- डॉ. सुमन शर्मा
शोध सार : भारत की स्वतंत्रता के बाद समकालीन जीवन पर प्राप्त रेणु का “मैला आँचल’’प्रथम उपन्यास है जिसमें समस्त ग्रामीण जीवन की विविध समस्याओं एवं परिस्थितियों का जीवंत वर्णन किया गया है | उनके उपन्यासों में ग्रामांचल की छोटी से छोटी घटनाओं और लोक रीति रिवाजों,लोक गीतों और आँचलिक परिवेश को स्थानीय भाषा और शब्दावली में व्यक्त किया है | रेणु को आँचलिक उपन्यास का जनक भी माना जाता है | उनका भाषा एवं शिल्पगत वैशिष्ट्य उपन्यासों की कथा निर्मिति ,पात्र योजना में मौलिक विन्यास को जन्म देती है | रेणु के भाषा प्रयोग में उनके देशज शब्दावली की अद्भुत संयोजना सहयोगी सिद्ध हुए हैं, जिनकी योजना सहज स्वाभाविक रूप में हुई है | देशज शब्द प्रयोग में रेणु ने विविध कलात्मक प्रयोग भी किये हैं | देशज शब्दों के सुंदर उदाहरण रेणु के सभी उपन्यासों में मिलते हैं | जैसे –एक रत्ती चिनगी चिनगल जाये सहर पुरैनिया लूटल जाये का है ,बोलो तो ?पनिया छह छह छहाय ढाक भैर्रा |
बीज शब्द : रेणु , आँचलिक , उपन्यास , देशज , शब्द ,भाषा |
मूल आलेख
: भारत के ग्राम्य जीवन के वास्तविक चित्रण को यदि समझना है तो हमें फणीश्वरनाथ रेणु’ के कथा संसार से जुड़ना होगा| ग्राम्य जीवन का यथार्थ वर्णन अपने कथ्य के आधार पर पहचान बनाने वाले हिंदी के प्रमुख कथाकारों में फणीश्वरनाथ रेणु ही हैं जिनका नाम प्रेमचंद के बाद आने वाला नाम है | फणीश्वरनाथ रेणु ही हैं जिन्होंने प्रेमचंद के बाद भारतीय ग्राम्य जीवन के यथार्थ को अपनी लेखनी से सँजो कर अभूतपूर्व यश की प्राप्ति की है | भारत की स्वतंत्रता के बाद समकालीन जीवन पर प्राप्त रेणु का ‘मैला आँचल’ (1954) प्रथम उपन्यास के रूप में जाना जाता है जिसमें समस्त ग्राम्य जीवन ,परिवेश और उसकी मनःस्थिति व परिस्थितियों का जीवंत वर्णन प्राप्त होता है | रेणु के सभी उपन्यास ग्राम्य परिवेश को उकेरने में सफल रहे हैं | रेणु कृत ‘मैला आँचल’ हिंदी कथा जगत में मील का पत्थर साबित हुआ है | विशिष्ट उपन्यासकार के रूप में रेणु को स्थापित करने में ‘मैला आँचल’ की प्रमुख भूमिका है|
बिहार के पूर्णिया में जन्मे रेणु ने जो गाँव बचपन से जिया और अनुभव किया उन्हीं गाँवों को अपने लेखन का आधार भी बनाया | रेणु के उपन्यासों में चित्रित विविध ग्राम्य समस्याएँ भारत के प्रत्येक गाँव की वास्तविक समस्याएँ है | स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद से प्रत्येक साहित्यकार का अपनी मिट्टी, अपनी संस्कृति, अपनी जड़-जमीन और सभ्यता से अद्भुत जुड़ाव हो गया| यही जुड़ाव साहित्यकारों की रचनाओं में दृष्टिगत होने लगा | रेणु भी ऐसे ही कथाकार बनकर उभरे जिन्होंने अपने विविध आँचलिक उपन्यासों के माध्यम से आँचलिक कथा साहित्य की परम्परा को आगे बढ़ाया| उन्होंने अपने ग्राम्य अंचल- प्रेम, तीज-त्योहार प्रेम, प्रकृति प्रेम और ग्राम्य जन के प्रति प्रेम को अपनी रचनाओं में सहेजा है | इसी का परिणाम है कि वे अपने रचना कर्म में आँचलिकता का पूर्ण प्रभाव प्रकट करने में सिद्धहस्त पाये गये हैं| उनके उपन्यासों में ग्रामाँचल की छोटी से छोटी घटनाओं, लोककथाओं, रीति रिवाजों, आचार विचारों , राजनीतिक तथा नैतिक मतमतान्तरों, अंधविश्वासों, आपसी संबंधों और परम्पराओं का अतीव सुन्दर सजीव वर्णन देखने को मिलता है| रेणु के रचना संसार के पात्र ग्रामीण दारुण अवस्था के भुक्त भोगी पात्र हैं जो अपनी पीड़ाओं को हृदय में दबाए, विवश जीवन जीने को मजबूर हैं| यही उनके उपन्यासों में वर्णित ग्रामों का धूल धूसरित यथार्थ है जो उन्हें विशिष्ट बनाता है |
स्वतन्त्रता के बाद अधिकांश उपन्यास आँचलिक इसलिए कहे जाने लगे क्योंकि उनमें भारतीय ग्राम्य जीवन उसके विकास और उपलब्धियों की छवि दिखाई देने लगी, किन्तु यह सत्य नहीं है | आँचलिकता का महत्त्व इस बात में है कि यह एक परम्परा से हट कर एक नयी शिल्प- संवेदना और परिपाटी के साथ प्रस्तुत हुआ| अधिकांश विद्वानों का आँचलिक उपन्यासों के सम्बन्ध में मत है कि वह ग्राम्य अँचल और उसके जीवन व परिवेश पर आधारित हो | हिंदी के सबसे सशक्त और प्रामाणिक लेखक प्रेमचंद के उपन्यासों में आँचलिकता का प्रथम अंकुरण पाया जाता है क्योंकि उनके उपन्यासों में ग्राम्य वर्णन है | किन्तु प्रेमचंद के उपन्यासों में रेणु के उपन्यासों की तरह रागात्मकता या जीवन का मधुर संगीत छूट सा गया है | इसलिए यहाँ इस बात को स्वीकार करना ही होगा कि फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ प्रेमचंद के उत्तराधिकारी के रूप में उपस्थित हुए| उन्होंने प्रेमचंद की परम्परा को देख- परखकर, सँजो कर और सहेज कर विकसित किया और उपन्यास लेखन में विविध परिवर्तन भी किये | आँचलिकता भी उनमें से एक है | आँचलिक उपन्यास शब्द का प्रयोग ‘रेणु’ ने सबसे पहले किया| उन्होंने इसके प्रकाशन के समय इसे इस प्रकार प्रस्तुत किया-“मैला आँचल- एक आँचलिक उपन्यास”|1इसकी विशिष्ट भाषा के सन्दर्भ में भी रेणु ने कहा –“जब मैला आँचल मैंने लिख दिया और जब उसका भीतर का टाइटल छपने को जा रहा था – तब मैंने लिखा-‘मैला आँचल’ और उसके नीचे लिख दिया ‘एक आँचलिक उपन्यास’, मैंने यह सोच कर किया कि मैंने जो शब्दों का इस्तेमाल किया , जैसी भाषा लिखी, क्या पता उसको लोग कबूल करेंगे या नहीं करेंगे इसलिए मैंने उसे ‘आँचलिक उपन्यास’ कह दिया|”2 किन्तु उनके कहने मात्र से उन्हें आँचलिक उपन्यासकार मानना स्वीकार नहीं किया गया| अतः प्रथम आँचलिक उपन्यासकार की श्रेणी में किसे रखा जाये, इस के निदान हेतु अनेक विद्वानों ने रेणु के पूर्व में लिखे गये हिंदी उपन्यासों की यात्रा परम्परा का अवलोकन किया, आँचलिक चित्रणों की खोज की गई, इस परंपरा पर विचार-विमर्श किया गया तत्पश्चात रेणु को हिंदी का प्रथम आँचलिक उपन्यासकार होने की स्वीकृति मिली |
आधुनिक हिंदी साहित्य में ‘रेणु’महान कथा शिल्पी की श्रेणी में आते हैं| रेणु के छै उपन्यास हैं- मैला आँचल, परती:परिकथा, जुलूस, कितने चौराहे, दीर्घतपा और पलटू बाबू रोड, किन्तु प्रारंभिक दो उपन्यास – मैला आँचल और परती: परिकथा को उनके प्रतिनिधि उपन्यासों के रूप में जाना जाता है | रेणु के औपन्यासिक शिल्प का वैशिष्ट्य न केवल उनकी नवीन भाषिक संरचना में है जो उनके उपन्यासों में लोक रंग को प्रस्तुत करने और उनकी अभिव्यक्ति को सफल बनाता है बल्कि उनका शिल्पगत वैशिष्ट्य ,उनके उपन्यासों की कथा निर्मिति,पात्र योजना आदि में भी परिलक्षित होता है |
रेणु के उपन्यासों की भाषा संरचना उनकी समस्त विशेषताओं और उपलब्धियों में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण और विशिष्ट है |उनकी भाषा शिल्प के सम्बन्ध में डॉ. धनञ्जय वर्मा ने लिखा है-“भाषा में एक अकृत्रिमता है - - - -फिर भी वह असाहित्यिक नहीं |सर्वत्र भाषा का सौष्ठव है और अपनी परिनिष्ठा से स्खलित वह नहीं हुई है |गद्य की भाषा का यह परिष्कार है ,उनकी शक्ति का विस्तार है जनभाषा के प्रयोग में |यह प्रेमचंद के आगे का चरण है |”3
रेणु अपनी विशिष्ट भाषा हेतु जाने जाते हैं | उनकी भाषाई संरचना उत्कृष्ट श्रेणी की है | उनकी भाषा शैली की नवीन प्रयुक्तियों का साहित्य जगत ने अत्यधिक सम्मान किया है | भाषा के माध्यम से लोकधर्मिता हेतु उन्होंने अपनी मूल भाषा को प्राथमिकता दी और एक परम्परागत भाषाई प्रयोग के प्रति विद्रोह भी प्रदर्शित किया| रेणु के उपन्यासों में पूर्ण आँचलिकता के दर्शन होते हैं जिसकी प्रमुख आधारभूमि स्थानीय लोकगीत,
लोकोक्तियाँ, जनपदीय शब्द, लोक ध्वनियाँ और देशज शब्दावली है जिसने उनके रचना संसार में चार चाँद लगाने का कार्य किया है | रेणु की रचनात्मकता का ही गहन प्रभाव है कि उन्होंने ग्राम्य जीवन के यथार्थ और भाषा में अद्भुत सामंजस्य स्थापित किया है |
फणीश्वरनाथ रेणु के भाषा प्रयोग की सर्वाधिक विशेषता है उनका देशज शब्दों को सहेज कर आगे बढ़ने का कुशलतापूर्ण कार्य, जो उन्हें श्रेष्ठ आँचलिक कथाकार सिद्ध करता है | उन्होंने देशज शब्दों के साथ स्थानीय शब्दों का भी निर्भीक प्रयोग किया है | साथ ही विदेशी शब्दों में स्थानीय प्रभाव उत्पन्न किया है जो उनकी मातृभाषा से पूर्ण प्रभावित है | शब्दों के निजत्ववादी प्रयोग ने उन्हें एक मनमौजी और अक्खड़ भाषा के प्रयोगकर्ता के रूप में भी पहचान दिलवाई है | रेणु ने भाषा के अप्रचलित प्रयोग भी ढूँढ़ –ढूँढ़ कर किए जिनका कोशीय अर्थ ढूँढ़ना असंभव है | यद्यपि रेणु की शब्द प्रयोग विवेचना को तत्सम, तद्भव और देशज के आधार पर विस्तृत रूप से किया जाता रहा है किन्तु यहाँ रेणु के देशज शब्दान्वेषण और उनके सार्थक प्रयोग को प्राथमिकता देना प्रमुख उद्देश्य है | चूँकि फणीश्वरनाथ रेणु ने देशज शब्दों का बहुतायत से प्रयोग किया है |इसीलिए रेणु की देशज शब्दावली पर ही दृष्टिपात करना हमारा उद्देश्य है |
‘देशेन
क्षेत्रेणवा जायते ,इति देशज ,अर्थात देशज शब्द वे हैं जो किसी भाषा क्षेत्र में बिना किसी आधार के विकसित हो जायें और अनुकरणात्मक न हों ,देशज कहलाते हैं |ऐसी स्थिति में ये अज्ञात उत्पत्ति रखते हैं |इनका कोई प्राचीन इतिहास प्राप्त नहीं होता |देशज शब्दों की उपस्थिति को भी आधुनिक आर्य भाषाओं में मान्यता नहीं है |कुछ विद्वानों द्वारा देशी ,देसी ,देश भाषा आदि शब्दों का प्रयोग सामान्य बोलचाल की अपभ्रंश ,प्राकृत के लिए किया जाता रहा है |4
हेमचन्द्र ने अपने पूर्ववर्ती दस ऐसे आचार्यों का उल्लेख किया है जिन्होंने देशज शब्दों के कोश बनाए थे | किन्तु अब तक सर्वाधिक प्रचलित एवं उपलब्ध विवेचना हेमचन्द्र की है | उनकी पुस्तक ‘देशी नाममाला’ प्राकृत अपभ्रंश के देशज शब्दों का कोश माना जाता है | उन्होंने ऐसे शब्दों को देशज माना है जिनकी संस्कृत से व्युत्पत्ति नहीं दिखाई जा सकती अथवा उनके अर्थ संस्कृत कोशों में उपलब्ध नहीं हैं |
आधुनिक विद्वानों ने
देशज शब्दों को लेकर अपने मत प्रकट किये | सुनीति
कुमार चाटुर्ज्या ने कहा “तद्भव के साथ-साथ एक अन्य प्रकार का शब्द-वर्ग है, जिसे प्राकृत के वैयाकरणों ने ‘देशी’ शब्द कहा है और जहाँ तक परवर्ती,
मध्य तथा आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं का सम्बन्ध है ये शब्द स्थानीय तत्त्वों का ही एक भाग हैं |” 5
कामता प्रसाद गुरु ने भी कहा “देशज शब्द वे है जो कि संस्कृत या प्राकृत मूल से निकले हुए नहीं जान पड़ते और जिनकी व्युत्पत्ति का पता नहीं लगता |”6
देशज शब्दों का कोई सांस्कृतिक महत्त्व सिद्ध नहीं है |प्रायः इनका प्रयोग एवं सम्बन्ध क्रियाओं और भाव वाचक संज्ञाओं आदि से होता है न कि मूर्त एवं ठोस संज्ञाओं से |सामान्यतः ये ध्वनि की अनुकरनीयता पर आधारित होते हैं और सरल होते हैं |रेणु के देशज शब्द प्रयोग उन्हें एक आँचलिक उपन्यासकार तो सिद्ध करते ही हैं साथ ही उनकी भाषा दक्षता का भी प्रमाण देते हैं |उनकी इसी दक्षता के लिए यशपाल ने कहा था –“अभिव्यक्ति के लिए ध्वनियों का प्रयोग ,मुहावरों के लटके और भाषा की सरलता की क्या प्रशंसा करूँ?भाषा का चुनाव वस्तु वर्णन के बिना भी एक विशेष वातावरण और समाज की चेतना जगाये रखता है |सहज भाषा के लिए क्या कहूँ ,वह आपकी अपनी भाषा और आपके रक्त और स्वभाव में रमी हुई है ,जैसे आप उसी में उद्भूत हैं |”7
किसी भी आंचलिक रचना की विधायिका देशज शब्दावली होती है क्योंकि अंचल विशेष की पहचान इसी के आधार पर की जाती है |जब एक उपन्यासकार अपनी ही रचना का पात्र बन जाता है तब वह उस भाषा को स्थानीय प्रभाव में रंग सकता है,उसे जीवंत बना सकता है और देशज शब्दावली ऐसी अवस्था में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है |रेणु के देशज भाषा प्रयोग में
ठेठ अंदाज़ देखने को मिलता है – “सहर पुरैनिया |- - - -यही है सहर पुरैनिया –पक्की सड़क ,हवा गाड़ी,घोड़ा गाड़ी और पक्का मकान |एक रत्ती चिनगी चिनगल जाये ,सहर पुरैनिया लूटल जाये का है ,बोलो तो ?x x x x x कलेजा धक् धक् करता है ,जिसके हाथ में गन्ही महतमा का झंडा रहता है उस से गाट बाबू चिकिहर बाबू टिकस नहीं मांगता है |- - - -सचमुच में रेलगाड़ी जै जै काली छै छै पैसा कहती हुई दौड़ती है |” 8
उपरोक्त उदाहरण में पूर्णियां शहर का परिचय देशज शब्दों का प्रयोग करते हुए रेणु ने दिया है |पुरैनिया ,चिनगल ,गन्ही महातम ,चिकिहर ,टिकस ,गाट बाबू ,जै जै, छै छै आदि शब्दों के माध्यम से रेणु ने पूर्ण देहाती माहौल की संरचना अपने पात्रों के माध्यम से करवाई है |अंग्रजी शब्दों का विकृत रूप देशज प्रयोग में देखते ही बनता है | देशज शब्दों में मोहकता लाने
के लिए रेणु ने ध्वन्यात्मक प्रयोग करते हुए औपन्यासिक सौन्दर्य में वृद्धि की है –“ताल पर एक साथ एक सहस्र राकस धरती पर दांत मारते –खच्चाक | पातालपुरी में कच्छप भगवान की पीठ
पर दांत बजते –खट्टक |पानी को ऊपर आना ही होगा |
ढाक ढक्कर –ढाक – ढक्कर |
फ़ोड़ भर्रा –रा आह |फोड़ भर्रा- रा –आ –ह |
भरी राति में खोदाय,पनिया छह छह छहाय|
नदिया देबो बहाय –य –य –
भोर में फेर देख्बो सुन्नरि कन्ना –
हेय आँख मारे ?
होय दांत मारे –रे-ए –ए खच्चाक |”9
उपर्युक्त उदाहरण में निरर्थक लगने वाली ध्वनियों के माध्यम से वातावरण की सर्जना की गयी है | खच्चाक ,खट्टाक,छह छह छहाय आदि ऐसी बाह्य ध्वनियाँ स्वाभाविक रूप से प्रयुक्त हुई हैं कि सम्पूर्ण प्रक्रिया जीवंत हो उठी है |
रेणु की ये विशेषता रही है कि कथाक्रम को आगे बढाने के लिए उसकी गतिमयता को उन्होंने विस्मृत नहीं होने दिया है|कहानी की गति का उन्होंने बहुत ध्यान रखा है –“एक बूढ़ा –वही कंठी वाला बूढ़ा ,बोला कि रात में ‘धमाधम पानी होगा |’हम समझ गए बुढ़वा साले ने कस कर गांजा चढ़ाया है –रहरह आकाश में सहस्तर तारे झलक रहे हैं ,कहीं एक चुटकी मेघ नहीं और कहता है धमाधम बरखा होगी |”10
वर्षा की संभावना को देखते हुए कथा की गति को बनाने का प्रयास किया
गया है |सहस्तर ,बरखा ,धमाधम ,रहरह –जैसे शब्दों का प्रयोग रेणु के भाषा कौशल को प्रकट करने में समर्थ है |
रेणु ने अपने उपन्यासों की आँचलिकता को स्थापित करने के लिए गृहीत ,देशी ,विदेशी सभी प्रकार के शब्दों में स्थानीय उच्चारण द्वारा अपने पात्रों के संवादों में जान फूँक दी है |इसके लिए उन्होंने देशज स्थानीय प्रयोग ,अंगरेजी शब्दों पर लोक प्रभाव ,हिन्दी उर्दू देशज शब्द और विभिन्न मिश्रित शब्दों का उपयुक्त समयानुसार भरपूर प्रयोग किया है |इस सन्दर्भ में इन सभी शब्दों को समीकृत रूप में चारों उपन्यासों के आधार पर देखा जा सकता है |उपन्यासों के लिए क्रमशः क्रम को संदर्भानुसार इस प्रकार वर्गीकृत किया जा सकता है –
प्रस्तुत
की
जा
रही
तालिका
में
चुनिन्दा
देशज
शब्दों
को
अकारादि
क्रम
में
रखा
गया
है
-
स्थानीय
देशज शब्द |
उपन्यास
- सन्दर्भ
पृष्ठ
|
हिन्दी
में
अर्थ
|
अगिया
|
2.23 |
आग |
अरना |
1.115 |
जंगली
|
अगोरकर
|
4.12
|
इकठ्ठा
करके
|
अदगोई-बदगोई
|
3.57 |
इधर –उधर
|
आँगन वाली
|
1.34
|
पत्नी
|
आरजाब्रत |
1.124 |
आर्याव्रत
|
आभरण |
2.339 |
आभूषण
|
आजगुबी |
4.2
|
अद्भुत
|
आतर |
4.60
|
इत्र |
इसकुलिया |
1.31
|
स्कूल
वाले
|
इजतिया |
2.12
|
इज्जत
|
इस्स्दुआ
|
4.28 |
प्रार्थना
/दुआ
|
इन्जोत
|
2.11
|
प्रकाश
|
उघिया
कर
|
1.314 |
उड़ा कर
|
उञ्चली |
2.49
|
ऊंची |
उस-खुश
|
3.77
|
लेटी अवस्था
में
कुछ
करते
रहना
|
उचरवाना |
4.47
|
पता करना
/उच्चारण
करवाना
|
ऊपरी आदमी
|
1.113 |
परदेसी
|
एतवार |
1.167 |
रविवार
|
एकराफ |
2.145 |
इलाके
में
|
एसराज |
4.32
|
सामान
/साज
के
लिए
|
ऐना |
1.258 |
आइना |
ओहार |
1.10
|
डोली का
पर्दा
|
ओरहना
|
2.91 |
एक प्रकार
का
गीत
|
कनिया
|
1.12
|
दुलहिन |
कठसर |
1.246 |
कंठ का
आभूषण |
कछ्मछ
|
2.94 |
कसमसाना
|
काक बाँझ
|
2.12
|
एकमात्र
संतान
|
खटाल |
1.290 |
घर |
खरछुताही |
2.92 |
छूतयुक्त |
खखुवाया |
4.15
|
क्रोधित
|
गोर |
1.46
|
समाधि
|
गपतगोल |
2.386 |
चन्दा
आदि
हज़म
कर
जाना
|
गेट्टा-सेट्टा |
4.26
|
बलिष्ठ
कामगार
|
गुहारना
|
2.91
|
प्रार्थना
करना
/पुकार
लगाना
|
घमाघम
|
1.245 |
गरमा गरम
|
घरघूमनी |
2.109 |
घर घर
घुमने
वाली
|
घोल्टा |
2.219 |
चरवाहे
का
चल्ताऊ
नाम
|
घुघनी
|
4.17
|
तला हुआ
अन्न
|
चाई |
1.264 |
चालाक
|
चंगेरी
|
3.36
|
अनाज रखने
का
बांस
से
बना
पात्र
|
चुलकोनी |
4.147 |
खुजली
|
चुरमुनी |
2.159 |
चिकनी
चुपड़ी
सुन्दरता
हेतु
|
छिपारनी
|
2.107 |
अपशब्द
‘छिनाल’
हेतु
प्रयुक्त
शब्द
|
छोड़िया |
2.49
|
युवतियाँ |
छुछुआने
|
3.73 |
ललचाये
हुए
इधर
उधर
घूमना
|
जब्बड
|
1.75 |
जबर्दस्त |
जलजल |
2.106 |
उत्तेजित
होना
|
जामिन
|
4.58 |
जमानत
|
जंतसार
|
4.36
|
चक्की
चलाते
हुए
गाना
|
झाँटा |
1.99 |
झपट्टा
मारना |
झम्पेत |
2.297 |
सहयोगी
/आश्रयदाता
|
झुना |
2.145 |
झुलसना
|
झंझटफाव
|
4.14 |
मुसीबत
वाला
कार्य |
टनमना |
1.229 |
खुशहाल
होना |
टेंग |
2.382 |
पैर |
टुकुर
टुकुर |
4.24 |
एकटक, निर्निमेष |
ठाड़ |
1.310 |
खड़ा रहना
|
ठकनकल |
2.148 |
पोर्टेबल
मशीन
( मिम्मलीय
प्रयोग
) |
ढेरा |
2.266 |
रस्सी
बाँटने
का
क्रॉस
|
ढोढा |
1.51 |
मोटा मुँह
वाला |
डिकरने |
1.295 |
मर्मान्तक
चीत्कार |
डोलडाल |
1.33 |
नित्य
क्रिया |
तालपता |
1.72 |
ठोर ठिकाना
|
तहवील |
2.255 |
स्पष्टता |
तुई तुकारी |
4.129 |
‘तू’
से
संबोधन |
तुम ताम |
4.129 |
अनादरसूचक,
तुम |
थीथा |
1.304 |
बर्तन
/ थाल
|
थेथ्थर |
2.377 |
जिद्दी
/ हठी |
थुकथुकाना |
2.184 |
थूक को
मुँह
में
घुमाना |
थुथना |
4.76 |
ठुड्डी
/ थोथना |
दलमल |
1.229 |
डगमगाना |
दरमाहा |
4.138 |
अनाज की
मासिक
देनदारी |
दुलकी |
2.34 |
द्रुतगति |
दुलरुवा |
2.39 |
प्यारा
/ प्रिय
/ ख़ास |
धनहर |
1.141 |
उपजाऊ |
धुनफीता
बंदी |
2.148 |
टेपरिकॉर्डर
( मिम्मलीय
प्रयोग
) |
धिरकार |
4.145 |
धिक्कार |
नजीक |
2.212 |
समीप |
नमरी |
1.26 |
सौ रूपए
का
नोट |
नलचिलम |
2.76 |
चरुट ( मिम्मलीय
प्रयोग
) |
नाछोड़बन्दा |
4.34 |
नहीं छोड़ने
वाला
बंदा |
नीस |
3.22 |
निमित्त
के
लिए |
पतनी |
1.63 |
छोटी ज़मींदारी |
पनपियाई |
2.104 |
सिंचाई
हेतु
पानी
का
कर |
परबी |
3.34 |
पैरबी
का
रूप |
पाँजी
पत्रा |
4.847 |
पंचांग |
फस्टी
नस्टी |
4.128 |
नृत्य
का
अभ्यास
|
फरोखतनामा
|
2.37
|
खरीदी
का
अधिकार
पत्र
|
फोक्सी
|
3.15
|
मांसल
नवयुवती
|
बतकुट्टी |
1.66 |
वाद- विवाद
|
बैस |
2.120 |
वयस /उम्र
|
बंगटा |
2.35
|
हलके आचरण
वाला
|
बुढ़मस
|
4.62 |
बुढापे
में
कलंकित
होना
|
भंडूल
|
2.331 |
बेकार
|
भरकुआ |
1.21
|
भोर का
तारा
|
मानुस
पीटना
|
3.74 |
शराबी
/मारने
वाला
|
मिछे मिछे
|
4.58
|
पीछे –पीछे
|
मोगलिया
बाँधी |
1.105 |
एक कड़ी
सज़ा
|
मुहलगुआगिरी
|
2.13 |
चापलूस
/खुशामदी
|
यात्लाय |
1.24
|
सूचना
/इतल्ला
|
युग पाकड़
|
4.41
|
धरोहर
/प्राचीन
|
रमना |
1.318
|
चारागाह
|
रनै बनै
|
2.182 |
अव्यवस्थित
|
रेडी |
2.41
|
रेडियो
|
रेसा-रेसी
|
4.120
|
रस्सा
कसी
|
ललमुनिया
|
1.40
|
अल्युमिनियम
|
लाबेलाब
|
2.150 |
पूरा भरा
हुआ
/लबालब
|
लुत्ती |
2.10
|
आग का
टुकड़ा
|
सठबरसा
|
1.32
|
साठबरस
का
बालिग़
|
सीसी सटकाना |
1.60
|
बोलती
बंद
करना
|
ससखाया |
4.121 |
तेल मालिश
करना
|
सुंगठी
|
4.11
|
सूखी हुई
मछली
|
हुलका
|
1.106
|
धावा बोलना
|
हूलमाल |
1.59
|
आन्दोलन
|
हुलहुलाना |
2.263 |
आगे बढ़ते
हुए
प्रेरित
करना
|
हेल डूब |
1.218 |
डूबना
उतराना
|
रेणु द्वारा प्रयुक्त उपर्युक्त अधिकांश देशज ,स्थानीय ,लोक व्यवहृत शब्द अलग अलग परिस्थितयों के अनुसार हुए हैं | इनमें से अनेक शब्द हिंदी की अन्य बोलियों में भी प्रयुक्त होते हैं जो सहज रूप से समाविष्ट हैं |
“हिन्दी के सभी आँचलिक उपन्यासकार आँचलिक उच्चारण के साथ अंचल की भाषा का प्रयोग करते हैं |इस भाषा प्रयोग का उपयुक्त उदाहरण परती :परिकथा है |”11
प्रकृति और परिवेश का वास्तविक चित्रण आँचलिकता की सबसे बड़ी शक्ति है | “मैला आंचल”जैसे प्रमुख उपन्यास को यह आरोप भी झेलना पड़ता है कि अत्यधिक देशज और स्थानीय बोली उसकी रसानुभूति के मार्ग को अवरुद्ध करती है |यह स्वान्तः सुखाय की प्रतीति तो कराता है किन्तु साहित्य को नीरस भी करता लगता है |साहित्यकार को आँचलिक शब्द प्रयोग में सावधानी की आवश्यकता होती है |रेणु के भाषा में प्रयुक्त सहज देशज शब्दावली बिल्कुल उन्हीं की लगती है यथा-“ एल्युमीनियम के लिए ललमुनिया’’12 का प्रयोग |
रेणु के पात्र यादृच्छिक रूप से मनमाने परिवर्तन करते हुए नियमित एवं दैनिक क्रिया कलाप वाले शब्द प्रयोग करते हैं | उनके द्वारा एक ही शब्द अलग- अलग प्रकार से व्यक्ति सापेक्ष प्रयोग किया जाता है | उनके पात्रों द्वारा अंग्रेजी,
बंगाली और अन्य शब्द प्रयोग भी मौलिक रूप से हुए हैं | रेणु ने एक पात्र विशेष ‘मिम्मल मामा’ के माध्यम से नए-नए शब्दों का गठन किया है | अर्द्ध पागल मिम्मल मामा द्वारा ध्वन्यात्मक, अर्थबोधक शब्दों का प्रयोग मनमाने ढंग से किन्तु सावधानी पूर्वक करवाया गया है और यही मनमाना शब्द प्रयोग रेणु के उपन्यासों को विशिष्ट बनाता है | भाषा को लेकर रेणु ने परम्परा से हटकर प्रयोग किये और भाषा को एक नवीन रूप दिया, साथ ही अपनी मौलिकता और सूझबूझ का परिचय दिया |
“रेणु ने खड़ी बोली के बोलचाल के साधारण शब्दों में ही मानक हिंदी तथा अंग्रेजी शब्दों के विकृत रूप को रखकर एक विशिष्ट चमत्कार उत्त्पन्न किया है | यहाँ पर ध्यातव्य कि “रोहतव टीशन में जो होमापाथी डागडर है” वाक्य में प्रयुक्त टीशन , होमापाथी, डागडर जैसे शब्दों को अलग कर दिया जाए तो भाषा का सम्पूर्ण चमत्कार और कथ्य का लक्ष्य समाप्त हो जाएगा | अतः रेणु ने इस नवीनता और मौलिकता को बनाए रखा है |”13
रेणु के विविध पात्र कुछ विशिष्ट शब्दों का ठीक उच्चारण नहीं करते किन्तु क्लिष्ट शब्दों का उच्चारण पूर्णतः कर लेते है | एक पात्र एक शब्द को जिस ढंग से उच्चरित करता है वहीं दूसरा पात्र उसमें परिवर्तन कर देता है जिसका आधार मात्र उसकी अशिक्षा या अज्ञानता हो सकती है तब असमंजस की स्थिति पैदा हो जाती है | रेणु ने अपने सभी उपन्यासों में जीवन्त भाषा का प्रयोग किया है | उनके विविध भाषा प्रयोगों में उपेक्षित पड़े शब्द भी सार्थक बन पड़े हैं | इसके लिए रेणु ने उदारता दिखाई है और यही उदारता उन्हें स्वच्छन्द प्रयोग की श्रेणी में रखती है | इस स्वच्छन्द प्रयोग में भी उन्होंने आवृत्तिपरक,
समानार्थी, विरोधी, अनावश्यक ध्वनि साम्य, विशेषण- विशेष्य सम्बन्ध, क्रियामूलक और अंग्रेजी के अनेक शब्दों द्वारा अपने आप को अपने उपन्यासों में अभिव्यक्त किया है | अपने आँचलिक उपन्यासों में सहज देशज प्रयोग द्वारा उपन्यासकार फणीश्वरनाथ रेणु ने हिंदी साहित्य जगत में दैदीप्यमान स्थान प्राप्त किया है |
निष्कर्ष : रेणु के उपन्यासों का अध्ययन करने के बाद ये ज्ञात होता है कि वे देशज शब्दावली का प्रयोग करते हुए वे अपने आँचलिक उपन्यासों की सर्जना में सफल रहे हैं | उनके उपन्यासों की भाषा में लोक जीवन के राग- रंग हमारे समक्ष प्रस्तुत हुए हैं | ग्रामीण जीवन की विविध समस्याओं ,ग्राम्य जीवन की स्वाभाविक परिस्थिति - परिवेश,लोक सभ्यता, लोक संस्कृति, लोक जीवन और अन्य पहलुओं को रेणु ने अपने उपन्यासों में जीवन्तता के साथ उकेरा है | रेणु ने अपने आप को अपने पात्रों के माध्यम से भाषा प्रयोग करते हुए जिया है | उन्होंने अपनी देशज शब्दावली के प्रयोग में तत्सम, विदेशी, मैथिली, बंगाली और पहाड़ के शब्दों की भी एक नवीन प्रस्तुति की है |उन्हें मिम्मलीय प्रयोग हेतु जाना जाता है | उनका शब्दों पर विशेष अधिकार है | शब्दों में ध्वन्यात्मकता के साथ अनेक स्थानीय शब्द प्रयोग में वे सिद्धहस्त हैं | इस सन्दर्भ में निर्मल वर्मा के रेणु की भाषा के बारे में कहे गए कथन का उल्लेख आवश्यक जान पड़ता है –“रेणु का स्थान यदि अपने पूर्ववर्ती और सामाजिक आँचलिक कथाकारों से अलग और विशिष्ट है तो वह इसमें है कि आँचलिक उनका सिर्फ परिवेश था, उसके भीतर बहती जीवनधारा स्वयं अपने अंचल की सीमाओं का उल्लंघन करती थी |रेणु का महत्त्व उनकी आँचलिकता में नहीं ,आँचलिकता के अतिक्रमण में निहित है |”14 रेणु के आँचलिक उपन्यासों की विधायिका देशज शब्दावली ही है | उपन्यासों में चित्रात्मकता, गतिमयता, ध्वन्यात्मकता, और स्थानीयता को लाने में रेणु अपने अद्भुत भाषाई प्रयोग से श्रेष्ठ उपन्यासकारों में स्थापित हुए हैं | उनके स्थानीय देशज प्रयोग उनके मनमाने एवं अक्खड़ प्रयोग के परिचायक हैं जो उन्हें विशिष्ट उपन्यासकार बनाता है | अतः यदि देशी शब्दावली का साक्षात् प्रतिबिम्ब देखना है तो फणीश्वर नाथ रेणु के उपन्यासों को बार बार पढ़ना ही होगा |
सन्दर्भ :
1. रेणु रचनावली ,भाग -2 ,मैला आँचल की भूमिका , राजकमल प्रकाशन,दिल्ली , पृ. - 22
2. रेणु रचनावली ,भाग -2 ,लोगर लुन्से को दिया गया साक्षात्कार ,राजकमल प्रकाशन ,दिल्ली ,पृ. - 442
3. धनञ्जय वर्मा –आलोचना –पूर्णांक 24 ,पृ. - 84
4. नामवर सिंह ,हिंदी के विकास में अपभ्रंश का योग ,साहित्य भवन लिमिटेड, इलाहाबाद, पृ. -7
5. सुनीति कुमार चाटुर्ज्या ,ओरिजिन एंड डेवलपमेंट ऑफ़ बंगाली लैंग्वेज ,कलकत्ता यूनिवर्सिटी प्रेस ,कलकत्ता ,पृ. -191-192.
6. कामता प्रसाद गुरु ,हिंदी व्याकरण ,वाणी प्रकाशन ,दिल्ली ,पृ. - 33
7. गंगा मासिक,जून1988 ,दिसम्बर 1957 में लखनऊ से यशपाल का रेणु को पत्र ,पृ. -24
8. फणीश्वरनाथ रेणु ,मैला आँचल,राजकमल पेपरबैक्स ,दिल्ली ,पृ. -90
9. फणीश्वरनाथ रेणु ,परती: परिकथा ,राजकमल प्रकाशन ,दिल्ली ,पृ -149
10. फणीश्वरनाथ रेणु, जुलूस, राजकमल प्रकाशन,दिल्ली, पृ. -132
11. नगीना जैन, आँचलिकता और हिंदी उपन्यास, अक्षर प्रकाशन, दिल्ली, पृ. -46
12. फणीश्वरनाथ रेणु, मैला आँचल, राजकमल पेपरबैक्स, दिल्ली, पृ. -40
13. नेमीचंद जैन, विवेक के रंग (सं ), भारतीय ज्ञानपीठ, वाराणसी, पृ. -218
14. निर्मल वर्मा ,कला का जोखिम, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, पृ. -63
एसोसिएट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, दयालबाग एजुकेशनल इंस्टीट्यूट, (डीम्ड टू बी यूनिवर्सिटी )दयालबाग, आगरा-5 (उत्तर प्रदेश)
अतिथि सम्पादक : मनीष रंजन
सम्पादन सहयोग : प्रवीण कुमार जोशी, मोहम्मद हुसैन डायर, मैना शर्मा और अभिनव सरोवा चित्रांकन : मीनाक्षी झा बनर्जी(पटना)
एक टिप्पणी भेजें