पश्चिमी राजस्थान के लोकगीतों में प्रेम
और विरह
- बालूदान
बारहठ
शोध-सार : राजस्थान
मूलतः सांस्कृतिक प्रदेश रहा हैं जहाँ लोगों ने गायन, वादन, नृत्य
आदि के माध्यम से न केवल अपनी विशिष्ट पहचान बनाई अपितु इनके माध्यम से प्रतिकूल
परिस्थितियों का सहजता से सामना भी किया। ऐसे लोकगीत जीवन के विविध पक्षों को
उद्घाटित करते हैं, इसलिए
इनका महत्व केवल मनोरंजन तक ही नहीं हैं अपितु लोक इतिहास के भी यह प्रमुख साधन
हैं। इनके माध्यम से हम सामाजिक रीति- रिवाजों, परम्पराओं
व जीवन के विविध पक्षों से अवगत होते हैं। प्रस्तुत शोध पत्र द्वितीयक स्रोतों पर
आधारित हैं जिसमें पश्चिमी राजस्थान के लोकगीतों में प्रेम और विरह का अध्ययन किया
गया हैं। इसमें इस क्षेत्र के लोकप्रिय कुछ प्रेम आख्यानों को शामिल करते हुए
समालोचित विषय को स्पष्ट करने का प्रयास किया गया हैं। साथ ही, सामान्य
गीतों में किस तरह से प्रेम व विरह को अभिव्यक्त किया हैं उसे भी स्पष्ट किया गया
हैं। सन्दर्भवश उन कारणों को भी इंगित किया गया हैं कि इस क्षेत्र में विरह गीत
रचे जाने के क्या कारण रहे हैं। शोध पत्र इस क्षेत्र व इस विषय पर पाठकों का ध्यान
आकर्षित कर नवीन शोध को प्रेरित करे यही इसका उद्देश्य हैं।
बीज शब्द : लोकगीत, प्रेम, विरह, नागजी-नागवंती, आमल-खींवजी, राणोकाछबो, प्रेम
आख्यान।\
मूल
आलेख :
प्रस्तावना–विशेषतः
पश्चिमी राजस्थान के लिए कहा जाता था कि There is only
culture not agriculture अर्थात् कि वहाँ केवल संस्कृति ही हैं, खेती
नहीं। बारिश के अभाव, जानलेवा जाड़े और तपते रेगिस्तान के होते
हुए भी, धान
चारे और पानी की कमी के बावजूद वहाँ सदियों तक जीवन पूर्णतया पशुओं पर ही आश्रित
रहा हैं। अतः अपने पशुधन को अकाल से बचाने के लिए वर्षों तक गोल जाना (अस्थायी रूप
से घर छोड़कर वर्षों क्षेत्र में जाना) वहाँ की घर-घर की कहानी रही हैं।ऊपर से अपनी
अवस्थिति के कारण यह क्षेत्र युद्धों काक्षेत्र भी रहा हैं। फिर वचनबद्धता, स्त्री
रक्षा, अपणायत, पशु
प्रेम और अपनी आन-बान की हर कीमत पर रक्षा यहाँ की संस्कृति रहीहैं। ऐसे में जान
देना और लेना यहाँ सदा ही सरल रहा हैं।
अतः पश्चिमी राजस्थान में प्रेम
जीवन जीने जितना ही कठिन रहा हैं। गोया कि, बॉलीवुड
की दुखांत प्रेम कहानियों का सन्दर्भ यह क्षेत्र ही रहा हो। यहाँ का प्रेमी कभी
युद्ध में रणखेत हो गया तो कभी अपनों द्वारा दिए तानो की भेंट चढ़ गया। कभी प्रकृति
ने उसकी पूर्णता को अधूरा बनाया तो कहीं गैर वफादारी की गफलत में कटार का शिकार
बना। ऐसी स्थिति में स्वाभाविक ही था कि यहाँ के लोक संगीत में प्रेम और विरह
मुख्य भूमिका में होते। वास्तव में यह लोकगीत राजस्थान की संस्कृति की अनुपम
विशेषता हैं जिनके साथ संपूर्ण समाज की पहचान व परम्परा, मान्यता
तथा मूल्य जुड़े हुए हैं। इसलिए इन गीतों का महत्व केवल मनोरंजन तक ही सीमित नहीं
हैं। अनेक बार यह लोकगीत लोक इतिहास के स्त्रोत के रूप में भी कार्य करते हैं। ऐसे
लोकगीत पश्चिमी राजस्थान में शादी-त्यौहार के समय
में तो गाए ही जाते हैं, खेती करते किसानों, पशु
चराते चरवाहों व पानी भरती महिलाओं द्वारा भी दैनिक जीवन में गाए व गुनगुनाये जाते
रहे हैं वहीं बुजुर्गों द्वारा रात्रिकालीन कथाओं, कहानियों
के रूप में यह समाजीकरण के भी स्त्रोत रहे हैं। ऐसे प्रेम व विरह पर आधारित कुछ
गीतों के पात्रों का वर्णन पश्चिमी राजस्थान की लोकसंस्कृति को समझने में उपयोगी
रहेगा-
नागजी-नागवंती-
अकाल
और पश्चिम राजस्थान का चोली-दामन का साथ हैं। इसलिए कहा भी गया हैं ‘‘पग पूगल, धड़
कोटडे़, बाहूज
बाड़मेर, जायो
लादे जोधपुर, ओ
ठावो जैसलमेर”। ऐसे
ही एक अकाल-का सामना आईजी ठाकुर के गांव को भी करना पड़ा। परिवार को जीवित रखने के
लिए पशुओं का जिंदा रहना आवश्यक था। अतः आईजी अपने पशु व परिजनों सहित सालासर की
तरफ ठाकुर धवलदेव के गांव गोल गये, जहाँ इन्द्र की
मेहरबानी थी। धवलदेव के एक जवान लड़का था जिसका नाम नागजी था जो अपनी खेती व पशुओं
की रक्षा के लिए खेतों में ही रहता था। उनकी भाभी उनके लिए नित्य भाता लेकर आती
थी। एक दिन आईजी जो कि धवलदेव के गांव गोल रूके हुए थे की बेटी नागवंती, नागजी
की भाभी के साथ भाता पहुँचानेउनके खेत जाती हैं। रास्ते में नागजी की भाभी नागजी
की सुंदरता व कद-काठी की तारीफ करती हैं तथा कहती हैं कि नागजी के स्नान करते समय
उनके शरीर से गिरी बुंदे कुमकुम हो जाती हैं। नागवंती इस बात पर विश्वास नहीं करती
जिस पर नागजी उनके साथ जाते हैं तथा सालासर तालाब किनारे नहाकर कुमकुम दिखाते हैं।
नागवंती प्रभावित होकर उनके प्रेमपाश में बंध जाती हैं और दोनों परिजनों से छिपकर
कभी खेतों में तो कभी तालाब किनारे मिलना आरंभ करते हैं। प्रेम में समय कैसे
गुजरता हैं, कब
पता चला हैं-
नागा नागर बेल, पसरे
पण फूलै नहीं।
बालपणे रो मेल, बिछडै
पण भूले नहीं।।
नागवंती
नागजी को संबोधित होकर कहती हैं कि हे नागजी! जैसे नागर बेल फैलती तो बहुत हैं
लेकिन उस पर फूल नहीं आते, उसी तरह बचपन का
प्रेम बिछड़ने पर भी भूलाया नहीं जा सकता हैं।
इस
तरह नागजी व नागवंती की प्रेम कहानी आगे बढ़ती हैं लेकिन एक मध्यरात्रि को दोनो
धवलदेव की नजरो से बच नहीं पाते। धवलदेव गुस्से में आग बबूला हो गये तथा उन्होंने
नागजी को मारने के लिए जब अपनी कटार निकाली तो नागवंती सारी गलती स्वयं पर लेते
हुए बोली कि-
बाला बाढे़ज बेल, चंपै
घाव न घालजे।
चंपै केड़ो दोस, चंपै
विलूंबी बेलड़ी।।
अर्थात्
नागजी तो चंपै के वृक्ष समान हैं जिससे
मैं अर्थात् नागवंती बेल के समान लिपट गई हूँ। इसमें चंपै का क्या दोष हैं, यदि
काटना ही हैं तो आप बेल को अर्थात् मुझे मारे न कि नागजी को। दोनों को जीवन तो मिल
गया परन्तु विरह-यात्रा आरंभ हो गई। लेकिन दोनों प्रीत के बंधन में बंधे रहे।
नागवंती ने नागजी से वादा किया था कि वह किसी और से विवाह नहीं करेगी तथा ऐसा
प्रयास होने पर घर से नागजी के पास आ जायेगी। नागवंती की शादी के दिन नागजी उनके
घर पहुँच गये। काफी प्रतीक्षा के पश्चात् भी जब नागवंती नहीं आई तो नागजी का धैर्य
जवाब दे गया तथा किसी अनहोनी की आशंका में कटार खाकर अपनी जान दे दी। उधर नागवंती
जब आई तो उसने नागजी को सोता हुआ देखा तो सोचा कि वे नाराज होकर सो रहे हैं। उसने
नागजी से कहा कि ऐसे ओढ कर सो रहे हो, बुलाने पर भी बोल
नहीं रहे हो लेकिन जब आपकी बात करने की इच्छा होगी, तब आप
मेरी गरज करोगे-
सूता खूंटी खांच
बैरी बतलाया बोलो नहीं।
कदैक पड़सी काम
नोरा करसौ नागजी।।
जब
नागवंती को वास्तविकता का भान हुआ तो वह द्रवित हो गई। विलाप करते हुए वह
कहती हैं-
कटारी कु नार, बेवतड़ी
बिरची नहीं।
नाग तणा घटमाय, लो
वाली लाजी नहीं।
हे
लोहे वाली कटार! कुनार के समान तुम्हे नागजी के शरीर में से चलते हुए थोडी भी दया
या लाज नहीं आई?
बहुत
भारी मन लिए व बिलखते हुए नागवंती अपने घर गई जहाँ उसके विवाह की तैयारी चल रही
थी। दूसरे दिन जब वह अपने ससुराल के रास्ते थी तब उसी सालासर के तालाब किनारे
नागजी की लाश को आग में जलते देख नागवंती की प्रीत पराकष्ठा पर पहुँच गई और उसने
अपनी इहलीला भी नागजी की चिता पर स्वाहा कर दी-
नागजी तूं मीणो
नेह, रात
दिवस सालै हिंयै।
किणने कहीयै तेह, नित-नित
सालै नागजी।।
टीपां टपटपीया बिन
बादल बिघुटीयां।
आंख्या आभ थयाहं, नेह
तुमीणै नागजी।।
नागा नवलौ नेह, जिण
तिण सूं कीजै नहीं।
लीजे उणरो छेह, आपतणौ
दीजै नहीं।।
अर्थात्
हे नागजी, तुम्हारा
मीठा नेह दिन रात मेरे हृदय में रहता है। यह नित प्रतिदिन की बात हैं, हमेशा अपना दर्द
मैं किससे साझा करूं। नागजी
तुम्हारी याद में गिर रहे आंसुओ से बिना बादल ही जमीन भीग रही है। मेरी आंखो में
तुम्हारे प्रति जो नेह है मानो उसी ने बादलों का रूप ले लिया हो। हे
नागजी, तुम्हारे
प्रति मेरा जो प्रेम है, यह और किसी से
नहीं किया जा सकता लेकिन तुमने स्नेह के बंधन को तोड़कर मेरे से पहले ही अपनी
इहलीला समाप्त कर दी है। आज भी
रेगिस्तान में नागजी और नागवंती का स्नेहबंधन जन-जन की ज़बान पर है मानो उन्हे अमरत्व
प्राप्त हो गया हो।
आभल-खींवजी-
राजस्थान
के प्रेमाख्यान में नाग-नागवंती के समान ही आभल-खिवंजी की प्रेम कथा भी अमर है।
चौटियाले गांव के खींवजी को उनकी भाभी ने अपनी बहिन आभल से विवाह करने की चुनौती
दी तो खींवजी ने इसे अपने जीवन-मरण का प्रश्न बना लिया। खींवजी आभल के गांव
वीसलपुर की यात्रा कर वहाँपहुँच गये। वे जब एक बाग में विश्राम कर रहे थे तभी वहाँ
आभल भी आई लेकिन किसी अनजान आदमी को देखकर वह वापिस चली गई। यह बात जब खींवजी को
पता चलती है तो वे अपने घोड़े सहित आभल के घर पहुँच गये। उसी समय घनघोर बारिश आंरभ
हो जाती है लेकिन आभल की प्रीत का सपना संजो रहे खींवजी को जैसे बारिश का भी भान न
हो। उधर पानी की परनाल के नीचे खड़े खींवजी को देखकर आभल ने प्रश्न किया कि एक धार
गिर रहे पानी के नीचे खड़े आप कौन हो और यहाँक्यों आये हो-
परनाल पाणी पडै़, धर
अम्बर अेक धार।
किसे गढ़ रा राजवी, कुण
हो राजकुमार।।
इस पर
खींवजी प्रत्युतर में अपने पिता के नाम के बारे में बताते हुए कहते हैं कि मैं आभल
को देखने के लिए आया हूँ-
पिता म्हारौ पर
परतापसी, गढ़ चोटयालो
गांव।
आभल निरखण आविया, नरपत
खींवजी नांव।
यह
विदित ही है कि स्नेह भाव जगाने के लिए एक छोटी मुलाकात भी पर्याप्त है। अतः उस
दिन से दोनों मोहबंध में बंधकर एक दूसरे के लिए व्याकुल रहने लगे। आभल खींवजी के
बिछड़न में इस तरह मुरझाने लगी जैसे बिना तेल के दीपक मुरझा जाता है। बेबस होकर आभल
ने धार्मिक यात्रा पर जाने का बहाना बनकार खींवजी से मिलना तय किया-
आभल उछाला घालिया
उंठा कसिया भार।
मिस करे जग दैव रो
जावै खीमे रे वार।।
इस
तरह जगन्नाथ के बहाने आभल खींवजी के गांव पहुँच जाती है। खींवजी अपनी भाभी जो कि
आभल की बहिन भी थी के साथ मिलने जाते हैं और दोनों प्रीत से पागल हो जाते हैं।
दोनों ने शीघ्र ही विवाह करना तय कर लिया। आभल को जगन्नाथ रवाना कर शीघ्र मिलने का
वादा कर खींवजी जब वापिस आ रहे थे तब उनके पुराने दुश्मनों ने उन्हें युद्ध के लिए
ललकारा। खींवजी उनसे वीरतापूर्वक लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हो गये। उधर, आभल
मंदिर से वापिस आते वक्त अपनी अधूरी नेहयात्रा को पूर्ण करने के सपने देखने लगती
है लेकिन होनी को कुछ और ही स्वीकार था। उसने जब खींवजी को चिता पर जलते पाया तो
स्वयं को भी अग्निस्नान से रोक नहीं पायी। आभल व खींवजी के प्रेम व विरह के बोल इस
तरह से जन-जन में प्रचलित हैं-
खींवा थूं खुरसाण, घण
तैगो तलवार रो।
मुखमल हंदे म्यान, खंवे
विलुंबीखींवजी।
थे मोती म्हे लाल, एकण
हार पिरोविया।
हाजर माला हाथ, पैरो
क्यूंनी खींवजी।।
म्हे भोजन थे थाल, अेकण
हाथ परोसिया।
हाजर झारी हाथ, जीमौ
क्यूंनी खींवजी।।
मिलवां री मन मायं, मोड़
बंधो मिलियो नहीं।
मिलजो मसाणो माय, खीरो
ऊपर खींवजी।।
राणो
काछबो -
पश्चिमी
राजस्थान का कोई शादी-ब्याह या गीतों की महफिल राणे-काछबे के बिना अधूरी ही
होती हैं। काछबे की सगाई एक पड़ियार लड़की
के साथ तय हो रखी थी। एक दिन वह लड़की अपनी भाभी के साथ नाडी पर पानी भरने गई। पानी
में तैरते कछुए को जो दिखने में कुरूप होता है भाभी ने अपनी ननद को मोसा देते हुए
कहा कि तुम्हारा होने वाला पति कछुए जैसा कुरूप है। इस बात पर ननद ने रूठ कर उस
लड़के से शादी करने से साफ मना कर दिया नहीं तो प्राण त्यागने की धमकी दी। इस पर
राणे काछबे से उसकी सगाई टूट गई। उसके बाद काछबे की सगाई सिसोदिया राजपूतों में तय
कर दी गई। संयोग ऐसा हुआ कि काछबे की बारात रास्ते में उसी गांव मेंरूकी जहाँ उसकी
पहले सगाई हो रखी थी। जब उसे पड़िहार लडकी ने दूल्हे के रूप में काछबे को देखा तो
पता चला कि उसकी भाभी ने उसके साथ छल किया है जबकि काछबो तो कामदेव के अवतार जैसा सुंदर
है। उसने काछबो से प्रणय निमित्त अपने घर चलने का आग्रह किया और कहा कि आप मेरे घर
के मेहमान बने तो आपकी देह को भी दूध से नहलाऊँ, अन्दर
मखमली बिस्तर की व्यवस्था करुँ-
काछब काछ घणीह, बसौ
तो बासौ म्हेदां।
दूध पखालू देह, पिजंस
ढलावूं पोढ़णे।।
इस पर काछबो जवाब देता हैं कि आप बड़े घर की बेटी हो और मैं तो जल के कछुए जैसा
हूँ। हमारा कोई मेल नहीं हैं अतः मैं आपके घर नहीं रूक सकता-
जब प्रेमी कई दिनोंके पश्चात आ रहा होता है तो प्रेयसी उसका झुक कर अभिवादन करना
चाहती है लेकिन लोकाचार से बचने के लिए
अपने गले का हार तोड देती है ताकि लोगों को लगे कि वह तो अपने मोती चुग रही है
जबकि वास्तव में तो वह प्रेमी का अभिवादन कर रही होती है। इसी तरह हाडो लोकगीत में
वर्णन आता है कि प्रेमी व प्रेयसी को रास्ते में रात हो जाती है तब प्रेमी पूछता
है कि अब क्या ओढेगें और क्या बिछायेंगे? तब उसकी प्रेयसी
कहती है कि आपकी प्रेयसी के इतने घने और लंबे बाल हैं कि आधे बिछायेंगे और आधे ओढ़
कर सो जायेंगे। इसी भांति विरह के भी अनेक लोकगीत हैं जिनमें कुरजां, कोयल, मोरियों
आदि जन-जन की जुबान पर ही रहते हैं। प्रकृति मनुष्य को जब अभाव में जीने को
अभ्यस्त कर देती है तब भावनाओं का अतिरेक व कल्पनाओं की यात्रा ही उसके दुःख को
दूर करती है। लंबे रेगिस्तान में यातायात साधनों के अभाव, संचार
साधनों की शून्यता व सुदूर सम्बन्धों के कारण नवविवाहित महिलाऐं वर्षों तक अपने
पीहर नहीं जा पाती थी तब उनकी पीड़ा को डोरो, झेडर, अरणी, करियो
आदि गीतों मे स्थान मिला है जो आज भी लड़की की पीहर से विदाई के समय गाए जाते हैं।
थे राजविया री धीह
म्हें पाणीं रा काछबा।
जोख न धातौ जीह, पर घर
बासौ नी लिया।।
उसने
अपनी भाभी को दुराशीषदिया तथा फिर से काछबे से प्रणय निमित्त निवेदन किया लेकिन
जिसके हाथों अपमानित हो रखा हो वहाँ मन मानने का प्रश्न ही नहीं। उसने जवाब दिया
कि तुम अब पीछे रह गयी हो, सिसोदिया लडकी
मेरे स्नेह में प्रतीक्षारत है, तुम्हारे साथ जोड़ा
बनना मुमकिन नहीं है-
पासो रहौ पड़िहार, हुवसे
मरै सिसोदिणी।
इण जोड़ै रे इकसारं, नहीं
परणीजै काछबो।।
उसके
उपरांत भी उसने निवेदन किया कि तुम मेरी सच्ची प्रीत को स्वीकार कर लो नहीं तो मैं
कुंआरी ही जिंदा जल जाऊंगी। बारात को आगे रवाना होती देख उसने जलने की पूरी तैयारी
कर ली तथा काछबे से इतना आग्रह किया कि वह जलती हुई चिता में एक लकड़ी तो डालकर आगे
बढ़े-
काछब पाछल फोर, कंवारी
काठे चढै़।
चढै तो चढ़ण दो र, बलती
मैं पूलो नाखसा।
इस पर
काछबे को उसकी प्रीत की परख हुई तथा उसके साथ परिणय में बंधकर प्रेम को अमर रूप
दिया।
अमरू
जोगण-विरधो चारण-
प्रीत
नफा नुकसान से तय नहीं होती, इसका जीवंत प्रमाण
हैं अमरू व विरधो की प्रेम कहानी। विरधो चारण जालौर-जिले के धरवाणा गांव का बड़ा
जागीरदार था जिसका अपना भरा-पूरा परिवार था। एक दिन उसके गांव में जोगियों का डेरा
आया जिसमें अमरू जोगण भी शामिल थी। अमरू विरधो के यहाँ फेरी मांगने जाती है और
दोनो पहली नजर में ही प्रीत से बंध जाते हैं। विरधो उसके डेरे जाता है और शादी का
प्रस्ताव रखता है। जोगियों में यह परम्परा होती है कि लड़की का पिता अपनी बेटी की
शादी से पहलेवर्षों तक लड़के को अपने साथ रखता है, उसकी
कमाई पर भी लडकी के बाप का ही अधिकार होता है। विरधो ने घर-परिवार, जागीरी
सब त्याग कर जोगियों के डेरे के साथ यायावर जीवन आरंभ कर दिया। वर्षों की तपस्या
के पश्चात् जाकर उसकी प्रीत पूर्ण होती है। न केवल संपूर्ण मारवाड़ में अपितु सिंध
क्षेत्र में भी अमरू जोगण व विरधो चारण की प्रेम कहानी को बडे़ चाव से सुना व गाया
जाता है। कालबेलिया व जोगी गायन, परम्परा में गाने
वाली महिलाएँ गांव-गांव घूमते हुए सामूहिक रूप से इसका गायन करती हैं। प्रेम में
गरीबी या परिस्थिति कोई निर्धारक नहीं होती, इसे
सिद्ध करने के लिए अमरू-विरधो की लोकोक्ति भी मारवाड़ में लोकप्रिय हैं।
इसी
तरह की अनेक प्रेम कहानियाँ पश्चिम राजस्थान की सांस्कृतिक पहचान बन कर उभरी हैं
जिनमें ढोला-मरवण, मूमल-महेन्द्रा, सैणी-बीजानंद, जलाल-बूझा, जेठवो-उजली, जमाल-सुदंरा
आदि प्रमुख हैं। स्थानाभाव के कारण इन सबका वर्णन यहाँ संभव नहीं लेकिन कुछ दोहों
पर दृष्टिपात आवश्यक है ताकि उनके नेह के गांभीर्य व गहनता को अनुभूत किया जा सके।
जेठवे की प्रतीक्षा में उसकी प्रेयसी उजली चारण कहती है कि कोई हिरण अपने समूह से
बिछड़ जाता है तो वह भी उस विरह को स्वीकार नहीं कर पाता तो मैं अपने प्रेमी से अलग
रहकर कैसे जिंदा रहूँ।
टोली सूं टलतांह
हिरणाा मन माठा हुवै।
वाल्हा बिछड़ताह
जीणो किण विध जेठवा।।
जब जेठवा
उजली को कहीं अन्यत्र शादी के लिए कहता है तो वह बोलती है कि कोई पक्षी भी यदि
किसी बड़े तालाब का पानी पी लेता है तो उसे फिर दूसरी छोटी नाडी सुहाती नहीं है, उसी
प्रकार मेरे पास भी अनेक प्रस्ताव हैं लेकिन मुझे आपके सिवाय कोई सुहाता नहीं है, मेरे
मन में तेरे प्रति जो खालीपन है, उसे देख सकता हो
तो देख-
जल पीधो जाडेह, पाबासर
रै पावटे।
नेनकियै नाडेह, जीव न
धापे जेठवा।।
आवै ओर अनेक, जा पर
मन जावै नहीं।
दीसे तो बिन देख
जागा सूनी अेठवा।।
इसी
तरह जमाल-सुंदरा की अधूरी प्रेम दास्तां भी सुनने वालो को द्रवित कर देती है-
जमाला जोगण भई, पेर
मृगे की खाल।
गली-गली में भटकती, करती
रही जमाल।
सुदंरा
कहती है कि जमाला मैं तेरी विरह वेदना में मृग की खाल पहनकर सन्यासिन हो गई हूँऔर
तेरा नाम पुकारती हुई गली-गली में भटक रही हूँ। प्रेमाख्यानों
के अतिरिक्त भी लोकगीतों व दोहों में प्रेम का अद्भुत तरीके से वर्णन देखने को
मिलता है-
साजन आवत देखकर, मैं
तोड़ दियो गलहार।
लोग जाणे हूँ मोती
चुगु, हूँ
झुक-झुक करू जवार।
निष्कर्ष :
स्पष्ट
ही हैं कि पश्चिम राजस्थान का लोकजीवन इन लोकगीतों के बिना अधूराहै। यह गीत वहाँ
की भाषा व भावों को व्यक्त करने के साधन हैं। यहाँ के लोगों की पीड़ा, दर्द, भक्ति, श्रृंगार, वीर, विरह
या प्रेम आदि सब कुछ इन लोकगीतों से समाहित है जिन्हें इस क्षेत्र में रहने वाले
ढोली, मगणियार, लंगा
आदि जातियां आवाज देते हैं। आज मनोरंजन व संचार के अतिरेक साधनो के बावजूद यहाँ के
वासियों के लिए यह परम्परागत लोकगीत ही मनोरंजन के सबसे प्रमुख साधनहैं। आजीविका
हेतु बाहर गये प्रवासियों को यह गीत ही अपनी जड़ों से जोड़े रखने का कार्य करतेहैं।
वास्तव में बाड़मेर, जैसलमेर की लोक संस्कृति को लोकगीतों के बिना समझना संभव नहीं
है।
सदंर्भ:
- नारायाण सिंह, सांदू, मारवाड़ के ग्र्राम गीत, जगदीश सिंह गहलोत शोध संस्थान, जोधपुर, 1993, पृष्ठ सं. 155
- किरण सिंघवी, केसरिया बालम राजस्थानी लोकगीत, राजस्थानी ग्रंथागार, जोधपुर, 2018, पृष्ठ सं. 122
- गोविन्द अग्रवाल, राजस्थान लोकगीत, लोक संस्कृति शोध संस्थान, चुरू, 2013, पृष्ठ सं. 55
- कानदान कल्पित, मुरधर म्हारो देस, विकास प्रकाशन, बीकानेर, 2010, पृष्ठ सं. 181
- किरण नाहटा, लोकगीतां रै लेखै, राजस्थानी साहित्य एवं संस्कृति जनहित प्रन्यास, बीकानेर, 2001, पृष्ठ सं. 87
- पुरूषोतमलाल मेनारिया, राजस्थानी लोकगीत, चिन्मय प्रकाशन, जयपुर, 1968, पृष्ठ सं. 101
- रामसिंह, सूर्यकरण पारीक एवं नरोत्तम स्वामी, राजस्थान के लोकगीत, राजस्थानी, ग्रंथागार, जोधपुर, 2019, पृष्ठ सं. 88
- लक्ष्मी कुमारी चुण्डावत, रजवाड़ी लोक गीत, श्याम प्रकाशन, जयपुर 2000,पृष्ठ सं. 111
- जैसलमेर संगीत रत्नाकार, मेहता रघुनाथ सिंह, राजस्थानी ग्रंथाकार जोधपुर, पृष्ठ सं. 131
- खेताराम माली, मारवाड़ी गीत संग्रह, राजस्थानी ग्रंथाकार, जोधपुर, पृष्ठ सं. 157
- बलदेव पुरोहित, जैसलमेर संगीत सुधा, राजस्थानी ग्रंथाकार, जोधपुर, पृष्ठ सं. 58
- विधाधारी देवी, असली मारवाड़ी गीत संग्रह, राजस्थानी ग्रंथाकार, जोधपुर, पृष्ठ सं. 98
बालूदान
बारहठ
सहायक
आचार्य, राजनीति विज्ञान विभाग, मोहनलालसुखाड़िया वि.वि. उदयपुर
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-41, अप्रैल-जून 2022 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक एवं जितेन्द्र यादव, चित्रांकन : सत्या सार्थ (पटना)
एक टिप्पणी भेजें