(पहलवान की ढोलक, कलाकार, ठेस, रसप्रिया और भित्तिचित्र की मयूरी कहानी के विशेष संदर्भ में)
- डॉ. बिनय कुमार पटेल
बीज शब्द : लोक-कला, लोक-संस्कृति, शहरीकरण, पूँजीवाद, औद्योगिकरण, नव-पूँजीवाद, कलाकार, ग्लोबल, ग्लोबलाइजेशन, ग्लोकल, ग्लोकलाइजेशन ।
मूल आलेख : हिंदी कथा-साहित्य के क्षेत्र में फणीश्वरनाथ रेणु किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। अपने पहले उपन्यास ‘मैला आँचल’ की बहुआयामी विशेषताओं के कारण और ‘पंचलाइट’, ‘लाल पान की बेगम’, ‘तीसरी कसम उर्फ़ मारे गए गुलफ़ाम’, ‘रसप्रिया’ इत्यादि कहानियों के कारण और अपनी विशेष लेखन-शैली की वजह से हिंदी कथा के क्षेत्र में कथाकार रेणु विशिष्ट स्थान अर्जित कर चुके हैं। मुख्यत: रेणु का आँकलन आँचलिक कथाकार के रूप में ही हुआ, परंतु रेणु की कहानियों में स्वातंत्र्योत्तर भारतीय ग्रामीण समाज के बहुआयामी परतों को जिस गहराई और शिद्दत से कथाकार ने उकेरा है, उस पर दृष्टिपात करना भी आवश्यक प्रतीत होता है।
रेणु की पहली कहानी ‘बट बाबा’ जून, 1944 में साप्ताहिक ‘विश्वमित्र’ में प्रकाशित हुई थी।(1) अर्थात यह वह समय था जब भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन अपने चरम पर था। इसके साथ ही भारतीय जनमानस, चाहे शहरी हो या ग्रामीण, की आकांक्षाएं और उसके सपने स्वाधीन भारत को लेकर भी कुछ अलग किस्म के ही थे। शोषण, गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी, दमन और उजाड़ होते भारतीय गाँवों को लेकर ये सपने देखे जा रहे थे कि आजादी के बाद परिस्थितियाँ बदलेंगी। पूँजीवाद की पोषक ब्रिटिश हुकूमत से आजादी मिलने के बाद कम से कम इन परिस्थितियों से भारतीय जनमानस को छुटकारा मिलेगा ऐसा जरूर सोचा जा रहा था। इसे विडंबना ही कहना समीचीन होगा कि आजादी के बाद ऐसा हो न सका।
एक लंबे समय तक भारत पूँजीवाद की चपेट में था। जाहिर है कि पूँजीवाद और उसकी विकृतियों से भारतीय समाज भी अछूता न रह सका। पूँजीवाद की सीधी सी प्रवृत्ति रही है कि संसाधनों पर किसी भी प्रकार से अधिकाधिक अधिकार स्थापित किया जाय। इसके लिए सत्ता के साथ साठ-गाँठ करनी पड़े तो उससे भी हिचकना नहीं चाहिए। स्वातंत्र्योत्तर भारत में जवाहर लाल नेहरू के अति-महत्वाकांक्षी औद्योगिकरण का परिणाम यह निकला कि शहरों के विकास के पीछे ध्यान देने के क्रम में गाँव पीछे छूट गए। आजादी के पहले गाँवों से शहरों की ओर पलायन का जो क्रम शुरू हुआ था, आजादी के बाद भी वह क्रम बदस्तूर जारी रहा। फलत: गाँव उजड़ने लगे और शहरों में एक नया मध्यवर्ग पनपने लगा। गाँवों के उजड़ने का दुष्परिणाम यह हुआ कि धीरे-धीरे लोक-कलाएँ भी समाप्त होने लगीं। कथाकार फणीश्वरनाथ रेणु का गहरा संबंध अपने ग्रामीण समाज से रहा है। ग्रामीण समाज की लोक-कथाएँ, लोक-गीत, लोक प्रचलित मुहावरे इत्यादि तो उनकी रचनाओं में उभर कर दिखते ही हैं, विलुप्त होती जा रही लोक-कलाओं के प्रति चिंता भी हम इनकी कहानियों में देख सकते हैं। आजादी के बाद कहानीकारों का एक बड़ा वर्ग शहरी मध्यवर्ग को केंद्र में रखकर कहानियाँ लिख रहा था, वहीं रेणु जैसे चंद ही कथाकार थे जो ग्रामीण समाज को केंद्र में रखकर कहानियाँ लिख रहे थे। आलोचक गोपाल राय इस संदर्भ में कहते हैं, “रेणु आजाद भारत के विपन्न किसानों, किसान-मजदूरों, कारीगरों और लोक कलाकारों की अन्तरंग जिन्दगी में प्रवेश कर उनकी व्यथा और साथ ही स्वाभिमान और सांस्कृतिक निष्ठा का अंकन कर रहे थे।”(2) ‘पहलवान की ढोलक’, ‘कलाकार’, ‘ठेस’, ‘रसप्रिया’ इनकी ऐसी ही कहानियाँ हैं जिनमें लोक-कलाओं के संरक्षण की आवश्यकता पर वे बल देते हुए नजर आते हैं।
‘पहलवान की ढोलक’ कहानी का प्रकाशन 11 दिसम्बर 1945 को साप्ताहिक ‘विश्वमित्र’ में प्रकाशित हुई थी।(3) इस कहानी का पात्र लुट्टन सिंह पहलवान है जो एक समय में अपनी पहलवानी के बल पर राजा साहब का बहुत ही चहेता बन जाता है और राजा साहब उसे हमेशा के लिए अपने दरबार में रख भी लेते हैं। पहलवान की दुर्गति तब होती है जब राजा साहब की मृत्यु हो जाती है और राज-काज राजकुमार संभालने लगता है। राज-काज संभालते ही पहलवानों पर होने वाले दैनिक भोजन-व्यय को ‘टेरिबुल’ मानते हुए उस पर रोक लगा दी जाती है और ‘दंगल का स्थान घोड़े के रेस’(4) ले लेती है।
बहरहाल पहलवान वापस अपने गाँव लौट आता है और किसी तरह अपनी गुजर-बसर कर ही रहा होता है कि गाँव में अनावृष्टि, फिर अन्न की कमी, फिर मलेरिया और हैजा जैसी महामारी फैलने लगती है। हर घर-आँगन में मौत की लीला अपना तांडव नृत्य करती है। हर तरफ खामोशी छाई रहती है। डरे-सहमे लोगों के लिए एक मात्र ढाढस पहलवान के ढोलक की आवाज है। पहलवान रोज रात से सुबह तक ढोलक बजाता रहता है। स्वयं कथाकारों के शब्दों में, “गाँव के अर्द्धमृत औषधि उपचार-पथ्य-विहीन प्राणियों में वह संजीवनी शक्ति ही भरती थी। बूढ़े-बच्चे-जवानों की शक्तिहीन, आँखों के आगे दंगल का दृश्य नाचने लगता था। स्पंदन-शक्ति शून्य स्नायुओं में भी बिजली दौड़ जाती थी। अवश्य ही ढोलक की आवाज में न तो बुखार हटाने का कोई गुण था और न महामारी की सर्वनाश गति को रोकने की शक्ति ही, पर इसमें संदेह नहीं कि मरते हुए प्राणियों को आँख मूँदते समय कोई तकलीफ नहीं होती थी, मृत्यु से वे डरते नहीं थे।”(5) इसे संभवत: पहलवान भी समझता था, इसलिए अपने दोनों बेटों की मृत्यु हो जाने के बावजूद वह ढोल बजाना भूलता नहीं है, बदस्तूर जारी रखता है हर दिन की तरह। पूरा गाँव उसकी जीवटता की तारीफ करता है। एक दिन ऐसा भी आता है जब ढोल नहीं बजता। पहलवान के कुछ शिष्य जब जाकर देखते हैं तो वे देखते हैं कि पहलवान की लाश पड़ी हुई होती है, सियार उसकी बायीं जाँघ के माँस को खा डालते हैं, पेट पर भी खरोंच के निशान हैं। सियारों ने पहलवान की ढोलक के चमड़े को भी फाड़ डाला था। बकौल कथाकार, “सियारों ने ढोलक को ‘भोज्य-पदार्थ’ समझकर उसके चमड़े को फाड़ डाला था।”(6) यदि गौर करें तो इस कहानी का अंत अत्यंत ही प्रतीकात्मक ढंग से हुआ है। वास्तव में यह सियार और कोई नहीं, बल्कि पूँजीवादी व्यवस्था है जिसने ग्रामीण लोक-समाज को बर्बाद कर डाला है। यह व्यवस्था सियार की तरह खूँखार भी है, चालाक भी और धूर्त भी। ढोलक केवल एक वाद्य-यंत्र ही नहीं है, बल्कि वह शोषक व्यवस्था से टकराने का कारगर हथियार भी है। पूँजीवाद का यदि डटकर कोई मुकाबला कर सकता है तो वह है ‘लोक’। हालाँकि इस ‘लोक’ की ओर भी पूँजीवादी ताकतों की नजर पड़ चुकी है, इसीलिए ‘ग्लोबल’ की जगह अब नारा बदल कर ‘ग्लोकल’ कर दिया गया है। इसके बावजूद यदि नव-पूँजीवादी ताकतों का डटकर कोई मुकाबला कर सकता है तो वह ‘लोक’ समाज ही है। ढोलक से निकलने वाली अलग-अलग आवाजें यथा, “चटाक -चट्-धा, चटाक -चट्-धा’ अर्थात उठा पटक दे! उठा पटक दे!!”(7) “धिक-धिना, धिक-धिना अर्थात चित्त करो-चित्त करो!!”(8) हमें यही बताती हैं कि कथाकार रेणु के लिए ये लोक-कलाएं कहीं न कहीं पूँजीवाद का सामना करने में समर्थ है।
इसी क्रम में रेणु जी की कहानी ‘कलाकार’ (1945) को भी देखा जा सकता है। इस कहानी का मुख्य पात्र है, शरदेन्दु बनर्जी। जो काशी हिंदू विश्वविद्यालय का छात्र रहा है। लोगों के लिए वह ‘विपद्-ग्रस्त युवक’, ‘निराश-प्रेमी’, ‘खुफिया’ था, तो कोई उसे ‘कवि’ समझता है और कोई ‘गुण्डा नम्बर एक’। किसी की नजर में वह ‘शरीफ गधा’ है। वास्तव में वह एक सच्चा कलाकार है जिसे उसके चित्र के लिए चीन के कला-मर्मज्ञ पुरस्कृत करते हैं, मगर पुरस्कार की रकम वह ‘कला-केन्द्र’ के लिए दान कर देता है।(9) परन्तु ऐसे लोगों को समाज किस नजर से देखता है? वास्तव में भारत में कलाकारों की कोई कद्र ही नहीं है। कलाकार के मन को समझने और उसे समाज में इज्जत की नजर से देखने का चलन है ही नहीं। वह समझ ही हम विकसित नहीं कर पाए हैं जहाँ कलाकार को समाज में ऊँचा दर्जा दिया जाय, उन्हें सम्मान की नजर से देखा जाय और उनकी कला को उचित सम्मान मिले। कथाकार प्रभु जोशी कलाकार व्यक्तित्व के संबंध में अपने लेख ‘आन्तरिक पीड़ा का मर्म’ में कहते हैं, “मैं बहुत विनम्रता के साथ बताना चाहता हूँ कि कलाकारों के जीवन के बारे में मेरा पठन-पाठन काफी पुराना है। और मैंने पाया कि उनके जीवन में, अक्सर ‘अप्रत्याशित’ की बहुत अन्तर्निहित उपस्थिति रहती आयी है। उनके जीवन में रहस्य की एक धुन्ध, उनके सर्वस्व को लपेटे रहती है। उनके व्यक्तित्व के कई-कई संस्करण बरामद होते हैं-एक में कई-एक का सा बोध होने लगता है।”(10) स्वातंत्र्योत्तर भारत में खासकर वर्त्तमान समय में यदि स्थानीय कलाओं की ब्रांडिग न हो, उनका ठीक से प्रचार-प्रसार न हो तो वे विलुप्त होने के लिए बाध्य हैं। सड़क के किनारे कोई गीत गाने वाला, कोई चित्रकारी करने वाला, कोई नृत्य करने वाला या किसी और तौर-तरीके से अपनी कला दिखाने वाला भारतीय परिवेश में एक कलाकार नहीं, बल्कि एक ‘भिखारी’ ही समझा जाता है और हम नाक-भौं सिकोड़ने लगते हैं। वास्तव में रेणु जी इस कहानी के माध्यम से कलाकार के मन की थाह पाठकों तक पहुँचाना चाहते हैं।
सन 1955 में प्रकाशित ‘रसप्रिया’ भी कथाकार रेणु की विलुप्त होती जा रही लोक-कलाओं के प्रति जाहिर होती चिंताओं का ही प्रतिफलन है। इस कहानी का मुख्य पात्र ‘पँचकौड़ी मिरदंगिया’ है जिसे लोग ‘पागल’, ‘झूठा’, ‘बेईमान’, ‘भिखारी’ मानते हैं जिसके जीवन को धिक्कारते हुए लोग यह मानते हैं कि वो जी नहीं रहा बल्कि थेथरई कर रहा है।(11) एक समय था जब मिरदंगिया की पूछ थी। स्वयं कथाकार के शब्दों में कहें तो, “पन्द्रह-बीस साल पहले तक विद्यापति नाम की थोड़ी पूछ हो जाती थी। शादी-ब्याह, यज्ञ-उपनैन, मुण्डन-छेदन आदि शुभ कार्यों में विदपतिया मण्डली की बुलाहट होती थी। पंचकौड़ी मिरदंगिया की मण्डली ने, सहरसा और पूर्णिया जिले में काफी यश कमाया है।”(12) इसी विदापत मण्डली के लोग ‘रसप्रिया’ गाते थे। मगर अब इस रसप्रिया को गाने वाले बहुत कम लोग बचे हैं। मिरदंगिया सोचता है, “जेठ की चढ़ती दोपहरी में खेतों में काम करनेवाले भी अब गीत नहीं गाते हैं।... कुछ दिनों के बाद कोयल भी कूकना भूल जायेगी क्या? ऐसी दोपहरी में चुपचाप कैसे काम किया जाता है! पाँच साल पहले तक लोगों के दिल में हुलास बाकी था।... पहली वर्षा में भींगी हुई धरती के हरे-भरे पौधों से एक खास किस्म की गन्ध निकलती है। तपती दोपहरी में मोम की तरह गल उठती थी-रस की डाली। वे गाने लगते थे बिरहा, चाँचर, लगनी। खेतों में काम करते हुए गानेवाले गीत भी समय-असमय का ख्याल करके गाये जाते हैं। रिमझिम वर्षा में बारहमासा, चिलचिलाती धूप में बिरहा, चाँचर और लगनी- ××× अब तो दोपहरी नीरस कटती है, मानों किसी के पास एक शब्द भी नहीं रह गया है।”(13) मिरदंगिया को इस बात का दु:ख है कि लोगों के जीवन से वह उल्लास और जीवंतता खत्म होते जा रही है और उसे इस बात की चिंता है कि उसके बाद रसप्रिया गाने वाला बचेगा कौन? रामपतिया के पुत्र मोहना में उसे एक आशा की किरण नजर आती है। वह मोहना जिसके गुणों से गाँव के लोग अनभिज्ञ हैं, मगर पंचकौड़ी मिरदंगिया असली जौहरी है, कला का पारखी है। आलोचक रविशंकर सिंह अपने लेख ‘लोक कलाकार की अन्तर्वेदना’ में कहते हैं, “ ‘रसप्रिया’ कहानी का मिरदंगिया आर्थिक दृष्टि से विपन्न है, लेकिन उसके भीतर जो सांस्कृतिक सम्पन्नता है, रेणु की दृष्टि वहाँ तक जाती है। मिरदंगिया का सौन्दर्यबोध सुविधाग्रस्त वर्ग के सौन्दर्यबोध से भिन्न और अधिक सजीव है।”(14) मिरदंगिया भले ही दूसरों की नजरों में भिखारी हो लेकिन अपनी नजर में वह एक कलाकार है। जब मोहना कहता है कि वह भीख माँगता है तो मिरदंगिया के आत्मसम्मान को ठेस लगती है और वह बौखला उठता है। वह कहता है, “किसने कहा तुमसे कि मैं भीख माँगता हूँ? मिरदंग बजाकर पदावली गाकर, लोगों को रिझाकर पेट पालता हूँ...”(15) परन्तु वही मिरदंगिया मोहना को अपनी कमाई से चालीस रुपये देता है डॉक्टर से इलाज करवाने और दूध पीने के लिए। आलोच्य कहानी के माध्यम से कथाकार रसप्रिया जैसी लोक-कलाओं के विलुप्त होने के प्रति अपनी चिंता व्यक्त करते हैं। भारतीय समाज में आए पतन और क्षरण की कहानी के रूप में देखते हुए आलोचक कृष्ण मोहन आलोच्य कहानी के संदर्भ में कहते हैं, “जीवन में आया पतन कैसे कला और जीवन दोनों को प्रभावित करता है और गहरे अंतर्द्वंद्व से गुजरकर कैसे पुनरुद्धार की संभावना पैदा होती है, फणीश्वर नाथ रेणु की प्रसिद्ध कहानी ‘रसप्रिया’ की यही विषयवस्तु है।”(16)
कलाकार के मन की थाह लेती हुई ऐसी ही एक और कहानी है ‘ठेस’ (1957)। इस कहानी का मुख्य पात्र है ‘सिरचन’ जिसे गाँव के लोग किसान की गिनती में नहीं रखते। सिरचन एक कलाकार है जिसे एक से बढ़कर एक शीतलपाटी, चीक और आसनी बनाना आता है। गाँव वालों के लिए भले ही वह बेकार ही नहीं, ‘बेगार’ भी है लेकिन बकौल कथाकार- “आज सिरचन को मुफ्तखोर, कामचोर या चटोर कह ले कोई। एक समय था, जबकि उसकी मडैया के पास बड़े-बड़े बाबू लोगों की सवारियाँ बँधी रहती थीं। उसे लोग पूछते ही नहीं थे, उसकी खुशामद भी करते थे। ‘... अरे सिरचन भाई! अब तो तुम्हारे ही हाथ में यह कारीगरी रह गयी है सारे इलाके में। एक दिन भी समय निकालकर चलो। कल बड़े भैया की चिट्ठी आयी है शहर से-सिरचन से एक जोड़ा चिक बनवाकर भेज दो।”(17)
इस समझ को विकसित करना अत्यंत आवश्यक है कि कलाकार व्यक्ति की पहली पहचान होती है उसका बलौसपन, बेफीक्री। वह खोजता है, अपनापन और सम्मान। धन उसके लिए मायने नहीं रखता जितना उसकी कला का सम्मान उसके लिए मायने रखता है। मुश्किल यह है कि भारतीय समाज में कलाकार के व्यक्तित्व के इस पहलू पर कोई गौर करना ही नहीं चाहता, उसे समझना ही नहीं चाहता। किसी भी कला के सृजन के लिए एक विशिष्ट मानसिक दशा की आवश्यकता होती है जहाँ पहुँचकर ही किसी कला का सृजन किया जा सकता है। इसे कलाकर की कामचोरी नहीं समझना चाहिए। आलोच्य कहानी का ‘मैं’ सिरचन के काम की तल्लीनता को इस प्रकार वर्णित करता है, “सिरचन जाति का कारीगर है। मैंने घण्टों बैठकर उसके काम करने के ढ़ंग को देखा है। एक-एक मोथी और पटेर को हाथ में लेकर बड़े जतन से उसकी कुच्ची बनाता। फिर, कुच्चियों को रँगने से लेकर सुतली सुलझाने में पूरा दिन समाप्त। ...काम करते समय उसकी तन्मयता में ज़रा भी बाधा पड़ी कि गेहुँअन साँप की तरह फुफकार उठता- “फिर किसी दूसरे से करवा लीजिए काम! सिरचन मुँहजोर है, कामचोर नहीं।”(18) सिरचन की इन गुणों को गाँव के लोग बेकाम का काम मानते हैं जिसके एवज में उसे मजदूरी के रूप में अनाज या पैसे नहीं देना चाहता। केवल पेट भर खाना खिलाकर या एक आध पुराना कपड़ा देकर ही लोग उसे विदा कर देना उचित समझते हैं। इस संबंध में आलोचक मणीन्द्र नाथ ठाकुर अपने लेख ‘कलाकार के मनोविज्ञान का दार्शनिक पक्ष’ में कहते हैं, “ ‘ठेस’ इस सामूहिक चेतना में बदलाव की भी कहानी है। कलाकार के मजदूर बन जाने की कहानी है। भारत के गाँवों में पूँजीवाद केवल आर्थिक ही नहीं, बल्कि सामाजिक और वैचारिक बदलाव भी लाया है। सिरचन पिछले जमाने का आदमी है। मजदूर नहीं बन सका और कलाकार की जाति को लोग समझ नहीं पाते हैं। रेणु इस बदलाव के दर्द को भी लोगों तक पहुँचाना चाहते हैं।”(19)
कलाकार का मन सम्मान का भूखा होता है। उसके सम्मान को ठेस लगे यह वह बर्दाश्त नहीं कर सकता। ऐसा ही कहानी के पात्र ‘मैं’ के घर में भी होता है। सिरचन के मन को गहरा आघात लगता है और वह काम अधूरा ही छोड़कर चला जाता है। कहानी का पात्र ‘मैं’ जब उसे मनाने जाता है तो वह साफ कहता है- “बबुआजी ! अब नहीं। कान पकड़ता हूँ,
अब नहीं। ... मोहर छापवाली धोती लेकर क्या करूँगा ? कौन पहनेगा ? ×××
... गाँव-भर में तुम्हारी हवेली में मेरी कदर होती थी। ... अब क्या ?” (20) परंतु हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि कलाकार का मन बहुत कोमल होता है। सिरचन अपना अपमान भुलाकर कहानी के पात्र ‘मैं’ की दीदी को शीतलपाटी बनाकर सौंप देता है। वह जानता है कि इस शीतलपाटी की माँग मानू दीदी के ससुराल से हुई है और वह यदि खाली हाथ गई तो उसे खरी-खोटी सुननी पड़ेगी। मानू पूरे गाँव की बेटी है। इसीलिए वह शीतलपाटी, चिक और एक जोड़ी आसनी उसके हाथ में सौंप देता है।
कथाकार रेणु अपनी कहानियों में विलुप्त हो रही लोक-कलाओं और कलाकारों के लिए केवल चिंता ही जाहिर नहीं करते,
बल्कि वे स्वातंत्र्योत्तर भारतीय समाज में लोक-कलाओं को संरक्षित करने का एक समाधान भी हमारे सामने रखते हैं। उनकी कहानी ‘भित्तिचित्र की मयूरी’ (1972) एक ऐसी ही कहानी है। कहानी की मुख्य पात्र फुलपतिया की माँ पन्ना देवी पर्व-त्योहारों, पावन अवसरों पर लोगों के घरों की भीत पर तरह-तरह के रंगों से चित्र आँकती है जिसे ‘मधुबनी चित्रकला’ के नाम से हम जानते हैं। पन्ना देवी की कला को ‘कला शिल्प पटना’ का सेक्रेटरी सनातन प्रसाद देखकर उसे उचित सम्मान दिलवाने में मुख्य भूमिका अदा करता है। सनातन प्रसाद फुलपतिया से विवाह करना चाहता है और चाहता है कि फुलपतिया और उसकी माँ चलकर उसके साथ दिल्ली या पटना में रहे जहाँ उनकी कला को उचित सम्मान भी मिलेगा और दाम भी। एक ओर सनातन प्रसाद यह प्रस्ताव तो देता है लेकिन उसके भीतर जैसे कोई उसे धिक्कार रहा होता है, “उसके अन्दर कोई बैठा हुआ है जो उसे आँखें तरेरकर देखता है और पूछता है- यह क्या कर रहा है तू? बलात्कार? कुमारी को अपवित्र करेगा तू? अपनी वासना पूरी करने के लिए कला का यह व्यापार? हाहाहाहा... बिगस्केल फोक-आर्ट इंडस्ट्री? हीहीही... इंडस्ट्री नगर में-तुम्हारी फैक्टरी में-फुलपत्ती और उसकी माँ का जिबह मोथरी छुरी से करेगा न? मधुबनी शैली का प्रमुख ज्ञाता, वक्ता अधिकारी बनकर तू लोक-कल्याण वातावरण का पर्दा डालकर अपने प्राइवेट चेम्बर में बैठा रहेगा और फ़ुलपत्ती, उसकी माँ ही नहीं वरन् सैकड़ों की तादाद में तुम्हारे ‘स्लाटर-हाउस’ में जिबह होती, चीखती रहेंगी...?”(21) इस उद्धरण से हम समझ सकते हैं कि कथाकार रेणु पूँजीवादी शक्तियों की साजिशों को कितनी सूक्ष्मता से पकड़ पाने में सक्षम हैं। पूँजीवादी शक्तियाँ केवल एक ही बात समझती हैं और वह है मुनाफा। अधिकाधिक लाभ कमाने की होड़ में बहुराष्ट्रीय कंपनियों की नजर अब इसी लोक की ओर है। इन कलाकारों को औने-पौने दाम देकर और इनकी कलाकृतियों की ब्रांडिंग कर के बड़ा मुनाफा कमाना ही इनका लक्ष्य बन गया है। पहले ‘ग्लोबलाइजेशन’ के नाम पर यह काम शुरू हुआ और अब इसने बड़ी चालाकी से अपना आवरण बदलकर ‘ग्लोकलाइजेशन’ कर लिया है।
जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है कि यदि इन नव-पूँजीवादी शक्तियों, बहुराष्ट्रीय आर्थिक शक्तियों का सामना करने में कोई सक्षम है तो वह लोक ही है। इसी लोक के प्रति अपनी आस्था रेणु जी ने भी दर्शायी है। फुलपतिया स्पष्ट रूप से अपने गाँव को छोड़कर जाने से इंकार कर देती है। सनातन भी अपना निर्णय बदलकर गाँव में ही ‘मधुबनी आर्ट सेंटर’ बनाने का निर्णय लेता है जहाँ पटना, दिल्ली और कलकत्ता से लड़कियाँ तीन महीने की ट्रेनिंग लेने आएंगी एवं जिले और गाँव की लड़कियों को यह कला मुफ्त में सिखायी जाएगी। स्पष्ट रूप से रेणु यहाँ एक ओर कला के प्रचार-प्रसार की बात करते हैं तो दूसरी ओर कला की विरासत को बचाए रखने की बात भी करते हैं। इसके साथ ही इन कलाओं के ज्ञाताओं का जीवन-यापन भी चल सके, एक सम्मान का जीवन वे जी सकें इसकी व्यवस्था भी ऐसे कला-केंद्रों के द्वारा हो सकती है। अपनी जड़ों से कटकर अलग होना समाधान नहीं है। इसीलिए आलोचक मधुरेश के विचार आलोच्य कहानी के संदर्भ में बिल्कुल सटीक प्रतीत होते हैं- “ ‘भित्तिचित्र की मयूरी’ की फुलपत्ती चित्र की मयूरी की तरह अपनी धरती और जड़ों से अलग नहीं होना चाहती। उसकी अपनी धरती और परिवेश चित्र की उस पृष्ठभूमि की तरह है जिसमें से न तो मयूरी को अलग निकाला ही जा सकता है और न उसमें से निकालकर उसके अस्तित्व की कोई सार्थकता रह जाती है।”(22)
निष्कर्ष : उपर्युक्त विश्लेषण के पश्चात निष्कर्षत: हम यह कह सकते हैं कि स्वातंत्र्योत्तर भारतीय परिवेश में रेणु जी की चिंता लगातार उजड़ रहे ग्रामीण समाज के प्रति थी। इसके साथ ही उनकी चिंता लगातार विलुप्त हो रही लोक-कलाओं को संरक्षित करने के प्रति भी है। उनकी रचनाओं में पूँजीवादी ताकतों के प्रति रचनात्मक प्रतिरोध भी देखने को मिलता है। रेणु अपनी रचनाओं में केवल लोक-कलाओं को संरक्षित करने के लिए आवाज ही नहीं उठाते, बल्कि समाधान भी प्रस्तुत करते हैं। कला और कलाकार के प्रति समाज की सोच बदलने की आवश्यकता पर वे बल देते हुए अपनी रचनाओं में नजर आते हैं।
1. भारत यायावर, रेणु रचनावली-1, राजकमल प्रकाशन ,नई दिल्ली, तीसरा संस्करण-2007, पृ. सं- 580
सहायक प्राध्यापक, हिंदी विभाग, ननी भट्टाचार्या स्मारक महाविद्यालय जयगाँव, अलिपुरद्वार, पश्चिम बंगाल
binaynbxc@gmail.com, 9832861510, 7984309838
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) फणीश्वरनाथ रेणु विशेषांक, अंक-42, जून 2022, UGC Care Listed Issue
अतिथि सम्पादक : मनीष रंजन
सम्पादन सहयोग : प्रवीण कुमार जोशी, मोहम्मद हुसैन डायर, मैना शर्मा और अभिनव सरोवा चित्रांकन : मीनाक्षी झा बनर्जी(पटना)
फणीश्वरनाथ रेणु की कहानियां अपनी ग्रामीण अंचल और गांव की मिट्टी से जुड़े रहने की पड़ताल करती है।कलाकार के स्वाभिमान को ठेस न लगे और उनकों समाज में उचित दर्जा दिया जाए इसका उल्लेख उपर्युक्त आलेख में चित्रित किया गया है।ग्लोबलाइजेशन के इस अंधी दौर में किस तरह से लोक -कथाओं और लोक -कलाओं को नजर अंदाज किया जा रहा है इसका एक महत्वपूर्ण उल्लेख इस आलेख में किया गया है ।'ठेस' और 'रसप्रिया' कहानी कलाकार के स्वाभिमान और उनकी संस्कृति को बचाये रखने की कहानी है जँहा सिरचन और मिरदंगिया जैसे पात्र गांव की कला ,संस्कृति और मिट्टी को बचाने की भरपूर प्रयास करते हैं ,लेकिन उनकी कला को वो सम्मान और दर्जा न् मिल सका जिसकी और रचनाकार ने इंगित किया है।कुल मिला कर स्वंत्रता के बाद में लोक -कलाओं की संरक्षण की आवश्यकता आज़ के समय में बेहद जरूरी है जिसकी आवश्यकता को आलेख महोदय ने इंगित किया है। पाठकों के बीच अपनी रचनाधर्मिता को प्रस्तुत किया है।एक बेहतरीन आलेख के लिए आलेख महोदय को बधाई!
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