समकालीन कवि और आलोचक जितेन्द्र श्रीवास्तव
की प्रदीप कुमार से बातचीत
प्रदीप कुमार -
क्या आपको लगता है कि प्रतिबद्धता और
विचारधारा को लेकर लिखी जाने वाली कविताओं को आज पहले की अपेक्षा अधिक महत्त्व मिल
रहा है? अगर
नहीं तो क्यों?
प्रो. जितेन्द्र श्रीवास्तव - दो
चीजें हैं प्रदीप जी। एक तो यह कि प्रतिबद्धता के बिना तो कुछ हो नहीं सकता। कवि अनिवार्य
रूप से प्रतिबद्ध होता है। उसकी प्रतिबद्धता वंचितों के प्रति होती है,
समाज
के शोषित वर्ग के प्रति होती है, प्रकृति
के प्रति होती है, पर्यावरण
के प्रति होती है और एक तरह से कह लें तो पूरे मनुष्य समाज के प्रति होती है। इस प्रतिबद्धता
के बिना कोई कवि नहीं हो सकता। अतः प्रतिबद्धता तो अनिवार्य रूप से थी। जहाँ तक विचारधारा
का मामला है तो मैं एक चीज मानता हूँ कि कोई किसी भी विचारधारा का रहते हुए बड़ा कवि
हो सकता है। बशर्ते उसकी यह प्रतिबद्धता जिसका अभी मैंने संकेत किया;
विश्वास
हो उसका इस प्रतिबद्धता में। मतलब मनुष्य में विश्वास हो,
आपके
हित में विश्वास हो, वंचितों
में विश्वास हो, शोषितों
के हित में विश्वास हो, प्रकृति,
पर्यावरण
और मनुष्यता में विश्वास हो। कहने का मतलब है कि कवि किसी भी विचारधारा से जुड़ा हो;
वह
अच्छी कविता लिखेगा। आपको मैं एक उदाहरण बताता हूँ। बालज़ाक फ़्रांस के एक बड़े लेखक थे।
वे फ़्रांस की राजशाही के समर्थक थे। लेकिन जब उन्होने उपन्यास लिखा तो उन्होने किसानों
के पक्ष में लिखा और राजशाही के विरुद्ध लिखा। यानी लेखक यदि ईमानदार है तो वह अपनी
रचना में बेईमानी नहीं कर सकता और जो रचना में बेईमानी कर रहा है;
वह
लेखक कैसे हो सकता है? वह
तो एक तरह का मुंशी हुआ,वह
तो एक तरह का कारीगर हुआ। चूंकि उसको कला आती है तो उसने इस कला के जरिए कुछ शब्द फिट
कर दिए। लेखक तो वही है जो ईमानदार है और सत्य कहता है। यह भी जरूरी नहीं कि हर समय
कोई खास विचारधारा में बंधकर ही कवि लिखता है। कबीर के समय कोई विचारधारा नहीं थी लेकिन
मनुष्यता में उनकी प्रतिबद्धता थी। इसलिए कबीर बड़े कवि हुए,
तुलसी
बड़े कवि हुए। अपनी तमाम तरह की बहसों के बीच। मीरा बड़ी कवयित्री हुईं,
रैदास
बड़े कवि हुए। उनके समय कोई विचारधारा नहीं थी। इसलिए विचारधारा आपके साथ है और यदि
वह मनुष्यधर्मी विचारधारा है तो अच्छी बात है। कवि स्वभाव से प्रगतिशील होता है। अगर
वह प्रगतिशील नहीं है तो कवि नहीं है। अगर वह प्रगति और उत्थान के बारे में सोच नहीं
सकता तो वह कवि नहीं हो सकता। इसलिए मुझे लगता है कि अच्छी कविताएँ आज भी महत्त्व पा
रही हैं। कविता को समझने वाली जनता समझदार होती है। वह जल्दी किसी भ्रम का शिकार नहीं
होती। कविता अपनी जगह स्वतः बना लेती है। अचानक कोई कविता निकलकर आती है और वह चर्चित
हो जाती है। यहाँ तक कि कई बार लोग उस कवि को जानते-पहचानते
तक नहीं। बच्चा लाल ‘उन्मेष’
की
एक कविता ‘कौन
जात हो भाई’ आई
और चर्चित हो गई। कविता में हमारे समय का यथार्थ है,
कवि
में कहने का शहूर है इसलिए कविता को लोगों ने पसंद किया। अंततः मेरा यही मानना है कि
प्रतिबद्धता मनुष्य के प्रति होनी चाहिए, मनुष्यता
के प्रति होनी चाहिए। किसी भी तरह की वंचना हो किसी भी प्रकार का शोषण हो
;उसके विरुद्ध होनी चाहिए। कोई फिर कविता को किसी
भी विचारधारा से जोड़ ले उससे कोई फर्क नहीं पड़ता।
प्रदीप कुमार
- समकालीन हिंदी कविता में विकारयुक्त
राजनीति और आर्थिक असमानता से उपजे विषयों पर बहुत कुछ और लिखा जा रहा
है।लेकिन सामाजिक और आर्थिक पृष्ठभूमि पर आधारित अस्मितावादी लेखन की तथाकथित मुख्यधारा
के साहित्य में ठोस उपस्थिति नज़र नहीं आती । आपके अनुसार इसके पीछे क्या कारण है?
प्रो. जितेन्द्र श्रीवास्तव -यह
एक महत्त्वपूर्ण सवाल है। मैंने बराबर इस विषय पर बातचीत करने की कोशिश की है। एक समय
ओमप्रकाश वाल्मीकि पर लिखते हुए भी एक बार मैंने कहा था कि मेरे लिए यह महत्त्वपूर्ण
नहीं है कि ओमप्रकाश वाल्मीकि को आप हिंदी के दलित लेखन में कहीं फिट कीजिए। मेरे लिए
यह महत्त्वपूर्ण है कि समूचा हिंदी का जो लेखन है,
उसमें
ओमप्रकाश वाल्मीकि की क्या अवस्थिति बनती है?
उसको
रेखांकित किया जाय। यह एक बड़ा सवाल है क्योंकि टुकड़े-टुकड़े
में पढ़ेंगे तो वह टुकड़े में ही रह जाएगा। दलित साहित्य,
आदिवासी
साहित्य, स्त्री
साहित्य को इसी तरह से देखा जा रहा है। हिंदी का तो समूचा ही लेखन है। होना तो यह चाहिए
कि अगर हिंदी के पच्चीस साहित्यकारों की बात हो रही हो तो उसमें स्त्री,
दलित,
आदिवासी
साहित्य के रचनाकारों का नाम भी आना चाहिए। क्योंकि वे अच्छा लिख रहे हैं। केवल इसलिए
कि एक अलग खाना बना दिया गया है ताकि वहीं उनका नाम आये,
यहाँ
न आये; यह
सही नहीं है। मैं सदा से ही इसका विरोधी रहा हूँ। सबको महत्त्व दिया जाना चाहिए। उनका
हस्तक्षेप तो भाषा में है, हमारे
साहित्य में है। धीरे-धीरे
प्रदीप जी यह स्थिति बन रही है। अब तो उसका एक अलग खाना बन ही गया है। किंतु तथाकथित
‘मुख्यधारा’
के
साथ इसकी आवाजाही शुरू हो गयी है। लोग इसपर बात कर रहे हैं। आज देख सकते हैं कि
‘मुख्यधारा’
की
पत्रिकाएँ भी इन्हें प्रकाशित कर रही हैं। अब ऐसा नहीं है कि केवल स्त्री/दलित/आदिवासी
साहित्य पर केंद्रित पत्रिकाएँ ही उन्हें छाप रही हैं। नए विमर्शों को भी जगह मिल रही
है। पिछड़ा विमर्श पर भी इधर बात हो रही है जिसे फॉरवर्ड प्रैस छापता रहा है। अब एक
अलग ही धारा के रूप में यह मुख्यधारा को टक्कर
दे रही है। जरूरत इस बात की है कि हर लेखक को पूरे हिंदी के लेखन के बीच रखकर उसका
मूल्यांकन किया जाना चाहिए। अब ट्रेंड बदल रहा है। कोई कवि कहीं से भी आ रहा हो अंततः
वह हिंदी का कवि है। मुख्यधारा कोई विशेष धारा थोड़े ही है। कोई किसी से भी प्रभावित
होकर लिख सकता है। मैंने पहले ही कहा कि अगर उसका लेखन वंचना और शोषण के खिलाफ है तो
वह प्रतिबद्ध रचनाकार है। समय बदल रहा है। अब अस्मितावादी लेखन को भी लोग मुख्यधारा
के अंतर्गत गंभीरता से देखने और स्वीकार करने लगे है। अब
‘हंस’ पत्रिका
को ही देखिए। एक समय उसमें स्त्री और दलित आदि को लेकर विशेषांक प्रकाशित हुए। वह भी
तो मुख्यधारा की ही पत्रिका थी। यदि मुख्यधारा के रचनाकार प्रायः उसमे छपते थे तो बाकी
लेखक भी उसमें छपते ही थे। यदि आज ‘वागर्थ’
पत्रिका
में तथाकथित मुख्यधारा के लेखक छप रहे हैं तो उसके साथ दूसरी धाराओं के लेखक भी तो
छप रहे ही है। अस्मितावादी लेखन को तो महत्त्व मिलना ही चाहिए क्योंकि वह हमारे समाज
की सच्चाई है। हम जितनी जल्दी इसे स्वीकार करेंगे सामंजस्य की स्थितियाँ उतनी जल्दी
बनेंगी और बेहतर बनेंगी।
प्रदीप कुमार - 'माटी'
पत्रिका
के एक अंक में मदन कश्यप कहते हैं कि 'हम
एक ऐसे समय में रच और बच रहे हैं,जब
एक बयान देना भी मुश्किल और जोखिम भरा काम हो गया है,
चाहे
वह बयान कविता के बारे में ही क्यों न हो।क्या आपको लगता है कि कविता के लिए यह समय
मुश्किलों से भरा है? और क्या आज
कविकर्म कठिन होता जा रहा है?
प्रो. जितेन्द्र श्रीवास्तव-देखिए,यही
बात आचार्य शुक्ल ने कहा था कि ज्यों-ज्यों सभ्यता का विकास होता जाएगा,
त्यों –त्यों
कविकर्म कठिन होता जाएगा। यह बात सही भी है। यही चिंतक की दूरदृष्टि होती है। कविकर्म
कभी भी सहज नहीं था। इसमें दो बाते हैं। एक कवि कर्म यह है कि आप केवल प्रेम की कविता
लिख रहे हैं और दैहिक वर्णन तक सीमित हैं। यहाँ कोई खतरा नहीं है। किंतु प्रेम में
भी आप यदि मुक्ति की कविता लिख रहे हैं तो उसमें ख़तरा है। प्रकृति की कविता में यदि
आप केवल पेड़-पौधे की बात कर रहे हैं तो को कोई ख़तरा नहीं है। किंतु यदि आप प्रकृति
के माध्यम से अगर आप मुक्ति की बात कर रहे हैं। यदि पंत की कविता-प्रथम रश्मि का आना रंगिणी, तूने कैसे पहचाना.. को देखें तो यह मुक्ति की कविता है। कहने का तात्पर्य यह है कि हर कालखंड
में पहरे रहे हैं और रहेंगे क्योंकि साहित्य अंततः मुक्ति की बात करता है और सत्ताएँ
अपने तमाम काम के बावजूद,अपनी
प्रगतिशीलता के बावजूद,अपने
जनधर्मी कार्यक्रमों के बावजूद मुक्ति का वह स्वरूप नहीं स्वीकार कर पातीं जो साहित्य
देता है या कविता देती है। जैसे टैगोर कहते हैं न कि कहीं कोई भय न हो (वेयर द माइंड इज़ विदाउट फियर):
कविता भी ठीक वैसे ही मनुष्य तैयार करती है जहां कोई भय न हो। कोई भी
समय नहीं चाहेगा कि निर्भय लोग रहें। इन सबके बावजूद कवि तो अपनी बात तो कहेगा ही।
गोस्वामी जी को देखिए। उन्होंने स्त्रियों की पराधीनता को लेकर जो कहा है (कत बिधि सृजीं नारि जग माहीं।
पराधीन सपनेहुँ सुखु नाहीं॥) उसपर आप हजार पृष्ठ की किताब लिख दीजिए फिर भी वह बात नहीं आती,जिस तरह से यह बात चुभती है।कवि तो कहता ही है,हर युग में कहता है,हर
कालखंड में कहता रहा है। यदि कवि कहता नहीं है तो वह कवि नहीं है। कवि के कहे को सत्ताएँ
अपनी आलोचना मान लेती हैं। जबकि कवि के कहे को आईना मानना चाहिए। इस आईने को देखकर
वह अपने में सुधार कर सकता है। कवि के कहे को लक्ष्य कर उसकी उपेक्षा करना और उसे दंडित
करने की सोचना गलत है। देखना चाहिए कि कवि जिस ओर इशारा कर रहा है शायद उस ओर कोई कमी
होगी। उसे दूर करने का प्रयास किया जाना चाहिए। किंतु कोई कवि यदि एकदम अतिवादी है
और अपने देश और समाज की भावभूमि के उलट कुछ कह रहा है तो वह बात किसी को भी स्वीकार्य
नहीं होगी। भारत की अपनी पृष्ठभूमि है उसकी अपनी संस्कृति है। उसमें कुछ कमियां रही
हैं जिसे दूर करने का प्रयास किया जा रहा है। हमारी संस्कृति के भीतर सकारात्मक चीजें
भी रही हैं।‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की अवधारणा हमारी संस्कृति का अभिन्न
हिस्सा है। हम भाईचारे में यकीन करने वाले लोग हैं। हमने कभी विभाजन में यकीन नहीं
किया। यह कैसे और क्योंकर हो गया कि हमारा समाज इतने भागों में बंट गया?धीरे-धीरे
इसी को दूर करने की जरूरत है।एक वास्तविक समता जैसा कि गांधी,अंबेडकर और बड़े महापुरुषों ने चाहा था वैसा समाज बनाने के अनुकूल बातें
आएं तो उसको स्वीकारा जा सकता है।कविता का काम मनोरंजन तो नहीं है जो आपको सुला दे।
उसका काम तो चेतना को जागृत करना और तीक्ष्ण बनाना है। सिनेमा के भी वही गीत बहुत अर्थपूर्ण
हैं जो समाज को जगाने लायक हैं।जैसे गीत की यह पंक्ति देखिए- 'पंछी बनूँ उड़ती फिरूँ मस्त गगन
में आज मैं आज़ाद हूँ
दुनिया के चमन में' ।यह
स्त्री चेतना की कविता है।अंग्रेजों के दौर में जब कहा जाता था कि ‘हर जोर जुल्म की टक्कर में संघर्ष
हमारा नारा है’ जैसी कविताएं लिखीं गईं तो ऐसी कविताओं ने व्यक्ति
की चेतना को जगाने का ही काम किया था। बहुत सुरक्षित दिमाग से चलने वाला व्यक्ति इस
तरह की कविता क्यों लिखेगा? इसके खतरें हैं। इस तरह की चीजें बनी रहतीं हैं और कवि लिखता रहता है।
प्रदीप कुमार -
तकनीक,अर्थशास्त्र,राजनीति तथा
अर्थव्यवस्था के फलस्वरूप जिस तरह का बदलाव घटित हो रहा
है। उसका साहित्य के सृजन के साथ कैसा संबंध बन रहा है?
प्रो. जितेन्द्र श्रीवास्तव - वही जो पिछला प्रश्न आप कर रहे थे। लगभग वही उत्तर है। जैसे-जैसे मनुष्य के बीच की दूरियाँ बढ़ती जा रहीं हैं वैसे-वैसे व्यक्ति स्वकेंद्रित होता जा रहा है।अपना सुख,अपनी दुनियां,अपने
बच्चे सब कुछ अपने लिए चाहिए। निश्चित रूप से ऐसे समय में एक कवि के लिए समूहिक चेतना
के कविता लिखना ही अपने आप में एक घटना है।अगर आप चाहते हैं कि एक सामूहिक चेतना बनें,आपस की दूरियाँ मिटें;तो
ऐसे में कविकर्म तो कठिन हुआ ही है। जैसे तुलसीदास,
कबीर, रैदास
का समय आसान नहीं था। आज़ादी के समय जो लिख
रहे थे उनका समय भी आसान नहीं था। बावजूद
इसके कि हम लोकतंत्र में हैं,समाज में बहुत उठा पटक है। वैश्विक स्तर पर बहुत उठा पटक
है। अभी देखिए रूस ने यूक्रेन पर आक्रमण कर रखा है। ठीक है कि हमारा सीधे-सीधे उससे लेना-देना
नहीं है।लेकिन जो मनुष्य वहाँ मारे जा रहे हैं तो मनुष्यता तो खंडित हो रही हैं न।एक
कवि जब मनुष्यता के लिए कविता लिखता है तो केवल अपने गाँव के लिए नहीं लिखता है।वह
पूरी दुनिया के लिए लिखता है।टैगोर लिख रहे हों या केदारनाथ सिंह लिख रहे हैं, या चाहे कोई भी कवि लिख रहा हो,वह उससे अप्रभावित नहीं रह सकता। खून का छींटा कहीं भी अगर गिर रहा हो
तो कवि की आत्मा पर तो पड़ता ही है। वह फ्रेंच में लिख रहा है अथवा रूसी में लिख रहा
है या किसी और भाषा में लिख रहा है;यह
महत्त्वपूर्ण नहीं है। तो मुश्किलें कई तरह की हैं। दूसरी चीज यह भी है कि आर्थिक असमानता
तो और बढ़ती ही जा रही है। ऐसे में सिर्फ़ आलंकारिकता से काम नहीं चलने वाला और न ही सिर्फ़
नारों से काम चलने वाला है।।वास्तविक मुद्दों को टटोलना होगा तभी कविता बनेगी और वह
कविता काम की होगी। आप इधर देखिए दलित कविता में भी बदलाव घटित हो रहा है। नब्बे के
आसपास जिस तरह की कविताएं लिखीं जा रही थीं उसमें भी बदलाव आया है। नए कवियों में भी
बदलाव आया है।इसलिए समय को पहचानना ही पड़ता है और आवाज़ भी उठाना ही पड़ता है। समय का
स्पष्ट दवाब कविता पर पड़ता ही है। भूमंडलीकरण के कारण जो बदलाव आएं हैं उसको भी कविता
ने अपने छंदों में कैद किया ही है। कहने का मतलब यह है कि पहले से अभी समय
और समाज में बहुत तरह के बदलाव घटित हुए हैं और कविता ने उसे पहचाना भी है।
प्रदीप कुमार- राजेश
जोशी अपने एक साक्षात्कार('कविता बिहान'
पत्रिका
में)
में
कहते हैं कि समकालीनता 'फ्लैक्सिबल'शब्द
बनकर रह गया है। लंबे अरसे से अब कविता के किसी पीरियड विशेष का नामकरण नहीं हो रहा
है। क्या आप इस तरह के उद्यम को आवश्यक समझते हैं?
प्रो. जितेन्द्र श्रीवास्तव - इस विषय पर मैंने कई जगह अपनी बात रखी है। सोशल मीडिया पर भी इससे संबंधित
मेरे व्याख्यान उपलब्ध हैं। एक बार वाणी प्रकाशन ने इतिहास लेखन की योजना में व्याख्यान
करवाया था उसमें भी है। देखिए यह सही है कि हिंदी में
1960 से लेकर अब तक की कविता के लिए समकालीन कविता का पद चल रहा है। कुछ उत्साही
लोग तो नई कविता को भी इसी में शामिल कर लेते हैं और आज़ादी के बाद की कविता को भी समकालीन
कविता मान लेते हैं। मोटे तौर पर जिसे साठोत्तरी कविता कहते हैं वह समकालीन कविता का
मामला है। वैसे यह भी यह एक तरह की कविता नहीं है। उसमें नक्सलवाड़ी से प्रभावित कविता
भी है, इसमें आपातकाल से भी प्रभावित कविता भी है,
जो वैश्विक परिवर्तन होते रहे हैं उससे प्रभावित कविता भी है। इसके अलावा
उसमें अस्सी के आसपास जो स्त्री विमर्श का उभार आया,
उससे प्रभावित कविता भी है। नब्बे के बाद जो दलित विमर्श आया, उसकी कविता भी है। आदिवासी कविता भी है,
जो पिछड़ा विमर्श आया है उसकी कविता भी है। कहने का मतलब यह है कि समकालीन
कविता नाम का पद जरूर एक है लेकिन वे एकरस नहीं हैं और न ही एक ढंग की कविता है। उसमें
बहुत तरह की विविधताएं है। नक्सलवाड़ी कविता के तुरंत बाद कविता का स्वर बदल गया। यहाँ
से कई कवि निकले जो अस्सी के दशक के कवि कहलाए। स्वयं राजेश जोशी जिसके कवि हैं। अरुण
कमल का नाम भी इसमें शामिल है। इन लोगों के यहाँ वह स्वर नहीं है जो नक्सलवाड़ी कविता
का है। आलोक धन्वा और वेणुगोपाल का जो स्वर है वह राजेश जोशी और अरुण कमल का नहीं है।
राजेश जोशी और अरुण कमल का जो स्वर है वह कुमार अंबुज,
अनामिका और गगन गिल का नहीं है। कविता अपने को बदलती रही है। एक स्वर
जनवादी कविता का भी रहा है। नामकरण का जहां तक मामला है मुश्किल यह है कि नामकरण करें
तो कैसे करें? इसलिए सुविधा के लिए लोगों ने इसको दशकों में बाँट दिया। किंतु इसे भी
पूर्ण स्वीकृति नहीं मिली। उसमें भी वही प्रवृत्ति देखने को मिलती है जो परवर्ती कविता
में थी। एक ही दशक के अंदर बहुत सी प्रवृत्तियाँ देखने को मिलती हैं। जाहिर है कि सबके
स्वर अलग-अलग हैं। समकालीन शब्द एक जरूर हैं किंतु उसमें अलग-अलग विचारधाराओं से प्रभावित कवि शामिल हैं। नामकरण में मुश्किल तो है
किंतु करना तो पड़ेगा ही। नामकरण में एक मुश्किल यह है कि जो गौण प्रवृत्तियाँ होती
हैं वे खो सी जाती हैं। एक प्रवृत्ति को सामने कर देते है तो बाकी प्रवृत्ति हाशिये
पर चली जाती हैं, धीरे-धीरे हाशिये से भी हट जाती हैं और विस्मरण में चली जाती हैं।
प्रदीप कुमार - क्या
आपको लगता है कि आज कविता को एक तरफ़ अपना अस्तित्व कायम रखने के लिए संघर्ष करना पड़
रहा है और दूसरी तरफ़ भाषा,स्मृति,इतिहास
और कल्पना को बचाने की जिम्मेदारी भी निभानी पड़ रही है?
क्या
वह अकेली प्रतिरोध की भूमिका और एक संभव वैकल्पिक यथार्थ का स्वप्न निर्मित करने में
संलग्न दिखती है?
प्रो. जितेन्द्र श्रीवास्तव - मेरा यह बराबर मानना है और बहुत बलपूर्वक मैं कहता रहा हूँ कि किसी को भी यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि कविता
क्रांति करेगी। कविता क्रांति नहीं करती। जैसा मैंने पहले कहा कि कविता केवल चेतना
का निर्माण करती है और कई बार किसी की चेतना निर्मित है तो उसे तीक्ष्ण बनाती है। यानी वह एक औज़ार का काम करती है।
कविता समाज को बदलने का एक औज़ार है। इससे न कम है और न इससे ज्यादा है। इसकी एक निश्चित
भूमिका है। वह भूमिका वह निभा रही है। आज भी अच्छी कविताएँ लिखीं जा रहीं हैं। यह सही
है कि अच्छी कविता की पहुँच जरूर कम हुई है। चलताऊ किस्म की क्षणिक प्रभाव वाली कविताएं भी लिखी जा रही हैं। किंतु वह अमृत की तरह नहीं है। कविता
का अमृत अगर मिल जाय तो जीवनभर साथ निभाती है। वह साथ नहीं छोड़ती। यह सुनिश्चित करने
की जरूरत है कि अच्छी कविता की पहुँच बढ़े। यह कवियों की भी ज़िम्मेदारी है और जो लोग
कविता से प्रेम करते हैं, सामाजिक परिवर्तन के आकांक्षी हैं,
उनकी भी ज़िम्मेदारी है कि अच्छी कविताएं लिखी जाय और उनका प्रचार-प्रसार भी हो। चाहे वह छंद में लिखीं जा रही हों या मुक्त छंद में लिखी
जा रही हो; उसे देखने की जरूरत है।
प्रदीप कुमार-आपकी कविताएँ लोक से गहरे जुड़ाव की कविताएं
हैं जिसमें लोक संपृक्ति बहुत ही तीक्ष्ण है। क्या आपको लगता है कि अब यह लोक सिमटता जा रहा है?क्या शहरी दबावों से कविता के कहन-लिखन
पर कोई असर पड़ा है?
प्रो. जितेन्द्र श्रीवास्तव - देखिए प्रदीप जी, दो तरह की चीजें हैं। मेरी कविता लोक इसलिए है कि मेरी सारी परवरिश गाँव में हुई। लगभग चौदह वर्ष की उम्र तक मैं गाँव में ही रहा और यह
मेरे लिए बड़े गर्व की भी बात है। यही कारण है कि वहाँ गाँव से जुड़े बहुत से चित्र
मौजूद हैं ।
प्रदीप कुमार – लोक को आप फिर
कैसे परिभाषित करते हैं ?
प्रो. जितेन्द्र श्रीवास्तव- देखिए प्रदीप जी। लोक को मैं हमेशा श्रम
से जोड़कर देखता हूँ। मेरे लिए लोक का मतलब गाँव नहीं है। अगर इसको एक सैद्धांतिकी दीजिएगा
तो लोक का मतलब गाँव नहीं है। लोक का मतलब है श्रम। श्रम करने वाला जो समुदाय है वह
लोक निर्मित करता है। चाहे वह गाँव में हो या शहर में श्रमिकों का भी तो लोक है जो
शहर के किनारे दिखते हैं। ये कौन लोग हैं?
वही लोग हैं जिन्हें हम गाँव में देखते हैं। तो मूल चीज यह है कि लोक
की खोज करते समय यह देखा जाना चाहिए कि श्रम है कि नहीं?
लोक का मतलब केवल चिड़ियाँ,
नदी, पहाड़
नहीं है। यह सब लोक का हिस्सा हैं किंतु यह असल में लोक नहीं है। लोक का सबसे महत्त्वपूर्ण
फैक्टर है श्रम। जहाँ भी श्रम होता है वह मुझे आकर्षित करता है। इसलिए आप देखेंगे कि
मैं केवल गाँव-गाँव की कविता नहीं करता। मेरी कविता में वह सायास आता है क्योंकि वह
मेरे रक्त में समाया हुआ है। लेकिन वह उनसे जुड़कर आता है जो लोग वहाँ छूट गए हैं, जो लोग वहाँ कष्ट सह रहे हैं,
जो लोग रहना चाहते हैं, मगर रह नहीं पा रहे हैं। वह सब मेरी कविता में आते हैं तो वे लोक बनकर
आते हैं। असल बात यह कि कवि का कंसर्न क्या है?
दबाव शहर का नहीं रोजगार का है,
जीविका का दबाव है, जीवन का दबाव है। एक समय था कि रघुवीर सहाय स्कूल और केदारनाथ सिंह
स्कूल की दो धाराएँ बन गई थी। मैं इस विभाजन को सही नहीं मानता। रघुवीर सहाय स्वयं
एक अच्छे राजनीतिक कवि हैं। राजनीतिक कविता वही नहीं होता जो नारा लिखता है। प्रकृति
पर लिखते-लिखते वह कब कहाँ प्रवेश कर जाता है,कहना मुश्किल है। कवि के निहितार्थ को समझा जाना जरूरी है। केदारनाथ
सिंह जी की भी बहुत सारी कविताएं राजनीतिक चेतना से युक्त हैं। मेरा मानना है कि बिना
किसी राजनीतिक चेतना के कोई अच्छा कवि हो ही नहीं सकता। राजनीतिक चेतना के बगैर अपने
समाज और समय को पहचानना मुश्किल है। नाम लेकर लिखने मात्र से ही कविता राजनीतिक होगी
यह जरूरी नहीं है। यह जरूर है कि जो शहर में रह रहा है वह शहरी यथार्थ को बेहतर तरीके
से जानता है और उसके बारे में लिख सकता है। यही कारण कारण है कि गिरमिटिया प्रवासियों
के लेखन को ही मैं असली प्रवासी लेखन मानता हूँ। मेरा मानना है कि जो अच्छी रोजी-रोटी और अच्छी सुविधा की तलाश में बाहर जाकर बस गए और वहाँ जाकर जब
वे भारत के बारे में लिखते हैं तो अविश्वसनीय होता है। लेकिन अगर वे अमेरिका,इंग्लैंड या जहाँ वे बसे हैं,वहाँ की कहानी लिख रहे होते हैं तो ज्यादा विश्वसनीय
होते हैं। कहने का मतलब जिसकी जिस समाज या परिवेश से गहरा जुड़ाव है,वह वहाँ के बारे में लिखता है तो प्रामाणिक होता है। कविता को विश्वसनीय
होना चाहिए। चाहे वह शहर के बारे में लिखा जाय या गाँव के बारे में। यह सही है कि आज
की कविताओं में किसानों की उपस्थिति, गाँव की उपस्थिति कम हुई है। यह बिलकुल सही है।
प्रदीप कुमार-बेटियों पर आपकी कई कविताएँ हैं।(बीच में बात काटते हुए)
प्रो. जितेन्द्र श्रीवास्तव-जी। पूरा एक संग्रह है।
प्रदीप कुमार- जी। प्रश्न यह है कि'सोनचिरई'कविता
जो मुख्यतः एक सोहर पर आधारित है और जिसमें आपने स्त्री-शोषण
के स्याह पक्ष को उजागर किया है। यदि इसका संदर्भ लें तो कृपया बताएं समकालीन स्त्री-विमर्श
को आप किस रूप में देखते हैं?
प्रो. जितेन्द्र श्रीवास्तव-देखिए!स्त्री विमर्श तो बहुत जरूरी चीज है ही। हालांकि मैं मानता हूँ कि कोई
भी विमर्श हमेशा नहीं रह सकता। यह हमेशा रहेगा,
इसका मतलब कि जिस उद्देश्य(समता,बराबरी) से ये विमर्श आए वह पूरा ही नहीं हुआ। एक समय के बाद तो इनको समाप्त हो
जाना चाहिए और वह स्थिति आनी चाहिए जिसके लिए ये सारे विमर्श अस्तित्व में आये।यानी
उनके सपनों का समाज बने।आज अगर प्रेमचंद होते तो आज के समाज को देखकर दुःखी होते।वह
यह नहीं चाहते कि उनका साहित्य इस तरह प्रासंगिक रहे।वह चाहते कि उनके साहित्य का एक
ऐतिहासिक महत्त्व तो रहे, किंतु उसकी अपेक्षा उनके सपनों का भारत होता तो ज्यादा प्रसन्न होते।तो
कोई भी अस्मितावादी विमर्श से जुड़ा रचनाकार है उसका भी यही सोचना होगा कि एक समय आये
जब उसके लिखे का सिर्फ़ ऐतिहासिक महत्त्व रह जाये और समय-समाज बदल चुका हो। कोई यह न ढूढ़े कि आज इसकी क्या प्रासंगिकता है?ये विमर्श जरूरी हैं क्योंकि समाज में कई दिक्कतें हैं,समाज में विभाजन है। उस विभाजन को दूर करने के लिए ये जरूरी विमर्श हैं।
मैंने जब मैंने 'सोनचिरई' लिखा
तो मेरे जेहन में कोई विमर्श नहीं था। वही जो आरंभ में मैंने कहा कि कवि की प्रतिबद्धता
समाज के प्रति होनी चाहिए और समाज में जो भी विसंगति है तो कवि को उसपर उंगली रखनी
चाहिए। 'सोनचिरई' कविता
मैंने उसी विसंगति पर उंगली रखने के लिए लिखी थी। मूल रूप से यह कविता पुरुष नपुंसकता
पर है, जिसका सारा दोष स्त्रियों पर मढ़ दिया जाता है। इसके अलावा यह कविता हमारे समाज
की सामाजिक मनोविज्ञान की भी बात करती है। अंततः प्रदीप जी! चीजें प्रेम से ही बचेगी, सामंजस्य से बचेंगी; यह कविता यह भी बताती है। मुझे लगता है सारे विमर्श प्रेम और सामंजस्य
ही तलाशते हैं।
प्रदीप कुमार- ‘नए विमर्श और समकालीन कविता’ जैसी पुस्तकों का यदि उदाहरण लें
तो हम पाते हैं कि दूसरे लेखकों की तुलना में आपने दलित विमर्श को अपनी
चर्चा-परिचर्चा में विशेष महत्त्व दिया है? किंतु इस ओर बाकी साहित्यकारों ने उतना ध्यान नहीं दिया। इसका
क्या कारण है?
प्रो. जितेन्द्र श्रीवास्तव– ऐसा है मुझे जो जरूरी लगा मैंने वह लिखा। चाहे वह दलित विमर्श के
बारे में हो या स्त्री-विमर्श के बारे में या किसी भी तरह की कोई घटना-परिघटना हो; जब मुझे लगा कि लिखना चाहिए तो मैंने लिखा। पूरे महत्त्व के साथ
लिखा। शेष लोग नहीं लिखते तो इसका उत्तर तो उन्हीं के पास होगा।
प्रदीप कुमार -कविता के लिए मौजूदा समय में समकालीन हिंदी आलोचना के प्रतिमानों
की क्या प्रासंगिकता रह गई है?
प्रो. जितेंद्र श्रीवास्तव- देखिए ऐसा है कि कविता के
प्रतिमान कभी भी स्थिर नहीं होते। जैसे-जैसे कविता बदलती जाएगी,प्रतिमान बदलते जाएंगे। जैसे-जैसे समाज बदलता जाता है, हमारी नैतिकता बदलती जाती है। कविता बदलेगी तो आलोचना को बदलना ही
पड़ता है। है न! कविता जिस ढंग की आएगी तो उसकी व्याख्या के लिए औजार तो विकसित
करने ही पड़ते हैं। आलोचना के प्रतिमान बदलते रहने चाहिए तभी उसमें सुंदरता आएगी।
अन्यथा कोई आलोचना पढ़ेगा नहीं। आलोचना की भाषा और शब्दावली तक बदल गई है। अतएव
आलोचना के प्रतिमान बदलते ही रहने चाहिए।
प्रदीप कुमार-धन्यवाद सर। आपने अपना महत्त्वपूर्ण समय हमें दिया।
इसके लिए आपका आभार।
प्रो. जितेंद्र
श्रीवास्तव- आपका भी बहुत बहुत धन्यवाद प्रदीप।
--------------------------------- ---------------------------------
जितेन्द्र
श्रीवास्तव :- देवरिया
(उत्तर
प्रदेश)
में
जन्मे प्रतिष्ठित कवि-आलोचक जितेन्द्र श्रीवास्तव इंदिरा गाँधी
राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, नई दिल्ली की
मानविकी विद्यापीठ में हिंदी के प्रोफेसर हैं। पूर्व में इग्नू के कुलसचिव और पर्यटन
एवं आतिथ्य सेवा प्रबंध विद्यापीठ के निदेशक रह चुके हैं। इन दिनों इग्नू के अंतरराष्ट्रीय
प्रभाग के निदेशक हैं।
प्रदीप
कुमार :- पश्चिम
बंगाल में जन्में मुख्य रूप से कवि और आलोचक के रूप में इन दिनों लगातार सक्रिय लेखन
में रत हैं। लगभग एक दर्जन से ज्यादा प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में इनकी कविताएं,लेख
और समीक्षाएं प्रकाशित हो चुकी हैं। 'कुसुम वियोगी
की चुनिंदा कविताएँ' नाम से इन्होंने एक पुस्तक भी संपादित
की है।
pradipb.ed@gmail.com, 9330561518
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-41, अप्रैल-जून 2022 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक एवं जितेन्द्र यादव, चित्रांकन : सत्या सार्थ (पटना)
ज़रूरी प्रश्नों के शानदार और बेहद ज़रूरी उत्तर. अच्छी बातचीत
जवाब देंहटाएंएक टिप्पणी भेजें