- विवेकानन्द
‘मैला आँचल’ फणीश्वरनाथ रेणु के शुरुआती दौर का आँचलिक उपन्यास है। जिसमें बिहार के पूर्णिया जनपद के एक अत्यन्त शोषित, पीड़ित, वंचित, सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनीति, तथा शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े हुए गाँव की है जो मुख्य रूप से कई धुरों में बंटी हुईहै। इसी को ध्यान में रखते हुए कथा - क्षेत्र के रूप का निर्माण किया गया है। यह महज इत्तेफाक नहीं है कि उपन्यासकार ने रचना - प्रक्रिया से गुजरते हुए नए - नए शिल्पों का विधान तथा प्रयोग किया है। मैला आँचल उपन्यास में परंपरागत नायकत्व कानिषेध करते हुए एक अंचल विशेष की भौगोलिक स्थिति का तथ्यपरक रूप में चित्रण किया गया है। अंधविश्वास, शोषण, संघर्ष, निर्धनता, बीमारी, अशिक्षा आदि से ग्रस्त समाज है। राजेन्द्र प्रसाद मिश्र के शब्दों में कहे तो “मैला आँचल के 1954 ई. में प्रकाशित होने के बाद से फणीश्वरनाथ रेणु एक आँचलिक उपन्यासकार के रूप में प्रतिष्ठित हुए। जब भी उन्हें याद किया गया अथवा किया जाता है उनके साहित्य के पहले ‘आँचलिक’ विशेषण जोड़कर ही एक तरह से हिन्दी कथा प्रेमियों के लिए उनका नाम आँचलिकता का पर्याय बनकर रह गया है।”
उससे पहले भी कई साहित्यकार अपने उपन्यासों में आँचलिकता का प्रयोग कर चुके थे। लेकिन उनकी रचनाएं लोगों के बीच इस तरह से विख्यात या प्रभावित नहीं कर सकी थी। जैसे सन् 1926 ई में शिवपूजन सहाय की ‘देहाती दुनिया’, नागार्जुन के ‘बलचनमा’ सन् 1952 ई में, ‘मैला आँचल के बाद सन् 1955 में उदयशंकर भट्ट का ‘सागर लहरें और मनुष्य’, सन् 1956 में देवेन्द्र सत्यार्थी का ‘ब्रह्मपुत्र’, सन्1957 में रांगेय राघव का ‘कब तक पुकारूँ’ तथा ‘रेणु’ जी का ‘परती परिकथा’ सन् 1960 ई में राजेन्द्र अवस्थी का ‘जंगल के फूल’ तथा शैलेश मटियानी का ‘हौलदार’, सन् 1961 ई. में डॉ. रामदरश मिश्र का ‘पानी के प्राचीर’, अमृतलाल नागर का ‘सेठ बांकेमल’, बलभद्र ठाकुर का ‘आदित्यनाथ’ आदि उपन्यास प्रकाशित हुए। ‘मैला आँचल’ से पहले प्रकाशित ‘देहाती दुनिया’ अथवा ‘बलचनाम’ में वह बात नजर नहीं आती जिसकी वजह से ‘मैला आँचल’ को हिन्दी का प्रथम आँचलिक उपन्यास होने का श्रेय दिया जाता है।
‘मैला आँचल’ हिन्दी का पहला आँचलिक उपन्यास कहा जाता है। हिन्दी उपन्यासों को अगर सर्वश्रेष्ठ पाँच उपन्यासों की श्रेणी में रखें तो मैला आँचल के बिना वह श्रेणी पूर्ण नहीं होगी। अंग्रेजी-लेखक विट हार्ट ने अपने उपन्यास से आँचलिकता की शुरुआत की। यह अमेरिकी लेखक थे। इन्हीं ने सर्वप्रथम ‘अंचल’ शब्द का प्रयोग किया। अंचल एक भौगोलिक भूभाग है जो अपने में एक विशिष्टता लिए होता है। अंचल विशेष में, सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक, सांस्कृतिक परिस्थितियाँ आदि होती है। वहाँ की जलवायु और वहाँ के रीति रिवाज, भाषा शैली, लोकगीत, अंधविश्वास आदि समस्याओं और अन्य विचारों को जीवन के साहित्य में प्रमुख रूप से उभार कर सामने लाती है तो उसे अंचल विशेष से जुड़ी रचना कहते हैं।
इसमें कोई मुख्य नायक नहीं होता है। इसमें जो कुछ होता है वह अंचल विशेष ही होता है। पूर्णिया बिहार राज्य का जिला है। मिथिला के समीप के गाँव मेरीगंज का ‘मैला-आँचल’ में विशेष वर्णन किया गया है। इसमें जो कुछ भी आता है वह अंचल विशेष में आता है। इसका नायक मेरीगंज गाँव है। इसमें आँचलिक उपन्यास के केंद्र में कोई विशिष्ट समाज ‘अंचल’ होता है,
कोई व्यक्ति नहीं। इसमें डॉ. प्रशांत, कालीचरन, बालदेव, बावनदास आदि पात्र हैं। मगर इसमें से कोई भी नायक नहीं। यह पात्र उस सामाजिक जीवन के यथार्थ में सिर्फ एक भूमिका निभाते हैं।
फणीश्वरनाथ रेणु जब साहित्य में आए तो अपने अनुभवों के साथ - साथ यथार्थवादी दृष्टि भी लेकर आए थे। उन्हें ‘मैला आँचल’ के पहले रचना करने का अनुभव नहीं के बराबर था। जिस तरह से गांधीजी दक्षिण अफ्रीका से भारत आने के बाद यहाँ की परिस्थितियों को समझते रहे। घूम - घूम कर भारतीय जनता की आर्थिक - सामाजिक स्थिति को समझने की कोशिश करते रहे। तब जाकर राजनीति में प्रवेश किया। ठीक उसी तरह रेणु ने गाँव के ग्रामीण चरित्रों को,
गाँव की परिस्थितियों को अच्छे तरीके से जाना - समझा और तब जाकर एक नया शिल्प गढ़ा। छिटपुट उदाहरणों से आँचलिक उपन्यास की परम्परा ढूँढ़ी तो जा सकती है मगर आँचलिक उपन्यास होने के लिए जिन निष्कर्षों पर खरा उतरना पड़ता है, उसमें ‘मैला आँचल’ ही सफल हो पाया। रेणु ने अंचल को ही नायक के रूप में प्रतिष्ठित करने का सर्जनात्मक करतब दिखाया है। यह अकारण नहीं है कि बगैर किसी नायक के ही ‘मैला आँचल’ ने हिन्दी उपन्यास में जो मिसाल कायम की वह चकित और विस्मित करने वाली है।
“उन्होंने उपन्यास की नैरेटिव कथ्यात्मक परंपरा को तोड़ा तथा उसे अलग - अलग ‘एपिसोड’ में बांटा था, जिन्हें जोड़ने वाला धागा कथा का सूत्र नहीं, परिवेश का ऐसा लैंडस्केप था जो अपनी आत्यान्तिक लय में उपन्यास को लय और फार्म देता है।....रेणु जी पहले रूपकार थे जिन्होंने भारतीय उपन्यास के जातीय संभावनाओं की तलाश की थी...।” ‘रेणु’ के गाँव में बहुत सारे लोग भिन्न - भिन्न पेशों से आते हैं। रेणु मेरीगंज गाँव के जरिए विभिन्न पात्रों से हमारा साक्षात्कार कराते हैं। हम ‘मैला आँचल’ के पहले पृष्ठ पर नजर डालते हैं तो पाते हैं-
“गाँव में यह खबर बिजली की तरह फैल गई - मलेटरी ने बहरा चेथरू को गिरफ्फ कर लिया है और लोबिनलाल के कुएं से बाल्टी खोलकर ले गए हैं।”
सन् 1942 ई के आंदोलन का गाँव-पर क्या प्रभाव था। इसे लेकर गुअरटोली, राजपूतटोली, कायस्थटोली और तमामटोली का जिक्र भी हमें पहले पृष्ठ पर ही मिल जाता है। ग्रामीण लोगों की मानसिकता, गोरे सिपाहियों का आतंक, ग्रामीण सामाजिक, आर्थिक संरचना की झलक सबकुछ हमें शुरुआत से ही दिखने लगता है। इस कथन से कि “मछलियों की तरह लोगों की लाशें महीनों पड़ी रहीं, कौआ भी नहीं खा सकता था, मलेटरी का पहरा था।”
आम जनमानस की समझ का पता चलता है। मैला आँचल की भूमिका में ही रेणु ने यह घोषणा कर दी है कि “यह है मैला आँचल एक आँचलिक उपन्यास। कथानक है। पूर्णिया ....
इसमें फूल भी है,
शूल भी, धूल भी है, गुलाब भी, कीचड़ भी है, चंदन भी, सुंदरता भी है, कुरूपता भी मैं किसी से दामन बचाकर निकल नहीं पाया।”
यदि सवाल इसमें ‘सुंदरता’ और ‘कुरूपता’ दोनों का है तो नामकरण में उसे ‘मैला आँचल’ कहकर कुरूपता को ज्यादा क्यों उभारा गया है?
वस्तुतः वे अपने अंचल को पूरी तटस्थता के साथ दिखाते हैं किन्तु जानते हैं कि इस अविकसित और पिछड़े अंचल में मैलेपन की मात्रा सुंदरता की तुलना में कहीं ज्यादा है। “जहां बाह्य नैतिकता की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं वहीं आंतरिक नैतिकता के लिए छटपटाहट भी हैं। इस द्वन्द्व के कारण ही ‘मैला आँचल’ आँचलिक उपन्यास भी है और आधुनिक उपन्यास भी।” अतः ‘मैला आँचल’ की आँचलिकता एवं आधुनिकता को अलग - अलग करके नहीं देखा जा सकता है। कोई भी पात्र, चाहे वह कितना ही महत्वपूर्ण क्यों न हो, मैला आँचल का केन्द्रीय पात्र नहीं हो सकता है। रेणु ने तो मेरीगंज की कथा कही है। इसलिए जो भी उस गाँव में आता - जाता है, उससे संबंध रखता है उसको वे चित्रित करते हैं। वे पात्र शुरू से अंत तक पाठक का साथ नहीं निभाते हैं। मेरीगंज ग्राम का स्थान कोई भी गाँव ले सकता। ‘मैला आँचल’ जिस गाँव की छवि प्रस्तुत करता है वह किसी स्थान विशेष से सम्बद्ध होने पर भी देश के बड़े हिस्से का प्रतिनिधित्व करता है। यहाँ मैला आँचल की स्थानीय रंगत उसे आँचलिकता का दर्जा जरूर दे देती है मगर इससे इसका महत्त्व कम नहीं हो जाता। मैला आँचल को जब रेणु ने लिखा था तो उस समय उनके सामने आजाद भारत था। इस उपन्यास में देश को आजादी मिलने के कुछ वर्ष पहले एवं बाद की चर्चा की गई है। इसीलिए किसी खास विचारधारा या नैतिक मूल्यों का आग्रह लेकर वे नहीं चलते हैं। रेणु ने दिखलाया है कि कांग्रेस कैसे पूँजीपतियों एवं सामंतों का अड्डा बन चुकी है। बावनदास की हत्या करने वाले गाँधीवादी मूल्यों की हत्या कर-कर के कैसे कांग्रेस के शीर्षस्थ नेता बने फिर रहे हैं। इसको रेणु ने बखूबी चित्रित किया है। सोशलिस्ट पार्टी कैसे कांग्रेस के साजिश का शिकार बनती है। और कैसे पार्टी में अपराधियों का प्रवेश हो गया है। इसका जिक्र भी रेणु ने किया है। कैसे कालीचरण, वासुदेव को झूठी डकैती के केस में फँसा दिया जाता है।
रेणु के यहाँ दृश्यों का ध्वन्यात्मक प्रभाव एवं नाटकीयता भी ज्यादा सजीव रूप में निकलकर हमारे सामने आती है। ग्रामीण और लोकजीवन की झांकी का मैला आँचल में जिस समग्रता से कथा - संप्रेषण और लोक - संस्कृति का समन्वय है वह अन्यत्र दुर्लभ है। डॉ. देवेश ठाकुर लिखते हैं:- “अंचल के लोक व्यवहार, उत्सव पर्व संस्कृति, सामाजिक चेतना, राष्ट्रीयता और मानवीय संबंधों की झाँकी लोकगीतों के माध्यम से जितनी प्रभावात्मकता के साथ व्यक्त होती है, उतनी संभवतः भाषा - शैली के अन्य किसी माध्यम से नहीं।” महंथ सेवादास की मृत्यु होने पर उसे ‘संतोचित’ श्रद्धांजलि दी जाती है। ‘निरगुन’ गाकर। रामदास खंजड़ी बजाकर गाता हैं.....
“कँहवाँ से हंसा आओल,कहवाँ समाओल हो
राम....कवन लपटाओल हो राम। ”
कुछ वैसे ही विकटा गीत में भी व्यक्त हुआ है। इसी प्रकार ‘विदापत नाच’ का आयोजन हो या ‘चढली जवानी अंग - अंग फड़के’ से संबंधित कमली की प्रेम - कहानी का या फिर ग्यारवें परिच्छेद में फुलिया और खलासी जी के प्रेम का बहुत ही सरस एवं सजीव वर्णन करने वाला सारंग - सदाब्रज संबंधित लोकगाथा का सभी ने मैला आँचल के आँचलिक स्वरूप को निखारने में मदद दी है। इसके अलावा बालदेव को रात में नीद नहीं आने पर एवं डॉ. प्रशांत तथा ममता के बीच पत्राचार के माध्यम से रेणु पात्रों के मस्तिष्क में चल रहे उधेड़बुन को व्यंजित करते हैं। मैला आँचल का शिल्प ज्यादा विशिष्ट जान पड़ता है कि इसमें पात्र अपने नाम परिवेश या संबंधों के जरिए ही नहीं आते बल्कि कथा - सूत्र में सहायक होकर चले आते हैं। कभी - कभी बहुत देर तक संवाद चलता रहता है और पाठक को वक्ता का पता नहीं चलता है। अवलोकन बिन्दु की परिवर्तनीयता के साथ - साथ सिनेमाई तकनीक का प्रयोग भी इस उपन्यास के शिल्प को विशिष्ट बनाता है। उदाहरणार्थ - अड़तीसवें परिच्छदे में “जब दो दिन से बदली छाई हुई है। आसामन कभी साफ नहीं होता। दो तीन घंटों के लिए बरसा रुकी...बूँदा बाँदी हुई....।
आसाढ़ के बादल...।
कोठारिन लछमी दासिन को नींद नहीं आ रही है, राह तलाश रही है बालदेव को याद कर रही है। दूसरे दृश्य में उसी समय जब - जब बिजली चमकती है, मंगल भी याद करती है, कुसकुसाकर पूछती है – कौन। एक अन्य दृश्य में सोनाये यादव अपनी झोपड़ी से बारहमासा की तान छेड़ देता है। ठीक उसी वक्त......कमली को डाक्टर की याद आ रही है कहीं खिड़कियां खुली न हों। खिड़की के पास डाक्टर सोता है।....कल से बुखार है। सर्दी लग गई है।”
अलग - अलग दृश्यों को एक ही समय दिखाना और उसे जोड़ने के लिए आसाढ़ के बादल एवं रुक रुक कर हो रही बारिश का इस्तेमाल करना रेणु के शिल्पगत समझ को नई ऊँचाई प्रदान करता है। मैला आँचल की कहानी की असंबद्धता की बात कुछ आलोचकों ने की हैं,
लेकिन यह ध्यान रखना चाहिए कि जोतखी जी के ‘हगने’ और ‘महकने’ वाले प्रसंग से लेकर ‘लोबिनलाल’ के कुएं से बाल्टी खोलकर ले जाने वाले प्रसंग तक सभी पात्र पूरे संदर्भ के साथ आते हैं। और ऐसे संदर्भों में उपन्यासकार का एक विशेष उद्देश्य छुपा हुआ है। अतः इसे मैला आँचल के शिल्प की विशेषता समझा जाना चाहिए।
चरित्रों की भाषा उनके परिवेश उनकी परिस्थिति के अनुकूल होती हैं। दूसरी बात यह है कि रेणु की भाषा में आँचलिकता का इतना ज्यादा असर है कि सभी पाठकों को यह मैला आँचल में कनिया, मनसाधर, बोरखी, खम्हार, जीतिया, फुसरी, बिजे भँसजाना, नमरी, भूरुकुआ, किरिया जैसे शब्दों की एक लम्बी सूची है। जो सामान्य पाठक वर्ग के लिए समस्या पैदा करती है। इतना ही नहीं ऐसे शब्दों का अनुवाद न केवल कठिन है बल्कि भाव के मर जाने की समस्या उत्पन्न होने का भी खतरा है, यही आँचलिक उपन्यास की विशिष्टता एवं कमजोरी दोनों ही है। जाति व्यवस्था को लेकर वह कट्टरता या आग्रह है जो मैला आँचल में दिखाई पड़ता है। मैला आँचल का गाँव कायस्थ टोली, राजपूतटोली, तंत्रिमा टोली,
यादव टोली जैसे कई टोलियों में बँटा है।
“अब गाँव मे तीन प्रमुख दल हैं। कायस्थ, राजपूत और यादव। ब्राह्मण लोग अभी भी तृतीय शक्ति हैं। गाँव के अन्य जाति के लोग भी सुविधानुसार इन्हीं तीनों दलों में बंटे हुए हैं।” ब्राह्मणों एवं सभी जातियों के चित्रण के अलावा जाति - व्यवस्था को संपूर्णता से दिखाना उस समय लोगों की मानसिकता की ओर इशारा करना है। रेणु के यहाँ यौन नैतिकता पर खुलकर प्रश्न किए गए हैं। महँगू का यह कहना कि ‘कौन गाछ ऐसा है जिसमें हवा नहीं लगती है और पत्ता नहीं झड़ता है।’ रमपियारिया का संबंध अपने रिश्ते के चाचा गरमू से है तो वही लरसिंहदास राधिया कहारिन से फँसा हुआ हैं। फुलिया और सहदेव मिसिर के बीच आर्थिक जरूरतों से उपजा यौन संबंध है तो भउजिया का गीत सुनकर बेचैन हो उठने वाली कमला एवं डॉ. प्रशांत के बीच शारीरिक आवश्यकताओं के कारण काम - संबंध है।
‘मैला-आँचल’ में काम - संबंधों के केंद्र के रूप में यह चित्रण मिलता है। लछमी दासिन बूढ़े गिद्ध सेवादास की वासना का शिकार बनती है। रेणु ने ये तमाम दृश्य भोगपरक सामंती दृष्टि को ध्यान में रखकर दिया हैं जिसमें मंदिर से लेकर घर तक स्त्रियों को उत्पाद का वस्तु (भोग) के रूप में समझा जाता है। वहाँ के किसान गरीब लोग हैं जो किसी न किसी बाबू के कर्जदार हैं। रेणु ने लिखा है कि ‘गरीब और बेजमीन लोगों की हालत भी खम्हार के बैलों जैसी है। जिसके मुँह में जाली का (जाँब) लगा है। ‘गरीबी’ और जेहालत नामक कीटाणु भी दिखाई पड़ते हैं बल्कि नित नए - नए शोषण के तरकीब भी खोजे जाते हैं।’
सामाजिक स्तर में बहुत भिन्न एवं ऊपर विराजनेवाला विश्वनाथ प्रसाद भी अपनी पुत्री कमली के गर्भवती हो जाने की बात सोचकर विचलित हो जाता है। विश्वनाथ प्रसाद को मरजाद का इतना भय होता है कि वह स्वंय की नजरों में गिर जाता है। जहां तर्क की सीमा समाप्त होती है,
वहाँ भावना जैसी चीज भी अंधविश्वास एवं मरजाद की शक्ल में हमारे सामने आ जाती है। गणेश की मौसी को डाइन समझने के कारण हीरु के द्वारा उसे जान से मार देने की घटना हो या फिर बावनदास के आने की बात सुनकर गर्भवती स्त्रियों का छिप जाना सब इसी आज्ञनता के भिन्न-भिन्न पहलू हैं।
‘मैला आँचल’ आँचलिक उपन्यास अपनी श्रेष्ठता के साथ है। इसमें जीवन एवं समाज से जुड़ी कोई भी सूचना छोड़ी नहीं गई है। इसकी आँचलिकता इसकी सशक्तता के आड़े नहीं आती है। आजादी के बाद भारत में जितनी तरह की राजनीतिक सक्रिय थी,
वे यहाँ अपने असली रूप में मौजूद हैं। जितनी तरह की राजनीतिक पार्टियां थीं उनका भी प्रतिनिधित्व यहाँ दिखाया गया है। काली - कुरतीं के रूप में ‘संघ’ का भोले - भाले गाँववालों को हथियार संचालन का प्रशिक्षण देना उनके मंसूबे का सार्वजनिक प्रदर्शन ही तो है। संथालों का विद्रोह वर्तमान की नक्सल समस्या का आदि रूप ही तो है। आजादी के पूर्व की मांग ‘जमीन जोतने वालों की’ यदि मानली गई होती तो ‘मैला आँचल’ और भारत दोनों की आधी समस्या स्वतः समाप्त हो जाती। कितनी विडम्बना है कि खाने के लिए धान रोपते हुए संथालों का नरसंहार किया जाता है। वही विश्वनाथ प्रसाद पारबंगा का स्टेट ही खा जाते हैं और उनका कुछ नहीं होता है। सोशलिस्ट डाकू बना दिए जाते हैं।
इसी तरह नैतिकता के कितने दोहरे मानदंड हमारे समाज में है वह भी यहाँ देखे जा सकते हैं। फुलिया और सहदेव मिसिर एक ही साथ पकड़े जाते हैं। फुलिया और उसके बाप के लिए पंचायत बैठती है मगर सहदेव मिसिर आजाद घुमते हैं। पूरे गाँव में लक्ष्मी और बालदेव की मुलाकातों को लेकर तरह - तरह की खबर बनती है। वहीं कमली और प्रशांत को लेकर लोगों में कुछ कहने की हिम्मत नहीं हैं। हमारे ‘अंचल’ और ‘गाँव’ निरक्षरता के सागर में ‘यादव टोली’ को इस बात का घमण्ड है इन तमाम बातों के सामने ‘मैला आँचल’ निरुत्तर है। वहाँ सवाल ही सवाल हैं। जबाब आप ढूंढिए। आप इसे आँचलिक मानें या न मानें इसके महत्त्व पर कोई फर्क नहीं पड़ता है। इसने अपने ‘आँचल’ में एक नहीं, कई अंचलों को छिपा रखा है। मठ, अस्पताल, कचहरी इत्यादि भी तो यहाँ एक भिन्न अंचल ही हैं। ऐसे में निसन्देह रूप से मैला आँचल एक सम्पूर्ण आँचलिक उपन्यास ही हैं। ‘धूल’ और ‘फूल’ को समेटे।
संदर्भ :
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद मिश्र. (1989 ). आँचलिकता की कला और कथा साहित्य . नई दिल्ली :प्राची प्रकाशन. पृष्ठ संख्या:- 1
निर्मल वर्मा. (2005). कला का जोखिम. नई दिल्ली: राजकमलप्रकाशन .
फणीश्वरनाथ रेणु. (2008). मैला आँचल . नई दिल्ली : राजकमल प्रकाशन .पृष्ठ संख्या:-9
फणीश्वरनाथ रेणु. (2008). मैला आँचल . नई दिल्ली : राजकमल प्रकाशन .पृष्ठ संख्या:-9
फणीश्वरनाथ रेणु. (2008). मैला आँचल . नई दिल्ली : राजकमल प्रकाशन .पृष्ठ संख्या:-1
परमानंद श्रीवास्तवा. (2001 ). भारतीय उपन्यास की अवधारणा और मैला आँचल . इलाहाबाद : अभिव्यक्ति प्रकाशन .पृष्ठ संख्या:- 40
डॉ. । देवेश ठाकुर. (2007 ). मैला आँचल की रचना प्रक्रिया . नई दिल्ली : वाणी प्रकाशन .पृष्ठ संख्या:-78
फणीश्वरनाथ रेणु. (2008). मैला आँचल . नई दिल्ली : राजकमल प्रकाशन .पृष्ठ संख्या:-45
फणीश्वरनाथ रेणु. (2008). मैला आँचल . नई दिल्ली : राजकमल प्रकाशन .पृष्ठ संख्या: 182-184
फणीश्वरनाथ रेणु. (2008). मैला आँचल . नई दिल्ली : राजकमल प्रकाशन .पृष्ठ संख्या: 15
पी-एच. डी शोधार्थी, हिन्दी विभाग, त्रिपुरा विश्वविद्यालय, त्रिपुरा
vivekanandjnu@gmail.com
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) फणीश्वर नाथ रेणु विशेषांक, अंक-42, जून 2022, UGC Care Listed Issue
अतिथि सम्पादक : मनीष रंजन
सम्पादन सहयोग : प्रवीण कुमार जोशी, मोहम्मद हुसैन डायर, मैना शर्मा और अभिनव सरोवा चित्रांकन : मीनाक्षी झा बनर्जी(पटना)
एक टिप्पणी भेजें