कामायनी
की सभ्यता-समीक्षा व विकल्प
- प्रशान्त राय
शोध-सार : इस शोधपत्र में वर्तमान सभ्यता-विमर्शों के सन्दर्भ में कामायनी-कृत
सभ्यता-समीक्षा के आशयों की प्रासंगिकता स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है।
जयशंकर प्रसाद ने कामायनी में मिथकीय रूपक के द्वारा 'सभ्यता का
मनोवैज्ञानिक इतिहास' प्रतिपादित करना चाहा है। आलोचकों ने इसे 'सभ्यता-समीक्षा'
के रूप में रेखांकित किया है। प्रसाद मानवता के विकास को इच्छा-शक्ति का विकास
मानते हैं। अतः उन्होंने सभ्यता-संकट का निदान मानव-प्रवृत्तियों में रूपान्तरण के
रूप में प्रस्तुत किया है। विगत सदी में समाज-राजनीतिक सरणियों की मान्यता रही कि
व्यवस्था-परिवर्तन द्वारा व्यक्ति-परिवर्तन से मानव-सभ्यता की समस्याओं का समाधान
हो जाएगा। नवीन अध्ययनों से यह पुष्ट हुआ है कि समाज की इकाई 'व्यक्ति'-रूपान्तरण
द्वारा ही समाज-व्यवस्था रूपान्तरित हो सकती है। कामायनी की अन्विति में रूपान्तरण
का केन्द्र व्यक्ति है। छायावादी चित्रण के कारण यह रहस्यवादी पलायन प्रतीत होता
है। किन्तु साहित्य में यथार्थ की अभिव्यक्ति विभिन्न रूपों में होती है। साहित्य
में रहस्यवाद का अनिवार्य अर्थ पलायन नहीं है। कामायनी में सभ्यता-विकास का विकल्प
भी अन्तर्निहित है। मानव सभ्यता पर पूँजीवादी उपभोक्ता-संस्कृति के कारण आसन्न
पर्यावरणीय संकट के सन्दर्भ में भी कामायनी के विकल्प की प्रासंगिकता जाँच का विषय
है।
बीज
शब्द : कामायनी, जयशंकर प्रसाद, सभ्यता-समीक्षा, मुक्तिबोध, मार्क्सवाद,
उत्तर-मार्क्सवाद, पर्यावरण, समाज, व्यक्ति रूपान्तरण, आलोक श्रीवास्तव,
उपभोक्तावाद, बाज़ारवाद, उपभोक्तावादी-संस्कृति, रहस्यवाद, प्रकृति, विलगाव,
पूँजीवाद, पूँजीवादी विश्व-व्यवस्था, गांधी, थोरो, रूसो, रस्किन, टेरी इगलटन,
हर्बर्ट मार्क्यूज़।
मूल
आलेख : सभ्यता विकास के क्रम में मनुष्य प्रकृति से विलग
होता गया। आहार संग्रही युग में मानव ने पत्थर के हथियार और आग का आविष्कार किया।
कृषि-युग में खेती और पशुपालन के आधार पर मनुष्यता का विकास हुआ। इसी युग में
आरम्भिक बड़े नगरों का निर्माण और व्यापार का विस्तार होने लगा। मनुष्य प्रकृति पर
विजय प्राप्त करता गया। विकास की इस यात्रा में मनुष्य के लिए प्रकृति 'अन्य' होती
गयी। अब वह प्राकृतिक नहीं सामाजिक प्राणी हो गया। आधुनिक युग में 17वीं से 19वीं
शताब्दी के बीच हुए औद्योगिक विकास और तज्जन्य पूँजीवादी विश्व-व्यवस्था ने मानव
और प्रकृति के इस विलगाव को और गहन कर दिया। सभ्यता-विकास और विलगाव की यह परिघटना
किसी एक दिन या युग विशेष की नहीं बल्कि सदियों-सहस्राब्दियों का योगफल है।
सभ्यता-निर्माण की प्रक्रिया मनुष्य की अस्तित्वगत आवश्यकताओं से प्रेरित रही है।
मनुष्य ने अपनी जैविक-अस्तित्वगत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अपनी जिजीविषा से
सभ्यता-निर्माण किया। लेकिन इस उपक्रम में स्वार्थ और शक्ति की प्रधानता होती गयी।
प्रकृति से विलगाव के बाद सभ्यता के जटिल स्तरों पर मनुष्य स्वात्म से भी विलग
होता गया। कामायनी में सारस्वत-सभ्यता के नियामक मनु का कथन है-
“…क्या
सब साधन स्ववश हो चुके?” नहीं अभी मैं रिक्त रहा-
देश
बसाया पर उजड़ा है सूना मानस-देश यहाँ।” 1
यहाँ
'सभ्यता-विकास' के क्रम में मनुष्य के विलगावग्रस्त मानस की ही पीड़ा अभिव्यक्त
हुई है। “मानवीय अस्तित्व को इसने एकाकी और अकिंचन बना दिया।
एक तरफ़ निरंतर सभ्यता की महान प्रगति और विलक्षण उपलब्धियां जारी रहीं, दूसरी ओर
मनुष्य हीन होता गया। उसका अंतःकरण संकुचित और विडंबनाओं का कोष बन गया। उसका
अस्तित्व पराश्रित, निरर्थक, बेगाना हो गया। प्रकृति से विलग हुए मनुष्य को
पूंजीवाद ने पहले समाज से फिर स्वयं से भी विलग कर दिया।”2
कामायनी
रचते समय प्रसाद के समक्ष युगों का सभ्यता-सत्य तो था ही, तत्कालीन विश्व-व्यवस्था
के विषमताग्रस्त चित्र भी थे। पूँजीवादी पद्धति का सभ्यता-विकास साम्राज्यवाद में
परिणत हुआ। इस सभ्यता के केन्द्र में प्रकृति और मनुष्य का दोहन व हिंसा है। “प्रसाद जी की आँखों के सामने पूँजीवाद की निर्माणात्मक कार्यावली तो थी
ही, उसके साथ ही उसकी विनाशशील प्रवृत्तियों का जीता जागता नज़ारा, प्रथम महायुद्ध
और उसके उपरान्त नयी अन्तरराष्ट्रीय परिस्थित थी।”3 इससे उपजी विषमता और शोषण का दृश्य श्रद्धा के कथनों में परिलक्षित हुआ
है-
“विश्व
विपुल-आतंक-त्रस्त है अपने ताप विषम-से,
फैल रही
है घनी नीलिमा अंतर्दाह परम- से।…
जगती-तल
का सारा क्रंदन यह विषमयी विषमता,
चुभने
वाला अंतरंग छल अति दारुण निर्ममता ...
यह
विराग संबंध हृदय का कैसी यह मानवता
प्राणी
को प्राणी के प्रति बस बची रही निर्ममता
जीवन का
संतोष अन्य का रोदन बन हँसता क्यों?
एक-एक
विश्राम प्रगति को परिकर सा कसता क्यों?” 4
श्रद्धा
के ये कथन मनु द्वारा की जा रही जीव-हिंसा के रूपक से तत्कालीन विश्व की अराजक दशा
की काव्याभिव्यक्ति हैं। बीसवीं सदी के उस दौर में प्रथम विश्वयुद्ध घट चुका था और
अति-राष्ट्रवाद की परिणति द्वितीय विश्वयुद्ध में होने वाली थी। “प्रसादजी के सम्मुख अगोचर रूप में वास्तिवक राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय,
सामाजिक-राजनीतिक तथा व्यक्तिगत जीवन क्षेत्र में लोभ-लालच, अहंकार, मुनाफ़ा,
शोषण, अत्याचार, दमन और लूट-खसोट का विभ्राट खड़ा हुआ है, और उसके कारण आपस में
एक-दूसरे के लिए हिकारत, घृणा, बदले की भावना, आतंक, भय, मिथ्या का आश्रय, दमन और
रक्तपात के विशाल दृश्य दिखायी दे रहे हैं। उनके सम्बन्ध में श्रद्धा की
क्षोभपूर्ण संवेदनात्मक जिज्ञासा उपर्युक्त वाक्यों में प्रकट हुई है।”5
प्रसाद ने कामायनी में विश्व की विषमताग्रस्त-अराजक दशा का कारण मानव की अतिसंग्रही वृत्ति, उपभोगवाद और अतिस्पर्धा को माना है। उन्होंने इन्हीं प्रवृत्तियों की आलोचना और प्रतिकार किया। क्योंकि मानवीय-प्रवृत्तियों का समुच्चय ही सभ्यता के रूप में संघनित होता है। इसलिए सभ्यता में परिवर्तन के लिए उसकी घटक वृत्तियों में रूपान्तरण आवश्यक है। शोषण पर टिकी सभ्यता समाज में श्रम, समता, स्वतन्त्रता और व्यक्ति सम्बन्धों में प्रेम का हनन करती है। कामायनी में मनु का चरित्र सभ्यता के इन्हीं लक्षणों का प्रतिरूप है। समाज, प्रकृति व व्यक्ति-सम्बन्धों में विलगावग्रस्त और अतिशय उपभोग के आकांक्षी मनु के कथन हैं-
“तुच्छ
नहीं है अपना सुख भी श्रद्धे वह भी कुछ है,
दो दिन
के इस जीवन का तो वही चरम सब कुछ है।” 6
“तुम
कहती हो विश्व एक लय है, मैं उसमें
लीन हो
चलूँ? किन्तु धरा है क्या सुख इसमें।” 7
मनु
जैसा विभक्त-विलग चरित्र सामाजिक व व्यक्तिगत सम्बन्धों में आत्मग्रस्त व्यवहार
करता है। वह व्यक्ति-सम्बन्धों में श्रद्धा-परित्याग करता है और समाज सम्बन्धों
में सारस्वत-सभ्यता के सर्वाधिकारवादी नियामक की भाँति अतिचारी व्यवहार करता है। “मनु प्रसाद जी द्वारा सृजित चरित्र है। इस चरित्र के निर्माण का कच्चा माल
बाह्य जीवन से उन्होंने प्राप्त किया था। उनका स्वयं का जीवन भी इस व्यापक बाह्य
जीवन का ही एक अंश था, उनकी 'अंतःवृत्तियों' तथा 'प्रवृत्ति-मंडल' की छाया मनु के
चरित्र पर पड़ी होगी। पर वह सारतः पूंजीवादी-सामंती सभ्यता का व्यापक प्रारूप है।
ऐसा इसलिए है, क्योंकि यह सभ्यता इसी तरह के मनुष्य ढालती है। आत्मग्रस्त,
आत्ममुग्ध ऐसे ही मनुष्यों की बहुसंख्या इस व्यवस्था को चलाती है, गति देती है और
उसकी दीर्घजीविता को बनाए रखती है। यदि मनुष्य में मनु के विपरीत गुण अर्थात्
विषयपरकता, वस्तुनिष्ठता, तार्किकता आदि व्यापक रूप से शिक्षा-व्यवस्था, जनसंचार,
सामाजिक संस्कार, परिवर्तनकारी प्रचार आदि के ज़रिए विकसित होकर व्यापक हो जाए तो
न सामंतवादी सामाजिक ढांचा बचेगा न पूंजीवादी आर्थिक-राजनीतिक प्रणाली...।”8
मानव सभ्यता कोई अमूर्त चीज़ नहीं है, यह अपनी इकाई 'व्यक्तियों' का
ही योगफल है। अतः 'मनु-समस्या' इस सभ्यता की समस्या है। मुक्तिबोध 'मनु-समस्या' को
सभ्यता-संकट का प्रमुख कारण मानते हैं, “मनु-समस्या इसलिए भी
महत्त्वपूर्ण है कि उसके प्रतिबिंब हमें समाज में सर्वत्र दिखाई देते हैं।”9
मनु की
आत्मग्रस्त प्रवृत्तियों के रेखांकन व रूपान्तरण की कोशिश कामायनी में आद्यन्त
विद्यमान है। उपभोगवादी और आत्मकेन्द्रित देव-सभ्यता का परिणाम प्रलय हुआ। मनु ने
'चिन्ता' सर्ग में देव सभ्यता के पतन का कारण इन्हीं प्रवृत्तियों को मानते हुए
कहा है, “अरे अचानक हुई इसी से कड़ी आपदाओं की वृष्टि।”
आगे 'कर्म' सर्ग में भी मनु के भीतर इन्हीं देव-प्रवृत्तियों के
उभार को श्रद्धा ने शमित करना चाहा है। श्रद्धा, मनु को प्रकृति, समाज व
व्यक्ति-सम्बन्धों में तदाकार होने का मार्ग दिखाती है, जिससे व्यक्ति का
आत्मविस्तार हो सकता है-
"...अपने में सब कुछ भर कैसे व्यक्ति विकास करेगा,
यह
एकांत स्वार्थ भीषण है अपना नाश करेगा।
औरों को
हँसता देखो मनु―हँसो और सुख पाओ,
अपने
सुख को विस्तृत कर लो सब को सुखी बनाओ!” 10
श्रद्धा
मनु के आत्मविकास और नवीन जीवन-क्षेत्रों के अन्वेषण की मानवीय जिज्ञासा का संकुचन
नहीं चाहती। श्रद्धा सभ्यता-निर्माण में लगी है, मनु उससे संलग्न नहीं हैं। अपनी
आत्ममुग्धता में मनु, श्रद्धा के प्रयासों की आत्मकेंद्रित आलोचना करते हुए पलायन
कर जाते हैं। आगे सारस्वत-नगर में भी मनु सभ्यता-निर्माता नहीं, मात्र असंपृक्त
'सभ्यता-नियामक' हैं। सभ्यता निर्माता तो प्रजा है। मनु आत्मकेन्द्रित प्रवृत्ति
से संचालित सर्वाधिकारवादी अतिचारी शासक ही हो पाते हैं। यह स्थिति सभ्यता के
समतामूलक विकास के विरुद्ध है। “जीवन निर्माण का स्वप्न मनु का स्वप्न नहीं है।”11
इड़ा और सारस्वत-प्रजा सभ्यता-निर्माण में बाधक शक्तियों के प्रतीक
मनु का प्रतिरोध करती है। इड़ा के स्वर में सर्वाधिकारवाद का प्रत्याख्यान है-
“किंतु
नियामक नियम न माने,
तो फिर सब
कुछ नष्ट हुआ निश्चय जाने।”...
“मनु,
सब शासन स्वत्त्व तुम्हारा सतत निबाहें,
तुष्टि,
चेतना का क्षण अपना अन्य न चाहें
आह
प्रजापति यह न हुआ है, कभी न होगा,
निर्वाधित
अधिकार आज तक किसने भोगा?” 12
“इड़ा
एक चरित्र के साथ-साथ प्रतीक भी है– आधुनिक पूंजीवादी सभ्यता के विज्ञानमय बौद्धिक
स्वरूप का। प्रसाद मानव की विज्ञान-यात्रा का निषेध नहीं कर रहे, पर यह उनकी
भविष्य-दृष्टि थी कि मात्र वर्ग-वैषम्य सामाजिक-विडंबना ही नहीं, उपभोक्तावाद और
यांत्रिक-सभ्यता द्वारा उत्पादन के विस्तार से नष्ट होती पृथ्वी के प्रति संवेदनशीलता
को भी उन्होंने स्वर दिया। हम भोगवाद कहें या उपभोक्तावाद, यांत्रिकी के विस्तार,
उत्पादन के स्वरूप (समाजवादी हो या पूंजीवादी), पृथ्वी का क्षरण, पृथ्वी के
परिमंडल का क्षरण अब जिस चरम स्थिति पर पहुंच चुका है, वह आगामी समयों में
सर्वोपरि विचारणीय विषय है।”13
'संघर्ष'
सर्ग में आत्मघाती मूल्य-आधारों पर निर्मित सारस्वत सभ्यता का ध्वंस होता है।
'इड़ा' सर्ग में 'काम का अभिशाप' सभ्यता के इन्हीं विसंगत आधारों की त्रासद परिणति
की पूर्वकल्पना है। भारतीय वाङ्गमय में शाप एक काव्यरूढ़ि है। किसी साहित्यिक रचना
में शाप के द्वारा रचनाकार 'कारण-परिणाम' न्याय से किन्हीं वस्तुस्थितिओं की
परिणति के विषय में पूर्वकथन प्रस्तुत करता है। यदि रचनाकार अपनी विश्वस्थिति के
यथार्थ ज्ञान व अनुभूतियों से संपृक्त हो तो, इस पूर्वकथन में सामयिक विश्वबोध
अभिव्यक्त हो सकता है। 'काम' के अभिशाप में नर-नारी सम्बंधों, समाज और राज्य की
विद्रूप स्थितियों के कारक व उनके भयावह परिणाम अंकित हैं। यह मनु द्वारा पोषित
पतनशील मूल्यों पर आधारित सभ्यता के आत्मध्वंसक फलन की ज्ञान-संवेदनात्मकता
व्याख्या है। इसका सम्बन्ध व्यक्ति के मनोविज्ञान और अन्तर्विश्व से भी है। “‘काम का शाप’ वस्तुतः शाप कम सभ्यता का यथार्थ अधिक
है। यह मानव सभ्यता का वह यथार्थ है, जो 20वीं सदी में जटिलतर होते गए मानव-मन और
जीवन का सारांश लिए हुए है। ...काम का शाप कवि की ऐसी उद्भावना है, जो उसकी युग
दृष्टि और संवेदना के प्रसारात्मक रूप की गवाही देती है। इस शाप का कथ्य और इस
कथ्य का विस्तार जीवन-यथार्थ के जटिलतम विस्तारों के प्रति कवि की काव्यात्मक
प्रतिक्रिया है।"14
प्रसाद
कृत सभ्यता-समीक्षा का सघनतम रूप काम के अभिशाप में अभिव्यक्त है। यह न सिर्फ़
सभ्यता के मात्र एक चरण 'पूँजीवाद' की, बल्कि मनुष्य के दीर्घ साभ्यतिक इतिहास की
भी आलोचना है। इसका मूल आधार व उद्देश्य मानव-प्रवृत्तियों की आलोचना और परिष्कार
है।
“प्रसाद की इस सभ्यता-समीक्षा का रूप मुख्यतः मनोवैज्ञानिक है, मगर
यह उन आधारों से अनिवार्य रूप से संबद्ध है, जिन पर सभ्यताओं की प्रगति व निर्माण
अवलंबित होता है। तकनीक, विज्ञान, श्रम, पूंजी, उत्पादन प्रक्रिया, वितरण,
अतिरिक्त-मूल्य, निवेश, उपभोग आदि वे तत्व हैं, जो मानव-विकास के हर दौर में
किसी-न-किसी रूप में पाए जाते हैं। वर्तमान पूंजीवादी-सभ्यता में विकसित होकर इन
तत्वों ने विराट रूप धारण कर लिया है। सदियों की विकास-परंपरा में इन सभी तत्त्वों
का मनुष्य की अंतःप्रेरणा व आंतरिक जीवन से जो संबंध रहा है, उसने ही
मानव-मनोविज्ञान का निर्माण किया है। अब पूंजीवाद के इस चरम दौर में यह
मानव-मनोविज्ञान का निर्धारक तत्त्व है। काम के शाप में मानव-प्रगति से उत्पन्न
द्वंद्वों का मानव-मनोविज्ञान से संबंध दिखाकर प्रसाद ने इसे बदलने की ज़रूरत और
इस परिवर्तन की संभावना का चित्र खींचा है, ...यह चित्र हमारा अपना ही युग है। इसी
कारण प्रसाद की सभ्यता-समीक्षा और उसमें निहत मनोवैज्ञानिक तत्त्व उनके तीव्र
युग-बोध का परिणाम हैं।”15
सभ्यता-समस्या
के अनुरूप ही प्रसाद का निदान और समाधान है। सभ्यता में समग्र परिवर्तन के लिए
सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था और इसकी इकाई 'व्यक्ति' में भी मूलगामी रूपान्तरण
आवश्यक है। पिछली दो शताब्दियों की सामाजिक-राजनीतिक सरणियों में सबसे प्रखर व प्रबल;
'मार्क्सवाद' की यह मान्यता रही कि, समाज परिवर्तन के द्वारा व्यक्ति परिवर्तन
स्वतः घटित हो जाएगा और सभ्यता रूपान्तरित हो जाएगी। बदलती वैश्विक परिस्थितियों
के परिप्रेक्ष्य में मार्क्सवादी चिन्तन-परम्परा का विकास हुआ। नवीन अध्ययनों में
'उत्तर-मार्क्सवाद' से यह पुष्ट हुआ है कि, “समाज की इकाई व्यक्ति है और व्यक्ति को बदले बगैर
समाज को नहीं बदला जा सकता है। इसके विपरीत पारंपरिक मार्क्सवादियों का मानना था
कि समाज वर्गों के द्वारा बनता है, इसलिए सिर्फ वर्गीय अंतर्विरोधों की पहचान के
द्वारा समाज को ज़रूरी तौर पर परिवर्तित किया जा सकेगा। प्रत्यक्ष रूप में भूमिका
व्यक्ति की बजाय वर्ग की होगी। मार्क्यूज़ पारंपरिक मार्क्सवाद की इस समझ से
इत्तेफाक नहीं रखते थे। उनका मानना था कि व्यक्तियों को रूपांतरित कर ही समाज को
रूपांतरित किया जा सकता है। समाज स्वयं में किसी एक दिशा में अग्रसर नहीं होता।
आलोचनात्मक विवेक द्वारा ही समाज के सामूहिक विवेक को निर्मित किया जा सकता है।”16
सारांश
यह कि रूपान्तरण की जटिल घटना व्यक्ति में घटती है, इन्हीं व्यक्तियों के समूह के
आत्मविस्तार द्वारा रूपान्तरित समाज निर्मित होता है। मुक्तिबोध ने
शास्त्रीय-मार्क्सवाद की अवधारणाओं के आलोक में कामायनी की सभ्यता-समीक्षा पर
पुनर्विचार किया है। किन्तु सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया के सन्दर्भ में यह
पुनर्विचार यान्त्रिक हो गया है। कामायनी को रचना के अंतर्निहित तर्क यानी
सभ्यता-समीक्षा के मनोवैज्ञानिक आधार से काटकर, मात्र ऐतिहासिक-भौतिकवाद के खाँचे
में परखा गया है। अकारण ही नहीं, मुक्तिबोध के अन्तिम निष्कर्षों में प्रसाद
प्रदत्त समाधान रहस्यवादी, पलायनवादी और प्रतिगामी सिद्ध होता है। जबकि प्रसाद “इतिहास और मनोविज्ञान की लंबी यात्रा करते ही इसलिए हैं कि 'मरणासन्न
पूंजीवाद' द्वारा रचे जा रहे विश्व-संजाल के समस्या-मूलक पक्षों का प्रतिवाद कर
सकें, भविष्य के लिए एक दृष्टि, एक विचार, एक दर्शन, मुक्तिबोध के युग में भले ही
न नज़र आया हो, पर अब अवश्य दिखेगा— जबकि ऐतिहासिक भौतिकवाद पर आधारित
राज्य-संरचनाएं विनष्ट हो चुकी हैं, प्रेरणा और विकल्प के वैचारिक तो नहीं, पर
मूर्तरूपों का संपूर्ण पराभव हो चुका है।”17
उत्तर-मार्क्सवादी
अध्ययनों के अनुसार; पूँजीवाद न सिर्फ़ समाज-राजनीतिक व्यवस्था बल्कि
व्यक्ति-मानस को भी इस भाँति अनुकूलित करता है कि उसे अपनी चेतना का वस्तूकरण
स्पष्ट नहीं दीखता। चेतना का वस्तूकरण और उससे उपजा विलगाव ही सभ्यता का सबसे बड़ा
संकट है। “पूंजीवाद ने व्यक्तियों को प्रभावित करने के तरीकों
को बदला है। विकसित औद्योगिक समाजों में पूंजीवाद कई स्तरों पर व्यक्ति को अपना
निशाना बनाता है। न सिर्फ राजनीति बल्कि मनोविज्ञान, वस्तुओं के उत्पादन, वितरण,
खपत, जनसंचार, यातायात, शिक्षा, चिकित्सा, कला एवं मनोरंजन-इन तमाम माध्यमों से
पूंजीवाद व्यक्ति को रूपांतरित करता है। व्यक्तियों के इस रूपांतरण से अनुकूलित
एकायामी समाज निर्मित होता है।”18 पूँजीवादी
सभ्यता के उत्तर-मार्क्सवादी विश्लेषण से प्राप्त परिणामों और कामायनी की
सभ्यता-समीक्षा के मूल निष्कर्षों में साम्य है। “इस
विश्लेषण का एकमात्र अर्थ यह है कि मानवता को मनोवैज्ञानिक समाधान की भी सतत्
आवश्यकता है। बल्कि यह मूलभूत आवश्यकता है। यह इतिहास का गंभीर प्रश्न है कि समाज
परिवर्तन और मानव के प्रवृत्तिगत परिवर्तन को कैसे समन्वित किया जाए। विगत सदियां
इस प्रश्न का सरलीकरण व इसकी उपेक्षा करती रहीं। इसी कारण मुक्तिबोध को 'कामायनी'
के मनोवैज्ञानिक समाधान न सिर्फ़ अनावश्यक लग रहे हैं, बल्कि वे इसका आत्मगत आशय
यह निकाल रहे हैं कि इस समाधान से कवि का मंतव्य शोषणपरक व्यवस्था को चिरंतन मानने
व दुख की तीव्रता को कम कर इस तंत्र को सह्य मात्र बनाना है। इसी कारण से
'कामायनी' का समाहार जन-विरोधी है।”19
कामायनी
में प्रस्तुत मनोवैज्ञानिक समाधान प्रसाद के प्रदीर्घ सभ्यता-चिन्तन का परिणाम है।
वे यह समझते हैं कि व्यवस्था द्वारा आरोपित बदलाव कृत्रिम और अस्थायी होगा। कथा
साहित्य में यथार्थ की भूमि पर सभ्यता-संकटों से जूझते हुए प्रसाद का निष्कर्ष है
कि, आत्मिक समता ही स्थायी होगी। 'तितली' में समतामूलक सभ्यता-निर्माण के तरीक़े पर
विचार करते हुए उनका मत है, “...विषमता तो स्पष्ट है। नियन्त्रण के द्वारा उसमें
व्यावहारिक समता का विकास न होगा।”20
साभ्यतिक
चिन्तन के उपर्युक्त वृहत् परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो यह आकस्मिक नहीं है कि,
युग-युग के सभ्यता-बोध से संपृक्त 'कामायनी' की सभ्यता-समीक्षा में मानव-प्रवृत्तियों
के रूपान्तरण को प्रमुख महत्त्व प्राप्त है। इसे हम बाह्य व्यवस्थागत परिवर्तन पर
अधिक ज़ोर देकर एकांगी, अवास्तविक और अप्रासंगिक नहीं कह सकते। इसके उलट,
सभ्यता-संकट के मनोवैज्ञानिक स्वरूप की अनदेखी में चलाया गया कोई भी परिवर्तनकारी
अभियान एकांगी होगा। “18-19वीं सदी के मानवतावाद व सुधारवाद की यह
लोकप्रिय धारणा थी कि व्यवस्था ग़लत है, बाद में मार्क्सवाद ने इसी धारणा को एक
वैज्ञानिक-आर्थिक आधार दिया तथा यह प्रतिपादित किया कि आर्थिक शोषण पर आधारित
व्यवस्था का निर्मूलन कर समता पर आधारित व्यवस्था का निर्माण होने पर 'नए मनुष्य'
का होना संभव है। यह पूरी संकल्पना महत्त्वपूर्ण है। परंतु इस संकल्पना में
मानव-प्रवृत्तियों के रूपांतरण के अत्यंत महत्त्वपूर्ण मनोवैज्ञानिक प्रश्न को
गंभीरता से अंतर्भूत किए बिना कोई सार्थक परिणाम नहीं निकल पाएगा।”21
क्योंकि “मनुष्य अपने ऐतिहासिक-विकास, नृतत्त्वशास्त्रीय
विकास, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक विकास तथा इन सबके सम्मिलित प्रभाव से हुए
मनोवैज्ञानिक-विकास का परिणाम है।”22
श्रद्धा,
इड़ा और 'काम' के द्वारा मनु के उन चारित्रिक लक्षणों का प्रतिकार हुआ है, जो अपने
विस्तारित रूप में सभ्यता-संकट के मूल कारक हैं। 'आशा', 'कर्म' व 'ईर्ष्या' सर्गों
में श्रद्धा के कथन, 'इड़ा' सर्ग में काम का अभिशाप और 'स्वप्न' व 'संघर्ष' सर्गों
में अतिचारी मनु से इड़ा की बहस इस प्रतिकार का उदाहरण है। किन्तु मनु की हठधर्मिता
और सघन आत्मग्रस्तता को किसी भी तरह अपने मूल्यों में परिवर्तन स्वीकार नहीं है।
'संघर्ष' व 'निर्वेद' सर्गों में मनु की पराजय, पश्चात्तापरत जर्जर मनःस्थिति तथा
व्यर्थताबोध चित्रित है। मनु की पराजय “उन मूल्यों व व्यक्तित्व के अंतर्निहित तत्वों की
पराजय है, जिनसे उनका निर्माण हुआ है। यह मनु के देव-संस्कारों, पुरुषत्व बोध,
सामंती-वर्चस्व, पूंजीवादी-भोग, प्रभुत्व आकांक्षा आदि उन समग्र मनोभावों,
विचारों, गढ़न की समग्र-संपूर्ण पराजय है...।”23
प्रसाद पराजित मनु को कर्मक्षेत्र से हटा लेते हैं। सभ्यता-निर्माण के मूल्यों से रहित मनु को कर्मक्षेत्र से हटाना, कर्म का निषेध नहीं है। क्योंकि मनु का चरित्र निर्माण-कर्म का प्रतीक नहीं है। आगे सभ्यता-विकास 'मानव' व इड़ा के सम्मिलित प्रयास से होना है। इड़ा सारस्वत-सभ्यता की निर्मात्री रही है, उसे उन कमियों की पहचान है जिनके चलते सारस्वत-सभ्यता का ध्वंस हुआ। 'मानव' उन मूल्यों से निर्मित है, जिनके अवमूल्यन से मनु को अपने जीवन की व्यर्थता का बोध हो रहा है। 'मानव' के श्रद्धा-प्रदत्त मूल्य सभ्यता-निर्माण के स्वप्न में प्रबल आस्था और कर्म की अदम्य प्रेरणा से निर्मित हैं। ‘तर्कमयी’ इड़ा और ‘श्रद्धामय’ 'मानव' को सभ्यता-प्रगति का दायित्व सौंपने का आशय यह है कि इन मूल्यों के समन्वय से हुआ सभ्यता-विकास एकायामी नहीं होगा।
पलायित और
पश्चात्तापदग्ध मनु संकुचनशील हैं। विलगाव से पीड़ित व्यक्ति को आत्मग्रस्तता में
किये गए अपने अतिचारों पर जब पश्चात्ताप होता है, तो उसमें आत्म-रूपान्तरण की
आकांक्षा कम और व्यक्तित्व का संकुचन अधिक होता है। “मनु का पश्चाताप
इसी कारण परिवर्तन के संकल्प से नहीं, इस प्रतीति से उपजा है कि आत्म-रूपांतरण
उसके लिए संभव नहीं तो उसे परिदृश्य से हट जाना चाहिए। अब और उत्पात नहीं। वह अपने
को फोड़ कर अपने भीतर से नहीं उग सकता, पर अपनी अंतःवृत्तियों को नियंत्रित तो कर
सकता है। वर्चस्व की भावना को अपने भीतर से निर्मूल करना संभव न हो तो इस
वर्चस्व-भाव को सत्ता की सहायता से प्रसारणशील होने से तो रोक सकता है। सारांश यह
कि आत्म-रूपांतरण संभव नहीं तो आत्म-सीमांकन तो संभव है। स्वयं को जीवन के सक्रिय
क्षेत्र से विलग कर दूसरों को अवसर तो दिया जा सकता है।”24
कामायनी
के अन्तिम तीन सर्गों में श्रद्धा के द्वारा मनु के समक्ष समरसता का दर्शन
प्रस्तुत हुआ है। इसमें विलगाव, आत्मग्रस्तता, विभक्त व्यक्तित्व और तज्जन्य
व्यर्थताबोध से मुक्ति के सूत्र अनुस्यूत हैं। समरसता की शब्दावली के कारण इसका
स्वरूप अवश्य रहस्यवादी है, लेकिन कुछ पारिभाषिक शब्दों के कारण यह मोक्षवादी
पलायन का संदेश नहीं कहा जा सकता। इस दर्शन के बोध से मनु प्रकृति, समाज और
व्यक्ति-सम्बन्धों में तदाकार होते हैं। मनु को अपनी अस्तित्वगत परिस्थितियों का
अभिज्ञान होता है और उनकी 'विस्मृति-आकांक्षा' मिट जाती है, वे स्वयं को 'प्रकृति
से चिर-मिलित' अनुभव करते हैं। समरस अवस्था में उनका कथन है-
“सब
की सेवा न परायी वह अपनी सुख-संसृति है,
अपना ही
अणु अणु कण-कण द्वयता ही तो विस्मृति है।”25
समरसता
के इस दर्शन के बारे में मुक्तिबोध का कहना है, “प्रसाद जी का एक
कृत्रिम रहस्यवाद है, उसकी भावना कृत्रिम है। इसीलिए कामायनी के अन्तिम सर्ग
'आनन्द' की भावना भी कृत्रिम हो गयी है। क्योंकि प्रसादजी का रहस्यवाद पलायनवाद
है।”26 प्रसाद ने समरसता के दर्शन का
प्रतिपादन 'स्वप्न-चित्रात्मक' ढंग से यानी फ़ैण्टेसी के रूप में किया है। यह काव्य
रचना की वही प्रविधि है जिसकी विशद मीमांसा मुक्तिबोध ने स्वयं की है। उक्त
सन्दर्भ में मुक्तिबोध द्वारा कामायनी की समरसता को पलायन कहने का कारण यह है कि,
“अपनी कामायनी-विषयक पुस्तक में जिस फंतासी का मुक्तिबोध ने लंबा
रचना-प्रक्रियाई विवेचन किया है उस 'फंतासी' की शैल्पिक अभिव्यंजना को मुक्तिबोध
इस सर्ग में नहीं समझ सके हैं।”27 साहित्य में
यथार्थ की अभिव्यक्ति और अनुक्रिया अयथार्थवादी लगने वाली पद्धतियों से भी हो सकती
है। फ़ैण्टेसी, प्रतीककथा और जादुई यथार्थवाद ऐसी ही पद्धतियों के उदाहरण हैं। अतः
साहित्य में रहस्यवाद तथा अमूर्तन का अनिवार्य मतलब यथार्थ से पलायन नहीं है।
इनमें यथार्थ से बद्धमूल अभावों की भी अभिव्यक्ति हो सकती है, “विचार की दुनिया में अब यह एक स्थापित सिद्धांत है कि अध्यात्म, रहस्यवाद,
अमूर्तन आदि को उनके सतह पर दिखते अर्थ के आधार पर ही नहीं, उनके पाठ के विखंडन
तथा उनमें निहित वस्तुगत सत्य के आधार पर व्याख्यायित किया जाना चाहिए, 'कामायनी'
का रहस्यवाद जीवन से पलायन नहीं है, जीवन-समस्याओं के ठोस ज्ञान का यह आत्मगत रूप
और पूर्व-रूप है। 'कामायनी' का एक निश्चित प्रयोजन है। उसके आख़िरी तीन सर्गों में
व्यक्त कथ्य को रहस्यवाद, अमूर्तन, हिमालयीन-पलायन कहकर खांचों में बद्ध कर छोड़ा
नहीं जा सकता। उनके वास्तविक मंतव्यों, निहितार्थों तथा अमूर्तन में प्रच्छन्न
मूर्तन के आधार को तलाशना आवश्यक है।”28 श्रद्धा
के कथनों से मनु का हिमालय आरोहण, मानवीय-प्रवृत्तियों का आरोहण है। मनुष्य के
मनोवैज्ञानिक-विकास के द्वारा उसके वैयक्तिक-रूपान्तरण का यह चित्र वर्तमान
साभ्यतिक परिस्थितियों में भी प्रासंगिक है। जयशंकर प्रसाद द्वारा कामायनी में
चित्रित “हिमालय-आरोहण व समरसता का स्थूल शाब्दिक अर्थ न
लेकर 'कामायनी' के संपूर्ण काव्य के संदर्भ में उसका अर्थग्रहण करना आवश्यक है।
उन्होंने मानवीय प्रवृत्तियों के रूपांतरण तथा प्रकृति से सामरस्यपूर्ण मानव
सभ्यता का संदेश देना चाहा है, वे उस क्रांतिकारी-पथ तक पहुंचे जो सभ्यता, समाज और
राजनीति की इकाई मानव व उसके उस बुनियादी संबंध जिस पर समाज का गठन होता है और वह
प्रकृति जिसका वह अंश है, के सामंजस्य की सत्ता व अहंता से मुक्त जीवन की
पुनर्रचना करने की प्रेरणा देने वाला पथ है।”29
श्रद्धा
के कथन सदी के संकट को सम्बोधित हैं। प्रसाद ने श्रद्धा के चरित्र के द्वारा
सभ्यता के विघटनकारी मूल्यों का खण्डन करके सांस्कृतिक परिवर्तन की रूपरेखा
प्रस्तुत की है। जो प्रसाद-युग की अपेक्षा वर्तमान में किसी भी समाज-राजनीतिक
परिवर्तन की पूर्वशर्त के रूप में अधिक अर्थवान हो गयी है। “श्रद्धा इस सभ्यता की हिंसक होड़ व पूंजीवादी विस्तार के बीच खो गई मानवता
का अंतःस्वर है, वह हिमालय की जिन ऊंचाइयों का वर्णन प्रस्तुत करती है, वह मात्र
किसी शैव-दर्शन का काव्य भाष्य नहीं, प्रकृति की महत्ता, विराटता व सर्वोपरिता के
उस अटल-चिरंतन सत्य का विवरण भी है, जिसे पूंजीवादी-सभ्यता ने क्षतिग्रस्त कर
दिया है। वह सभ्यता के इस उपभोग-केंद्रित पूंजीवादी रूप का प्रतिकार है। मनुष्य
कहीं खो गया है, उसके सारे संदर्भ विकृत हो चुके हैं। प्रकृति पर उसने विजय नहीं
प्राप्त की है, उसे विनष्ट किया है उस प्रकृति को, जिसका वह अंश है, अर्थात् उसने
स्वयं को विनष्ट किया है। 20 वीं सदी के आरंभ में विज्ञान के पूंजीवादी व
साम्राज्यवादी दुरुपयोग की पश्चिमी सभ्यता की प्रवृत्ति और उसकी चपेट में आते
एशिया का दृश्य प्रसाद के प्रबुद्ध संवेदनशील अंतर के समक्ष उसी तरह भाव-रूप में
स्पष्ट था, जिस प्रकार इस स्थिति के विवरणों को विश्लेषित करनेवाले 'साम्राज्यवाद,
पूंजीवाद की चरम अवस्था' के लेखक लेनिन के समक्ष तथ्य रूप में।”30
आधुनिक
सभ्यता में प्रकृति से मनुष्य के विलगाव की विडंबना थोरो, रस्किन और रूसो जैसे
पाश्चात्य विचारकों की चिंता का प्रमुख केंद्र रही है। ये विचारक सभ्यता-विकास की
यात्रा में हो रहे प्रकृति-विघटन के प्रति सचेत थे। भारतीय परिप्रेक्ष्य में गांधी
ने भी पर्यावरणीय संकट के प्रश्न को उठाया। प्रसाद बीसवीं सदी में सभ्यता-विकास और
उसके प्रकृति-विनाशी आयामों के प्रति सचेत थे। कामायनी का दर्शन प्रकृति के
साहचर्य में सभ्यता-विकास की प्रस्तावना करता है। प्रसाद मनुष्य की अस्तित्वगत
आवश्यकताओं और सभ्यता-विकास की अनिवार्यता को समझते हैं। प्राकृति-साहचर्य का उनका
दर्शन प्रतिगामी नहीं है। इसके मायने यह हैं कि, प्रकृति-संवेदना से युक्त मनुष्य
सभ्यता के प्रकृति-विध्वंसक विकास को धीमा कर सकता है। प्रकृति के भीतर ही मनुष्य
का भी अस्तित्व है। अपने अस्तित्व के लिए मनुष्य को प्रकृति की रक्षा करनी है।
प्रसाद द्वारा प्रस्तुत 'सभ्यता-विकल्प' वर्तमान पर्यावरणीय संकट के सन्दर्भ में
प्रासंगिक 'धारणीय या सतत् विकास' की अवधारणा के अनुरूप है। मुक्तिबोध विकास और
उत्पादन के पूँजीवादी प्रारूप को सभ्यता के अगले चरणों की पूर्वशर्त मानते हैं,
इसीलिए कामायनी में प्रस्तुत सभ्यता-विकल्प के विषय में उनका कहना है कि, “निश्चय ही, इसका व्यावहारिक कार्यान्वयगत गर्भितार्थ प्रतिक्रियावादी है।
नवीन औद्योगिक विकास तथा सामन्ती शोषण से सर्वथा मुक्ति के तत्त्व इसमें नहीं हैं।
वह भारत को अविकसित सामाजिक दशा के खूंटे से बाँध रखना चाहता है।”31
इसी मान्यता के फलस्वरूप मुक्तिबोध के समक्ष यह स्पष्ट नहीं हो सका
कि, “गांधी या प्रसाद किन्हीं सामंतयुगीन, सभ्यता रहित
प्राकृत-जीवन का मनोविलास नहीं कर रहे। उनकी चिंताएं वास्तविक भौतिक यथार्थ पर
आधारित थीं। पृथ्वी ग्रह एक है। अब विकास और उत्पादन का प्रश्न मात्र पूंजीवाद से
समाजवादी पद्धति में बदले जाने की आवश्यकता तक सीमित नहीं रह गया है।”32
“अतः मूल प्रश्न विकास या प्रगति के नियमन का भी है। यह संभव नहीं
कि मनुष्य विकास को रोक दे। पर यह ज़रूर संभव है कि विकास की इस प्रक्रिया में
प्रकृति का दोहन, शोषण व ध्वंस अल्पतम हो। यह तभी संभव है जब भोगवाद पर रोक
लगे...।”33
पूँजीवादी
पद्धति के विकास की परिणति साम्राज्यवाद में हुई। औपनिवेशिक साम्राज्यवाद तो
बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में लगभग समाप्त हो गया। किन्तु यह विकास आर्थिक
साम्राज्यवाद के रूप में अभी भी मनुष्य व प्रकृति के लिए संकट बना हुआ है।
साम्राज्यवाद के ही प्रभाव में भूमंडलीकरण जैसी व्यापक साभ्यतिक गतिविधि
नवउपनिवेशवाद में रूपायित हो गयी है। उपभोक्तावाद और बाज़ारवाद के उपकरणों से
'स्वतन्त्रता की पैकेजिंग' व चेतना के वस्तूकरण द्वारा इस साम्राज्यवाद ने प्रकृति
तथा मनुष्य दोनों को अपने मुनाफ़े के लिए बंधक बना लिया है। इसने हर शय को दुह्य
संसाधन में बदल दिया है। “इस साम्राज्यवादी विकास मॉडल ने मनुष्य जाति को
कुदरत से अलग-थलग कर दिया है, मानवीय मन को मानवीय तन से अलग कर दिया है और मानवीय
चेतना को उसकी ऐतिहासिक अनुभवी चेतना से अलग कर दिया है। आज मनुष्य अपनी जन्मदात्री
कुदरत से इतनी दूर जा चुका है कि वह कुदरती नियमों में जीने की जगह अपनी कल्पना
में जीते हुए कुदरत को अपने अनुरूप ढालना चाहता है। यही उसकी त्रासदी है। इस
अंतराल ने मानवीय मन और मानवीय तन में इतनी दूरी पैदा कर दी है कि वह हकीकत में
जीने की जगह निरन्तर कल्पना में जी रहा है। साम्राज्यवादी चकाचौंध और उपभोक्तावाद
के प्रचार ने उसकी दृष्टि को इस हद तक चुंधिया दिया है…. ।”34
मार्क्सवादी
ज्ञान-परम्परा में भी साम्यवाद की पूर्वशर्त के रूप में पूँजीवादी विकास की
अनिवार्यता प्रश्नांकित होने लगी है। सवाल है कि, “पूंजीवाद कभी आता
ही नहीं तो क्या हुआ होता? तब क्या मानवता ने वह सब हासिल करने के कुछ कम नृशंस
रास्ते नहीं ढूंढ़ लिए होते जिसे मार्क्स मानवता की सबसे अनमोल चीजें मानते हैं।
यानी भौतिक समृद्धि. रचनात्मक मानव शक्तियों की पूरी संपदा, आत्मनिर्णय की क्षमता,
विश्वव्यापी दूरसंचार और आवागमन. इंसानी आजादी, भव्य संस्कृति, वगैरह-वगैरह,
इतिहास पूंजीवाद नहीं कुछ और होता तो क्या राफेल और शेक्सपीयर जैसे जीनियस पैदा
नहीं होते? याद रहे कि प्राचीन ग्रीस, फारस, मिस्र, चीन, भारत, मेसोपोटामिया और
अन्य जगहों पर कला और विज्ञान किस कदर फले फूले थे। सो पूंजीवादी आधुनिकता क्या
वाकई जरूरी थी? आधुनिक विज्ञान और मानवीय आजादी को क्या हम आदिवासी समाजों की
आध्यात्मिक उपलब्धियों से ज्यादा अनमोल मान सकते हैं? क्या हम लोकतंत्र की तुलना
हिटलर के महाविनाश से कर सकते हैं?
सवाल
महज अकादमिक महत्त्व का नहीं है। मान लीजिए कि हममें से कुछ लोग परमाणविक या
पर्यावरण के महाविनाश से बच सके और उस शून्य से सभ्यता का निर्माण फिर से करने का
भारी काम शुरू करें। हम जानते होंगे कि यह महाविनाश क्यों हुआ था तो क्या
बुद्धिमानी नहीं होगी कि हम निर्माण का यह काम इस बार समाजवादी तरीके से करें?”35
प्रसाद
ने आत्मघाती मूल्यों की नींव पर खड़ी सभ्यता के ध्वंस के पश्चात जिस नयी सभ्यता के
विकास की संकल्पना की है, उसके मूल्याधार प्रकृति-संरक्षण और समाजहित की चिंता से
संपृक्त हैं। कामायनी “पूंजीवादी-संस्कृति के विरुद्ध एक गहरा सांस्कृतिक
प्रतिकार है। यह न गांधीवादी है, न मार्क्सवादी। इसका लक्ष्य न प्रकृति की ओर
प्रत्यावर्त्तन है, न सभ्यता व विकास का नकार। यह न प्रत्यभिज्ञा-दर्शन का प्रेरित
प्रसंग है। न आनंदवाद की परिकल्पना। यह न भारतीय दार्शनिक प्रणालियों का पुनर्कथन
है, न आदर्शवादी, आध्यात्मिक जगत-व्याख्या, यह अपने मूल रूप में अपने संपूर्ण
रचनात्मक ढांचे में मानवीय-प्रवृत्तियों के परिष्कार व पुनर्निर्माण का एक वृहत
'टेक्स्ट' है।”36
निष्कर्ष : इस तरह कामायनी में सभ्यता-समीक्षा का स्वरूप स्पष्ट है। कामायनी की सभ्यता-समीक्षा का मूल आधार मनोवैज्ञानिक है। इसलिए इसमें सभ्यता-समस्या का निदान व समाधान भी मनोवैज्ञानिक स्तर पर प्रस्तुत हुआ है। कामायनी में सभ्यता-संकट का हल सभ्यता-रूपान्तरण के द्वारा हुआ है। सभ्यता में रूपान्तरण समाज की इकाई ‘व्यक्ति’ की प्रवृत्तियों में रूपान्तरण के द्वारा घटित होता है। रूपान्तरण का यह स्वरूप किसी कृत्रिम और आरोपित व्यवस्थागत परिवर्तन से अधिक स्थाई होता है। कामायनी में जगह-जगह उपस्थित रहस्यवाद यथार्थ से सम्बद्ध है। यह ब्रह्माण्ड और प्रकृति की विराटता के प्रति जिज्ञासा के रूप में अभिव्यक्त हुआ है। इसका उद्देश्य मनुष्य के अस्तित्व और प्रकृति से उसके अनिवार्य सम्बन्धों के परिप्रेक्ष्य में सभ्यता के संकटों को सम्बोधित करना है। जयशंकर प्रसाद ने सभ्यता-विकास को प्रकृति-संवेदना से समन्वित करने की आवयश्कता रेखांकित की है। आज मानवता के समक्ष विकास की यात्रा में प्रकृति के अतिशय दोहन से होने वाले आत्मविध्वंसक परिणाम स्पष्ट हैं। कामायनी में इस संकट के संज्ञान से ही प्रकृति-साहचर्य का दर्शन चित्रित है। कामायनी के समाधान वर्तमान सभ्यता विमर्शों के उन सन्दर्भों में प्रासंगिक हैं जिनमें ये प्रकृति, समाज और व्यक्ति-सम्बन्धों की चिन्ताओं को सम्बोधित हैं। हमें कामायनी की सभ्यता-समीक्षा और विकल्प में वे सूत्र प्राप्त हो सकते हैं, जिनके द्वारा सभ्यता के एकायामी निर्माण के दुष्परिणामों से बचा जा सकता है। इन निर्माणसूत्रों से एक समग्र सभ्यता के विकास का प्रयास संसाधित हो सकता है।
सन्दर्भ:
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जयशंकर प्रसाद : कामायनी, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद,
संस्करण-2017, पृ.67
2.
आलोक श्रीवास्तव : स्वप्नलोक में आज जागरण: महाकवि जयशंकर प्रसाद
की काव्य यात्रा-1, संवाद प्रकाशन, मेरठ, 2022, पृ. 106
3.
गजानन माधव मुक्तिबोध : कामायनी : एक पुनर्विचार, राजकमल
प्रकाशन, नई दिल्ली, बारहवाँ संस्करण, 2015, पृ.63
4.
जयशंकर प्रसाद : कामायनी, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद,
संस्करण-2017, पृ.38-39
5.
गजानन माधव मुक्तिबोध : कामायनी : एक पुनर्विचार, राजकमल
प्रकाशन, नई दिल्ली, बारहवाँ संस्करण, 2015, पृ.80
6.
जयशंकर प्रसाद : कामायनी, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद,
संस्करण-2017, पृ.41
7.
वही, पृ. 74
8.
आलोक श्रीवास्तव : नील लोहित ज्वाल जीवन की: महाकवि जयशंकर प्रसाद
की काव्य यात्रा-2, संवाद प्रकाशन, मेरठ, 2022, पृ.497
9.
गजानन माधव मुक्तिबोध : कामायनी : एक पुनर्विचार, राजकमल
प्रकाशन, नई दिल्ली, बारहवाँ संस्करण, 2015, पृ.56
10. जयशंकर
प्रसाद : कामायनी, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, संस्करण-2017, पृ.42
11. गजानन
माधव मुक्तिबोध : कामायनी : एक पुनर्विचार, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली,
बारहवाँ संस्करण, 2015, पृ.48
12. जयशंकर
प्रसाद : कामायनी, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, संस्करण-2017, पृ.72
13. आलोक
श्रीवास्तव : नील लोहित ज्वाल जीवन की: महाकवि जयशंकर प्रसाद की काव्य यात्रा-2,
संवाद प्रकाशन, मेरठ, 2022, पृ.223-224
14. वही,
पृ. 374
15. वही,
पृ. 528
16. अच्युतानंद
मिश्र : बाज़ार के अरण्य में: उत्तर मार्क्सवादी चिंतन पर केंद्रित, आधार
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17. आलोक श्रीवास्तव
: नील लोहित ज्वाल जीवन की: महाकवि जयशंकर प्रसाद की काव्य यात्रा-2, संवाद
प्रकाशन, मेरठ, 2022, पृ. 444
18. अच्युतानंद
मिश्र : बाज़ार के अरण्य में: उत्तर मार्क्सवादी चिंतन पर केंद्रित, आधार
प्रकाशन, पंचकूला (हरियाणा), 2018, पृ.119
19. आलोक
श्रीवास्तव : नील लोहित ज्वाल जीवन की: महाकवि जयशंकर प्रसाद की काव्य यात्रा-2,
संवाद प्रकाशन, मेरठ, 2022, पृ. 454
20. जयशंकर
प्रसाद : तितली, ज्योति प्रकाशन, संस्करण : 2017, पृ. 104
21. आलोक
श्रीवास्तव : नील लोहित ज्वाल जीवन की: महाकवि जयशंकर प्रसाद की काव्य यात्रा-2,
संवाद प्रकाशन, मेरठ, 2022, पृ. 451-452
22. वही,
पृ. 497
23. वही,
पृ. 461
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25. जयशंकर
प्रसाद : कामायनी, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, संस्करण-2017, पृ.112
26. गजानन
माधव मुक्तिबोध : कामायनी : एक पुनर्विचार, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली,
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27. पाण्डेय
शशिभूषण ‘शीतांशु’ : तुम न विवादी स्वर
छेड़ो अनजाने इसमें! (कामायनी के कवि आलोचकों का सन्दर्भ), बहुवचन (अंक-47),
अक्टूबर-दिसम्बर, 2015, पृ. 134
28. आलोक
श्रीवास्तव : नील लोहित ज्वाल जीवन की: महाकवि जयशंकर प्रसाद की काव्य यात्रा-2,
संवाद प्रकाशन, मेरठ, 2022, पृ. 206
29. वही,
पृ. 415
30. वही,
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31. गजानन
माधव मुक्तिबोध : कामायनी : एक पुनर्विचार, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली,
बारहवाँ संस्करण, 2015, पृ. 93
32. आलोक
श्रीवास्तव : नील लोहित ज्वाल जीवन की: महाकवि जयशंकर प्रसाद की काव्य यात्रा-2,
संवाद प्रकाशन, मेरठ, 2022, पृ. 224
33. वही,
पृ. 454-455
34. गुरबचन
सिंह : प्रकृति : मनुष्य और राज्य : साम्यवादी दर्शन की पुनर्व्याख्या (पंजाबी
से अनुवाद : तरसेम गुजराल), आधार प्रकाशन, 2012, पृ.127
35. टेरी
इगलटन: क्यों सही थे मार्क्स (अँगरेज़ी से अनुवाद : चैतन्य कृष्ण) ; आकार
बुक्स, दिल्ली, 2020, पृ. 58
36. आलोक
श्रीवास्तव : नील लोहित ज्वाल जीवन की: महाकवि जयशंकर प्रसाद की काव्य यात्रा-2,
संवाद प्रकाशन, मेरठ, 2022, पृ. 406
प्रशान्त राय
शोधार्थी, हिन्दी विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय
vksrai977@gmail.com, 7753063075,
8840359116
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-41, अप्रैल-जून 2022 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक एवं जितेन्द्र यादव, चित्रांकन : सत्या सार्थ (पटना)
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