- ममता माली
शोध सार : फणीश्वर नाथ ‘रेणु’ हिन्दी के प्रसिद्ध आँचलिक उपन्यासकार, कथाकार एवं ग्रामीण संस्कृति, भाषा और समाज के चितेरे होने के साथ ही सामाजिक व राजनीतिक विषयों के एक कुशल विचारक भी माने जाते हैं। भारत देश के ग्रामीण समाज के अंचल विशेष पर अपनी लेखनी चलाकर उन्होंने हिन्दी गद्य साहित्य की श्रीवृद्धि में अपना अतुलनीय व अविस्मरणीय योगदान दिया है। हिन्दी साहित्य जगत में रेणु जी आँचलिक उपन्यासकार और कथाकार के रूप में प्रतिष्ठित व्यक्तिमत्व थे। रेणु जी के आँचलिक उपन्यास के माध्यम से भारत के ग्रामीण समाज के अंचल विशेष के साथ ही उस आँचलिकता की पहचान बनी उस गाँव की भाषा, ग्रामीण जीवन की परिस्थितियाँ, सामाजिक, पारिवारिक, आर्थिक और सांस्कृतिक परिवेश, लोकसंस्कृति, लोकगीत, और लोकजीवन का परिचय भी लोगों को प्राप्त हुआ। इतना ही नहीं सिक्के का दूसरा पहलू अर्थात उसी गाँव में पनप रही भुखमरी, अंधविश्वास, दंगे, गरीबी, अशिक्षा, राजनीति, भ्रष्ट प्रशासन तंत्र की कागज़ी नीतियों पर भी अपनी लेखनी चलाकर इन अभावग्रस्त लोगों की पीड़ा, बेबसी, वेदना को मार्मिक अभिव्यक्ति प्रदान की है। यही कारण है कि रेणु जी की रचनाओं में कथानक का नायक कोई पात्र नहीं बल्कि स्वयं गाँव अथवा समाज ही नायक की भूमिका में हमारे सामने आ खड़ा होता है। रेणु जी का समाज उनकी कथा भूमि का ऐसा जीवंत कथानक होता है कि कहीं-कहीं चरित्र और व्यक्ति गौण हो जाते हैं और समाज नायकत्व की भूमिका में मुख्य पात्र बन जाता है। यही कारण है कि उनके कथा संसार का समाज अपनी पूर्ण सजीवता के साथ साकार हो उठता है। रेणु की कथाओं में काल्पनिकता का पुट न होकर उनके निकटस्थ समाज से उपजी कथाओं का स्वर ही प्रस्फुटित होता है। रेणु जी के रचना संसार के संबंध में डॉ. अमरेन्द्र मिश्र जी के कथन हैं, “रेणु के आंचलिक उपन्यासों में ‘स्थानीयता’ का चित्रण बहुविध रूपों में हुआ है। अंचल की कहानी अर्थात उस अंचल विशेष- उसके निवासियों की कहानी, उनकी सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, नैतिक और लोकजीवन तथा सांस्कृतिक गतिविधियों और संघर्षों की कहानी- जिसे कहने के साथ-साथ रेणु उस अंचलों की जड़ और चेतन प्रकृति के आपसी घात-प्रतिघात और इससे निर्मित और विकसित मानव-चेतना की आंतरिक और बाह्य कथा-छवियों की प्रस्तुति में अनुपम हैं।”1 रेणु ने अपने उपन्यासों में अंचल के लोकजीवन का मनोहारी चित्रण किया है।
बीज शब्द : शरणार्थी, जन्मभूमि, कैम्प, जुलूस, विस्थापित, अपनी माटी, विभाजन, स्वराज्य।
मूल आलेख :
रेणु जी का उपन्यास ‘जुलूस’ एक ऐसी ही औपन्यासिक कृति है जिसमें रेणु जी ने विस्थापन व उससे उभरी शरणार्थी समस्या को उद्घाटित किया है। एक ऐसी सामाजिक समस्या जो मानव मन को उद्वेलित करती है। रेणु ने अपने उपन्यास ‘जुलूस’ में उस गाँव को केंद्र में रखा है जो अब शरणार्थी कॉलोनी का रूप अख़्तियार कर चुका है। डॉ. अशोक कुमार आलोक के शब्दों में, “रेणु ने ‘जुलूस’ (1965) के माध्यम से एक सीमांत गाँव की समस्याओं का ही नहीं बल्कि उसकी सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक विशिष्टताओं को भी प्रत्यक्ष करने का सफल प्रयास किया है जिसका कथानक अनेकानेक कथासूत्रों की अन्विति का प्रतिफलन है।”2
‘जुलूस’ की कथा पूर्णिया जिले के गोड़ियार गाँव में बसाई गई शरणार्थी कैम्प ‘नबीनगर’ की कथा है। ‘जुलूस’ उपन्यास का कथानक 1947 के देश विभाजन के पश्चात की स्थिति एवं शरणार्थी कैम्पो में रह रहे लोगों की कथा को विश्लेषित करता है। जुलूस’ उपन्यास की शुरुआत ही ‘हल्दी चिरैया’ की ‘का कस्य परिवेदना’ से होती है।
“आज वह हल्दी चिरैया फिर आयी है?
बरसात-भर यह रोज इस तरह समय-असमय आयेगी।”³
हल्दी चिरैया की परिवेदना और उपन्यास की मुख्य पात्रा नायिका पवित्रा की परिवेदना के समतुल्य है। कह सकते हैं कि नायिका और उपमान चिरैया के माध्यम से कथा को अभिव्यक्ति प्रदान की गई है। उपन्यास में पूर्वी पाकिस्तान (वर्तमान बांग्लादेश) से आए बंगाली शरणार्थियों की व्यथा कथा है। जुमापुर के शरणार्थियों का दल नबीनगर के तीन-चार शरणार्थी केम्पों में शरण लिए था। ‘जुलूस’ उपन्यास में 1947 के काल का वर्णन है, जब भारत देश को आज़ादी मिली थी विभाजन की शर्त पर, और तब भारत-पाकिस्तान विभाजन की घटना घटित हुई थी। इसी घटना के उपरांत पाकिस्तान से आए शरणार्थी थे, जो बिहार के पूर्णिया जिले के नबीनगर में आ बसते हैं। ‘जुलूस’ की कथा नबीनगर से संबन्धित है। इसी नबीनगर में बसे शरणार्थी ही 1947 में प्राप्त स्वराज्य को मनाने हेतु ही आज लगभग 14 वर्षों के पश्चात अर्थात 1961 में ‘जुलूस’ का आयोजन करते हैं। ‘जुलूस’ का कालखंड 1961 के वर्षों के वर्षा माह के चार महीनों का है। ‘जुलूस’ उपन्यास के माध्यम से रेणु जी ने स्वतन्त्रता प्राप्ति व पूर्वी बंगाल के विभाजन और उससे उपस्थित दंगों के परिणामस्वरूप पूर्वी बंगाल से भारत आए विस्थापितों के दुख: दर्द व व्यथा कथा का बहुत ही मार्मिक ढंग से चित्रण किया है। यही नहीं स्वतन्त्रता प्राप्ति के 14 वर्षों के उपरांत भी लगभग 14 वर्षों के वनवास जैसा कालखंड भी बीत गया लेकिन गाँव में आज भी अंधकार, अंधविश्वास, भुखमरी, गरीबी, जादू-टोना, तंत्र-मंत्र आदि सामाजिक कुरीतियाँ व जटिलताएँ व्याप्त हैं। “चौदह वर्ष वनवास के ...........।..........चौदह वर्ष हुए स्वराज्य के।...........लगता है कल की बात हो। की याद ताज़ा है अभी भी। दो-दो बार आम चुनाव हो चुके हैं।4
इस आधार पर कह सकते हैं कि ‘जुलूस’ की कहानी भारत स्वतन्त्रता के लिए हुए विभाजन के त्रासद व मार्मिक घटनाओं के साथ ही उसके उपरांत शरणार्थियों के उपेक्षित और संघर्षपूर्ण जीवन से जुड़ी घटनाओं की कहानी बयान करता है। विस्थापितों के स्वर को उनकी पीड़ा को ही रेणु जी ने अपने उपन्यास ‘जुलूस’ में मानवीय संवेदना के बतौर मार्मिक अभिव्यक्ति प्रदान की है। इस ‘जुलूस’ के संबंध में लेखक ने उपन्यास की भूमिका में लिखा है,
“पिछले कुछ वर्षों से मैं एक अद्भुत भ्रम में पड़ा हुआ हूँ। दिन-रात-सोते-बैठते, खाते-पीते-मुझे लगता है कि एक विशाल जुलूस के साथ चल रहा हूँ। अविराम ! यह जुलूस कहाँ जा रहा है, ये लोग कौन हैं, कहाँ जा रहे हैं, क्या चाहते हैं – मैं कुछ नहीं जानता। इस महा कोलाहल में अपने मुँह से निकला हुआ नारा – मुझे नहीं सुनाई पड़ता। चारों ओर एक बवंडर मंडरा रहा है, धूल का। ……. इस भीड़ से निकलकर, राजपथ के किनारे सुसज्जित ‘बालकनी’ में खड़ा होकर जुलूस को देखने की चेष्टा की है। किन्तु इस भीड़ से अलग होने की सामर्थ्य मुझमें नहीं। इस जुलूस में चलने वाले नर-नारियों और अपने आस-पास के लोगों से मेरा परिचय नहीं। लेकिन उनकी माया ममता ........ मैं छिटककर अलग नहीं हो सकता !”5 इस जुलूस की भीड़ से अलग ना हो सकने की पीड़ा ही रेणुजी को उस अंचल से बांधने और लेखन की शक्ति की परिचायक है। लेखक मानसिक रूप से इस ‘जुलूस’ के साथ स्वयं को जुड़ा हुआ पाता है। लेखक के कहे ये शब्द यह व्यक्त करते हैं कि लेखक अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों के प्रति सजग व प्रतिबद्ध है। तभी तो विस्थापितों की पीड़ा को अभिव्यक्ति मिली है। विस्थापितों के साथ मानसिक रूप से जुड़ाव ही उनकी वेदना को मुखर कर सका है।
‘जुलूस’ उपन्यास पूर्णिया जिले के नबीनगर और गोड़ियर गाँव के संबंध और संघर्ष की कथा है। इस उपन्यास में रेणु ने स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात के दंगों के कारण पूर्वी बंगाल से भारत आए विस्थापितों जिन्हें पूर्वी बंगाल के आस-पास के लोग पाकिस्तानियाँ कहकर संबोधित करते हैं, के दु:ख दर्द की गाथा को मार्मिक अभिव्यक्ति प्रदान की है। इतना ही नहीं इस राजनीतिक उठा पटक के बावजूद स्वतन्त्रता के बीते 14-15 सालों के बाद आज भी गाँव उसी अंधकार, गरीबी, भुखमरी, बाढ़, अंधविश्वास, सामाजिक कुरीतियों में जीने को अभिशप्त हैं। अपने आँचलिक उपन्यासों में रेणु ना केवल राजनीति बल्कि सामाजिक सत्य को उजागर करते हैं। यही कारण है कि उन्हें क्रांतिकारी और संघर्षशील लेखक माना जाता है।
‘जुलूस’ का भौगोलिक परिवेश उपन्यास में इस तरह से चित्रित हुआ है –
“गोड़ियर गाँव। पंद्रह घर मैथिल, चार परिवार राजपूतों के ........ यह है गोड़ियर गाँव का बाबू टोला। बीस घर ग्वाले, आठ धानुक, तेरह घर गोढ़ी....... गोड़ियर गाँव का असल नाम इसी गोढ़ी टोला से हुआ जहाँ गोढ़ी (मछली मारने वाली जाति) लोग रहते हैं.......गोढ़िहार से गोड़ियर।........ब्राह्मण टोली में चौधरी परिवार और राजपूतों में गिनगूँथकर एक घर बाबू साहब। बाकी लोग यजमानी, पहलवानी, गाड़ीवानी, घोड़ा, लढाई, दुकान, नौकरी, खेत-मजदूरी और चोरी करके जीवनयापन करते हैं।’6 ‘दो घर राजपूत, सौतेले भाई हैं..........दोनों खेती करने के अलावा झूठी गवाही देते हैं और लठैत का काम करते हैं। बीस घर ग्वाले हैं, किन्तु न किसी के पास भैंस हैं और न गाय। धानुकों का भी यही हाल है।’7 यह है ‘जुलूस’ के माध्यम से उस गाँव के भौगोलिक परिवेश का चित्रण, एक बेहद सीमित भूगोल का विस्तृत और सखोल चित्रण। किसी स्थान का भौगोलिक परिवेश ही उस स्थान विशेष के विकास और रचना में सहायक होता है साथ ही मानव के सर्वांगीण विकास में भी इसी भौगोलिक परिवेश की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। यही कारण है कि कथानक में भौगोलिक परिवेश का वर्णन भी विहित है।
किसी भी देश का विभाजन केवल उस देश का नहीं बल्कि देश के भीतर पनप रही समाजिकता, सांस्कृतिकता, भाषा, और जनजीवन का विभाजन होता है। पूरे शरीर से मानो किसी एक अंग के कटने सा जो दर्द होता है, विभाजन का दर्द उसकी अनुपस्थिति में और सालता है। साथ ही उस पूरी काया को उस अंग विच्छेदन से जो विभीत्सता, कुरूपता प्राप्त होती है उसकी क्षतिपूर्ति कभी भी पूरी नहीं होती है। विभाजन वही दर्द है जो विस्थापितों के तन और मन दोनों को अत्यंत पीड़ा देकर जाता है। विस्थापितों के सामने सदैव यह प्रश्न खड़ा रहता है, ‘जाएँ तो जाएँ कहाँ?’ विस्थापितों द्वारा दूसरे देश की ज़मीन को, माटी को अपनाने में समय लगता है। यहाँ तक कि आस-पास के लोगों द्वारा भी इन विस्थापितों को अपनाने में काफी समय लगता है, कभी-कभी तो अपनाते तक नहीं। यहाँ की माटी में अपने देश की माटी जैसी गंध, खूबियाँ, रंग आदि विशिष्टताएँ होने के बावजूद भी नबीनगर के कुछ विस्थापितों को यह देश पराया ही लगता है, अपना नहीं लगता, वे अपने आप को परदेशी समझते हैं। रेणु जी के उपन्यास में जहाँ एक ओर समाज नायकत्व की भूमिका में प्रमुख रहा है वहीं दूसरी ओर ‘जुलूस’ उपन्यास के कथानक की दूसरी मुख्य नायिका पात्रा ‘पवित्रा’ भी है।
“कुमारी पवित्रा चटर्जी सरकारी कागजाद और रजिस्टर में यही नाम लिखा है। नाम के साथ जुड़ी हुई रानी........? पवित्रारानी। पबी, पोदा, पोत्रा, पाता – कितने नाम! किन्तु माँ कहती – बूलू। बाबूजी – पाता।8
यों तो कहानी में कई अनेक मुख्य व गौण पात्र भी हैं किन्तु कथानक के केंद्र में समाज की भांति ही पवित्रा भी मुख्य पात्र हैं जिसके इर्द-गिर्द कहानी घूमती है। पवित्रा को बस इसी एक बात का बहुत गहरा दु:ख है,
“गाँव के लोगों का यहाँ की मिट्टी से मोह क्यों नहीं हो रहा है। वह कौन सा दरवाजा है इनके दिल का जिसे खोलने के लिए पवित्रा कुंडी खटकावे?”9 किसी वृक्ष को जब उसकी जड़ों से काटा जाता है तब वह मिट्टी जिससे वह जुड़ा था साथ ही उस स्थान की आबोहवा, भौगोलिक वातावरण के सहयोग से ही वह अब तक पनप रहा था। यदि उस वृक्ष को उसकी जड़ से उखाड़ किसी अन्य स्थान पर रोपा जाता है तो उस नए वातावरण के साथ उसे भी तादात्म्य स्थापित करने में वक़्त तो लगता ही है और कभी-कभी वैसा वातावरण ना पाकर वह वृक्ष एक ठूँठ में भी बदल जाता है। कहने का तात्पर्य है कि यह वेदना केवल वृक्ष की नहीं है, बल्कि उन सभी सजीवों की हो सकती हैं जिन्हें एक स्थान से दूसरे स्थान पर विस्थापित किया जाता है, फिर मनुष्य इससे अछूता कैसे हो सकता है। पवित्रा उन अपने लोगों का उस नई ज़मीन को ना अपनाने का कारण भी जानती है क्योंकि, ‘पंद्रह साल के लड़के-लड़कियों की बुद्धि में कोई बात नहीं आ रही है। इनमें से अधिकांश का जन्म भागते समय विभिन्न कैम्पो में हुआ है, मालदह, कटिहार, पटना, बेतिया। फिर भी वे उन खुले खेतों की ओर, खजूर के पेड़ों को काले जंगल को लाल खपरैल वाले घरों की ओर टकटकी लगाकर देख रहे हैं।’10 स्वयं पवित्रा भी तो इसी तरह अपने देश से भागते, अपनी जान बचाते हुए इस देश में आकर शरणार्थी कहलाई। पवित्रा अपने देश से इस देश में आई थी एक विस्थापित बनकर; कारण पवित्रा के भावी पति विनोद का कासिम के द्वारा मारा जाना क्योंकि कासिम की कुदृष्टि थी पवित्रा पर – ‘ईद का जश्न। आग की लपलपाती हुई लपटों की रोशनी में पवित्रा ने देखा था – कासिम ढूंढ रहा है।........कोथाय........कोथाय........कोथाय से?.....आग.....मार-काट.........बंदूकों की आवाज़ें........ईद का जश्न........फुलझड़ी..........वन्देमातरम..........गाँधीजी की जय – पवित्रा के पिता की आवाज़ ठाकुरबाड़ी में मंडरा रही है।..........कासिम ढूंढ रहा है – साला बूड़ार बेटी कोथाय?..........आमार चाँद!.......फिर, पवित्रा ठाकुरबाड़ी से निकलकर कैसे बाग्दोपाड़ा पहुंची, वह नहीं जानती। उसकी आँखें खुली थी – हिंदोस्तान के एक शरणार्थी कैंप में, कटिहार स्टेशन पर।........घर से भागते समय बाबा के रचे हुए कीर्तन की पोथीवाली झोली वह कलेजे से सटाकर निकली थी।’11 अपनी जन्मस्थली के पश्चात कर्मस्थली को, जहाँ जीवन का एक लंबा समय व्यतीत होता है, भुला पाना आसान नहीं होता। वह स्थान जहाँ हमारी जन्मनाल गड़ी होती है उसे तो कतई भुला नहीं सकते हैं। आज इतने वर्षों बाद जब गाँव में जुलूस निकला है तो उसी के कारण लोगों की याद ताज़ा हो आई है और इतने अरसे बाद भी लोग अपने देश को याद करते हैं।
पवित्रा लाख कोशिश कर रही है जिससे वे लोग इस देश को भी अपना देश मान लें,
क्योंकि अब यहीं जीना है और यहीं मरना है। इसीलिए गाँव बसने के बाद पवित्रा एक दिन गाँव के लोगों को समझा रही थी –“हम लोगों का भाग्य अच्छा है कि इस जिले में हमें बसाया गया। यहाँ धान और पाट की खेती होती है, हम भी अपने देश में धान और पाट की खेती करते थे। यहाँ के लोग भी मछली भात खाते हैं। गाँव, घर, बाग-बगीचे, पोखरे और नदी – सब कुछ अपने देश जैसा........।”12
पवित्रा के शब्दों में, “इस देश में सिर्फ आदमी ही आपन पार्टी का नहीं, दिशाएँ भी ‘आपन देश और आपन पार्टी की हो सकती है।”13 पवित्रा चाहती है कि अब हम जिस देश में स्थित है चाहे शरणार्थी ही क्यों न हो लेकिन अब हमें इसी मिट्टी के साथ जीना होगा तभी हम जी सकेंगे। रमैन में गोसांई जी ने जो कुछ कहा है, पवित्रा के भी अपने लोगों के लिए वही भावाभिव्यक्ति है – ‘जहाँ रहिए सोहि सुन्दर देशू, जो प्रतिपालहि सोहि नरेशू।’14
पवित्रा की बातों का हरलाल साहाने तीखी आवाज़ में विरोध करता है – “सी हुति पारे ना (ऐसा होना असंभव है!).........कहाँ अपना देश और अपने देश की मिट्टी और अपने देश का चावल, और कहाँ इस अद्भुत देश का ‘आजगुबी व्यापार’।.......पता नहीं तुमने क्या देखा है पोत्रादी ! यहाँ की मछली में क्या वही स्वाद है जो ‘पद्दा के इलिच, में
.........?”15
‘आपना’ देश फिर ‘आपना’ देश ! ..........पर-भूमि कैसी भी हो, आखिर पर भूमि ही है।’16
सच है अपना देश तो आखिर अपना देश ही होता है। लेकिन यदि हालत ऐसे है कि मजबूरी या परिस्थितिवश हमें किसी और देश का रुख करना पड़े या एक लंबे समय के लिए रुकना पड़े तो ऐसे में उस देश में ही अपने देश की झलक पाकर गुज़र बसर तो करना ही पड़ता है। इसीलिए एक दिन पवित्रा ने भी नबीनगर के अपने देशवासियों को नबीनगर की भूमि पर ही जुमापुर के गाँव की झलक दिखाकर उन्हें ना केवल हतप्रभ कर दिया बल्कि उनका रोआँ-रोआँ अपने देश की अपनी माटी की झलक पाकर पुलकित हो उठा,
आँखें सजल हो उठीं। अपनी जन्मभूमि की झलक पाते ही कालाचाँद ने भरे गले से कहा – “दीदी अकरुन, पर-भूमि में रहकर भी जुमापुर पहुँच गया। देखो, मेरी देह, सभी रोएँ खड़े हैं।.......यह तो सचमुच जुमापुर में ही हैं हम लोग।”17
अपने देश, अपने गाँव की एक झलक पाकर सभी मानो धन्य हो गए हैं, भले ही यह दृश्य किसी और देश की भूमि पर देखे गए हों किन्तु झलक के बहाने ही सही अपना गाँव तो दिखा। ‘जुलूस’ उपन्यास में वर्णित यह तथ्य बताते हैं कि किस तरह से अपने देश अपनी माटी के साथ लोगों का जुड़ाव होता है कि उसकी झलक मात्र जो केवल समानानुभूति लिए हुए है एक सुखद अनुभव से आप्लावित है। गोपाल पाइन के शब्दों में – “उसने एक-एक जुमापुर के निवासी को नाम ले-लेकर पुकारा– देखे जास-देखे जास....... देख जाओ, एक झलक अपनी जननी-जन्मभूमि की !”18 नबीनगर का प्रत्येक व्यक्ति आज जुमापुर में अपने गाँव पहुँच गया था। वह गाँव, वह अपना देश, अपनी माटी जिसे आज से 14 साल पहले वे जबरन छोड़ने पर मजबूर थे। विभाजन की बाढ़ ने इन्हें इनके गाँव से बहाकर नबीनगर गाँव लाकर विस्थापित कर दिया था – एक शरणार्थी के रूप में। तब से यही इनकी पहचान थी – ‘पाकिस्तानियाँ शरणार्थी।’ अपने गाँव की झलक पाकर लोग भले ही शरीर रूप में आज नबीनगर में हैं लेकिन मन तो जुमापुर में जा बसा।………..‘जुमापुर – निवासी शरणार्थियों को रात-भर नींद नहीं आयी.......आश्चर्य रात के अंधकार में रंग भी उस ‘दिक्’ देखो हू-ब-हू अछिमुद्दीनपुर हाटकी रोशनी ! दूर से झिलमिलाती हुई रोशनी
!.........रात भर जब तक जागे रहे, जुमापुर में ही रहे। वहीं की याद, चर्चा।’19
अपने गाँव की झलक पाकर सभी का मन इतना दुखी हो उठा था कि कोई अपने काम पर भी नहीं लौटा – ‘दोपहर को ऑफिस-घर में एकत्रित शरणार्थियों को समझा रही है पवित्रा........भगवान ने देखा कि अपनी जन्मभूमि की याद करते-करते हमारा हृदय कुंठित हो गया है। किसी काम में जी नहीं लगता इनका। किसी चीज़ से प्यार नहीं – न यहाँ के लोगों से, न यहाँ के पशु-पक्षी से। किसी पर विश्वास नहीं जमता इनका। यहाँ की मिट्टी को प्यार दो ! .......जुमापुर और नबीनगर एक ही है।’20 रेणु के उपन्यास में मिट्टी से मोह, प्रेम अपने उत्कट रूप में प्रकट हुआ है।
रेणु के ‘जुलूस’ उपन्यास की नायिका पवित्रा का यह कथन – “मैं जी गई फिर। मैं अकेली नहीं। मैं नि:संग नहीं। मैं कहीं निर्जन में नहीं। मैं एक विशाल परिवार की बेटी हूँ।......इन आत्मीय स्वजनों के बीच पारस्परिक सहानुभूति और सहयोगिता को फिर से पनपा पाऊँगी मैं।.......अपने गाँव समाज में- लोग के वीरान हृदय में – आनंद मुखर स्वर फिर से भरना होगा।.....खोई हुई चीजों का उद्धार करना होगा।......अपरिचय, उदासीनता, अकेलापन, आत्मकेंद्रितता, विच्छिन्नता को दूर करके भूले-भटके लोगों को, पास लौटाकर लाना होगा।.....मैं अपनी सत्ता को इस समाज में विलीन कर रही हूँ। लोक संस्कृति मूलक समाज के गठन के लिए।”21
इस प्रकार ‘जुलूस’ भारत के सरहदी गाँव के विस्थापितों की जीवनगाथा का एक प्रतीक बनकर उभरने में सफल हुआ है। जिसमें प्रकारांतर से यह स्वीकारा गया है। आज़ादी के बाद की राजनीति किस तरह अवसरवादियों की गिरफ्त में आकर गंदी होती गयी और लोगों ने गद्दी के लिए धर्म, ईमान यहाँ तक कि देश को भी भुला दिया, यह किसी से छुपा नहीं।”22
निष्कर्ष :
उपन्यास आधुनिक युग की एक ऐसी सशक्त व लोकप्रिय साहित्यिक विधा है जो अभिव्यक्ति के बेजोड़ व सशक्त माध्यम के रूप में प्रसिद्ध है। इस विधा में जहाँ एक ओर उपन्यासकार अपनी रचना के माध्यम से मानव जीवन दर्शन को प्रस्तुत करते हुए उसका मूल्यांकन करते हैं वहीं दूसरी ओर आम और खास अपने जीवन के अक्स को पाकर जीवन के विभिन्न पहलुओं से भी परिचित होता है। यही कारण है कि रेणु जी ने अपनी रचनाओं में समकालीन परिस्थितियों का चित्रण किया है, अतीत और वर्तमान का एक ऐसा चित्रण जो भविष्य की ओर इंगित करता है। रेणु जी के उपन्यासों की यही विशेषता है कि इनके उपन्यास के विषय में सामाजिक, पारिवारिक, आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, धार्मिक और भौगोलिक आदि सभी कुछ स्थान पा चुके हैं,
जो साथ ही अंचल की विशेषता को भी दर्शाते हैं। यही रेणु जी की और उनके उपन्यासों की विशेषता और उपलब्धि रही है।
1) अमरेन्द्र मिश्र : फणीश्वरनाथ रेणु के उपन्यासों में नैतिक परिप्रेक्ष्य, हिन्दी बुक सेंटर, नई दिल्ली, 1998, पृ. 90
6) वही, पृ. 20-21
शोधार्थी पी-एच.डी., हिन्दी शोध केंद्र, विद्याप्रसारक मण्डल द्वारा संचालित के. जी. जोशी कला एवं
एन. जी. बेडेकर वाणिज्य महाविद्यालय, ठाणे – 400601
mamtamali88748@gmail.com, 7620651988
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) फणीश्वर नाथ रेणु विशेषांक, अंक-42, जून 2022, UGC Care Listed Issue
अतिथि सम्पादक : मनीष रंजन
सम्पादन सहयोग : प्रवीण कुमार जोशी, मोहम्मद हुसैन डायर, मैना शर्मा और अभिनव सरोवा चित्रांकन : मीनाक्षी झा बनर्जी(पटना)
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