- गिरीश शास्त्री एवं डॉ. कुंवर सुरेंद्र बहादुर
शोध सार : भारत की पुण्य धरा पर कई महापुरूषों ने जन्म लिया है।
जिन्होंने जीवनभर विभिन्न सामाजिक सुधारों के साथ समाज को सम्यक् दिशा देने का कार्य
किया है। ऐसे ही महापुरूष हैं बाबासाहेब डॉ. भीमराव अम्बेडकर। डॉ. अम्बेडकर ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने
अपनी अंतिम साँस तक भारतीय समाज में मौजूद भेदभाव, कुरीतियों, बुराइयों आदि को समाप्त करने का प्रयास किया। इसके लिए डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने चार दशक तक अपनी लेखनी और पत्रकारिता
के माध्यम से सामाजिक जनजागरण और समाज सुधार के लिए आग्रह किया। प्रस्तावित शोध
विषय ‘सामाजिक जनजागरण में डॉ. भीमराव अम्बेडकर की संचार शैली का अध्ययन’ में डॉ. भीमराव अम्बेडकर द्वारा किये गये सामाजिक जनजागरण में उनकी संचार
शैली एवं पत्रकारिता की क्या भूमिका रही, क्या प्रासंगिकता रही, का अध्ययन कर व्याख्यायित किया जाना है। डॉ. अम्बेडकर ने ‘मूकनायक’, ‘बहिष्कृत भारत’, ‘जनता’ तथा ‘प्रबुद्ध भारत’ नामक पत्रिकाओं में सामाजिक जनजागरण हेतु लेखन एवं सम्पादन
का कार्य किया। इन पत्रिकाओं में उन्होंने अपने लेखों के जरिये उच्च वर्गों एवं
सवर्णों द्वारा किये जाने वाले अमानवीय व्यवहार का कड़ा प्रतिकार किया और लोगों को
अन्याय का विरोध करने के लिए प्रेरित किया।
बीज शब्द : अम्बेडकर, पत्रकारिता, सामाजिक जनजागरण, दलित पत्रकारिता।
मूल आलेख :प्राचीन काल से सभ्यता के विकास के क्रम में मानव समाज अनेक रीति-रिवाजों को मानता आया है। इनमें से अनेक वर्तमान या आधुनिक
परिप्रेक्ष्य में कुरीतियों की श्रेणी में आने लगीं हैं। इन्हीं कुरीतियों, समाज में व्याप्त असमानता एवं भेदभाव की स्थितियों का
विरोध कर एक नई वैकल्पिक व्यवस्था की स्थापना करना तथा सामान्य जनमानस को इसके लिए
प्रेरित करना सामाजिक जनजागरण है। इस कड़ी में राजा राममोहन राय, ज्योतिबा फुले, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, महात्मा गाँधी आदि समाज सुधारकों के साथ डॉ. भीमराव अम्बेडकर भी प्रमुख हैं। 14 अप्रैल 1891 को महु कैंट, मध्यप्रदेश में सामाजिक, आर्थिक एवं शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े हुए महार परिवार में
डॉ. भीमराव अम्बेडकर का जन्म हुआ। डॉ. भीमराव अम्बेडकर बहुआयामी प्रतिभा के धनी थे। वे गंभीर
चिंतक, लेखक, साहित्यकार, दार्शनिक, अछूतोद्धारक, प्रखर राजनीतिज्ञ व समाज सुधारक के साथ साथ एक उच्च कोटि के
पत्रकार भी रहे। डॉ. अम्बेडकर ने अपने समाज सुधार के
प्रयासों, अछूतोद्धारक कार्यों, नारी जाति के उद्धार में पत्रकारिता के अच्छे व सार्थक प्रयोग किए। अपने जीवनकाल
में वंचित लोगों को सच का मंच व मूक लोगों को वाणी देने के उद्देश्य से एक समाचार
पत्र ‘‘मूकनायक’’ आरम्भ किया। इसी तरह दलितों को सम्बोधित व जागरूक करने
हेतु पाक्षिक पत्र ‘‘बहिष्कृत भारत’’ का प्रकाशन शुरू किया। इसके अलावा डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने ‘‘जनता’’ तथा ‘‘प्रबुद्ध भारत’’ जैसे समाचार पत्रों के माध्यम व अपने सतत् प्रयासों से
लोगों में आत्मविश्वास पैदा किया। जिससे उनमें नवजागृति आई व वे संगठित हुए।
शोध की प्रासंगिकता- प्रस्तुत शोध विषय भारत के महान चिंतक डॉ. भीमराव अम्बेडकर की संचार शैली एवं पत्रकारिता और उसके
माध्यम से आये सामाजिक जनजागरण को रेखांकित करने को लेकर है। भारत की आजादी के
पश्चात् और उसके पहले तथा आज भी दलितों, पिछड़ों और शोषितों के प्रति भारतीय जनमानस की राय बहुत
अच्छी नही है। उनके साथ आज भी बहुत से भेदभाव के मामले सामने आते रहते हैं। ऐसे
में डॉ. भीमराव अम्बेडकर की संचार शैली और
पत्रकारिता पर शोध करने की प्रासंगिकता और प्रबल हो जाती है, साथ ही इसके माध्यम से पत्रकारिता में दलितों और अंतिम
पायदान पर खड़े व्यक्तियों के हक के लिए क्या कदम उठाये जाएँ, इस पर भी यह शोध गहन प्रकाश डालने का काम करेगा।
पत्रकारिता डॉ. भीमराव अम्बेडकर के जीवन का एक ऐसा पक्ष है जिसकी कभी ज़्यादा
चर्चा नही होती। लेकिन बतौर निष्ठावान पत्रकार उनकी लेखनी ने चार दशक तक समाज को
राह दिखाई। स्याही के माध्यम से सिद्धांतों के लिए संघर्ष की यह यात्रा अपने आप
में अनूठी है। डॉ. अम्बेडकर ने सामाजिक जनजागरण हेतु
अपने समाज सुधार के प्रयासों, वंचित वर्गों एवं नारी जाति के उद्धारण में पत्रकारिता के अच्छे
व सार्थक प्रयोग किये। इस शोध के माध्यम से भारतीय समाज में अपेक्षित सुधार और
पत्रकारिता का उस संदर्भ में प्रभाव, भूमिका और उपादेयता को जानने में मदद मिलेगी।
o रणसुभे, सूर्यनारायण, 2010, पत्रकारिता के युग निर्माता डॉ. भीमराव अम्बेडकर, प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली
प्रस्तुत पुस्तक ‘पत्रकारिता के युगनिर्माता डॉ. भीमराव अम्बेडकर’ में लेखक ने डॉ. अम्बेडकर के जीवन, उनके पत्रकारीय अवदान तथा उनके द्वारा समाचार पत्रों में लिखित सम्पादकीय इत्यादि का समावेश किया है। लेखक ने डॉ. अम्बेडकर के जीवन को कई ऐसे पहलुओं से परिचित कराने का ईमानदार प्रयास किया है, जो सामान्यतः उन पर लिखी कई पुस्तकों से भिन्न है। पुस्तक डॉ. अम्बेडकर के पत्रकारीय जीवन को भलीभाँति समझने, उनके संघर्षपूर्ण जीवन को जानने के लिए बेहद उपयोगी है। यह पुस्तक प्रस्तुत शोध के संभावित लक्ष्यों को तक पंहुचने में बहुत कारगर सिद्ध होगी।
डॉ. अम्बेडकर का चिंतन और उनका कर्म बहुत विशाल है। लगभग सभी लोगों ने डॉ. अम्बेडकर को अपने-अपने नजरिए से देखा है, लेकिन उनका समग्र आकलन बहुत कम हुआ। उनके प्रति कुछ दृष्टिकोण अधूरे हैं, तो कुछ तथ्यों के विपरीत। ऐसे में यह पुस्तक उनके पत्रकारिता के दृष्टिकोण को समझने के लिए बहुउपयोगी है। पुस्तक में डॉ. अंबेडकर द्वारा पत्रकारिता के क्षेत्र में किए गये कार्य एवं उनका पत्रकारीय मन जो कि सामाजिक जनजागरण के लिए निरंतर कर्मरत था, को करीब से जानने के लिए विशिष्ट एवं उपयोगी सामग्री का समावेशन है। यह पुस्तक प्रस्तुत शोध के लिए उपयोगी है।
आज दलित पत्रकारिता/साहित्य काफी बढ़ गया है। यह प्रमुख रूप से डॉ. अम्बेडकर के लेखन से उत्पन्न हुआ है। डॉ. भीमराव अम्बेडकर दलित पत्रकारिता और दलित साहित्य के प्रवर्तक रहे हैं। वे वास्तव में तेज़ी से उभरते दलित साहित्य के लिए सबसे प्रेरणादायक कारक हैं। यह पुस्तक डॉ. अम्बेडकर को पत्रकार के रूप में स्थापित करती है तथा उनका दलित पत्रकारिता पर प्रभाव को रेखांकित करती है।
प्रस्तुत पुस्तक में डॉ. भीमराव अम्बेडकर के विभिन्न विषयों पर लिखे गये पत्रों तथा बहिष्कृत भारत में प्रकाशित उनके लेखों का समावेशन है। साथ ही पुस्तक में उस समय के भारतीय समाज की स्थिति का भी बखूबी वर्णन किया गया है। पुस्तक में डॉ. अम्बेडकर के जीवन पहलुओं की चर्चा के साथ उनके पत्रों के बारे में विस्तृत जानकारी का लिखा होना, पुस्तक को शोध के लिए उपयोगी बनाता है।
डॉ. भीमराव अम्बेडकर बहुआयामी प्रतिभा के धनी थे। वे कानूनविज्ञ, समाज सुधारक, श्रमिक नेता, महिला सशक्तिकरण के पक्षधर, कुशल राजनीतिज्ञ, दलितों एवं पिछड़े वर्गों के मसीहा के साथ साथ एक पत्रकार भी थे। इस पुस्तक में उनके जीवन से जुड़े विभिन्न आयामों को प्रभावी ढंग से प्रस्तुत किया है। सामाजिक समरसता और जागृति के लिए डॉ. भीमराव अम्बेडकर द्वारा किये गये कार्यों का इस पुस्तक में भंलीभांति वर्णन है। अतः यह पुस्तक इस शोध कार्य के लिए उपयोगी सिद्ध होगी।
डॉ. भीमराव अम्बेडकर के विचारों एवं उनके जीवन दर्शन को इस लघु पुस्तक में प्रकाशित किया गया है। पुस्तक में लेखक ने यह स्थापित करने का प्रयास किया है कि डॉ. अम्बेडकर न सिर्फ दलितों व वंचितों के उद्धारक थे, न सिर्फ संविधान शिल्पी थे, बल्कि सामाजिक जनजागरण को एक नई दिशा देने वाले महापुरूष भी थे। यह पुस्तक प्रस्तुत शोध के लिए सार्थक साहित्य है।
शोध के उद्देश्य- प्रस्तावित शोध के उद्देश्य निम्नलिखित हैं -
· डॉ. अम्बेडकर द्वारा की गयी पत्रकारिता का समकालीन जनमानस पर प्रभाव एवं परिवर्तन का अध्ययन करना।
· पत्रकार, शोध लेखक एवं एक संचारक के रूप में डॉ. अम्बेडकर के व्यक्तित्व को रेखांकित करना।
· डॉ. अम्बेडकर द्वारा सामाजिक जनजागरण हेतु लिये गये निर्णयों एवं लेखों का अध्ययन करना।
शोध प्रश्न- प्रस्तावित शोध विषय हेतु शोध प्रश्न निम्न हैं -
· डॉ. अम्बेडकर द्वारा की गयी पत्रकारिता का समकालीन जनमानस पर क्या प्रभाव पड़ा ?
शोध प्रविधि और तथ्य संकलन विधि- प्रस्तावित शोध विषय ‘सामाजिक जनजागरण में डॉ. भीमराव अम्बेडकर की संचार शैली का अध्ययन’ को मूर्त रूप देने के लिए गुणात्मक विधि का प्रयोग किया गया। शोध को आधार प्रदान करने के लिए निम्न शोध प्रविधियों और शोध उपकरणों का उपयोग किया गया -
· वैयक्तिक अध्ययन-
इस विधि के माध्यम से डॉ. अम्बेडकर द्वारा किए गये पत्रकारीय सरोकारों को जानने-समझने एवं उनका सामाजिक जनजागरण के संदर्भ में प्रभाव आदि पर विस्तृत अध्ययन किया जायेगा।
· साक्षात्कार-
साक्षात्कार के माध्यम से डॉ. भीमराव अम्बेडकर के सामाजिक जनजागरण के क्षेत्र में किये गये कार्यों तथा उनके दूरगामी परिणामों को समझने का प्रयास किया जाएगा। साक्षात्कार के लिए डॉ. अम्बेडकर से संबंधित वक्ताओं, शिक्षाविदों एवं शोधार्थियों तक पंहुचने का प्रयास रहेगा।
· अंतर्वस्तु विश्लेषण-
इस विधि के माध्यम से महत्त्वपूर्ण पुस्तक, लेख, आलेख, शोधपत्र आदि में डॉ. अम्बेडकर पर प्रकाशित सामग्री का अंतर्वस्तु विश्लेषण किया जाएगा। जिसके माध्यम से डॉ. अम्बेडकर की संचार शैली और पत्रकारिता का सामाजिक जनजागरण में प्रभाव व योगदान को आमजन के सामने लाने का प्रयास किया जाएगा।
तथ्य संकलन - तथ्य संकलन के लिए प्राथमिक और द्वितीयक डेटा का उपयोग किया जाएगा।
· प्राथमिक डेटा- इसमें साक्षात्कार, अवलोकन, वैयक्तिक अध्ययन, प्रिंट माध्यम आदि से प्राप्त सामग्रियों को शोध का आधार बनाया जाएगा।
· द्वितीयक डेटा- इसमें व्यक्तिगत आलेख, सार्वजनिक आलेख, डायरी, संस्मरण, जीवन वृत्त, पत्र, शोध रिपोर्ट आदि के माध्यम से प्राप्त तथ्यों को शोध में शामिल किया जाएगा।
विषय वस्तु विश्लेषण- शोध उद्देश्य बिंदू संख्या 1 और 3 के संदर्भ में शोधार्थी ने डॉ. अम्बेडकर द्वारा पत्रकारिता के क्षेत्र में किये गये
कार्यो का अध्यन किया। उक्त अध्ययन की विवेचना इस प्रकार है–
सामाजिक उत्थान हेतु पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रवेश - डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने 31 जनवरी, 1920 को “मूकनायक” नामक पाक्षिक पत्रिका को शुरू किया। इस पत्रिका के
अग्रलेखों में डॉ. अम्बेडकर ने दलितों की तत्कालीन
सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक समस्याओं को बड़ी
निर्भीकता से उजागर किया। यह पत्रिका उन मूक-दलित, दबे-कुचले लोगों की आवाज बनकर उभरी जो
सदियों से उच्च वर्गों तथा सवर्णों का अन्याय और शोषण चुपचाप सहन कर रहे थे।
डॉ. भीमराव अम्बेडकर विदेश में रहते हुऐ
भी शोषितों-वंचितों के लिए बहुत चिंतित रहते थे, उन्होंने लंदन प्रवास में वहां के पुस्तकालयों में शोषण, भेदभाव तथा अस्पृश्यता पर उपलब्ध सामग्री का ध्यानपूर्वक
अवलोकन किया। विदेश से अपनी शिक्षा पूर्ण करके जब वे वापस भारत आये तो उन्होंने
फिर से शोषित-वंचित और निम्न वर्गों के अधिकारों
की लड़ाई लड़नी शुरु कर दी। 1927 में उन्होंने ‘बहिष्कृत भारत’ नामक एक अन्य पत्रिका को शुरू किया। इसमें उन्होंने अपने
लेखों के जरिये उच्च वर्गों एवं सवर्णों द्वारा किये जाने वाले अमानवीय व्यवहार का
कड़ा प्रतिकार किया और लोगों को अन्याय का विरोध करने के लिए प्रेरित किया। डॉ. अम्बेडकर ने ‘जनता’ तथा ‘प्रबुद्ध भारत’ नामक पत्रिकाओं में भी सामाजिक जनजागरण हेतु लेखन एवं
सम्पादन का कार्य किया।
डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने 1920 में अपना पहला पत्र निकाला। इससे पूर्व वे कई पत्र-पत्रिकाओं में लिखते रहे। उन्होंने अपनी पत्रकारिता
क्षेत्रीय भाषा मराठी में शुरू की। उस समय भारतीय पत्रकार क्षेत्रीय तथा स्थानीय
भाषाओं में समाचार पत्रों का प्रकाशन करते थे, जिससे कि लोगों तक अपनी बात पंहुचाने में असानी रहे और वे
विदेशी शासन के खिलाफ जागरूक हों। भाषा को लेकर डॉ. गंगाधर पानतावने लिखते हैं कि ‘‘भाषा, विचार वहन का प्रभावी माध्यम है। लेखक की शक्ति उसकी भाषा होती
है और जनमानस को प्रेरित करने का बल भाषा में ही होता है।’’[1] इसीलिए डॉ. अम्बेडकर ने भी अपने उद्देश्यों तक पंहुचने के लिए स्थानीय
भाषा में ही पत्रकारिता शुरू करने का निश्चय किया।
डॉ. अम्बेडकर सामाजिक समस्याओं के पर
दैनिक पत्रों में अपनी टिप्पणियां 1919 में ही देने लगे थे। 1919 में बंबई टाइम्स में लिखे एक पत्र में वे कहते हैं- ‘‘स्वराज्य, जैसे ब्राह्मणों का जन्मसिद्ध अधिकार है, वैसे ही दलितों का भी है, इसे कोई भी स्वीकार करेगा। इसलिए सवर्ण दलितों को शिक्षा
देकर उनके मन की ऊँचाई और सामाजिक प्रतिष्ठा को बढ़ायें। ऐसा करना उनका कर्तव्य है।
जब तक यह नहीं होगा, तब तक भारत में स्वराज्य की स्थापना
सहज संभव नहीं है।’’[2]
सामाजिक जनजागरण हेतु संघर्ष एवं आंदोलन- डॉ. अम्बेडकर ने 20 जुलाई 1924 को ‘बहिष्कृत हितकारिणी सभा’ का गठन किया, जिसका कार्य वंचित वर्गों के लिए चहुँमुखी विकास करना था।
डॉ. अम्बेडकर इस संस्था की प्रबंध समिति
के अध्यक्ष थे। अप्रैल 1925 में डॉ. भीमराव अम्बेडकर की अध्यक्षता में महाराष्ट्र के रत्नागिरी
जिले के मालवण नामक गाँव में ‘बंबई प्रांतीय परिषद्’ का प्रथम अधिवेशन हुआ। इस सम्मेलन में प्रस्ताव पारित किया
गया कि दलितों को कथित उच्च जातियों के समान सामाजिक और राजनीतिक समानता के अधिकार
प्राप्त करने के लिए आर्थिक और शैक्षणिक प्रयास करने चाहिए। इस अवसर पर डॉ. अम्बेडकर ने दलितों के उत्थान का मूल दिया और कहा ‘‘सभी दलितों को यह सिद्धांत ध्यान में रखते हुए कार्य करना
है- अपनी सहायता श्रेष्ठ सहायता है (सेल्फ हेल्प इज बेस्ट हेल्प)।’’
1927 में ही डॉ. अम्बेडकर ने दो संगठनों की स्थापना की। सितम्बर 1927 में ‘समाज समता संघ’ एवं अनन्तर ‘समता सैनिक दल’ के माध्यम से उन्होंने दलित वर्ग के लिए समानता की माँग दोहराई।
उक्त संगठनों के उद्देश्यों में अन्य बातों के अलावा अन्तरजातीय विवाह व अन्तरजातीय
भोज को भी शामिल किया गया। वर्ष 1928 में डॉ. अम्बेडकर ने दलित वर्ग शिक्षा समिति (Depressed Class Education
Society) मुंबई की स्थापना की। उस समय दलितों
पर लगे प्रतिबंधों में उनका मंदिर प्रवेश भी निषेध था। महाराष्ट्र के नासिक जिले
में कालाराम मंदिर में अछूत नहीं जा सकते थे। 02 मार्च 1930 को डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने अछूतों को मंदिर
प्रवेशाधिकार दिलाने के लिए शंखनाद किया और नासिक के कालाराम मंदिर में प्रवेश के
लिए सत्याग्रह किया। 5 वर्ष की मुकदमेबाजी व डॉ. अम्बेडकर के अथक प्रयासों से अक्टूबर, 1935 को अछूतों के लिए मंदिर प्रवेश का
कानून बना और कालाराम मंदिर के दरवाजे सबके लिए खुल गये।
भारत में जाति व्यवस्था और अस्पृश्यता ने व्यक्ति के विकास
को बाधित किया है। व्यक्ति के विकास के कारण राजनीतिक और आर्थिक विकास नहीं हो सका
और बाहरी आक्रांताओं की गुलामी सहन करनी पड़ी। डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने चतुर्वर्ण व्यवस्था किस प्रकार अमानवीय
और अनुचित है, को सिद्ध करने के लिए समाजशास्त्र, मानवशास्त्र, इतिहास, धर्म आदि का अध्ययन कर इसकी अवैज्ञानिकता सिद्ध की। 20 मई 1927 के ‘बहिष्कृत भारत’ के अंक में डॉ. अम्बेडकर अस्पृश्य बन्धुओं को सम्बोधित करते हुए लिखते हैं
- ‘‘जो डरता है ब्रह्मराक्षस उसी के पीछे
लगता है। सर्वशक्तिमान भगवान को बलि देने के लिए शेर जैसे हिंसक पशुओं का कोई
उपयोग नहीं करता। उसके विपरीत बेचारे मुर्गों-बकरों की बलि दी जाती है पर तुम तो शेर हो।’’[3] उक्त पंक्तियों के माध्यम से डॉ. अम्बेडकर अस्पृश्यों को उनकी क्षमता और सामर्थ्य का स्मरण
करवाते हैं। वर्षों से अस्पृश्यों के साथ हो रहे अन्याय को डॉ. अम्बेडकर जंगली लोगों की विचारधारा कहते हैं। वे उन्हें
आत्मबल और उत्साह प्रदान करने के लिए ये पंक्तियां लिखते हैं। अंत में श्री समर्थ
रामदास की सुक्ति उद्धृत करते हैं- ‘‘भले कुलवंत मडणावें। तेहीं वेगीं हजीर बहावें। हजीर न होता
कष्टावें। लागेल पुढ़ें।। कुलवंत भले ही कहें, वही वेग से हाजिर न होने से आगे कष्ट भोगना होगा। हमें आशा
है कि यह समय की आवाज व्यर्थ नहीं जायेगी।’’[4]
डॉ. अम्बेडकर ने जाति व्यवस्था को नष्ट
करने हेतु अपने ग्रन्थ ‘इन्हीलिएशन ऑफ कास्ट’ में अंतरजातीय विवाह करने का मार्ग बताया साथ ही अंतरजातीय
विवाह के समाचारों को अपने समाचार पत्रों में प्रकाशित कर उनका समर्थन और अभिनंदन
किया। ‘बहिष्कृत भारत’ का छठा और सातवां अंक संयुक्तांक के रूप में 1 जुलाई, 1927 को प्रकाशित हुए। ‘आजकल के प्रश्न’ स्तम्भ में एक से छः तक प्रश्न मिश्रित विवाह पर आधारित
थे। मिश्रित विवाह के एक प्रकरण को विस्तार से लिखा गया है। जिसमें लक्ष्मी भट्ट
जो कि पं. मदन मोहन मालवीय के सम्बन्धी थे।
उनकी एक बेटी मदन मोहन मालवीय के बेटे से ब्याही गयी थी। दूसरी बेटी मालिनीबाई
पाणंदीकर का विवाह मुसलमान युवक बशीरूद्दीन बी.ए., बी.टी. के साथ हुआ। मालिनीबाई सारस्वत
ब्राह्मण थी। इसके कारण मदन मोहन मालवीय ने उनका सामाजिक बहिष्कार किया। तब लाला
लाजपतराय को उनके ऐसे विचारों से आश्चर्य हुआ। उन्होंने ‘पीपुल्स’ पत्र में बयान दिया कि- ‘‘बेटी व्यवहार शुरू किये बगैर जातिभेद नहीं मिटेगा। अगर
जातिभेद की किलेबन्दी ध्वस्त करनी है, तो सर्वप्रथम बेटीबंदी का अंत करो।’’[5] जातिभेद को समाप्त करने हेतु डॉ. अम्बेडकर के भी यही विचार थे। वे इस प्रकरण पर लिखते हैं- ‘‘यह विवाह हिन्दू-मुस्लिम के बीच हुआ था। ब्राह्मण और मराठा में रोटी-बेटी का व्यवहार नहीं होता है। हिन्दू-मुसलमानों में भी नहीं होता। जैसे ब्राह्मण मराठा-जातिभेद है। वैसे ही हिन्दू-मुसलमान भी जातिभेद है। यह भेद और कटुता खत्म करने के लिए
हिन्दू-मुसलमानों में परस्पर मिश्रित विवाह
होने ही चाहिए।’’[6] रविन्द्र नाथ टैगोर के भी यही विचार
थे, उन्होंने भी मिश्रित विवाह को जातिभेद
समाप्त करने हेतु उचित ठहराया, जिसे इस अंक में छापा गया। इसी अंक में अस्पृश्यों को जागरूक और
अपने हकों के लिए प्रेरित करने हेतु डॉ. अम्बेडकर लिखते हैं- ‘‘बच्चा कितना भी प्यारा हो उसे हमेंशा कंधे पर रखोगे तो वह
लूला (लंगड़ा) हो जायेगा। उसको छोड़ने से ठेस तो लग सकती है। लेकिन अन्ततः
वह अपने पैरों पर खड़ा होना सीखकर ही स्वतंत्र होगा। इस अछूत बच्चे को भी खुद ही
चलना होगा।’’[7] इस प्रकार के उदाहरण देकर डॉ. अम्बेडकर स्पष्ट रूप से अछूतों को मजबूत और आत्मनिर्भर
बनने का संदेश देना चाहते थे।
धर्म, विवाह, जाति संबंधी मामलों में डॉ. अम्बेडकर ने गंभीर अध्ययन किया। वे उस समय भारत में
प्रचलित विवाह पद्धति में बालविवाह को समाज के लिए घातक मानते थे। ‘बहिष्कृत भारत’ में डॉ. अम्बेडकर बालविवाह के संबंध में लिखते हैं- ‘‘जिस प्रकार मजबूत वृक्ष चाहिए तो उसका अंकुर मजबूत होना
चाहिए, ठीक इसी प्रकार देश में अगर सुदृढ़
संतति की जरूरत हो तो प्रजोत्पन्न के समय स्त्री-पुरूष की संपूर्ण वृद्धि जरूरी है। बारह वर्ष के बालक का
विवाह कर उसकी ओर से इस देश में जो प्रजोत्पादन होता है, वह प्रजा अल्पायुषी, निस्तेज, कमजोर, निरूत्साही और उदासीन न होगी तो और
कैसी होगी? इस देश में वैज्ञानिक नहीं हो पाए, इसके मूल में यह गलत विवाह पद्धति ही है। जहाँ शारीरिक
सामर्थ्य का लोप होता है, वहाँ मानसिक सामर्थ्य का लोप होना
कोई आश्चर्य की घटना नहीं है।’’[8] यह विचार डॉ. अम्बेडकर सन् 1928 में लिख रहे थे। आज हम सभी जानते हैं कि बालविवाह समाज के
लिए कितना बड़ा अभिशाप है। सरकार इसके लिए अखबार, रेड़ियो, टेलीविजन, नुक्कड़ नाटक जैसे विभिन्न माध्यमों
के द्वारा जन-जन को जागरूक कर रही है। 21 दिसम्बर, 1928 के ‘बहिष्कृत भारत’ के अंक में ‘हिन्दुओं का धर्मशास्त्र’ शीर्षक से लेख में डॉ. अम्बेडकर सहभोज और सहविवाह को सामाजिक अभिसरण की प्रक्रिया
में आवश्यक तत्त्व बताते हैं। आज सहभोज को समाज में बड़े स्तर पर स्वीकार्यता मिली
है परंतु सहविवाह की अस्वीकार्यता हमें समाज में देखने को मिलती है। जो कि सामाजिक
समरसता के स्तर में बाधक है। सूर्यनारायण रणसुभे अपनी पुस्तक पत्रकारिता के
युगनिर्माता भीमराव अम्बेडकर में डॉ. अम्बेडकर को भारतीय समाज के पुनर्निर्माण के पहले उद्गाता
बताते हैं। आगे वे लिखते हैं- ‘‘डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने बार-बार लिखा है कि मेरा झगड़ा किसी वर्ण या जाति से नहीं है।
मेरा झगड़ा ‘ब्राह्मण्य’ मानसिकता से है और ब्राह्मण्य मानसिकता किसी विशिष्ट वर्ण
से, जाति से जुड़ी हुई नहीं है। मैं तथा
मेरी जाति अथवा वर्ण ही श्रेष्ठ है, शेष कनिष्ठ, यह वृत्ति समाज के स्वास्थ्य के लिए घातक है। अछूत तथा
कमजोर इकाई पर पहली बार उन्होंने सूक्ष्मता से विचार किया, इसलिए नहीं कि वे उस तबके से आए थे, बल्कि इसलिए कि वे एक नए समाज का स्वप्न देख रहे थे।’’[9] इस प्रकार डॉ. अम्बेडकर ने आधुनिक समाज का सपना अपने समय में ही देख लिया
था और उसकी नींव डाल दी थी। डॉ. अम्बेडकर ने शिक्षा के लिए जो संघर्ष किया और अधिकारों के लिए जो
संघर्ष किया, वह आज की युवा पीढ़ी के लिए
प्रेरणास्रोत है।
शोध उद्देश्य बिंदू संख्या 2 के संदर्भ में शोधार्थी ने डॉ. अम्बेडकर द्वारा लिखित संपादकीय एवं लेख, जो कि समाचार पत्रों में प्रकाशित हुए, का अध्ययन किया। उक्त अध्ययन की विवेचना इस प्रकार है-
विश्लेषणात्मक और रचनात्मक कलम- डॉ. अम्बेडकर की कलम विश्लेषणात्मक और
रचनात्मक होकर विरोधियों पर बौद्धिक प्रहार करने में कभी नहीं चूकती। रचनात्मकता
के साथ विश्लेषण करना डॉ. अम्बेडकर की कलम की विशेषता थी। वे
तर्क और कानून के माध्यम से किसी विषय को खंगालते और बौद्धिक कुशलता से सबके समक्ष
रखते थे। डॉ. अम्बेडकर ‘बहिष्कृत भारत’ में ‘अस्पृश्यता व सत्याग्रह की सिद्धि’ शीर्षक से लेख में लिखते हैं कि- ‘‘हमारे विरोधी लोगों का कहना है कि हम अछूतों को मन्दिर में
नहीं आने देते तो वह भगवान के मंदिर अलग स्थापित करने के लिए स्वतंत्र हैं। केवल
उपासना के लिए अछूत अपना हक मंदिर प्रवेश के रूप में मांगते हैं। उनका यह सोचना
गलत है। हमारा उनसे सवाल है कि रेलवे अधिकारियों ने अगर गोरे लोगों के लिए रेलवे
के डिब्बे अलग रखे हैं और उनमें काले लोगों का नहीं बैठने देंगे तो तुम इस भेदभाव
के खिलाफ क्यों लड़ते हो?’’[10] इस प्रकार डॉ. अम्बेडकर सार्थक ढंग से अपनी विश्लेषणात्मक लेखनी द्वारा
किसी विषय पर अपने विचार रखते हैं।
डॉ. अम्बेडकर लेखों में अन्य जगहों पर
अपनी बात समझाने के लिए रचनात्मक शैली में लिखते हैं- ‘‘एक जाति दूसरी जाति का नुकसान करती है तो उस जाति का भी
नुकसान अटल हो जाता है, इस प्रकार का विचार करते हुए डॉ. अम्बेडकर नाव में यात्रा करने वाले यात्रियों की मिसाल
देते हैं। नाव में बैठकर यात्रा करने वाले यात्री ने जानबूझकर दूसरों को नुकसान
करने के लिए या मजाक के तौर पर अपने विनाशकारी स्वभाव के अनुसार दूसरों के कमरे को
गिराया तो दूसरों की तरह उसको भी जिस तरह जल समाधि मिलेगी, उसी प्रकार जाति संबंधों की बात है।’ अन्य जगह डॉ. अम्बेडकर लिखते हैं- ‘दो गुटों के बीच समझौता होने में देर नहीं लगती, जैसे लोहे के दो टुकड़े तपकर लाल होने पर वे एक हो जाते
हैं।’’[11] इस तरह लेख में रचनात्मकता को डॉ. समाहित करते थे। ‘बहिष्कृत भारत’ के विशिष्ट संपादकीय ‘क्या बहिष्कृत भारत का लौकिक ऋण नहीं है?’ में डॉ. अम्बेडकर ‘बहिष्कृत भारत’ के लिए फंड इकठ्ठा करने हेतु विचारों को इस प्रकार रखते हैं- ‘‘किसी भी प्रकार का यज्ञ करते समय उसके लिए सर्वप्रथम चावल
की ज़रूरत होती है, यह जितना सच है उतना ही सही है कि
किसी भी सार्वजनिक कार्य को करने के लिए पैसों की ज़रूरत होती है। जल बिना वृक्ष
नहीं, वैसे पैसों के बिना काम नहीं।’’[12] अन्य जगह डॉ. अम्बेडकर बाल विवाह के दुष्प्रभाव पर लिखते हैं कि जिस तरह
विशाल वृक्ष के लिए पौधा मजबूत होना चाहिए उसी तरह स्वस्थ संतान के लिए बाल विवाह
नहीं होना चाहिए। इस प्रकार उपर्युक्त अध्ययन से ज्ञात होता है कि डॉ. अम्बेडकर अपने विचार प्रभावी ढंग से जनसामान्य पर स्थापित
करने के लिए रूपकों और रचनात्मकता का समुचित प्रयोग करते हैं।
निष्कर्ष : डॉ. भीमराव अम्बेडकर के सम्पूर्ण जीवन पर दृष्टि डाली जाये तो उनका सारा जीवन ही शोषित-वंचित, उपेक्षित और निम्न वर्गों के लिए समर्पित रहा है। शोषित-वंचितों के अधिकारों के लिए उनके संघर्ष ने पूरे भारत में जनजागरण का उद्घोष किया और वो मानवता की मिसाल बन गये।
शोध उद्देश्य बिंदू संख्या 1 ‘डॉ. अम्बेडकर द्वारा की गयी पत्रकारिता
का समकालीन जनमानस पर प्रभाव एवं परिवर्तन’ तथा शोध उद्देश्य बिंदू संख्या 3 ‘डॉ. अम्बेडकर द्वारा सामाजिक जनजागरण
हेतु लिये गये निर्णयों एवं लेखों’ के संदर्भ में शोधार्थी ने पाया कि मूकनायक’ से लेकर ‘प्रबुद्ध भारत’ तक की बाबा साहेब की पत्रकारिता की जो यात्रा है, वह वास्तव में उनके सामाजिक, सांस्कृतिक तथा राजनीतिक जीवन की ही संघर्षमय यात्रा है।
दलित आंदोलन के इतिहास में भी इस यात्रा का अनन्य और असाधारण महत्त्व है। वास्तव
में ये पत्रिकाएं उस काल की ज़रूरत थी। समाज को नई दृष्टि देने का प्रयत्न इन
पत्रिकाओं ने किया। अपने लेखन द्वारा बाबासाहेब ने समग्र हिंदू समाज व देश के कोने
कोने में विचार क्रांति की चिंगारियां फैलाई। डॉ. अम्बेडकर पत्रकारिता को सामाजिक सुधार का एक सशक्त माध्यम
मानते थे।
शोध उद्देश्य बिंदू संख्या 2 ‘पत्रकार, शोध लेखक एवं एक संचारक के रूप में डॉ. अम्बेडकर का व्यक्तित्व’ के संदर्भ में शोधार्थी ने पाया कि मानना था कि डॉ. अम्बेडकर स्वयं एक उत्कृष्ट पत्रकार रहे हैं तथा
पत्रकारिता के संदर्भ में उनका मानना था कि पाठकों को अधिक प्रबुद्ध बनाना, उनमें नई सोच पैदा करना, उनमें वैज्ञानिक दृष्टि विकसित करना ही पत्रकारिता के
उद्देश्य होने चाहिए।
डॉ. अम्बेडकर की पत्रकारिता में मानवीय
मूल्यों की झलक मिलती है। “मानवीय मूल्यों से सर्वजन सुखाय की भावना प्रबल होती है। जो
बुद्धि तथा अनुभवजन्य ज्ञान की भित्ति पर आश्रित है। यह बौद्धिक विकास की अवस्थाओं
को सूचित करती है।“[13]
भारत रत्न डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने सामाजिक गुलामी के खिलाफ संघर्ष छेड़कर
भारत को आत्मनिर्भर व विकासशील देशों की प्रतिस्पर्धा में आगे बढ़ाने का महती
प्रयास किया। भारतीय संविधान के शिल्पकार भारत रत्न डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने समाज में व्याप्त जातिभेद, ऊँच-नीच एवं अस्पृश्यता के विरूद्ध अनवरत् संघर्ष किया। डॉ. अम्बेडकर संविधान निर्माता, विश्वख्याति प्राप्त विद्वान, ज्ञान के प्रतीक और दलितों के मसीहा ही नहीं वरन् एक
पत्रकार, संपादक, राजनीतिज्ञ, समाज सुधारक आदि रूपों में भी सफल रहे। श्रमिकों, वंचित वर्गों, शोषितों, महिलाओं, आदि की समस्याएं सुलझाने व उन्हें
समाज में मुख्यधारा में लाने में उनका पत्रकारीय अवदान कारगर रहा। डॉ. अम्बेडकर ने जीवन भर देश के दलितों, वंचितों, शोषितों, मजदूरों, महिलाओं को समाज में बराबरी का दर्जा, सम्मान व अधिकार दिलाने के लिए बहुआयामी प्रयत्न किए।
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