- डॉ. पूनम शर्मा
शोध सार : फणीश्वरनाथ रेणु उन प्रमुख कहानीकारों में हैं जिन्होंने कथाकारों के लिए वे प्रतिमान स्थापित कर दिए, जिन पर चलकर कथा साहित्य को समृद्ध किया जा सकता है और पाठक को तत्कालीन व्यवस्था से रूबरू। उनकी ‘टेबुल’ कहानी कारपोरेट जगत की उस व्यवस्था को सच्चाई से शब्दबद्ध करती है जहाँ अनैतिक इच्छाओं की पूर्ति के लिए सब कुछ जायज़ है। कहानी की प्रमुख पात्र मिस दुर्बा दास थोड़े ही समय में पदोन्नति पाकर असिस्टैंट ब्रांच मैनेजर बन गई है जो अपने व्यक्तित्व में अनेक रंगों को समेटे अपने नीचे काम कर रहे कर्मचारियों का शोषण कर रही है। ऑफिस में होने वाली प्रत्येक गतिविधि को रेणु ने शब्दों का ऐसा जामा पहनाया कि कारपोरेट जगत पाठक के सम्मुख आकर खड़ा हो गया। किस प्रकार मिस दुर्बा ने उन्नति की? अब अपने पद के बल पर वह क्या चाहती है? किस प्रकार वह अनुरंजन दास गुप्ता से बात कर रही है? आगे क्या होगा? यह जिज्ञासा पाठक के मन में बनी रहती है, जो रेणु की कलात्मकता को दर्शाती है। रेणु उन महान कलाकारों में से हैं जिन्होंने तत्कालीन जीवन की सच्चाई को बड़ी बेबाकी के साथ कहानी में रच दिया। पुरूष प्रधान समाज में बॉस महिला के प्रति उनकी सोच, स्त्रियोचित्त स्वभाव के तहत दुर्बा का व्यक्तित्व कहानी को कहीं रूकने नहीं देता और परत-दर-परत अनेक रंगों में रंगी मिस दुर्बा अन्ततः विजयी दिखाई देती है। उसकी ये अनैतिक इच्छाएँ उसे तो संवेदनहीन दिखाती ही हैं लेकिन अनुरंजन जैसे संवेदनशील पुरूषों को कहीं भीतर तक खोखला कर देती हैं।
बीज शब्द : अनैतिक, पराकाष्ठा, मर्यादा, रीढ़हीन, संवेदनशील!
मूल आलेख :
“मिस दुर्बा दास!
अब सिर्फ मिस दुर्बा दास नहीं। मिस दुर्बा दास,
अस्स्टिैंट ब्रांच मैनेजर; काण्टिनेण्टल कास्मेटिक्स एण्ड ड्रग्स लि. कलकत्ता-बम्बई-दिल्ली-पटना। ब्रांच पटना”1 से प्रारम्भ होती, फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी ‘टेबुल’, कहानी की प्रमुख स्त्री पात्र ‘मिस दुर्बा दास’से हमारा परिचय करवाती है। दुर्बा प्रेम पिपासा और महत्त्वाकांक्षा के पाटों में पिसती वह नारी है, जो प्रेम को ठोकर मारकर अपनी कैरियर संबंधी इच्छाओं की पूर्ति आवश्यक समझती है। उच्च पद पाने की चाहत में उसकी अनैतिक इच्छाएँ इस हद तक बढ़ जाती हैं कि वह मानसिक रोगी की भाँति सोचती और कार्य करती दिखाई देती है, दुर्बादास अफसरशाही के अमूर्त्त प्रतीक के रूप में सामने आती है, जहाँ मानवीय रिश्ते हाशिये पर चले गए हैं और जड़ वस्तु से संबंध पनपता दिखाई दे रहा है, इस जड़ वस्तु टेबुल से उसका प्रेम या यह कह लीजिए कि उससे मिलने वाली ऊष्मा दुर्बा पर इस कदर हावी हो जाती है कि उसे पाने के लिए वह नैतिकता की सीमाओं का उल्लंघन तक कर जाती है। काण्टिनेण्टल कास्मेटिक्स एण्ड ड्रग्स लि. कलकत्ता-बम्बई-दिल्ली -पटना। ब्रांच पटना का अपना परिवेश है जहाँ हर व्यक्ति अपने काम में व्यस्त है परन्तु पिछले सात दिनों से सभी की जिज्ञासा का विषय बनी हुई है, मिस दुर्बा दास की पदोन्नति। यह घटना सभी को आश्चर्य में डाले हुए है और दफ्तर का हर व्यक्ति इस घटना पर अपनी प्रतिक्रिया दे रहा है। दुर्बा का वक्र व्यक्तित्व अपने कर्मों से सभी पर आघात कर रहा है। रेणु ने इन घात-प्रतिघातों से कथानक की रचना की है। जो पाठक में अंत तक कौतुहल और जिज्ञासा बनाए रखती है। असिस्टेंट ब्रांच मैनेजर बनते ही दुर्बादास का चरित्र एक नाटकीय मोड़ के साथ पूरे दफ्तर में खलबली मचा देता है। वह आठ-साल से जिस टेबुल पर बैठकर काम कर रही थी, उसे बड़े बाबू के लिए छोड़ना नहीं चाहती वह उसे अपने साथ रखना चाहती है। इस नाटकीय घटना में दफ्तर का प्रत्येक पात्र सक्रिय भागीदारी निभाता दिखाई दे रहा है और उनकी सक्रियता दुर्बा के चरित्र के हर रंग से हमारा परिचय करवाती है। दुर्बा का टेबुल के प्रति अमानवीय व्यवहार कहानी को गतिशील बनाता है। कहानी में बहुत से पात्र हैं । माली, चपरासी, हैडक्लर्क, बड़ा साहब, सभी मिलकर ऑफिस के जीवंत रूप को हमारी आँखों के सामने खड़ा कर देते हैं। ये सभी पात्र और इनकी सजीव गतिविधियां जहाँ यदि कोई स्त्री इनकी 'हैड' बनकर आ जाती है तो इनके लिए असह्य हो जाता है कि किस प्रकार अब ये सभी मर्द, स्त्री का आदेश मानेंगे “पर्चेज़ सेक्शन के झा ने अधजली सिगरेट को सुलगाकर कहा, ई जुल्में है कि?
क्या जुल्म है?,
यही कि जनाना जात राज करे और मरद जात .... हमारे यहां एक कहनी है कि - जे घर मौगी कैल घरबार - से घर बूझू बंटाढार।”2 उक्त पंक्तियाँ ऑफिस में होने वाली बेमतलब की गपबाज़ी और पुरूष प्रधान समाज में, स्त्री के प्रति उनके दोहरे व्यक्तित्व और सोच को दर्शाती हैं। मिस दुर्बा दास आठ वर्ष पहले इस ऑफिस में डिस्पैच क्लर्क बनकर आई थी और आज असिस्टैंट ब्रांच मैनेजर। इतनी जल्दी, इतनी तरक्की लोग नहीं कर पाते फिर दुर्बा ने कैसे की? ये सभी प्रश्न कहानी की शुरूआत में ही मिस दुर्बा के परिचय से, पाठक के हृदय में घुमड़ने लगते हैं, लेकिन कहानी जैसे-जैसे आगे बढ़ती है अनेक परतें खुलने लगती है। दुर्बा के चरित्र की विशेषताएँ सदैव कौतुहल बनाए रहती हैं क्योंकि न तो कभी किसी ने उसे खाते देखा और न खिलाते। उसके परिश्रमी व्यक्तित्व को लेखक इन शब्दों में बयान करता है - “दिन भर में सिर्फ दो तीन बार उसका कॉलिंग बेल बजता दो बार पानी पीती। लंच के समय पाउडर की डिबिया जैसे टिफिन-बक्स से एक लीली बिस्कुट निकालकर कुतर लेती। बोलती बहुत कम। मुस्कराती रहती, हर घड़ी।”3 कहानी बड़ी ही सहजता और रोचकता के साथ आगे बढ़ती है, जो पाठक को लेखक की सृजनात्मकता का कायल कर देती है क्योंकि कहीं भी कहानी में स्थिरता अथवा ठहराव नहीं है। ऑफिस बाबूओं की गहमागहमी, मिस दुर्बा द्वारा किए गए कार्यों की चर्चा, कहानी को नए संदर्भों से जोड़ती रहती है।
“मिस दुर्बा दास, हेड क्लर्क ने एक बार ट्रांसपोर्ट के सेन का हिसाब चेक कर कहा “हिसाब गलत है।” सेन ने सारा दिन बैठकर हिसाब किया - करवाया। पेट्रोल के कूपनों से लेकर आटोमोबाइल - गैराज के बिलों को दुहराकर देखा। साढ़े चार बजे जो हिसाब पेश किया सेन ने उस पर सरसरी निगाह डालकर ही मिस दुर्बा दास ने विशुद्ध बंकिमचन्द्रीय बंगला में कहा था, “आपनि दॅया कॅरिया आपनार ब्रह्म तालुते छागघृत अनुलेपन करूंनप्रत्यह! ”4 अर्थात् कृपा करके आप अपनी खोपड़ी में रोज बकरी के घी की मालिश करें।” और सभी ठठाकर हँसने लगते हैं। दफ्तर में होने वाली इस तरह की बातचीत के उदाहरण कहानी को गतिशील बनाए रखते है। ‘‘टाइपराइटरों की गति, कालिंग बेल की पुकार, दराजों को खोलने और बन्द करने की आवाजें दफ्तर के वातावरण को सजीव करती हैं। विद्या सिन्हा के शब्दों में - शब्दों के गुंजित होते प्रभाव परिवेश को मूर्त्त अभिव्यक्ति देते हैं, पात्र को मूर्त करते हैं, स्थिति की साकार प्रस्तुति करते हें।’’5 फणीश्वर नाथ रेणु ने कहानी को बड़ी ही संजीदगी के साथ रचते हुए इसे अंत तक रोचक बनाए रखा है, जिसका कारण कहानी में होने वाले घात-प्रतिघात और उससे उभरते चरित्र है। जैसे ही कहानी में हैडक्लर्क अनुरंजन दास गुप्ता की एंट्री होती है, कहानी का रूख ही बदल जाता है, अभी तक जहाँ कहानी के केन्द्र में थी मिस दुर्बा दास, अब कहानी का केन्द्रबिन्दु बन जाती है, मिस दुर्बा दास की ‘टेबुल’ जिस टेबुल पर बैठकर मिस दुर्बा दास ने आठ साल काम किया। अब उस टेबुल का नया अधिकारी, नया बड़ा बाबू, हैड क्लर्क अनुरंजन दास गुप्ता आ गया है। लेकिन जैसे ही दुर्बा को पता चलता है कि उसकी टेबुल पर मि. दास बैठेंगे वह कहीं अस्त व्यस्त सी हो जाती है और जैसे ही उसे यह पता चलता है कि नए बाबू ने सिंगेसर को बुलवाकर टेबुल पर कोई कांटी अथवा कील ठुकवाई है तो दुर्बा में तो मानों काटो तो खून नहीं। उसके हृदय में एक साथ
चल रहे अनेक भावों की उठापटक, चैन से बैठ नहीं पा रही है, कोई काम वह नहीं कर पा रही है, केवल और केवल वह सोच रही है कि टेबुल उसे ही चाहिए “... क्या किया जाए? वह टेबुल दुर्बा को चाहिए, आज चाहिए, अभी चाहिए। उसके सिवा वह एक क्षण चैन से नहीं बैठ सकती।... नहीं, नहीं, नहीं! कुछ नहीं हो सकेगा उसके द्वारा। मेमो पर दस्तखत तक नहीं और उधर वह गुप्ता आते ही आते कील क्यों ठोकना शुरू किया टेबुल में? पता नहीं किधर कील ठोक रहा था? सी-ई-ई”6 डॉ. सुवास कहते है – मि. दुर्बादास की जिद था सेंटीमेंट एकदम आधुनिक बुद्धिजीवी नारी की मानसिक उलझन का परिणाम है, जो हृदय ओर मस्तिष्क के कशमकश में बुरी तरह खींची जा रही है। मुर्दा संबंधों वाले उसके जीवन की नीरसता इतनी विडम्बनापूर्ण है कि उसे टेबुल - जैसी निर्जीव वस्तु से लगाव पैदा करने को मजबूर होता पड़ता है क्योंकि सारे मानवीय और आत्मीय संबंध जड़ और काठ हो गए हैं।’’7
टेबुल को लेकर दुर्बा के मन में उठने वाले ऊहापोह का सजीव चित्रण यहाँ रेणु ने किया है। ‘‘दुर्बादास का मानसिक रोग वास्तव में जड़व्यवस्था से अश्लील अमानवीय और विकृत प्रेम करने की त्रासदी का परिणाम है। यह केवल स्थूल, व्यक्तिगत ओर मनोवैज्ञानिक गुत्थी ही नहीं है। सच पूछा जाए तो ‘टेबुल’ दफ्तरशाही के अन्तर्गत हो रहे अव मानवीयकरण की विश्वस्त फैंटेस्टिक दास्तान, एक आधुनिक महागाथा है।’’8
इतनी झल्लाहट, अनमनापन देख लेने के बाद पता चलता है कि मिस दुर्बा और मि. गुप्ता आज पहली बार नहीं मिलें है अर्थात् दोनों एक-दूसरे से परिचित हैं। दोनों ने एक साथ पिछले साल कलकत्ता में ट्रेनिंग की है। किन्तु दुर्बा उन स्मृतियों को अपने हृदय और मस्तिष्क से मिटाकर अपना स्वार्थ पूरा करना चाहती है। तब पाठक की जिज्ञासा और अधिक बढ़ जाती है कि यदि यह दोनों की पहली मुलाकात नहीं तो अब कहानी क्या मोड़ लेगी? और दोनों के बीच हुई बातचीत कुछ और परतों को खोलती है। जहाँ पता चलता है कि दोनों ने एक दूसरे के साथ समय व्यतीत किया है और आज स्त्रियोचित व्यवहार अथवा मनोवैज्ञानिक विकृति के तहत दुर्बा अनुरंजन से वह टेबुल वापिस दुर्बा के कैबिन में रखवाने के लिए कह रही है “मैनें उस पर आठ साल बैठकर काम किया है। अनुरंजन ने कहा, जी मालूम है। किंतु मुझे कुर्सी नई दी गई हैं। दुर्बा गंभीर हो गई अनुरंजन का यह कथन अश्लील-सा लगा। ....कुर्सी बदलने की बात क्यों बोला? उसने अब मन के सारे संकोच को दूर कर दिया। बोली, वह टेबुल मुझे यहाँ - मेरे चेम्बर में भेज दीजिए।.... अनुरंजन ने बिना कुछ सोचे-समझे जवाब दिया, ठीक है। नया टेबुल आ जाए, पहले...। “पहले पीछे क्या? अभी भेज दीजिए। अनुरंजन ने उसके गालों पर रंगों को इतनी शीघ्रता से चढ़ते उतरते नहीं देखा था। न स्टार में न ट्राम में, बेलुड़ में - कहीं नहीं।”9 जहाँ अनुरंजन के भाव दर्शाते हैं कि वह दुर्बा को बहुत करीब से जानता है, जहां उसने उसके चेहरे के हर रंग को देखा और हर भाव को पढ़ा है। लेकिन आज उन भावों से अलग एक नया जिद्द का भाव दिखाई दे रहा है, टेबुल के लिए और वह उसे चाहिए ही और अनुरंजन के लिए किसी नए टेबुल का कोई इंतजाम नहीं। वह कहाँ बैठे? किस टेबुल पर काम करे? कुछ नहीं, कुछ नहीं सोचेगी बस उसे टेबुल चाहिए, जहाँ उसका स्वार्थ साफ दिखाई दे रहा है। आज वह केवल और केवल अपने विषय में सोच रही है उसे कोई मतलब नहीं कौन क्या सोच रहा है? टेबुल के लिए जब मिस दुर्बा की ऐसी जिद्द दिखाई देती है तो उनके छुपे हुए व्यक्तित्व का एक और रंग सामने आता है जिसका खुलासा बनर्जी दादा जो स्टोर बाबू हैं करते हैं - “बनर्जी दादा - स्टोर बाबू ने आकर नये बाबू से परिचय किया। बोला, “देखिए, आप हमारे बड़े बाबू हैं। मगर उमेर में हम आपसे बड़ा है। टेबुल आप हरगिज़ मत दीजिए साहब।
बहुत छोटे हृदय की है।
दिल में दया-माया का नाम नहीं।
किसी की नौकरी खाते समय भी ऐसी ही हंसी उसके चेहरे पर रहती है।
आखिर, आदमियत भी कोई चीज़ है।“10
इस प्रकार स्टोर बाबू उसके निष्ठुर, हृदयहीन स्वार्थी मनोभावों से परिचय करवाते हैं जहाँ शासकीय छलावा साफ दिखाई देता है, जहाँ परंपरा से चला आ रहा शोषक और शोषित का धर्म दिखाई देता है। पदाधिकारी अथवा सत्ताधारी हो जाने पर हम शोषण के पक्षधर हो जाते हैं। रेणु ने इस असहज सत्य को बड़ी सहजता के साथ मिस दुर्बा के माध्यम से प्रस्तुत कर दिया। शोषण का शिकार अनुरंजन दास गुप्ता उसके बहुरंगों से परिचित है इसलिए उसके मन में प्रश्न उठता है कि - “किन्तु कोई दुर्बा के चरित्र पर उंगली नहीं उठाता। निष्ठुर, हृदयहीन स्वार्थी सब कुछ कह रहे हैं लोग। लेकिन किसी ने भी यह नहीं कहा कि रूप-यौवन देकर उसने उन्नति खरीदी है।”11 इस प्रकार अनुरंजन जानता है कि पदोन्नति पाने के लिए मिस दुर्बा कुछ भी कर सकती है। पागलपन की हद तक जाकर भी वह टेबुल किसी को नहीं देना चाहती। बड़े साहब से भी लगातार वह यही कह रही है कि वह टेबुल नहीं देगी चाहे उसे कुछ भी करना पड़े। कारपोरेट जगत की सच्चाई और उसके नग्न यथार्थ को पूरी संजीदगी के साथ रेणु ने शब्दबद्ध किया है। टेबुल के प्रति मिस दास का आग्रह नैतिकता के सभी बंधनों को तोड़ देता है। टेबल को पाने का आग्रह लिए वह अनुरंजन के घर पहुंच जाती है जहां उसका रूप अनुरंजन को भ्रमित कर देता है। वह, उसे “अखबारों में रोज़ प्रकाशित होने वाली अंतर्कचुंकी कम्पनी की महिला की छाया दिखाई दे रही थी परिधान प्रसाधन तनिक उग्र है।”12 अपना काम किस प्रकार निकलवाना है दुर्बा, अच्छी तरह जानती है। अपने रूप यौवन का जादू लगातार वह अनुरंजन पर चला रही है और अनुरंजन उसमें फँसा जा रहा था। बातें करते समय उसे दुर्बा की आँखे मधु ढलकाती और अंगुलियाँ छंदबद्ध नाचती दिखाई देती हैं। अनुरंजन उसके रूप पाश में फंसता दिखाई देता है जैसे पिछले साल फंस गया था और पिछले साल भी उसके रूप-यौवन पर मोहित हो, बिना बात जानें ही उसकी सहायता करने का वचन दे चुका था। शायद उसी सहायता के बल पर आज वह उसकी बॉस बनकर बैठी है, आज एक बार फिर उसने रूप के बल पर अनुरंजन से वचन ले लिया है - “सच? देखो काम का जो सिलसिला है, तुमको अधिक समय मेरे चेम्बर में ही रहना पड़ेगा। याद है, तुम्हीं ने तो कहा था कि यह नया स्कीम ‘एमबीएम’ वाला क्या है - सीनियर हेडक्लर्क माने असिस्टैंट ब्रांच मैनेजर तो, क्यों न तुम मेरे चेम्बर में ही बैठते? बात यह है कि टेबुल मेरे चेम्बर मे रहेगा, मेरी आँखों के सामने रहेगा तो तुम ज़ोर-ज़ोर से दराजों को खोल बंद नहीं करोगे। ..... और अन्तिम वाक्य कहते समय दुर्बा ने अनुरंजन का हाथ पकड़ लिया।”13 इस प्रकार हम देखते हैं कि यहाँ दुर्बा प्रेम के सत्यम् शिवम् रूप को कहीं-न-कहीं अपवित्र करती दिखाई देती है। उसके लिए प्रेम कुछ नहीं, यह देह केवल अपने कार्यों की सिद्धि का साधन है, जिसका भरपूर प्रयोग करती वह दिखाई दे रही है। उसका टेबुल के प्रति आग्रह एक विकृत जिद्द में परिवर्तित हो गया और उसकी परिणति, अनुरंजन को मोहपाश में फंसा उसकी टेबुल लेने में दिखाई देती है। सुरेन्द्र चौधरी इसे ‘‘अकेली स्त्री की मानसिक झख की कहानी मानते हैं xxx यह टेबुल नहीं दुर्बा का कवच है, उसका घर है, उसका अंतरंग संगी है। लंबे कार्यकारी जीवन में उसे अपवाद के अतिरिक्त कहीं कोई आत्मीयता न मिली।"14 इसलिए वह इस सुरक्षा कवच के लिए कुछ भी कर सकती है। बड़े साहब भी मिस दुर्बा से भलि-भांति परिचित हैं इसलिए जब दुर्बा उन्हें बताती है कि वह अनुरंजन के डेरे पर जाकर उसे मना आई है तो वे समझ जाते हैं किस प्रकार उसने अनुरंजन को मनाया होगा इसलिए सोचते हैं “देखा जाए, कहां तक और.... यह अनुरंजन गुप्ता - हेड ऑफिसर से लेकर-बार्ड के सभी सदस्य - जिसकी तारीफ में पुल बांध चुके हैं यही है वह कर्मठ पुरूष? रीढ़हीन प्राणी? ... ठीक है, उधर जेनरल सेक्शन में मेहता को अवसर मिलेगा.... डोसालय मेहता। हैण्डी एण्ड हेल्पफुल मेहता और इस सुपुरूष अनुरंजन में क्या फर्क”15 बड़े साहब समझ चुके थे कि अनुरंजन गुप्ता भी मिस दुर्बा के प्रेम शोषण का शिकार हो चुका है परन्तु शायद रात-भर अनुरंजन गुप्ता को भी नींद नहीं आई होगी, वह भी समझ गया होगा कि वह एक बार फिर कलकत्ता की तरह ठगा जा चुका है इसलिए वह एक दिन की छुट्टी लेता है और आवेदन पत्र देता है कि पटना की जलवायु उसके स्वास्थ्य के अनुकूल नहीं इसलिए उसे कलकत्ता हेड आफिस भेज दिया जाए अन्यथा, यही आवेदन उसका त्यागपत्र समझा जाए। पूरे ऑफिस में बात फैल जाती है और सभी समझ जाते हैं कि मिस दुर्बा जो चाहती थी वही हुआ और जब दुर्बा तक अनुंरजन के त्यागपत्र की खबर पहुँचती है, पहले तो वह सन्न रह जाती है किन्तु दूसरे ही क्षण ‘उसके चेहरे पर तुरन्त लाली लौट आई। वह अपनी कुर्सी छोड़कर उठी। अपनी प्रिय टेबुल के पास गई... त्याग पत्र दे या चूल्हे में जाए मूर्ख अनुरंजन गुप्ता....।”16 मिस दुर्बा की ये पंक्तियां उसकी संवेदनहीनता को प्रकट करती हैं। ‘‘कुण्ठित दुर्बादास की असामान्य मनः स्थितियाँ उसकी ग्रन्थि को उद्घाटित करते हुए झनझनाने लगती है, कथानक के अन्तर्विरोधी प्रभावों के साथ दुर्बादास मानवीय संवेदना को झुठलाकर अर्थहीन साबित कर देती है, निर्जीव टेबुल के साथ सजीव सम्बन्ध का अनुभव करते हुए। xxx मेहता को लगा, किसी अश्लील दृश्य के सामने वह खड़ा है। मूढमति वह! नहीं, यह दृश्य देखने योग्य नहीं है।’’17 जहाँ सत्ता का लालच व्यक्ति को इस कदर स्वार्थी बना देता है, जहाँ वह सभी मर्यादाओं को तोड़, वासना के समुद्र में डूबा केवल अपनी इच्छाओं की पूर्ति चाहता है। इन अनियंत्रित इच्छाओं में ही मिस दुर्बा अपने सुख-दुख को देख रही है, इन अमानवीय इच्छाओं की पूर्ति के पीछे कितने ही लोगों की भावनाएँ आहत हो रही हैं, इससे उनका कोई सरोकार नहीं। कारपोरेट जगत के इस कटु सत्य को फणीश्वरनाथ रेणु ने बड़ी सहजता के साथ प्रस्तुत किया है।
निष्कर्ष : फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी ‘टेबुल’ उन अमानवीय इच्छाओं का लेखा-जोखा है, जहाँ संवेदनशील मनुष्य अपने आप को ठगा हुआ अथवा हारा हुआ महसूस करता है। हम मानते हैं कि शहरी व्यवस्था में अपने आप को बनाए रखना और सरवाइव करना उतना आसान नहीं। लेकिन अपने आपको ऊँचा ले जाने, पदोन्नति के रास्ते खोजने में मिस दुर्बा कहीं अनैतिक इच्छाओं की पूर्ति चाहती है, जिसके लिए उसे, अपने रूप-यौवन, देह का प्रयोग क्यों न करना पड़े। ऐसा ही वह अनुरंजन दास गुप्ता के साथ भी करती है, जहाँ उसकी संवेदना शून्य है और अनुरंजन के हृदय पर लगी ठेस को भी वह नहीं देखना चाहती और केवल अपने स्वार्थ के वशीभूत हो सबकी भावनाओं से खिलवाड़ करती दिखाई देती है। आधुनिक युग के मशीनी जीवन की सत्यता, जहाँ मिस दुर्बा सभी पुरूषों को पीछे धकेल अपने को उच्च पद पर आसीन कर अपने से नीचे वालों का शोषण करना चाहती है, यह कहानी उसी का मूर्त्त रूप है।
सन्दर्भ :
1.सम्पूर्ण कहानियां फणीश्वरनाथ रेणु,
राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली,पहला संस्करण 2010, पृष्ठ 249
2.वही,
पृष्ठ 250
3.वही,
पृष्ठ 250
4.वही,
पृष्ठ 250
5.वही,
पृष्ठ 250
6.स्वातंत्र्योत्तर कहानी का परिदृश्य और फणीश्वरनाथ रेणु की कहानियां: विद्या सिन्हा, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली,2007, पृष्ठ 75
7.सम्पूर्ण कहानियां फणीश्वरनाथ रेणु,
राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, पहला संस्करण 2010, पृष्ठ 253
8.आंचलिक यथार्थवाद और फणीश्वरनाथ रेणु: डॉ सुवास कुमार, साहित्य संस्कार प्रकाशन, दिल्ली,1998, पृष्ठ 87
9.वही,
पृष्ठ 83
10.सम्पूर्ण कहानियां फणीश्वरनाथ रेणु,
राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पहला संस्करण 2010, पृष्ठ 256
11.वही,
पृष्ठ 258
12.वही,
पृष्ठ 260
13.वही,
पृष्ठ 261
14.वही,
पृष्ठ 263
15.भारतीय साहित्य के निर्माता फणीश्वरनाथ रेणु: सुरेन्द्र चौधरी, साहित्य अकादमी प्रकाशन,1987,
पृष्ठ 44
16.सम्पूर्ण कहानियां फणीश्वरनाथ रेणु,
राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पहला संस्करण 2010, पृष्ठ 264
17.वही,
पृष्ठ 265
18.स्वातंत्र्योत्तर कहानी का परिदृश्य और फणीश्वरनाथ रेणु की कहानियां: विद्या सिन्हा, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली,2007,
पृष्ठ 65
एसोसिएट प्रोफेसर [हिन्दी विभाग], माता सुंदरी महिला महाविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली
9210338909, drpoonamsharma79@gmail.com
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) फणीश्वर नाथ रेणु विशेषांक, अंक-42, जून 2022, UGC Care Listed Issue
अतिथि सम्पादक : मनीष रंजन
सम्पादन सहयोग : प्रवीण कुमार जोशी, मोहम्मद हुसैन डायर, मैना शर्मा और अभिनव सरोवा चित्रांकन : मीनाक्षी झा बनर्जी(पटना)
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