- इन्द्रमणि कुमार
फणीश्वर नाथ 'रेणु' को पढ़ना हिंदी में कथा-आस्वाद की नई मनोभूमि से रूबरू होना है।बड़ा रचनाकार वह होता है जो पूर्व-प्रचलित और अभ्यस्त अभिरुचियों को तोड़कर कथा लेखन और आस्वादन का नया रुचि-संस्कार विकसित करता है। हिंदी कथा-साहित्य में प्रेमचंद, जैनेंद्र और रेणु के अलावा उंगलियों पर गिनने लायक ही ऐसे रचनाकार हैं जिन्हें पढ़ते हुए इस बात का अहसास होता है। प्रेमचंद ने हिंदी कथा-साहित्य को कोरे मनोरंजन, उपदेशात्मकता तथा काल्पनिक घटनाओं के अंतहीन ताने-बाने से बाहर निकालकर जीवन के गद्यात्मक यथार्थ से जोड़ा। डॉ.रामविलास शर्मा ने रेखांकित किया है कि उन्होंने 'चंद्रकांता' और 'तिलस्म-ए-होशरूबा' के पाठकों को 'सेवासदन' का पाठक बनाया। जैनेंद्र रचनात्मक स्तर पर व्यक्ति की आंतरिकता की नई दुनिया से हमारा परिचय कराते हैं। ठीक इसी प्रकार रेणु को पढ़ते हुए हमें ऐसा लगता है कि वह कथा-संरचना की पूर्ववर्ती परंपरा को तोड़कर अपने कथा-साहित्य में उस अंचल के मर्म को संपूर्णता में उपस्थित करने का प्रयास करते हैं, जिसे उन्होंने अपनी रचना का विषय बनाया है।
इस बात को लेकर लंबी बहस हुई है कि रेणु प्रेमचंद की परंपरा के रचनाकार हैं या नहीं। यदि परंपरा में होने का आशय अतीत की आरती उतारना है,
पूर्ववर्ती रचनाकारों की कथा-रूढ़ियों का पृष्ठ-प्रेषण करना है तो निश्चित रूप से रेणु प्रेमचंद की परंपरा के रचनाकार नहीं है। वे प्रेमचंद की तरह नहीं लिखते, उनको दुहराते नहीं हैं। लेकिन परंपरा में होने का मतलब यदि पूर्ववर्ती रचनाकारों के सृजनात्मक मूल्यों को आत्मसात् करते हुए अपने लिए नई रचनात्मक जमीन की तलाश है तो रेणु निःसंदेह प्रेमचंद की परंपरा के रचनाकार हैं।
प्रेमचंद और रेणु,
दोनों अपनी रचनाओं में ग्रामीण जीवन और समाज को विषय के तौर पर चुनते हैं। दोनों देखते हैं कि गाँव गरीबी, गुलामी, जहालत और जातिवादी जड़ता के गढ़ हैं। दोनों ही रचनाकार ग्रामीण समाज को जड़ बनाने वाली इन समस्याओं में गर्क नहीं होते। ये इनके कारण-प्रसंगों को पहचानते हैं और इसके खिलाफ संघर्ष और प्रतिरोध की चेतना को स्वर देते हैं। दोनों की निगाह समाज के उन पात्रों पर जाती है जो उपेक्षित, उत्पीड़ित और हाशिए पर हैं और दोनों के यहाँ इनके प्रति गहरी संवेदना के दर्शन होते हैं। लेकिन इन समानताओं के बावजूद ग्रामीण जीवन-प्रसंगों और पात्रों के साथ दोनों रचनाकारों का 'ट्रीटमेंट' अलग है। प्रेमचंद गाँव के लोगों के जिस जीवन और मानसिक बनावट का चित्रण करते हैं, रेणु उससे भिन्न जीवन और मानसिक बनावट की प्रस्तावना करते हैं। प्रेमचंद को पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि उन्होंने अपनी रचनाओं में मुख्यतः इन पात्रों के सामाजिक-आर्थिक शोषण और उत्पीड़न को विषय बनाया है। वे अपने समय की सत्ता-संरचनाओं के कुचक्र में फंसे इन पात्रों की दारुण दशा का चित्रण करते हैं। चाहे वह सत्ता धर्म की हो, पितृसत्ता और वर्णाश्रम व्यवस्था की, औपनिवेशिक शासन की या फिर सामंती और महाजनी सभ्यता की। इसी के साथ-साथ वे अपने उपन्यासों और कहानियों में शोषण और दमन के नाना रूपों का प्रतिपक्ष भी रचते हैं। रेणु के यहाँ भी ये बातें देखने को मिलती हैं। लेकिन अपने उपन्यासों के महाकाव्यात्मक विस्तार में वे और भी चीजों को समेटते हैं। निर्मल वर्मा ने रेखांकित किया है कि "प्रेमचंद काफी पार्सियल रियलिटी के लेखक थे। वे दु:ख और अवसाद की बात तो बहुत सुंदरता से करते थे लेकिन मनुष्य जो चौबीस घंटे बिताता है, एक किसान, एक आदिवासी, उसके जीवन के कितने और पक्ष होते हैं, लोकगीतों के, गानों के, नृत्य का एक पूरा सैलाब जो कि इनकी भूख और उनकी यातना को एक तरह से सिरहाना देता है ताकि ये जीवन को बर्दाश्त कर सकें, सरवाइव कर सकें, वह हमें परती परिकथा और मैला आंचल में कितने काव्यात्मक ढंग से हमारे सामने दिखाई देता है।"1 निर्मल के अनुसार इन रचनाओं में मनुष्य को उसकी संपूर्ण छवि में देख पाने की चिंता, जीवन की समग्र वास्तविकता को उपस्थित करने का कलात्मक प्रयास प्रशंसनीय है।
रेणु के कथा-साहित्य की एक बड़ी विशेषता है तीव्र इंद्रिय बोध। रूप,
रंग, गंध, स्पर्श और ध्वनि - इन सबका ऐसा समुच्चय और इतना ताकतवर इंद्रिय बोध इनसे पूर्व हिंदी कथा-साहित्य में नहीं दिखाई देता। 'तीसरी कसम' के आरंभिक हिस्से की कुछ पंक्तियां देखिए- "हीरामन की पीठ में गुदगुदी लगती है।" -"औरत है या चंपा फूल ! जब से गाड़ी मह मह महक रही है।"
-"बच्चों की बोली जैसी महीन फेनूगिलासी बोली।"
-"गाड़ी जब पूरब की ओर मुड़ी एक टुकड़ा चाँदनी उसकी गाड़ी में समा गयी,
सवारी की नाक पर एक जुगनू जगमगा उठा।"2
इसी के साथ-साथ अभिव्यक्ति के तमाम रूपों - संगीत, चित्रकला, कविता और नाटक - इन सबका अद्भुत समन्वय भी इनकी रचनाओं में देखने को मिलता है। समसामयिक यथार्थ के साथ-साथ जातीय स्मृति एवं लोक संस्कृति की उपस्थिति उनकी कलात्मक संवेदना को और भी प्रभावशाली बनाती है।
प्रेमचंद के यहाँ कथा की एक आवयविक संरचना देखने को मिलती है। 'मैला आँचल' या 'परती परिकथा' में इसके अभाव की शिकायत की जाती रही है। यह कहा जाता रहा है कि इन रचनाओं में अनेक दृश्य हैं, एपिसोड हैं लेकिन ये परस्पर असंबद्ध हैं। डॉ. रामविलास शर्मा ने कहा कि इसमें "लेखक सिनेमा के दृश्यों की तरह बहुत से शॉट इकट्ठे कर देता है, ये शॉट एक दूसरे से विच्छिन्न हैं।"3 नेमिचंद्र जैन ने कहा- "लगता है समूचा उपन्यास अनगिनत रेखाचित्रों का पुंज हो जो एक के बाद एक आते हैं और चले जाते हैं। कथा प्रवाह में सूत्र का अभाव लगता है। ये दृश्य उस वाद्यवृन्द की तरह हैं जिनके सारे वाद्य यंत्रों की स्वर संगति अपनी जगह ठीक है पर उनके सम्मिलित प्रभाव में समन्वय नहीं है।"4 सवाल यह उठता है कि 'मैला आँचल' में आए ये दृश्य किसी महत्त्वपूर्ण पात्र या कथा-प्रसंग से उस तरह से संबद्ध न होते हुए भी क्या मेरीगंज के मन को समग्रता में उद्घाटित नहीं करते? उसके वैशिष्ट्य को संपूर्णता में रूपायित नहीं करते? और यही तो रेणु का उद्देश्य है। उपन्यास के आरंभ में ही उन्होंने इस बात का उल्लेख किया है कि "यह है मैला आँचल,एक आंचलिक उपन्यास। कथानक है पूर्णिया।....मैंने इसके एक हिस्से के एक ही गाँव को पिछड़े गाँवों का प्रतीक मानकर इस उपन्यास-कथा का क्षेत्र बनाया है। इसमें फूल भी हैं, शूल भी, धूल भी है, गुलाब भी..."5
राजनीति रेणु की कथा संवेदना का ही नहीं,
उनकी जीवन-चेतना का महत्त्वपूर्ण तत्व है। मधुकर सिंह के साथ हुई एक बातचीत में उन्होंने कहा था- "राजनीति हमारे लिए दाल-भात की तरह है।"6 यहाँ यह याद दिलाना अनुचित नहीं होगा कि साहित्य लेखन के क्षेत्र में आने से पूर्व रेणु ने एक सक्रिय राजनीतिक कार्यकर्ता की हैसियत से न सिर्फ अनेक आन्दोलनों में भाग लिया था अपितु जेल भी गए थे। उनकी पहली जेल यात्रा नौ वर्ष की अवस्था में ही हुई थी। दरअसल राजनीतिक चेतना उन्हें बचपन में ही अपने परिवार से विरासत में मिली थी। उपर्युक्त बातचीत में उन्होंने कहा था कि उनके पिता कांग्रेस के सदस्य थे। वे पढ़ने के लिए घर पर हिंदी और बंगला की अनेक पत्र-पत्रिकाएँ और महत्त्वपूर्ण पुस्तकें मंगाया करते थे। वे 'चांद' के फाँसी अंक 'हिंदू पंच' के बलिदान अंक तथा सुंदरलाल की पुस्तक 'भारत में अंग्रेजी राज' के साथ-साथ कोलकाता से प्रकाशित 'बोल्शेविक रूस' जैसी पुस्तकों का जिक्र करते हैं जिन्हें पढ़कर उनका राजनीतिक संस्कार निर्मित हुआ तथा जिन पुस्तकों के घर में होने के कारण उनके घर की दो बार तलाशी ली गई।
यहीं पर वे 1938 में सोनपुर में आयोजित 'समर स्कूल ऑफ पॉलिटिक्स' की चर्चा करते हैं जिसके प्राचार्य जयप्रकाश नारायण थे तथा जिसमें आचार्य नरेंद्र देव, अच्युत पटवर्धन, अशोक मेहता, कमलादेवी चट्टोपाध्याय जैसे लोगों ने क्लास ली थी। रेणु उस समय बनारस में पढ़ते थे। चाह कर भी वे समर स्कूल में भाग नहीं ले पाए। लेकिन रामवृक्ष बेनीपुरी के संपादन में प्रकाशित सोशलिस्ट पार्टी की पत्रिका 'जनता' में छपने वाली इसकी कार्यवाहियों को वे गंभीरता से देखते थे। इसी से प्रभावित होकर आगे वे सोशलिस्ट राजनीति से जुड़े।
इन प्रसंगों की चर्चा से स्पष्ट है कि रेणु राजनीति के रास्ते साहित्य में आए। उनकी रचनाओं से होकर गुजरते हुए हमें वहाँ गहरी राजनीतिक संपृक्ति की उपस्थिति दिखाई देती है। ये रचनाएँ न सिर्फ एक बेहतर मानवीय समाज के निर्माण के लिए राजनीति की अनिवार्यता को रेखांकित करती हैं अपितु अपने समय की राजनीतिक विसंगतियों का पर्दाफाश भी करती है। अपनी कक्षाओं तथा वक्तव्यों में 'मैला आँचल' पर बात करते हुए गुरुवर प्रोफेसर नित्यानंद तिवारी अक्सर इस बात को रेखांकित करते रहे हैं कि यह उपन्यास आजादी के बाद की भारतीय राजनीति से मानवीय अंतर्वस्तु के लगातार क्षरित होते चले जाने की त्रासदी का साक्षात्कार कराता है। उन्होंने रेखांकित किया है कि इस उपन्यास के सारे पात्र जो मानवीय हैं (राजनीति में भी और जीवन में भी) या तो मार दिए जाते हैं या फिर अकेले पड़ जाते हैं। इस संदर्भ में बामनदास की हत्या, कालीचरण के झूठे मुकदमे में फंसना और अपनी ही पार्टी द्वारा उसकी उपेक्षा के प्रसंगों की चर्चा की जा सकती है। रेणु की अनेक कहानियाँ ऐसी हैं जिसमें सच्चे, मानवीय, ईमानदार और प्रतिबद्ध राजनीतिक कार्यकर्ताओं की अपनी ही पार्टी के नेताओं द्वारा उपेक्षा और अपमान के साथ-साथ उनके साथ हुए नृशंस व्यवहारों का चित्रण किया गया है। इस संदर्भ में 'पार्टी का भूत', 'आत्म साक्षी' और 'जलवा' जैसी कहानियों की चर्चा की जा सकती है। इन कहानियों को पढ़ते हुए मन में यह प्रश्न बार-बार उठता है कि गणपत और फातिमा दी जैसे ईमानदार, संवेदनशील और प्रतिबद्ध कार्यकर्ताओं की नियति क्या यही है?
आजादी के बाद की भारतीय राजनीति अपने मानवीय संदर्भों से कटकर कैसे स्वार्थ, सुविधाजीविता, सत्ता-लिप्सा, धूर्तता और जातिवादी समीकरणों में तब्दील हो गई है इसका प्रमाण 'मैला आँचल' के निम्नलिखित उद्धरणों से मिल सकता है। बामनदास बालदेव से कहते हैं- "सब आदमी अब पटना में रहेंगे मेले (एम एल ए) लोग तो हमेशा वहीं रहते हैं।.... सुराज मिल गया, अब क्या है।.... छोटन बाबू का राज है। एक कोरी, बेमान, बिलैक मार्केटी के साथ कचहरी में घूमते रहते हैं।.. सब चौपट हो गया।"7
आगे वे कहते हैं-
"यह पटनिया रोग है।... अब तो धूमधाम से फैलेगा। भूमिहार,रजपूत कैथ, जादव, हरिजन सब लड़ रहे हैं। ....किसका आदमी ज्यादे चुना जाए इसी की लड़ाई है। यदि राजपूत पार्टी के लोग ज्यादा आए तो सबसे बड़ा मंत्री भी राजपूत होगा।"8
बामनदास को यह बीमारी सभी पार्टियों में दिखाई देती है। उन्हें सारी पार्टियाँ एक जैसी ही लगती है - "सोशलिस? सोशलिस क्या कहेगा हमको?... सब पार्टी समान। उस पार्टी में भी जितने बड़े लोग हैं मंत्री बनने के लिए मार कर रहे हैं। सब मेले मंत्री होना चाहते हैं बालदेव! देश का काम गरीबों का काम चाहे मजदूरों का काम जो भी करते हैं एक ही लोभ से... उस पार्टी में बस एक जय परगास बाबू हैं। हा हा हा! उनको भी कोई गोली मार देगा
..."9
रेणु की रचनाओं में भारतीय गाँव की वर्णाश्रमी और जातिवादी संरचनाओं की पहचान और इसके अमानवीय रूपों का प्रतिरोध दिखाई देता है । 'मैला आँचल'
में जिस गाँव की कथा वे कह रहे हैं- मेरीगंज की - वहाँ न सिर्फ बारह बरन के लोग रहते हैं बल्कि वहाँ के टोले भी जातियों के आधार पर विभाजित हैं। 'परती परिकथा' के परानपुर में तो विभिन्न जातियों के तेरह टोले हैं। इन गाँवों में हर जाति की अपनी-अपनी पंचायतें हैं और अपने- अपने मुखिया। मैला आँचल में रेणु लिखते हैं कि यहाँ कायस्थों और राजपूतों के बीच पुश्तैनी झगड़ा चला आ रहा है इन दोनों जातियों के बीच ब्राह्मण तीसरी शक्ति का कर्तव्य पूरा करते रहे हैं। कुछ दिनों से यादवों के दल ने जोर पकड़ा है और वे जनेऊ पहन कर स्वयं को यदुवंशी क्षत्रिय कहने लगे हैं। ब्राह्मणों के उकसावे पर राजपूत लोग इसका विरोध करते हैं। लेकिन कायस्थों की शह पाकर जब यादव शक्ति-प्रदर्शन करते हैं तब न सिर्फ राजपूत-यादव के बीच का धर्म युद्ध टलता है अपितु लोग अब यादव टोले को 'गुअरटोली' कहने का साहस भी नहीं कर पाते। लोगों में जातिगत श्रेष्ठता का दंभ इतना अधिक है कि हर जाति का व्यक्ति दूसरी जाति पर व्यंग्य करता है। राजपूत लोग कायस्थ टोली को कैथ टोली कहते हैं तो कायस्थ लोग राजपूत टोली को सिपहिया टोली। यादव टोली को तो गुअरटोली कहा ही जाता है। इन विवरणों और ऐसे ही अनेक प्रसंगों के माध्यम से रेणु वर्णाश्रम व्यवस्था में अगड़ी जाति के लोगों की वर्चस्ववादी मानसिकता और इसके प्रतिरोध में विकसित पिछड़ी जातियों की अस्मितावादी चेतना को रेखांकित करते हैं। यद्यपि वे जाति को मनुष्य की पहचान का आधार मानने के पक्षधर नहीं हैं। वे मानते हैं कि एक आदर्श और मानवीय समाज-चिंतन में मनुष्य की पहचान संप्रदाय, जाति और धर्म के आधार पर नहीं वस्तुगत यथार्थ के आधार पर होनी चाहिए। आर्थिक स्थिति मनुष्य की वस्तुस्थिति है और इस आधार पर निर्मित होने वाले संगठन का स्वरूप अधिक मानवीय होता है। 'मैला आँचल' का कालीचरण कहता है अब गाँव में दो ही जातियाँ रह गई हैं- एक अमीर और दूसरी गरीब। इस तरह से वह जातिवादी समाज को वर्गवादी समाज में रूपांतरित करने हेतु प्रयत्नशील दिखता है।
'मैला आँचल' में कालीचरण को रेणु का विशेष स्नेह मिला है। कालीचरण जो समाज की जातिवादी जड़ता और आर्थिक विषमता के खिलाफ संघर्ष में सक्रिय भूमिका निभाता है। कालीचरण के अलावा इस उपन्यास में जिस पात्र को लेखक की विशेष आत्मीयता मिली है वह है डॉ. प्रशांत। डॉ. प्रशांत एक अज्ञात कुलशील मध्यवर्गीय युवक है जो मेडिकल की पढ़ाई के बाद मिली विदेशी फेलोशिप को छोड़कर मलेरिया पर रिसर्च करने मेरीगंज जैसी पिछड़ी जगह को चुनता है। वह कैरियर को नहीं, सेवा को अपने जीवन का लक्ष्य और उद्देश्य बनाता है। हालाँकि उसके तमाम मित्र और सहपाठी यहाँ तक कि उसके प्रोफेसर भी उसके इस निर्णय को उचित नहीं मानते। उसके ऐसे प्राध्यापक और मित्र आजादी के बाद भारतीय समाज में विकसित मध्यवर्ग के प्रतिनिधि हैं जो अपने आत्मवृत्त में कैद है और जो किसी भी कीमत पर अपने स्वार्थ, सुविधाओं और सुरक्षा पर आँच नहीं आने देना चाहता। जिसकी चिंता अपने लिए अधिक से अधिक अवसर और सुविधाओं को जुटा लेने भर की है। किंतु प्रशांत आत्मवृत्त को तोड़कर जीवन क्षेत्र में आता है और आम जनों के जीवन संदर्भों से जुड़कर उस संवेदनात्मक सामर्थ्य को अर्जित करता है जो एक और स्वार्थ और सुविधा को उसका आदत और संस्कार नहीं बनने देती तो दूसरी और अन्याय और असमानता के खिलाफ उसके मन में प्रतिरोध की ऊर्जा, ऊष्मा और बेचैनी पैदा करती है। वह अपने मित्र ममता को पत्र लिखता है और उसमें कालाजार एवं मलेरिया संबंधी अपने रिसर्च की फाइंडिंग्स साझा करता है। वह लिखता है - "गरीबी और जहालत इस रोग के दो कीटाणु हैं"।10 उसे लगता है "दरार पड़ी दीवार! यह गिरेगी! इसे गिरने दो! यह समाज कब तक टिका रह सकेगा?"11 प्रशांत न सिर्फ सामाजिक संरचना में परिवर्तन चाहता है अपितु उसमें अपनी सक्रियता और साझेदारी के लिए 'स्पेस' की तलाश भी करता है।
एक महत्त्वपूर्ण बात और है कि पाठकों और आलोचकों की एक बड़ी जमात रेणु के कथा साहित्य को आँचलिकता में रिड्यूस करती आई है। इसके लिए एक हद तक रेणु भी जिम्मेदार हैं। उन्होंने ही पहले- पहल 'मैला आँचल' की भूमिका में इसे आंचलिक उपन्यास कहा। किंतु ध्यान देने की बात यह है कि रेणु की विराट दृष्टि ने दुनिया के उस प्रताड़ित अंचल (मेरीगंज) को भारत माता का अंचल बना दिया। निर्मल वर्मा ने ठीक ही लिखा है - "रेणु का महत्त्व उनकी आंचलिकता में नहीं, आंचलिकता के अतिक्रमण में निहित है। बिहार के एक छोटे भूखंड की हथेली पर उन्होंने समूचे पूर्वी भारत के किसान की नियति रेखा को उजागर किया था। यह रेखा किसान की किस्मत और इतिहास के हस्तक्षेप के बीच गुंथी हुई थी, जहाँ गांधीजी का सत्याग्रह आंदोलन, सोशलिस्ट पार्टी के आदर्श, किसान सभा की मीटिंगें अलग-अलग धागों से रेणु का संसार बुनती हैं। सैंकड़ों पात्र आते हैं, जाते हैं - उनकी गति, उनका ठहराव उनके उहापोह और आत्मसंघर्ष एक पूरी 'इमेज' हम पर अंकित कर जाता है। सिनेमा के पर्दे पर हम जैसे आइसनस्टाईन की फिल्मों में व्यक्ति और समूह, चलती हुई भीड़ में सबके चेहरे और उनका गत्यात्मक द्वंद्व, हलचल और तनाव देखते हैं बिल्कुल वैसे पूर्णिया के परदे पर उसकी पीठिका में हम भारतीय ग्रामवासी और इतिहास के बीच मुठभेड़ और टकराव की गड़गड़ाहट सुनते हैं।"12
रेणु प्रेमचंद की परंपरा को दोहराते नहीं उसे एक नया आयाम देते हैं। अंचल विशेष के मन,
मर्म और जीवन- वैविध्य को समग्रता में उपस्थित करने के प्रयास में उनकी कथा- संरचना में बिखराव आता है लेकिन यह बिखराव उनकी सीमा नहीं उनका विशिष्ट प्रयोग है।
1. निर्मल वर्मा : आदि अंत और आरंभ, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 2001, पृष्ठ 138
6. भारत यायावर : रेणु रचनावली 4, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, चौथी आवृत्ति 2012, पृष्ठ 418
10. वही, पृष्ठ 176
एसोसिएट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, राणा प्रताप स्नातकोत्तर महाविद्यालय, सुलतानपुर, उत्तर प्रदेश
imk.hindi@gmail.com, 9450714647
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) फणीश्वर नाथ रेणु विशेषांक, अंक-42, जून 2022, UGC Care Listed Issue
अतिथि सम्पादक : मनीष रंजन
सम्पादन सहयोग : प्रवीण कुमार जोशी, मोहम्मद हुसैन डायर, मैना शर्मा और अभिनव सरोवा चित्रांकन : मीनाक्षी झा बनर्जी(पटना)
शोधपरक और विचारणीय | आपका आभार सर |
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