता में भी सर्वाधिक निपुण कवि है। उनका उपमा
प्रयोग संस्कृत साहित्य में एक कीर्तिमान के रूप में स्थापित है।
अलंकार-वैशिष्ट्य :
काव्य में अलंकार प्रयोग के विषय में ध्वनिवादी आचार्य
आनन्दवर्धन ने एक बड़ी रहस्यमयी
उक्ति प्रस्तुत की है-
रसाक्षिप्ततया यस्य बन्ध: शब्दक्रियों भवेत् ।
अपृथग्-यत्ननिर्वर्त्यः सोऽलड्कारो ध्वनौ मतः ॥
अर्थात् रस के द्वारा आक्षिप्त होने के कारण
जिसका बन्ध या निर्माण शक्य होता है और जिसकी सिद्धि में किसी प्रकार के पृथक् प्रयत्न की आवश्यकता नहीं
होती, वही
सच्चा अलंकार है- ध्वनिवादियों का यही मत है। प्रथम
होती है रस की अनुभूति और तदनन्तर होती है उसकी अलंकृत अभिव्यक्ति| रसानुभूति तथा शब्दाभिव्यक्ति
दोनों एक ही प्रयास के परिणित फल हैं। कोई कलाकार जिस चित्तप्रयास द्वारा रस
विधारण करता है उसी चित्तप्रयास द्वारा अलंकारादि के माध्यम से रसप्रस्फुटन करता
है; उसके
लिए उसे किसी प्रकार के पृथक् प्रयास करने की जरूरत ही नहीं होती ।
साहित्य के रस एवं साहित्य की भाषा में अद्वय योग रहता है, अभिव्यक्त
अलंकार-भाषा का यह समस्त सौन्दर्य-कटककुण्डलावदिवतु कहीं बाहर से जोड़ा हुआ नहीं
रहता, प्रत्युत् वह काव्यपुरूष का स्वाभाविक देह धर्म
होता है।
अभिनव गुप्त ने भी स्पष्ट ही
कहा है- ‘न तेषां बहिरङ्गत्वं
रसाभिव्यक्तौ ।‘
इस विषय में महाकवि कालिदास भी
अद्वयवादी थे:
वागर्थाविव संपृक्तौ वागर्थप्रतिपत्तये ।
जगतः पितरौ वन्दे पार्वतीपरमेश्वरौ ॥
वाक् तथा अर्थ का – काव्य की अन्तर्निहित भाववस्तु
एवं उसके अभिव्यञ्जक शब्द का परस्पर नित्य
सम्बन्ध है, जैसे
विश्वसृष्टि के आदि पार्वती-परमेश्वर का त्रिगुणात्मिका शक्ति ही विशुद्ध चिन्मय
शिव की विश्व में अभिव्यक्ति का कारण बनती है। शिव के आश्रय बिना शक्ति की लीला नहीं, शक्ति के बिना शिव का कोई अस्तित्व ही नहीं; वह
शवमात्र होता है। साहित्य के क्षेत्र में भी भावरूप महेश्वर एवं शब्दरूपा पार्वती
दोनों ही एक दूसरे के आश्रित हैं। महाकवि कालिदास की उपमा अलंकार के प्रयोग के अवसर पर इस
तथ्य का अनुशीलन नितान्त आवश्यक है कि रसानुभति की समग्रता को वर्ण, चित्र तथा
संगीत में जो भाषा जितना अधिक मूर्त कर सकेगी, वह भाषा
उतनी ही सुन्दर एवं मधुर होगी।
कालिदास अपनी उपमा के द्वारा देवता तथा मानव दोनों के गौरव
को प्रतिष्ठित करते हैं। समाधि
में निरत भूतभावन शंकर की उपमा द्वारा जिस अपूर्व स्तब्धता का परिचय दिया है उसका
सौन्दर्य नितान्त अवलोकनीय है -
अवृष्ठिसंरभमिवाम्बुवाहम् अपामिवाधारमनुत्तरङ्गम् ।
अन्तश्चराणां मरूतां निरोधाद् निवापनिष्कम्पमिव प्रदीपम् ।।
(कुमारसम्भव 3/48)
योगेश्वर महादेव शरीरस्थ समस्त वायु को निबद्ध कर पर्यङ्कबन्ध में स्थिर भाव से बैठे हैं, जैसे
वृष्टि के संरम्भ से हीन अम्बुवाह मेघ हो (जल को धारण जलराशि का आधारभूत समुद्र
जैसे तरंगहीन अचंचल हो; 'अपामिवाधार' शब्द की यही ध्वनि है) तथा निवापनिष्कम्प प्रदीप हो - यहाँ तीनों प्राकृतिक उपमानों
के द्वारा कालिदास योगिराज की अचंचल स्थिरता की अभिव्यञ्जना कर उनके गौरव की एक रेखा
खींचते हुये प्रतीत होते हैं।
कालिदास की उपमाओं की रसात्मिकता तथा रसपेशलता नितान्त
मर्मस्पर्शी है। औचित्य तथा सन्दर्भ को शोभन बनाने की कला उनमें अपूर्व है तपस्या
के लिए आभूषणों को है छोड़कर केवल वल्कल धारण करने वाली पार्वती चन्द्र तथा ताराओं
से मण्डित होने वाली अरूणोदय से युक्त रजनी के
समान बतलाई गई है (कुमार0 5/44)।
स्तनों के भार से किंचित् झुकी हुई नवीन लाल पल्लवों से मण्डित संचारिणी लता के
समान प्रतीत होती है –‘पर्याप्त पुष्पस्तबकावनम्रा संचारिणी पल्लविनी लतेव।‘
स्वयंवर में उपस्थित भूपालों को छोड़कर जब इन्दुमती आगे बढ़
जाती है, तब
वे राजमार्ग पर दीपशिखा के द्वारा छोड़े गये महलों के समान प्रतीत होते हैं। यहाँ
राजाओं की विषष्णता तथा उदासी की अभिव्यक्ति इस उपमा के द्वाराबड़ी सुन्दरता से की
गई है -
संचारिणी दीपशिखेव रात्रौ यं यं व्यतीयाय पतिंवरा सा ।
नरेन्द्र मार्गाह इव प्रपेदे विवर्णभावं स स भूमिपालः ॥
इसी उपमा प्रयोग के सौन्दर्य के कारण यह महाकवि ‘दीपशिखा कालिदास' नाम से
कविगोष्ठी में प्रसिद्ध है।
कालिदासीय उपमा की यह विशिष्टता है कि वह ‘स्थानीयरन्जना' से रंजित है और इससे श्रोता के चक्षुः पटल के सामने समग्र चित्र को
प्रस्तुत कर देती है। परास्त किये जाने पर पुनः प्रतिष्ठित किये गये वंगीय नरेश रघु के चरण-कमल के ऊपर नम्र होकर उन्हें फलों से समृद्ध बनाते हैं, जिस प्रकार उस देश के धान के पौधे (रघु0 4/37) |
कलिंग-नरेश के मस्तक पर तीक्ष्ण प्रताप के रखने वाले रघु की
समता गंभीरवेदी हाथी के मस्तक पर तीक्ष्ण अंकुश रखने वाले महाव्रत से की गई है
(रघु04/39)।
प्राग्ज्योतिषपुर (आसाम) के नरेश रघु के आगमन पर उसी प्रकार
झुक जाते हैं जिस प्रकार हाथियों के बाँधने के कारण कालागुरू के पेड़ झुक जाते हैं
(रघु0 4/81)|
इन समस्त उपमाओं में 'स्थानीय रंजन' का आश्चर्यजनक चमत्कार है।
इसी प्रकार 'अभिज्ञानशाकुन्तलम्' में शकुन्तला के अंगों की उपमा लता से की गयी है-
'अधरः किसलयरागः कोमलविटपानुकारिणौ |
कुसुमिव
लोभनीयं यौवनमंगेषु सन्नद्धम् ||' (अभिज्ञान.)
पुनः स्त्रियों के विषय
में कहा गया है कि अगनाओं का हृदय कुसुम के समान होता है। जिसप्रकार कुसुम
सुरभिपूर्ण एवं कोमल होता है उसी प्रकार अंगनाओं का हृदय भी भावपरिपूर्ण एवं कोमल
होता है-
‘आशावंधः कुसुमसदृशं प्रायशो ह्यङ्गनानां |
सद्य: पाति प्रणयि हृदयं विप्रयोगे रुणद्धि ||
कालिदास ने शकुंतला को
छोड़कर का चलते हुए आकृष्ट दुष्यंत की दशा का वर्णन इस प्रकार किया है-
'गच्छति पुरः शरीरं धावति पश्चादसंस्तुतं चेत: |
चीनांशुकमिव केतो: प्रतिवातं नीयमानस्य ॥' (अभिज्ञान.)
अर्थात्-
'जब मैं चलता हूँ तब मेरा शरीर तो आगे चलता है परन्तु मेरा
मन ठीक वैसे ही पीछे भागता है जैसे वायु की विरुद्ध दिशा में लेजाये जाता हुआ
रेशमी वस्त्र| यहाँ कवि ने शरीर की
उपमा पताका के दंड से की है, मन की उपमा पताका के वस्त्र से की
है।'
पुन:
शकुन्तला की मनोदशा का वर्णन करते हुए कहा गया है -
'शोच्या च प्रियदर्शना च मदनक्लिष्टेयमालक्ष्यते |
पत्राणामिव शोषणेन मरुता स्पृष्टा लता माधवी || (अभिमान.)
इसी
प्रकार पुन: शकुंतला के विषय में कहा गया है की कण्व-शिष्यों के मध्य शकुंतला की
शोभा वैसे ही है जैसे पके-पीले नीरस पत्तों के बीच किसलय-
मध्ये तपोधनानां किसलयमिव पांडुपत्राणाम् |'
पात्र चयन वैशिष्ट्य-
कालिदास
की कृतियों में सदैव ही पात्रचयन व उनका विवेचन उत्कृष्ट रहा है| कवि
ने नित्य ही अपने काव्यों में पात्र चयन लक्षणग्रंथों के अनुरूप ही किया है| यही कारण है कि कालिदस के ग्रंथों में निर्दोषता सदा ही परिलक्षित होती
है|
दुष्यन्त —
अभिज्ञानशाकुन्तल के पुरुष पात्रों में दुष्यन्त का प्रमुख स्थान है, इसका दूसरा नाम 'दुष्मन' भी
है। यह धीरोदात्त नायक है। यथा-
'महासत्त्वोऽतिगम्भीर क्षमावानविकत्थनः।
स्थिरो
निगूढाऽहङ्कारो धीरोदात्तो दृढव्रतः ॥‘
अर्थात्
वह धीरोदात्त, महाबली, अतिगम्भीर, क्षमाशील, अविकत्थन (आत्मप्रशंसा-निरपेक्ष), स्थिरप्रकृति, अहंकाररहित और दृढनिश्चय वाला साथ ही उसको उच्चकुल का होना चाहिए।
पुरुवंशीय राजा दुष्यन्त में ये सभी गुण विद्यमान हैं।
शकुन्तला - प्रस्तुत
नाटक की नायिका शकुन्तला है। वह मूलतः विश्वामित्र और मेनका अप्सरा की औरस पुत्री
है। इसका लालन-पालन महर्षि कण्व के आश्रम में हुआ। शकुन्तला के प्रति कण्व का
निर्विशेष स्नेह था। उसका उल्लेख प्रस्तुत नाटक के तृतीय अंक में इस प्रकार है—'सा खलु भगवतः कण्वस्य कुलपतेरुच्छ्वसितम्' अर्थात् यह शकुन्तला महर्षि कण्व की साँसों के समान है। शकुन्तला
के कतिपय नायिकोचित गुणों का वर्णन प्रस्तुत नाटक में मिलता है जो प्राय: एक आदर्श
नायिका के लिए निर्धारित किये गए हैं - अलौकिक सौन्दर्य, लाज्जाशीलता, अनन्य पतिनिष्ठा,
कलाचातुर्य, प्रकृतिप्रिया, स्वाभिमानिनी प्रेमिका आदि|
कालिदास
ने अपने अन्य काव्यों में भी इसी प्रकार नायक एवं नायिकाओं सहित अन्य पात्रों का
भी उत्तम चारित्रिक वर्णन किया है|
कालिदास
न केवल अलंकार अथवा पात्रविशिष्टता के धनी हैं अपितु काव्य को प्रकाशित करने वाले
प्रत्येक रस, छंद, गुण सभी आभूषणों की चमत्कृति से सुसज्जित हैं| तथाविध उनके काव्यों में भी इन सभी
काव्यमयी तत्वों का समावेश पूर्ण रूप से है|
इस
प्रकार कालिदास की रचनाओं में उपमा का रमणीय प्रयोग देखने को मिलता है जिसके कारण
सामाजिकों का हृदय इन कृतियों को पढ़कर सहज ही भावविभोर हो उठता है। उसके मानसपटल
पर सभी तत्वों के विषय में सादृश्य व साम्य की धाराएँ ओतप्रोत होने लगती हैं।
संदर्भ ग्रन्थ सूची
१. त्रिपाठी कृष्णमणि, अभिज्ञानशाकुन्तलम्, चौखम्बा पब्लिशिंग हाउस, नयी दिल्ली, २०१६
२. मणि रविकांत, रघुवंशमहाकाव्य, हंसा प्रकाशन, जयपुर, २००८
३. त्रिपाठी कृष्णमणि, कुमारसंभव, चौखम्बा
सुरभारती प्रकाशन, नई
दिल्ली, २००६
४. शास्त्री पं. रामतेज, विक्रमोर्वशीयम्, चौखम्बा सुरभारती प्रकाशन, वाराणसी, २०१४
५. त्रिपाठी ब्रह्मानंद, मालविकाग्निमित्रम्, चौखम्बा पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली, २०१६
६. त्रिपाठी ब्रह्मानंद, कालिदास ग्रंथावली, चौखम्बा सुरभारती प्रकाशन, वाराणसी, २०१६
श्रीमती कृती भारद्वाज
शोध छात्रा(संस्कृत)
एम.बी. पी. जी. महाविद्यालय
कुमाऊं विश्वविद्यालय, नैनीताल
ईमेल -kriti.bhardwaj.18@gmail.com
अप्रतिम 💐💐👌👌
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