‘कल्पना लोक से यथार्थ की
खुली धरती पर उतर आई है ग़ज़ल’- किशन तिवारी
(समकालीन हिंदी ग़ज़ल के सशक्त हस्ताक्षर
किशन तिवारी से शोधार्थी दीपक कुमार की बातचीत)
1. प्रश्न- साहित्य की विभिन्न विधाओं में
से आपने ग़ज़ल विधा को ही क्यूँ चुना? एक ग़ज़लकार के रूप में आपकी यात्रा कैसे
शुरू हुई?
उत्तर- लेखक संगठन के आयोजनों में एवं विविध
साहित्यिक कार्यक्रमों में, और तो और आजकल राजनैतिक आयोजनों तक में बिना किसी शेर के
पढ़े कार्यक्रम न तो आरम्भ होता है और न समापन। वक्ता दो पंक्तियों का शेर पढ़कर
सम्पूर्ण वातावरण को अपने साथ कर लेता है। एक ऐसी विधा जो बड़ी से बड़ी बात को अपनी
पूरी ताकत से अपनी दो पंक्तियों में व्यक्त करने की क्षमता रखती हो उसे अनदेखा
किया जाय एवं साहित्य में उसे सम्मानजनक स्थान प्राप्त न हो, यह न्याय संगत नहीं होता। ग़ज़ल की ओर
आकर्षण मेरा बहुत पहले से रहा है,जब मैं 9वीं कक्षा में पढ़ता था।
सन् 1986 में मेरा पहला ग़ज़ल संग्रह ‘भूख से
घबराकर’ प्रकाशित हुआ और उसके बाद से ग़ज़लें लिखने का क्रम जारी है। इस विधा का
सम्पूर्ण अध्ययन मेरी आवश्यकता ही नहीं बल्कि विवशता भी थी। शहर में होने वाले कवि
सम्मेलन-मुशायरों में पढ़ी जाने वाली रचनाओं में मेरा सबसे अधिक रुझान ग़ज़लों की ओर
ही रहता था। उस दौर में मुझे उर्दू के शायरों की ग़ज़लें आकर्षित करती थीं। 1975 के बाद दुष्यंत की ग़ज़लें पढ़ने के बाद
हिन्दी ग़ज़ल के प्रति मेरा झुकाव बढ़ता चला गया जो आज तक कायम है।
2. प्रश्न- आपकी अब तक कितनी ग़ज़ल रचनाएँ
प्रकाशित हो चुकी हैं? कृपया नामों का उल्लेख करें।
उत्तर- 1986 से 2019 तक मेरे अब तक छः ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं जिनमें
लगभग 500 से अधिक ग़ज़लें प्रकाशित हो चुकी हैं। इनमें से अधिकतर ग़ज़लें देश की विभिन्न
पत्र-पत्रिकाओं, ग़ज़ल
संग्रहों में प्रकाशित हुई हैं तथा बहुतों का आकाशवाणी तथा दूरदर्शन से प्रसारण भी
हो चुका है। ग़ज़ल संग्रहों का विवरण इस प्रकार से है-
1. भूख से घबराकर – 1986,
2. आपकी जेब में – 1997,
3. सोचिए तो सही – 2000,
4. मैं तुम हो जाऊँ – 2004,
5. सारथी मैं हूँ – 2013,
6. धूप का रास्ता – 2019,
ग़ज़लों का सफर
जारी है। ग़ज़लें मेरी जिन्दगी और दिनचर्या का बड़ा हिस्सा हैं।
3. प्रश्न- एक समर्थ ग़ज़लकार के रूप में
आपकी ग़ज़लें समय को किस तरह अभिव्यक्त कर पा रही हैं?
उत्तर- मैं समर्थ ग़ज़लकार हूँ अथवा नहीं इसका निर्णय समय करेगा।
बहरहाल मैंने समाज में जो सामाजिक संत्रास, उत्पीड़न, गरीबी, विकृत साम्प्रदायिकता, धर्मान्धता, भाषावाद, क्षेत्रवाद, राजनीति, अशिक्षा, बेरोजगारी, अनैतिकता, आतंकवाद, ऐतिहासिक घटना चक्र, विदेशी हस्तक्षेप इत्यादि तमाम
विसंगतियाँ हैं उन्हें अपनी समग्र संवेदनाओं के साथ अपने शेरों में अभिव्यक्ति
प्रदान की है। इन सभी पर मैंने सैकड़ों शेर कहे हैं। मैं उदाहरणार्थ कुछ शेर
प्रस्तुत कर देता हूँ-
“कब कहाँ फैसला हुआ कैसे
कोई छोटा-बड़ा हुआ कैसे
ये जमीं आसमाँ हवा सबकी
इन पे हक आपका हुआ कैसे”
“अब नहीं खामोश रहने का समय है दोस्तों
धार में यूँ ही न बहने का समय है
दोस्तों”
4. प्रश्न- क्या वंचित समाज की पीड़ा भी
आपकी ग़ज़लों में व्यक्त हुई हैं? यदि हाँ तो किस तरह?
उत्तर- समय के साथ-साथ ग़ज़ल की भाषा और कथ्य में भी निरन्तर
नये-नये और अनकहे सामाजिक सांस्कृतिक परिदृश्यों को अभिव्यक्त किया है। ग़ज़ल के
माध्यम से मैंने आज की लहूलुहान संश्लिष्ट जटिलता तथा जीवन जगत से जुड़ी अन्य
ज्वलंत समस्याओं को समग्र वस्तुपरकता से अभिव्यक्त करने का प्रयास किया है। चौतरफा
छाए आर्थिक, राजनैतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक संकट पर दृष्टि
डालने पर अनुभूति होती है कि समाज के दबे, कुचले, पिछड़े, वंचित वर्ग पर अत्याचार और शोषण की
वीभत्स तस्वीरें रचनाकार को उद्वेलित किये बिना नहीं रह सकतीं। मैंने बहुत सारे शेर
कहे हैं। उदाहरणार्थ कुछ शेर प्रस्तुत हैं-
“तुम्हारे खूबसूरत से बदन पर खूब सजती
है
अभी साड़ी नहीं हम बुनकरों की बात करते
हैं”
“उनका शुभ है लाभ है उनका, उनका ठेला अपने हाथ
बोझा ढोते पंडित जी के चेले पर क्यूँ
मोती लाल”
“हो गई पहचान सबकी रंग मजहब जात से
कुछ मिले अपने मगर हिन्दोस्ताँ गुम हो
गया”
5. प्रश्न- समकालीन हिन्दी ग़ज़ल के रूप में
आप किन रचनाकारों को प्रमुख मानते हैं और क्यों?
उत्तर- आज के दौर में हजारों की संख्या में लोग ग़ज़ल पर जोर
आजमाईश कर रहे हैं और प्रतिदिन हजारों की संख्या में ग़ज़लें कही जा रही हैं। ऐसे
समय में इनमें छलनी लगाना और कौन कितना सार्थक कह रहा है इसकी पहचान करना न सिर्फ
कठिन हो जाता है बल्कि शंकास्पद होकर आपको कठघरे में भी डाल सकता है। मगर फिर भी इतना
कह सकता हूँ कि लगभग सौ रचनाकारों को सूचीबद्ध किया जा सकता है जिन्होंने ग़ज़ल के
पैमाने में उतरकर सामाजिक संवेदनाओं को सार्थक और सटीक तरीके से अभिवयक्ति प्रदान
की है। फिर भी इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कुछ रचनाकारों का अवश्य उल्लेख करना
चाहूँगा। उदाहरणार्थ- दुष्यंतकुमार, अदम गौड़वी, बलबीर सिंह रंग, भवानी शंकर, बालस्वरूप राही, चन्द्रसेन विराट, पुरुषोत्तम प्रतीक, सूर्यभानुगुप्त, रामकुमार कृषक, विनोद तिवारी, अश्व घोष, कुँअर बेचैन, विज्ञानव्रत, जहीर कुरैशी, महेश अग्रवाल, ज्ञानप्रकाश विवेक, उर्मिलेश, राजेश रेड्डी, विनय मिश्र, शिव ओम अम्बर, अनिरुद्ध सिन्हा, राजेन्द्र तिवारी, वशिष्ठ अनूप, इत्यादि और भी बहुत से नाम हो सकते हैं।
मैंने अपने पसंदीदा ग़ज़लकारों का उल्लेख यहाँ किया है।
6. प्रश्न - दुष्यंतकुमार ने हिन्दी ग़ज़ल को
राजनैतिक तेवर प्रदान किये और हिन्दी ग़ज़ल को समकालीन समस्याओं से जोड़ा। क्या
समकालीन हिन्दी ग़ज़ल अब भी राजनैतिक चेतना से सम्पन्न है?
उत्तर- दुष्यंत कुमार की ग़ज़लें सर्वहारा वर्ग के दैनिक जीवन से
सम्बद्ध तकलीफों, दर्द, दहशत, दुश्चिंताओं एवं आकांक्षाओं को उजागर करती हैं। दुष्यंत की
ग़ज़लों में एक विद्रोह था आम आदमी की पीड़ा को अभिव्यक्ति देने के लिये। उन्होंने
जीवन के विकृत पक्ष पर अपनी पैनी किन्तु पारखी दृष्टि डाली। उस समय जबकि
चाटुकारिता में विश्वास रखने वाले अनेक कवि सरकारी व्यवस्था के प्रशंसक बने हुए थे, दुष्यंतजी के स्वाभिमानी कवि ने शासन
तंत्र के सब्जबाग को अपनी ग़ज़लों से अभिव्यक्त किया। उन्होंने सदैव यह अनुभव किया
कि व्यवस्था के दुष्चक्र में आज का आम आदमी पिसता चला जा रहा है और उसकी मुक्ति
संभव नहीं है। दुष्यंतकुमार से ग़ज़ल का वास्तविक विकास माना जा सकता है। दुष्यंत की
ग़ज़लों में जो आग है, जो सामाजिक विसंगतियों को ध्यान में रखते हुए और समाज के बीच
रहकर उसके दर्द को पूरी तरह समझते हुए, जो भीतर बाहर सुलग रहा है उस पीड़ा की भावना को सामाजिक
चेतना से जोड़ने का महत्वपूर्ण कार्य दुष्यंत ने किया है। ग़ज़ल के क्षेत्र में इससे
पूर्व भी यद्यपि इस कार्य की शुरुआत हो चुकी थी किन्तु विकसित रूप दुष्यंत द्वारा
ही प्राप्त हुआ। ग़ज़ल के माध्यम से गालिब अपनी निजी पीड़ा को इतना विस्तार दे सकते
हैं तो दुष्यंत ने सामाजिक और सर्वहारा की पीड़ा को अपनी ग़ज़लों में विस्तार दिया
है। कुछ उदाहरण-
कहाँ तो तय था चराँगा हर एक घर के लिये,
कहाँ चराग मयस्सर नहीं शहर के लिये।
अथवा
यहाँ तक आते-आते सूख जाती हैं सभी
नदियाँ
मुझे मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा
7. प्रश्न- हिन्दी साहित्य की विविध विधाओं
में स्त्री सरोकारों से जुड़ी हुई रचनाएँ लिखी जा रही हैं। क्या समकालीन हिन्दी ग़ज़ल
में स्त्री जीवन से जुड़ी समस्याओं को प्रभावी तरीके से अभिव्यक्त किया जा रहा है?
उत्तर- ग़ज़ल की पौराणिक परिभाषा में ग़ज़ल को औरतों से बात करने को
ही कहा गया है, किंतु
उस युग में ग़ज़ल के माध्यम से उनके सौंदर्य और नजाकत का ही विवरण उस दौर की ग़ज़लों
में अत्यधिक मात्रा में मिलता है। कहीं गाहे बगाहे ऐसे शेर भी मिल जाते हैं जो
उनकी दुविधा अथवा मजबूरियों को अभिव्यक्त करते हैं। जैसे यह शेर-
“कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी
यूँ कोई बेवफा नहीं होता”
मगर आज के दौर में स्त्री की पीड़ाओं, उनके दमन, शोषण, अत्याचार पर हजारों शेर कहे जा रहे हैं, और आज के ग़ज़लकारों में लेखिकाओं द्वारा
लिखी जा रही ग़ज़लों में तो यह पीड़ा स्वानुभूत होकर अभिव्यक्त हो रही हैं। मगर फिर
भी अपेक्षाकृत इस दिशा में अभी और भी प्रयास की आवश्यकता है। मेरे अपने कुछ शेर
प्रस्तुत हैं-
“माँज के लौट रही थी बर्तन
कितनी आखों में गड़ गई धनिया
बढ़ती बेटी को देखकर सहमी
जो किसी से नहीं डरी धनिया”
“राख में एक शोला धधकता रहा
उसमें अश्कों सी झरती रहीं चूड़ियाँ
चैत भर खनखनाती रही खेत में
पूस अगहन ठिठुरती रहीं चूड़ियाँ”
महिला उत्पीड़न पर आज के दौर को मद्देनजर रखते हुए और भी
बहुत कुछ कहा जा रहा है और बहुत कुछ कहा जाना है। इस दिशा में लगातार ग़ज़ल के
क्षेत्र में सम्भावनाएँ अधिक इसलिए हैं कि अभी तक स्त्री सौंदर्य पर अधिक लिखा गया
है, अब उसके भीतरी सौंदर्य और पीड़ाओं को अभिव्यक्त
होना चाहिए।
8. प्रश्न- मुंशी प्रेमचन्द के साहित्य में
दलित वर्ग और ग्रामीण जीवन की दुश्वारियों को साहित्य में बयाँ किया जाता रहा है।
क्या समकालीन हिन्दी ग़ज़ल में भी ऐसी प्रवृत्ति दिखाई देती है?
उत्तर- मानव जीवन के विभिन्न पहलुओं की भाँति ग़ज़ल में राष्ट्रीय
भावना को भी उद्दात्त अभिव्यक्ति दी है। विकृत धर्मान्धता, भाषावाद, क्षेत्रवाद, राजनीति, आरक्षण, निरक्षरता, अनैतिकता, आतंकवाद, ऐतिहासिक घटनाचक्र, विदेशी हस्तक्षेप, भौगोलिक कारण आदि वे तत्व हैं जिन्होंने
हमारी राष्ट्रीय एकता, पारस्परिक सौहार्द्र की सद्भावना को अमराइयों से बिखराव तथा नफरत
के मरुस्थल में लाकर छोड़ दिया है। दुर्भाग्य की बात यह है कि हमारे देश की राजनीति
भी इन्हीं मुद्दों पर अवलम्बित रही है। इस दौर के ग़ज़लकारों ने उपरोक्त तथ्यों को
अपने प्रेरक सृजन का विषय बनाया है और क्रांतिदर्शी कवि अपनी लेखनी के माध्यम से
राष्ट्रीय एकता में व्यवधान उपस्थित करने वाले कारणों के निराकरण तथा उसके पोषक
तत्वों के संरक्षण संवर्धन की दिशा में ग़ज़ल के माध्यम से लगातार सचेत करते रहे
हैं। मेरी अपनी ग़ज़लों के कुछ शेर उदाहरणार्थ प्रस्तुत हैं-
“इक भील ने जलाने को काटी थी लकड़ियाँ
जिन्दा उसे जला गये सागौन के जंगल”
“हम सदियों की प्यास लिये हैं
और रहे पोखर दरवाजे
एक बार तू चीख जोर से
टूट जायें जर्जर दरवाजे”
9. प्रश्न- भारत में किसान और मजदूरों की
हालत हमेशा दयनीय रही है। क्या समकालीन हिन्दी ग़ज़ल में इस पक्ष को सामने रखकर
ग़ज़लें लिखी जाती रही हैं?
उत्तर- उत्तर के पूर्व मेरा एक शेर देखें, आगे उत्तर-
“कब तक बचोगे तुम यूँ बहानों से साफ-साफ
बातें करों मजदूर किसानों से साफ-साफ”
इस दौर में ग़ज़ल वर्ग संघर्ष बुर्जुआ पंथी का विरोध, स्वार्थलिपता, सत्तावादिता का विरोध अन्याय व अत्याचार
का विरोध करने लगी है। आम आदमी की जुबान में यह कहीं सत्ता के सड़े-गले मूल पर
प्रहार करने लगी। वे कहीं समाज की उस विसंगति की ओर इशारे करने लगी जो पानी को
गंदा करने की प्रक्रिया में रत है। कुल मिलाकर ग़ज़ल आम आदमी के लिये हथियार और ढाल
बनकर उभरने लगी। ग़ज़ल के यही तेवर एक ऐसे युग का सूत्रपात्र करते हैं जो ग़ज़ल के दौर
में नई वैचारिक क्रान्ति के सूत्रधार बने। वर्तमान ग़ज़लकारों ने उपर्युक्त तथ्य को
अपने प्रेरक सृजन का विषय बनाया है और क्रान्ति दर्शी ग़ज़लकारों की शत्-शत्
लेखनियों ने देश के कर्णधारों को राष्ट्रीय एकता में व्यवधान उपस्थित करने वालों
को भी सचेत किया है। मेरी ग़ज़लों के कुछ उदाहरण दृष्टव्य हैं-
“मुश्किलों से गुजरता है घर फूस का
राजधानी में रहता है घर फूस का
बोरिया लादकर अपने काँधे पे वो
ढूँढ़ता खुद को रहता है घर फूस का”
शोषकों के अत्याचार का शिकार सर्वहारा वर्ग, छुआछूत, दहेज प्रथा, जातिवाद जैसी बुराइयों, मँहगाई, भ्रष्टाचार को आधुनिक ग़ज़ल में पूरी ईमानदारी
से वर्णन किया है।
10. प्रश्न- उर्दू ग़ज़ल में और हिन्दी ग़ज़ल
में संवेदना और शिल्प के स्तर पर आप क्या अन्तर मानते हैं?
उत्तर- जहाँ हिन्दी ग़ज़ल का इतिहास कुछ दशकों की जमीन पर फैला हुआ
है वहीं उर्दू ग़ज़ल का इतिहास कई शताब्दियों की उपलब्धि है। दोनों भाषाओं के मिजाज, प्रकृति से सोच और फिक्र में बड़ा फर्क
है। साथ ही जो अनुभूतियाँ दोनों भाषाओं को खानदानी विरासत में मिली हैं उसमें भी
काफी अन्तर है। जहाँ उर्दू को अरबी, फारसी की परम्परागत सोच का खजाना नसीब हुआ है वहीं हिन्दी
को संस्कृत साहित्य की शालीनता मिली है। एक तरफ उर्दू ग़ज़ल की मेहबूबा, चंचल, चुलबुली, बेवफा और नाज व नखरे वाली होती है और
उर्दू शायर उसकी एक-एक अदा पर सौ-सौ जान कुर्बान होता है, वहीं हिन्दी ग़ज़ल में वह नायिका शालीनता
की प्रतिमूर्ति होती है। वह वियोगिनी होती है। ग़ज़ल का संस्कार हिन्दी को विरासत
में नहीं मिला है बल्कि उसने इस खूबसूरत विधा को अनुभवों की भट्टी में तपाकर स्वयं
हासिल किया है। जहाँ ग़ज़ल में फिक्र की अपनी अहमियत है वहीं उसके फन से भी इनकार
नहीं किया जा सकता है। हमारे पास कहने के लिये बहुत कुछ है परन्तु कहने का तरीका
नहीं है तो सब कुछ व्यर्थ होना तय है। सच तो यही है कि उर्दू ग़ज़ल में वज़्न, बहर, रदीफ व काफिया का जो मिजाज है वह दरअस्ल
उसी का हिस्सा है। ग़ज़लें लिखना ही काफी नहीं बल्कि हमें इस बात की भी चिन्ता करना
चाहिए कि ग़ज़ल का फन अपनी पूर्ण परम्पराओं के साथ हमारे साथ रहे। उर्दू साहित्य में
ग़ज़ल परम्परा में उस्ताद शागिर्द की परम्परा है जो हिन्दी ग़ज़ल में यदा-कदा ही नजर
आती है। अतः बहुत से स्वनाम धन्य ग़ज़लकारों ने जो भी दिल में आया कह दिया। इस तरह
की ग़ज़लें न सिर्फ हिन्दी ग़ज़ल को बल्कि तमाम हिन्दी के अच्छे ग़ज़लकारों को बदनाम
करती हैं। अतः ग़ज़ल के व्याकरण को ठीक से समझे बिना ग़ज़ल कहना हिन्दी ग़ज़ल के लिये
बहुत ही हानिकारक है। वहीं हिन्दी ग़ज़ल में बहुत सी विशेषताएँ भी नजर आती हैं।
कभी-कभी तो हिन्दी ग़ज़ल सोच और चिन्ता की दृष्टि से इतनी आदमकद नजर आती है कि उर्दू
ग़ज़ल को भी अपने बौनेपन का एहसास होता है।
11.प्रश्न- क्या हिन्दी ग़ज़ल से रूमानियत
पूरी तरह से खत्म हो चुकी है?
उत्तर- वाल्मिकी ने स्वयं कहा है कि जब हृदय में करुणा उत्पन्न
होती है तभी काव्य की सृष्टि होती है और हृदय में जब तक प्रेम न हो करुणा के
उत्पन्न होने का प्रश्न ही नहीं उठता। इसलिए हृदय में प्रेम के बिना काव्य की
उत्पत्ति ही असम्भव है। और अगर क्रोध या घृणा उत्पन्न होती है तो उसका भी कारण
कहीं न कहीं प्रेम ही है। अतः यह कहना कि रूमानियत हिन्दी ग़ज़ल में पूरी तरह समाप्त
हो गई है, पूर्णतः
गलत है। यह बात और है कि पहले जिस तरह सिर्फ नायिका की कमर, गर्दन और नाड़े पर सारी रूमानियत लटकी
रहती थी वैसी अब नहीं। आज के दौर के ग़ज़लकारों में भी प्रेम और रूमानियत की ग़ज़लें
बराबर मिलती हैं और उसके हजारों उदाहरण भी मिल जायेंगे। दुष्यंत कुमार को ही ले
लीजिये, सामाजिक
संदर्भों के साथ उनके शेरों में रूमानियत भी देखने को मिलती है।
तू किसी रेल सी गुजरती है
मैं किसी पुल सा थरथराता हूँ
मेरी ग़ज़लों के कुछ उदाहरण-
“व्याकुल नयन अमृत से छलकते हुए अधर
हर्षित हैं या गर्वित हैं ये हँसते हुए
अधर
उन्मुक्त सा परिहास सुमन सा बिखेर कर
आनंद से अनंग को कसते हुए अधर”
“चहकती थी कोई लड़की महकती मोगरे सी थी
गई जब से उसी की याद में खोता रहा आँगन”
इस तरह हम देखते हैं कि आज के दौर में भी रूमानियत की
ग़ज़लें लगातार और एक से बढ़कर एक लिखी जा रही हैं मगर उनमें शालीनता और कहने का एक अलग
ढंग है जो ग़ज़लों के संसार को बहुत कुछ नयापन और नये आयाम प्रस्तुत करता है। और इस
प्रेम और रूमानियत के बिना ग़ज़लों का संसार अधूरा ही रह जायेगा।
12. प्रश्न- कुछ गजलकार मानते हैं कि
देवनागरी में लिखी गई गजलें हिन्दी गजलें आप इससे कहाँ तक सहमत हैं?
उत्तर- क्या अंग्रेजी की कविता को देवनागरी में लिखने से वह
हिन्दी की कविता हो जाएगी? हर भाषा के अपने संस्कार अपना व्यकरण उस भाषा कि संस्कृति
और उसकी सोच उस भाषा में संलिप्त रहती है। यह निर्विवाद है कि हिन्दी गजल का जन्म
उर्दू के बाद हुआ है इसलिए अन्य विधाओं की तुलना में इसमें उर्दू के शब्दों, मुहावरों, छन्दों और रूढ़ियों का असर अधिक पाया
जाता है। उसी प्रकार उर्दू के अधिकांश प्रगतिशील शायर हिन्दी के करीब आकर उसकी शब्दाशली, मुहावरे, रूपाकार और रूपाकार शिल्प को आत्मसात
करने प्रयत्नशील रहते हैं। हिन्दी और उर्दू गजलों की काव्य भाषा, बनावट और सम्वेदना में इतनी एकरूपता है
कि इन्हें अलग कर देखना कठिन हो जाता है। कवि के विचारभाव एवं चिंतन उसके काव्य
में परिलष्ति होते हैं। जैसे आज के अंग्रेजी माध्यम से पढ़े हुए बच्चे सोचते
अंग्रेजी में हैं और लिखते हिन्दी में हैं। उसी प्रकार हिन्दी माध्यम से पढ़े हुए बच्चे
सोचते हिन्दी में हैं और लिखते अंग्रेजी में हैं। इस प्रकार दानों ही जगह हम उस भाषा
से न्याय नहीं कर पाते जिस भाषा में लिखा जा रहा है। अतः जिस भी भाषा में गजल या
अन्य कोई भी काव्य विधा लिखी जा रही हो रचनाकार की सोच, उसकी संस्कृति, उसका व्याकरण, उसके समास, उसकी कल्पनाएँ जैसी होंगी वैसी ही उसके काव्य
में झलकेंगी। अतः किसी अन्य भाषा में लिखी हुई रचना को मात्र देवनागरी में लिख
देने से वह हिन्दी गजल नहीं हो जाएगी क्योंकि हर भाषा की लेखन परम्परा, उनके शब्दों को जोड़ने का तरीका, समास, भाव भंगिमाएँ अलग-अलग होती हैं। अतः हिन्दी
की वही गजलें स्वीकार की जाएँगी जो हिन्दी मानसिकता, संस्कार, संस्कृति और भाषाई व्याकरण को आत्मसात
कर लिखी जा रही हैं।
13. प्रश्न- समकालीन हिन्दी ग़ज़ल हिन्दी की
आरम्भिक ग़ज़लों से किस प्रकार भिन्न है?
उत्तर- हिन्दी कवियों में सर्वप्रथम भारतेन्दु हरिश्चंद्र ने ग़ज़ल
लिखने का प्रयास किया। जयशंकर प्रसाद की ‘भूल’ शीर्षक कविता ग़ज़ल शैली में लिखी गयी है। निराला ने भी ग़ज़ल
शैली अपनाई थी। परन्तु अमीर खुसरो ने सर्वप्रथम ग़ज़लों में एक मिसरा फारसी का और
दूसरा हिन्दी का लिखने का प्रयोग किया था। कबीर ने भी हिन्दी में ग़ज़लें कही हैं।
भारतेन्दु से लेकर केशव पाठक तक जिसमें प्रताप नारायण मिश्र, श्रीधर पाठक, उपेन्द्राचार्य, श्री माधव शुक्ल, बद्रीनारायण भट्ट, नाथूराम शर्मा, गयाप्रयाद शुक्ल ‘स्नेही’, लाला भगवानदीन, जगदम्बाप्रसाद मिश्र, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ इत्यादि
तमाम कवियों ने हिन्दी ग़ज़ल में अपनी रचनाएँ की हैं। परन्तु इन सभी कवियों ने किसी
न किसी रूप में अपनी रचनाओं में ग़ज़ल शैली का निर्वाह किया है। इन समस्त कवियों में
विषय की विविधता रही है परन्तु फिर भी वे अपने आपको ग़ज़ल के परम्परागत रूप यानि
हुस्नो इश्क, गुलो
बुलबुल आदि से बिल्कुल अलग नहीं कर पाए। समकालीन हिन्दी ग़ज़लकारों ने अपनी ग़ज़लों को
एक नई भावभूमि एक नए कथ्य के आधार पर प्रतिष्ठित करने का प्रयास अवश्य किया है
जिसमें उन्हें किसी सीमा तक सफलता भी प्राप्त हुई है। इस दौर का हिन्दी ग़ज़लकार
अपनी ग़ज़लों के माध्यम से पूरी सत्य निष्ठा के साथ राजसत्ता, स्वार्थपरता, भ्रष्टाचार, हिंसा, लूट, व्यभिचार, बलात्कार, घूसखोरी, फिरकापरस्ती और भोगवादी नैतिकता के खोखलेपन
को बेनकाब करता है। वह इस दौर के शोषण, दमन, उत्पीड़न, अन्याय, अत्याचार को चुपचाप नहीं देख सकता। वह उसके विरुद्ध अपनी
आवाज बुलन्द करता है। आज के दौर की ग़ज़लें समय का मूल्यांकन करती हुई यथार्थ को
अभिव्यक्त करने में पूर्णतः सक्षम हैं। इसके साथ ही हिन्दी के अधिकतम ग़ज़लकार ग़ज़ल
के मानदण्डों पर खरा उतरने के प्रति जागरुक हैं।
14. प्रश्न- समकालीन हिन्दी कविता और
समकालीन हिन्दी ग़ज़ल में आप विशेष तौर से क्या अन्तर मानते हैं?
उत्तर- साहित्य की कोई भी विधा अपने समकालीन परिवेश से रूपांवित
होती है। काव्य अपने परिवेश की उपज है। परिवेश में व्याप्त विसंगतियों और जटिलताओं
का ही इजहार करती है। इसी प्रकार ग़ज़ल भी अपने समकालीन परिवेश से परे नहीं है, यही कारण है कि उसके तेवर बदले हैं
इसलिए आज की ग़ज़ल जन की बात करती है। समकालीन हिन्दी ग़ज़ल इस मिजाज से अछूती नहीं
रही है वह तो आंदोलन धर्मी हो गई है। समकालीन कविता के कवि ने जीवन के यर्थाथ को
एक नई दृष्टि से देखा है। वह जीवन की गहराइयों का अनुभव विभिन्न दृष्टिकोणों से
करता है। समकालीन कविता में यथार्थ व भाव बोध का भाव बड़ा ही तीव्र है। यथार्थ बोध
की तीव्रता के कारण अत्यांत्रिक काल्पनिकता की न्यूनता है। मानव महिमा का यशोगान
प्रगतिवादी कविता की प्रमुख प्रवृत्ति रही है। इसके विपरीत प्रयोगवादी कवि मानव को
पदाक्रान्त रिरियाते कुत्ते और जूते के तलवे से भी गया गुजरा मानकर उसकी हीनता का वर्णन
करता है। सामाजिक अंतर्विरोधों और राजनैतिक विडम्बनाओं को उजागर करने वाले दर्जनों
शेरों की रचना ने ग़ज़ल को कल्पना लोक से यथार्थ की खुली धरती पर उतरने को मजबूर
किया है। हालाँकि कई ग़ज़लों में ग़ज़ल रचना की अनिवार्य नाजुक ख्याली, कल्पना की ऊँची उड़ान, मुहावरेदानी, रवानी, खूबसूरत अंदाजे बयाँ की कमीं नहीं है। उन्होंने
कई ऐसे अच्छे शेरों की रचना करने में सफलता पाई जो सूक्ति और लोकोक्ति और नारे की
तरह जनता की जीभ पर चढ़ गये हैं जिसके लिये हर कवि प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से
लालायित रहता है। यदि हम लोक स्वीकृति के आयाम से देखें तो नई कविता की अपेक्षा
ग़ज़ल आज आम जनों में अधिक पठनीय एवं श्रवणीय है।
15. प्रश्न- समकालीन कविता में छन्द की
उपेक्षा की गई है। इस आधार पर हिन्दी ग़ज़ल की छन्दोबद्धता को आप आधुनिक जीवन की
जटिल मानसिक संक्रियाओं को व्यक्त करने में समर्थ मानते हैं अथवा नहीं?
उत्तर- नई कविता के आलोचकों ने सदैव ही ग़ज़ल को लोकप्रिय कहकर
इसकी उपेक्षा की है जो ग़ज़ल के लिये अभिशाप की बजाय वरदान सिद्ध होता है। जहाँ ग़ज़ल
छन्दोबद्ध होने के कारण आम जनमानस में दिनोंदिन लोकप्रिय होती गई वैसे ही समकालीन कविता
अपनी दुरूहता के कारण आम जन से दूर होकर मात्र पुस्तकालयों में कैद होती चली गई।
समकालीन कविता के कवि को उद्धृत करने के लिये जहाँ पुस्तकों का सहारा लेना पड़ता है
वहीं अच्छी ग़ज़लों के शेर आमजनों की जुबान पर सहज ही उद्धृत हो जाते हैं। जैसे
केशवदास को कठिन कविता का प्रेत कहा जाता था और तुलसीदास जी आमजन से घर-घर में
प्रतिष्ठित हो गये पर केशव उतने लोकप्रिय नहीं हो सके। हिन्दी साहित्य में
प्रेषणीयता का संकट है तो ग़ज़ल को एक ऐसा दर्जा हासिल करने का कि वह भी विधा के रूप
में अपनी पहचान कायम करे। जहाँ आलोचकों के पूर्वाग्रहों से साहित्य में ग़ज़ल कहीं
नहीं वहीं दूसरी ओर हर गली कूचे में ग़ज़ल है। टीवी पर ग़ज़ल, टू-इन-वन पर ग़ज़ल, मंच पर ग़ज़ल। यह ग़ज़ल की लोकप्रियता है। ग़ज़ल
की लोकप्रियता पर ग़ज़लकार कितना भी रीझे लेकिन हकीकत यह है कि साहित्यिक दर्जा अभी
ग़ज़ल को नहीं मिल पाया है। ग़ज़ल अपने लिये छन्दमुक्त समकालीन कविता जैसा सुखद माहौल
नहीं बना पाई। इसके लिये आलोचकों और सम्पादकों पर दोष मढ़कर पल्ला नहीं झाड़ा जा
सकता है। बाहर लड़ाई लड़ने से जरूरी था अपने घर की कमजोरियों को दुरुस्त कर लिया
जाता। लेकिन ऐसा नहीं किया गया। ग़ज़ल को आसान विधा समझकर सभी ने हाथ आजमाए, छेड़छाड़ जारी रही। काफिए और रदीफ जैसे दो
हथियारों से ग़ज़ल की लड़ाई लड़ी जाती रही। विधागत मिजाज, सूक्ष्मता, शिल्प सौष्ठव, कथ्य, सोच शऊर और चिंतन के बगैर ग़ज़ल लिखी जाती
रही। इन्हें दुरुस्त करने की महती आवश्यकता है।
16. प्रश्न- हिन्दी ग़ज़ल के प्रति आलोचकों का
रवैया सकारात्मक नहीं रहा है। इसके पीछे क्या कारण हो सकते हैं?
उत्तर- आज हम देखते हैं कि ग़ज़ल हर जगह बहिष्कृत है। इस दौरान
जितने कविता संग्रह प्रकाशित हुए, उदाहरणार्थ पहल, वर्तमान साहित्य, कविता दशक, ग़ज़ल को हिकारत से देखना या हाशिये पर रखना सम्पादकों, कवियों की जरूरत में शुमार है। ‘पहल’
ऐलान करता है कि हम ग़ज़ल नहीं छापते, हंस ने ग़ज़ल छापना शुरू की है लेकिन एहसान की मुद्रा में।
हंस में ग़ज़लें ऐसे छपती हैं जैसे खाली स्थान भरो की मजबूरी हो। हिन्दी आलोचना ग़ज़ल
को नोटिस लेने से कतरा रही है। यह ध्यान देने योग्य है कि जनता कि जुबान में, जनता के लिये, जनता के जीवन से सम्बंधित रचनाओं को
तरजीह देने वाले प्रगतिशील और जनपक्षधर आलोचक भी इस बेहद जनप्रिय अभिव्यक्ति
माध्यम को नजरअंदाज कर देने में मशगूल हैं। इस बात से भी इन्कार नहीं किया जा सकता
है कि ग़ज़ल रचना के भीतर से भी ऐसी प्रभावशाली आलोचना अब तक उभरकर सामने नहीं आई है
जो ग़ज़ल के रूप में निर्धारण, सीमा और सम्भावना के उद्घाटन अस्वाद के नए क्षितिज के
अनवेक्षण में मददगार साबित हो अथवा ग़ज़ल के मूल्यांकन के वास्ते नए औजार मुहावरे और
सौन्दर्य शास्त्र का निर्माण करने में समर्थ हों। अब समय आ गया है कि हिन्दी ग़ज़ल
रचना कि संरचनात्मक और संचेतनात्मक बनावट और बुनावट पर संजीदगी से विचार विमर्श
किया जाए। आरंभ से अब तक ग़ज़ल के सभी समालोचक इस बात से सहमत हैं कि ग़ज़ल वस्तुतः
इकोनोमी ऑफ वर्ड्स की एक ऐसी विधा है जिसमें यदि एक भी शब्द व्यर्थ या आवश्यकता से
अधिक है तो ग़ज़ल अपने स्तर पर प्रभाव खो देती है। अतः ग़ज़लकार को दो मोर्चों पर लड़ना
पड़ता है, पहला
ग़ज़ल की लयात्मकता और दूसरा कथ्य तथा ग़ज़ल के बाकी सभी पैमानों पर भी खरा उतरना पड़ता
है। मेरे अनुसार आलोचना काम कर रही है मगर ग़ज़लकारों को भी अपने स्तर पर अपनी सभी
कमियों को दूर करना होगा और साथ ही ऐसे आलोचक अपने बीच विकसित करने होंगे जो ग़ज़लों
की ईमानदारी से समालोचना कर सकें न कि तू मेरी लिख मैं तेरी लिखता हूँ।
17. प्रश्न- क्या हिन्दी ग़ज़ल में आलोचना को
विकसित करने की दिशा में हिन्दी ग़ज़लकारों द्वारा प्रयास किये जा रहे हैं? यदि हाँ तो इसे आप किस तरह से देखते हैं?
उत्तर- वाल्टर बेन्जामिन के अनुसार तकनीकी का परिवर्तन ही कला को
नया रूप प्रदान करता है। जिस तरह उत्पादन पद्धति बदल जाने से सामाजिक सम्बंधों में
परिवर्तन आ जाता है उसी प्रकार कला और साहित्य की दुनिया में भी रचना की तकनीक बदल
जाने से उसके सारे सम्बंध बदल जाते है। पाठक और लेखक के पुराने रिश्ते बदल जाते
हैं। रचनाकार केवल वही नहीं होता जिसका कथ्य क्रांतिकारी होता है अथवा जिसकी प्रतिबद्धता
किसी क्रांतिकारी विचारधारा से होती है, अपितु क्रांतिकारी कलाकार वह भी होता है जिसकी तकनीक कला
को अधिकाधिक लोगों के नजदीक ले जाती है। अपने युग और समाज की विभिन्न प्रवृत्तियों
और संश्लिष्ट अनुभवों को अधिक सार्थक ढंग से व्यक्त करने के लिये हिन्दी ग़ज़लकार
अपनी अभिव्यक्ति को ग़ज़ल के माध्यम से पहुँचाने में सक्षम रहा है। हिन्दी आलोचना
ग़ज़ल को नोटिस लेने से कतरा रही है। इस बात से भी इन्कार नहीं किया जा सकता है कि
ग़ज़ल रचना के भीतर से भी प्रभावशाली आलोचना अब तक उभरकर सामने नहीं आई है जो ग़ज़ल के
रूप निर्धारण, सीमा
और सम्भावना के उद्घाटन और नये क्षितिज के अन्वेक्षण में मददगार साबित हो अथव ग़ज़ल
के मूल्यांकन में नये औजार मुहावरे और सौन्दर्य शास्त्र का निर्माण करने में समर्थ
हो। अब मात्र आलोचकों पर दोष मढ़ने से कुछ भला होने वाला नहीं है। अब जरूरी है कि
हिन्दी ग़ज़ल के पुरोधा अपने ग़ज़लकार होने का मोह छोड़कर आलोचना के सौन्दर्य शास्त्र
उसके औजार और उसकी बारीकियों पर नजर रखकर आलोचना का दायित्व संभालें जिसमें
दोस्ती-यारी का कोई स्थान न हो। समीक्षक अपनी तेज हथियार कलम से ग़ज़लों की सच्ची
आलोचना करें ताकी व्यर्थ का कूड़ा-करकट साफ हो सके और ग़ज़ल को उसकी प्रतिष्ठा मिल
सके।
18. प्रश्न- आज हिन्दी ग़ज़ल के लिये नये
पाठकों और लेखकों में अत्यधिक उत्साह देखने को मिल रहा है। इसका क्या लाभ और क्या
हानियाँ हैं?
उत्तर- आज हिन्दी ग़ज़ल में बाढ़ की स्थिति है। अधिक मुद्रित होने
वाली इस विधा को लोगों ने बिना प्रतिबद्धता के लिखना शुरू कर दिया। वे मुद्रण के
हर अवसर को भुना लेना चाहते हैं। इसलिए हिन्दी ग़ज़ल के नाम से मुद्रित पठित हर रचना
हिन्दी ग़ज़ल न होकर उसका दुखद भ्रम है। इसका कारण इस विधा की तकनीकी आवश्यकताओं और जरूरतों
के प्रति कवियों की अज्ञानता हो सकती है। ग़ज़ल के छन्द विधान, लय, स्वर, संगीत परम्परा, रचना वैशिष्ट्य के प्रति
अपरिचय ही यह साहित्यिक दोष उत्पन्न करता है और यह क्षम्य नहीं है। यह विधा के
प्रति भ्रमों को जन्म देता है। अतः यह हर प्रकार से अस्वीकार्य है। ग़ज़लकारों को
शेरों में शब्द सौष्ठव का विशेष ध्यान रखना पड़ता है। यदि एक भी शब्द हटाकर उसके
स्थान पर दूसरा शब्द प्रयोग कर दिया जाता है तो सभी कुछ बेकार हो जाता है। हिन्दी
ग़ज़ल एक सम्भावनाशील एवं सशक्त काव्य रूप है। मानस की तीव्रानुभूति को कम से कम
शब्दों में अधिक प्रभावशाली ढंग से अभिव्यक्त करने का इससे अधिक सशक्त कोई माध्यम
नहीं है। उत्तम ग़ज़ल रचना वही है जिसमें विचार भाव, भाषा अनुभूति और सम्वेदना एक दूसरे में
घुल-मिलकर व्यक्त हो सकें। ग़ज़ल सादा, सुगम, सुबोध, सघन कलात्मक, मुहावरेदार और सम्वेदनशील होना चाहिए, विचारों में इकहरी और अभिव्यक्ति में
सपाट नहीं। तभी ग़ज़ल व्यापक जनसमूह तक पहुँचकर अपनी अस्मिता की रक्षा करने में सफल
होगी। पाठकों, लेखकों
और आमजन का ग़ज़ल के प्रति बढ़ता हुआ उत्साह निश्चित ही प्रशंसनीय और सकारात्मकता का
प्रतीक है। लेकिन जितनी जल्दी आमजन आकर्षित होता है उतना ही शीघ्र वितृष्णाएँ भी
उत्पन्न होती हैं। अतः आज के दौर में ग़ज़ल की रक्षा की जिम्मेदारी स्वयं ग़ज़लकारों
एवं सम्पादकों की है। सबसे ज्यादा ग़ज़ल के साथ अत्याचार सोशल मीडिया पर हो रहा है
जहाँ कुछ भी उल्टी-सीधी रचनाएँ ग़ज़ल बनाकर प्रस्तुत की जा रही हैं जिसका हाथ पकड़ने
वाला उन्हें बहिष्कृत करने का जोखिम कोई नहीं उठाता। कई बार तो लोग मजबूरीवश उनकी
तारीफ भी कर देते हैं। यह अनुचित है।
19. प्रश्न- क्या हिन्दी कविता की तरह हिन्दी
ग़ज़ल में भी गम्भीर ग़ज़ल और मंचीय ग़ज़ल जैसे भेद किये जाते हैं? यदि हाँ तो आप किसे अधिक महत्व देते हैं
और क्यूँ?
उत्तर- यह फतवा समकालीन कविता और उनके आलोचकों ने जारी किया था।
यह सत्य है कि बढ़िया तरीके से प्रस्तुत की जाने वाली कविता और गद्यात्मक गम्भीर कविता
की लोकप्रियता में अन्तर तो होता है और फिर ग़ज़ल की विधा तो है ही लयात्मकता से पूर्ण।
आज के दौर में हिन्दी ग़ज़ल में युगबोध की काव्यात्मक अभिव्यक्ति का सामान्यीकरण
अत्यधिक सशक्तता के साथ समाहित है। ग़ज़ल का यही तेवर उसे पारम्परिक ग़ज़लों से अलग हट
कर नये आयाम प्रदान करता है। हिन्दी ग़ज़ल का अभी प्रयोगात्मक अवस्था के बावजूद
हिन्दी ग़ज़ल की श्रेष्ठतम उपलब्धियों को देखकर इस विधा की स्थापना के प्रति आश्वस्त
हुआ जा सकता है। ग़ज़ल की अपनी निश्चित व्यवस्था एवं सीमाएँ हैं। समर्थ लेखनी इसका
पालन करती हुई पूर्ण अनुशासन का निर्वाह करती हुई ग़ज़ल को रूपांकित करती है। हिन्दी
कविता में गम्भीर और मंचीय कविता में अन्तर किया जा सकता है मगर ग़ज़ल में ऐसा नहीं
हो सकता, क्योंकि
ग़ज़ल की पहली शर्त ही ग़ज़ल का ग़ज़ल होना है। यदि ग़ज़ल अपने सारे नियमों का पालन करते
हुए लिखी गई है तभी वह ग़ज़ल होगी, अन्यथा वह ग़ज़ल ही नहीं होगी। जहाँ तक गम्भीरता और
लोकप्रियता का प्रश्न है यह ग़ज़ल के कथ्य पर और उसके प्रस्तुतिकरण, मुहावरेदानी पर निर्भर करता है। गम्भीर
ग़ज़ल भी लोकप्रिय हो सकती है और मंचीय ग़ज़ल भी आमजन से खारिज हो सकती है। सही और
सार्थक अभिव्यक्ति के रास्ते में कई बाधाएँ भी हैं और खतरे भी। सबसे बड़ा खतरा है
अभिव्यक्ति के हथियार यानि के शब्दों के लगातार हो रहे अवमूल्यन का। व्यवस्था
द्वारा शब्दों को लगातार भोथरा बनाने की कोशिश की जा रही है। अभिव्यक्ति का संकट
उसकी पहचान का संकट बनता जा रहा है। अतः आवश्यकता गम्भीर रचनाओं की ही है परन्तु
उसको तमाम मानदण्डों पर आधारित एवं खूबसूरत मुहावरेदानी के साथ प्रस्तुतिकरण की
आवश्यकता है जिसमें रिपिटेशन से बचा जाना अनिवार्य है।
20. प्रश्न- अन्त में नये ग़ज़लकारों को आप
क्या सन्देश देना चाहते हैं?
उत्तर- ग़ज़ल की लोकप्रियता आज के दौर में इतनी अधिक है कि कवि सहज
ही इस विधा की ओर आकृष्ट हुए बिना नहीं रह पाते। थोड़े बहुत तो हाथ जिसे देखो वो
ग़ज़ल पर आजमा ही लेता है, बिना ग़ज़ल की परम्परा उसके व्याकरण उसके मिजाज और भाषा के
सौष्ठव को पहचाने। ग़ज़ल का एक शेर कहने में कई बार हफ्तों गुजर जाते हैं। अगर कोई
शायर अपनी प्रसिद्धि की जल्दी में कच्ची दाल, जली रोटी और कच्चे चावल का खाना (ग़ज़लें)
परोसेगा तो वह न सिर्फ अपने साथ बल्कि समस्त हिन्दी ग़ज़ल की परम्परा को बदनाम कर
रहा है। ऐसी ही ग़ज़लों के उदाहरण देकर लोग ग़ज़ल की तपस्या में दिन-रात तप रहे हजारों
तपस्वियों की साधना पर ग़ज़ल के शत्रुओं (जी हाँ शत्रु) बहुतेरे हैं जिनकी आँखों में
ग़ज़ल खटकती है, उन्हें
ग़ज़ल पर प्रश्न चिह्न लगाने का मौका देते हैं। नये रचनाकारों से मेरा यही निवेदन है
कि वे ग़ज़ल अवश्य लिखें परन्तु ग़ज़ल की परम्परा, उसके मिजाज, उसके व्याकरण को भली भाँति समझकर ही ग़ज़लें
कहें। दूसरी विशेष बात यह है कि मात्र रदीफ, काफिया और बहर ही ग़ज़ल नहीं होती, आप कम से कम सौ ग़ज़लें पढ़ने के बाद यह तय
करें कि आप जो बात ग़ज़ल में कहने जा रहे हैं वह पहले ही तो नहीं कही जा चुकी और
उनके कहने का तरीका क्या था। वरना दुष्यंत कुमार के बाद सारे व्यवस्था विरोधी
ग़ज़लकार स्वयंसिद्ध विद्रोही ग़ज़लकार होने का दम्भ पाल लेते हैं। व्यवस्था विरोध भी
हो तो इतने सलीके से हो कि बात जहाँ पहुँचना चाहिए वहीं पहुँचे। मात्र गालियाँ
देने से झण्डाबरदारी नहीं होती। ग़ज़ल बड़े नाजुक मिजाज की विधा है। उसके उसी स्वरूप
को ध्यान में रखकर और अपनी स्वयं की मुहावरेदानी, अपनी भाषा और अपनी अलग पहचान कायम करें।
ग़ज़ल के उज्ज्वल भविष्य के लिये सभी आशान्वित हैं।
( हमसे बातचीत करने के लिए आपका
बहुत-बहुत धन्यवाद! )
दीपक कुमार
शोधार्थी, हिंदी विभाग
मो. ला. सु. वि. वि. उदयपुर (राज.)
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-41, अप्रैल-जून 2022 UGC Care Listed Issue
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