- आलिया जेसमिना एवं डॉ. अंजु लता
शोध सार : ‘महामारी’ शब्द से हम सब अच्छी तरह वाकिफ़ हैं। ‘महामारी’ एक ऐसी विभीषिका है जो पूरे विश्व में फैलकर लोगों में संक्रमण तथा त्राहि-त्राहि स्वर ले आती है। महामारी से संबंधित इतिहास के पन्नों पर नज़र डालें तो यह ज्ञातव्य होता है कि प्रथम विश्व युद्ध के बाद से ही अलग-अलग कालावधि में अनेक महामारियों की विभीषिका ने दुनिया को झकझोर कर रख दिया। महामारी रूपी दानव के तांडव से देश के लोगों में भयावह परिस्थितियां अकल्याणकारी तत्त्वों के साथ फन उठाती हैं। महामारी के कारण न जाने कितने लोगों की मौत हो जाती है, कितने लोग बेघर हो जाते हैं और कितनों के परिवार तहस-नहस हो जाते हैं। इस तरह के दृश्य कहीं न कहीं हमें फणीश्वर नाथ रेणु द्वारा लिखित ‘पहलवान की ढोलक’ नामक कहानी में परिलक्षित होते हैं। इस कहानी में लेखक ने सत्ता (व्यवस्था) के बदलते स्वरूप के साथ-साथ महामारी के भयानक दृश्यों को मुखर किया है। इस लेख में कहानी की पृष्ठभूमि का अवलोकन, महामारियों के संत्रासजन्य त्रासदी का चित्रण एवं अप्रगतिशील तत्त्वों से मानव जाति का अहित होना आदि आयामों पर विश्लेषण मौजूद है।
बीज शब्द : महामारी, इतिहास, बीमारी, प्रथम विश्व युद्ध, परिस्थितियाँ, प्रभाव, पहलवान, ढोलक, कहानी, लेखक, सत्ता, व्यवस्था, भयानक, त्रासदी, अप्रगतिशील, मानव।
मूल आलेख : वर्तमान में महामारी शब्द हमारे लिए अनुभव से परे नहीं है। ‘महामारी’ से इस समय हम सब गुजर रहे हैं। यह एक ऐसी विभीषिका है, जो सम्पूर्ण मानव जाति के लिए अकल्याणकारी कालिमा ले आती है। इसके प्रभाव पूरे मानव सभ्यता के लिए हानिकारक हैं। इस समय पूरा विश्व ‘कोरोना’ नामक भयानक महामारी से जूझ रहा है। इस बीमारी के कारण अब तक लाखों लोगों की मौत हो चुकी है। अगर हम इतिहास के पृष्ठों में महामारी के अहितकारी तामसिक तत्त्वों पर नज़र डालें तो यह सहज ही पता चलता है कि प्रथम विश्व युद्ध के बाद से ही हर सौ साल में कोई न कोई बीमारी महामारी का रूप धारण करती आयी है। उन महामारियों की वजह से न जाने कितने करोड़ लोगों की मृत्यु हो चुकी है। इतिहास में हम कुछ प्रमुख महामारियों को देख सकते हैं, जिसके कारण एक बड़ी आबादी का नुकसान हुआ है। महामारी के इस ताण्डव ने लोगों की जीवन जिजीविषा को अस्त-व्यस्त कर दिया है। सन 1915 में ‘फेलाइटिस लेटाग्रिका’ नामक महामारी पूरे विश्व में फैलने लगी थी, जो 1926 तक मानव सभ्यता के लिए हानिकारक सिद्ध हुई। इसके कारण लोगों की ‘नर्वस सिस्टम’ में कुप्रभाव पड़ता था। इसका इन्फेक्शन लोगों में तेजी से फैलता था। ‘कोरोना’ महामारी की तरह ही इस महामारी में भी करोड़ों की मौत हुई थी।(1) सन 1918 में आये ‘स्पेनिश फ्लू’ का प्रकोप 1920 तक काफी तेज़ी से फैलने लगा था। इस महामारी का प्रकोप पूरे विश्व के साथ भारत में भी तेजी से बढ़ने लगा।(2) सन 1961 से लेकर 1975 तक ‘हैजा महामारी’ ने पूरे देश को अपनी चपेट में ले लिया था। भारत और बांग्लादेश में भी इसका प्रभाव काफ़ी पड़ा था। यह बीमारी ‘बिब्रियो कोलेरा’ नामक बेक्टेरिया के कारण फैलती थी।(3) सन 1968 से लेकर 1969 तक हांगकांग में ‘फ्लू महामारी’ फैली थी। इस समय वियतनाम का युद्ध हो रहा था। युद्ध में जिन सैनिकों ने भाग लिया था, उन सबसे धीरे-धीरे अन्य देशों में भी यह वायरस फैल गया था। इस महामारी ने भी मृत्यु की विभीषिका से मानव सभ्यता को छलनी-छलनी कर दिया था।(4) 1974 में ‘चेचक’ नामक खतरनाक बीमारी पूरे विश्व में फैली थी। ‘वायरल माइनर’ वायरस तथा ‘वेरियोला मेंजर’ नामक वायरस से यह बीमारी फैलने लगी थी। पूरे भारत में लगभग 60 प्रतिशत लोग इसके प्रकोप में आ गए थे। इस बीमारी से छुटकारा पाने के लिए भारत सरकार द्वारा ‘राष्ट्रीय चेचक उन्मूलन कार्यक्रम’ भी चलाया गया। इस खतरनाक बीमारी से विश्व को 1977 में छुटकारा मिला।(5) सन 1994 में सूरत शहर में ‘न्यूमोनिक प्लेग’ महामारी फैली। इस महामारी के कारण सूरत की आधी आबादी को सूरत छोड़कर जाना पड़ा था। सूरत शहर की गन्दी नालियों और खराब सीवेज से यह महामारी फैलने लगी थी। यह महामारी एक-दूसरे में सहज ही संक्रमित होते थे।(6) सन 2002 से लेकर 2004 तक ‘सार्स’ नामक एक बीमारी फैली थी। इस बीमारी के लक्षण कुछ-कुछ ‘कोरोना’ से मिलते-जुलते थे। सन 2006 में दिल्ली जैसे बड़े शहर में भी ‘डेंगू और चिकनगुनिया’ जैसी बिमारियों ने फन उठाये थे। यह बीमारी मच्छरों द्वारा फैलती थी। यह बीमारी भी कहीं न कहीं पूरे दिल्ली शहर में महामारी का ही रूप धारण कर चुकी थी। इसी तरह 2009 में गुजरात में ‘हेपाटाइटिस बी’ नामक बीमारी फैली थी तो 2014 में ओडिशा राज्य में ‘पीलिया’ नामक बीमारी खराब जल व्यवस्था के कारण फैली थी, जिसका प्रकोप लगभग 2015 तक रहा। इसके अलावा ‘स्वाइन फ्लू’ जो 2014 में H1V1 वायरस द्वारा फैली थी, जिसके कारण तक़रीबन 2000 लोगों की मौत हो गयी थी।(7) सन 2017 में गोरखपुर में ‘इंसेफलाइटिस’ बीमारी फैली थी, जिसके कारण छोटे-छोटे बच्चों की मौत हो गयी थी या लोग विकलांग हो गए थे। सन 2018 में केरल में ‘निपाह वायरस’, चमगादड़ों से फैली थी, जिसके कारण भी केरल में मृत्यु की संहार लीला हुई।(8) भारत देश अलग-अलग समय में विविध महामारियों से पीड़ित होता आया है, जिसका प्रभाव न केवल सापेक्षिक बल्कि भविष्य में भी इसका प्रभाव देखने को मिलता है। आज पूरे विश्व के साथ भारत भी ‘कोरोना’ महामारी से 2019 से अब तक लगातार जूझ रहा है।
महामारी से कोई भी अछूता नहीं रहता। चाहे अमीर हो या गरीब,
अच्छे हो या बुरे सभी को समान रूप से महामारी ग्रसित करती है। इस विभीषिका से साहित्यकार हो या कलाकार, राजनीतिज्ञ आदि समाज के सभी बुद्धिजीवी कहीं न कहीं प्रभावित रहे हैं। अन्य साहित्यकारों की तरह हिंदी साहित्यकार भी इसकी विभीषिकाजन्यता से मुक्त नहीं हैं। भक्ति काल से लेकर आधुनिक हिंदी साहित्य के परिप्रेक्ष्य तक महामारी की त्रासद के शब्दचित्र भरे पड़े हैं। महामारी के संहारक रूप ने साहित्यकार की स्वानुभूति एवं जीवन जगत को देखने के उनके नजरिये में काफी बदलाव लाये हैं। साहित्यकार का जीवन एवं भाव जगत में महामारी को लेकर जो भोगा हुआ यथार्थ हैं, उसे हम भक्ति काल की साहित्यिक भूमि से परिलक्षित कर सकते हैं। हिंदी साहित्यकारों की कुछ कृतियों को ले सकते हैं, जिसमें अनेक तरह की भूखमरी एवं महामारी का वर्णन हुआ है। अकाल और महामारी का वर्णन सबसे पहले हमें भक्ति काल में कबीर एवं तुलसीदास जी के साहित्य में दिखाई पड़ता है। तुलसीदास की 'कवितावली' में अकाल के कारण होने वाले दु:खों का जिक्र किया गया है। आधुनिक काल तक आते-आते महामारी की विभीषिका के त्रासद साहित्य विस्तृत रूप में मिलते हैं। केदारनाथ अग्रवाल की कविता ‘अकाल से लड़ता कमासिन’ और ‘बंगाल का अकाल’ में भूखमरी का मार्मिक चित्रण हुआ है। नागार्जुन की ‘प्रेत का बयान’ नामक कविता में भी भूखमरी के कारण हुई दयनीय स्थिति का वर्णन हुआ है। केदारनाथ सिंह की ‘अकाल में दूब’ और ‘अकाल में सारस’ नामक कविता में अकाल और उसके बाद की स्थितियों का विशद वर्णन हुआ है। जयशंकर प्रसाद के उपन्यास ‘कंकाल’, अमृतलाल नागर के ‘महाकाल’, रांगेय राघव के ‘विषाद मठ’, निराला के ‘अलका’ और ‘कुल्लीभाट’, केशव प्रसाद मिश्र के ‘कोहबर की शर्त’, राही मासूम राजा के ‘आधा गांव’, नरेश मेहता के ‘उत्तर कथा’, कमलाकांत त्रिपाठी के ‘पाही घर’, प्रभा खेतान के ‘पीली आंधी’, शरदचंद्र चट्टोपाध्याय के ‘गृहदाह’, रेणु के उपन्यास ‘मेला आँचल’ में समय-समय आई महामारी और भुखमरी का वर्णन किया गया है। इसके अतिरिक्त अनेक कहानियों में भी महामारी और अकाल के वर्णन देखने को मिलते हैं। भगवान दास के ‘प्लेग की चूड़ैल’, पांडेय बेचन शर्मा उग्र के ‘वीभत्स’, धर्मवीर भारती के ‘मुर्दों का गांव’ आदि के साथ रेनू की ‘पहलवान की ढोलक’ मुंशी प्रेमचंद के ‘ईदगाह’ में भी महामारी और भूखमरी का सफल चित्रण मिलता है। इसके अलावा बनारसी दास जैन की ‘अर्द्धकथानक’ नामक आत्मकथा में महामारी का विशद वर्णन हुआ है।(9) हरिशंकर परसाई की संस्मरण ‘गर्दिश के दिन’ में भी महामारी का स्पष्ट वर्णन हुआ है। इसी तरह समय-समय पर अनेक लोगों ने अपनी प्रतिभा के बल पर महामारी को साहित्य में उतारा है।
एंडेमिक, एपिडेमिक्स और पेंडेमिक महामारियों के इतिहास के बारे में हम सभी भलीभाँति जानते हैं। महामारियों से मानव समाज के राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, शैक्षिक, पारिवारिक, साहित्यिक इत्यादि सभी पक्ष प्रभावित होते हैं। कलाकार, साहित्यकार, राजनीतिज्ञ, वैज्ञानिक आदि महामारी के अकल्याणकारी तत्त्वों से मानव जाति के उद्धार के लिए प्रयत्नरत होने के साथ स्वयं भी इसके संक्रमण में आ जाते हैं। महामारी के प्रलयकारी रूप को उजागर करने वाले इस तरह के साहित्यिक कृति को पढ़ने से वास्तव में यह ज्ञातव्य होता है कि मानवीयता के लिए महामारी की विभीषिका कितनी भयानक है। इसी भयावहता का चित्रण प्रसिद्ध हिंदी लेखक,
साहित्यकार फणीश्वर नाथ रेणु ने अपनी कहानी ‘पहलवान की ढोलक’ में किया हैं। यह एक ऐसी कहानी है, जिसमें सामाजिक पृष्ठभूमि की विभिन्न समस्याओं के अकल्याणकारी तत्त्वों को उद्घाटित करने की कोशिश की गई है। सत्ता-व्यवस्था के बदलते परिप्रेक्ष्य में मानव सभ्यता से लेकर किस तरह एक कलाकार का जीवन भी बदल जाता है, उसी का चित्रण इस कहानी में किया गया है। कलाकार के जीवन में मानो अँधेरा-सा छा जाता है। ऐसे बदलते परिदृश्य में और जहां हैजे और मलेरिया, अकाल और भूखमरी जैसे भयानक तत्त्वों का खुला तांडव हो तो मानवीय सभ्यता कहाँ तक सुरक्षित रह पाएगी? ऐसी ही दयनीय स्थिति का वर्णन करते हुए कोरोना पीड़ित वर्तमान परिदृश्य में ‘पहलवान की ढोलक’ कहानी की प्रासंगिकता, महामारी और भूखमरी के अकल्याणकारी तत्त्वों का पर्दाफाश तथा कहानी में वर्णित अहितकर महामारी और अकाल की त्रासदी और वर्तमान महामारी की भयावहता से उसका तादात्म्य आदि का चित्रण इस लेख में सुव्यवस्थित किया गया है।
‘पहलवान की ढोलक’ कहानी का शुभारंभ महामारी से पीड़ित एक गाँव के चित्रण से से होता है। मलेरिया और हैजा नामक महामारी के कारण गाँव में एकदम सन्नाटा छा गया था। ऐसा लगता है मानो रात का अँधेरा अपनी आँचल में सन्नाटा और निस्तब्धता लिए हुए है। कहानीकार के शब्द में– “अँधेरी रात चुपचाप आंसू बहा रही थी। निस्तब्धता करुण सिसकियों और आहों को बलपूर्वक अपने हृदय में ही दबाने की चेष्टा कर रही थी। आकाश में तारे चमक रहे थे। पृथ्वी पर कहीं प्रकाश का नाम नहीं”।(10) कहानीकार ने महामारी की विभीषिका का चित्रण करने के साथ-साथ सत्ता-व्यवस्था के बदलते स्वरूप को भी उजागर किया है और इस भयावह परिस्थिति से पीड़ित कलाकार की जीवन जिजीविषा को भी पाठकों के सामने मुखर करने की कोशिश की है। देश की सत्ता-व्यवस्था के बदलने से राजदरबारी पहलवान को गाँव में आकर जीवन व्यतीत करना पड़ता है। जीवन निर्वाह की अनेक समस्याओं से जूझने के अलावा महामारी के संहारक कालिमा से भी उसे जूझना पड़ता है। ऐसी भयंकर मृत्यु शृंखला का वर्णन इस कहानी में किया गया है। कहानी का मुख्य चरित्र पहलवान लुट्टन सिंह एक राजदरबारी पहलवान है। राजा के स्वर्गवास के पश्चात विलायत से राजकुमार आकर राजदरबार का भार ले लेते हैं। राजकुमार कुश्ती की जगह घोड़े की रेस पर बल देते हैं और पहलवान को राजदरबार से निकाल दिया जाता है। यहीं से राजदरबारी पहलवान की जीवनशैली दूसरा मोड़ लेती है। पहलवान अपने दोनों बेटों के साथ गाँव में जाकर रहने लगते है। गाँव वाले एक झोपड़ी की व्यवस्था कर देते हैं और खानपान की जिम्मेदारी भी गाँववालों द्वारा ही उठाई जाती है।
पहलवान गाँव में ही अनेक बच्चों को कुश्ती सीखाने का काम करने लगता है। गाँव वाले विभिन्न आफतों से जूझ रहे हैं। गाँव की आर्थिक एवं सामाजिक स्थिति दयनीय थी। कहानीकार के अनुसार- “अकस्मात् गाँव पर यह वज्रपात हुआ। पहले अनावृष्टि, फिर अन्न की कमी, तब मलेरिया और हैजे ने मिलकर गाँव को भूनना शुरू कर दिया”।(11) इस तरह की समस्याओं से न केवल गाँव वाले जूझ रहे थे बल्कि लुट्टन पहलवान भी इससे बचा नहीं था। गाँव के दूसरे लोगों के साथ पहलवान भी महामारी से संक्रमित हो गया। पहलवान अपने बच्चों के साथ जैसे-तैसे मजदूरी करके महामारी के दिनों में भी दिन गुजारा कर रहा था। परन्तु महामारी और भूखमरी ने पहलवान के जीवन को उलट-पुलट दिया था। महामारी से पूरा गाँव ध्वस्त हो गया था। ऐसी दयनीय भूखमरी एवं भयानक महामारी के तहत एक दरबारी पहलवान का जीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है। इससे कहानीकार ने इस तथ्य को उजागर करने की कोशिश की है कि स्वतन्त्रता के पश्चात देश स्वतंत्र तो ज़रूर हो गया, सत्ता में भी बदलाव काफी आया परन्तु जो गाँव का परिवेश है, परिस्थितियाँ हैं, वो कहीं न कहीं आज भी वैसा ही है। जैसे कुश्ती की जगह आज लोग घोड़े की रेस देखना पसंद करते हैं। क्या यही बदलाव हैं? आज कोरोना महामारी के दौरान गाँव की जो दयनीय दशा है, देश के ठेकेदार जिस तरह इसकी मार्केटिंग करते हैं, सत्ताधारी जिस तरह सियासी खेल खेलते हैं, ऐसी ही दयनीय स्थिति और सत्ताधारी की कुटिल मानसिकता का चित्रण ‘पहलवान की ढोलक’ कहानी में किया गया है।
आज भी देश के गाँव की व्यवस्था पहलवान के गाँव की तरह ही है। महामारी से पीड़ित एवं प्रताड़ित ग्रामीण जीवन के शब्द-चित्र खींचते हुए लेखक लिखते हैं- “गाँव की झोपड़ियों से कराहने और कै करने की आवाज,
हरे राम! हे भगवान्! की टेर अवश्य सुनाई पड़ती थी।”(12) आज भी कोरोना काल की संहारक त्रासदी में पहलवान के गाँव के जैसे दयनीय चित्र मिल जाते हैं। कहानीकार ने 'मलेरिया' और 'हैजे' जैसी महामारी के चित्रण के दौरान पहलवान जैसे कल्पित पात्र के व्यक्तित्व को पाठकों के समक्ष रखा, जो कभी हार नहीं मानता। पहलवान सम्पूर्ण गाँव के लिए प्रेरणास्रोत बन जाता है। गाँव में वह एक ऐसा व्यक्ति है, जिसने महामारी के दौरान रात-रात भर ढोलक बजाकर गाँव की निस्तब्धता को दूर करने की कोशिश की है तथा गाँव वालों के मनोजगत में आशा की किरण भरता है। पहलवान को लगता था कि ढोलक की इस आवाज से लोगों में हिम्मत पैदा होगी और उन्हें महामारी के साथ लड़ने की ताकत मिलेगी। कहानीकार का कथन है- “रात्रि अपनी भीषणता के साथ चलती रहती और उसकी सारी भीषणता को ताल ठोककर ललकारती रहती थी- सिर्फ पहलवान की ढोलक! संध्या से लेकर प्रात:काल तक एक ही गति से बजती रहती- चट-धा, गिड़-धा...... चट-धा, गिड़-धा...! यानी आ जा भीड़ जा, आ जा भीड़ जा..... बीच-बीच में चटाक-चट-धा!, यानी उठाकर पटक दे, उठाकर पटक दे! यही आवाज मृतप्राय गाँव में संजीवनी शक्ति भरती थी”।(13) जिस समय गाँव में मृतकों का ढेर जमा होने लगा था, लोग बेघर हो गए थे, घर के आंगन में शून्यता छा गई थी, उस समय भी एक पहलवान का व्यक्तित्व था, जो कलाकार भी है, अपने स्व में साहस लिए हुए हैं, जो दिन रात एकाकार करके पूरे गाँव के लिए कल्याणकारी सोच रखता था। अपने ढोलक के स्वर से लोगों के मन को शांत करने की कोशिश करता था, उन्हें प्रेरणा देता था और ग्रामीण जनमानस में उत्साह के राग भर देता था।
ग्रामीण परिवेश में महामारी के कारण जो भयानक स्थिति उत्पन्न हो गई थी,
पहलवान उसे ठीक करने की कोशिश करता था। गाँव की भयानक स्थिति का वर्णन लेखक के शब्दों में- “पूरे गाँव में हैजे और मलेरिया इस तरह का रूप धारण कर लेते हैं कि गाँव प्राय: सूना हो चला था। घर के घर खाली पड़ गए थे। रोज दो-तीन लाशें उठने लगीं। लोगों में खलबली मची हुई थी।”(14) महामारी के मृत्यु यज्ञ की निस्तब्धता को दूर करने के लिए, लोगों को हो रही परेशानियों को, विवश मनःस्थिति को दूर करने के लिए पहलवान रात से लेकर प्रात:काल तक लगातार ढोलक बजाता रहता था। कहानी के एक अंश में कहानीकार ने ऐसा संवेदनजन्य वर्णन किया है, मानो कहानीकार ने वर्तमान पीठिका को देखा हो। इस कोरोना काल के दौरान जनमानस की वही हालत हो गयी है, जो कहानी में परिलक्षित होती है। महामारी की त्रासदी का वर्णन करते हुए लेखक लिखते हैं- “भैया! घर में मुर्दा रखकर कब तक रोओगे? कफ़न? कफ़न की क्या जरुरत है, दे आओ नदी में”।(15) लाश के अंतिम संस्कार के लिए कफ़न नहीं मिल पा रहे थे, जिसके कारण लाशों को जैसे-तैसे नदी में बहाना पड़ा था। कहीं न कहीं आज कोरोना के दौर में भी हमें इस दृश्य से गुजरना पड़ा है। जब हजारों लाशें एक साथ उठने लगीं तब कफ़न कहाँ से नसीब होंगे? इसीलिए सब को नदी में ही बहा दिया गया था। इस तरह की भयानक स्थिति से कैसे लोग जूझ सके, उसका जीता-जागता स्वरूप हमें पहलवान की अपराजेय मनःस्थिति में दिखाई देता है। कैसे पहलवान लुट्टन सिंह अपनी कलाकारियों से रात की विभीषिकाओं को भी चुनौती देकर आशा की किरण ले आती थी, जनमानस में फैला देती थी। कोरोना महामारी के दौरान भी हम ऐसे अनेक कलाकार व आशावादी जनता के व्यक्तित्व से रूबरू होते हैं, जिन्होंने पहलवान की तरह ही कोरोना की विभीषिकाओं से लड़ने के लिए सर्वसाधारण जनमानस को उत्साहित किया, लोगों को प्रेरणा दी, खानपान का ध्यान रखा आदि। उदाहरण के तौर पर हम यहाँ ‘सोनू सूद’ जैसे कलाकार को ले सकते हैं, जिन्होंने हजारों लोगों की मदद करते हुए उनमें आशा की नई किरण भर दी और उन्हें मंजिल तक पहुँचाया। हम एक पल के लिए इन्हें पहलवान के स्थान पर रखकर देख सकते हैं कि एक काल्पनिक पात्र का कल्याणकारी व्यक्तित्व आज के यथार्थ के लिए प्रेरणास्रोत है। एक कलाकार होने के नाते एक पहलवान महामारी में लोगों के लिए जो कर सकते था, उसने उसे पूरा किया। कहानीकार के शब्दों में- “पहलवान संध्या से सुबह तक, चाहे जिस ख़याल से ढोलक बजाता हो, किन्तु गाँव के अर्द्धमृत, औषधी-उपचार-पथ्य-विहीन प्राणियों में वह संजीवनी शक्ति ही भरती थी। बूढ़े-बच्चे-जवानों की शक्तिहीन आँखों के आगे दंगल का दृश्य नाचने लगता था”।(16) अत: विचारणीय है कि एक कलाकार की कलाओं ने महामारी की भीषण परिस्थितियों में उससे लड़ने के लिए जनमानस को ताकत दी, यहीं पर साहित्य की जीवन कला जिन्दाबाद घोषित होती हैं। इस तरह का परिवेश विशेषत: गाँव में हमें आज भी देखने को मिलता है। कभी-कभी ये फरिश्ते कलाकार भी महामारी के प्रकोप में आ जाते हैं। हैजे और मलेरिया पहलवान के दोनों बेटों के साथ उसे भी संक्रमित करते हैं। अपने बेटों को खोने के बाद भी वह हिम्मत नहीं हारता तथा उसी उत्साह के साथ ढोलक का आशावादी स्वर निरन्तर सुनाता है। पहलवान अपने बेटों को खोकर भी कर्तव्यरत है। कहानीकार ने पहलवान के व्यक्तित्व को मुखर करते हुए लिखा हैं- “प्रात:काल उसने देखा- उसके दोनों बच्चे जमीन पर निस्पंद पड़े हैं। दोनों पेट के बल पड़े हुए थे। एक ने दांत से थोड़ी मिट्टी खोद ली थी। एक लम्बी सांस लेकर पहलवान ने मुस्कुराने की चेष्टा की थी- दोनों बहादुर गिर पड़े”।(17) महामारी की भयावहता से गाँव वाले कभी-कभी व्यथित होते हैं परन्तु रात के अंधकार को तोड़कर आशा की आभा दिखाने वाले ढोलक की आवाज़ गाँव वालों की हिम्मत दुगनी कर देती है।
महामारी से लोगों के सामने अनेक तरह की समस्याएँ आती हैं। आर्थिक, पारिवारिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक इत्यादि तमाम तरह की समस्याओं के कारण परिस्थितियाँ व परिवेश दयनीय हो जाता है। महामारी के साथ भूखमरी जैसी समस्याएं लोगों की दशा और अधिक दयनीय कर देती हैं। जो लोग प्रतिदिन मजदूरी करके जीवन गुजारा करते हैं, उनके लिए जिन्दा रहना भी दुष्कर बन जाता है। समस्याओं की विभीषिका से सामना करने के लिए लोगों में हिम्मत की ज़रूरत पड़ती है, जो पहलवान में सामान्यत: है, पहलवान उसे लोगों में भी जगाने की कोशिश करता है।
आज भी कहीं न कहीं गाँव का परिवेश वैसा ही है,
जो सौ साल पहले हुआ करता था। तत्कालीन समय में महामारियों से लोग जिस तरह जूझते थे, कहीं न कहीं आज भी लोग वैसे ही क्षतिकारक समस्याओं का सामना करते हैं। हमारा देश स्वतंत्र होने के बावजूद भी कहीं न कहीं गाँव का परिवेश हाशिये पर है। सत्ता-व्यवस्था में अनेक बदलाव आए परन्तु गाँव का परिवेश वहीं का वहीं है। कहानीकार ने कल्पित पात्र पहलवान की धैर्यशीलता, संयम, उदारवादिता एवं मानवीयता जैसे बहुमूल्य व्यक्तित्व से महामारी से जूझने की प्रेरणा दी। आज की पतनमुखी मानव सभ्यता के लिए पहलवान की मानवीय चेतना अत्यावश्यक है।
निष्कर्ष :
एक विश्व युद्ध विश्व मानवता को आघात करता है और महामारी जैसे विश्व युद्ध मानवता के वर्तमान और भविष्य को खोखले कर देती हैं। कितनों के घर तहस-नहस हो जाते हैं, कितने लोग बेघर होते हैं और महामारी और भूखमरी की भयावहता से कितनों का विवेक विकलांग हो जाता है। लोगों की लाशें नदी में निराधार बहा दी जाती हैं, उनकों कफ़न तक नसीब नहीं होते। ‘पहलवान की ढोलक’ कहानी में भी हम इसी तरह की परिस्थितियों को देख पाते हैं। इस कहानी में ‘हैजे’ और ‘मलेरिया’ जैसी महामारियों से काफी लोगों की मौत होती है। यहाँ तक कि ‘लुट्टन पहलवान’ जैसे कलाकार भी इसके प्रकोप में आ जाते हैं। कोरोना महामारी की वजह से न जाने कितने लुट्टन की मौत हुई, कितने बेघर हो गए। यह विचारणीय विषय है। महामारी की विभीषिका के बारे में किसी ने सच ही कहा है- “कोरोना महामारी नहीं एक युद्ध है, इसी बीमारी से लड़ने का युद्ध, दवाई या वैक्सीन बनाने का युद्ध, अपनों से बिछड़ जाने के बाद जीने का युद्ध, प्रकृति से ऑक्सीजन प्राप्त करने का युद्ध, बेरोजगारों के रोजगार के लिए युद्ध, अपनों के खोए हुए प्यार के लिए युद्ध इस प्रकार चारों तरफ हाहाकार फैला हुआ है”।(18) ‘पहलवान की ढोलक’ कहानी में लुट्टन सिंह अपने कलाकारी अस्तित्व को जीवित रखते हुए गांव के जनमानस को अनावृष्टि, भूखमरी, बेरोज़गारी, हैजे और मलेरिया जैसी महामारियों के भयानक आक्रमण से रक्षा करने की कोशिश की है। जब भी हम आज के दौर में इस कहानी को पढ़ते हैं तो कहीं न कहीं इस कोरोना-काल में भी ऐसे अनेक चरित्रों को समक्ष पाते हैं, जो उन सभी समस्याओं से प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप में कहीं न कहीं लड़े हैं। चूँकि आज देश स्वतन्त्रता प्राप्त करने की 75 साल में आज़ादी का अमृत महोत्सव मना रहा है, लेकिन गाँव का परिवेश जैसा का तैसा है। आज भी गाँव में लुट्टन जैसे ऐसे अनेक पात्र होंगे, जिन्होंने अपनी स्व-इच्छा एवं उत्साही व्यक्तित्व से जनमानस की भलाई की।
कहानीकार के नायक पहलवान हो या समकालीन समय का गांव का कल्याणकारी नायक हो,
सभी ने अपनी परवाह न करते हुए लोगों में जीवन जिजीविषा की शक्ति दी, निराशा को दूर कर अपराजेयता की प्रेरणा दी, सत्ताधारी के सियासी घटनाक्रम से मुक्त कर सर्वसाधारण को सहजता की सीख दी। पहलवान की जिस कलाकारी ने महामारी में रात्रि के निस्तब्धता को दूर कर आशा की किरण जगाई, लोगों में जीवन संजीवनी भर दी, आज उसी की प्रासंगिकता हमें नजर आती है। पहलवान की ढोलक के नायक लुट्टन सिंह ने जिस समस्या से ख़ुद जूझकर मानव सभ्यता की भलाई की, वह कभी भी अप्रासंगिक नहीं हो सकती। यहां कहानीकार के नायक और परिस्थिति निर्मित यथार्थजन्य नायक के व्यक्तित्व की तुलना करने का कोई भी उद्देश्य नहीं हैं। सिर्फ कहानीकार के मनोजगत की पृष्ठभूमि और वर्तमान समय के भोगे हुए यथार्थ के सामाजिक त्रासदी, महामारी की विभीषिका एवं कल्याणकारी उद्देश्यधर्मिता को रेखांकित करने का विधिवत प्रयास किया गया हैं। अतः ज्ञातव्य हैं कि ‘पहलवान की ढोलक’ कहानी आज के दौर में प्रासंगिक एवं उपादेय हैं।
1. https://www.jagranjosh.com/general-knowledge/history-of-epidemics-in-india-since-1900s-in-hindi-1584969350-2
2. सं.शुक्ला, डॉ.अर्चना मिश्रा, महामारी एक युद्ध (लेख और आलेख विशेषांक),प्राची डिजिटल पब्लिकेशन, उत्तराखंड
3. https://www.jagranjosh.com/general-knowledge/history-of-epidemics-in-india-since-1900s-in-hindi-1584969350-2
4. वही
5. वही
6. वही
7. वही
8. वही
9. https://hindisarang.com/mahamari-aur-akaal-par-aadhaarit-hindi-sahity-ke-pramukh-rachanaen/
10. रेणु, फणीश्वरनाथ: संपूर्ण कहानियां, 2016, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, पृष्ठ संख्या-13
11. वहीं, पृष्ठ संख्या - 18
12.वहीं, पृष्ठ संख्या - 13
13. वहीं, पृष्ठ संख्या - 13
14.वहीं, पृष्ठ संख्या - 18
15.वहीं, पृष्ठ संख्या - 18
16.वहीं, पृष्ठ संख्या - 18
17.वहीं, पृष्ठ संख्या - 19
18. सं. शुक्ला, डॉ. अर्चना मिश्रा, महामारी एक युद्ध (लेख और आलेख विशेषांक), प्राची डिजिटल पब्लिकेशन, उत्तराखंड
सहायक सूची :
1. राय. गोपाल, हिंदी कहानी का इतिहास, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली
2. सं. शुक्ला, डॉ. अर्चना मिश्रा, महामारी एक युद्ध (लेख और आलेख विशेषांक), प्राची डिजिटल पब्लिकेशन, उत्तराखंड
3. सं. जी. बी, डॉ. वाकणकर, एस. एम, प्रा. देवराये, एस. ए, डॉ. टेंगसे, कोरोना महामारी आणि भारत, नोशन प्रेस
4. उपाध्याय, आरती, कोरोना काल और शिक्षा, जे.पी.टी पब्लिकेशन, ओड़िशा
शोधार्थी, हिंदी विभाग
हिंदी विभाग, तेजपुर केन्द्रीय विश्वविद्यालय, असम, तेजपुर केन्द्रीय विश्वविद्यालय, असम
aliyajesmina12@gmail.com, 6901609418
डॉ. अंजु लता
एसोसिएट प्रोफेसर, हिंदी विभाग
हिंदी विभाग, तेजपुर केन्द्रीय विश्वविद्यालय, असम, तेजपुर केन्द्रीय विश्वविद्यालय, असम
anjulata2305@gmail.com, 8876083066
अतिथि सम्पादक : मनीष रंजन
सम्पादन सहयोग : प्रवीण कुमार जोशी, मोहम्मद हुसैन डायर, मैना शर्मा और अभिनव सरोवा चित्रांकन : मीनाक्षी झा बनर्जी(पटना)
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