बीज शब्द : आंचलिकता, सामाजिक-सांस्कृतिक, पृष्ठभूमि, लोक-जीवन, संस्कृति, पृष्ठभूमि, जनपद-विशेष, ग्रामीण, भाषा-संस्कृति, व्यावहारिक, अंधविश्वास, जादू-टोना,
शगुन-अपशगुन, लोकगीत, लोकोक्ति, लोक संस्कृति, लोकभाषा, लोकनायक, ढोल-खंजड़ी, लोकनृत्य, लोकनाटक, लोक विश्वास,पिछड़ेपन, दु:ख-दैन्य, साम्प्रदायिकता, अभाव,
अज्ञान, अन्धविश्वास, गरीबी, भूखमरी, ज़हालत, साम्प्रदायिकता।
मूल आलेख : ‘आंचलिकता’ शब्द अंग्रेजी के रीजनल (Regional) शब्द के पर्याय के रूप में हिन्दी में प्रयुक्त हुआ है। अंग्रेजी में ‘रीज़नल नावेल’ की सुस्थिर परंपरा रही है। जे. ए. कुडन के अनुसार “एक आंचलिक लेखक एक विशेष क्षेत्र पर अधिक ध्यान केन्द्रित करता है और उस क्षेत्र और वहाँ के निवासियों को अपनी कथा का आधार बनाता है।
हिन्दी कथा साहित्य में आंचलिकता की आधारशिला रखने वाले फणीश्वरनाथ 'रेणु' अप्रतिम गद्य-शिल्पी एवं ‘मैला आँचल’ उनका सर्वश्रेष्ठ उपन्यास है। मैला आँचल के प्रकाशन से हिन्दी कथा साहित्य में एक नई परम्परा का उत्थान होता है। हिंदी कथा साहित्य में आंचलिक उपन्यासों का आरंभ ‘रेणु’ के इसी उपन्यास से माना जाता है। ‘मैला आँचल’ ने जो अवधारणा स्थापित की, उसकी उत्कृष्टता को लांघ पाना फिर किसी साहित्यकार के लिए संभव नहीं हो पाया एवं अनंतकाल तक इसकी संभावना भी नहीं प्रतीत होती है। इस उपन्यास का महत्व मात्र आंचलिक उपन्यास होने तक ही नहीं सीमित है, बल्कि इसे क्लासिक उपन्यास का स्थान प्राप्त भी है। प्रेमचंद के उपन्यास गोदान के पश्चात अगर हिन्दी का कोई श्रेष्ठ उपन्यास है तो वह है – मैला आँचल। ‘मैला आँचल’ उत्तर-पूर्वी बिहार के एक अति पिछड़े ग्रामीण अंचल को पृष्ठभूमि के आधार पर रेणु ने उस अंचल विशेष के सुख-दुख, रहन-सहन, लोक-जीवन एवं संस्कृति का अत्यंत कुशलता से सूक्ष्म एवं कलात्मक चित्रांकन प्रस्तुत करते है, इसमें वहाँ के जन-जीवन का जिससे वे स्वयं भी घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए थे, अत्यन्त जीवन्त और मुखर चित्रण किया है। ‘रेणु’ के पात्र देश के आजादी के सात दशक पश्चात भी सजीव हो उठते है और सामान्यतः आज भी भारतीय ग्रामीण अंचल विशेष में प्रायःमिल जाते है, यह आजाद भारत की सबसे बड़ी विडम्बना का द्योतक है।
आंचलिक उपन्यास के महत्त्व को परिभाषित करते हुए प्रसिद्ध आलोचक डॉ. रामदरश मिश्र कहते हैं,
“जैसे नई कविता ने सच्चाई से भोगे हुए अनुभव की भट्टी में तपे हुए पलों को व्यंजित करने में ही कविता की सुन्दरता देखी, वैसे ही उपन्यासों के क्षेत्र में आंचलिक उपन्यासों ने अनुभवहीन सामान्य या विराट के पीछे न दौडकर अनुभव की सीमा में आनेवाले अंचल विशेष को उपन्यास का क्षेत्र बनाया। आंचलिक उपन्यासकार जनपद-विशेष के बीच जीया होता है या कम से कम समीपी दृष्टा होता है। यह विश्वास के साथ वहाँ के पात्रों, वहाँ की समस्याओं, वहाँ के संबंधों, वहाँ के प्राकृतिक और सामाजिक परिवेश के समग्र रूपों, परंपराओं और प्रगति को अंकित कर सकता है, क्योंकि उसने उसे अनुभूति में उतारा है। आंचलिक उपन्यास लिखना मानों ह्रदय में किसी प्रदेश की कसमसाती हुई जीवन अनुभूति को वाणी देने का अनिवार्य प्रयास है। आंचलिक कथाकार को युग के जटिल जीवन बोध का नहीं, इसीलिए वह आज भी पिछड़े हुए जनपदों के सरल, निश्छल जीवन की ओर भागने में सुगमता अनुभव करता है, ऐसा कहना असत्य होगा।”
हिन्दी साहित्य में आंचलिकता शब्द का सर्वप्रथम चर्चा 1954ई. में ‘मैला आँचल’ के प्रकाशन से प्रारम्भ होती है, हालांकि इस शब्द की चर्चा 1953 ई. में क्षेत्रीय पत्रिका में मैला आँचल उपन्यास के कुछ अंश प्रकाशित होने के बाद प्रारम्भ हो गई थी। ‘आंचलिक’ शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग भी संभवतः ‘रेणु’ ने ही किया। रेणु मैला आँचल उपन्यास में कहते है - “यह है मैला आँचल, एक आंचलिक उपन्यास। कथांचल है–‘पूर्णिया’। पूर्णिया बिहार राज्य का एक जिला। …. मैंने इसके एक हिस्से के एक ही गाँव को पिछड़े गाँवों का प्रतीक मानकर इस किताब का कथा क्षेत्र बनाया है।” मैला आँचल’ का प्रकाशन हिंदी गद्य में एक परिघटना थी। प्रेमचंद की गोदान के बाद पहली बार किसी उपन्यास को इस तरह की चौतरफा प्रसिद्धि मिली। रेणु जी जीवन के भोगे हुए यथार्थ का सजीव चित्रण करने वाले प्रेमचंद की परंपरा के साहित्यकार थे। ‘रेणु’ प्रेमचंद के पश्चात भारतीय ग्रामीण जीवन को उसकी समग्रता में चित्रित करने वाले सशक्त उपन्यासकार है।
आंचलिकता की इस अवधारणा ने कथा साहित्य में ग्रामीण भाषा-संस्कृति एवं लोक जीवन को समाज के केन्द्र में स्थापित कर दिया। लोकगीत, लोकोक्ति, लोक संस्कृति, लोकभाषा एवं लोकनायक की इस अवधारणा ने अंचल विशेष को ही नायक बना दिया। मैला आँचल हिन्दी साहित्य के सर्वश्रेष्ठ एवं सशक्त आंचलिक उपन्यासों में से एक है जिसमें तत्कालीन भारत में स्वतन्त्रता के पहले और उसके बाद के एक अति पिछड़ें ग्रामीण अंचल में घटित वास्तविक घटनाओं का मार्मिक एवं चित्रण प्रस्तुत किया गया है। प्रसिद्ध भाषाविद डॉ. धीरेन्द्र वर्मा के अनुसार - ‘हिंदी साहित्य कोश में कहा है कि ‘लेखक द्वारा अपनी रचना में आंचलिकता की सिद्धि के लिए स्थानीय दृश्यों, प्रकृति, जलवायु, त्योहार, लोकगीत, बातचीत का विशिष्ट ढंग, मुहावरे, लोकोक्तियाँ, भाषा के उच्चारण की विकृतियाँ, लोगों की स्वभावगत व व्यवहारगत विशेषताएँ, उनका अपना रोमांस, नैतिक मान्यताओं आदि का समावेश बड़ी सतर्कता और सावधानी से किया जाता है।’
‘अंचल’ शब्द का अर्थ किसी ऐसे भूखंड, प्रांत या क्षेत्र विशेष से है जिसकी अपनी सतह की एक विशिष्ट भौगोलिक स्थिति, संस्कृति, लोक-जीवन एवं भाषा हो। अपनी विशिष्ट पहचान के कारण वहाँ का जन-जीवन अन्य सम्पूर्ण मानव जाति से एक अलग पहचान स्थापित करती है। अंचल एक अति पिछड़ा गाँव, सुदूर स्थिति कस्बा हो सकता है जहाँ के निवासी आधुनिक भौतिकवादी विकास से पूर्णतः अनभिज्ञ/वंचित होते है। भारतीय संस्कृति विभिन्न प्रकार के आंचलिक संस्कृतियों से परिपूर्ण है जिनकी अपनी एक विशिष्ट सामाजिक संरचना और संस्कार होते है। इनके रीति-रिवाज़, सामाजिक संबंध, निवास, व्यवसाय, मनोरंजन आदि विभिन्न क्रिया-कलाप सामान्य जनता से भिन्न होते है। समाज में अनेक प्रकार की रूढ़ियाँ, अंधविश्वास, जादू-टोना, शगुन-अपशगुन सामान्य रूपों में पाएँ जाते है जो समकालीन परिदृश्य में कमोवेश वैसे ही मिल जाते है।
हिन्दी साहित्यकोश के अनुसार, “आंचलिक उपन्यासों में व्यावहारिक रूप से स्थानीय दृश्यों, प्रकृति, जलवायु, त्योहार, लोकगीत, बातचीत की विशिष्टता का ढंग मुहावरे, लोकोक्तियां, भाषा,
उच्चारण की विकृतियाँ, लोगों के स्वभाव व व्यवहारगत विशेषताएं, उनका अपना रोमांस, नैतिक मान्यताएं आदि का समावेश बड़ी सावधानी तथा सतर्कतापूर्ण ढंग से किया जाना अपेक्षित होता है। आंचलिक उपन्यास किसी सीमित क्षेत्र विशेष के दायरे में लिखी जाती है, किन्तु उसका प्रभाव व्यापक होता है।” आंचलिकता के संबंध कुछ विद्वानों के मत दृष्टव्य है।
मारिया एडवर्थ के अनुसार, “जिस उपन्यास में पात्रों का समग्र जीवन उस अंचल से प्रभावित होता है तथा जिसमें अंचल अपनी परम्पराओं के कारण अन्य अंचलों से भिन्न प्रतीत होता है, वह आंचलिक उपन्यास है।” कुछ इसी प्रकार डॉ.गोबिंद त्रिगुणायत के अनुसार आंचलिक उपन्यास, “किसी अंचल विशेष की भौगोलिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक विशेषताओं का अंकन करना ही आंचलिक उपन्यास का मुख्य उद्देश्य माना जाता है।” डॉ.रामदरश मिश्र का भी मानना है, “आंचलिक उपन्यास मानो ह्रदय में किसी प्रदेश की कसमसाती हुई जीवनानुभूति को वाणी देने का अनिवार्य प्रयास है....आंचलिक उपन्यास अंचल के समग्र जीवन का उपन्यास है।”
रेणु ने आँचलिकता की ख़ुशबू से सराबोर “मैला आँचल” जैसे अद्भुत उपन्यास की रचना करके लोक की मिट्टी में अपनी प्रतिभा से भारतीय साहित्य को समृद्ध किया है। ‘रेणु’ साहित्य रचनाकर्म के साथ-साथ समकालीन सामाजिक आंदोलनों में सक्रिय भूमिका निभाने वाले महान साहित्यकार थे। मैला आँचल का कथानायक एक युवा डॉक्टर है जो अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद एक पिछड़े गाँव को अपने कार्य-क्षेत्र के रूप में चुनता है तथा इसी क्रम में ग्रामीण जीवन के पिछड़ेपन, दु:ख-दैन्य, अभाव, अज्ञान, अन्धविश्वास के साथ-साथ तरह-तरह के सामाजिक शोषण-चक्र में फँसी हुई जनता की पीड़ाओं और संघर्षों से भी उसका साक्षात्कार होता है। कथा का अन्त इस आशामय संकेत के साथ होता है कि युगों से सोई हुई ग्राम-चेतना तेजी से जाग रही है।
मैला आँचल को हिन्दी का प्रथम श्रेष्ठ आंचलिक उपन्यास माना जाता है। मेरीगंज प्रकृति के वरदान से परिपूर्ण है,
भारत के अन्य गाँवों की तरह इसकी अपनी एक अलग विशेषता है, यहाँ पोस्ट ऑफिस, डिस्पेंसरी तथा कुछ ही दूरी पर रेलवे स्टेशन भी है जो कि तत्कालीन भारत के ग्रामीण क्षेत्र के लिए आधुनिक विकास का द्योतक था, लेकिन फिर भी यह गाँव बाहरी दुनिया से अनभिज्ञ अपनी प्रकृति में अलहदा मदमस्त था। गाँव का क्षेत्रफल बड़ा है और सभी जातियों के अपनी अलग-अलग टोलियाँ थी जो समाज में जाति-प्रथा की कट्टरता का सशक्त प्रमाण है। निम्नवर्गीय संथालों को गाँव से अलग समझा जाता था। कायस्थ और राजपूत सम्पन्न थे, दोनों वर्गों मिलकर पूरे गाँव का यथा संभव शोषण करते रहते हैं। अशिक्षा के प्रकोप से ग्रसित ग्रामीण जनता गरीबी, अंधविश्वास और पिछड़ेपन का शिकार है, यही स्थिति कमोवेश आज भी दिखाई पड़ता है। इस गाँव में रेणु इतना रम गए कि इस उपन्यास की भूमिका में वह लिखते है, “इसमें फूल भी है, शूल भी है, धुल भी है, गुलाल भी है, कीचड़ भी है, चंदन भी है सुन्दरता भी है कुरूपता भी है। मैं किसी से भी दामन बचाकर निकल नहीं पाया।” मैला आंचल में लोक का उत्सव भी है, दारुण भी है, करुणा भी है, ईर्ष्या भी। मैला आंचल हिंदी साहित्य का उत्सव है। अगर प्रेमचंद लोक की शुरुआत हैं तो रेणु उसकी चरम परिणीत। उपन्यास आंचलिक है, यूं कहें तो उपन्यास परंपरा में मील का पत्थर। आंचलिक होने से तात्पर्य है कि एक पूरे क्षेत्र या अंचल की सचित्र कहानी है जिसमें वहाँ के रहने वाले लोगों से लेकर, गरीबी, अमीरी, ज़हालत,दर्द, दुःख सुख सबको समेट कर परोस दिया जाता है, बिना कुछ जोड़े या घटाएँ। लोक में भावुकता है, विश्वास है, लोक में तकलीफ़ है, मस्ती है, लोक में भय है, ज़िंदादिली है। उसी लोक को रेणु ने मैला आंचल में समेट दिया है।
कथाशिल्पी फणीश्वरनाथ रेणु की इस युगान्तरकारी औपन्यासिक कृति में कथाशिल्प के साथ-साथ भाषा और शैली का विलक्षण सामंजस्य है जो जितना सहज-स्वाभाविक है,
उतना ही प्रभावकारी और मोहक भी। ग्रामीण अंचल की ध्वनियों और धूसर लैंडस्केप्स से सम्पन्न यह उपन्यास हिन्दी कथा-जगत में पिछले कई दशकों से एक क्लासिक रचना के रूप में स्थापित है। उपन्यास का जो गुण है, वही कमी भी है। उपन्यास बिखरा है, समेटना आसान काम नहीं है, लेकिन यही तो गुण भी है कि गाँव का कोई भी वर्ग मनुष्य से लेकर पशु-पक्षी, नदी-नाले, पेड़- पौधे भी रेणु से शिकायत नहीं कर सकते कि "मैं छूट गया हूँ"। भाषा में गांव की मिट्टी की खुशबू है, जैसे वाइस चेयरमैन भैंसचरमन हो जाता है।
रेणु के कथा साहित्य को देशज समाज की स्थापना का श्रेय प्राप्त है जिनमें 'मैला आंचल' के साथ-साथ अन्य उपन्यास और कहानियों के पात्रों की जीवंतता, सरलता, निश्छलता और सहज अनुराग हिंदी कथा साहित्य में संभवतः पहली बार उद्घाटित हुआ है। रेणु ने लोकगीत, ढोल-खंजड़ी, लोकनृत्य, लोकनाटक, लोक विश्वास और किंवदंतियों के सहारे बिहार के कोसी अंचल की जो संगीतमय और जीती-जागती तस्वीर खींची है, उससे गुज़रना एक बिल्कुल अलग और असाधारण अनुभव है। प्रेमचंद में गांव का यथार्थ है, रेणु में गाँव का संगीत। प्रेमचंद को पढ़ने के बाद हैरानी होती है कि इतनी विपरीत परिस्थितियों में भी किसान अपने गाँव और अपने खेत से बंधा कैसे रह जाता है। रेणु का कथा-संसार यह रहस्य खोलता है कि जीवन से मरण तक गांव के घर-घर से उठते संगीत और मानवीय संवेदनाओं की वह नाज़ुक डोर है जो लोगों में अपनी मिट्टी और रिश्तों के प्रति असीम अनुराग पैदा करती है। ‘मैला आँचल’ मात्र उपन्यास नहीं है, अपितु एक पुस्तक में सिमटा संसार है जिसमें एक बार प्रवेश करने के बाद हम भी इस संसार का एक हिस्सा बन जाते है।
आज़ादी से पहले,
आज़ादी के बाद और गांधी जी की मृत्यु जैसी महत्वपूर्ण घटनाओं को जोड़ कर समाज के हालत को इस किताब में एक व्यावहारिक तरीके से रेणु जी ने संचय किया है। अंग्रेजों की दासता से स्वतंत्र होने से भी देश की वास्तविक स्वतन्त्रता पर कोई विशेष परिवर्तन नहीं दिखाई पड़ता, उसी प्रकार मेरीगंज पर भी कोई प्रभावी परिवर्तन परिलक्षित नहीं होता है। इस गाँव में कांग्रेसी भी हैं, सोशलिस्ट भी हैं, कॉमरेड भी हैं, स्वयंसेवक भी हैं। रेणु ने सब पर एक समान प्रकाश डाला है, उनकी दृष्टि से कोई वंचित नहीं हुआ। किसी भी आंदोलन में कौन ठगा जाता है? पीछे खड़े होने वाले लोग जो एजेंडा पूरा करने वालों के स्वार्थ सिद्ध करते रह जाते हैं। देश आजाद होने के बाद जिस प्रकार नेताओं में सत्ता लोभ तथा सुख-सुविधाओं के प्रति लगाव ‘मैला आँचल’ में देखा गया, वहीं हूबहू समकालीन भारतीय राजनीति में परिलक्षित है। समकालीन तथा वंचित वर्ग के वास्तविक समस्याओं से राजनीतिक पार्टियों और राजनेताओं को कोई सरोकार नहीं है। तहसीलदार विश्वनाथ प्रसाद जैसे ताकत सम्पन्न वंचितों के शोषक तथा संथालों जैसे निस्सहाय,गरीब, अधिकार विहीन वर्ग आज भी भारतीय समाज में मिलते है।
देश में राजनीतिक पार्टियों एवं सत्तावर्ग के द्वारा हिंदुओं-मुसलमानों के अंतर्गत जो दरार पैदा की, उसका भरना अनिश्चित है। राजनीति ने भोले-भाले ग्रामीण में धार्मिक, जातीय तथा अमीरी-गरीबी का जो ज़हर घोला जिसके कारण लोगों में एक-दूसरे के प्रति अविश्वास, घृणा, स्वार्थ और हिंसा की जो लपटें उठी उससे उभर पाना आज भी आज भी सम्भव नहीं हो पाया। सत्ता सम्पन्न लोग अपनी ताकत का दुरुपयोग किस हद तक करते हैं, इसका प्रमाण देश की स्वतन्त्रता पश्चात तत्काल मिल गया था जब एक कांग्रेसी नेता की रिपोर्ट बिना सत्यता की जाँच किए कम्यूनिष्टों, सोशलिष्टों एवं अन्य सत्ता विरोधियों को झूठे अपराध में फंसाकर जेल भेज दिया जाता है जिसका प्रभाव भारतीय राजनीति में तब से लेकर आज तक परम्परागत रूप से चली आ रही है।
‘मैला आँचल’ में फूलिया अल्हड़ मस्ती भी है; धर्म के नाम पर द्वेष फैलाने वालों की भी कहानी है; बावन दास जैसा कट्टर गांधीवादी समर्थक भी है जो देश की आजादी के साथ कुचल जाता है; कांग्रेस में फ़ैल रहे भ्रष्टाचार की भी कहानी है। जमींदारों की जमींदारी भी है, संथालों की उनसे लड़ाई भी है। समाज में फैले डायन, भूत/प्रेत के अंधविश्वास भी है। ईश्वर के नाम पर नग्नता, अश्लीलता तथा स्त्री शोषक का यथार्थ चित्रण मिलता है जो हमारे समाज में दिन-प्रतिदिन घटित हो रहा है। कबीर मठ को त्यागकर जाने वाली ‘मैला आँचल’ की दासी लक्ष्मी कहती है, “असहाय औरत को देवता के संरक्षण में भी सुख-चैन नहीं मिल सकता।”
कथा शिल्पी फणीश्वरनाथ रेणु की इस युगान्तरकारी औपन्यासिक कृति में कथाशिल्प के साथ-साथ भाषा और शैली का विलक्षण सामंजस्य है जो जितना सहज-स्वाभाविक है,
उतना ही प्रभावकारी और मोहक भी। ग्रामीण अंचल की ध्वनियों और धूसर लैंडस्केप्स से सम्पन्न यह उपन्यास हिन्दी कथा-जगत में पिछले कई दशकों से एक क्लासिक रचना के रूप में स्थापित है। ‘मैला आँचल’ एक पूरी सभ्यता का आख्यान है प्रत्येक घटनाक्रम में एक सत्य समाहित है जिसे न जाने कितनी बार घटित होने के बावजूद कभी दर्ज नहीं किया गया। ‘मैला आँचल’ उन बेजुबानों की आवाज है, जिसे कभी सुना नहीं गया,उन निर्दोषों के जख्मों पर मलहम है, जो गरीबी, अशिक्षा, भेद-भाव, और जातीय असमानता की व्यवस्था में जन्म लेने के कारण दुर्भाग्य से भरे जीवन को जीने के लिए अभिशप्त हैं।
शब्दों से ध्वनि और उसके अर्थ से दृश्य उपस्थित कर देना इस उपन्यास के प्रमुख तत्व है तथा कई बार प्रकृति की प्रतिनिधि बन जाती हैं तो कभी आंचलिक समाज का स्वर लगने लगती हैं। कहीं-कहीं तो कागज पर लिखे अक्षरों में वे करीने से चित्र परोस देते हैं। ‘मैला आँचल’ में प्रयुक्त भाषा के संदर्भ में उपन्यासकार की यह स्वीकृति उल्लेखनीय है,
“मैंने जो शब्द इस्तेमाल किया, जैसी भाषा लिखी, क्या पता उसको लोग कबूल करेंगे या नहीं करेंगे............इसलिए मैंने उसे आंचलिक उपन्यास कह दिया। उसके बाद तो लोगों ने एक खाँचा ही बना दिया – आंचलिक का।”
‘मैला आँचल’ के द्वारा हिन्दी उपन्यास परम्परा एक नवीनतम कथा-शिल्प का पदार्पण होता है। उपन्यास के सभी पात्र एवं घटनाएँ मानों यथार्थ रूप धारण किए हुए है, इसमें प्रेम, त्याग, समर्पण एवं करुणा के भी अंश विद्यमान है। औपन्यासिक परम्परा के अनुसार रेणु ने नायक का चयन न करके सम्पूर्ण ‘अंचल’ को कथानक के रूप में चयन किया है जिसका नायक कोई मनुष्य ही नहीं, बल्कि नदी-नाले,जंगल-बाग, ताल-पोखर, हरे-भरे खेत, ऊसर-बंजर, टीले, खंडहर, पशु-पक्षी आदि सभी शामिल है।
ग्रामीण जीवन अंधविश्वास, रूढ़ियों, पौराणिकता, लोक नृत्य/त्योहार/गीत/कथाएँ/अनुश्रुतियों आदि से परिपूर्ण होता है।जिसका आधुनिकतम रूप भी देश के विभिन्न हिस्सों में पर्याप्त मात्रा में मिल जाते है। देश की भोली-भाली जनता का शोषण तब भी होता था अब भी होता है। ग्रामीण इंसान वर्तमान से ज्यादा अतीत में जीता है। उसका संसार उसका परिवेश होता है, ‘रेणु’ जी की ग्रामीण अंचल की समझ उत्कृष्ट थी, उन्होंने ग्रामीण मानसिकता एवं जीवन पद्धति का प्रयोग बड़ी सावधानी से किया है। सम्पूर्ण ग्रामीण परिवेश की अच्छाइओं-बुराइयों का चित्रण एक कुशल चित्रकार के रूप में किया है। चित्रकार के चित्र एवं ‘रेणु’ के ‘मैला आँचल’ में सिर्फ इतना ही अंतर है, “चित्र गतिहीन और स्थिर होता जबकि ‘रेणु’ का कथा चित्र गत्यात्मक और जीवंत है।”
निष्कर्ष : ‘मैला आँचल’ में प्रदेश, विशेष या जाति विशेष के जीवन, प्रश्न, रीति-रिवाज, प्रथा, परम्परा, आस्था, संस्कृति, लोक जीवन, बोली, गीत, लोककथा आदि का चित्रण विशेष कौशल और विस्तार से किया है। समसामयिक चेतना तथा आधुनिक भाव बोध इस उपन्यास में गहराई के साथ उभरकर सामने आया है। सामाजिक विषमता और राजनीतिक संघर्ष के साथ सामाजिक चेतना के विकास के साथ-साथ चेतना का विकास भी इन अभिव्यक्त हुआ है। इनके साथ-साथ आंचलिक उपन्यासकार ने पारिवारिक विघटन, दाम्पत्य जीवन में बिखराव तनाव, बन्धुत्व भाव में त्याग और सहयोग के स्थान पर स्वार्थपरता आदि प्रवृतियों का अपने कृतियों में स्थान दिया है। ग्रामीण जन जातीय समाज के परम्परागत स्वरूप को साहित्य के आँगन में प्रस्तुत कर इनकी समस्याओं से अवगत कराना ही इन उपन्यासकार का ध्येय रहा है। मैला आँचल में सामाजिक चेतना के बुलंद स्वर भी स्पष्ट तौर पर देखने को मिलता है।
- अमरनाथ : हिन्दी आलोचना की पारिभाषिक शब्दावली, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, छठा संस्करण, 2020, पृ.48
- रामदरश मिश्र : हिंदी उपन्यास : एक अंतर्यात्रा, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 1968, पृ.153
- फणीश्वरनाथ रेणु : मैला आँचल, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2021, पृ.4
- धीरेन्द्र वर्मा (संपा) : हिंदी साहित्य कोश भाग - 1, ज्ञानमंडल प्रकाशन वाराणसी, पुनर्मुद्रण, जून 2013
- कान्ति वर्मा : स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी उपन्यास, विवेक पब्लिशिंग हाउस, जयपुर, 1974, पृ.184
- गोबिंद त्रिगुणायत : शास्त्रीय समीक्षा के सिद्धान्त (भाग-एक), भारती साहित्य मंदिर फव्वारा, दिल्ली, 1974,पृ.444
- श्विश्वंभरनाथ उपाध्याय : पिछले दशक की देन, आंचलिक उपन्यास, साहित्य का संदेश प्रकाशन 1958, पृ.6
- फणीश्वरनाथ रेणु : मैला आँचल, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2021, पृ.5
- वही, पृ.129
- रागिनी वर्मा : फणीश्वरनाथ रेणु तथा उनका कथा साहित्य, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी, 2011, पृ.59
- रामचंद्र तिवारी : हिन्दी का गद्य साहित्य, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी, 2014, पृ.32
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) फणीश्वरनाथ रेणु विशेषांक, अंक-42, जून 2022, UGC Care Listed Issue
अतिथि सम्पादक : मनीष रंजन
सम्पादन सहयोग : प्रवीण कुमार जोशी, मोहम्मद हुसैन डायर, मैना शर्मा और अभिनव सरोवा चित्रांकन : मीनाक्षी झा बनर्जी(पटना)
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