शोध आलेख :-उत्तर भारत के ग्रामीण समुदाय के लोगों की चिकित्सा दुनिया: स्थापित पद्धतियों से संबंध / सीताराम एवं डॉ. प्रशांत खत्री

उत्तर भारत के ग्रामीण समुदाय के लोगों की चिकित्सा दुनिया: स्थापित पद्धतियों से संबंध
(पूर्वी उत्तरप्रदेश के बस्ती जनपद के बरसॉव गाँव के विशेष संदर्भ में)
– सीताराम 
एवं डॉ. प्रशांत खत्री

शोध सार: भारत गाँवों का देश है। भारत की अधिकतर ग्रामीण आबादी आधुनिक स्वास्थ्य सेवाओं से वंचित है। ऐसी प्रतिकूल परिस्थितियों में समाज के वंचित लोग प्राय: अपने स्वास्थ्य जरूरतों को पूरा करने के लिए अपने अनुकूल एक स्थानीय चिकित्सा दुनिया का निर्माण करते हैं। जब कोई व्यक्ति कभी बीमार पड़ जाता है या किसी हादसे का शिकार हो जाता है तो इससे उसकी जीवनचर्या प्रभावित होने लगती है। बीमारियाँ किसी व्यक्ति को सिर्फ शारीरिक और मानसिक रुप से ही प्रभावित नहीं करती हैं अपितु इसका व्यापक असर सामाजिक-सांस्कृतिक और आर्थिक जीवन पर भी पड़ता है, अर्थात बीमारी जीवन के सभी पहलुओं को प्रभावित करती  है और जीवन को कष्टमय बना देती है। इसलिए बीमारियों के इस प्रकार की नकारात्मकता से बचने के लिए बीमार व्यक्ति के परिजन और स्वयं रोगी भी व्यक्तिगत स्तर पर बीमारी से मुक्ति पाने के लिए घरेलू चिकित्सा सेवाओं से लेकर आधुनिक स्वास्थ्य चिकित्सा सेवाओं के इस्तेमाल के लिए प्रयत्नशील रहते हैं। बीमारियों से निजात पाने के लिए रोगी द्वारा उठाए गए समग्र प्रयास का संयुक्त रूप ही उसका ‘स्वास्थ्य व्यवहार’ कहलाता है। इसी स्वास्थ्य व्यवहार के माध्यम से ही रोगी अपने स्थानीय स्तर पर स्थापित चिकित्सा दुनिया के साथ अनुकूलन करता है और स्वास्थ्य लाभ प्राप्त करता है। इस शोध पत्र में इन तथ्यों का विश्लेषण किया है कि बरसॉव गाँव के स्थानीय लोग कैसे अपनी चिकित्सा दुनिया से अपने स्वास्थ्य व्यवहार जैसे मूलभूत जरूरतों को पूरा करते हैं।

मुख्य शब्द: चिकित्सा दुनिया, स्वास्थ्य व्यवहार, सामाजिक-सांस्कृतिक, बीमारी, निजात, इलाज, रोगी इत्यादि।

प्रस्तावना: स्वास्थ्य एक व्यापक अवधारणा है। स्वास्थ्य की अवधारणा केवल व्यक्ति विशेष तक ही सीमित नहीं है, अपितु इसका विस्तार समाज, समुदाय एवं आध्यात्म तक भी है। स्वास्थ्य को परिभाषा में बाधने का प्रयास विभिन्न विद्वानों द्वारा कई स्तरों पर किया गया है, लेकिन सबसे प्रामाणिक परिभाषा विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा दी गयी मानी जाती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार “स्वास्थ्य केवल जैविक या शारीरिक अवधारणा नहीं है, वरन् इसका संबंध, सामाजिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक अवधारणा से भी है”। स्वास्थ्य और बीमारी दोनों एक दूसरे के विरोधी ध्रुव हैं। जब इनमें से किसी एक का प्रभाव अनुपस्थित होता है तो दूसरे का प्रभाव स्पष्ट होता है। जहाँ एक तरफ स्वास्थ्य धनात्मक स्थितियों के लिए जिम्मेदार होता है वहीं बीमारी नकारात्मक स्थितियों को पैदा करती है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि स्वास्थ्य और बीमारी दोनों के मध्य में व्युत्क्रमानुपाती संबंध भी है। इस तरह के संबंधों में ऐसा होता है कि जब कभी भी इनमें से किसी एक का प्रभाव कम होने लगता है तब ठीक उसी समय दूसरे का प्रभाव धीरे-धीरे बढ़ने लगता है। इस प्रकार के असंतुलन की स्थिति बीमारी की तरफ ले जाने का काम करती है।   

      स्वास्थ्य किसी भी व्यक्ति के मूलभूत आवश्यकतों में से एक प्रमुख आवश्यकता है। कोई भी व्यक्ति जब कभी बीमार पड़ जाता है या किसी हादसे का शिकार हो जाता है तो इससे उसकी जीवनचर्या प्रभावित होने लगती है। धीरे-धीरे उसके व्यवसाय पर, सामाजिक जीवन के मूल्यों पर भी नकारात्मक असर पड़ने लगता है। धीरे-धीरे इसका असर परिवार पर भी पड़ने लगता है। इस तरह बीमारी का कुप्रभाव जीवन के सभी पहलुओं को प्रभावित करता हुआ जीवन को कष्टमय बना देने का कार्य करता है। बीमार व्यक्ति की जीवन शैली और कार्य शैली दोनों अस्त-व्यस्त होने लगती है। इसलिए इस तरह की नकारात्मकता से बचने के लिए या निजात पाने के लिए बीमार व्यक्ति स्वयं भी व्यक्तिगत स्तर बीमारी को खत्म करने के लिए प्रयास करता ही है अपितु इसके साथ ही साथ उसके परिवार के सदस्य भी उसकी बीमारी से मुक्ति दिलाने में मदद करते हैं। स्थानीय लोग पहले से स्थापित स्थानीय चिकित्सा व्यवस्था के प्रति ज्यादा अनुकूलित दिखाई पड़ते हैं अपेक्षाकृत आधुनिक स्वास्थ्य सेवाओं के, आधुनिक स्वास्थ्य सेवाओं को लेकर लोगों में अनुकूलन का स्तर कम ही दिखाई पड़ता है। बदलते सामाजिक-आर्थिक परिदृश्य में लोग रोगों के उपचार हेतु अपने स्थानीय चिकित्सा व्यवस्था की दुनिया में उपलब्ध घरेलू इलाज पद्धतियों से लेकर आधुनिक स्वास्थ्य चिकित्सा सेवाओं के दरवाजे खटखटाते हुए नजर आ रहें हैं।   

                                  वर्तमान अध्ययन

       अध्ययन क्षेत्र: यह वर्तमान अध्ययन उत्तर भारत के पूर्वी उत्तरप्रदेश के बस्ती जनपद के बरसॉंव गाँव के ग्रामीण समुदाय के स्वास्थ्य व्यवहार पर आधारित है। इस गाँव का कुछ हिस्सा सरयू नदी (पूर्व में घाघरा के नाम से जानी जाती थी) के तटबंध के बाहर और इसका कुछ हिस्सा तटबंध के अंदर अर्थात नदी के बहाव क्षेत्र में स्थित है। यह हिस्सा बाढ़ प्रभावित क्षेत्र में आता है। इसकी यही विशेष भौगोलिक स्थिति इसके अध्ययन के लिए आकर्षित भी करती है और क्षेत्र को महत्त्वपूर्ण भी बनाती है। ग्रामीण आबादी से प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र की दूरी लगभग 6 किमी. के आस-पास है। सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र की दूरी 20 किमी. है। जिला अस्पताल की दूरी 35 किमी. है।

     प्रतिचयन की क्रियाविधि: वर्तमान अध्ययन क्षेत्र का चयन सरल यादृच्छिक प्रतिदर्श के  माध्यम से किया गया है। प्रतिचयन समूह से प्रतिचयन इकाई का चयन स्तरित प्रतिचयन के द्वारा किया गया है। उद्देश्यपरक प्रतिचयन के लिए घरों को दो भागों में विभाजित किया गया है। पहला जिसमें वर्तमान में बीमार व्यक्ति हो और दूसरा जिसमें जो हाल ही में बीमारी से ठीक हुआ हो।    

तथ्य संकलन की विधियाँ : ग्रामीण लोगों के चिकित्सा दुनिया को समझने के लिए शोधकर्ता द्वारा मानवशास्त्रीय अध्ययन विधियों का प्रयोग किया गया है। इसके लिए पूर्व परीक्षण किये गए साक्षात्कार अनुसूची का प्रयोग किया गया है। लोगों से गहन साक्षात्कार किया गया। वहाँ के लोगों के साथ सहभागी अवलोकन भी किया गया है कि जिससे उन तथ्यों के मौलिकता का परीक्षण/जाँच भी किया जा सके। घर को इकाई मानते हुए कुल 887 घरों मे से 213 घरों को अध्ययन में शामिल किया गया है। इसके साथ वहाँ उपलब्ध रिकार्ड और प्रशासनिक सूचनाओं का भी उपयोग किया गया है। क्षेत्र कार्य पर 12 महीने से ज्यादा समय तक रहकर वहाँ के लोगों से संबंधित मौलिक तथ्यों का संकलन किया गया है। लोगों की सहमति लेने के बाद ही उनका साक्षात्कार किया गया है। लोगों के मानवीय गरिमा का पूरा ख्याल रखा गया है। स्थानीय लोगों से समय लेकर उनके द्वारा निर्धारित समय और स्थान पर ही साक्षात्कार सम्पन्न किया गया है। सामान्य परिस्थितियों में साक्षात्कार घर के मुखिया से ही किया गया है, विशेष परिस्थितियों में ही मुखिया से अलग मुखिया द्वारा साक्षात्कार के लिए निर्धारित सदस्य से किया गया है। लोगों की सुविधाओं को नजर रखते हुए उनका साक्षात्कार खेत-खलिहानों, मजदूरी करने वाले स्थानों पर भी संपादित किया गया है।        

  विश्लेषण: अध्ययन के लिए संकलित तथ्यों का विश्लेषण एसपीएसएस 21 सॉफ्टवेयर के  प्रयोग के द्वारा किया गया है।      

           1.1.1: ग्रामीण समाज की सामाजिक-सांस्कृतिक एवं आर्थिक दुनिया

          विश्व के प्रत्येक समाज विभिन्न जटिल संरचनाओं के अंतरसंबंधों के आपसी संघर्ष एवम् समन्वय के परिणाम होते हैं। हर समाज के लोगों की अपनी एक अलग विशिष्ट दुनिया होती है। वह दुनिया अपने में एक आर्थिक दुनिया हो सकती है, एक सामाजिक दुनिया हो सकती है। ऐसा देखा जाता है कि लोग अक्सर अपनी ही दुनिया में व्यस्त रहते हैं। लोगों की अपनी एक सामाजिक-सांस्कृतिक दुनिया होती है। लोगों के सामाजिक जीवन को सफलतापूर्वक संचालित करने में उनकी संस्कृति का महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। ख्वाजा आरिफ़ हसन महोदय(1967)  लखनऊ के एक गाँव के अध्ययन में ये पाया कि “कुछ संस्कृति, रीति-रिवाज एवं प्रथायेँ लोगों के स्वास्थ्य पर सकारात्मक असर डालती हैं वहीं कुछ इसके उलट नकारात्मक प्रभाव भी डालती हैं। इससे व्यक्ति का स्वास्थ्य प्रभावित होने लगता है। इससे उसका शरीर कमजोर होने लगता है”।1 जब सूचनादाता श्रीमती सुनीता दूबे (50वर्ष, महिला) जी से उनकी दुनिया को जानने की कोशिश की गई तो वह इसके जबाब में यह बताती हैं कि “हमार दुनिया तो इहय चाहर दीवारी मे ही सिमटी बाय” अर्थात ‘उनकी दुनिया तो घर की चारदीवारी के अंदर ही सिमटी हुई है। वह बताती हैं कि उनका काम सिर्फ घर के अन्दर तक ही सिमटा हुआ है’। उनकों समाज और बाहरी दुनिया में क्या चल रहा है यह पता नहीं होता है। ऐसा इसलिए भी होता है क्योंकि व्यक्ति अपने आप को निजी कामों और जरूरतों तक ही बहुत हद तक सीमित कर लेता है। इसके पीछे कई सामाजिक-आर्थिक कारण भी होते हैं। जब लोगों की सामाजिक-सांस्कृतिक एवम् स्वास्थ्यगत जैसी आधारभूत जरूरतें उनके अपने स्थानीय आवरण में ही मिल जाया करती हैं तो उन्हें और दूसरे के बारे में सोचने की आवश्यकता ही नहीं होती है। गाँव के दो तिहाई से अधिक लोग मुख्य रूप से कृषि कार्य करते हैं। गाँव की अधिकतर आबादी मानसून आधारित कृषि करती है। इसलिए लोगों की आय पर मानसून का सीधा असर पड़ता ही है। इसके अलावा आवश्यकता से अधिक लोग कृषि कार्य में संलग्न रहते हैं। इससे भी औसत उत्पादन कम ही आता है। कम आमदनी महंगी स्वास्थ्य सेवाओं के प्रयोग पर युक्तियुक्त प्रतिबंधन लगाती है। यदा-कदा होती भी है तो उनके पास इतना सामर्थ्य भी नहीं होता है वे उस तक पहुँच भी सके। इन सब कारणों से इनके सामाजिक संसार का दायरा सीमित होता चला जाता है। सूचनादाता श्री राम शंकर (पुरुष, 56 वर्ष) पेशे से एक किसान हैं। आर्थिक संसार के विषय पर वह बताते है कि “अधिकतर लोगों के आय का मुख्य जरिया खेती है। इसी से ही जीवन यापन चलता है। गाँव के अधिकतर लोगों का मुख्य व्यवसाय कृषि ही है। लोग मानसून आधारित खेती करते हैं। अच्छा मानसून रहने पर फसल की पैदावार अच्छी होती है। मानसून खराब होने पर इसका बुरा असर पैदावार पर पड़ता है। इससे लोगों के साथ-साथ पशुओं का भी जीवन प्रभावित होता है। आर्थिक रूप से कमजोर व्यक्ति को हमेशा सामाजिक असुरक्षा की चिंता बनी रहती है। बाढ़ आने से ज्यादातर फसले नष्ट हो जाती हैं। पशुओं का चारागाह भी बाढ़ से बुरी तरह से प्रभावित हो जाता है। इससे दुग्ध उत्पादन कम होने लगता है। पशुओं और लोगों को कई प्रकार की बीमारियों से भी सामना करना पड़ता है। इससे एक तरफ आमदनी कम होती है वहीं दूसरी तरफ स्वास्थ्य सेवाओं पर ज्यादा से ज्यादा व्यय करना पड़ता है। इससे आम आदमी पर दोहरा मार/बोझ  पड़ता है। इस प्रकार की स्थितियाँ सामाजिक-आर्थिक रूप से लोगों को तोड़ देती हैं”। यह सब मिलकर व्यक्ति से स्वास्थ्य व्यवहार को नियंत्रित करते हैं। “गरीबी की स्थिति स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुँच को भी अवरुद्ध करती है”।2  संस्कृति का जीवन और समाज दोनों पर व्यापक असर होता है। सूचनादाता श्री आचार्य शंखधर द्विवेदी (पुरुष, 80 वर्ष) जी बताते हैं कि “संस्कृति लोगों को सकारात्मक ऊर्जा और सही दिशा देने का काम करती है। इससे व्यक्तिगत लाभ के साथ ही साथ समाज का भी विकास और लाभ होता है। संस्कृति व्यक्ति को नियमित एवं संतुलित जीवन जीने को प्रोत्साहित करती है”। वह बताते हैं कि “जो लोग पूजा पाठ करते हैं वे लोग नियमित समय पर उठते है, नित्य क्रिया करते हैं, स्नान करते हैं जिससे उनका मन शांत और  शरीर स्वच्छ रहता है। इस प्रकार से ऐसे लोग कई प्रकार के बीमारियों से अपने आप को बचा लेते हैं”। इससे उनका सेहत अच्छा रहता है। समाज में ऐसा देखा गया है कि पुरुष और महिलाओं में भावनाओं, अनुभवों और दु:खों को प्रदर्शित करने में स्पष्ट अंतर दिखाई पड़ता है। एक तरफ जहाँ पुरुषों में अपने दु:ख, अनुभव और पीड़ा को ज्यादा से ज्यादा सहन करने की प्रवृत्ति देखी जाती है। अत्यधिक असहाय स्थिति में या ज्यादा पीड़ा में ही वो रोते-चिल्लाते हैं  और अपनी भावनाओं को प्रकट करते हैं। वहीं दूसरी तरफ महिलाओं में अपने दुख, अनुभव और पीड़ा को ज्यादा से ज्यादा आसानी से प्रदर्शित करने की प्रवृत्ति देखी जाती है। जबोरोस्की ने न्यूयार्क सिटी के वेटेरन्स हॉस्पिटल के पीड़ितों के अध्ययन में यह पाया कि “युरोपियन की अपेक्षा जेव्स और इटालियन अपने भावनाओं को प्रदर्शित करने के प्रति ज्यादा संवेदनशील होते हैं”3        

                          1.1.2: ग्रामीण चिकित्सा दुनिया

      स्वास्थ्य ही धन है। यह कहावत अमीर-गरीब, पुरुष-महिला सभी आयु वर्ग के लोगों पर समान रूप से लागू होती है। जब से मानव अस्तित्व में आया है तब से लेकर आज तक वह बीमारियों के लड़ रहा है। मलेरिया, चेचक, इबोला वायरस से लेकर वर्तमान में कोविड-19 जैसी महामारी से लड़ रहा है। बीमारियाँ मनुष्य के जीवन के अस्तित्व लिए हमेशा संकट बनी रही हैं। बीमारियाँ लोगों को हमेशा से चुनौतियां देती रही हैं लेकिन मनुष्य हमेशा इन बीमारियों से लड़ने में सफल रहा है। इसके पीछे कहीं न कहीं इसकी अपनी कुशल चिकित्सा प्रबंधन का होना रहा है। संसार के किसी भी कोने में रहने वाले हर परिवार और समाज की अपनी एक अनोखी और उपयोगी चिकित्सा दुनिया होती है। यह चिकित्सा दुनिया अपने आप में एक व्यवस्थित संरचना होती है। इस प्रकार के स्थानीय चिकित्सा व्यवस्था का निर्माण एक लंबे समय अंतराल के मध्य में हुए विभिन्न अनुभवों के आपसी संघर्षों का परिणाम होता है। स्थानीय चिकित्सा दुनिया से आशय ऐसे स्थानीय चिकित्सा व्यवस्था से है जिसमें स्थानीय व्यक्ति अपने स्वास्थ्य जरूरतों को पूरा करता हुआ दिखलाई पड़ता है। लोगों के स्थानीय चिकित्सा का संसार समृद्ध होता है, व्यापक होता है और इसके साथ ही यह स्थानीय लोगों के अनुकूल भी होता है। आसानी से लोग इस तरह के स्वास्थ्य सेवाओं का प्रयोग कर लेते हैं। उत्तरप्रदेश के अलीगढ़ के किशनगढ़ गाँव के अध्ययन में मैरियट ने पाया कि “गाँव के लोग स्थानीय चिकित्सा, घरेलू दवाओं पर विश्वास करते हैं और पश्चिमी दवाओं पर शंका करते हैं। इसके पीछे लोगों की सांस्कृतिक, मूल्य मान्यताएं होती हैं। इन आधुनिक दवाओं के सेवन से उनकी पवित्रता पर आँच आ सकती है”।4   इस तरह की धारणायेँ लोगों के स्वास्थ्य व्यवहार को संकुचित करने का काम करती हैं। सूचनादाता श्री राम प्रसाद (30वर्ष, पुरुष) जी बताते हैं कि “स्थानीय चिकित्सा व्यवस्था पर स्थानीय लोगों का एक वैश्विक दृष्टिकोण होता है। यह दृष्टिकोण अनुभवपरख कारणों से होता है। लोगों को इसका लाभ प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से मिला ही होता है। इसके पीछे की मुख्य वजह इस चिकित्सा व्यवस्था का उपयोग कई पीढ़ियों द्वारा किया जाता रहा है।यह चिकित्सा व्यवस्था उन लोगों के आस-पास की ही होती है। इससे लोगों को इसके प्लस और माइनस (उसकी खूबियाँ और उसकी कमियाँ) अच्छे से पता होता है। इसलिए लोग इन स्वास्थ्य व्यवस्थाओं पर आसानी से यकीन/विश्वास कर लेते हैं। लोग इसका प्रयोग अपनी जरूरतों के अनुसार करते रहते हैं। इसका लंबे समय से स्थानीय व्यवस्था के साथ अस्तित्व में बने रहने के कारण से भी यह चिकित्सा व्यवस्था महत्त्वपूर्ण हो जाती है। यह चिकित्सा व्यवस्था प्राकृतिक दर्शन पर भी आधारित हो सकती है। जब कोई व्यवस्था लंबे समय से चली आ रही हो तो लोगों की उस पर एक व्यापक नजरिया बन ही जाता है”।

         स्थानीय लोग अपने आसपास की उपलब्ध चिकित्सा व्यवस्था के अनुरूप खुद को ढालने लगते हैं। खुद को अनुकूलित करने लगते हैं। लोग उसे ही अपनी आवश्यकताओं के पूर्ति का केंद्र समझने लगते हैं। स्थानीय लोग उसी चिकित्सा व्यवस्था के अनुसार अपने स्वास्थ्य व्यवहार को अंजाम देते हैं। जब कोई व्यक्ति बीमार पड़ता है तो लोग उसी चिकित्सा व्यवस्था में स्थापित प्रतिमानों के माध्यम से अपना स्वास्थ्य व्यवहार करते हैं और इसी के माध्यम से ही स्वास्थ्य लाभ प्राप्त करते हैं।

                1.1.3 : स्थानीय स्तर पर स्वास्थ्य सुविधायें

                       1.1.3.1: स्थानीय चिकित्सक

        इस अध्ययन से यह बात स्पष्ट हो जाता है कि ग्रामीण जीवन बहुत जटिल और समृद्ध है। लोगों में बीमारी और इसके पूरक विचार स्वास्थ्य को लेकर काफी गहरी समझ है। जब गाँव के लोगों का समूह केंद्रित साक्षात्कार किया गया तब जाकर और बहुत सी बाते सामने आयीं। जब उनसे बीमारियों के होने और उसके इलाज करवाने तक के सवाल पूछें गये तो उस पर लोगों ने खुल कर अपनी बातें सामने रखी। अध्ययन के दौरान साक्षात्कार में यह तथ्य सामने आया, जब उनसे यह पूछा गया की आप के गाँव में कोई स्थानीय/पारंपरिक चिकित्सक है या नहीं। यहाँ स्थानीय/पारंपरिक चिकित्सक (ओझा, शोखा, झाड़-फूँक करने वाले लोग एवं अन्य गैर प्रशिक्षित चिकित्सक) से आशय से ऐसे चिकित्सकों से है जिनको सामुदायिक स्तर पर स्थानीय लोगों द्वारा मान्यता प्राप्त होता है। इस तरह के चिकित्सकों की एक पारिवारिक पृष्ठभूमि होती है। उनके परिवार के लोग ऐसे चिकित्सीय कार्यों में कई पीढ़ियों से संलग्न रहे होते हैं। लोगों का इनके ऊपर विश्वास होता है। इसलिए सामुदायिक स्तर पर लोगों द्वारा स्वीकृति किए जाते है। सामाजिक रूप से मान्यता प्राप्त होते हैं। इनकों किसी विधि द्वारा स्थापित संस्थानों से कोई प्रशिक्षण प्राप्त नहीं होता है। खरे (1963) के अनुसार “ऐसे स्थानीय चिकित्सक किसी संस्थान से प्रशिक्षित नहीं होते हैं। इनके कोई गुरु हो सकते हैं। जिससे यह सब सीखते हैं। इनके गुरु भी किसी संस्था से प्रशिक्षित नहीं होते हैं। एक तरह से इस प्रकार के ज्ञान और कौशल का हस्तांतरण मौखिक रूप से एक पीढ़ी से दूसरे पीढ़ी को होता रहता है”।5    

तालिका सं. 01: स्थानीय चिकित्सक का वर्गीकरण

स्थानीय चिकित्सकों में निम्न प्रकार के लोग आते हैं:-

                         स्थानीय चिकित्सक

पारंपरिक चिकित्सक (झाड़-फूक)

   गैर संस्थागत चिकित्सक

ओझा / सोखा

बाबा /साधु

फकीर बाबा

जोगी बाबा

ऐसे व्यक्ति जिसके ऊपर कभी-कभी देवी-देवता सवार होते हैं।

      झोलाछाप चिकित्सक

    किराना स्टोर दवा विक्रेता

  गैर पंजीकरण मेडिकल स्टोर

 

          बरसॉंव गाँव के लोगों में स्थानीय/पारंपरिक चिकित्सक को चिकित्सक मानने वालों लोगों का कुल प्रतिशत 23.2% है वहीं पारंपरिक चिकित्सक को चिकित्सक नहीं मानने वालों का कुल प्रतिशत 73.9% है। इसमें 2.9% लोग ऐसे भी है जो यह जानते है की वह सोखाई और झाड़ फूँक का काम करते हैं पर ये लोग उसमें बिल्कुल विश्वास नहीं करते हैं, कि लोग इससे ठीक भी होते हैं। इस अध्ययन से यह निष्कर्ष निकलता है कि आज के आधुनिक समय में भी 26.6% से अधिक लोग प्राचीन और पारंपरिक चिकित्सा व्यवस्था पर भी विश्वास कर रहे हैं और साथ में इसका भरपूर इस्तेमाल भी कर रहें हैं। गाँव के 6.9% लोग ऐसे भी हैं जो कभी-कभी स्थानीय (पारंपरिक) चिकित्सक के पास जाते हैं। जब दवा के उपचार से स्वस्थ नहीं होते हैं या इलाज लम्बा चलता है। ऐसे में लोग परेशान होकर और मजबूरी में ओझा के पास जाते हैं और यहाँ से भी लाभ प्राप्त करने की चेष्टा करते हैं। परंतु सामान्य स्थिति में ये लोग ओझा के पास नहीं भी जाते हैं। जब ये दवा से ही ठीक और स्वस्थ हो जाते हैं। बीमारी से निजात मिल जाती है। अतः यह कहा जा सकता है कि ये ऐसे लोग हैं जो कभी–कभी एक से अधिक स्वास्थ्य सेवाओं का प्रयोग करते हैं। इसके अलावा 66.5% लोग ऐसे भी हैं जो पारंपरिक चिकित्सक के पास कभी भी नहीं गये है। पारंपरिक चिकित्सक के पास लोगों जाने के पीछे लोगों में उसकी स्वीकार्यता और उस तक उन सब लोगों की आसानी से पहुँच का होना भी है। इसके साथ ही यह आपातकालीन परिस्थितयों में भी आसानी से इसकी उपलब्धता का होना भी प्रमुख वजह है। जब लोगों से यह पूछा गया कि आप अपना इलाज कहाँ करवाते हैं? इसमें से लगभग 26.6% लोगों ने बताया कि वो अपना इलाज पारंपरिक चिकित्सक से करवाते हैं जैसे: ओझा, सोखा, बाबा इत्यादि से परामर्श लेते हैं। इसके पीछे की मुख्य वजह यह है कि यह आसानी से लोगों की पहुँच में होता है। इसका सस्ता होना या लगभग मुफ्त होना भी लोगों को अपनी तरफ आकर्षित करता है। गाँव के कुछ लोग नजर झाड़ने, टोना झाड़ने का कार्य एकदम मुफ़्त में करते हैं। इसका पहला कारण या बताया जाता है कि इसमें उस व्यक्ति का कुछ व्यय नहीं होता है। दूसरी बात यह है कि लोग एक दूसरे के जान–पहचान के भी होते हैं। एक दूसरे के सुख-दु:ख में सहभागी बनते हैं। इससे भी बढ़कर यह बात है कि लोगों को विश्वास होता है कि इस कार्य से पुण्य मिलेगा। पीड़ित व्यक्ति स्वस्थ होगा तो उसके घर वाले भी आशीर्वाद ही देंगें। झाड़-फूक ऐसे लोगों का मुख्य पेशा भी नहीं होता है। कुछ लोग यह भी बताते हैं कि अगर वे मेहनताना (शुल्क) ले लेंगे तो उनकी आध्यात्मिक शक्ति चली जाएगी। इस डर से भी कुछ शुल्क नहीं लेते हैं। अक्सर ये कामकाजी लोग होते हैं इसलिए भी किसी से कुछ नहीं लेते हैं। वहीं पेशेवर प्रकार के ओझा/सोखा लोग अपने कार्य का परामर्श शुल्क लेते हैं। इनके इलाज के तरीके कुछ ऐसे होते हैं जिसमें पूजा-पाठ करना होता हैं। इसमें ज्यादा सामान भी लगता है। इसमें समय भी लगता है। इनका मुख्य पेशा भी यही होता है। इसलिए ये लोग कुछ शुल्क लेते हैं। शुल्क में ये लोग पैसा, सामान, या किसी अन्य प्रकार की सेवा के द्वारा अदा किया जाता है। पैसा इलाज के पहले या बाद में कभी भी दिया जा जाता है। उधार भी किया जा सकता है। इसलिए लोगों को सुविधा होती है। जबकि आधुनिक चिकित्सा केंद्रों पर नगद पैसा दिया जाना होता है। आम आदमी के लिए एक साथ पैसे का इंतेजाम करना मुश्किल हो जाता है। स्थानीय लोग पारंपरिक चिकित्सक से सहजता से मिल भी सकते है। अपनी बातों को खुल कर अर्थात नि:संकोच होकर बता पाते है। पारंपरिक चिकित्सक उनके बीच का होता है, इसलिए लोग एक दूसरे को जानते भी होते है। खरे (1981) के अनुसार “स्थानीय लोगों और पारंपरिक चिकित्सक के मध्य समान बोली-भाषा, रहन–सहन, खान-पान, आचार-विचार, सांस्कृतिक समानता होने से दोनों के मध्य एक विश्वसनीय संबंध का निर्माण करता है”।6 मरीज और चिकित्सक के मध्य यही मजबूत और विश्वसनीय संबंध विचारों के आदान-प्रदान करने में एक सेतु (ब्रिज) का काम करता है। इससे पारंपरिक चिकित्सक अपने मरीज की बातों का समझता है और समझने के बाद उस समस्या के निदान के लिए कार्य प्रारंभ करता है।

      लोग अपने जीवन शैली में बदलाव लाकर, अपने पर्यावरणीय माहौल को बदल कर कई नई संक्रामक बीमारियों से घिर गये हैं। यह अपने जैव सामाजिक अवधारणा के आधार पर कहते हैं कि समय के साथ कई प्रकार के म्यूटेसन हो जाता है वह भी कभी बीमारी का कारण बनता है। स्थानीय चिकित्सकों एवं विशेषज्ञों में “पारंपरिक चिकित्सक, जादू करने वाले जादूगर-जादूगरनी, आध्यात्मिक चिकित्सक, पीरबाबा, हड्डीजोड़ने वाले, सामुदायिक चिकित्सक इत्यादि लोगों का रोगी व्यक्ति के बीमारियों/व्याधियों के उपचार में महती भूमिका होती है”7  

    गैर संस्थागत झोलाछाप चिकित्सक से पारंपरिक चिकित्सक से अलग होते हैं। इनके आपस में अंतर होने का मुख्य आधार इनके इलाज की पद्धति में अंतर होना है। उदाहरण के तौर पर लिया जाए तो पीलिया रोग का इलाज। स्थानीय लोग बताते हैं कि झोलाछाप चिकित्सक पीलिया के मरीज को दवा देता है और साथ ही कुछ सलाह भी देता है। वहीं “पारंपरिक चिकित्सक पीलिया रोगी को ताबीज देता है, किसी विशेष लकड़ी जैसे सूखी तुलसी की जड़ की माला (कंठी) बना कर पहने के लिए देता है। जैसे-जैसे यह माला सूखता जाएगा वैसे-वैसे पीलिया भी खत्म होती जाएगी”। इस प्रकार से देखा जाता है कि झोलछाप डॉक्टर अपने मरीज को दवाएं देता है, इन्जेक्शन लगाता है, शरीर के तापमान की जाँच भी करता है। इसके बाद वह दवा देता है। जबकि पारंपरिक चिकित्सक लोगों को आध्यात्मिक तरीके से, मनोवैज्ञानिक तरीके से, धार्मिक तरीके से इलाज करता है। दोनों में समानता सिर्फ यही है की दोनों को समुदाय के स्तर पर स्वीकृति एवं मान्यता प्राप्त होती है। दोनों स्थानीय स्तर पर उबलब्ध भी होते हैं।  

        गाँव के 38.4% प्रतिशत लोग ऐसे हैं जिनको गैर संस्थागत चिकित्सक-झोलाछाप चिकित्सक पर विश्वास है। झोलाछाप चिकित्सक पर यकीन न करने वाले 54.5% प्रतिशत लोग हैं। जबकि 7.15 प्रतिशत लोग आपातकालीन परिस्थति में ही इनसे इलाज कराते हैं। कभी-कभी लोग किराना स्टोर, मेडिकल स्टोर के भी बुखार और शरीर दर्द के दवा ले आया करते हैं। इस तरह लोग अपने स्वास्थ्य व्यवहार को मुमकिन बनतें हैं। इस तरह का स्वास्थ्य व्यवहार लोग अपने सुविधा अनुसार करते हैं।   

      समाज में रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति की अपनी एक चिकित्सा दुनिया होती है। यहाँ चिकित्सा दुनिया से आशय ऐसे परिवेश से है, ऐसे स्थान से है, ऐसे लोगों से है जहाँ से लोग अपनी स्वास्थ्य संबंधी जरूरतों को पूरा करते हैं। अपनी बीमारियों का इलाज करते हैं। इन बीमारियों का इलाज स्वयं के स्तर पर भी हो सकता है, समाज के स्तर पर हो सकता है या सरकारी और गैर सरकारी संस्थागत भी हो सकता है। इसलिए इन सब पहलुओं की जाँच और इससे संबंधित सूचनायें उसी समाज में ही मिलेगी जिसका अध्ययन किया जाना होता है। इसी संदर्भ में शोध साक्षात्कार के दौरान स्थानीय मुख्य सूचनाप्रदाता श्री मुन्नीलाल यादव (पुरुष, आयु 78 वर्ष) से जब यह जानने का प्रयास किया गया कि उनका बीमारी को लेकर क्या अवधारणा है। आप रोग के निदान के लिए क्या करते हैं? कहाँ से और किस से अपना इलाज करवाते हैं। इसके जवाब में इन्होंने यह बताया कि “वैसे तो हमारे गाँव में वैसे कोई अधिकृत डॉक्टर तो नहीं है। गाँव के एक लोग हैं जो इलाज कर दिया करते हैं”। इसका सीधा सा अर्थ यह है कि कोई भी डिग्री धारक डॉक्टर नहीं है और ना ही सरकार के द्वारा मान्यता प्राप्त लाइसेंस प्राप्त डॉक्टर ही हैं। ये लोग चोरी-छुपे अपना काम करते रहते हैं। गाँव के शुक्ला जी थे वो झोलाछाप डॉक्टर थे। वही सबका इलाज( दवाई–सुई) करते रहते थे। वे सब बीमारियों का इलाज किया करते थे। वह ज्यादा पढ़े लिखे भी नहीं थे। इसी साल उनकी अचानक मृत्यु हो गई। उनके मरने के बाद अब उनका लड़का दवा पानी करना सीख रहा है। वह आगे बताते है कि “लेकिन अपने सोचे कुछ होत वोत नाही। जवन बिधाता लिखे है भइया होयक बाय ऊहय”। अर्थात ‘अच्छी मौत उसे बताते हैं कि जो हाथ पाँव चलते रहने के दौरान ही प्राण पखेरू उड़ जाय। इसका मतलब यह है कि जब तक खुद के हाथ और पैर काम करने के लायक हैं तभी तक जीने का अर्थ है। नहीं तो घर के लोगों के लिए मरीज भार बन जाता है’।

             सूचनाप्रदात्री श्रीमती जगधारी जी (आयु-68 वर्ष, महिला) रोग/बीमारी पर अपनी राय रखते हुए बताती हैं कि “बीमारी होने से जीवन के दैनिक कार्य प्रभावित होते हैं। कोई भी काम ठीक से नहीं हो पाता है। शारीरिक कष्ट ऊपर से सहना पड़ता है। पूजा-पाठ भी नहीं हो पाता है”। बीमार होने का प्रमुख कारण देर-सबेर (अनियमित रूप) से भोजन करना, समय से आराम नहीं कर पाना, सर्द-गर्म लग जाने से भी लोग बीमार पड़ जाते हैं। “देवी–देवताओं को समय–समय पर पूजा–पाठ न कर पाने से भी लोग अक्सर बीमार पड़ जाते हैं। देवी-देवता पहले लोगों के सपने में आते हैं। सपनें के माध्यम से याद दिलाते हैं कि व्यक्ति ने समय से उनकी पूजा नहीं किया है। ऐसा भी हो सकता है कि उसने कोई अन्य बातों को न पूरा किया हो जो कभी उसने माना हो कि कोई विशेष काम के पूर्ण होने पर उनको कुछ समर्पित करेगा। जब इसके बाद भी लोग उनके लिए कुछ नहीं करते है तब कुल देवता नाराज हो जाते है। देवी या देवताओं के नाराज होने से घर का कोई न कोई व्यक्ति या घरेलू जानवर बीमार हो जाएगा या कुछ और अन्य चीजें प्रभावित होने लगती हैं, जैसे किसी का गिरने से चोट लग जाना, घर या खेत-खलिहान में आग लग जाना, घर में या आस-पास सांप का आना जाना इत्यादि। इससे यह मालूम चल जाता है कि जो कुछ गड़बड़ चल रहा है यह सब बस इन्हीं कारणों से हो रहा है। खास बात यह भी है अगर किसी को लगहर लगा हो या फिर देवी देवता के नाराजगी के कारण बीमार हुआ हो तो वह तभी ठीक होगा जब संबंधित देवी-देवता को पूजा-पाठ अर्पित कर दिया जाता है”। यहाँ ‘लगहर’ एक सामाजिक-सांस्कृतिक अवधारणा है। इसमें होता ऐसा है कि जब कभी किसी व्यक्ति को अचानक किसी ऐसे अकाल मृत्यु ( ऐसी मृत्यु जो किसी दुर्घटनावश से हुई हो जैसे– उसकी हत्या की गयी हो, घर में जल कर मृत्यु हुई हो या किसी सड़क दुर्घटना में हुई मृत्यु हो इत्यादि) प्राप्त व्यक्ति की आत्मा रूपी शरीर का आभास होने लगता है। इससे वह व्यक्ति बहुत भयभीत हो जाता है। डर से उसके शरीर में जोर-जोर से कंपन होने लगता है। वह थर्र–थर्र कापनें लगता है। बुरी तरह से डर जाने से उसकी मानसिक स्थिति असंतुलित हो जाती है। बार-बार पीड़ित व्यक्ति उसी मरे हुए व्यक्ति का नाम लेगा और चिल्लायेगा भी कि “वह आ रहा है”। पीड़ित व्यक्ति धीरे-धीरे मानसिक रूप से इतना कमजोर हो जाता है कि वह उस बुरी आत्मा के हिसाब से काम भी करने लगता है और बोलता भी वैसे ही है जैसा वह चाहता है। वह आत्मा जैसे चाहता है मरीज से वैसे कृत्य करवाता है। स्थानीय लोग बताते है कि रात–रात भर बीमार व्यक्ति को देखना पड़ता है। रात में उठकर भागने लागता है। जब व्यक्ति इस तरह से पीड़ित होता है तो उसके अंदर दो आत्माओं का बल आ जाता है। वह एक आदमी से संभालता ही नहीं संभलता है। इसके लिए कम से कम दो आदमी चाहिए ही होता है। ऐसी परिस्थितियों में दवा भी काम नहीं करती है। इसके पहले कितना भी सूई-दवाई (इलाज) करा दिया जाए लेकिन बीमार इंसान ठीक नहीं होता है। इससे पैसा भी खर्च होता है और बीमार व्यक्ति की तबीयत भी और ज्यादा खराब हो जातीं है। पीड़ित व्यक्ति को विभिन्न प्रकार के नकारात्मक सपने भी आने लगते हैं।

        एक बार सूचनाप्रदाता की पुत्री की तबीयत खराब हो जाती है। उसको तेज बुखार आने लगता है। इस कारण से उसके बीमारी का उपचार शुरू कराया जाता है। इलाज की प्रक्रिया घरेलू उपचार के साथ शुरू होती है। इसमें तुलसी के पौधे की पत्तियों को चाय के साथ उबाल कर पिलाया गया। काढ़ा पिलाया गया। उसके पीने के पानी को तुलसी की पत्ती में उबाल कर और उसके बाद उसे छान कर पिलाया जाता था। जब कुछ दिन तक उसे कोइ विशेष आराम मिलता नहीं दिखाई दिया, तब पड़ोस के ही एक डॉक्टर को दिखाया गया। वहाँ भी उसे कोई आराम नहीं मिला। इसके बाद बाजार के एक प्राइवेट डॉक्टर को दिखाया गया। यहाँ कुछ आराम मिला परंतु यहाँ भी पूर्ण रूप से ठीक नहीं हो पा रही थी। कुछ लोग के कहने पर और हर जगह से परेशान होकर तब उसको एक ओझाई करने वाले बाबा को दिखाया गया। उनके पास जाते ही उन्होंने देख कर बताया कि उसको क्या समस्या है। ‘ओझा बाबा नें अपने तपोबल से उसके ऊपर के शैतान को उसके शरीर से बाहर कर दिया। इस संदर्भ में उस ओझा बाबा से कई बार मिलते रहे हैं। इससे धीरे-धीरे उस लड़की की तबीयत ठीक होने लगी। अब वह एकदम से स्वस्थ हो गयी है’।

                     1.2.1: चिकित्सा बहुलवाद

       भारत सरकार ने आयुष मंत्रालय के द्वारा कई पारंपरिक स्वास्थ्य सेवा पद्धतियों को एक साथ उपलब्ध कराने का कार्यक्रम शुरू कराया है। इससे लोगों को अपने अनुकूल स्वास्थ्य सेवाओं के चयन में सहूलियत होगी। इस तरह के स्वास्थ्य सेवाओं का ढाँचा लोगों के और उनके पर्यावरणीय अनुकूलता को धारण किये हुए होता है। “लोगों की यहीं सांस्कृतिक अनुकूलता उनकों उपलब्ध सेवाओं की स्वीकार्यता की तरफ ले जाने का कार्य करता है”।8 एक साथ एक स्थान पर कई स्वास्थ्य सेवाओं के उपलब्धता की स्थिति में “लोग एक ही समय में एक से अधिक स्वास्थ्य सेवाओं का प्रयोग करते हुए दिखाई पड़ते हैं। उनका यह व्यवहार चिकित्सा बहुलवाद कहलाता है। ग्रामीण लोगों में मेडिकल प्लुरलिस्म का प्रयोग स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है”।9 शिक्षक पद से सेवानिवृत श्री राम करन पाण्डेय जी ( आयु-75, पुरुष) बताते है कि “चिकित्सा बहुलवाद में ज्यादा से ज्यादा बुजुर्ग और बच्चे शामिल हैं। होमियोपैथी और आयुर्वेद दोनों का इलाज लंबा समय लेता है। इससे व्यक्ति का धैर्य टूटने लगता है। होमियोपैथी और आयुर्वेद सेवा संस्थानों की कमी भी है। इसकी उपलब्धता भी गाँव से दूर होने से लोग और इसके तरफ नहीं जाना चाहते हैं। सभी सरकारी अस्पतालों में ये सुविधाएं भी उपलब्ध भी नहीं है। प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र/जिला अस्पताल में चिकित्सा की कौन सुविधाएं उपलब्ध हैं, इसके जवाब में ऐलोपैथी को बताने वाले लोगों का प्रतिशत 52.7% है, वहीं होमियोपैथी, यूनानी, सिद्धा आयुर्वेद को बताने वालों लोगों का प्रतिशत 24.1% है। जिन लोगों को स्वास्थ्य सेवाओं की जानकारी है वो लोग इसका इस्तेमाल कर पा रहें हैं वहीं जिन लोगों को इसकी जानकारी ही नहीं है वो लोग इन सेवाओं से वंचित हैं। ऐसी स्थिति में जनजागरूकता अभियान चला कर लोगों को विभिन्न स्वास्थ्य सेवाओं से परिचित कराकर उनके स्वास्थ्य व्यवहार को और संबल प्रदान किया जा सकता है।

 सारणी सं. 02 : बरसॉंव गाँव के लोगों द्वारा प्रयोग की गयी स्वास्थ्य सेवाएं

क्रम सं. 

       स्वास्थ्य सेवाएं

लाभान्वित आबादी (% में)

1.

होमियोपैथी

     15.7%

2.

यूनानी

     5.1%

3.

सिद्धा

     8.0%

4.

आयुर्वेद

    16.8%

5.

ऐलोपैथी

    52.7%

स्रोत- बरसॉंव गाँव पर किया गया क्षेत्रकार्य  

जबकि कुछ ऐसे लोग जिनकों इसके बारे में कुछ नहीं मालूम है इनका प्रतिशत लगभग 12.3% के आस-पास है। हर व्यक्ति जल्दी ठीक होना चाहता है। इसलिए बीमार व्यक्ति एक समय में एक से अधिक चिकित्सा व्यवस्था के द्वारा इलाज प्राप्त करने का प्रयास किया जाता है। ऐसा करके वाले लोगों की संख्या लगभग 17.2% है। यह ऐसे लोग है का समूह है जो किसी एक स्वास्थ्य सेवा पर विश्वास नहीं करता है। यह सब लोग जल्दी स्वस्थ होने की कामना से प्रेरित होकर एक साथ एक से अधिक स्वास्थ्य सेवाओं का इस्तेमाल/प्रयोग करते हैं। इसके पीछे यही धारणा रहती है कि अगर एक दवा नहीं काम करेगी तो दूसरी वाली तो काम करेगी ही जिससे आराम हो जाएगा। व्यक्ति का स्वास्थ्य व्यवहार परिवार/समुदाय के स्तर पर संचालित होता है। इस प्रकार से लोग एक समय में एक से अधिक स्वास्थ्य सेवाओं अर्थात चिकित्सा बहुलवाद के के द्वारा स्वास्थ्य लाभ कर रहे हैं।

           1.3.1:  बीमारी के दौरान मरीजों के प्रति परिवारजनों का व्यवहार

 मानव एक सामाजिक प्राणी है। इसलिए इसकी अपनी एक सामाजिकता होती है। आसपास के लोग आपस में अन्तरक्रिया करते रहते हैं। सुख–दु:ख में एक दूसरे का साथ देने काम भी करते हैं। यह सब लोगों के आपसी संबंधों को मजबूत करता है।

        एक दूसरे के ऊपर विश्वास बहाली का काम करता है। इससे आपस में सामाजिक सुरक्षा जैसी भावनाओं का बल मिलता है।

  चित्र संख्या 03 : बरसॉंव गाँव में बीमारी के समय परिवारजनों का रोगियों के प्रति व्यवहार   (प्रतिशत में)


         

           (स्रोत: बरसॉंव गाँव पर किए गए क्षेत्रकार्य के आधार पर)

 बीमारी के समय परिवारजनों के व्यवहार को 56.7% मरीज लोग सकारात्मक बताते हैं। इन लोग का कहना है कि बीमारी के समय घर के लोग पूरा सहयोग करते हैं। समय से खाना-पानी देते रहते हैं। समय-समय पर लोग हाल-चाल लेते रहते हैं। पौष्टिक चीजें खिलाते हैं जिससे जल्दी से आराम हो जाए। सकारात्मक बातें करते हैं जिससे अनावश्यक तनाव न होने पाए क्योंकि मरीज वैसे ही तनाव में होता है। परिवार के लोग एक सकारात्मक माहौल देने का काम करते हैं। जिससे मरीज जल्दी से स्वस्थ होकर उनके साथ मिल कर आगे रह सके। बीमारी के समय परिवारजनों का व्यवहार परिवार को नकारात्मक बताने वाले लोग 16.3 प्रतिशत हैं। इन लोग का कहना है कि लोग ना समय से दवा देते हैं और ना ही ठीक से बात करते हैं। कभी- कभार कोई आकर कुछ हालचाल पूछ लेता है अगर कुछ कहो या मांगों तो घर के लोग घूमकर घूँ–घुवाँ (डपट) लेते हैं अर्थात लोग मरीज को डांट देते हैं। एक तो मरीज पहले से परेशान है और ऊपर से लोग उनको उल्टा सीधा बोलकर और मानसिक तनाव में ला देते हैं। इस तरह के लोगों का व्यवहार मरीज के स्वास्थ्य व्यवहार को प्रभावित करने का काम करता है। इससे उसके स्वस्थ होने की दर कम होने लगती है। इस तरह के व्यवहार से मरीज के स्वास्थ्य व्यवहार पर नकारात्मक असर पड़ता है। वहीं इन लोगों से इतर 27.1 प्रतिशत लोग ऐसे भी हैं जिन्होंने माना है कि बीमारी के दौरान परिवार के सभी लोगों का व्यवहार एक समान नहीं रहता है। परिवार के कुछ लोग सकारात्मक व्यवहार करते हैं वही कुछ लोग बीमारी का फायदा उठाकर अपनी खुन्नस निकालते है। उलाहना देते है, ताना मारते हैं। इस तरह का व्यवहार आपसी मन-मुटाव को रेखांकित करता है। इस तरह के व्यवहार रोगी के स्वास्थ्य पर नकारात्मक असर डालता है। “ग्रामीण लोग बीमारी को व्यक्ति के कर्मों का दण्ड भी मानते हैं प्रत्येक समाज में विभिन्न बीमारियों पर अपनी अलग अलग समझ और विश्वास होने के कारण उसके निदान का तरीका भी अलग अलग होता हुआ दिखाई देता है”। लोगों का यह भी मानना है कि “बीमारियाँ कर्मों का फल है और यह मौलिक न्याय का एक रूप है। यह सामाजिक समानता और पर्यावरणीय संतुलन लाने के लिए आती जाती रहती है”।10&11   

                    1.4: स्वास्थ्य व्यवहार को प्रभावित करने वाले कारक

  1.4.1: सामाजिक कारण :- “ग्रामीण और पिछड़े क्षेत्रों में तपेदिक रोग (टीबी), कुष्ट रोग, गुप्त रोग इत्यादि को लेकर अनेक प्रकार की गलत धारणाएं प्रचलित है। इसे एक प्रकार का सामाजिक कलंक/धब्बा माना जाता है। इस सामाजिक कलंक से बचने के लिए लोग इलाज करवाना ही नहीं चाहते है क्योंकि उनकी गोपनीयता भंग होने का डर रहता है। इससे लोग संक्रमण को पूरे परिवार और समाज में फैलते है। यह नजरिया पूरे समाज के स्वास्थ्य व्यवहार का प्रभावित करता है”।12

1.4.2:- सांस्कृतिक कारक :- “ग्रामीण लोग पश्चिमी दवाओ अर्थात आधुनिक दवाओ को लेकर भ्रमित है।इसमे उनके विश्वास और धर्मसंकट मे लगते है ,जबकि सरकारे लगातार जनजागरुकता फैलाकर लोगो के भ्रम को दूर कर  रही है”।13

1.4.3 :-आर्थिक कारक :- आम आदमी आधुनिक महँगी स्वास्थ्य सेवाओं तक नहीं पहुँच पाता है। जबकि सार्वजनिक चिकित्सा सेवाओं में स्वच्छता और सफाई का निम्न स्तर का होना, डॉक्टर और दवा का नियमित रूप से उपलब्ध न होने से उसे मजबूर होकर महगीं स्वास्थ्य सेवाओं का प्रयोग करने से दिनोंदिन गरीबी की ओर चला जा रहा है।                     जबकि वहीं सरकारी कर्मचारियों को चिकित्सा शुल्क सरकार द्वारा पुन: मिल जाता है जो उसके स्वास्थ्य व्यवहार को पंख देने का काम करती है”।14 इस प्रकार से स्वास्थ्य व्यवहार एक बहुआयामी प्रयास है जिसमें रोगी को एक साथ कई मोर्चे पर लड़ना पड़ता है।      

  निष्कर्ष: ग्रामीण लोगों की चिकित्सा दुनिया बहुत ही समृद्ध और बहुआयामी भी है। लोग पारम्परिक चिकित्सा व्यवस्था से लेकर आधुनिक चिकित्सा व्यवस्था का अनुसरण करते हुए दिखाई पड़ते हैं। आधुनिक चिकित्सा/ मेडिसन को लेकर बुजुर्ग लोगों में कुछ असहजता दिखाई पड़ती है। इसके पीछे जागरूकता का अभाव और गलत सूचनाओं से भ्रमित होना इसका प्रमुख कारण है। ऐसे लोग मजबूरी या अंतिम विकल्प के रूप में आधुनिक चिकित्सा/ मेडिसन का चयन करते है। वहीं नयीं पीढ़ी की पहली पसंद आधुनिक चिकित्सा/ मेडिसन ही बने हुए है। नये लोग इस तरह से इलाज को लेकर किसी स्टिग्मा में नहीं रहते है। इनका बस एक ही लक्ष्य होता है कि जल्दी से स्वस्थ हो जायें। रोगी व्यक्ति अपने इलाज के लिए अपने सभी चाहने वाले लोगों के अनुभवों को इस्तेमाल करके जल्द स्वस्थ होने की कमाना में लगा रहता है। 38.4% लोग झोलछाप और मेडिकल स्टोर से दवा लेते हैं। लोगों में एक से अधिक चिकित्सा व्यवस्था पर विश्वास होने के प्रमाण मिले हैं। 17.2 प्रतिशत ऐसे लोग एक समय में एक से अधिक स्वास्थ्य सेवाओं का प्रयोग एक साथ अनुपालन करते हुए दिखाई देते हैं। उनकी यह धारणा चिकित्सा बहुलवाद को को जन्म देती है। ग्रामीण समुदाय के लोगों के स्वास्थ्य व्यवहार में स्पष्ट रूप से चिकित्सा बहुलवाद का अनुसरण दिखाई देता है। दवा के साथ दुआ भी चलती रहती है। इसके पीछे की मुख्य वजह यही होती है कि दवा नहीं काम करेगी तो दुआ जरूर काम करेगी और अगर दोनों काम कर दी तो मरीज जल्दी स्वस्थ हो जायेगा। 26.6 प्रतिशत लोग ओझा और सोखा से भी परामर्श लेते हैं। पूजा-पाठ, कथा, भजन-कीर्तन भी स्वास्थ्य की कामना से किया जाता है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि ग्रामीण समुदाय के स्थानीय चिकित्सा की दुनिया बहुत ही व्यापक, लचीली, विविधतायुक्त है। इसके प्रति सभी लोगों का अनुकूलन भी मालूम प्रतीत होती है। इस स्थानीय चिकित्सा दुनिया में यहाँ सभी लोगों के लिए कुछ न कुछ जरूरत की स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध हैं।   

  सुझाव: स्वास्थ्य लोगों की मूलभूत जरूरत होती है। इसलिए इसे हर हाल में लोगों को मिलना चाहिए। ग्रामीण स्तर पर बहुत से मेडिसनल प्लांट पाए जाते हैं। लोग इसका इस्तेमाल काढ़ा बनाकर, छौका मारकर कई प्रकार के रोगों का उपचार स्वयं ही करते हैं। परंतु लोगों को इसके सही प्रयोग का ज्ञान नहीं होता है। इसलिए इसे छोटी कक्षाओं के पाठ्यक्रम में स्वास्थ्य जागरूकता विषय के अंतर्गत इसको जोड़ा जाना चाहिए है। इससे ग्रामीण औषधीय पौधे के सही प्रयोग की विधि गाँव की नई पीढ़ी के साथ-साथ पुरानी पीढ़ी को भी बच्चों के द्वारा होता रहेगा। इससे स्वस्थ पीढ़ी और स्वस्थ राष्ट्र का निर्माण होगा। कोरोना का संक्रमण शहर और गाँव दोनों में था परंतु गाँव के लोगों ने स्थानीय औषधीय पौधे के प्रयोग से अपने इम्यून सिस्टम को मजबूत रखा और संक्रमण दर को निम्न स्तर पर रखने में सफल रहें। इसके साथ लोगों को जागरूक किया जाना चाहिए कि बीमारी के प्रारम्भिक अवस्था में किसी झोलाछाप डॉक्टर से मिलने की अपेक्षा अपने नजदीकी सरकारी अस्पताल पैदल या साइकिल से ही जाएं। इससे लोग अनावश्यक खर्चे एवं गंभीर रोगों से बच सकते हैं। स्थानीय चिकित्सा व्यवस्था को आधुनिक चिकित्सा व्यवस्था और नये प्रौद्योगिकी के साथ अपग्रेड करके लोगों के स्वास्थ्य जरूरतों को पूरा किया जा सकता है। स्थानीय चिकित्सक लोगों के मनोबल को बढ़ा देने का काम करते हैं। इससे मरीज उस खराब परिस्थिति को आसानी से झेल जाता है। 38.4 प्रतिशत लोग झोलाछाप/ मेडिकल स्टोर/ किराना स्टोर से दवा लेते हैं वहीं 26.6 प्रतिशत लोग पारंपरिक चिकित्सकों से इलाज करवाते हैं। इस प्रकार एक बड़ी आबादी आज भी पुरानी स्थानीय स्वास्थ्य सेवाओं पर निर्भर है। ऐसे परिस्थितियों में स्थानीय चिकित्सकों को कुछ हद तक प्रशिक्षण देकर और सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं की गुणवत्ता को बेहतर बनाकर बहुत बड़ी ग्रामीण आबादी के स्वास्थ्य जरूरतों को पूरा किये जाने के कदम में मील का पत्थर साबित होगा।

                                                                                                          

नैतिक अनुमोदन: इस अध्ययन को आई.इ.आर.बी.,इलाहाबाद विश्वविद्यालय द्वारा नैतिकता संबंधी स्वीकृति प्राप्त है। जिसका स्वीकृति संख्या आई.इ.आर.बी. आईडी: एएनटी-डी -21-001।                                             

संदर्भ : 
1.  ख्वाजा आरिफ़ हसन: दी कल्चरल फ्रन्टीयर ऑफ हेल्थ इन विलेज इंडिया: केस स्टडी ऑफ ए नॉर्थ इंडिया विलेज, पी.सी. मानकताला एण्ड सन्स प्राइवेट लिमिटेड, मुंबई, 1967, पृ. 76-92 
2.  आइजैक के. न्यामोंगो: ‘हेल्थ केयर स्वीचिंग बिहैवीयर ऑफ मलेरिया पेसेन्टस् इन ए  केन्या रुरल कॉम्युनिटी’, सोशल साइंस एण्ड मेडिसन (वॉल्यूम 54, नं. 3), 1 फरवरी, 2002, पृ. 377-386
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5.  रवींद्र एस. खरे: ‘फोक मेडिसन इन ए नॉर्थ इंडिया विलेज’, ह्यूमन ऑर्गनाइजेसन(अंक-22, न.-1), 1963, पृ. 36-40
6.  रवींद्र एस. खरे: ‘फोक मेडिसन इन ए नॉर्थ इंडिया विलेज: सम फ़्रदर नोट्स एण्ड ऑबजर्वेसन्स, इन जी आर गुप्ता (एड), डी सोशल एण्ड कल्चरल कांटेक्स्ट ऑफ मेडिसन इन इंडिय (अंक-22, न.-1), विकास, न्यू डेल्ही ,1981, पृ. 266-285
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8.  रीतू प्रिया: ‘आयुष एण्ड पब्लिक हेल्थ: डेमोक्राटिक प्लूरालिस्म एण्ड दी क्वालिटी ऑफ हेल्थ सर्विसेज’, मेडिकल प्लूरालिस्म इन कंटेम्पोररी इंडिया, वी सुजाता एण्ड लीना अब्राहम (इड्स), ओरिएंट ब्लैकस्वॉन, दिल्ली, 2012 पृ. 103-128     
9.  एक्सेल क्रोएगर: ‘एंथ्रोपोलॉजिकल एण्ड सोसिओ-मेडिकल हेल्थ केयर रिसर्च इन डेवलपिंग कंट्रीज’ सोशल साइंस एण्ड मेडिसन, पब्लिकैशन ग्रेट ब्रिटेन (वॉल्यूम 17, नं. 3),1983, पृ. 147-161 
10. अनू कपूर: ‘वल्नेरबल इंडिया,ए जियोग्रैफिकल स्टडी ऑफ डीजास्टरस्’,न्यू डेल्ही एण्ड शिमला. सेज एण्ड आइआइएस, 2010
11. प्रशांत खत्री: पैंडिमिक एज ए डिजास्टर: ए थिऑरेटिकल मॉनटाज फॉर एक्सप्लोरिंग कोविड -19. इन सचदेवा एम.(इडी). एंथ्रोपोलोजी ऑफ हेल्थ एण्ड वेल बीइंग: एसेज इन ऑनर ऑफ प्रो. पी.सी. जोशी.न्यू डेल्ही. कान्सेप्ट पब्लिशिंग, 2021। 
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13. टी.एन.मदन: ‘हू चूजेज मॉडर्न मेडिसन एण्ड व्हाई’, इकनॉमिक एण्ड पॉलिटिकल वीकली, वॉल्यूम नं. 4, इशू नं. 37, 1969, पृ. 1475-1480
14. एम.गौतमन, एस.ए.माइकल, जे.सिल्विया अन्य ‘एनालीसिस ऑफ पर्सेप्शन ऑफ गवर्नमेंट रन पब्लिक हेल्थकेयर सेट अप्स इन ए सदर्न स्टेट ऑफ इंडिया- ए क्रॉस सेक्शनल क्वेस्चनेर-बेस्ड एनालीसिस’, एन्नल्स ऑफ इपीडिमिऑलोजी एण्ड पब्लिक हेल्थ, 4(1),2021, पृ.1059-1064।

सीताराम, शोध छात्र
मानवविज्ञान विभागइलाहाबाद विश्वविद्यालय-प्रयागराज-211002
ramyadav325@gmail.com, 09918040968
 
डॉ. प्रशांत खत्री, सहायक प्रोफेसर (शोध निर्देशक)
मानवविज्ञान विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय-प्रयागराज-211002
prashantkhattri3@gmail.com, 09455692280

 अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  अंक-41, अप्रैल-जून 2022 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक एवं जितेन्द्र यादव, चित्रांकन : सत्या कुमारी (पटना)

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