- डॉ.विकास कुमार
शोध सार : प्रस्तुत शोधपत्र में फणीश्वर नाथ रेणु (1921-1977) के कथा साहित्य के वैचारिक परिप्रेक्ष्य पर पुनर्विचार किया गया है, जिसे आंचलिकता के नाम पर अपघटित किया जाता रहा है। जिस प्रकार कथा सम्राट प्रेमचंद ने पराधीन भारत में ग्रामीण यथार्थ की ओर उपन्यास साहित्य को मोड़ा, उसी प्रकार कथाकार रेणु ने स्वाधीन भारत के ग्रामीण यथार्थ की परती को तोड़ा। उन्होंने स्वतंत्र भारत के सामाजिक-सांस्कृतिक वैविध्य को एक विशेष भौगोलिक केंद्र के सापेक्ष विवेचित किया, जिसके अपने-अपने आर्थिक-राजनीतिक परिप्रेक्ष्य भी हैं। ये यथार्थ के आयाम ही मैला आँचल को राष्ट्र का रूपक बना देते हैं। अतः फणीश्वर नाथ रेणु आजादी के बाद के विशिष्ट ग्राम समाज को राष्ट्रीय रूपक बनाकर चित्रित करते हैं, जिसके वैचारिक आग्रह गांधी-नेहरू से लेकर समाजवादी विचारक जयप्रकाश नारायण के विचारों तक से निर्मित हुए हैं। यहाँ रेणु की रचनाशीलता का पुनर्मूल्यांकन उनके वैचारिक आग्रहों के बरक्स किया गया है। रेणु साहित्य के भावी अध्येता इस दिशा में और आगे सोचे, उनसे इस विचार के विकास की अपेक्षाएँ हैं।
बीज शब्द : मध्यवर्ग, आंचलिकता, आंचलिक उपन्यास, वैचारिक परिप्रेक्ष्य, राष्ट्रीय रूपक।
मूल आलेख : फणीश्वरनाथ रेणु (1921-1977)
का जन्म-शताब्दी वर्ष एक ऐसा अवसर है जो पाठक से न लेखन के वैचारिक परिप्रेक्ष्य को सही-सही आकलन करने की माँग करता है। यह अवसर रेणु न लेखन की वैचारिकता को पहचानेगा और उन उन विचारों के नए क्षितिज को खोजेगा। यह प्रक्रिया फणीश्वरनाथ रेणु के उपन्यासों की प्रासंगिकता की तलाश के साथ ही उनकी रचनात्मक गुणवत्ता को रेखांकित करेगी, जिससे रेणु साहित्य में आंचलिकता के अलावा अन्य पहलुओं पर भी ध्यान केन्द्रित होगा। रेणु को आजादी के बाद का प्रेमचंद ठीक ही माना जाता है, जिस स्थापना का सशक्त आधार उनका ‘मैला आँचल’ (1954 ई.) उपन्यास है। जिस प्रकार प्रेमचंद ने ‘गोदान’ में कृषक-जीवन को सशक्त ढंग से अभिव्यक्त किया था, उसी प्रकार प्रेमचंदोत्तर काल में रेणु का ‘मैला आँचल’ ग्रामीण जीवन का यथार्थ समग्रता में प्रस्तुत करता है। ‘गोदान’ और ‘मैला आँचल’ के प्रकाशन के बाद हिंदी उपन्यास हीगेल की अवधारणा ‘मध्यवर्ग का महाकाव्य’ के अनुरूप मात्र नहीं रहे, जैसा कि पश्चिम में यह अवधारणा प्रचलित रही है। अब हिंदी उपन्यास ग्रामीण समाज के जटिल संस्तरों की पूरी गहराई को एक विशेष दृष्टि और शैली के माध्यम से प्रस्तुत कर रहे थे।
भारत में भौगोलिक वैविध्य के साथ सामाजिक-सांस्कृतिक वैविध्य भी है जिसके कारण हमारे यहाँ आंचलिक उपन्यासों के लिए पर्याप्त अवकाश रहा है। आजाद भारत के
इन इंद्रधनुषी रंगों को मुखरता प्रदान करने के लिए दुनिया के देशों की तरह भारत में भी ‘आंचलिक उपन्यास’ की खोज हुई। यह कारण हिंदी के आंचलिक उपन्यासों पर भी सटीक बैठता है। ‘हिन्दी साहित्य कोश’ में आंचलिक उपन्यासों को सामाजिक उपन्यासों का ही एक प्रकार माना है। हिन्दी उपन्यास साहित्य में यह एक नयी विधा है, जिसमें किसी विशिष्ट भूमि प्रदेश को केन्द्र में रखकर उपन्यासों का लेखन किया जाता है। ऐसे उपन्यास आंचलिक उपन्यास कहे जाते हैं।’1 इस प्रकार, आंचलिक उपन्यासों में किसी विशेष अंचल या भौगोलिक क्षेत्र के जीवन के समग्र यथार्थ की अभिव्यक्ति़ होती है। इस उपन्यास-शैली में उसी प्रदेश की रीति-रस्में, पहनावा, खान-पान, भाषा-बोली, प्रकृति-संस्कृति इत्यादि को जीवंतता दी जाती है। इनके पात्र, चरित्र, वातावरण, संवाद, भाषा इत्यादि तत्त्व अंचल के ही प्रभाव से रचे होते हैं। अतः आंचलिक उपन्यासों में स्वतंत्र भारत के मुख्य रूप से ग्रामीण अंचल का जीवन-यर्थाथ समूचे रूप से उभरकर सामने आता है।
‘मैला आँचल’ से हिंदी साहित्य में प्रतिष्ठित उपन्यासकार रेणु ने प्रेमचंदोत्तर उपन्यास को एक नई दिशा प्रदान की। वह नई दिशा आंचिलकता है। ‘मैला आँचल’ उपन्यास के शीर्षक में ही ‘आँचल’ पद का प्रयोग प्रेमचंदोत्तर उपन्यास की आंचिलकता के समारंभ को प्रकट करता है। इस स्वातंत्र्योत्तर उपन्यास में आंचलिकता एकदम प्रकट होने नहीं लगती है। इस परंपरा के बीज पहले से कहीं न कहीं अंकुरित हो रहे थे जिसका यहाँ प्रत्यग्दर्शन करते हैं-
यह परंपरा शिवप्रसाद मिश्र के ‘बहती गंगा’ (1925),
शिवपूजन सहाय के ‘देहाती दुनिया’ (1926),
निराला के ‘बिल्लेश्वर बकरिया’ गोपालराम गहमरी के ‘भोजपुर की ठगी’ (1901),
उपन्यास तक पीछे जा पहुँचती है। इतना ही नहीं, शिवकुमार मिश्र तो ग्राम जीवन-केन्द्रित उपन्यासों की सुदीर्घ परंपरा का प्रारम्भ भुवनेश्वर मिश्र के ‘घरारु घटना’ (1894 ई.) से मानते हैं, जबकि वे आंचलिक उपन्यासों की परम्परा का प्रवर्तन रेणु के ‘मैला आँचल’ से ही बताते हैं।2
आंचलिक उपन्यासों में विशिष्ट ग्रामीण और नागरिक जीवन को पाठक के समक्ष प्रस्तुत करने का प्रयास किया जाता है,
जिनमें उपन्यास के चरित्र का जीवन विशिष्ट जनजाति पर भी केन्द्रित होता है। उदय शंकर भट्ट के आंचलिक उपन्यास में ‘वह जो मैंने देखा’, ‘आधार’, ‘सागर, लहरें और मनुष्य’, ‘रथ के पहिए’, ‘दूधगाछ’, ‘ब्रह्मपुत्र’ और ‘कथा कहो उर्वशी’ महत्त्वपूर्ण उपन्यास हैं। इनके ‘सागर, लहरें और मनुष्य’ उपन्यास में मुम्बई के मछुआरों की लोक-संस्कृति का वर्णन मिलता है। आंचलिक उपन्यास-धारा के प्रमुख उपन्यासकारों में से एक नागार्जुन हैं जिन्होंने ‘बलचनमा’, ‘नई पौध’, ‘रतिनाथ की चाची’, ‘बाबा बटेसरनाथ’, ‘वरुण के बेटे’ तथा ‘दुःखमोचन’ इत्यादि छह सुंदर उपन्यासों में विशेषतः मिथिला के ग्रामीण प्रदेशों के जन-जीवन का चित्रण मिलता है। रेणु का प्रसिद्ध उपन्यास ‘मैला आँचल’ आंचलिकता का प्रवर्तक उपन्यास है ही। इसके अतिरिक्त धर्मवीर भारती ने ‘सूरज का सातवाँ घोड़ा’, देवेन्द्र सत्यार्थी ने ‘रथ के पहिए’ तथा ‘ब्रह्मपुत्र’, बालभद्र ठाकुर ने ‘आदित्यनाथ, ‘मुक्तावली’ और ‘नेपाल की बेटी’, राजेन्द्र यादव ने ‘कुल्टा’, रांगेय राघव ने ‘काका’ तथा ‘कब तक पुकारूँ’, नागर जी ने ‘सेठ बाँकेमल’ और ‘बूँद और समुद्र’ उल्लेखनीय आंचलिक उपन्यास का सृजन किया ।
हिन्दी आंचलिक उपन्यासों की यह दीर्घ परम्परा है। राही मासूम रजा ने ‘आधा गाँव’, ‘टोपी शुक्ला’, ‘हिम्मत जौनपुरी’, ‘ओस की बूँद’, ‘दिल एक सादा कागज’ और ‘कटरा बी-आर्जू’ उपन्यासों को हिन्दी पाठक को प्रदान किया। रामदरश मिश्र द्वारा आंचलिक उपन्यास में ‘पानी के प्राचीर’, ‘जल टूटता हुआ’, ‘सूखता हुआ तालाब’, ‘बीच का समय’, ‘अपने लोग’, ‘रात का सफर’, ‘आकाश की छत’, ‘बिना दरवाजे का मकान’ और ‘दूसरा घर’ को लिखा गया। विवेकी राय द्वारा आंचलिक उपन्यास में ‘बबूल’, ‘पुरुष पुराण’, ‘लोक-ऋण’, ’श्वेत पत्र‘, ‘सोनामाटी’, ‘समर शेष है’ और ‘मंगल भवन’ की रचना की गयी है, जिनमें आंचलिकता का रूप पाया जाता है।
हिन्दी आंचलिक उपन्यासों की इस प्रवृत्ति को इन उपन्यासों में भी देखा जा सकता है- भैरव प्रसाद गुप्त का ‘गंगा मैया’ और ‘मशाल’, शिव प्रसाद मिश्र का ‘बहती गंगा’, रांगेय राघव का ‘काका’, अमृतलाल नागर का ‘बूँद और समुद्र’, उदय शंकर भट्ट के ‘लोक परलोक’, ‘शेश अवशेष’, राँगेय राघव का ‘कब तक पुकारूँ’, शैलेश मटियानी द्वारा आंचलिक उपन्यास में ‘हौलदार’, ‘चिट्ठी’ ‘चैथी मुट्ठी’, ‘जलतरंग’ और ‘छोटे-छोटे पक्षी’, राजेन्द्र अवस्थी द्वारा आंचलिक उपन्यास में ‘सूरज किरण की छाँव’, ‘जंगल के फूल’, ‘बीमार शहर’ और ‘मछली बाजार’ उपन्यास का लेखन हुआ है। इतना ही नहीं, इस परंपरा को ये उपन्यास और समृद्ध करते रघुवर दयाल का ‘त्रियुगा’, शिवप्रसाद सिंह का ‘अलग-अलग वैतरणी’, नागार्जुन का ‘इमरतिया’, श्रीलाल शुक्ल का ‘रागदरबारी’, ओमप्रकाश निर्मल का ‘बहता पानी, रमता जोगी’, रवीन्द्र कालिया का ‘खुदा सही सलामत’, कृष्णा सोबती का ‘मित्रो मरजानी’ तथा मनोहर श्याम जोशी का ‘कसम’।
इस सुदीर्घ परंपरा के प्रवर्तन का श्रेय रेणु के लोक प्रसिद्ध उपन्यास ‘मैला आँचल’ को ही जाता है,
जिसके शीर्षक में ही ‘आँचल’ शब्द निहित है। उपन्यासकार रेणु ने ‘मैला आँचल’ की 9 अगस्त 1954 को लिखित भूमिका में यह व्यक्त और कर दिया - ‘‘यह है मैला आँचल, एक आंचलिक उपन्यास। कथानक है पूर्णिया। पूर्णिया बिहार राज्य का एक जिला है; इसके एक ओर है नेपाल, दूसरी ओर पाकिस्तान और पष्चिमी बंगाल।‘‘3 फणीश्वर नाथ रेणु को आंचलिकता में अपघटित करने में उनके इस वक्तव्य ने पर्याप्त सहायता की। उपन्यासकार रेणु तो पूर्णिया कथा क्षेत्र का समग्रता से चित्रण करते हैं। जिस चित्र में ‘‘फूल भी है शूल भी, धूल भी है, गुलाब भी, कीचड़ भी है, चंदन भी, सुंदरता भी है, कुरूपता भी - मैं (रचनाकार) किसी से दामन बचाकर निकल नहीं पाया।’’4 डा. ज्ञानचंद गुप्त का मत है कि मैला आँचल में रेणु ने ध्वनियों, प्रतीकों, बिंबों एवं विविध रंगों का संयोजन बड़े ही कलात्मक ढंग से प्रस्तुत किया है जिसकी पाठनीयता के लिए धैर्यवान पाठक की आवश्यकता है।5 मिट्टी की गंध को शब्द-बिंब का आकार देने वाले रेणु की विशेषता को रामचंद्र तिवारी इन शब्दों में बताते हैं, ‘रेणु की सबसे बड़ी विशेषता है भावना विचार या सिद्धांत को आरोपित न करके रंजित करना रेणु का स्वर आशावादी और संदेह मानवतावादी है, किंतु उपन्यास के अंत में तहसीलदार के नाटकीय हृदय परिवर्तन को छोड़कर यह कहीं भी कथा पर आरोपित नहीं है।’6
भारत के गाँवों में श्रमजीवी किसान ‘धरती पुत्र’ के आख्यान की झाँकियाँ रेणु के ‘मैला आँचल’ उपन्यास की अग्रलिखित पंक्तियों द्वारा प्रस्तुत होती चली जाती हैं- ‘‘मैला आँचल!’ लेकिन धरती माता अभी स्वर्णांचला है! गेहूँ की सुनहली बालियों से भरे हुए खेतों में पूरवैया हवा,
लहरें पैदा करती है। सारे गाँव के लोग खेतों में हैं। मानो सोने की नदी में, कमर भर सुनहले पानी में सारे गाँव के लोग क्रीड़ा कर रहे हैं। सुनहली लहरें!’7 रेणु मेरीगंज के खेतों को ‘सोने की नदी’ की उपमा देते हैं। इसमें किसान को अपना कर्म उल्लास के साथ करते हुए दिखाया गया है। मेरीगंज के खेत और किसान भारत के किसी भी गाँव के पकी लहलहाती फसल में काम करते किसान-मजदूरों को सहानुभूति के साथ देखने की लेखक की दृष्टि से परिचित कराते हैं। अतः यहाँ लेखक ने मिट्टी और मनुष्य से मोहब्बत को उपन्यास में विन्यस्त किया है। इसमें महात्मा गांधी के महाप्रकाश से प्रेरित कर्म योगी की तरह प्रशांत प्यार की खेती करने को आतुर हो जाता है। यह उसकी इच्छा उपन्यास के अंत में ममता और प्रशांत के संवाद के रूप में अंकित है। उपन्यास में देखें-‘‘पढ़ गए... महात्मा जी की आखिरी लालसा? मैं तो कहती हूँ, यह वह महाप्रकाश है, जिसकी रोशनी में दुनिया निर्भय हजारों बरस का सफर तय कर सकती है।’ ‘ममता! मैं फिर काम शुरू करूँगा-यहीं, इसी गाँव में। मैं प्यार की खेती करना चाहता हूँ। आँसू से भीगी हुई धरती पर प्यार के पौधे लहलहाएँगे। मैं साधना करूँगा, ग्रामवासिनी भारतमाता के मैले आँचल तले! कम-से-कम एक ही गाँव के कुछ प्राणियों के मुरझाए ओठों पर मुस्कराहट लौटा सकूँ, उनके हृदय में आशा और विश्वास को प्रतिष्ठित कर सकूँ...।’’8 इसी स्थल पर स्त्री पात्र कमली का ममता से पूछा गया प्रश्न ‘प्यारू भी पटना चलेगा ?’ कई स्त्री अस्मिता के प्रश्नों को एक साथ उठा देता है।
आंचलिक उपन्यासकारों में सर्वप्रमुख उपन्यासकार रेणु ‘मैला आँचल’ और ‘परती परिकथा’ नामक दो आंचलिक उपन्यास ही लिखकर हिन्दी उपन्यास साहित्य में अमर हो गए। इनमें अंचल विशेष पूर्णिया के लोकजीवन, उत्सव, संस्कृति, भाषा और प्राकृतिक वातावरण इत्यादि विषयों को चित्रित करने के साथ-साथ उसके विविध आयामों को भी चित्रित किया है। लेखक ने पूर्णिया के एक ही गाँव के पिछड़ेपन को आधार बनाकर उपन्यास की रचना की है। नलिन विलोचन शर्मा ने ‘मैला आँचल’ के मेरीगंज को नायक के रूप में सर्वप्रथम देखा था। ध्यान देने योग्य यह है कि रेणु के इस उपन्यास में पूर्णिया क्षेत्र के एक गाँव को पिछड़े गाँवों का प्रतीक है। इस गाँव में भूख, बीमारी, अशिक्षा और अंधविश्वास व्याप्त है। उपन्यास के पात्र डॉ. प्रशांत के शब्दों में इन सभी समस्याओं के कीटाणु ‘गरीबी’ और ‘जहालत’ हैं। उन पिछड़े गाँवों के विश्वासों को अभिव्यक्त करता है, जिसमें जो मध्यकालीन सामंती विचारों को ही जीवन मानते हैं और उनसे संघर्ष करके सच्ची आज़ादी का सपना बुनते हैं। इस तरह मेरीगंज के जन-जीवन और उनके संघर्ष का सजीव चित्रण उपन्यास की उपलब्धि है। इससे यह स्पष्ट है कि इस गाँव की जनता राष्ट्रीय संदर्भों के साथ ऐक्य की आकांक्षा रखती दिखाई पड़ती है। इससे यह उपन्यास पिछड़े राष्ट्र का रूपक बन जाता है। वैसे भी बेनेडिक्ट एन्उरसन ने उपन्यास को ‘प्रिटिंड कम्युनिटी’ कहा है और फ्रेडरिक जेम्सन ने उपन्यास को ‘राष्ट्र का रूपक’ मानते ही है।’9 अतः मैला आँचल हिंदी रचनाशीलता में गाँव में बसने वाले भारत की गाथा है जिसका जितना नाता स्थानीयता से है, उतना ही राष्ट्रीय संदर्भों से भी है। अतः कहा जा सकता है कि रेणु ने आंचलिक उपन्यास शैली के माध्यम से गाँव के वैशिष्ट्य को व्यापकता और गहराई के साथ प्रकट किया।
‘मैला आँचल’ में किसान की दुर्दशा का मार्मिक अंकन मिलता है। इसमें सामंती मूल्यों पर आघात करके लेखक ने नये मुक्तिकामी मूल्यों को स्थापित करने की कोशिश की है। लेखक का प्रयत्न यह भी रहा है कि वह आज़ादी के बाद के भूमि सुधार और पंचवर्षीय योजनाओं को कार्यान्वयन करने की प्रक्रिया को उपन्यस्त कर सके। इस उपन्यास में 1920 के भारत से अलग भारत की तस्वीर उभरती है। हालांकि गांधी द्वारा ही आज़ादी की लड़ाई में किसानों को जोड़ा गया था, इसलिए उपन्यासकार के यहाँ महात्मा गांधी के प्रति सहानुभूति दिखती है।
जब उपन्यासकार फणीश्वरनाथ रेणु का जन्म हुआ,
तब गांधीजी के नेतृत्व में देश की स्वाधीनता के लिए सत्याग्रह आंदोलन (1920-22)
चल रहा था। उनका बचपन आजादी के लिए गांधीजी द्वारा चलाए जा रहे इस राष्ट्रीय संघर्ष को देख-देखकर व्यतीत हुआ। इसका प्रभाव ही रहा होगा कि ‘मैला आँचल’ का एक पात्र बावनदास उनकी रचनाशीलता में स्थान प्राप्त करता है। गांधी और प्रेमचंद भारत को गाँवों का देश कहते थे। देश के अंतिम व्यक्ति की बेहतरी की चिंता गांधीजी को थी। इस उपन्यास में देश में चल रही आर्थिक योजनाओं के आम आदमी पर पड़ने वाले प्रभाव को दर्शाया गया है। इसमें मधुरेश का विचार है, ‘‘हिंदी में आंचलिकता का आग्रह स्वाधीनोत्तर विकास योजनाओं से गहरे रूप में प्रभावित था। यही कारण है कि उन राष्ट्रीय विकास कार्यक्रमों की वास्तविकता प्रकट होते ही, आंचलिकता के प्रति भी इन लेखकों का व्यापक मोहभंग होता है।‘‘10 अतः इससे स्पष्ट है कि ‘मैला आँचल’ में स्थानीय संदर्भों के साथ राष्ट्रीय संदर्भों को भी स्थान प्राप्त हुआ है।
समाजवादी विचारक जयप्रकाश नारायण संपूर्ण क्रांति की पहल कर रहे थे। जिस प्रकार समाजवादी आजादी को भी झूठी मानते रहे हैं,
उसी प्रकार इस उपन्यास में आजादी का यह संदर्भ आता है, ‘‘यह आजादी झूठी है।‘‘ देश की जनता भूखी है।’ यह नया लारा कौन लगाता है? ‘ऐ! ऐ!...नहीं हुआ।’ सुन लो पहले!’ आजादी झूठी। मारो साले को! कौन बोला?’.... बालदेव जी आज फिर सनके हैं,
अरे भाई, हिंगना-औराही का सोशलिस्ट है तो हिंगना- औराही में जाकर अपने गाँव का लारा लगावे। अपना मुँह है- बस लगा दिया लारा- यह आजादी झूठी है।’’11 पाठक जानते हैं कि रेणु के गाँव का नाम भी हिंगना औराही ही है। इसके आधार पर कहा जा सकता है कि फणीश्वरनाथ रेणु ने ‘मैला आँचल’ में स्वयं को एक सोशलिस्ट की भाँति प्रस्तुत किया है। ‘मैला आँचल’ में 1942 की घटनाओं से लेकर 1947 ई. का राजनैतिक घटनाक्रम मूल्यांकित किया गया है। इन्हीं राजनैतिक संदर्भों का विश्लेषण करते हुए गोपालराय अपनी धारणा स्थिर करते हैं-‘‘रेणु ने समकालीन राजनीतिक दलों, कांग्रेस, समाजवादी, साम्यवादी, रा.स्व.संघ आदि का नैतिक और सैद्धांतिक खोखलेपन का बड़ी निस्संगता और ईमानदारी के साथ अंकन किया है। मेरीगंज समकालीन भारतीय राजनीति का लघुरूप बन गया है। तत्कालीन आम आदमी की सरलता, अबोधता और पुराने मूल्यों के प्रति आस्था का लाभ उठाकर चालाक राजनीति-व्यवसायी उसे आसानी से ठग लेता है। मैला आँचल का विश्वनाथ प्रसाद इन राजनीति-व्यवसायियों का प्रतीक है। देश के आज़ाद होने पर राजनीति का विकृत चेहरा और भी अधिक भयानक हो जाता है। कांग्रेस का चरित्र दिनों-दिन जनविरोधी और सामंती-पूँजीवादी होता चला जाता है। सोशलिस्ट और कम्युनिस्ट पार्टियाँ भी अपने घोषित उद्देश्यों को भूलकर राजनीति के खेल खेलने में अधिक रुचि लेने लगती हैं।’’12
रेणु के उपन्यासों में ही नहीं उनकी कहानियों में भी राजनैतिक मूल्यांकन के तत्त्व निहित हैं,
जिनमें पार्टीगत कमजोरियाँ और मजबूतियाँ स्पष्ट रूप से विवेचित होती हैं। रेणु ने जनवरी 1965 में एक कहानी ‘आत्मसाक्षी‘ लिखी। यह कहानी 1964 ई. में सीपीआई के विभाजन के बाद लिखी गई। यह दोनों घटकों सी.पी.आई. तथा सी.पी.एम. में अपनी-अपनी राजनैतिक लाइन को सही ठहराने तथा पार्टी के संसाधनों को हथियाने की मुहिम को अभिव्यक्त करती है। पार्टी का निष्ठावान कार्यकर्ता गणपत अपने छोटे और बड़े साथियों से मिलकर अपने मन की व्यथा व्यक्त करने की चाह रखता है। वह चाहता है कि खंजड़ी बजाकर गीत गाएगा-‘भैया झगड़ न जाऊँ कचहरिया‘, लेकिन उसकी कोई भी बात कहीं सुनी नहीं जाती। गणपत की बारीक राजनैतिक समझ है जिससे उसे पार्टी में बुर्जुआ राजनीति की कमजोरियों के प्रवेश की आहट स्पष्ट सुनाई देती है। प्रो. रमेश रावत ‘आत्मसाक्षी’ के विषय में मानते हैं, ‘‘सन 1964 में सीपीआई का विभाजन हुआ और जनवरी 1965 में रेणु ने एक कहानी लिखी- ‘आत्मासाक्षी’। मेरी अपनी जानकारी के मुताबिक इस विषय पर लिखी गई हिंदी की यह पहली कहानी है.... यह कहानी वामपंथी आंदोलन के विघटन पर एक ऐसी धारदार टिप्पणी है जो आज और अधिक प्रासंगिक लगती है।‘‘13
फणीश्वरनाथ रेणु की रचनाशीलता में राजनैतिक संदर्भों के साथ-साथ सामाजिक परिप्रेक्ष्य को भी उसके संपूर्ण यथार्थ के साथ प्रस्तुत किया है। इस उपन्यास में समाज की जाति-व्यवस्था का विवेचन मिलता है। इस बड़े गाँव में बारहों बरन के लोग निवास करते हैं। यह मेरीगंज नामक गाँव कई जाति पर आधारित दलों में बँटा हुआ है जिनके नाम भी उन्हीं जातियों पर आधारित हैं,
‘‘अब गाँव में तीन प्रमुख दल हैं, कायस्थ, राजपूत और यादव। ब्राह्मण लोग अभी भी तृतीय शक्ति हैं गाँव के अन्य जाति के लोग भी सुविधानुसार इन्हीं तीनों दलों में बँटे हुए हैं।’’14 इन टोलियों के अतिरिक्त यह गाँव पोलियाटोली, तंत्रिमा-छत्रीटोली, यदुवंशी छत्रीटोली, गहलोत छत्रीटोली, कूर्म छत्रीटोली, अमात्य ब्राह्मणटोली, धनुकधारी छत्रीटोली, कुषवाहा छत्री टोली और रैदास टोली में भी बँटे हुए हैं।
फणीश्वर नाथ रेणु ने ‘मैला आँचल’ और ‘परती परिकथा’ दो उपन्यासों के बाद लोकचेतना का कथारस बनाना लगभग छोड़ ही दिया। उनके परवर्ती उपन्यासों में फिर वैसी आंचलिकता के नमूने नहीं प्राप्त होते है अर्थात् उनके बाद के उपन्यास किसी विशेष भौगोलिक क्षेत्र की आंचलिकता अंचल विशेष के उद्घाटन के लिए नहीं लिखे गए। ‘दीर्घतपा’ में शहरी सफेद पोशों का पर्दाफाश, ‘जुलूस’ में पूर्वी बंगाल की शरणार्थी समस्या, ‘कितने चैराहे’ में स्वतंत्रता के लिए युवकों के बलिदान और ‘पल्टू बाबू रोड’ में कांग्रेसी भ्रष्टाचार को चित्रित किया है। इन उपन्यासों में मधुरेश आंचलिकता की अपेक्षा राजनैतिक विकृतियों को अधिक देखते हैं, ‘‘...लेकिन आंचलिकता के प्रति उनमें कोई उत्साह दिखाई नहीं देता। इन उपन्यासों को पढ़कर बिहार की और प्रकारांतर से समूचे देश की राजनीतिक विकृतियों का कुछ पूर्वाभास अवश्य पाया जा सकता है। रेणु के ये परवर्ती उपन्यास किसी अंचल विशेष पर केंद्रित उपन्यास नहीं हैं, लेकिन अपने ‘मैला आँचल’ से ही रेणु ने अपनी जो रचनात्मक पहचान बनाई किसी न किसी रूप में, वह इन उपन्यासों में भी देखी जा सकती है।‘‘15 इस प्रवृत्ति की इस लोकचेतना के कुंठित होने का कारण विवेकी राय आधुनिकता बोध से आंचलिकता की टकराहट को बताते हैं, ‘‘आधुनिकताबोध अथवा आधुनिक नगरबोध से इसका टकराव शुभ नहीं हुआ। प्रकृत्या आंचलिकता और नगरबोध मूल की आधुनिकता की प्रवृत्तियाँ एक दूसरे के विरोध में पड़ती हैं। आंचलिकता की सांस्कृतिक पृष्ठभूमियाँ, रागमयता और धरती के रसगन्धों से जुड़ी संवेदनशीलता आधुनिकता को पसंद नहीं। उसकी कटी-छँटी और चकाचैंध भरी बुद्धिवादी यथार्थ की नगरभूमि अपने को संस्कृति से नहीं, राजनीति से दृढ़तापूर्वक जोड़कर चलती है।‘‘16
वस्तुतः उपन्यासकार फणीश्वरनाथ रेणु की जन्म-शताब्दी वर्ष के अवसर पर उनकी रचनाशीलता की गुणवत्ता परिलक्षित होती है। रेणु की प्रतिष्ठा का आधार उनका उपन्यास ‘मैला आँचल’ है जिससे हिंदी उपन्यास की अवधारण मध्यवर्ग से ग्राम और कृषक जीवन पर केन्द्रित हो गयी। हिंदी के आंचलिक उपन्यासों में भारत के विशेष भौगोलिक क्षेत्र के जीवन की यथार्थ-अभिव्यक्ति होती है। इनमें भारतीय सांस्कृतिक वैविध्य के यथार्थ को समग्रता के साथ प्रस्तुत किया गया है। यह परंपरा रेणु से पूर्व ‘बहती गंगा’ (1952),
‘देहाती दुनिया’ (1926), ‘बिल्लेश्वर बकरिया’, ‘भोजपुर की ठगी’ (1901) से भी पहले ‘घराऊ घटना’ (1894 ई.) उपन्यास तक जा पहुँचती है। इस आंचलिकता की प्रवृत्ति को उदयशंकर भट्ट, नागार्जुन, राही मासूम रजा, रामदरश मिश्र, विवेकी राय और मनोहर श्याम जोशी इत्यादि अपनी लेखनी से मजबूती प्रदान करते हैं। आंचलिकता की इस इस सुदीर्घ परंपरा के प्रवर्तन का श्रेय रेणु के लोक प्रसिद्ध उपन्यास ‘मैला आँचल’ को ही जाता है। इसके बाद भी फणीश्वरनाथ रेणु को आंचलिकता में अपघटित करके ही सही-सही आकलित नहीं किया जा सकता है, क्योंकि रेणु ने ‘मैला आँचल’ और ‘परती परिकथा’ दो आंचलिक उपन्यास में भी उस क्षेत्र विशेष के ऐतिहासिक, राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक आयामों को भी चित्रित किया है। जिससे यह उपन्यास हमारे ‘राष्ट्र का रूपक’ जान पड़ता है। रेणु ने आज़ादी के बाद के विशिष्ट ग्राम-समाज में राष्ट्रीय-समाज की छवि को दर्शाया है। उनके राजनैतिक, वैचारिक आग्रह गांधी-नेहरू से लेकर समाजवादी विचारक जयप्रकाश नारायण तक के विचारों से गढ़े हुए हैं। यहाँ विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि रेणु ने अपने उपन्यासों में राजनैतिक संदर्भों के साथ-साथ सामाजिक परिप्रेक्ष्य को भी उसके संपूर्ण यथार्थ के साथ प्रस्तुत किया है जिसके मूल्यांकन के बाद ही रेणु के धारदार वैचारिक आयामों का कोई सार्थक मूल्यांकन संभव है जिसकी आज भी प्रासंगिकता बनी हुई है।
सन्दर्भ :
1. धीरेन्द्र वर्मा तथा अन्य,
हिन्दी साहित्य कोष, भाग-1, ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी, पुर्नमुद्रित: जनवरी 2015, पृ. 74-75
2. शिवकुमार मिश्र, ‘यथार्थवाद और आंचलिक उपन्यास’, मधुरेश (संपा.) फणीश्वरनाथ रेणु और माक्र्सवादी आलोचना, यश पब्लिकेशन, दिल्ली,
2008, पृ. 13-14
3. फणीश्वरनाथ रेणु,
मैला आँचल, राजकमल प्रकाशन प्रा. लि., नई दिल्ली, दूसरी आवृत्ति: 2009, पृ. 5
4. फणीश्वरनाथ रेणु,
मैला आँचल, पूर्वोक्त, पृ. 5
5. ज्ञानचन्द्र गुप्त, आंचलिक उपन्यास, अभिनव प्रकाशन, दिल्ली,
1975, पृ. 41
6. रामचन्द्र तिवारी, हिन्दी का गद्य-साहित्य, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी, संशोधित एवं परिवर्धित संस्करण: 2018, पृ. 254
7. फणीश्वरनाथ रेणु,
मैला आँचल, पूर्वोक्त, पृ. 139
8. वही,
पृ. 312
9. नामवर सिंह,
‘अंग्रेज़ी ढंग का नॉवेल और भारतीय उपन्यास’, आशीष त्रिपाठी (संपा.), प्रेमचन्द और भारतीय समाज, राजकमल प्रकाशन प्रा. लि., नई दिल्ली, पहला छात्र संस्करण: 2017, पृ. 48
10. मधुरेश, हिंदी उपन्यास का विकास, पूर्वोक्त, पृ. 142
11. फणीश्वरनाथ रेणु,
मैला आँचल, पूर्वोक्त, पृ. 225-226
12. गोपाल राय,
हिंदी उपन्यास का इतिहास, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, तीसरी आवृत्ति: 2013, पृ. 243-244
13. समय माजरा, सितंबर-अक्टूबर,
2001, पृ. 55-56
14. फणीश्वरनाथ रेणु,
मैला आँचल, पूर्वोक्त, पृ. 15
15. मधुरेश, हिंदी उपन्यास का विकास, पूर्वोक्त, पृ. 143
16. आलोचना, अप्रैल-जून,1984,
पृ. 46
शोधार्थी, हिंदी विभाग, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, अलीगढ़,
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) फणीश्वर नाथ रेणु विशेषांक, अंक-42, जून 2022, UGC Care Listed Issue
अतिथि सम्पादक : मनीष रंजन
सम्पादन सहयोग : प्रवीण कुमार जोशी, मोहम्मद हुसैन डायर, मैना शर्मा और अभिनव सरोवा चित्रांकन : मीनाक्षी झा बनर्जी(पटना)
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