उत्तराखण्ड की महिलाओं को समर्पित अनूठी परम्परा: भिटौली
नीलम के समान स्वच्छ आकाश को स्पर्श करने वाले सफेद चांदी सी बर्फ से ढके हुए पर्वतों से घिरी हुई भूमि देवदार की बहु उपयोगी वृक्षों विविध जड़ी बूटियों विविध प्रकार के दुर्लभ एवं सुंदरता व उपयोगिता से परिपूर्ण जानवरों को आश्रय देने वाले निरंतर बहने वाले झरनों की कल कल की आवाज से जीवन में उल्लास का संगीत भरने वाले देवभूमि उत्तराखण्ड, प्रकृति द्वारा प्रदान किए गए अनुपम अद्वितीय प्राकृतिक सौंदर्य से विरागी व्यक्ति के सीने में राग की मधुर हिलोरे उत्पन्न कर देते हैं वही रागद्वेष से व्यथित व्यक्ति को आत्मिक शांति प्रदान कर अलौकिक शांति के समक्ष नतमस्तक कर देता है। देवभूमि उत्तराखण्डमें जितना अलौकिक प्राकृतिक सौंदर्य है उतना ही हृदय की गहराइयों से मन मस्तिष्क को प्रसन्न करने वाली अनूठी पारंपरिक परंपराऐं भी हैं।देव भूमि उत्तराखण्ड अपनी विविध व अनूठी परंपराओं के लिए विश्व प्रसिद्ध है। ऐसी ही एक प्रकार की अनूठी परंपरा जो उत्तराखण्ड में प्रसिद्ध है वह है भिटौली।
भिटौली का त्यौहार प्रकृति के पूर्ण रूप से नई नवेली दुल्हन की तरह श्रृंगार करने पर बसंत ऋतु के आगमन पर पवित्र माह जिसमें मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम का जन्म हुआ है तब मनाया जाता है। उत्तराखण्ड के पर्वतीय कुमाऊअंचल में विवाहित बेटियों को चैत्र माह में नए वस्त्र उपहार तथा मां के हाथों के बने हुए पकवान देने की स्नेहमयी परंपरा विद्यमान है जो भिटौली नाम से प्रसिद्ध है। चैत्र के महीने में विवाहित बहिनों को कल्यो भिटौली देनायहां की सांस्कृतिक परम्परा का एक अभिन्न अंग है। कुमाऊ में यह भेंट भाई के द्वारा बहिन के घर जाकर दी जाती है जबकि गढ़वाल में माता-पिता के द्वारा उसे अपने घर (मायके में) आमंत्रित करके दी जाती है।1इस संदर्भ में कहा जाता है कि भानदेव तथा गोरिधना के प्रसंग से भिटौली की कथा जुड़ी है।2
भिटौली का
भावात्मक संबंध
प्रकृति से
है। बसंत
ऋतु के
आगमन पर
उत्तराखण्ड में फूल देइ अथवा
फूल संक्रांति
जो चैत्र
माह की
संक्रांति को मनाई जाती है,
इसी दिन
हिंदू नव
वर्ष अर्थात
नव संवत्सर
प्रारंभ होता
है। इसी
दिन से
घर की
देहरी को
पूजने के
पश्चात
भिटौली देना प्रारंभ हो
जाता है।
चैत्र माह
को उत्तराखण्ड
में
भिटौली के महीने के रूप
में मनाया
जाता है,
लोक गायक
गोपाल बाबू
गोस्वामी जी
ने इस
गाने के
द्वारा भिटौली
परंपरा को
प्रस्तुत किया
है-
बाटी लागी
बारात चेली
बैठ डोली
में,
बाबू की
लाडली चेली
बैठ डोली
में,
तेरा बाजू
भिटौली लाला
बैठ डोली
में,
भिटौली जिसे
आला भी
कहा जाता
है का
शाब्दिक अर्थ
है
भेंट (मुलाकात) करना, जो किकुमाऊं
मंडल की
अन्यतम विशिष्ट
सांस्कृतिक परम्परा रही है- प्रत्येक
विवाहित लड़की
के मायके
वाले (भाई,
माता-पिता
या अन्य
परिजन) चैत्र
के महीने
में उसके
ससुराल जाकर
विवाहिता से
मुलाकात करते
हैं। इस
अवसर पर
वह अपनी
लड़की के
लिये घर
में बने
व्यंजन जैसे
खजूर, खीर,
मिठाई, फल
तथा वस्त्र
आदि लेकर
जाते हैं,साथ ही
हरे पत्ते
में शगुन
स्वरूप बिटिया
रोली कुमकुम
तथा चावल
भी भेजे
जाते हैं
जिन्हें पुत्री
अपने माथे
पर लगाती
हैं। शादी
के बाद
की पहली
भिटौली कन्या
को बैसाख
के महीने
में दी
जाती है
और उसके
बाद हर
वर्ष चैत्र
के महीने
में दी
जाती है।
लड़की चाहे
कितने ही
सम्पन्न परिवार
में क्यों
ना ब्याही
गई हो
उसे अपने
मायके से
आने वाली
“भिटौली” का हर
वर्ष बेसब्री
से इन्तजार
रहता है।
इस वार्षिक
सौगात में
उपहार स्वरूप
दी जाने
वाली वस्तुओं
के साथ
ही उसके
साथ जुड़ी
कई अदृश्य
शुभकामनाएं, आशीर्वाद और ढेर सारा
प्यार-दुलार
विवाहिता तक
पहुंच जाता
है।3प्रत्येक
विवाहित कन्या
को अपने
आत्मीय माता-पिता भाई-बहन का
चैत्र माह
के प्रथम
दिन से
ही अपने
घर आने
का इंतजार
होता है
तथा माता
पिता व
भाई भी
अपनी पुत्री
व बहन
से मिलने
के लिए
अत्यधिक उत्सुक
रहते हैं।
भाई
को भी
अपनी बहन
से मिलने
का इंतजार
होता हैकि
कब वह
बहन से
मिले और
कहता है-
एगो भिटौली
को महीना,
आस लागी
रे हुनली
मेरी बहना
,
अर्थात भिटौली
का महीना
आ गया
है और
मेरी बहन
मेरे आने
की राह
देख रही
होगी।
माता-पिता सदैव
अपनी प्यारी
पुत्री की
सुख समृद्धि
यश वैभव
ऐश्वर्य की
कामना करते
हैं। पुत्री
की सुख
समृद्धि के
लिए फूलों
के नन्हे
पौधे समृद्धि
के प्रति
स्वरूप भेजे
जाते हैं
।
ओहो, रितु
ऐगे हेरिफेरि
रितु रणमणी,
हेरि ऐछ
फेरि रितु
पलटी ऐछ।
ऊंचा डाना-
कानान में
कफुवा बासलो,
गैला-मैला
पातलों मे
नेवलि बासलि
।
ओ तु बासै कफुवा,
म्यार मैति
का देसा,
इजु की
नराई लागिया
चेली, वासा।
छाजा बैठि
धना आंसु
वे ढबकाली,
नालि- नालि
नेतर ढावि
आंचल भिजाली
।
इजू, दयोराणि-जेठानी का
भै आला
भिटोई, मैं
निरोलि को
इजू को
आलो भिटोई।4
वास्तव में
भिटौला आपसी
सौहार्द के
साथ-साथ
सामाजिक सौहार्द
का भी
प्रतीक है।पुत्री
के ससुराल
में भी
मायके से
आने वाले
इन पकवानों
को बांट
कर आपसी
सौहार्द बढ़ाया
जाता है। चैत्र
माह में
भिटौली लेकर
आने वाले
अतिथियों के
सम्मान में
भी विविध
प्रकार के
पकवान बनाए
जाते हैं।5
भाई-बहन
के अटूट
प्रेम से
जुड़ी अनेक
लोक गाथा
दंत कथाएं
प्रचलित हैं
गोरी धना
की दंतकथा
बहुत प्रसिद्ध
है भिटौली
प्रदेश की
लोक संस्कृति
का एक
अभिन्न अंग
है। इसके
साथ कई
दंतकथाएं और
लोक गीत
भी जुड़े
हुए हैं।
पहाड़ में
चैत्र माह
में यह
लोकगीत काफी
प्रचलित है।
वहीं ‘भै
भुखो-मैं
सिती’ नाम की
दंतकथा भी
काफी प्रचलित
है। कहा
जाता है
कि एक
बहन अपने
भाई के
भिटौली लेकर
आने के
इंतजार में
पहले बिना
सोए उसका
इंतजार करती
रही। लेकिन
जब देर
से भाई
पहुंचा, तब
तक उसे
नींद आ
गई और
वह गहरी
नींद में
सो गई।
भाई को
लगा कि
बहन काम
के बोझ
से थक
कर सोई
है, उसे
जगाकर नींद
में खलल
न डाला
जाए। उसने
भिटौली की
सामग्री बहन
के पास
रखी। अगले
दिन शनिवार
होने की
वजह से
वह परंपरा
के अनुसार
बहन के
घर रुक
नहीं सकता
था, और
आज की
तरह के
अन्य आवासीय
प्रबंध नहीं
थे, उसे
रात्रि से
पहले अपने
गांव भी
पहुंचना था,
इसलिए उसने
बहन को
प्रणाम किया
और घर
लौट आया।
बाद में
जागने पर
बहन को
जब पता
चला कि
भाई भिटौली
लेकर आया
था। इतनी
दूर से
आने की
वजह से
वह भूखा
भी होगा।
मैं सोई
रही और
मैंने भाई
को भूखे
ही लौटा
दिया। यह
सोच-सोच
कर वह
इतनी दुखी
हुई कि
‘भै भूखो-मैं सिती’ यानी भाई भूखा
रहा, और
मैं सोती
रही, कहते
हुए उसने
प्राण ही
त्याग दिए।
कहते हैं
कि वह
बहन अगले
जन्म में
वह ‘घुघुती’ नाम की पक्षी
बनी और
हर वर्ष
चैत्र माह
में ‘भै
भूखो-मैं
सिती’ की टोर
लगाती सुनाई
पड़ती है।
पहाड़ में
घुघुती पक्षी
को विवाहिताओं
के लिए
मायके की
याद दिलाने
वाला पक्षी
भी माना
जाता है।6
भिटौली के
त्यौहार का
वैज्ञानिक पहलू भी है भिटौली
का त्यौहार
चैत्र माह
में मनाया
जाता है
चैत्र माह
में वृक्ष
नव पल्लवित
शाखाओं से
आच्छादित होते
हैं खेतों
में नन्हे
पौधे भूमि
से संघर्ष
में विजय
प्राप्त कर
अंकुरित होकर
गर्व से
आकाश को
निहार रहे
होते हैं।
इस माह
में पुत्री
को ससुराल
में खाद्यान्न
की कमी
ना हो
इसलिए स्नेहमयी
माता पिता
के द्वारा
प्रिय पुत्री
को विभिन्न
तरह के
पकवान पूड़ी,
कचौड़ी, हलवा,
खीर आदि
स्वादिष्ठ व्यंजन बड़ी मात्रा भेंट
किए जाते
हैं साथ
ही 5 या
7 जोड़े नए
वस्त्र भी
पुत्री के
लिए भेंटस्वरूप
रखे जाते
हैं। पहले
ये सब
रिंगाल की
डलिया में
रखकर लड़की
के माता-पिता उसके
घर ले
जाकर उसे
प्रदान करते
थे। आधुनिक
जीवन शैली
के बदलने
से आज
पहाड़ों की
परंपरा और
संस्कृति को
बयां करने
वाली लोक
कथाओं, लोकगीतों
का अस्तित्व
खत्म हो
रहा है।
बृजमोहन जोशी
बताते हैं
कि जीवन
शैली के
बदलाव के
बाद भिटौली
की परंपरा
को भी
लोगों ने
भुला दिया
है या
रूप बदल
गया है
बताते हैं
कि पुराने
समय में
भिटौली देने
जब भाई
बहन के
ससुराल जाता
था तो
बहुत से
उपहार और
विशेषकर पकवान
लेकर जाता
था और
उसके बहन
के घर
पहुंचने पर
उत्सव सा
माहौल होता
था। उसके
लाए पकवान
पूरे गांव
में बांटे
जाते थे।
आजकल भिटौली
एक औपचारिकता
मात्र रह
गई है।
आजकल बेटियों
और बहनों
को भिटौली
के रूप
में मायके
पक्ष से
पैसे भेज
दिए जाते
हैं।7अब
कहीं-कहीं
तो ‘मन्यार्डर‘ (मनीआर्डर) व्यवस्था के
चलते लोग
अपनी बहन-बेटियों को
डाक के
माध्यम से
भिटौली भेजने
लगे हैं
और अधिकतर
डिजिटल पेमेण्ट
का सहारा
लेने लगे
हैं।
भिटौली से
जुड़ा सोरघाटी
पिथौरागढ़ का
एक मुख्य
उत्सव है
चैतोल। चैत्रमास
की पूर्णिमा
को यहॉ
‘चैतोलि पुन्यु‘ के नाम से
जाना जाता
है। इस
अवसर पर
लोक देवताओं
के डोले
कई गाँवो
में घुमाये
जाते हैं।
विण में
देवलसमेत देवता
की डोली
के साथ
यह परम्परा
है कि
यह देवता
आस-पास
के गॉवों
में स्थित
अपनी बाईस
बहिनों को
भिटौला देने
के लिए
जाता है।
इनमें नैनीसैनी
और घुन्सेरा
में जहाँ
चैतोल रुकती
है सातवीं-आठवीं से
लेकर चौदहवीं
सदी की
मूर्तियाँ हैं। संस्कृत में चैत्र
यात्रा महोत्सव
का विवरण
भाव प्रकाश
नामक पुस्तक
में मिलता
है। थरकोट
क्षेत्र में
केदार को
और भुरमुणी
क्षेत्र में
वैष्णवी देवी
को चैतोल
में घुमाया
जाता है।
गुमदेश (चम्पावत)
में चौमू
का चैतोल
चलता है।8
(
पिथौरागढ़ के
प्रसिद्ध चैतोल
पर्व का
चित्र )
चतुर्दशी के दिन सोर घाटी के 22 गांवों में चैतोल पर्व का श्री गणेश होता है। पिथौरागढ़ के जिला मुख्यालय से लगे हुए गांव में तपस्यूड़ा मंदिर में लोक देवता सेरादेओल की आराधना की जाती है। इस अवसर पर कुमाऊनी वाद्य यंत्र ढोल नगाड़ों के साथ भगवान श्री राधे बोल का छत्र निकलता है जयकारे करते हुए श्रद्धालु देवलाल गांव पहुंचते हैं। विभिन्न परिस्थितियों में भी यह छत्र रोका नहीं जाता है। क्षत्रिय जाति में मनाया जाने वाले इस त्योहार की मान्यता है कि भगवान शिव अपनी बहनों को चैत्र माह में भिटोला देने के लिए आते हैं। रात्रि में कासनी के मंदिर में विश्राम करके प्रातः काल 11बजे अपनी बहनों को भिटोला देकर वापस तपस्यूड़ा गांव आते हैं। देवलसमेत मंदिर से प्रारंभ होने वाला यह लोक देवता का डोला जैसे-जैसे अपनी मार्ग में आगे को बढ़ता जाता है वैसे वैसे श्रद्धालु जन श्रद्धा विश्वास एवं आस्था के साथ डोली के साथ जुड़ते जाते हैं ।
चैतोल पर्व
के पहले
दिन 11 गांवों
में लोक
देवता का
छत्र पहुंचता
है जिस
भी गांव
में यह
छत्र पहुंचता
है उस
गांव के
ग्रामीण डोली
के साथ
जुड़कर अन्य
गांवों में
पहुंचते हैं।अंतिम
गांव कासनी
पहुंचने तक
श्रद्धालुओं की संख्या हजार के
अंक को
स्पर्श करने
लगती है।
प्रत्येक गांव
में डोले
का अक्षत
फूल चावलों
तथा ढोल
नगाड़ों के
साथ भव्य
स्वागत किया
जाता है
। बाबा
सेरादेओल तथा माता भगवती
के जयकारों
से श्रद्धालु
जन वातावरण
को गुंजायमान
कर देते
हैं। यह
एक अलौकिक
एहसास होता
है। माता
के जयकारों
से आकाश
को गुंजायमान
कर के
प्रत्येक श्रद्धालु
अपनी मनोकामना
को पूर्ण
करने का
आशीर्वाद प्राप्त
करना चाहता
है ।9
कुमौड़ गांव
में भी
पारंपरिक मार्ग
अवरुद्ध होने
से मार्ग
बदल गया
है, अब
कुमौड़ हिलजात्रा
मैदान में
डोले का
स्वागत छात
और देवडांगर
का डोला
करता है.
पूजा अर्चना
के बाद
कुमौड़ गांव
का छत्र
और डोला
वापस गांव
की ओर
मुड़ जाता
है, रह
जाती है
बिण और
जाखनी गांव
की छात
और डोले
जो सिल्थाम
मार्ग से
घंटाकरन के
शिव मंदिर
जाता है.
जहां पर
लिन्ठूयड़ा गांव की छात और
भगवती का
डोला स्वागत
को तत्पर
रहता है,
इस मिलन
के दर्शन
को विशाल
जनसमूह उपस्थित
रहता है,अब बिंण
और जाखनी
की छात
का अगला
पड़ाव होता
है मल्ली
जाखनी का
देवलसमेत देवालय
जहां पर
दर्शनीय देवातरण
और पूजा
अर्चना होती
है यहां
पर जाखनी
गांव की
छात रुक
जाती है.
बिण की
छात दौला
गांव की
ओर बढ़
जाती है.
दौला गांव
में तीन
स्थानों पर
यही पूजा
अर्चना देवातरण
की प्रक्रिया
संपन्न की
जाती है.
इसके बाद
ए.पी.एस. तिराहे
से होकर
छात वापस
बिंण गांव
के कासनी
नामक देवलसमेत
मंदिर में
पहुंचती है.
यहीं पर
चैतोल यात्रा
पूरी होती
है और
छत्र विसर्जन
होता है.
यहां पर
युवक जलपान
की व्यवस्था
किये रहते
हैं आसपास
के स्वयंसेवक
रात्रि दस
बजे लगभग
झोड़ा चांचरी
खेल लगाकर
यात्रा को
यादगार बना
देते हैं
और अगले
वर्ष मिलने
के वचन
और यादों
के साथविदाई
लेते हैं
10 जिला मुख्यालय
में निवास
करने वाले
श्रद्धालु व्यक्ति भी बड़ी संख्या
में श्रद्धा
पूर्वक भाग
लेते हैं
तथा देवी
देवताओं का
आशीर्वाद प्राप्त
कर प्रत्येक
व्यक्ति की
सुख समृद्धि
तथा दीर्घायु
जीवन की
कामना की
जाती है।
वर्तमान में
सोशल मीडिया
के माध्यम
से भी
यह पर्व
देश-विदेश
में प्रसिद्धि
प्राप्त कर
चुका है।
क्षत्रिय जाति
द्वारा मनाया
जाने वाला
यह पर्व
युवाओं द्वारा
सात समंदर
दूर बैठे
हुए रिश्तेदारों
को भी
मोबाइल के
द्वारा दिखाया
जाता है
। मान्यता
है कि
इस पर्व
का इतिहास
सोर घाटी
में 900 साल
पुराना है
हालांकि इसका
कोई भी
लिखित इतिहास
प्राप्त नहीं
है परंतु
उत्तर कत्यूर
काल से
लोग इसे
मनाते हुए
आ रहे
हैं ।
निष्कर्षतः कहा
जा सकता
है किभिटौली
एक भावनात्मक
लगाव तो
है ही
वैज्ञानिक पहलुओं के अनुसार यह
एक आर्थिक
सुरक्षा भी
है।बहिन के
लिए भाई
के द्वारा
इस प्रकार
स्वयं उपहार
लेकर जाना
जहां भाई-बहिनों के
पावन स्नेह
सम्बन्धों का अभिव्यंजक होता है
वहीं ससुराल
में विवाहिता
की मान-मर्यादा का
अभिवर्धन भी।
सामाजिक स्तर
पर यह
इस तथ्य
का भी
संकेतक है
कि उत्तराखण्डी
समाज में
कन्या के
रूप में
नारी को
विशेष स्नेह
व सम्मान
प्राप्त रहा
है। इसमें
कन्या जन्म
को न
तो अवांछित
समझा जाता
है और
न उसे
माता-पिता
के ऊपर
भार स्वरूप
ही माना
जाता है।11
संदर्भ
ग्रंथ सूची
1. शर्मा डी0डी0ः 2013, उत्तराखण्ड
का लोकजीवन
एवं संस्कृति,
अंकित प्रकाशन,
पृष्ठ संख्या
229
2. डॉ0 प्रमिला जोशी,
प्रो0 पी0सी0 पांडे,
डॉ0 हेमचंद्र
दुबे ‘उत्तर‘ः कुमाऊँ की
सांस्कृतिक विरासत, देवभूमि प्रकाशन 2013,पृष्ठ
संख्या 70, 71
3. भिटौलीः अ ट्रैडीसन
आफ उत्तराखण्ड
दीपक तिवारी
https://www.hktbharat.com/bhitoli-tradition-uttrakhand-state-in-hindi-indian-culture%20.html
4. भिटौली उत्तराखण्ड की
एक विशिष्ठ
परंपरा पियूष
कोठारी 24 मार्च 2020 देवभूमि न्यूज
https://lovedevbhoomi.com/bhitoli-uttarakhand/
5. जोशी घनश्याम: उत्तराखण्ड
का राजनीतिक,
सामाजिक एवं
सांस्कृतिक इतिहास, प्रकाश बुक डिपो,
बरेली पृष्ठ
संख्या 191
6. “भिटोली” देवभूमि उत्तराखंड की
संस्कृति का
लोकपर्व,महत्व
एवं कथाः
उत्तराखण्ड दर्शन
https://www.uttarakhanddarshan.in/bhitauli/
7. चैत्र में देवभूमि
महिलाओं को
रहता है
भिटौली का
इंतजार अमर
उजाला 23 मार्च
2019
8. जोशी डा0 आशा:
पिथौरागढ़ जनपद
का इतिहास,
प्रथम संस्करण
2005, पृष्ठ संख्या 197
9. चैतोल पर्व: शिवरूपी
देवलसमेत देवता
अपनी 22 बहनों
को भिटौला
देने निकले
दैनिक जागरण
22 अप्रैल 2022
10. चैतोल पर्वः लोकदेवता
देवल समेत
सोरघाटी के
बाईस गांवों
की यात्रा
का वर्णन-
कुलदीप सिंह
महर
https://www.kafaltree.com/chaitol-festival-of-pithoragarh-uttarakhand/
11. शर्मा डी0डी0ः 2013, उत्तराखण्ड
का लोकजीवन
एवं संस्कृति,
अंकित प्रकाशन,
पृष्ठ संख्या
229
असिस्टेन्ट प्रोफेसर, इतिहास,
पं॰बद्री दत्त पाण्डे राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, बागेश्वर
एवं
डॉ॰ हेम चन्द्र पाण्डेय
असिस्टेन्ट प्रोफेसर, इतिहास,
एल0एस0एम0 राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, पिथौरागढ़
सम्पादक-द्वय : माणिक एवं जितेन्द्र यादव, चित्रांकन : सत्या सार्थ (पटना)
Uttrakhand ki sanskriti se judi esi paramparao ko sudhi pathako ke bich lane hetu abhar maam
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