- डॉ. दिनेश्वर कुमार महतो
‘मैला आँचल’ मेरीगंज के जीवन में व्याप्त, वस्तुतः जनजीवन की मैली जिंदगी की बहुरंगी दृश्यावली का एक दर्पण है। इसमें ग्रामीण जीवन की आर्थिक विषमता, इस विषमता के कारण अनैतिक संबंध, कहीं-कहीं सामान्य रूप में ऐसे संबंधों की व्यावहारिक परिणति, मठों के अधिपति, जिन्हें पूजा और श्रद्धा के भाव से देखा जाता है, उनकी कामपिपासा, अज्ञान के अंधकार में भटकती हुई गाँवों के गतिविधि, संस्कारों के विकास के विविध आयाम, भूत-प्रेतों के प्रति लोगों की अवधारणा आदि के सजीव एवं प्रभावपूर्ण चित्रण के द्वारा लेखक ने पूर्णिया जिले के एक गाँव के जीवन की यथार्थ झाँकी प्रस्तुत की है।
बीज शब्द : अपभ्रष्टीकरण, संश्लिष्ट, सन्निवेश।
मूल आलेख : ‘मैला आंचल’ और ‘परती परिकथा’ जैसे आंचलिक उपन्यासों की रचना श्रेय फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ को जाता है। प्रेमचंद के बाद रेणु ने गाँव को नये सौन्दर्यबोध और रागात्मकता के साथ चित्रिक किया है। फणीश्वरनाथ रेणु के उपन्यास ही सही अर्थों में ‘आंचलिक’ है। सत्य तो यह है कि ‘मैला आंचल’ और ‘परती परिकथा’ में ग्रामांचलों के जितने विशद और सवाक् चित्र देखने को मिलते हैं,
उतने अन्य तथाकित आंचलिक उपन्यासों में नहीं। इन दोनों उपन्यासों में ग्रामांचल की छोटी-छोटी घटनाओं, कथाओं आचार-विचार, रीति-नीति, राजनीतिक-नैतिक अवधारणाओं, पारस्परिक संबंधों आदि के विश्लिष्ट चित्र मिलते हैं, जो पूरे अंचल के सन्दर्भ में संश्लिष्ट और गत्यात्मक हो गये हैं। आधुनिकतावादी उपकरणों के सन्निवेश से गाँव का वातावरण अपने-आप बदलने लगता है। इस बदलाव में ही अवसरवादी कांग्रेसियों के नकाब उतारकर युवा पीढ़ी के संघर्षों को जिस ढंग से चित्रित किया गया है, वह रेणु की ऐतिहासिक धारा की पहचान का सूचक है।”1 रेणु ने ही सबसे पहले आंचलिक शब्द को प्रयोग था, इसकी भूमिका 9 अगस्त, 1954 को लिखते हुए फणीश्वरनाथ रेणु कहते हैं, “यह है मैला आंचल, एक आंचलिक उपन्यास।”..... “इसमें फूल भी है, शूल भी, धूल भी है, गुलाब भी है, गुलाब भी, कीचड़ भी है, चंदन भी, सुंदरता भी है, कुरूपता भी- मैं किसी से दामन बचाकर नहीं निकल पाया। कथा की सारी अच्छाइयों और बुराइयों के साथ साहित्य की दहलीज पर आ खड़ा हुआ हूँ; पता नहीं अच्छा किया या बुरा। जो भी हो, अपनी निष्ठा में कभी महसूस नहीं करता।”2
अपने उपन्यास की अंतर्वस्तु की ओर संकेत करते हुए जब रेणु उसमें शूल और धूल तथा कीचड़ और चंदन एवं सुन्दरता और कुरूपता एक साथ और एक जगह ही सब कुछ होने की बात करते हैं,
तो वस्तुतः वे अंचल की संपूर्णता की ही बात कर रहे होते हैं। “इस अंचल के सम्पूर्ण अंतर्बाह्य व्यक्तित्व को वे सम्पूर्ण निष्ठा ही वस्तुतः अपने लिए चुन गए अंचल से लेखक को एक रागात्मक और आत्मीय सूत्र से जोड़ती है। यह रागात्मकता उत्कट रूप धारणा करने पर उस अंचल के प्रति एक रोमानी भावावेश में भी बदलती दिखाई देती है........ उस अंचल के नेतृत्व शास्त्रीय वैशिष्ट्य से लेकर उसका भौगोलिक परिवेश, सांस्कृतिक एवं लोक-तात्विक चरित्र, वेश-भूषा, राग-रंग, उत्सव-त्योहार आदि सब कुछ अपनी समग्रता और जीवंतता में उपस्थित रहता है।“3
‘गोदान’ अवध प्रांत के दो गाँवों सेमरी और बेलारी की कथा है। जिले का नाम बताने की जरूरत नहीं। यहाँ जिले का नाम बताने की जरूरत इसलिए नहीं है कि ऐसे गाँव हर जिले में है, यहाँ तक कि पाठक के अपने जिले में भी। प्रेमचंद का स्पष्ट संकेत है कि होरी कोई विशेषण चरित्र और उसका गाँव कोई विशेष स्थान नहीं। भारत का हर गाँव सेमरी या बेलारी है और उस गाँव में रहने वाला हर साधारण किसान होरी है। ठीक उसी प्रकार रेणु जहाँ ‘मैला आँचल’ जैसे उपन्यास एक गाँव के भीतर बंधकर हर विशेषता उभार देना चाहते हैं। रेणु लिखते हैं, “मेरीगंज एक बड़ा गाँव है, बारहो बरन के लोग रहते हैं। गाँव के पूरब एक धारा है जिसे कमला नदी कहते हैं। बरसात में कमला भर जाती है, बाकी मौसम में बड़े-बड़े गढ़ों में पानी जमा रहता है।”4
रेणु का मेरीगंज गाँव एक जीवंत चित्र की तरह हमारे सामने हैं जिसमें वहां के लोगों का हंसी-मज़ाक,
प्रेम-घृणा, सौहार्द-वैमनस्य, ईर्ष्या-द्वेष, संवेदना-करुणा, संबंध-शोषण, अपने समस्त उतार-चढ़ाव के साथ उकेरा गया है। पूरे उपन्यास में एक संगीत है, गाँव का संगीत, लोक गीत-सा जिसकी लय जीवन के प्रति आस्था का संचार करती है। एक तरफ यह उपन्यास आंचलिकता को जीवंत बनाता है तो दूसरी तरफ उस समय का बोध भी दृष्टिगोचर होता है। भूत-प्रेत, टोना-टोटका, झाड़-फूक में विश्वास करने वाली अंधविश्वासी परंपरा गनेश की नानी की हत्या में दिखती है। साथ ही जाति-व्यवस्था का कट्टर रूप भी दिखाया गया है।
रेणु ने स्वतंत्रता के बाद पैदा हुई राजनीतिक, अवसरवादी, स्वार्थ और क्षुद्रता को भी बड़ी कुशलता से उजागर किया है। गांधीवाद की चादर ओढ़े हुए भ्रष्ट राजनेताओं का कुकर्म बड़ी सजगता से दिखाया गया है। राजनीति, समाज, धर्म, जाति सभी तरह की विसंगतियों पर रेणु ने अपने कलम से प्रहार किया है। इस उपन्यास की कथा-वस्तु काफी रोचक चरित्रांकन जीवंत है। भाषा इसका सशक्त पक्ष है। ‘रेणु’ सरस व सजीव भाषा में परंपरा से प्रचलित लोककथाएँ, लोकगीत, लोकसंगीत आदि शब्दों में बांधकर तत्कालीन सामाजिक-राजनीतिक परिवेश को हमारे समक्ष सफलतापूर्वक प्रस्तुत करते हैं। रेणु ने ‘मैला आँचल’ में यह दिखाने की चेष्टा की है कि किस तरह आधुनिकता के दबाव से मेरीगंज की जड़ता टूटती है और सम्बन्धों के समूचे संवेदन तंत्र का इसका प्रभाव पड़ता है।
‘मैला आँचल’ में नारी की सामाजिक स्थिति पर विशेष रूप से रचनाकार ने ध्यान नहीं दिया है, फिर भी कई प्रसंगों में चलते-चलते ऐसी टिप्पणियाँ की है जो नारी की परतंत्र व निम्न स्थिति को व्यक्त करती है। किसी भी घर में यदि आर्थिक अभाव हो तो पुत्र और पुत्री में से पुत्र पर ही धन खर्च करने का ठीक समझा जाता है। उपन्यास में एक प्रसंग ऐसा है जहाँ एक रोगग्रस्त युवती के पिता इस अंतर को इन शब्दों में व्यक्त करते है, “हुजूर, लड़की की जात बिना दवा दारू के ही आराम हो जाती है।” इस पर डाक्टर प्रशांत सोचते हैं, ”लड़की की जाति बिना दवा-दारू के ही आराम हो जाती है? लेकिन बेचारे बूढ़े का इसमें कोई दोष नहीं। सभ्य कहलाने वाले में लड़कियाँ बला की पैदाइश समझी जाती है।” 5 मेरीगंज का एक विशेष पक्ष उसका धार्मिक जीवन है जिसका संबंध वहाँ के मठ से है। प्राचीन व मध्यकाल में धर्म को प्रायः निवृत्तिमूलक बनाने पर बल दिया गया जिसमें धर्म से जुड़े व्यक्ति हमेशा एक कुंठित जीवन व्यतीत करते रहे। ‘मैला आँचल’ में इसी समस्या को एक खास कोण से दिखाया गया है। महंत साहब धर्म के प्रतिनिधि है, अतः माया से मुक्त रहना उनके लिए आवश्यक है। यदि वे विवाह करते हैं तो सुविधा भरी महंती हाथ से निकलती है और विवाह नहीं करते तो भौतिक सुविधाओं के बावजूद कुंठित जीने को अभिशप्त है। वे यह समाधान निकालते हैं कि मठ के पूराने सेवक की बेटी लक्ष्मी को कानूनी लड़ाई के बाद अपने मठ पर ले आते हैं। यह रास्ता महंत साहब के जीवन में भले ही प्रसन्नता लाने वाला हो पर अबोध बालिका का जीवन इससे बर्बाद हो रहा है। यादव टोली का किसलू कहता है, “महंथ जब लक्ष्मी दासिन को मठ पर लाया था तो वह एकदम अबोध थी, एकदम नादान! एक ही कपड़ा पहनती थी। कहाँ वह बच्ची और कहाँ पचास बरस का बूढ़ा गिद्ध! रोज रात में लक्ष्मी रोती थी- ऐसा रोना कि जिसे सुनकर पत्थर भी पिघल जाए।”6 इस प्रकार की विकृति के बावजूद दोष लक्ष्मी का ही है कि उसने माया बनकर महंत साहेब के धर्म को भ्रष्ट कर दिया।
सामाजिक मान्यताएँ ऐसी है कि नारी को प्रायः विश्वसनीय नहीं माना जाता। किसी भी तरीके से नारी पर नियंत्रण बनाएँ रखना ही परंपरागत सामाजिक संरचना की आवश्यकता है। एक स्थान पर शास्त्र का उद्धरण देते हुए कहा गया है- सास्तर में कहा है “जोरू जमीन जोर का,
नहीं तो किसी और का।”7
रेणु ने एक और प्रसंग की चर्चा विशेष रूप से की है। नारीवादी चिंतकों ने कई बार दावा किया है कि किसी भी अराजक स्थिति में अत्याचार की सबसे बड़ी शिकार महिलाएँ ही होती है। रेणु ने गाँव वालों तथा संथालों के संघर्ष में ऐसे ही प्रसंग का वर्णन किया है। इस प्रसंग में सामाजिक लड़ाई तो जो है,
सो है; गाँव वालों के लिए महत्वपूर्ण यह है कि संथालिनों का सामूहिक बलात्कार होना चाहिए। इस प्रसंग का रेणु ने बेहद प्रतीकात्मक शब्दों से इस प्रकार व्यक्त किया है, “आजादी है, जो जी में आवे करो! बूढ़ी, जवान, बच्ची जो मिले। आजादी है। ....... फाँसी हो या काला पानी, छोड़ो मत।”8
इस प्रकार रेणु ने कई अलग-अलग संदर्भों में दिखाया है कि समाज में जिस प्रकार जाति संरचना शोषण और दमन पर आधारित है,
वैसे ही नारी-पुरुष के संबंध भी। रेणु ने कमली और पार्वती की माँ के माध्यम से दिखाया है। कमली को इसलिए बीमारी हो गई है कि तीन बार उसका रिश्ता टूट गया है तथा लोग उसे अपशकुनी मानने लगे हैं। यदि सारा समाज किसी व्यक्ति को अपशकुनी मानने लगे तो वह व्यक्ति मनोरोगी हो ही जाएगा। यही स्थिति कमली की है। पार्वती की माँ का जीवन ही अंधविश्वासों ने ले लिया है। रेणु ने विशेष रूप से बताया है कि पार्वती की माँ स्नेह, करुणा, वात्सल्य के भावों की प्रतिमूर्ति है, किंतु समाज उसे डायन करके उसकी हत्या कर देता है।
डाक्टर प्रशांत के चरित्र के माध्यम से रेणु ने यह समस्या विशेष रूप से स्पष्ट की है। डाक्टर प्रशांत गाँव इसलिए आया है कि उसे ज्यादा से ज्यादा रोगियों से पैसा वसूल कर अमीर बनना चिकित्सक धर्म के खिलाफ लगता है। उसकी इच्छा काला-आजार के निदान के लिए रामबाण औषधि खोजना है। पर,
एक बिन्दु पर वह महसूस करता है कि जिस आदमी के लिए जीवन का अर्थ भूख और बेबसी है, उसके लिए यह दवाई किसी काम की नहीं है। डाक्टर प्रशांत अपने सारे वैज्ञानिक अनुसंधान के बाद इसी निष्कर्ष पर पहुँचता है कि मूल समस्या आर्थिक है और एक आर्थिक रूप से पिछड़े समाज में स्वास्थ्य की कोई संभावना नहीं है। इस नाटकीय बिंदु पर उपन्यासकार लिखता है, “डाक्टर ने रोग की जड़ पकड़ ली है..... गरीबी और जहालत- इस रोग के दो कीटाणू है।”9 प्रशांत जब स्वगत चिन्तन में गहरी संवेदना या अनुभूति की मनःस्थिति से गुजरता है तो उसकी भाषा अत्यंत संवेदनाशील और लक्षणा, मानवीकरण तथा पर्यायवाचिता जैसे शैलीय गुणों से सम्पन्न हो जाती है।
‘मैला आँचल’ संपूर्ण हिंदी क्षेत्र के ग्रामीण जातीय जीवन का अंकन करता है। अंचल व्यौरे का चित्रण जितना विस्तृत है, वहाँ के जीवन का संवेदनात्मक अंकन उतना ही सूक्ष्म। स्वयं होरी अपने में जितना विशिष्ट है, उतनी दूर तक वह उत्तर भारत के औसत किसान का प्रतिनिधित्व करता है। होरी में औसत उत्तर भारतीय किसान रूपायित होता है, यह एक स्तर है। एक अन्य स्तर यह भी है कि मेरीगंज में हमें कहीं अपना गाँव झलकता दिखाई दे या कि वहाँ के चरित्रों में छिपा हुआ बामनदास, डा॰ प्रशांत या कि कमली के व्यक्तित्व का अंश हम खोज लें। स्पष्ट ही यहाँ पाठक की कल्पना के सक्रिय होने के लिए अधिक अवसर है।
मेरीगंज की आर्थिक समस्याएँ कुछ और पक्षों से भी संबंधित हैं। रेणु ने न केवल गरीबी को मूल समस्या के रूप में पहचाना है,
बल्कि यह भी बताया है कि गरीबी के कारण कौन से हैं। यह गरीबी उत्पादकता की कमी से नहीं, अपितु वितरण की विषमताओं से पैदा हुई है। ऐसा एक चित्र रेणु ने खम्हार के प्रसंग में खींचा है जो गोदान के खलिहान से मिलता-जुलता है, “खम्हार! साल भर की कमाई का लेखा जोखा तो खम्हार में ही होता है। दो महीने की कटनी, एक महीना मड़नी, फिर साल भर की खटनी। दबनी-मड़नी करके जमा करो, साल भर के खाए हुए कर्जे का हिसाब करके चुकाओं। बाकी यदि रह जाए तो फिर सादा कागज पर अंगूठे की टीप लगाओ।.... फिर कर्ज खाओं। खम्हार का चक्र चलता रहता है।“10
रेणु ने आर्थिक समस्या को एक बेहद खूबसूरत नजरिए से प्रस्तुत किया है। साहित्य तथा अन्य कलाओं में इस प्रश्न पर अक्सर विवाद होता है कि सौन्दर्य ‘वस्तुगत’ धारणा है या ‘व्यक्तिगत’। समाजवाद के समर्थक सौन्दर्य को वस्तुगत मानते हैं। उनकी राय में सुंदरता परिस्थितियों से पैदा होती है। डाक्टर प्रशांत भी महसूस करता है कि सुंदरता सचमुच अनुकूल परिस्थितियों से पैदा होती है। मेरीगंज में भी सुंदरता हो सकती थी पर स्थितियाँ ऐसी हैं कि सुंदरता विकसित होने से पहले ही झुलस जाती है। वह सोचता है- “उसने देखा है.... गरीबी, गंदगी और जहालत से भी हुई दुनिया में भी सुंदरता जन्म लेती है। किशोर-किशोरियों व युवतियों के चेहरे पर एक विशेषता देखी है उसने! कमला नहीं के गड्ढ़ों में खिले हुए कमल के फूलों की तरह जिंदगी के भोर में वे बड़े लुभावने, मनोहर और सुंदर दिखाई पड़ते हैं, किन्तु ज्यों ही सूरज की गर्मी तेज हुई, वे कुम्हला जाते हैं।”11
रेणु ने मेरीगंज में सामाजिक रूप से प्रचलित अंधविश्वासों पर भी टिप्पणी की है। यह स्वाभाविक सी बात है कि जिस क्षेत्र का आर्थिक विकास कम हुआ होगा,
आधुनिक वैज्ञानिक शिक्षा का प्रसार नहीं हुआ होगा, वहाँ सामाजिक जीवन में अंधविश्वासों की प्रमुख भूमिका होगी। उपन्यासकार ने बार-बार दिखाया है कि अंधविश्वासों के कारण विकास कैसे रूक जाता है। डाक्टर प्रशांत गाँव को बचाना चाहते हैं, किन्तु गाँव के ही जोतखी काका अंधविश्वासों के कारण उनका सक्रिय विरोध करते हैं। उनका कहना है, “डाक्टर लोग ही रोग फैलाते हैं। सुई भोंककर देह में जहर दे देते हैं, आदमी हमेशा के लिए कमजोर हो जाता है। हैजा के समय कुँओं में दवा डाल देते हैं, गाँव का गाँव हैजा से समाप्त हो जाता है।“12
निष्कर्ष : हम देखते हैं कि मैला आँचल में मेरीगंज नामक गाँव के जीवन के सारे पक्षों तथा रूपों का वर्णन हुआ है। उन्होंने अपने अंचल के यर्थाथ के प्रत्येक अंश को संपूर्णता में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। यही कारण है कि किसी भी विचारधारा के आइने में रचना सभ्यक समीक्षा नहीं हो सकती। इसके कथ्य के बारे में अंतिम रूप से यही कहा जा सकता है जो भूमिका में स्वयं लेखक ने कहा है, कि इसमें फूल भी हैं, शूल भी है, गुलाब भी, कीचड़ भी है, चंदन भी, सुंदरता भी है, कुरूपता भी- मैं किसी से दामन बचाकर निकल नहीं पाया।
1.नगेन्द्र : हिन्दी साहित्य का इतिहास, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली, 2011, पृ. 681.
3.मधुरेश : हिन्दी उपन्यास का विकास, लोक भारती, इलाहाबाद, 2004, पृ. 139.
सहायक शिक्षक, उत्क्रमित+2 उच्च विद्यालय, दिगवार, दारू, हजारीबाग (झारखण्ड)
mahtodineshwar@gmail.com, 9835525020, 7991160409
अतिथि सम्पादक : मनीष रंजन
सम्पादन सहयोग : प्रवीण कुमार जोशी, मोहम्मद हुसैन डायर, मैना शर्मा और अभिनव सरोवा चित्रांकन : मीनाक्षी झा बनर्जी(पटना)
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