- सत्यभामा
शोध सार : अपने उपन्यासों और कहानियों द्वारा रेणु ने हिंदी कथा-साहित्य में जिस नयी संवेदना को जन्म दिया था, उसके पीछे उनकी गहरी सांस्कृतिक समझ थी। रेणु अपने सम्पूर्ण लेखन में ऐसे चरित्रों का निर्माण करते हैं, जो किसी न किसी स्तर पर कलाकार हैं। इन कलाकार चरित्रों के संघर्ष में रेणु के खुद के कलाकार का आत्मसंघर्ष भी हमें दिखाई देता है। रेणु के साहित्य में आई लोक विधाओं के स्वरूप को देखने की कोशिश इस शोध आलेख में की गई है। इस शोध आलेख में इस बात पर विचार करने की भी कोशिश की गयी है कि कैसे रेणु मौखिक इतिहास, गीतों और कथाओं के ज़रिये अपनी कथा शैली को रचते हैं। साथ ही उनके कथा साहित्य में मौजूद लोक कलाकारों पर भी विचार किया गया है।
बीज शब्द : लोक, अभिनय, बिदापत नाच, खेतीहार, मजदूर, किसान।
मूल आलेख : फणीश्वरनाथ रेणु के कथा साहित्य में कई लोक विधाएँ मिलती हैं। इन विधाओं को मूलतः दो वर्गों में बाँटा जा सकता है - प्रदर्शनकारी कलाएँ (performing
Arts) जिसमें - शामा चकेवा, बिदापत नाच, बेहुला, नौटंकी, जात्रा, जाट जट्टिन, ठुमरी, कीर्तन, पारसी रंगमंच आदि आते हैं और दृश्य कलाएँ (visual Arts) जिसमें - भित्ति चित्र, शीतलपाटी और चिक, और मूर्तिकला आदि आती हैं। रेणु के साहित्य में व्याप्त इन लोक कलाओं का तात्त्विक अध्ययन, उनके औचित्य को उद्घाटित कर सकता है।
प्रदर्शनकारी कलाओं में ‘शामा चकेवा’ महत्त्वपूर्ण हैI
“इस लोकनाट्य के सम्बन्ध में एक बात ध्यान देने की यह है कि बगुली या जाट जट्टिन की तरह यह व्यवस्थित रूप से अभिनीत नहीं होता ; सामा चकवा के गीत परस्पर संवादों के कारण लोकनाट्य की अहमियत प्राप्त करते हैं। किन्तु इसमें भी गानेवाली महिलाओं के दो दल होते हैं और दोनों आमने-सामने अभिनय के साथ संवाद करते हैं। संक्षेप में कहा जा सकता है कि यह धार्मिक अनुष्ठान की तरह लगता है, जहाँ भाई-बहन के स्नेह को प्रदर्शित करने के लिए नाटकीय परिस्थिति पैदा की जाती है। इसके अतिरिक्त एक नाटकीय स्थिति और है। इस अवसर पर सामा चकेवा के दो खिलौने बनाय जाते हैं और उन्हें बीच में रखकर औरतों के दो दल दोनों ओर से गाते हैं। कार्तिक पूर्णिमा के दिन कुस एवं केले के थंभ का बेड़ा बनाया जाता है और उस बेड़े पर दोनों मूर्तियाँ रखी जाती हैं। घी के पाँच दिए जलाए जाते हैं और उस बेड़े को नदी में प्रवाहित कर दिया जाता है। इसलिए इस लोकनाट्य में एक धार्मिक अनुष्ठान का भी रूप मिलता है।” वस्तुतः यह लोक नाट्य विशेषकर दरभंगा जिले का ही है। मिथिला तथा अंगिका-वज्जिका क्षेत्र में भी यह नाटकीय लोकविधा मुख्य रूप से महिलाओं तथा अविवाहित युवतियों द्वारा आयोजित की जाती है।
शामा चकेवा का विस्तृत वर्णन रेणु के साहित्य में दो जगह मिलता है। एक उनकी कहानी ‘विघटन के क्षण’ में और दूसरा उनके उपन्यास ‘परती परिकथा’ में। ‘विघटन के क्षण’ के गाँव की युवती ‘विजया’ और बच्ची ‘चुर्मुनियाँ’ गाँव में आयोजित सामा चकेवा में भाग लेती हैं। रेणु इसका ऐसा सूक्ष्म वर्णन करते हैं कि बिहार से ताल्लुक न रखने वाला व्यक्ति भी इस लोकविधा की बारीकियों को जान पाता है। युवतियों द्वारा किये गए नृत्य और गाये गए गीतों को पाठक सुन पाता है।
‘परती परिकथा’ में जिस साल सर्वे शुरू होता है, तभी से शामा चकेवा खेलना बंद हो जाता है। “नए नौजवानों की नज़र में इस तरह के पर्व-त्यौहार रूढ़िग्रस्त समाज की बेवकूफी के उदाहरण-मात्र हैं।”2 तो बूढों के लिये फिजूलखर्ची है, “कहाँ खेलेंगी शाम-चकेवा। कोई भी अपनी ज़मीन में खेलने नहीं देगा।...फुटबाल खेलने का मैदान स्कूलवाला दर्ज हो गया। कबड्डी खेल हो या फुटबाल, चाहे शामा-चकेवा। सर्वे के पर्चे में दर्ज हो जाएगा। इसलिए, जमीनवालों ने कहा – “नहीं, मेरी जमीन में नहीं।”3 सर्वे की आंधी ख़त्म होने के बाद गाँव की स्त्रियाँ शामा चकेवा खेलने की योजना बनाती हैं। यह त्योहार गाँव और शहर जाकर पढ़ने वाली युवतियों के बीच आ गई दूरियों को मिटाता है। समाज किस तरह बँटा हुआ है, उसे रेणु इस लोकविधा के द्वारा भी दिखाते हैं। ‘परती परिकथा’ में बबुआन टोली और सोलहकन्ह टोली में बँटकर महिलाएँ शामा-चकेवा खेलती हैं।
इसी प्रकार ‘बिदापत नाच’ मिथिला क्षेत्र में काफी लोकप्रिय रहा हैI “श्री लक्ष्मीपति सिंह जहाँ बिदापत नाच को सम्पूर्ण मिथिला क्षेत्र का लोक नाट्य मानते हैं। वहीं श्री जगदीश चन्द्र माथुर इसे पूर्णिया जिले का एक आंचलिक नाट्य मानते हैं। सन् 1960 ई. में पूर्णिया जिले के झिरवा नामक गाँव में आकाशवाणी, पटना की ओर से श्री फणीश्वरनाथ रेणु ने उस गाँव की एक मण्डली द्वारा “पारिजात हरण” नाटक के प्रदर्शन का आयोजन किया था। बिदापत नाच और कुछ नहीं मिथिला और नेपाल के कीर्तनिया नाटकों का एक प्रकार ही है। नाटक प्रारम्भ होने के समय जो भगवती वंदना होती है, वह विद्यापति रचित है और चूँकि प्रत्येक नाटक के प्रारंभ में यह वंदना प्रस्तुत की जाती है, इसलिए जान पड़ता है कि इस प्रकार के नाटकों को गाँव में बिदापत नाच कहने लगे। विघ्नहरण देवता गणेश जी का स्मरण यहाँ भी किया जाता है। इसके बाद घुंघरुओं की आवाज़ के साथ राधिका जी का आगमन होता है। नाटक द्वारा यह सूचित किया जाता है कि रास नृत्य होगा, तब एक सामूहिक नृत्य होता है और उस समूह नृत्य के साथ-साथ विद्यापति के दो पद गाये जाते हैं।”4
रेणु अपनी कहानी ‘रसप्रिया’ में रसप्रिया का स्थानीय इतिहास कुछ इस प्रकार बताते हैं,
“बिदापत नाचनेवाले रसप्रिया गाते थे। सहरसा के जोगिन्दर झा ने एक बार विद्यापति के बारह पदों की एक पुस्तिका छापी थी। मेले में खूब बिक्री हुई थी रसप्रिया पोथी की। विदापत नाचवालों ने गा-गाकर जनप्रिय बना दिया था रसप्रिया को।” 5
रेणु के साहित्य में बिदापत नाच को बड़ा महत्त्व दिया गया है। अपना पहला ही रिपोर्तार्ज उन्होंने बिदापत नाच पर लिखा था। रेणु अपने रिपोर्तार्ज में लिखते हैं,
“तथाकथित भद्र समाज के लोग इस नाच को देखने में अपनी हेठी समझते हैं, लेकिन मुसहर, धान्गड़, दुसाध के यहाँ – विवाह, मुंडन तथा अन्य अवसरों पर इसकी धूम मची रहती है। जब से मैं अपने को भद्र और शिक्षित समझने लगा, तब से इस नाच से दूर रहने लगा, किन्तु थोड़े ही दिनों बाद मुझे अपनी गलती मालूम हुई और मैं इसके पीछे ‘फ़िदा’ रहने लगा।”6
नाच के बीच-बीच में आकर हास्य की सृष्टि करने वाला ‘बिकटा’ निम्न वर्ग की जनता के दैनिक जीवन की परेशानियों और पीड़ाओं की अभिव्यक्ति करता है। इस लोक विधा में केवल नाच ही नहीं होता,
बल्कि इसके गीतों में आम जनता के रोज़मर्रा के संघर्षों की भी अभिव्यक्ति होती है, -
बाप रे कोन दुर्गति नहीं भेल ।
सात साल हम सूद चुकाओल,
कोल्हुक ब्द सन ख़तलौं रात-दिन
करज बाढ़त हि गेल ।
थारी बेंच पटवारी के देलियेंह,
बकरी बेंच सिपाही के देलियेंह,
(अर्थ – बाप रे, मेरी कौन दुर्गति नहीं हुई। सात वर्षों तक मैं सूद चुकाता रहा , तब भी ऋण से मुक्त नहीं हुआ। कोल्हू के बैल की तरह रात-दिन मेहनत की, पर कर्ज बढ़ता ही गया। थाली बेंचकर पटवारी को दी और लोटा बेंचकर चौकीदारी में दे दिया। एक बकरी थी, जिसे बेचकर रुपये सिपाही को दे दिए और अब ‘फटकनाथ गिरधारी’ यानी पूरी तरह कंगाल हुआ फिर रहा हूँ।)
इस रिपोर्तार्ज में हमें ना सिर्फ इस आंचलिक नाच का विवरण मिलता है,
बल्कि साथ ही इस नाच को देखने वाले लोगों के जीवन को मार्मिक रूप से देखने वाला नजरिया भी। रेणु लिखते हैं, “दुखी-दीन, अभावग्रस्तों ने घड़ी-भर हँस-गाकर जी बहला लिया, अपनी ज़िन्दगी पर भी दो-चार व्यंग्य-बाण चला दिए, जी हल्का हो गया। अर्धमृत वासनाएँ थोड़ी देर के लिए जगीं, अतृप्त ज़िन्दगी के कुछ क्षण सुख से बीते। मिहनत की कमाई मुट्ठी-भर अन्न के साथ-साथ आज इन्हें थोडा-सा ‘मोहक प्यार’ भी मिलेगा, इसमें संदेह नहीं ।... आप खोज रहे हैं – आर्ट, टेक्नीक और न जाने क्या-क्या, और मैं आपसे चलते-चलाते फिर भी अर्ज करता हूँ कि यह महज बिदापत-नाच है।”8
इस लोक नाट्य की रचना करनेवाले कोई बड़े लेखक नहीं होते बल्कि गाँव के ही सामान्य जन होते हैं। ‘मैला आँचल’ में जब डॉकटर तहसीलदार से पूछता है,
“गीत तो विद्यापति के गाता है। बिकटै की रचना किसने की है ?” तो तहसीलदार जवाब देते हैं, “आप भी क्या डाक्टरबाबू क्या पूछते हैं, इनकी रचना के लिए भी कोई तुलसीदास और वाल्मीकि की ज़रूरत है? खेतों में काम करते हुए तुक पर तुक मिलाकर गढ़ लेता है।”9 हम देखते हैं कि ज़्यादातर लोक गीतों की सृष्टि लोक में श्रम करते वक़्त ही होती हैI चाहे मसाले कूटती हुई, चक्की चलाती हुई स्त्रियों के गीत हों, धान रोपते हुए खेतिहरों के गीत हों, बोझ उठाते हुए ताल पर हैया हो कहते हुए हम्माल हों, नाव की पतवार चलाते हुए नाविक हों वे सब श्रम करते हुए गीत गाते हैं, क्यूंकि गीतों का ताल और सामूहिकता उनके श्रम की थकान को राहत भी देती है, तो उन्हें काम करने की एक लय भी देती है।
इस क्रम में ‘जट-जटिन’ भी महत्त्व रखता हैI
“जट-जटिन उत्तर बिहार का अनुष्ठानिक लोकनाट्य है। असाढ़, सावन और भादों महीने की दुग्ध-धवल चाँदनी रात में वर्षा के आह्वान के निमित्त इसका प्रदर्शन किया जाता है। कभी-कभी अश्विन, कार्तिक, चैत तथा वैशाख महीने में भी इसका प्रदर्शन होता है। प्रस्तोता और प्रेक्षक सिर्फ स्त्रियाँ होती हैं। नृत्य और सहगान सहित प्रस्तावना, संक्षिप्त कथानक, संतुलित पात्र योजना, प्रश्नोत्तर शैली के गीतात्मक संवाद, सरल–सहज-प्रवाह्यमान भाषा, मुक्ताकाश रंगस्थली तथा आनुष्ठानिक उद्यीपन जाट-जटिन को विशेष लोकनाट्य सिद्ध करता है।’10
रेणु ‘मैला आँचल’ इसका संदर्भ उपस्थित करते हैं,
“तत्माटोला, पासवानटोला, धानुक-कुर्मीटोला तथा कोयरीटोला की औरतें हर साल ऐसे समय में इंद्र महाराज को रिझाने के लिए, बादल को सरसाने के लिए, ‘जाट-जाटिन’ खेलती हैं।” 11
रेणु के कथा साहित्य का अध्ययन करते हुए ‘ठुमरी’ का ज्ञान मददगार सिद्ध होता हैI
प्रसिद्ध शास्त्रीय संगीतज्ञ विष्णु नारायण भातखण्डे ठुमरी के बारे में लिखते हैं, “ठुमरी भी एक क्षुद्र गीत ही माना जाता है। इस गीत का प्रधान रस श्रृंगार होता है। ठुमरी की शब्द-रचना बिलकुल संक्षिप्त होती है। वह जिस ताल में प्रायः गाई जाती है, उसे ‘पंजाबी’ कहते हैं। पंजाबी त्रिताल का ही एक प्रकार है। ठुमरी की गति अति चपल नहीं होती है। जिन रागों में टप्पे होते हैं, उन्हीं में ठुमरियाँ होती हैं। उच्च कोटि के गायक ठुमरी-गायन को निम्न कोटि का गायन कहते हैं। बड़ी बैठकों में प्रसिद्ध गायक ठुमरी नहीं गाते। उत्तर-भारत की और संगीत-व्यवसायी स्त्रियाँ ही प्रायः ठुमरियाँ गाती हैं। ठुमरी का गायन क्षुद्र भले ही माना जाए, किन्तु वह अत्यंत लोकप्रिय है, इसमें कोई संदेह नहीं। ठुमरी उत्तम प्रकार से गाना सरल नहीं है। उत्तर प्रदेश में ठुमरी अत्युत्तम प्रकार से गाई जाती है। महाराष्ट्र में ठुमरी अच्छे प्रकार से गाई हुई शायद ही सुनाई देगी। लखनऊ व बनारस ठुमरी के लिए प्रसिद्ध हैं। ठुमरी में राग की शुद्धता रखने की ओर विशेष ध्यान नहीं दिया जाता। कोई-कोई गायक तो जान-बूझकर भिन्न-भिन्न राग अपने गायन में मिलाते हैं और वह मिश्रण सुन्दर करके दिखने का प्रयत्न करते हैं।”12
रेणु की प्रसिद्ध कहानी ‘तीन बिंदियाँ’ ठुमरी की गायिका गीताली दास पर आधारित है,
इसके आलावा उनका कहानी संग्रह भी ‘ठुमरी’ नाम से प्रकाशित हुआ है। यह विचारणीय बिंदु है कि वे अपने कहानी संग्रह का शीर्षक ठुमरी ही क्यों रखते हैं। ठुमरी ही वह शीर्षक है जो रेणु के पूरे व्यक्तित्व और उनकी रचनात्मकता के दर्शन को दर्शाता है। जैसा कि हम ऊपर देख चुके हैं कि ठुमरी को शुद्धतावादी शास्त्रीय गायकों द्वारा हेय दृष्टि से देखा जाता है, लेकिन आम जनता के बीच उसकी लोकप्रियता में कोई कमी नहीं। इस प्रकार रेणु के कथा साहित्य में भी शुद्धतावाद से विद्रोह अनेक स्तरों पर दिखाई देता है। उनके कथा-साहित्य में इसका उदाहरण तीन बिंदिया की उनकी नायिका गीताली दास है।
रेणु एक तरह से यह दर्शाना चाहते हैं कि उनकी कला का मूल्य भी यही आंचलिकता है,
वे अपने साहित्य में ‘विशुद्धता’ से बचते हैं। वे सहायक नाद की उपेक्षा नहीं करते। वे अपने कहानी संग्रह का नाम भी ठुमरी रखते हैं और संगीत की शब्दावली में उसकी भूमिका भी लिखते हैं, “इस संग्रह में ठुमरी नाम की कोई कहानी नहीं; सभी संयोजित कहानियाँ ठुमरी धर्मा हैं। अंतरमार्ग एक ही है सभी कथाओं का। (...गीत के अंतरमार्ग में, बीच-बीच में विभिन्न स्वरों के प्रयोग से जो वैचित्र और कारू-कार्य संपादित होता है, उसको अंतरमार्ग कहते हैं।)
एक स्वर को लेकर,
विभिन्न स्वरों से उसकी क्रमिक संगति दिखला-दिखलाकर ही किसी राग के रूप को प्रकाशित किया जाता है। ठुमरी के कथागायक ने ऐसी चेष्टा की है। एकाधिक कथाओं में, एक ही विशेष मुहूर्त को विभिन्न परिवेश में रखकर, रूपायित किया गया है।” 13
रेणु के साहित्य में दृश्य कलाओं की उपस्थिति उन्हें अनोखा बनाती हैंI
रेणु की आखिरी कहानी ‘भित्ति चित्र की मयूरी’ है। यह मिथिलांचल के एक गाँव में भित्ति चित्र बनाने वाली फुलपतिया और उसकी माँ पन्ना देवी की कहानी है। उनके घर की आर्थिक स्थिति इतनी खराब है कि “फुलपतिया की माँ के छप्पर पर छाजन की फूस भी नहीं। अठारह-उन्नीस साल पहले फुलपत्ती के बाबूजी मुकदमाबाजी में जगह-जमीन सब झोंककर आखिर खुद भी झोंक में आकर चले गए। हार के शोक में, कुछ खाकर सो रहे। तबसे-फुलपत्ती की माँ गाँव-घर के किसानों के घर में कूट-पीसकर गोदी की इकलौती संतान को पालती रही। हाथ में एक गुण था – जिसके कारण थोड़ी पूछ और प्रतिष्ठा होती थी वह भी नहीं। अब, शादी-ब्याह, पर्व-त्योहार के अवसरों पर ‘भित्ति’ पर कागज़ में छपे देवी-देवताओं की तस्वीरों के अलावा बायोस्कोप की तस्वीरें लटकाई जाती हैं।” 14
इन परिस्थितियों में उनकी ज़िन्दगी में कला अकादमी पटना का सेक्रेटरी सनातन प्रसाद आता है। इसके बाद फुलपत्ती और उसकी माँ की ज़िन्दगी बदल जाती है। वह फुलपत्ती की माँ को दिल्ली ले जाता है,
जहाँ उसका बहुत सम्मान होता है और उसके चित्रों की प्रिंट विदेशों में ऊँचे दाम पर बिकती हैं। वह फुलपत्ती और उसकी माँ के सामने शहर में रहने का प्रस्ताव रखता है। फुलपत्ती की माँ मान जाती है। लेकिन फुलपत्ति नहीं मानती। उसके पास अपनी अस्मिता की चिंता है और अपनी जड़ों से ना कटने का दृढ निश्चय। उसी की ज़िद का परिणाम यह होता है कि सनातन गाँव में ही ट्रेनिंग सेंटर खोलने की योजना बनाता है, जिसमें फुलपत्ती की माँ भित्ति चित्र बनाना सिखाने का काम करती है।
कहानी में भित्ति चित्रों को बनाने की बारीकियों का भी चित्रण है। पन्नादेवी की प्रसिद्धि के बाद औरतों की जो बैठक जमती है,
उसमें फुलपत्ती की मामी बताती है, “बाकी सब काम तो फुलपत्ती ही करती थी, पिठार के चावल को खूब महीन करके सिलबट्टे पर पीसना। पिठार को दूध में घोलना। थोड़ी देर के बाद, ठीक समय पर जंगली पेड़ – ‘मेदकाठ’ की कोमल पत्तियों को उसमें डालकर मथते रहना, सींकी की काठियों में कपड़े और छोटे-छोटे लट्टे लपेटकर अलग-अलग रंग के लिए तैयार करना; रंग घोलना – सब काम तो फुलपत्ती बचपन से ही करती आई है।” 15
ध्यान देने की बात यह है कि यह रेणु की आखिरी कहानी है। उनकी शुरूआती कहानियों में एक कहानी ‘कलाकार’ है,
जिसमें बनारस में रह रहे कलाकार का चित्रण है और वे अपनी कथा यात्रा भित्ति चित्रों पर ख़त्म करते हैं।
रेणु का चिक और सीतलपाटी बनाने वाला कलाकार को ‘ठेस’ कहानी के ‘सिरचन’ के रूप में प्रस्तुत करते हैं। सिरचन की कला का अब कोई आर्थिक मूल्य नहीं रह गया है, फिर भी वह अच्छे भोजन के बदले अपना काम जी लगाकर करता है। उसे रेणु ने अपने काम में मगन होते हुए यूँ दिखाया है,“सिरचन जब काम में मगन रहता है तो उसकी जीभ ज़रा बाहर निकल आती है, होंठ पर। अपने काम में मगन सिरचन को खाने-पीने की सुध नहीं रहती।” 16
ठेस एक कलाकार के स्वाभिमान की कहानी है। हम देखते हैं कि गांधी जी की राजनीति से रेणु प्रभावित थे। गांधी जी ने जिस तरह स्वदेशी उत्पाद को एक सम्मान दिलाया था वह स्वाभिमान सिरचन में भी हमें देखने को मिलता है। भले ही उसकी कला का अब कोई आर्थिक मूल्य नहीं रह गया फिर भी वह अपने काम को नहीं छोड़ता, और वह काम भी पूरे स्वाभिमान के साथ करता है।
रेणु ‘मूर्तिकला’ को भी अपने कथा साहित्य में स्थान देते हैंI रेणु की कहानी ‘कपड़घर’ दुर्गा जी की मूर्ति बनाने वाले कलाकार दुर्गालाल और उसके मूर्ति बनाने वाले लोगों के समुदाय के ऊपर आधारित है। वे संकेत देते हैं कि मूर्तिकारों के समाज में कई जातियाँ हैं और कुछ जातियाँ सिर्फ देवी की मूर्ति बनाती हैं, तो कुछ जातियाँ मिटटी के खिलौने। कुछ जातियों में केवल दुर्गा की मूर्ति बनाने की अनुमति हैI रेणु मूर्तिकला की बारीकियों पर पैनी नजर भी रखते हैंI वे स्प्पष्ट करते हैं कि मूर्ति को नयन देने (आँख के बीच में काले रंग की बिंदी) की नहीं, तो कुछ जातियों में नैन देने का रिवाज़ है।
रेणु में एक गहरी सांस्कृतिक समझ थी। आम ग्रामीण जन-जीवन में नाच, नौटंकी, मेले देखने जाने का उत्साह, सामूहिकता का भाव, उनके जीवन की छोटी-छोटी इच्छाओं को रेणु नें बहुत सूक्ष्मता और संवेदना के साथ अपने साहित्य में दर्ज किया है। रेणु की सांस्कृतिक समझ को इस प्रकार देखा जा सकता है कि उन्होंने कला की संगठन शक्ति को पहचाना था। ‘जुलूस’ उपन्यास का तालेवर गोढ़ी सोचता है कि जब गाँव पर बाभन- राजपूतों का राज था, तो तालेवर गोढ़ी ने बेहूला नाच पार्टी अपनी बीवी की हसली बन्धक देकर शुरू की थी। “इलाके भर में तालेवर की मूलगैनी मशहूर हो गयी थी। किन्तु सबसे बढ़कर जो बात हुई उस पर किसी ने कभी सोचा ही नहीं। नाच-पार्टी के कारण ही गोढ़ी-गुहार, कमार-कहार, कुर्मी-धानुक, केवट-कैवर्त आदि पिछड़ी जाति का ठोस संगठन हो गया। इलाके में एक से एक अगिया बैताल-बाभन और पनियॉ-दरार साँप-राजपूत, सभी इस संगठन के सामने फुस्स, लेकिन अब चूकि गाँव पर उसका राज है, इसलिए अब जो नाच-पार्टी बनेगी और इसका जो संगठन होगा, उसके सामने खुद तालेवर गोढ़ी फुस्स हो जायेगा।”17
रेणु ने अपने कथा साहित्य में कई तरीकों के गीतों का प्रयोग किया है। “ये गीत रेणु की शैली के असाधारण आयाम हैं और अपने स्रोत और उद्देश्य के बारे में कई दिलचस्प सवाल पेश करते हैं। कई प्रकार के गीतों का उनके लेखन में समावेश हुआ है। उर्दू के राजनीतिक गीतों से लेकर हिंदी के फ़िल्मी गीत और विद्यापति और कबीर के पारंपरिक गीत भी शामिल हैं। अधिकतर गीत मैथिली की लोक रचनाएँ हैं। केवल ‘मैला आँचल’ में ही अलग-अलग तरह से बीस मैथिली गीत, जैसे सोहर (जन्मगीत), नचारी (विवाहगीत), समदाऊन (बिदाई या मृत्यु) का गीत, फाग और जोगीड़ा (होली गीत), पूर्वी, बटगमनी, और अन्य।”18
गुलामी से आज़ादी के संघर्ष को जिन गीतों में जगह मिली थी, उन गीतों को रेणु एक मुकम्मल जगह देते हैं। अपने एक संस्मरण में रेणु ने लिखा है, “आज़ादी के बाद भी बिहार के सुदूर गाँवों की सूनी सड़कों पर गाड़ी हांकने वाले गाड़ीवानों को अथवा खेतों में धान रोपते हुये किसानों को जब-जब गरीबी भार मालूम होती है, उन्हें गांधी जी की याद आती है। फिर, कोई पुराना दर्द-भरा गीत, उसके दु:ख के साथ घुल-मिल कर कंठ से फूट पड़ता है। ...‘ज़ार-बेजा़र’ रोती भारत माता की जंजीर को काटने के लिये अपना ‘‘घर जार’’ कर भटकने वालों के बारे में इन गीतों में जो कुछ कहा गया है, सम्भव है आज़ादी की चकाचौंध में उसे ‘भावुकता से भरा रूपक’ मात्र समझा जाये। लेकिन, इन गीतों की उतनी ही कीमत है, आज भी।” 19
मैला आँचल में देश की आजादी पर ग्रामीण स्त्रियाँ गाती हैं, -
भारथमाता
कथि जे चढ़ल सुराज
चलु सखि देखन को
कथि जे चढ़िये आयेल
बीर जमाहिर
कथि पर गांधी महाराज । चलु सखी ...
हाथी चढ़ल आवे भारथमाता
डोली में बैठल सुराज! चलु सखी देखन को
घोड़ा चढ़िये आये बीर जमाहिर
पैदल गांधी महाराज। चलु सखी देखन को।”20
स्पष्ट है कि रेणु अपने आसपास के जन-जीवन में पल रहे आशा-निराशा के चित्रों को कथा साहित्य में साकार करने की कोशिश करते हैं I इस क्रम में वे लोक कथाओं को भी उपस्थित करते हैंI
रेणु अपने उपन्यासों में भी कई तरह की लोक कथाओं का इस्तेमाल करते हैं। रेणु परती परिकथा में पंडुकी की कथा, बूढ़े भैंसवार की कथा, ब्रह्मपिशाच और शिवेंद्र मिश्र की कथा, कोहबर राँडी की कथा, सुन्नरी नैका की कथा, मिश्र वंश की पांच कन्याओं की दुलारिदाय के कुण्डों में डूब के मरने आदि कथाओं से एक ही कहानी को भिन्न कोणों से देखने की बात करते हैंI यह रेणु की कलात्मक अभिव्यक्ति है। ‘परती परिकथा’ के केंद्र में ‘सुन्नरी नैका की कथा है, जो परती पृथ्वी को उर्वर बनाने का प्रतीक है। उपन्यास में भावेश अपने कैमरे द्वारा और सुरपति राय अपने टेपरिकॉर्डर द्वारा लोक कथाओं को रिकॉर्ड करते हैं तथा रेणु उसे कथाओं को व्यक्त करते हैं। नलिन विलोचन शर्मा ‘मैला आँचल’ पर बात करते हुए लिखते हैं, “अनगिनत गरीब और धनी अशिक्षित और उच्च-शिक्षित, स्त्री और पुरुष पात्रों से संकुल हुए उपन्यास का चित्रित जीवन किसी स्थल में अविश्वसनीय नहीं होता – वहाँ भी नहीं जहाँ नाटकीय घटनाएँ घट जाती हैं क्योंकि लेखक ने उस सत्य का चित्रण अपना लक्ष्य रखा है, जो कभी-कभी गल्प से भी, सचमुच ही, विचित्रतर होता है।” 21 रेणु का सत्योद्घाटन करने का यह तरीका कुछ ऐसा है कि वो कथाओं के द्वारा भी यथार्थ चित्रण करते हैं। ये कथाएँ रेणु के शिल्प का एक दिलचस्प आयाम हैंI सुरंगा सदा ब्रिज की लोक कथा के द्वारा मैला आँचल में खलासी और फुलिया का प्रेम सम्बन्ध आगे बढ़ता है। महुआ घटवारिन द्वारा रेणु ने अपनी लम्बी कहानी ‘तीसरी कसम’ में प्रतीकात्मक रूप से हिरामन और हीराबाई के बीच के सम्बन्ध को अभिव्यक्त किया है। रेणु के शिल्प के बारे में रेणु पर लिखे गए अपने मोनोग्राफ में सुरेन्द्र चौधरी एक गंभीर बात का उल्लेख करते हैं, “कुछ लोगों ने गंभीरता से यह समझाने की कोशिश की है कि रेणु ‘मोंताज’ शैली के उपन्यासकार है। पर मुझे ‘मैला आँचल’ और ‘परती परिकथा’ के प्रसंग कभी उतने आत्मस्वातंत्र नहीं लगते। ये एक महाकाव्य की संरचना के समीप मालूम पड़ते हैं। अवश्य ही उसमें वृत्तांत का पुट ज्यादा है और यह परिदृश्यात्मक-महाकाव्यात्मक कथा-शैली हमारी जातीय शैली है, जिसकी संरचना हमें अनेक कथाओं में मिलेगी। अपने अगले उपन्यास का नाम ‘परती : परिकथा’ देकर रेणु ने इसका ठीक-ठीक आभास भी दिया है। ‘कादम्बरी’ की वृत्तांत-शैली के अतिरिक्त ‘मैला आँचल’ में अंतर्कथाओं का विधान भी है। यह उसे वास्तविक पद्योग देता है। कथा और कविता का यह योग सचमुच ही ‘मैला आँचल’ के शिल्प को हिंदी में अद्वितीयता प्रदान करता है। इस कथा-शिल्प को रेणु ने ‘परती:परिकथा’ में कुछ और गूंथा है। उसे पढ़ते हुए ‘कोलाज’ का भ्रम नहीं होता। उसमें अवश्य ही कथा के चार-पाँच परस्पर सह्संरचण करने वाले कथानक हैं, जो एक-दूसरे से समान सन्दर्भों में जुड़े हैं। ‘परती:परिकथा’ का रचना-शिल्प परिदृश्यात्मल-कथात्मक दृश्य है।’22
निष्कर्ष : रेणु ने अपने क्षेत्र के बिदापत, बिदेसिया, सामा-चकेवा, बलवाही, बहुला आदि गीत और नाचों, मेलों में आई पारसी थियेटर कंपनियों, कानपुर की नौटंकियों, बंगाल के जात्रा पर आधारित थियेटर कंपनियों को बहुत नज़दीक से देखा था। ना सिर्फ उनके द्वारा प्रदर्शित कला ने उन्हें आकर्षित किया था, बल्कि उन कलाकारों के जीवन संघर्ष ने भी उन्हें अभिभूत किया था। ये वे कलाकार थे, जो उनकी प्रसिद्ध कहानियों के पात्र बने। ‘रसप्रिया’ का ‘पंचकौड़ी मिरदंगिया’, ‘ठेस’ कहानी का ‘सिरचन’, ‘मारे गए गुलफाम’ की ‘हीराबाई’, ‘तीन बिंदियाँ’ का ‘हाराधन यन्त्रकार’, ‘भित्ति चित्र की मयूरी’ की ‘फुलपतिया’, ‘नेपथ्य का अभिनेता’ का पारसी रंगमंच का बूढ़ा अभिनेता, ‘परती परिकथा’ की नट्टिन टोली की नाट्टिनें, उनकी नायिका नट्टिन ‘ताजमनी’ और ‘रग्घु रामायनी’, मैला आँचल के जोतखी जी का बिदापत नाच में भाग लेने वाला बेटा नामलरैन आदि ऐसे कलाकार पात्र हैं, जिन्हें रेणु ने अपने कथा-संसार का हिस्सा बनाया और स्थापित किया। ये सभी जमीं से जुड़े लोग हैं और रेणु उनकी पहचान को अपने साहित्य में स्थापित करते हैंI
इस वर्ष हमारा देश आज़ादी की 75वीं वर्षगाँठ मना रहा है। रेणु के साहित्य में मौजूद ये लोक कलाकार हमें याद आते हैं, खुद रेणु एक लोक कलाकार के रूप में हमें बार-बार याद आते हैं, जिन्होंने अपने मैला आँचल में भारत माता को पन्त की कविता में देखा था -
ग्रामवासिनी
खेतों में फैला है श्यामल
धूल भरा मैला-सा आँचल
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) फणीश्वर नाथ रेणु विशेषांक, अंक-42, जून 2022, UGC Care Listed Issue
अतिथि सम्पादक : मनीष रंजन
सम्पादन सहयोग : प्रवीण कुमार जोशी, मोहम्मद हुसैन डायर, मैना शर्मा और अभिनव सरोवा चित्रांकन : मीनाक्षी झा बनर्जी(पटना)
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