- मनीष रंजन
फणीश्वरनाथ रेणु को जन्मे 101 वर्ष हो गए। कितनी दुनिया बदल गई और कितनी तेजी से बदलती जा रही है। इन सब के बावजूद कितना कुछ आज भी ज्यों का त्यों बना दिखाई पड़ता है। रेणु के लेखन काल में भी कुछ ऐसा ही रहा था। आज भी लिखा जा रहा है और रेणु भी अपने समय में लिख रहे थे। लेकिन आज रेणु पर चर्चा क्यों? क्या महज शताब्दी वर्ष की खानापूर्ति के लिए? या रेणु के प्रति अपना वार्षिक प्रेम जाहिर करने के लिए? निश्चय ही नहीं।
रेणु ने अपने समय की चुनौतियों की आहट सुनी थी। वे चुनौतियाँ इतनी संश्लिष्ट व जटिल थीं कि उनकी व्याख्या ललित निबंध के रूप में नहीं की जा सकती थी। रेणु इसके लिए विधा-विधा में छटपटाते रहते हैं। उनका रचनाबोध पारंपरिक साहित्यिक विधाओं के बने-बनाए ढाँचे या प्रचलित फ्रेम में फिट नहीं बैठता। उनके अनुभव और विचार का मेल कुछ ऐसा रहता है कि वो उन्हें चैन से एक जगह बैठने नहीं देता। वे गाँव में रहते हैं, नेपाल की क्रांति में सहभागिता देते हैं, भाग के शहर जाते हैं, फिर महानगर भी जाते हैं, गाँव की खाक छानते-छानते रिपोर्टिंग करते हैं ....। लेकिन रचनाकार मन तृप्त नहीं होता, अभिव्यक्ति का कोई ऐसा स्पष्ट मार्ग नहीं मिलता जो उन्हें संतुष्ट कर सके। वे आजीवन कविता, कहानी, उपन्यास, निबंध, एकांकी, रिपोर्ताज, संस्मरण, स्केच, हास्यव्यंग्य, पत्र आदि के सूत्र तलाशते रहते हैं। यही कारण है कि उनकी रचनावली पाँच खण्डों में तीन हजार पृष्ठों को समेटने लगती है।
रेणु ने आंचलिकता के बहाने केवल अंचल विशेष के विभिन्न पहलुओं के उद्घाटन की कोशिश नहीं की है। बल्कि वे ‘दीर्घतपा’ में शहरी सफेदपोशों का पर्दाफाश, ‘जुलूस’ में पूर्वी बंगाल की शरणार्थी समस्या, ‘कितने चौराहे’ में स्वतंत्रता के लिए युवकों के बलिदान और ‘पल्टू बाबू रोड’ में राजनीतिक भ्रष्टाचार का संस्पर्श करते हैं। जीवन की बहुरंगी व वैविध्यपूर्ण छवि को एक बड़े कैनवास पर उतारने के क्रम में उपन्यास को अपनाते हैं। वे जनजन के ‘फूल और शूल’ को स्वीकारते हैं। किसे छोड़ें और किसे न छोड़ें? सामान्य जन, अभिजन, हाशिए के जन, आदिवासी, संथाल आदि।
रेणु के यहाँ प्रकृति के वैविध्य का स्वीकार मनुष्य की शक्ति का समर्पण नहीं है। रूप, रंग, गंध, प्रकाश, मिट्टी आदि के भिन्न-भिन्न आकार-प्रकार मनुष्य की जिजीविषा को मजबूती प्रदान करते हैं। प्रकृति की ताल व लय को पहचानना सबके वश की बात नहीं है। उसे वही पहचान सकता है, जो प्रकृति में तन्मय हो कर रहता है, उसे आत्मसात करता है और ये सब लोक से ज्यादा कहाँ मिल सकता है। लोक के जीवन में प्रकृति भी हिस्सेदार होती है। कभी वह बटबाबा के रूप में सबका दुःख-सुख सुनती है, तो कभी फागुन की हवा के झोंकों के रूप में सबका आलिंगन करती चलती है।
यह वही प्रकृति है जो कार्तिक में शरीर तोड़ती है, तो फागुन में उसे संजीवनी प्रदान करती है– “आसिन-कातिक के मलेरिया और कालाजार से टूटे हुए शरीर में फागुन की हवा संजीवनी फूँक देती है।”
आचार्य नरेंद्र देव “संस्कृति को चित्त भूमि की खेती” कहते थे। कुछ इसी तरह रेणु का कथा साहित्य लोक चित्त की फसल है। लेकिन इसमें जीवन को संजीवनी देने वाली केवल लहलहाती फसल नहीं है, बल्कि परती की घास-फूस भी है। दोनों का अपना-अपना सौन्दर्य है। वे रचनाकार की उन आँखों से अपने परिवेश को देखते हैं कि रचना किसी समाजशास्त्री के लिए ऐसी आधारभूत सामग्री बन जाती है, जो किसी पार्टी या विचारधारा से बंधी नहीं होती।
हर रचनाकार की तरह रेणु भी क्या लिखें और क्या न लिखें - के अंतर्द्वन्द्व से जूझते हैं। उनके मन को चंडी दास का - सबार ऊपर मानुस ता ऊपर कछु नाहिं– सूत्र बार-बार मथता रहता है। रेणु इससे अपनी राह तलाशते हैं। मनुष्य से इतर क्या और मनुष्य के बगैर क्या। राह चलते की गप से यात्रा की नीरसता और उबाऊपन मिट जाता है। जिन्दगी की तान व लय को ढूँढने से जिंदगी की कठोरता का अहसास कम हो जाता है। रेणु अपनी साहित्यिक यात्रा में इसी जिंदगी की लय को टटोलते हैं। तभी तो उन्हें घी की डाड़ी(खखोरन) के साथ चिउरा अपनी कला न्योछावर करने वाला सिरचन मिलता है, तो कभी तथाकथित सभ्य बने लोगों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ानेवाली नैना जोगिन। यह अकारण नहीं है कि रेणु के यहाँ परिवेश ही कथ्य बन जाता है। वे गाँव के जीवन में रच-बस कहानी लिखते हैं। वे मनुष्य और मिट्टी में प्रेम की बातें करते हैं। उनकी कहानियाँ केवल ‘मानव जीवन का चित्र मात्र’ नहीं, बल्कि पूरी जीवन के कायनात को दर्शाती हैं- जन-जन के फूल और शूल।
आस्था के बीच पले-बढ़े जन को रेलगाड़ी की छुक-छुक आवाज ‘जै-जै काली ...जै-जै काली’ करती लगती है। यह आदतों से निर्मित भाषा व्यवहार है। लोक अपनी लय में पहचान करता है –“ चर्खा-कर्घा, लाठी-भाला और बम-पिस्तौल ! तीन टरेनि!” यह व्यवहार स्वतंत्र भारत की बदलती राजनीतिक परिवेश की पहचान भी कर लेता है। अनशन का ‘अंटशंट’ बन जाना यही दर्शाता है। नाम है, गुणवत्ता गायब। मतलब साधने का एक तरीका मात्र। रेणु स्वातंत्र्योत्तर भारतीय राजनीतिक परिदृश्य की पहचान करने में सधे शब्दों का सहारा लेते हैं। ये शब्द रेणु के राजनीतिक अनुभव से रचे-पके हैं। हिरामन सही कहता है कि "कचराही बोली में दो-चार सवाल-जवाब चल सकता है, दिल-खोल गप तो गाँव की बोली में ही की जा सकती है किसी से।"
अकाल में ‘हड्डियों के पुल’ पर चलने वाला और बाढ़ के पानी में उतर जिंदगानी की तलाश में भटकता हिंदी के लेखक विरले ही होते हैं। आज हम सब ऐसे समय में जी रहे हैं, जब मनुष्य की रुचियाँ ही ‘आर्टिफिशियल इटेलीजेंस’ के माध्यम से नियंत्रित-सी हो चली हैं, जब एक ही ब्राण्ड के पालन पर जोर दिया जा रहा है, विविधता की जगह एक ही रूप-ढंग को अपनाने पर बल है, वैश्विक भाषा के भ्रम में अपनी बोली-भाषा उपेक्षित होती जा रही है। ऐसे में रेणु का कथ्य और अंदाज-ए-बयां माथे पर शिकन पैदा करता है। रेणु अपने समय के बने बनाए साहित्यिक कथ्य और ढाँचे में नयापन लाते हैं। यह नयापन चमत्कार पैदा कर चर्चित होने का प्रयास नहीं है, बल्कि अपने समय को ठीक-ठीक ढंग से पकड़ने की अकुलाहट से आकार लेता है। 1942 की क्रांति और नेपाल की क्रांति की सहभागिता वाला लेखक गाड़ीवान के कोमल कम्पन को भी पहचान लेता है। सांप्रदायिक आँच में झुलसती ‘जलवा’ की फातिमा देशवासियों को अपनी करनी का आत्मसाक्षात्कार कराती है।
रेणु सिर्फ हरियाली नहीं देखते, परती और सूखी घास भी देखते हैं। पूरे परिवेश को उसकी संपूर्णता में स्वीकारने की पहल करते हैं। जन व उसकी जमीं दोनों से जुड़ाव है। गाछ ही नहीं उसकी फुनगी, पत्ते, डाल, कोटर, घोंसले, गांठे, जड़ आदि सब को उसकी साधारणता व विशिष्टता के साथ सहज स्वीकार। जन की बात तो सब की बात। डॉक्टर, तहसीलदार भी, तो लाल टोपी देखकर जंगल की ओर भागने वाले लोग भी। कीचड़-कादो में खाद्य पदार्थ तलाशते जन। आदिवासी संथाल भी। आदिवासी विमर्शकार का आरोप भी जायज कि रेणु उतनी शिद्दत से आदिवासी संघर्ष का चित्रण नहीं करते जितनी की अपेक्षा रही। लेकिन रेणु की नजर गई तो सही। "जमीन जोतनेवालों की" ही तो असली सुराज है।
बालदेव जी की पीड़ा जायज ठहरी है - "आदमी के पहनने के लिए कपड़ा नहीं” और लोग हारमोनियम के खोल के लिए रियायती का कपड़ा लेने की पैरवी कर रहे हैं। फूल व शूल। एक ओर अमीरी और दूसरी ओर गरीबी व जहालत। फसल भरे खेत व बंध्या धरती। एक तरफ कोसी मैया(नदी) की कल-कल और दूसरी तरफ धरती को परती बनाती कोसी की मुख मोड़ती धार। पूड़ी-जलेबी का सामूहिक भोज और जातिगत पंगत भी। ऋणजल तो धनजल भी। प्रजातांत्रिक चुनाव लड़ने की चाहत और बुरी पराजय।
रेणु के लेखन में देश-विभाजन की पीड़ा का संकेत मात्र है। उसकी गरमाहट व प्रभावशीलता नदारद। लेकिन वे बांग्लादेश के निर्माण की सच्चाई व लोगों के मन में उपस्थित विभाजन के दंश को महसूसते हैं। केवल इंद्रियबोध नही, बल्कि बोध है यह अपने समय की आहटों का। पूरी शिद्दत के साथ समय के यथार्थ को पकड़ने की कोशिश है।
रेणु पर आरोप भी कम नहीं हैं- नैराश्यवादी, जीवन विरोधी, पलायनवादी, जीवनदर्शन से शून्य आदि। लेकिन रेणु घटना के सतही उद्घाटन से अधिक उसको सम्पूर्णता में पकड़ने की कोशिश करते हैं। वे आसपास के परिवेश की बारीकियों को पहचानते हैं और पाठक के सामने उसे परत दर परत स्पष्ट करते हैं। रेणु कमलेश्वर के नाम एक पत्र में लिखते हैं – “बीमार आदमी दुनिया में सबसे ‘हीन’ प्राणी है। उसे चाहे तो घर की कुतिया भी डाँटकर उपदेश पिला सकती है। ............ बहरहाल, पटना मेडिकल कॉलेज अस्पताल दवा-दारू, पथ्य-पानी, ठीक-ठाक दे या न दे - रोगियों को गंगाजी की शुद्ध और पवित्र हवा देता है।” रेणु मृतप्राय स्थितियों में भी जीवन का आनंद लेते लोगों को पढ़ते हैं व पढ़ाते हैं और संभवतः इसी बहाने वे भारतीय लोक-समाज की जिजीविषा का संकेत भी दे जाते हैं।
रेणु साधारण आदमी की बेहतरी के लिए राजनीति में भाग लेते हैं लेकिन उन्होंने देखा कि सुविधाभोगीपन के प्रवेश ने राजनीतिक दलों को पथ से भटका दिया है। कहानी ‘आत्म साक्षी' का गणपत रेणु के अंतर्मन का साक्षी बन जाता है। वे उत्पीड़ित जन के हाहाकार को ‘सुन-कह-रच’ का रूप देते हैं। अंतर्मन में ली गई कसम और अपने आप से किया वादा दिखावा नहीं। वे लोक की बोली की सहायता से भाषा-चेतना का निर्माण करते हैं। भाषा की देशज जीवंतता से लय का निर्माण करते हैं। इसके साथ ही नेतापंथी की पहचान भी कराते हैं। जहाँ अनशन ‘अंट संट' में बदलने वाला है इसके संकेत भी देखने को मिलते हैं। वस्तुतः रेणु मनुष्य को केंद्र में रखकर भारतीय राजनीतिक परिदृश्य की उस मान्यता को उजागर करते हैं जिसमें राजनीतिक विसंगति के कारण वास्तविक कार्यकर्ता और आम आदमी हाशिए पर चले जाने को विवश होता है।
इस संग्रहणीय अंक में युवा शोधार्थियों के साथ ही साथ कुछ नए अध्येताओं के विचारों को सम्मिलित किया गया है, जिसमें उत्तराखंड से लेकर पाण्डिचेरी और आईजोल (मिजोरम) से लेकर औरंगाबाद (महाराष्ट्र) तक के लोग सहभागी हैं। सबने अपनी-अपनी ईमानदार कोशिश के साथ रेणु के रचनात्मक फलक का विश्लेषण किया है और उसे जमीनी स्तर की सच्चाई के सामानांतर देखने-परखने की कोशिश की है। पत्रिका के श्रमसाध्य कार्य को अंजाम देने में सक्रिय टीम के साथ काम करना एक सुखद और चुनौतीपूर्ण अनुभव रहा है। इस अंक के सफल संपादन में पत्रिका के सम्पादकद्वय माणिक और जितेन्द्र का लंबा अनुभव मेरे साथ जुड़ा हुआ माना जाए। मीनाक्षी झा बनर्जी के सुंदर चित्राकंन के बगैर भावों का प्रबलन क्षीण ही रह जाता। आपके सुझाव और प्रतिक्रिया से सबका मनोबल ऊँचा होगा। विशेषांक का मजबूत आधार कहना चाहिए कि मेरे अपने प्रवीण, हुसैन, मैना और अभिनव का इस अंक में योगदान कभी भूल नहीं पाउँगा।
एसोसिएट प्रोफ़ेसर (हिंदी विभाग)
श्री माणिक्य लाल वर्मा राजकीय महाविद्यालय, भीलवाड़ा (राजस्थान)
ई-मेल : mranjan_2007@yahoo.com, सम्पर्क : 8851162090
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) फणीश्वरनाथ रेणु विशेषांक, अंक-42, जून 2022, UGC Care Listed Issue
सम्पादन सहयोग : प्रवीण कुमार जोशी, मोहम्मद हुसैन डायर, मैना शर्मा और अभिनव सरोवा चित्रांकन : मीनाक्षी झा बनर्जी(पटना)
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