- श्याम लाल सिंह यादव
शोध सार :ओलम्पिक खेल दुनिया के सबसे बड़े खेल आयोजनों में से एक है। ओलम्पिक में शामिल होना ही खिलाड़ियों का सपना होता है, वे इसके लिए कई वर्षों तक कड़ा परिश्रम और ट्रेनिंग करते हैं। उस देश की सरकारें भी हर संभव सुविधा खिलाडियों को देती हैं। दुनिया भर के सैकड़ों देशों के खिलाड़ी प्रत्येक चार साल में विभिन्न प्रतियोगिताओं में स्वर्ण पदक, रजत पदक और कांस्य पदक के लिए कड़ी प्रतिस्पर्धा करते दिखाई देते हैं। आज ओलम्पिक खेल एक ऐसा माध्यम स्थापित हो गया है जिससे एक देश दूसरे देश पर अपना वर्चस्व स्थापित करने की कोशिश करता है। पदक तालिका में सर्वोच्च स्थान दर्शाता है कि वह देश आर्थिक रूप से कितना मजबूत और सशक्त है। वहां के लोग खेल को कितना महत्त्व देते हैं और सरकारें भी खेल के प्रति कितनी जागरूक हैं। इस शोध आलेख में भारतीय हॉकी के अतीत और वर्तमान के विभिन्न पहलू को समझने का प्रयास किया गया है।
बीज शब्द : ओलम्पिक , खेल, मेडल, हॉकी, ध्यानचंद्र, खिलाड़ी, स्वर्ण पदक, सरकार।
मूल आलेख : ओलम्पिक का संक्षिप्त इतिहास- ओलम्पिक खेल का इतिहास बहुत ही पुराना है पर माना जाता है कि ओलम्पिक खेल की शुरुआत यूनान के देवता जीयुस के सम्मान में 776 ईसा पूर्व यूनान के ओलंपिया शहर में की गई थी। ऐतिहासिक साक्ष्यों के अनुसार प्राचीन ओलम्पिक खेल प्रत्येक चार वर्ष पर आयोजित होकर 394 ईसवी (लगभग 1200 वर्षों) तक चला। बाद में यूनान पर रोम का साम्राज्य स्थापित हो गया। रोम के राजा थियोडोसिस द्वितीय के आदेश पर इन खेलों का आयोजन बंद कर दिया गया। सैकड़ों वर्ष बंद रहने के बाद 19वीं शताब्दी में आधुनिक ओलम्पिक खेलों के पुनरुत्थान का प्रयास शुरु किया गया। फ़्रांसिसी शिक्षाशास्त्री और इतिहासकार बैरेन पियरे डी कुबर्टिन ने कई देशो की यात्रा कर एवं विभिन्न संगठनो के साथ सम्मेलन कर ओलम्पिक के प्रति जागरूकता फैलाई। अन्तरराष्ट्रीय ओलम्पिक समिति (IOC) की स्थापना पियरे डी कुबर्टिन ने 23 जून 1894 में की थी। आधुनिक ओलम्पिक के जन्मदाता पियरे डी कुबर्टिन के भागीरथी प्रयास और लगन के परिणामस्वरूप 6 अप्रैल, 1896 को ग्रीस की राजधानी एथेंस में आधुनिक ओलम्पिक की शुरूआत संभव हो पाई। 1896 से 1924 तक ओलम्पिक दुनिया के विभिन्न शहरों में होते रहे। भारत की तरफ से नार्मन पिचार्ड जो एंग्लो इंडियन थे और पेरिस में छुट्टियाँ मना रहे थे, वे पहली बार 1900 में पेरिस के ओलम्पिक में एथलेटिक्स में भाग लिया एवं दो रजत पदक प्राप्त किए। बाद में 1920, एंटवर्प एवं 1924, पेरिस ओलम्पिक में भी भारतीय टीम ने एथलेटिक्स में प्रतिभाग किया पर कोई पदक नहीं प्राप्त हुआ। भारतीय ओलम्पिक संघ (IOA) की स्थापना 1927 में हुई इसके प्रथम अध्यक्ष दोराबजी टाटा और सेक्रेटरी डॉ. ए.जी. नेहरन को बनाया गया।
ओलम्पिक खेलों में हॉकी का प्रवेश - ‘हॉकी का प्रवेश ओलम्पिक
खेलों में सन् 1908 में हुआ था। उस
दौरान चौथे ओलम्पिक खेल का आयोजन हुआ था।
इसमें इंग्लैंड ने आयरलैंड को फाइनल में हराकर ओलम्पिक में हॉकी का प्रथम विजेता होने का गौरव प्राप्त
किया था। जहाँ तक भारतीय हॉकी टीम के ओलम्पिक में प्रवेश करने की बात है तो यह 1928 में संभव हो सका, जब भारत ने एमस्टर्डम
(हॉलैंड) में आयोजित नौवें ओलम्पिक खेलों
में भाग लिया’।[1]
एम्सटर्डम ओलम्पिक (1928) : पहला स्वर्ण पदक
भारत का ओलम्पिक में स्वर्णिम आगाज - भारतीय हॉकी टीम 1928 में एमस्टर्डम ओलम्पिक
में भाग लेने के लिए बॉम्बे बंदरगाह से
रवाना हो रही थी, तब सिर्फ तीन लोग
उसे विदा करने आए थे। इसके उलट जब टीम स्वर्ण पदक जीतकर भारत लौटी, तब हजारों लोग
विजेता टीम का स्वागत करने के लिए खड़े थे। ‘1928 ओलम्पिक के हॉकी इवेंट में कुल 9 टीमों ने भाग लिया
था। टीमों को दो ग्रुप में बांटा गया था जिसमे ग्रुप ‘ए’ में भारत, बेल्जियम, डेनमार्क, स्विट्जरलैंड और
ऑस्ट्रिया थे तथा ग्रुप ‘बी’ में मेजबान नीदरलैंड्स, जर्मनी, फ्रांस और स्पेन थे। दोनों ग्रुप की टॉप टीम ने
स्वर्ण पदक के लिए एक-दूसरे का सामना किया, जबकि दूसरे स्थान पर रहने वाली टीमों ने कांस्य पदक
के लिए मैच खेले। 17 मई को टूर्नामेंट
के अपने शुरुआती मुकाबले में भारत ने ऑस्ट्रिया को 6-0 से हरा दिया। इसके
बाद भारत ने बेल्जियम को 9-0 और डेनमार्क को 5-0 से मात दी।
स्विट्जरलैंड को 6-0 से हराने के साथ ही
भारतीय टीम फाइनल में पहुंच गई’।(2)
हॉकी के जादूगर का चला जादू : फाइनल मैच - 26 मई को टूर्नामेंट
के फाइनल में भारत के सामने कई परेशानियां खड़ी थीं। फिरोज खान चोट और शौकत अली
बुखार के चलते फाइनल मुकाबले से बाहर हो गए थे। वहीं, कप्तान जयपाल सिंह
भी कुछ मैच पहले ही स्वदेश लौट चुके थे। इसके बावजूद भारत ने 23 हजार फैन्स के
सामने नीदरलैंड्स को 3-0 से मात दे दी।
ध्यानचंद ने दो और जॉर्ज मार्टिंस ने एक गोल दागकर भारतीय हॉकी के स्वर्ण युग की
शुरुआत की। पूरे टूर्नामेंट में भारत ने कुल 29 गोल किए थे, जिसमें से 14 गोल तो अकेले ध्यानचंद ने किए। भारतीय टीम के विजयी
अभियान की एक खास बात यह रही थी कि उसने पूरे टूर्नामेंट में एक भी गोल नहीं खाया।
इसमें सबसे बड़ा योगदान भारतीय गोलकीपर रिचर्ड एलन का था। एलन गोलपोस्ट के सामने
दीवार बनकर खड़े हो गए थे और विपक्षी टीम का कोई भी खिलाड़ी इस दीवार को भेद नहीं
सका।
लॉस एंजेलिस ओलम्पिक (1932) : दूसरा स्वर्ण पदक
मंदी के बीच अमेरिका पर लगाई गोलों की झड़ी और जीता
स्वर्ण - 1929 की आर्थिक मंदी का
असर लॉस एंजेलिस ओलम्पिक खेलों पर भी पड़ा
था। इसका नतीजा ये हुआ कि हॉकी स्पर्धा में भारत, जापान और अमेरिका ने ही हिस्सा लिय। भारत टीम का पहला
मुकाबला जापान से हुआ, जिसे भारत ने 11-1 से अपने नाम किया
था। इस मुकाबले में ध्यानचंद ने चार गोल किए। ध्यानचंद के छोटे भाई रूप सिंह और
गुरमीत सिंह ने तीन-तीन गोल गोल किए। रिचर्ड कैर ने भी मौके का फायदा उठाते हुए एक
गोल किया। वहीं, जापानी टीम की ओर
से इकलौता गोल जुन्जो इनोहारा ने किया। भारत का अगला मुकाबला मेजबान अमेरिका से
होना था। इस मुकाबले में भारतीय टीम के जीत की उम्मीद सबको थी, लेकिन शायद ही किसी
ने ये कल्पना की होगी कि भारत औसतन हर एक तीन मिनट पर गोल करेगा। भारत ने इस
मुकाबले में गोलों की झड़ी लगाते हुए अमेरिका को 24-1 के विशाल अंतर से
हराया था। रूप सिंह ने सबसे ज्यादा 10 और ध्यानचंद ने 8 गोल किये। इन दोनों के अलावा गुरमीत सिंह ने 5 गोल और एरिक पिनिगर
ने एक गोल किया था।
एक गोल का आटोग्राफ : ‘अमेरिका की ओर से
इकलौता गोल विलियम बोडिंगटन ने किया। लेकिन उनके गोल करने की कहानी भी काफी
दिलचस्प है। भारतीय टीम के आक्रमण से अमेरिकी टीम के हौसले पस्त हो चुके थे। ऐसे
में एक मौके पर अमेरिकी खिलाड़ियों को भारतीय रक्षापंक्ति ने अपने घेरे में प्रवेश
करने दिया। लेकिन जब खिलाड़ियों ने पीछे मुड़कर देखा तो पता चला कि गोलकीपर रिचर्ड
एलन गोल पोस्ट पर मौजूद नहीं हैं। वह तो गोल पोस्ट के पीछे ऑटोग्राफ दे रहे थे। इस
तरह गोलकीपर की दरियादिली से अमेरिका एक गोल करने में सफल रहा। अमेरिका के खिलाफ
इस जीत के साथ ही भारतीय हॉकी टीम ने ओलम्पिक में लगातार दूसरा स्वर्ण पदक अपने नाम कर लिया।
भारत ने दो मुकाबलों में कुल 35 गोल किये, जिसमें से 25 गोल दो भाइयों (रूप सिंह और ध्यानचंद) के नाम रहे। रूप सिंह
ने 13 और बड़े भाई
ध्यानचंद ने 12 गोल थे’।[3]
बर्लिन ओलम्पिक (1936) : गोल्डन हैट्रिक
ध्यानचंद के कप्तानी में स्वर्ण पदक की हैट्रिक- बर्लिन में भारतीय
हॉकी टीम की कमान ध्यानचंद के हाथों में थी। भारत को जापान, हंगरी और अमेरिका
के साथ ग्रुप 'ए' में रखा गया था।
वहीं, ग्रुप 'बी' में जर्मनी, अफगानिस्तान और
डेनमार्क की टीमें थीं। जबकि ग्रुप 'सी' में नीदरलैंड्स, फ्रांस, बेल्जियम और स्विट्जरलैंड को रखा गया था। भारत ने
शानदार आगाज करते हुए लीग प्रतियोगिता में अपने पहले मैच में हंगरी को 4-0 से शिकस्त दी। इसके
बाद भारत ने अमेरिका को 7-0 से और जापान को 9-0 से हराकर सेमीफाइनल
में प्रवेश किया। सेमीफाइनल में भारत ने फ्रांस को 10-0 से मात दी। इस मैच
में ध्यानचंद ने सबसे ज्यादा 4 और रूप सिंह ने 3 गोल किये। वहीं, इक्तिदार अली ने 2 और कार्ली टेपसेल ने एक गोल किए।
फाइनल मुकाबले में जर्मनी से लिया हार बदला : फाइनल मुकाबले में
भारत का मुकाबला जर्मनी से हुआ। उस फाइनल में भारत ने अभ्यास मैच में मिली हार का
बदला लेते हुए जर्मनी को 8-1 से मात दी। इस जीत
के साथ ही भारतीय हॉकी टीम ने लगातार तीसरी बार स्वर्ण पदक पर कब्जा कर लिया।
फाइनल मुकाबले में कप्तान ध्यानचंद ने सबसे ज्यादा 3 गोल किए। इक्तिदार ने 2, जबकि टेपसेल, जफर और रूप सिंह ने 1-1 गोल किए। गौरतलब है
कि 1936 के ओलम्पिक खेल शुरू होने से पहले एक अभ्यास मैच में भारतीय
टीम को जर्मनी ने 4-1 से हरा दिया था।
ध्यानचंद ने अपनी आत्मकथा ‘गोल’ में लिखा, 'मैं जब तक जीवित
रहूंगा इस हार को कभी नहीं भूलूंगा। इस हार ने हमें इतना हिलाकर रख दिया कि हम
पूरी रात सो नहीं पाए।
हिटलर के प्रलोभन पर भारी पड़ा ध्यानचंद का देश प्रेम- ‘कहा जाता है कि इस
शानदार प्रदर्शन से खुश होकर हिटलर ने ध्यानचंद को खाने पर बुलाया और उन्हें
जर्मनी की ओर से खेलने को कहा। हिटलर ने इसके बदले उन्हें मजबूत जर्मन सेना में
कर्नल पद का प्रलोभन भी दिया। लेकिन ध्यानचंद ने कहा, 'हिंदुस्तान मेरा
वतन है और मैं वहां खुश हूं। मैंने भारत का नमक खाया है, मैं भारत के लिए ही
खेलूंगा। 'हॉकी के जादूगर' ध्यानचंद ने अपने
इस आखिरी ओलम्पिक में कुल 13 गोल किए थे। इस तरह
एम्स्टर्डम, लॉस एंजेलिस और
बर्लिन ओलम्पिक को मिलाकर ध्यानचंद ने कुल 39 गोल किए, जो उनकी बादशाहत को
बयां करती है’।(4)
लंदन ओलम्पिक (1948) : चौथा स्वर्ण पदक
भारत का स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में स्वर्ण पदक - 1948 के लंदन ओलम्पिक में पहली बार भारत ने एक स्वतंत्र राष्ट्र के
रूप में भाग लिया था। 1947 में हुए भारत के
बंटवारे के बाद भारतीय हॉकी टीम बिखर गई थी। इक्तिदार अली दारा जैसे कई खिलाड़ी
पाकिस्तान चले गए थे। जिसके चलते भारतीय हॉकी महासंघ (IHF) को टीम चुनने में
काफी मुश्किलें आईं। अंततः किशन लाल के नेतृत्व में नई नवेली भारतीय टीम लंदन
पहुंची। भारत को ग्रुप 'ए' में अर्जेंटीना, ऑस्ट्रिया और स्पेन
के साथ रखा गया था। वहीं ग्रुप 'बी' में ग्रेट ब्रिटेन, स्विट्जरलैंड, अफगानिस्तान और
अमेरिका की टीमें थीं। जबकि पाकिस्तान ग्रुप 'सी' में नीदरलैंड्स, बेल्जियम, फ्रांस और डेनमार्क के साथ था। भारतीय टीम ने अपने
पहले ही मैच में ऑस्ट्रिया को 8-0 से हराकर अपने इरादे जाहिर कर दिए। इसके बाद भारत ने
अर्जेंटीना को 9-1 और स्पेन को 2-0 मात देकर सेमीफाइनल
में जगह बनाई। सेमीफाइनल में भारत ने नीदरलैंड्स को रोमांचक मुकाबले 2-1 से मात दी। उस मैच
में भारत के लिए केडी सिंह 'बाबू' और गेराल्ड ग्लाकेन
ने एक-एक गोल गोल किए थे।
फाइनल में भारतीय
टीम के सामने ग्रेट ब्रिटेन की टीम थी। भारत के लिए यह मैच बेहद खास था क्योंकि इस
मुकाबले के ठीक तीन दिन बाद पूरा देश आजादी की पहली वर्षगांठ मनाने जा रहा था।
भारत ने फाइनल में ग्रेट ब्रिटेन को 4-0 से मात देकर लगातार
चौथा स्वर्ण पदक जीत लिया। फाइनल मुकाबले में बलबीर सिंह सीनियर ने 2, त्रिलोचन सिंह और
पैट्रिक जेनसन ने एक-एक गोल किए। इस जीत के बाद पूरा देश अंग्रेजों के खिलाफ मिली
इस जीत के बाद खुशी से झूम उठा था।
हेलसिंकी ओलम्पिक (1952) : पंचवा स्वर्ण पदक
बलबीर सिंह सीनियर ने लगाई हैट्रिक - हेलसिंकी ओलम्पिक में फील्ड हॉकी इवेंट नॉकआउट मुकाबले की तर्ज पर
खेले गए थे। 1948 के लंदन ओलम्पिक की टॉप चार टीमों को क्वार्टर फाइनल में सीधे
प्रवेश दिया गया। भारत के अलावा इन टीमों में पाकिस्तान, नीदरलैंड्स और
ग्रेट ब्रिटेन शामिल थे। केडी सिंह बाबू की कप्तानी वाली भारतीय टीम ने क्वार्टर
फाइनल मुकाबले में ऑस्ट्रिया को 4-0 से शिकस्त दी। भारत की ओर से बलवीर सिंह सीनियर, केडी सिंह बाबू, रणधीर सिंह जेंटल
और रघबीर लाल ने एक-एक गोल किये। सेमीफाइनल में भारत का सामना ग्रेट ब्रिटेन से
होना था, जिसका डिफेंस काफी
बेहतर मानी जा रही थी, लेकिन भारतीय टीम
के सामने अंग्रेजों की एक नहीं चली और उसने 3-1 से मुकाबला अपने
नाम कर लिया। बलबीर सिंह सीनियर ने भारत की ओर से सभी तीन गोल दागते हुए हैट्रिक
जमाई थी।
फाइनल में बलवीर का कमाल- अब भारतीय टीम को
फाइनल में नीदरलैंड्स का सामना करना था। उम्मीदों के मुताबिक भारत ने इस मुकाबले
को 6-1 से जीत कर लगातार 5वीं बार स्वर्ण पदक
जीत लिया। भारत की ओर से बलबीर सिंह सीनियर ने सबसे ज्यादा 5 गोल किए। ओलम्पिक के फाइनल मुकाबले में सबसे ज्यादा गोल करने का
उनका यह रिकॉर्ड आज भी कायम है। भारत ने इस जीत से एकबार फिर हॉकी पर अपनी बादशाहत
साबित की। पूरी भारतीय टीम ने तीन मैचों में कुल 13 गोल किए, जिसमें से बलबीर सिंह सीनियर ने अकेले 9 गोल किये थे। बलबीर
सिंह के अलावा टीम के कप्तान केडी सिंह 'बाबू' ने भी इस ओलम्पिक में अपनी छाप छोड़ी। उन्हें 1953 में हेल्म्स ट्रॉफी
(Helms Trophy) से नवाजा गया था, जो कि दुनिया के
बेस्ट हॉकी खिलाड़ी को दी जाती थी। यह पहला मौका था, जब किसी भारतीय खिलाड़ी को यह ट्रॉफी दी गई थी।
मेलबर्न ओलम्पिक (1956) : छठा स्वर्ण पदक- मेलबर्न ओलम्पिक के हॉकी प्रतियोगिता में 12 देशों की टीमों ने
हिस्सा लिया था। इन टीमों को तीन-तीन टीमों के चार ग्रुप में बांटा गया था। भारत
को ग्रुप 'ए' में सिंगापुर, अफगानिस्तान और
अमेरिका के साथ रखा गया था। भारत ने अफगानिस्तान को 14-0 से मात देकर खिताबी
अभियान का शानदार आगाज किया। कप्तान बलवीर सिंह सीनियर ने 5 और उधम सिंह ने 4 गोल किये थे।
हालांकि अफगानिस्तान के खिलाफ उस मुकाबले में बलवीर सिंह की उंगली में फ्रैक्चर हो
गया था, जिसकी वजह से
उन्हें कुछ मैचों में बाहर बैठना पड़ा था। भारतीय टीम ने अमेरिका को 16-0 के बड़े अंतर से
रौंद डाला। उस मुकाबले में भारत की ओर से उधम सिंह ने अकेले 7 गोल किए। अपने लीग
प्रतियोगिता के आखिरी मैच में भारत ने सिंगापुर को 6-0 से हरा अंतिम चार
में जगह बनाई। सेमीफाइनल में भारत का सामना यूनाइटेड टीम ऑफ जर्मनी से हुआ। लीग
प्रतियोगिता में गोलों की झड़ी लगाने वाली भारतीय टीम इस मैच में सिर्फ एक गोल कर
सकी। यह गोल उधम सिंह ने मैच के 48वें मिनट में किया था, जिसकी बदौलत भारतीय टीम फाइनल में पहुंच सकी। दूसरी
तरफ पाकिस्तान ने भी ग्रेट ब्रिटेन को 3-2 से हरा फाइनल का
टिकट हासिल कर लिया था।
दीवार को तोड़ नहीं पाई पाक टीम- ‘भारत और पाकिस्तान
की टीम पहली बार एक-दूसरे के आमने-सामने थी, वो भी ओलम्पिक फाइनल जैसे बड़े मुकाबले में। उम्मीदों के
मुताबिक फाइनल मुकाबला काफी रोमांचक रहा। मैच के 38वें पेनल्टी कॉर्नर पर रणधीर सिंह जेंटल ने गोल कर
भारत को बढ़त दिला दी। पाकिस्तान ने गोल करने के कई प्रयास किए, लेकिन वह भारतीय
गोलकीपर शंकर लक्ष्मण की दीवार को भेद नहीं पाए। अंततः भारत ने पाकिस्तान को 1-0 से हराकर लगातार
छठी बार स्वर्ण पदक पर कब्जा कर लिया। भारतीय टीम का डिफेंस इतना सशक्त था कि पूरी
प्रतियोगिता में विपक्षी टीम उसके खिलाफ एक भी गोल नहीं कर पाई’।(5)
रोम ओलम्पिक (1960) : रजत पदक-
लगातार सातवें स्वर्ण पदक का सपना टूटा- रोम ओलम्पिक में भारतीय हॉकी टीम की जीत का सिलसिला थम गया
था। इस ओलम्पिक में खिताब की प्रबल
दावेदार भारत को न्यूजीलैंड, नीदरलैंड्स और डेनमार्क के साथ ग्रुप 'ए' में रखा गया। भारत
ने अपने पहले मुकाबले में डेनमार्क को 10-0 से हराकर शानदार
आगाज किया। इसके बाद उसने नीदरलैंड्स को 4-1 और न्यूजीलैंड को 3-0 से हराकर अंतिम आठ
में जगह पक्की की। क्वार्टर फाइनल में भारत का मुकाबला ऑस्ट्रेलिया से हुआ, जिसे भारत ने
एक्स्ट्रा टाइम में 1-0 से अपने नाम किया
था। मैच के 92वें मिनट में रघबीर
सिंह भोला ने उस मैच का इकलौता गोल किया। इसके बाद भारत ने सेमीफाइनल में ग्रेट
ब्रिटेन को 1-0 से हराया। भारतीय
टीम की ओर से उधम सिंह ने मैच के 16वें मिनट में निर्णायक गोल दागा था।
पड़ोसी (पाकिस्तान) ने तोड़ा भारतीयों का दिल- ‘फाइनल में भारत के
सामने पाकिस्तानी टीम थी, जिसने स्पेन को मात
देकर फाइनल का टिकट कटाया था। मुकाबले के छठे मिनट में ही अहमद नासीर ने गोल करके
पाक टीम को बढ़त दिला दी। इसके बाद भारत ने बराबरी करने की पूरी कोशिश की, लेकिन पाकिस्तान के
डिफेंस को भेद नहीं पाई। अंततः भारत यह मुकाबला 0-1 से हार गया था। इस
हार के साथ ही भारत का लगातार 7वीं बार स्वर्ण पदक जीतने का सपना टूट गया था’।[6]
टोक्यो ओलम्पिक (1964) : सातवां स्वर्ण
पदक
टोक्यो में भारत ने पाकिस्तान से लिया बदला- पाकिस्तान से लिया
बदला टोक्यो ओलम्पिक में भारतीय हॉकी टीम
की साख दांव पर लगी थी। करोड़ों भारतीय प्रशंसकों की यही ख्वाहिश थी कि टीम इंडिया
पाकिस्तान को मात देकर स्वर्ण पदक जीत कर आए। जिसे पूरा करने में भारतीय टीम पूरी
तरह सफल भी रही। टोक्यो में भारतीय टीम की कमान चरणजीत सिंह के हाथों में थी। भारत
को ग्रुप 'बी' में स्पेन, नीदरलैंड्स, यूनाइटेड टीम ऑफ
जर्मनी, मलेशिया, बेल्जियम, कनाडा और हॉन्कॉन्ग
के साथ रखा गया था। भारत ने अपने पहले पहला मैच में बेल्जियम को 2-0 से मात देकर
बेहतरीन आगाज किया। इस जीत के बाद भारत ने यूनाइटेड टीम ऑफ जर्मनी और स्पेन से 1-1 के ड्रॉ खेले। इसके
बाद भारत ने लीग चरण के बाकी चार मैचों जीत हासिल कर सेमीफाइनल में कदम रखा।
भारतीय टीम ने इस दौरान हॉन्कॉन्ग को 6-0, मलेशिया को 3-1, कनाडा को 3-0, जबकि नीदरलैंड्स को 2-1 से शिकस्त दी थी।
इसके बाद भारतीय टीम ने सेमीफाइनल में ऑस्ट्रेलिया को 3-1 से हराकर फाइनल में
जगह बनाई। सेमीफाइनल में भारत के लिए पृथीपाल ने दो और मोहिंदर ने एक गोल किए। उधर
पाकिस्तान ने भी स्पेन को 3-0 से मात देकर फाइनल
का टिकट कटा लिया।
फाइनल मुकाबले में
भारतीय टीम का लक्ष्य रोम ओलम्पिक की हार
का बदला चुकता करना था। पहले हाफ में दोनों टीमों की तमाम कोशिशों के बाद भी कोई
गोल नहीं हो सका। दूसरे हाफ में भारत को पेनल्टी कॉर्नर मिला, जिसे पृथीपाल सिंह
ने लिया। लेकिन उनका शॉट पाकिस्तानी गोलकीपर के पैड से टकराकर मुनीर अहमद डार के
पैर पर जा लगा, जिसके चलते भारत को
पेनल्टी स्ट्रोक मिला। जिसके बाद मोहिंदर लाल ने इस बेहतरीन मौके को गोल में
तब्दील कर भारत को बढ़त दिला दी। पाकिस्तानी टीम ने इसके बाद गोल करने के भरसक
प्रयास किए, लेकिन वह भारतीय
गोलकीपर शंकर लक्ष्मण की दीवार को भेद नहीं सकी। अंततः भारत ने इस मुकाबले को 1-0 से जीतकर रोम ओलम्पिक
के फाइनल में मिली हार का बदला ले लिया।
पाकिस्तान को मात देकर भारतीय टीम के 7वीं बार स्वर्ण पदक जीतने पर पूरे देश में खुशी की
लहर दौड़ गई। वैसे तो फाइनल मुकाबले में जीत के हीरो मोहिंदर लाल और शंकर लक्ष्मण
रहे थे। लेकिन भारत को फाइनल में पहुंचाने में पृथीपाल सिंह की सबसे अहम भूमिका
थी। पृथीपाल ने टोक्यो ओलम्पिक में कुल 10 गोल किए थे।
मैक्सिको ओलम्पिक (1968) : कांस्य पदक
पहली बार फाइनल का सफ़र रुका- मेक्सिको ओलम्पिक से पहले भारतीय हॉकी टीम का विवाद सतह पर आ चुका
था। गुरबख्श सिंह और पृथीपाल सिंह कप्तानी को लेकर आपस में ही उलझ बैठे थे।
आखिरकार एक समझौते के तहत दोनों को संयुक्त रूप से मेक्सिको ओलम्पिक के टीम का कप्तान नियुक्त किया गया। इस ओलम्पिक में भारत को ग्रुप 'ए' में पश्चिम जर्मनी, बेल्जियम, स्पेन, पूर्वी जर्मनी, जापान और मेजबान
मेक्सिको के साथ रखा गया था। भारतीय टीम की शुरुआत अच्छी नहीं रही और उसे पहले मैच
में न्यूजीलैंड के हाथों 2-1 से अप्रत्याशित हार
झेलनी पड़ी। इसके बाद भारत ने शानदार वापसी करते हुए पश्चिम जर्मनी (2-1), मेक्सिको (8-0) स्पेन (1-0), बेल्जियम (2-1), जापान (5-0) और पूर्वी जर्मनी (1-0) को शिकस्त दिया।
टीम इंडिया ग्रुप'ए' में 18 अंकों के साथ टॉप
पर रही और उसने सेमीफाइनल में अपना स्थान सुनिश्चित कर लिया था।
सेमीफाइनल में भारत
का सामना ऑस्ट्रेलिया से हुआ। पहले हाफ में बलबीर सिंह के गोल की बदौलत भारत ने 1-0 की बढ़त ले ली।
दूसरे हाफ में ब्रायन ग्लेनक्रॉस ने गोल दागकर ऑस्ट्रेलिया को बराबरी पर ला दिया।
निर्धारित समय तक दोनों टीमें 1-1 की बराबरी पर रहीं, जिसके चलते मैच एक्स्ट्रा टाइम में गया। जहां ब्रायन
ग्लेनक्रॉस ने एकबार फिर गोल दागकर ऑस्ट्रेलिया को 2-1 से जीत दिला दी। इस
हार के साथ ही भारतीय टीम पहली बार ओलम्पिक के फाइनल में नहीं पहुंच पाई। सेमीफाइनल में हार
के बाद भारत के पास अब कांस्य पदक जीतने का मौका था। इस मौके को भुनाते हुए भारत
ने पश्चिम जर्मनी को 2-1 से हराकर कांस्य
पदक पर कब्जा कर लिया। भारत के लिए पृथीपाल सिंह और बलबीर सिंह ने गोल किए। वहीं, पश्चिम जर्मनी की
ओर से नॉरबर्ट शूलेर ने इकलौता गोल किया।
म्यूनिख ओलम्पिक (1972) : दूसरा कांस्य पदक
ओलम्पिक में
लगातार 10वां पदक- म्यूनिख ओलम्पिक के लिए भारतीय हॉकी टीम की कमान हरमेक सिंह के
हाथों में थी। 'हॉकी के जादूगर' ध्यानचंद के पुत्र
अशोक कुमार, फॉरवर्ड
बी.पी.गोविंदा जैसे युवा सितारों को टीम में जगह मिली थी। भारत को ग्रुप 'बी' में नीदरलैंड्स, ग्रेट ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, पोलैंड, केन्या और मैक्सिको
के साथ रखा गया था। भारत की शुरुआत उतनी अच्छी नहीं रही और उसे पहले मैच में
नीदरलैंड्स ने 1-1 की बराबरी पर रोक
दिया। इसके बाद भारत ने ग्रेट ब्रिटेन को 5-0 और ऑस्ट्रेलिया को 3-1 से शिकस्त देकर लय
हासिल कर ली। भारत को अगले मुकाबले में पोलैंड ने 2-2 की बराबरी पर रोक
सबको आश्चर्यचकित कर दिया। फिर भारत ने केन्या को 3-2, मैक्सिको को 8-0 से और न्यूजीलैंड
को 3-2 से मात दी। भारतीय
टीम सात मैचों में 12 अंकों के साथ अपने
ग्रुप मे टॉप पर रहते हुए सेमीफ़ाइनल में पहुँच चुकी थी। वही दूसरी ओर पाकिस्तान
ग्रुप ‘ए’ में दूसरा स्थान हासिल किया जिसके चलते सेमीफानल में भारत को पाकिस्तान
का सामना करना पड़ा।
भुना नहीं पाए पेनाल्टी कार्नर- ‘सेमीफाइनल मुकाबले
से पहले आतंकवादियों ने खूनी वारदात को अंजाम देते हुए 11 इजरायली खिलाड़ियों
की हत्या कर दी थी। सेमीफाइनल में भारतीय टीम अपनी लय में नहीं दिखी। पाकिस्तान ने 11वें और 34वें मिनट में गोल
दागकर भारत पर 2-0 की बढ़त ले ली।
भारतीय टीम को पूरे मैच 18 पेनल्टी कॉर्नर
मिले, लेकिन वह एक भी गोल
दाग नहीं पाई। अंतत: पाकिस्तान ने भारत को 2-0 से मात देकर उसे
खिताबी मुकाबले से बाहर कर दिया’।(7)
अब कांस्य पदक के
मुकाबले में भारत का सामना नीदरलैंड्स से हुआ। छठे मिनट में ही नीदरलैंड्स के टाइ
क्रूज ने गोल दागकर डच टीम को बढ़त दिला दी। इसके बाद 15वें मिनट में बीपी
गोविंदा ने पेनल्टी कॉर्नर को गोल में तब्दील कर स्कोर 1-1 कर दिया। फिर
मुकाबले के आखिरी मिनट में मुखबेन सिंह ने गोल दागकर भारत को 2-1 से जीत दिला दी।
कांस्य पदक जीतने के साथ ही टीम इंडिया ओलम्पिक में लगातार 10वां पदक अपने नाम कर चुकी थी।
मॉस्को ओलम्पिक (1980) :आठवाँ स्वर्ण पदक
ओलम्पिक का
बहिष्कार और भारत का स्वर्ण पदक- 1976 के मॉन्ट्रियल ओलम्पिक में भारतीय टीम पदक जीतने से महरूम रह गई थी।
ऐसा पहली बार हुआ जब भारत के हिस्से हॉकी में कोई ओलम्पिक पदक नहीं आया था। हालांकि मॉस्को में भारत ने
स्वर्ण पदक जीतकर जरूर इसकी भरपाई कर दी थी। लेकिन उसके बाद से भारत हॉकी में एक
भी ओलम्पिक पदक जीत नहीं पाया है। मॉस्को ओलम्पिक
में सिर्फ छह टीमों ने पुरुष हॉकी इवेंट
में भाग लिया। क्योंकि न्यूजीलैंड, पाकिस्तान, ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों ने अमेरिका के नेतृत्व में ओलम्पिक
का बहिष्कार किया था। वासुदेव भास्करन की
कप्तानी वाली टीम इंडिया ने तंजानिया को 18-0 से धोकर शानदार
शुरुआत की। इससे बाद भारत को पोलैंड और स्पेन दोनों ने ही 2-2 की बराबरी पर रोक
दिया। दो ड्रॉ खेलने के बाद भारत ने क्यूबा को 13-0 और मेजबान सोवियत
संघ को 4-2 से हराकर फाइनल में
प्रवेश कर लिया। फाइनल में भारत का मुकाबला पूल में टॉप पर रहने वाली स्पेनिश टीम
से हुआ। टीम इंडिया ने बेहद रोमांचक फाइनल मुकाबले में स्पेन को 4-3 से हराकर रिकॉर्ड 8वीं बार स्वर्ण पदक
जीत लिया।
टोक्यो ओलम्पिक (2020) : तीसरा कांस्य पदक
41 वर्षों के पदक का सूखा ख़त्म- ‘टीम इंडिया का सफर
ग्रुप-ए में गत चैम्पियन अर्जेंटीना व ऑस्ट्रेलिया, जापान, न्यूजीलैंड और स्पेन के साथ रखा गया था । वहीं
ग्रुप-बी में बेल्जियम, कनाडा, जर्मनी, ब्रिटेन, नीदरलैंड और दक्षिण
अफ्रीका की टीमें थीं । सभी टीमें एक-दूसरे से खेलीं और दोनों ग्रुप से शीर्ष चार
टीमें सेमीफाइनल में पहुंचीं। भारत कुल चार जीत और एक हार के साथ अपने ग्रुप में
दूसरे नंबर पर रहकर क्वार्टर फाइनल में पहुंचा था। फिर क्वार्टर फाइनल में भारत ने
ग्रेट ब्रिटेन को 3-1 से हराकर सेमीफाइनल
में जगह बनाई। हालांकि सेमीफाइनल में भारत को बेल्जियम के हाथों 5-2 से हार झेलनी पड़ी।
भारतीय टीम ने मनप्रीत सिंह की कप्तानी में शानदार प्रदर्शन करते हुए टोक्यो में
कांस्य पदक जीता। कांस्य पदक मैच में भारत ने जर्मनी को 5-4 से हरा दिया। टीम 41 साल बाद ओलम्पिक में पदक जीतने में कामयाब रही। इससे पहले भारत
को आखिरी पदक 1980 में मॉस्को में
मिला था’।[8]
स्वर्णिम युग का पतन और उसके कारण- इतने साल तक ओलम्पिक
में अपना दबदबा कायम रखने वाली भारतीय
हॉकी टीम आखिरकार अपने सर्वोच्च शिखर पर कायम नहीं रह सकी। 1968 में मैक्सिको और
1972 में म्यूनिख ओलम्पिक में भारत को
कांस्य पदक से ही संतोष करना पड़ा। इसके चार साल बाद 1976 में कनाडा के मॉन्ट्रियल
में हुए ओलम्पिक खेलों में भारतीय हॉकी
टीम सातवें स्थान पर रही। इसके चार साल बाद 1980 में मास्को में ओलम्पिक खेल आयोजित हुआ। इस दौरान भारतीय हॉकी टीम ने
एकबार फिर स्वर्ण पदक हासिल किया। इसके बाद भारतीय हॉकी टीम के लिए ओलम्पिक का सफर मुश्किलों भरा होता चला गया। दरअसल, भारतीय हॉकी टीम के
खिलाड़ियों के लिए एस्ट्रो ट्रफ पर हॉकी खेलना परेशानी का सबब बन गया जबकि इससे
पहले तक भारतीय हॉकी टीम घास के मैदान पर ही खेलने उतरती रही थी। मैदान में हुए इस
बदलाव के कारण हॉकी अब परंपरागत शैली का न होकर पावर और स्पीड के गेम में बदल गया।
यही कारण रहा कि भारतीय हॉकी उस दौर में अचानक किए गए इस बदलाव से तालमेल नहीं
बैठा सकी। एक समय जो हिंदुस्तान, हॉकी के खेल पर राज करता था और लगातार कई बार विश्व विजेता
बना, वह देश 1980 के बाद
इस खेल में पीछे छूट गया।
भारतीय हॉकी की शर्मनाक हार - ‘भारतीय हॉकी के
इतिहास में एक बड़ी शर्मनाक हार का सामना उस समय करना पड़ा, जब सन् 2008 के
मार्च में चिली में आयोजित मैच के फाइनल में भारतीय टीम इंग्लैंड के हाथों पराजित
होकर बीजिंग ओलंपिक्स के लिए क्वॉलीफाई तक नहीं कर सकी। तब से भारत में इस खेल की
दुर्दशा बढ़ती जा रही है। इस शर्मनाक हार के बाद कई भारतीय खिलाड़ियों ने यहाँ तक
कि अपने प्रोफेशन भी बदल लिए हैं। सरकारी उपेक्षा व हॉकी खिलाड़ियों को उचित सम्मान
न देने के कारण यह खेल एक तरह से हाशिए पर आ गया है’।[9]
टर्फ पर लड़खड़ाती भारतीय टीम- भारतीय हॉकी के
मामले में, 1975 में
एस्ट्रो-टर्फ की शुरुआत ने ख़राब प्रदर्शन के उत्प्रेरक के रूप में काम किया।
अंतर्राष्ट्रीय हॉकी महासंघ (एफआईएच) का निर्णय भले ही खेल के स्तर में गिरावट के
लिए सीधे तौर पर जिम्मेदार न हो, लेकिन इसका नतीजा यह हुआ कि भारत धीरे-धीरे जमीन खो रहा था।
भारत ने अपना एकमात्र विश्व कप 1975 में मलेशिया में जीता था। हालांकि 1980 के ओलम्पिक
स्वर्ण पदक और 1998 के एशियाई खेलों के
स्वर्ण पदक जैसे कुछ उज्ज्वल क्षणों को छोड़कर उसके कुछ साल बाद परिणाम सूख गए, यह साबित करता है
कि देश एस्ट्रो-टर्फ के अनुकूल होने में विफल रहा।
अंतर्राष्ट्रीय
खिलाडी जफर कहते हैं, "टर्फ की शुरुआत से
हॉकी खेलने के तरीके में भारी बदलाव आया। भारत और पाकिस्तान पीछे रह गए क्योंकि हम
फंड की कमी के कारण टर्फ को जल्दी स्थापित नहीं कर सके।" महासंघ ने भी मैदान
पाने के लिए केवल आधे-अधूरे प्रयास किए और भारत 80 के दशक में अपनी पहली सिंथेटिक
सतह (एस्ट्रोटर्फ) स्थापित कर सका।
अन्तरराष्ट्रीय
खिलाड़ी जगबीर सिंह का कहना है कि जब तक भारतीय खिलाडियों ने एस्ट्रो-टर्फ पर खेलने
की कला में महारत हासिल की, तब तक दुनिया बहुत
आगे बढ़ चुकी थी। "100 मीटर दौड़ में अगर आप 10 मीटर पीछे से शुरू करते हैं
तो आप प्रथम आने की उम्मीद नहीं कर सकते। यह अंतर इतना बड़ा था कि इसे तुरंत नहीं
भरा जा सकता था।” यह एक नया खेल है, आज हॉकी व्यक्तिगत
कौशल के बजाय तेज, और अधिक फिटनेस और
रणनीति-उन्मुख हो गई है। बार-बार नियमों में बदलाव के साथ, खेल आज इस स्तर पर
है कि अगर ध्यानचंद जी मैदान पर कदम रखते, तो वो इसे पहचान नहीं पाते’।[10]
जफर, जिन्होंने खुद घास
के मैदान से एस्ट्रो-टर्फ तक जाने के संघर्ष का अनुभव किया, कहते हैं कि
भारतीयों के लिए बदलाव मुश्किल था। "एस्ट्रो-टर्फ के लिए आपको वास्तव में घास
की तुलना में 2-3 गुना अधिक सहनशक्ति की आवश्यकता होती है, " वे कहते हैं “हॉकी स्टिक्स को भी
बदलना पड़ा, खासकर उसके घुमाव
(कर्व) को। निश्चित रूप से यूरोपीय लोगों को भी इसी तरह की समस्याओं का सामना करना
पड़ा था, लेकिन उन्होंने
पहले ही एस्ट्रो-टर्फ का इस्तेमाल शुरु कर दिया था। उनके पास बेहतर शोध और विकास
के साधन उपलब्ध थे। हालांकि भारतीय कुछ समय के लिए अपनी पकड़ बनाने में कामयाब रहे, लेकिन वे
महत्त्वपूर्ण क्षणों में तकनीकी रूप से कमजोर दिखाई दिए और यूरोपीय टीमों से हारते
चले गए। हालांकि शुरुआत में फिटनेस की कमी मुख्य समस्या थी। जगबीर कहते हैं कि “आज
हमारे खिलाड़ी यूरोपियनों की तरह फिट हैं। हालांकि, वे कम सहनशक्ति प्रदर्शित करते हैं क्योंकि वे गेंद
के साथ बहुत अधिक दौड़ते हैं और ऑफ-द-बॉल रनिंग और वन-टच पासिंग नहीं करते हैं”।[11]
जगबीर का कहना है “व्यक्तिगत रूप से, हमारे खिलाड़ियों
के पास किसी भी यूरोपीय टीम में जगह बनाने का कौशल है। लेकिन जब रणनीति की बात आती
है तो हमारे खिलाड़ी पिछड़ जाते हैं। हमें उस पर काम करने की जरूरत है” आज भी प्रारंभिक
स्तर के कोच, गेंद से ड्रिब्लिंग
और बाल के साथ दौड़ने पर ध्यान केंद्रित करते हैं। ट्रैपिंग, पासिंग और फिटनेस
को कम महत्त्व देते हैं। यही कारण है कि हम देखते हैं कि खिलाड़ी सब-जूनियर स्तर
पर भी विरोधियों की भीड़ के बीच ड्रिबल करने की कोशिश करते हैं।
प्रसिद्ध कोच पी.ए.
राफेल कहते हैं- “हम युवाओं को
आक्रामक हॉकी खेलना सीखाते हैं, लेकिन आक्रमण की योजना नहीं बनाई जाती है। लड़के गेंद को
पास करने से कतराते हैं। खिलाड़ी कम उम्र में बुनियादी खामियां विकसित कर लेते हैं, जिन्हें राष्ट्रीय
शिविर में ठीक नहीं किया जा सकता है।”[12]
सिस्टम के पुनर्निर्माण से भारतीय हॉकी टीम का उत्थान
संभव - भूतपूर्व भारतीय
हॉकी कोच राफेल ने कोचिंग सिस्टम में बदलाव और कम उम्र से निरंतर प्रशिक्षण, खिलाड़ियों को ऐसी
तकनीकें सीखाने की सलाह दी है जो उन्हें आधुनिक हॉकी में जीवित रहने में मदद
करेगी। वे कहते हैं, हम अभी भी एक ऐसे
प्रारूप पर कायम हैं, जो एस्ट्रो-टर्फ के
लिए बहुत अनुकूल नहीं है, हमें एक नई प्रणाली
विकसित करने की आवश्यकता है जो एशियाई कौशल को यूरोपीय हार्ड रनिंग के साथ जोड़ती
है।" अन्य प्रसिद्ध कोच भी एक बेहतर कोचिंग संरचना, एक नियमित घरेलू
कैलेंडर, बेहतर स्पोर्ट्स
मेडिसिन बैकअप और अधिक एस्ट्रो-टर्फ की वकालत करते हैं’।(13)
‘इन परिवर्तनों को लाने के बजाय, जिन लोगों को खेल
चलाने का काम सौंपा गया है, वे एक लंगड़े घोड़े
को कोड़े मार रहे हैं, इस उम्मीद में कि
यह किसी तरह ठीक हो जाएगा और दौड़ना शुरू कर देगा’।(14)
इस बार टोक्यो ओलम्पिक में भारतीय हॉकी टीम मनप्रीत सिंह की कप्तानी में खेलने उतरी और जिस जज्बे से खेली उसको देख कर लगा की भारत की स्वर्णिम गौरव गाथा फिर से लिखी जाएगी। भारतीय हॉकी टीम के स्वर्णिम इतिहास और खिलाड़ियों के जोश को देखकर लगता है कि भारत एक बार फिर हॉकी में देश की उम्मीद पर खरा उतरेगा और ओलम्पिक में स्वर्ण पदक लाएगा।
1.अजमेर सिंह, जगदीश बैस आदि, शारीरिक शिक्षा तथा ऑलम्पिक अभियान कल्याणी पब्लिकेशन-नई दिल्ली-2018, पृ. 920
2.वही, पृ. 923
3.सुरेन्द्र श्रीवास्तव, हॉकी खेल और नियम प्रभात प्रकाशन-2015, पृ. 217
4. https://www.aajtak.in/interactive/immersive/indian-hockey-olympics-gold-medals-history/
5. वही, https://www.aajtak.in
6.वही, https://www.aajtak.in
7. वही, https://www.olympic.com/hi/featured-news
8.वही, https://www.aajtak.in
9. सुरेन्द्र श्रीवास्तव, हॉकी खेल और नियम प्रभात प्रकाशन-2015, पृ. 228
10. B Shrikant, How we lost the turf war, Hindustan Times Aug 30, 2007(हिंदी अनुवाद)
11. वही, B Shrikant, How we lost the turf war (हिंदी अनुवाद)
12. वही, B Shrikant, How we lost the turf war (हिंदी अनुवाद)
13. वही, B Shrikant, How we lost the turf war (हिंदी अनुवाद)
14 वही, B Shrikant, How we lost the turf war (हिंदी अनुवाद)
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