- सपना तिवारी
शोध-सार : जीवन की जिन मूलभूत प्रक्रियाओं से जीवन जीवित व संचालित रहता है; 'सृजन' उनमें से एक है। सृजन प्रक्रिया जीवन व समाज के जीवित रहने का सबसे महत्त्वपूर्ण कारक है। कलाकार व रचनाकार के संदर्भ में तो यह बात और भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण हो जाती है। प्रत्येक रचनाकार अपनी आंतरिक गति-यति में एक सृजनकर्ता होता है। सृजनकर्ता अर्थात सृजन करने वाला, पैदा करने वाला, जनने वाला। इन अर्थों में देखें तो रचनाकार एक कृति को जब तैयार कर पाठक वर्ग के सामने लाता है। उसके पहले वह 'सृजन' की एक लंबी यात्रा से गुजर चुका होता है। सृजन की यात्रा एक पूरा इतिहास, पूरी प्रक्रिया, पूरी कालगति एवं पूरा परिवेश लिए हुए होता है। कृष्णा सोबती की रचनाओं में यह सृजन प्रक्रिया व सृजन परिवेश का तत्त्व अपना नितांत उत्तम व नया रूप लिए हुए है। सीधी-सी बात है क्योंकि कृष्णा जी न किसी चली आती हुई गद्य परंपरा का निर्वहन करने वाली लीकपीटू रचनाकार हैं न ही उनकी रचनाएँ विमर्श-वाद के दीन दायरों का बोझा ढोती हैं। इन सभी तत्त्वों को ध्यान में रखकर प्रस्तुत शोध में कृष्णा सोबती के सृजन परिवेश का मूल्यांकन किया गया है।
बीज शब्द : सृजन, निर्वहन, परिवेश, आयाम, खाका, स्वसंगति, एकांत, कायांतरण, स्पंदन।
मूल
आलेख : कृष्णा सोबती का साहित्य अपने स्वरूप
में नितांत इतर, निजी
व खासपने को लिए हुए है। कृष्णा सोबती की रचनाओं की अंतर्यात्रा उनके अपने निजी जीवन
पथ से होती हुई व लगती हुई चलती है। 'सोबती एक सोहबत' में कृष्णा सोबती ने
लिखा भी है-
"रचना
के गठन में निहित रचनाकार का अपना निज का एकांत है-
चिंतन
है। उसका चिंतन उसकी सोच है जो गहरे में उसकी मानसिकता की जड़ों से उभरी है। वही उसके
परिवेश और मूल्यों से जुड़ी जुटी है। उनमें रसी-बसी
है।"1
सोबती के साहित्य में गठन व बुनावट का यह अंदाज यूं ही नहीं है। इसके पीछे उनका अपना अलहदा व सुंदर व्यक्तित्व है। पंजाब, दिल्ली, शिमला का जो क्रम उनके अपने जीवन का क्रम है। वह बहुत हद तक उनके व्यक्तित्व और रचनाकार व्यक्तित्व का भी। पृष्ठभूमि से जो उर्वरा व सृजनशीलता कृष्णा जी ने ग्रहण की है वह कई आयामों व मायनों में उनकी रचनाओं के आकार व स्वरूप को बनाता रहा है। उदाहरण के लिए 'पंजाब' की पृष्ठभूमि से मिली हुई उर्वरा से जहाँ वे 'जिंदगीनामा' रचती हैं तो वहीं दिल्ली की आबो हवा से 'दिलोदानिश', मित्रो-मरजानी', आदि बनाती हैं और फिर पहाड़ की ठंडी बेशक वायुमण्डल उन्हें और उनके जरिए पाठकों को 'बादलों के घेरे' दे जाता है।
कोई
भी रचनाकार अपने आस-पास
के जीवित वातावरण से ही अपनी रचना के लिए माटी-पानी
लेता है, वह
चाहे पार्टीवादी लेखक हो, चाहे
विमर्शवादी, चाहे
किसी खास धारा का अथवा अपने तरीके का एकल व निजी। अपने आस-पास
के जीवन समाज व उसके वातावरण को ग्रहण कर अपने संस्कार व पृष्ठभूमि से टूल्स इकट्ठा
करते हुए अपने निज स्वभावानुसार रचनाकार सृजन प्रक्रिया में निवृत्त होता है। कृष्णा
सोबती का लेखन अपने तरह का एकदम अलग लेखन है,
जहाँ
वे 'स्व'
व
'पर' का
द्वंद्व व संतुलन बनाए रखती हैं और अपनी नितांत निजी सृजन प्रक्रिया से सृजन करती चलती
हैं। अपने समकालीनों के लगातार साथ व सक्रिय बने रहने के बावजूद एक रेखा है। जहाँ वे
दूसरों से एकदम जुदा हो जाती हैं। अपने अनुभव व परिवेश को इतना ज्यादा साथ लेकर चलने
के बावजूद भी वे एक सीमा के बाद अपने निज पर किसी को हावी नहीं होने देती हैं,
न
अपनी अनुभूति को, न
स्मृति को, न
टेक्स्ट को और इसी वजह से हर बार नया व पहले से बेहतर सृजन संभव हो पाता है। डॉ.
निर्मला
जैन की बात याद करें तो वह कहती हैं कि-
"कृष्णा
जी को रचनाओं में अनुभव और अभिव्यक्ति के बीच का अंतराल दोनों
(मन्नू भंडारी और उषा प्रियंवदा)
की
तुलना से कहीं अधिक रहता है। समय के साथ अनुभव के प्रति अपनी संलग्नता,
निजत्व
से वह जैसे धीमी प्रक्रिया में अपने को वाजिब दूरी तक मुक्त कर लेती हैं। उनकी स्थिति
कक्ष के भीतर या बाहर खड़े व्यक्ति के बजाय कुछ-कुछ
देहरी पर खड़े होकर दोनों ओर का जायजा लेने वाले व्यक्ति की होती है-चाहे
तो इसे सापेक्ष निरपेक्षता की साधना कह सकते हैं।"2
हर रचनाकार की अपनी सृजन प्रक्रिया होती है। कृष्णा सोबती के यहाँ यह जो 'सापेक्ष-निरपेक्षता' साधना है। वह एक अलग तरह की है। इसे ही जीवन में रहकर जीवन से मुक्त होना कहा जाता है, जीते जी विदेह हो जाना। संभवतः इसे ही इलियट ने 'व्यक्तित्त्व से पलायन' कहा होगा।
किसी भी रचनाकार की सृजन प्रक्रिया और उस सृजन प्रक्रिया के ज़रिए रचनाकार के सृजन परिवेश को व्याख्यायित कर पाना बेहद ही जटिल व रहस्यमयी दुनिया को खोलने जैसा होता है। रचनाकार की सृजन प्रक्रिया में वह, उसका निज, उसका 'पर', उसकी पृष्ठभूमि, आर्थिक सामाजिक स्थिति, उसकी भाषाई क्षमता और बहुत हद तक उसका स्त्री व पुरुष होना यानी उसकी जैविक स्थिति सब कुछ शामिल रहता है। 'होना' यानी उसकी जैविक स्थिति में सब कुछ शामिल रहता है। यही सारे तत्त्व मिलकर उस रचनाकार के सृजन परिवेश को रचते हैं। कृष्णा सोबती हिंदी की उन प्रमुख लेखिकाओं में से हैं जिनके आगमन के बाद से स्त्री को रचनाकार, कथाकार मानना शुरु किया गया और उनके 'स्त्री' अथवा 'स्त्री-लेखिका' मात्र होने का ठप्पा लगाना मुश्किल हुआ। 60 व 70 के दशक से एक तरफ नई कहानी इत्यादि की समाप्ति होती है तो एकदम अपने व नए तरह को बानगी वाले रचनाकारों का दौर शुरु होता है, जिन्हें आप किसी खास ढाँचे में नहीं बाँध सकते हैं। कृष्णा सोबती उन्हीं रचनाकारों में से हैं जिन्होंने अपनी शैली से नए तरह के कथा तत्त्व को सफलतापूर्वक स्थापित किया। कोई रचनाकार अपनी सृजनात्मकता को सूत्र या टैबलेट रूप में नहीं रखता है, जिससे की हम उसकी रचना प्रक्रिया को ठीक-ठीक समझ लें और गटक लें। प्रायः उस रचनाकार की जीवन प्रक्रिया, उसके स्वभाव, उसकी रुचियों, उसके क्रियाकलापों व विभिन्न मुददों पर उसकी प्रतिक्रिया एवं वैचारिकी को एक व्यवस्थित क्रम में देखते हुए और सूत्र से सूत्र मिलाते हुए हम एक कच्चा खाका खींचते हैं।यही कच्चा खाका उसकी सृजन प्रक्रिया, उसके सृजन स्वभाव एवं सृजन परिवेश को समझने में मदद करता है।
"मुझे मेरे 'मैं' से लगाव है दूसरों की कीमत पर नहीं। मुझे दूसरों का 'अहम' स्वीकार है, पर मेरी कीमत पर नहीं। मेरे परिचित ज्यादा हैं और दोस्त कम। अपनी सोहबत से मैं कभी ऊबती नहीं। रातों में मैं ज्यादा चुस्त-दुरुस्त होती हूँ। दिन से कहीं ज्यादा ऊर्जा समेटती हूँ। सोच-विचार में दिन से बिलकुल अलग। रात का रहस्यमय शोर-हल्की धीमी आवाजों का मौन एकांत। उन्हीं में से उभरते चले आते हैं शब्दों के राग, लय, ताल और अर्थ। जो जीती हूँ, वही लिखती हूँ।'3
वह कहती हैं कि मुझे मेरे 'मैं' से लगाव है अर्थात रचनाकार व्यक्तित्व का अपना एक बहुत निजी व सुरक्षित 'स्व' होता है, जिसमें एक सीमा तक ही बाहरी व्यक्तियों, स्थितियों व प्रभावों का प्रवेश होता है। एक हद के बाद रचनाकार की उस दुनिया में, उसकी उस सीमा में बाहर की हर तरह की दखलंदाजी का प्रवेश वर्जित रहता है। कारण यह है कि सृजनात्मकता की जो आंतरिक दुनिया है उसमें नएपन व अनूठेपन के लिए अनछुई और अस्पर्शी स्थिति की अपरिहार्यता रहती है। रचनाकार एक नए तरह के कलेवर की कृति तभी दे पाएगा जब उसके पास एकदम ताजी व अनछुई अनुभूतियों और कल्पनाओं का एक भरा-पूरा संसार होगा और इसके लिए रचनाकार का अपना 'मैं' सुरक्षित रहना चाहिए। कहना न होगा कि सोबती यहाँ अपने उसी 'मैं' की तरफ इशारा कर रही हैं। जिसमें ऊब का कोई स्थान नहीं है। सामान्यतः यह धारणा रहती है कि सिर्फ अपने में खोए रहने या व्यस्त रहने से आदमी उदासीन प्रकृति का होता चला जाता है, लेकिन रचनाकार के यहाँ यह बात उल्टी होती है। एक रचनाकार जितना ज्यादा अपने स्वयं की संगत में होता है उतना और किसी के नहीं। इस स्वसंगति और एकालाप में वह बहुत ज्यादा रचनात्मक होते हैं। इस संगत में वह लगातार एवं स्थिर-सहज मन से जीवन- समाज के नए-नए आयाम खोजता रहता है। यही सारे आयाम एक नई रचना को गढ़ने में लेखक की मदद करते हैं। कह सकते हैं कि भीड़ से अलग दिखने वाला एक कलाकार वास्तव में भीड़ से अलग होता भी है। उसके परिचित बहुत से लोग होते हैं पर करीबी बहुत कम। रात में लिखना अपने तरह का एक अलग लेखकीय प्रक्रिया का होना है। बहुत सारे महान लेखक कलाकार रात में ही रचनाकर्म में प्रवृत्त होते थे। उदाहरण के लिए 'द विंची' का रात में पेंटिंग्स बनाना और शेक्सपियर का रात में लिखना या फिर आगे के लोगों में जर्मनी के प्रख्यात कवि कलाकार 'राझेर मारिया रिल्के' वे भी प्रायः रात में ही लिखते थे। रात में लिखना न ही कोई स्पेशल ट्रिक है महान लेखक बनने के लिए और न ही कोई बचकानी हरकत है। यह तो बस काम करने का, सृजन करने का अपना तरीका व वातावरण है। रात से ऊर्जा बटोरना और सृजन में प्रवृत्त होना एक तरह से परंपरागत अथवा सामान्य पैटर्न को तोड़ने जैसा है। यह ज़रूरी नहीं कि रात के समय व्यक्ति ऊर्जान्वित नहीं हो सकता, सृजनात्मक नहीं हो सकता बल्कि व्यक्ति का मन रात व अँधेरे के रहस्यों में गहरे व शांत डूबकर सृजनात्मकता का एक नया संसार रच सकता है। अँधेरा अथवा रात केवल नकारात्मकता या निराशा का प्रतीक नहीं है बल्कि वह अपनी प्रशांत विराटता में रचनात्मकता व सृजनात्मकता के अदृश्य व अनंत प्रेरणासूत्रों का जन्मदाता भी है। और यह बात केवल एक रचनाकार ही समझ सकता है और कृष्णा सोबती सरीखे रचनाकार, प्रकृति जीवन-जगत के इन रहस्यात्मक सूत्रों से गहरे में जुड़े हैं। यह बात अलग से कहने की जरूरत नहीं है। लेखक के लिए कल्पनाजगत अथवा रहस्यलोक कितना जीवंत, आकर्षक एवं स्पंदनकारी होता है। यह बात वह लेखक बड़ी संजीदगी से जानता एवं महसूसता है। एक सच्चे लेखक के लिए आदर्शलोक, कल्पनालोक व रहस्यलोक वास्तविक जगत से कम महत्वपूर्ण व कम जीवंत बिलकुल नहीं होते। यदि ऐसा नहीं होगा तो कलाकार की कला में रसानुभूति, आस्वादन व आकर्षण की क्षमता भी नहीं होगी, क्योंकि नीरी नीरस यथार्थवादी स्थितियाँ तो वास्तविक जीवन से लेकर अखबारी घटनाओं में पसरी ही हुई हैं। कृष्णा जी के यहाँ कल्पना व रहस्य का यह जगत ही वास्तविक जगत से क़तई कमतर नहीं है, कला के अमूर्त सिरे तथा जीवन-यथार्थ के मूर्त सिरे को कल्पना सारणी की जो जलधारा जोड़ते हुए चलती है।वह उनके यहाँ निरंतर प्रवाहमान है। कृष्णा जी 'गर्दिश के दिन' लेखमाला(पत्रिका सारिका, 1973) में आत्म-प्रकाशन व आत्मसंगोपन की रहस्यमयी लेखकीय व्यक्तिमत्ता को उद्घाटित करते हुए बताती हैं कि- "अपनी हक़ीक़त से भी मेरा रिश्ता अपने लेखन के जरिए ही है।"4
लेखक के सृजनालोक में स्मृतियों व अनुभवों का बड़ा भारी महत्त्व होता है। स्मृति व अनुभव प्रकारांतर से रचनाकार का जीवन होता है, उसका अपना निजी मुक्त जीवन। जहाँ वह सबके साथ रहता हुआ भी अपने 'स्व' के साथ एकांत व एकतान रहता है। इस एकतान में वह स्मृतियों के धागों से अनुभव के पट पर अपनी झीनी-झीनी चादर बुनता रहता है। असल बात तो यह है कि बेहद तीव्र व सशक्त स्मृतियों वाला व्यक्तित्व ही रचनाकार व्यक्तित्व में अपना कायांतरण करता है। इस मामले में कृष्णा जी का मानस पटल स्मृतियों से घनीभूत है। उनकी सभी रचनाओं में उनके जीवन की झंझावली व स्पंदनकारी समृतियाँ अपनी अनुगूँज छोड़ती हुई सी जान पड़ती हैं। ऐसा लगता है कहीं पंजाब की माटी-पानी की गंध महक उठी हो तो कहीं दिल्ली की आबोहवा तथा कहीं शिमला का शीतल बचपन व अलसाया यौवन। ये सभी पृष्ठभूमियाँ जो कि कृष्णा जी के जीवन के अभिन्न अंग रही हैं। उम्र व जीवन के बढ़ते-बदलते क्रम में स्थान बदलते गए पर अपने रस, रंग व राग के साथ कृष्णा जी के भीतर व उनके जरिए उनकी रचनाओं में छन-छनकर आते रहे।
उदाहरण के लिए अगली बात यदि 'टीलों ही टीलों' कहानी के संदर्भ में करें तो हम पाते हैं कि इस कहानी का अधिकांश कृष्णा जी के बचपन की एक हृदय विदारक घटना से स्पंदित व प्रताड़ित है।
"पानी में चलने का मन होता तो हम जूते उतारकर गीली घास में उतरते। जूतों की इस सावधानी ने मुझे बचा लिया- लेकिन मेरे पड़ोसी मित्र रवि मुंझाल को दुर्घटनाग्रस्त कर दिया। हम दोनों को ज्योग्राफी का मैप लाने के लिए मारकिट जाना था। रवि पानी को छपछपाता आगे बढ़ता चला गया और मैं अपने जूते बचाने के लिए किनारे पर बनी सीमेंट की रौस पर सँभलकर चलने लगी।…. रवि ने सड़क पार करने को कदम बढ़ा लिया। जब तक मैं सड़क पर पहुँची, रवि खून से लथपथ, मोटर बाइक के नीचे कुचला पड़ा था।"5
हम देखते हैं कि कृष्णा सोबती के जीवन की यह सबसे भीषण दुर्घटना थी, जो उनके आँखों के सामने हुई। जिसे वह कभी भूल नहीं पाईं। 'टीलों ही टीलों' कहानी में रवि की इस मृत्यु की छवि को देख सकते हैं। सोबती के जीवन की अधिकांश घटनाएँ उनके बचपन से ही जुड़ी हैं।
स्मृतियों की सृजनात्मक दुनिया में दखल देने का यह सिलसिला अन्य जगहों पर भी है। कृष्णा जी की एक बहुत चर्चित कहानी है 'बादलों के घेरे' यह कहानी कृष्णा जी की शिमला की स्मृतियों के एक बहुत संवेदनशील हिस्से की उपज है। घुड़सवारी के दौरान चोटिल होने के बाद जब वे वहाँ हॉस्पिटलाइज हुई थीं। तब उन्होंने वहाँ हॉस्पिटल में ही 'नफीसा' को देखा था, जिसे हड्डियों की टीबी की बीमारी थी। यह घटना आगे चलकर अपनी तकलीफ़ से मुक्ति पाती है। 'बादलों के घेरे' नामक कहानी में। बकौल कृष्णा जी- "एक दिन मैंने एक बच्ची का खिला हुआ चेहरा देखा तो उसके पलंग की ओर बढ़ी। पास आकर पूछा, बेबी तुम्हारा नाम क्या है? उसने हँसकर कहा नफ़ीसा। मैंने काफी देर बाद नफ़ीसा शीर्षक से उसकी कहानी लिखी। मैंने शीला चोपड़ा से पूछा कि नफ़ीसा को क्या बीमारी है? उसने कहा इसे हड्डियों की टीबी हो गयी थी। ये सुनकर मेरी हिम्मत नहीं पड़ी कि मैडम से पूछूँ की क्या वो ठीक होकर अस्पताल से घर जा सकेगी। ये वो समय था जब टीबी को बड़ा खतरनाक रोग समझा जाता था। जाने क्यों इसने मुझे काफ़ी परेशान किया और मैने कई वर्षों बाद 'बादलों के घेरे' नाम से एक लंबी कहानी लिखी जिसे बहुत पाठकों ने पढ़ा और सराहा। ये कहानी पत्रिका में प्रकाशित हुई। संपादक थे भैरव प्रसाद गुप्त। उन दिनों कहानी पत्रिका का संचालन प्रेमचंद जी के पुत्र श्रीपत राय कर रहे थे।"6
दूसरी कहानी
'नफ़ीसा' उसके
और साथ-साथ
पुनः 'बादलों
के घेरे' की
बाबत स्मृतियों की उपस्थिति का प्रभाव लेखन पर देख लेना लाजमी होगा। कृष्णा जी ने इन दोनों कहानियों के
जन्म की कहानी कुछ बदले हुए ब्योरों के साथ दो-तीन
बार लिखी और बताई है। एक विवरण यह है:-
"मैं घोड़े से
गिरी थी और मेरी कमर में चोट थी। टहलने को जब कहा गया तो यही वार्ड सबसे नजदीक था।
एक नफ़ीसा... और
दो जुड़वा भाई। राम-श्याम,
चूड़ीवान
दिल्ली के, पीलिया
से पड़े थे। उनके लिए जू जू मंगवाकर दिए, पड़े-पड़े
घुमाते रहते।"
"मैंने
कुछ दिन पहले क्रेप पेपर के फूल बनाने सीखे थे। मैं हर रोज नया फूल बनाती और उसके कंबल
पर रख देती।"
"सरवर,
इसके
बाद मैंने कभी काग़ज़ के फूल नहीं बनाए।"
नफ़ीसा के गुजरने के बाद काग़ज़ के फूल विसर्जित हो गए। लेकिन कवियों को, मित्रों असली फूल देना जारी रहा।"7
उपर्युक्त विश्लेषण से हम एक बारीक समझ बना सकते हैं कि कृष्णा जी(अथवा किसी भी लेखक) के सृजन संसार में स्मृतियों का कितना महत्त्वपूर्ण प्रभाव है। दरअसल आधुनिक रचनाकारों और खासकर उपन्यास,कहानी के लेखकों और उसमें भी द्वितीय विश्व युद्ध एवं भारत की आज़ादी के बाद के लेखकों की सृजनात्मकता व लेखन में यथार्थवादी तत्त्व व दृष्टि ही सामने आई। यानी कि कही जा रही कहानी का जितना ज्यादा संबंध यथार्थ से है वह उतना ही लेखक की अनुभूतियों व स्मृतियों से जुड़ा हुआ है। उसे अब अभिव्यक्ति के लिए ब्रह्मांड व जीवन दार्शनिक तथा रहस्यात्मक सूत्र आकर्षित नहीं करते। कारण है कि आधुनिकता मूलतः मानव के इहलौकिक जीवन व उसकी समस्याओं को समझने व सुलझाने के प्रयासों के गर्भ से उपजी थी और इस क्रम में कथा व साहित्य की दुनिया ने भी अपनी अभिव्यक्ति के आयाम बदल दिए। कला व साहित्य की दुनिया की चीजें यथार्थ, अनुभव व इस क्रम में स्मृति की अनुगूँज होने लगी। हाँ! चूँकि 'कला' व 'जीवन' (यानी यथार्थ ही) न एकमएक हैं न हो सकते हैं, इसलिए अनुभूति व स्मृति के मूल ढाँचे पर कल्पना , रंजकता व अभिव्यक्ति कौशल के तत्त्वों का लेप चढ़ाकर उसे पठनीय व प्रस्तुति योग्य बनाया जाता है। इस तरह से देखें तो आधुनिक दौर की सृजनात्मकता की दुनिया में जो कुछ आधारभूत तत्त्व हैं उनमें 'स्मृति' व दूसरे शब्दों में कहें तो 'अनुभूति', क्योंकि 'अनुभूति' ही काल के विकास क्रम में 'स्मृति' बन जाती है, का सर्वाधिक महत्त्व है। और आधुनिक रचनाकार होने के कारण 'अनुभूति' व 'स्मृति' का कृष्णा सोबती के साहित्य में किस तरह से या कितना महत्त्व है यह हम पीछे के विश्लेषण क्रम में समझ सकते हैं।
इसी क्रम में रचनाकार, सृजनकर्ता में जो द्वंद्व परंपरा आधुनिकता, व्यक्ति-समाज, मूल्य व विघटन आदि को लेकर होती है।
"रचनाकार
मूल रूप से अपने समय और समाज से बद्ध होकर लेखन को अंजाम देता है। साथ ही अपने समय
का अतिक्रमण भी करता है तभी उसकी रचना कालजयी कहलाती है। इस द्वंद्वात्मक स्थिति के
मध्य रचनाकार को मानवीयता और मूल्यों की तलाश करनी पड़ती है। आधुनिकता और परंपरा के
द्वंद्व में कृष्णा सोबती को आधुनिकता पसंद है। आधुनिक जीवन के मूल्य उन्हें सदैव आकर्षित
करते रहे।"8
'लेखन क्या है?', 'सृजन क्या है?' यह उन सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण प्रश्नों में से है जिससे होकर हर एक कलाकार का व्यक्तित्व, वह कला व सृजना का ग्राहक व्यक्तित्व गुजरता है। आखिर किसी रचनाकार के लिखने की प्रक्रिया क्या होती है? लिखते वक़्त वह क्या सोच रहा होगा? किस तरह से सोच रहा होगा? यह सारे सवाल या इस तरह के और भी दूसरे तमाम सवाल हमसे सृजनशीलता के संदर्भ में टकराते होंगे। कृष्णा सोबती के संदर्भ में इन सवालों का जवाब खोजते हुए हम अब तक यह तो समझ चुके हैं कि उनके सृजन-संसार पर उनकी पृष्ठ-भूमियों का, उनके बीते जीवन का, उनकी स्मृतियों का, घर-परिवार से मिले उनके संस्कारों तथा उनके अपने 'स्त्री' होने का पर्याप्त प्रभाव है। 'अँधेरे' का जो एक खास महत्त्व उनकी रचना- प्रक्रिया में था उसे भी हमने देखने समझने की कोशिश की है कि किस तरह से अँधेरे से वे रहस्य के सूत्र पकड़ती हैं और रहस्य के सूत्रों के जरिए रात के प्रशांत नीरव वातावरण में- जब प्रायः कोई भी मानवीय हस्तक्षेप होने की संभावना नहीं रहती, सब कुछ एक स्वप्निल, शांत व मद्धम आयाम से होकर गुजर रहा होता है। तब रचनाकार कृष्णा सोबती अनुभूति, स्मृति व कुछ काल्पनिक तत्त्वों को लेकर रहस्य व अंधकार के विशाल समुद्र में अपनी यात्रा शुरु करती हैं। और एक नया संसार रचते हुए लौट आती हैं, पुनः दिन व वर्तमान की स्पर्शी-भौतिक दुनिया में।
"रात का अंधकार जब मेरे टेबल लैंप के रहस्य में आ सिमटता है, तो शब्द मुझे नए राग, नई लय और नई धुन में आ मिलते हैं।"9
इसके अलावा जीवन की पृष्ठभूमि व अपनी पूर्वजीय परंपरा या रक्त परंपरा से मिले संस्कार का लेखन पर जो प्रभाव हमने पीछे खोजने की कोशिश की थी। उसके विश्लेषण क्रम में हम 'जिंदगीनामा' नामक उनके प्रसिद्ध उपन्यास को ही यदि उदाहरण के तौर पर लें तो हम पाएँगे कि यह पूरा का पूरा उपन्यास पंजाब की उनकी जातीय संस्कृति, पूर्वजों के अनुभव तथा उन अनुभवों से आगे की पीढ़ी यानी स्वयं कृष्णा सोबती तक अवसरित स्मृतियों की पूरी-पूरी उपस्थिति एवं प्रभाव से निकला है। कृष्णा जी अपने परिवार से पाकिस्तान के 'गुजरात' नामक पंजाबी परिवार से उठकर विभाजन की स्थितियों की वजह से दिल्ली आई थीं। यानी कि अपनी जड़ों में व जातीयता में मूलतः वे पंजाबी भी और विभाजन की त्रासदी, उघाड़े जाने का दुःख जिस तरह से और जितना पंजाब ने सहन किया है उतना एक लेखक अर्थात संवेदशील मन का होने के नाते कृष्णा सोबती ने भी। उन्हीं तकलीफों और त्रासदियों को पीता व जीता हुआ व्यक्तित्व यानी स्वयं कथाकार कृष्णा सोबती अपनी सृजन क्षमता से पुनः वह दुनिया रचता है। जिससे उसे ही नहीं वरन पूरे पंजाब को उखाड़कर रख दिया गया। कृष्णा जी के लिए यह उपन्यास केवल कागज़ कलम उठाकर काल्पनिक संसार की रचना करना नहीं था। वरन उस पूरे लंबे, तीखे व दीर्घकालिक दुःख को पुनः जीना था। 'पंजाब','चन्ना', 'शाह-शाहजी', 'झेलम-चनाब' सब कोई सर्वे करने वाले रिपोर्ट के निष्प्राण तत्त्व नहीं थे बल्कि जिंदा जीवन के धड़कते हुए और लहुलुहान हिस्से थे।
"जिंदगीनामा को हाथ से लिखना-भर नहीं था। उसे तो जिंदगी की तरह जीना था। हुआ यह कि जमीन के एक सोंधे टुकड़े पर आँख टिक गई। हक तो था ही। कुछ चाहत थी। कुछ विरासत। बस खेत ले लिया। हदबंदी की। जमीन हमवार की। मिट्टी की किस्म देखी। सिंचाई की थाह मापी। बीज भरा। मौसम देख बुवाई शुरू कर दी। बीच में जो हो गुजरा, वह खेतिहर की मेहनत मुकद्दर और कुदरत की बरकत बक्शीश। बाकी फसल सामने है। अगर खूबी है तो धरती और बीज की कमी है तो वह अपनी छोटी तौफीक की।"10
इस प्रकार देख सकते हैं कि सृजनकार अपनी सृजन प्रक्रिया में अपने पूरे जीवन के उन सभी महत्त्वपूर्ण हिस्सों को लिए हुए चलता है, जो उसे अतीत में चेतना के गहरे स्तरों तक प्रभावित कर चुके होते हैं। वे सभी अनुभव, वे सभी स्मृतियां, वे सभी स्पंदन जो उसकी वर्तमान यानी सृजन करते समय की स्थिति-धड़कन तक में धड़क रहे होते हैं। उन सभी को इकट्ठा करके एवं मिलाकर वह अपना सृजन संसार खड़ा करता है। यहाँ स्मृतियां, अनुभूतियां, निजी जीवन की महत्त्वपूर्ण घटनाएँ, सामयिक इतिहास की महत्त्वपूर्ण घटनाएँ, उसकी भावनाएँ, पृष्ठभूमि, परंपरा व पूर्वजों से मिले संस्कार सब कुछ महत्त्वपूर्ण हो उठता है।
कृष्णा सोबती के यहाँ भाषाई विरासत की परंपरा बहुत समृद्ध है। पंजाबी, हिंदी और अंग्रेजी तो उनकी सिद्धहस्त भाषाएँ हैं ही। इसके अलावा उन्हें संस्कृत व उर्दू आदि भाषाओं की भी समझ अच्छी थी। इन बातों की ताकीद उनकी रचनाओं से की जा सकती है। 'जिंदगीनामा' उपन्यास उनकी पंजाबी भाषा से सप्राण स्पंदन का प्रत्यक्ष उदाहरण है। वैसे किसी भी लेखक के लिए भाषा का प्रश्न कम महत्त्वपूर्ण नहीं होता। भाषा का प्रश्न किसी लेखक के लिए वैसा ही है जैसे किसी योद्धा के लिए आयुध का प्रश्न। भाषा वह झीना आवरण होता है जो कथानक अर्थात 'वस्तु' और ‘कंटेंट' के कलेवर का रंग व मिजाज पाठक तक पहुँचने से पहले बदल देता है। एक लेखक अपनी भाषा पर उसी तरह काम करता है जैसे कोई फिल्मकार वी.एफ.एक्स. और सिनेमेटीग्राफी तथा सुंदर लैंडस्केपस व सीन्स के जरिए अपनी फिल्म पर। लेखक का अपनी भाषा से नियमित व नित नूतन होता हुआ संबंध होता भी है और होना भी चाहिए।
कृष्णा सोबती की भाषा पर बात चल रही हैऔर उनके लेखकीय बोल्डनेस की बात न हो तो बात अधूरी रह जाएगी। बोल्डनेस का आशय यहाँ उनकी चीजों के प्रति सहज अभिव्यक्त भाव व भाषा के कुंजवन में छुपकर रास न रचाने वाले बल्कि सामयिक वर्तमान व यथार्थ वाली स्पष्टता से है। 'ऐ लड़की' व 'मित्रो मरजानी' या 'सूरजमुखी अँधेरे में' के कुछ हिस्सों को टारगेट करके कृष्णा सोबती की भाषा पर काफी कीचड़ उछाला गया। जैनेंद्र सरीखे मूर्धन्य विद्वानों को कृष्णा सोबती की भाषा में 'सेक्स का जश्न' दिखाई देता है, जबकि यहाँ बात यह है कि यहाँ यह जश्न रचनाकार के यहाँ कम और देखने को लोलुप आँखों में ज्यादा है।
साहित्य में श्लीलता की और अश्लीलता की बहस बहुत पुरानी है और प्रायः हुआ यही है कि 'अश्लीलता' वस्तु की प्रस्तुति की शैली से ज्यादा भोक्ता के भीतर से भरभरा कर फूट रही होती है। वैसे तो असल में जो दिखने में ही फूहड़, भड़काऊ( न कि मादक अथवा आकर्षक या फिर सुंदर हो तथा सौंदर्य व रोमांस की बजाय विभत्सता व ऊबकाई पैदा करे वही मैटर अश्लील है। प्रायः यह भी होता है कि साहित्य में अश्लीलता के प्रश्न पर प्रगतिशीलता और भारतीयता की दावेदारी करने वाले एक साथ ही बड़े नज़र आते हैं। प्रगतिशीलता के दावेदार सामाजिकता की आड़ में तो भारतीयता के दावेदार संस्कृति की आड़ में खड़े होकर हवा में मुक्का चलाते रहते हैं।
"साहित्य में शील-अश्लील की बहसों का समय गुजर चुका है। फिर भी इतना कहना जरूरी है कि अश्लील सिर्फ सेक्स से ही संबंधित नहीं। हमारे सामाजिक लैंडस्केप में बेशुमार स्थितियाँ ऐसी हैं, जो 'शील' के दायरे से बाहर हैं। कूड़े की ढेर की तरह जो घर से निकाल बाहर फेंक दिया जाता है। हम पिछड़ों, निर्जनों, दलित और विजातियों के प्रति उदासीनता दिखाकर ऐसी ही ' अश्लीलता' को प्रकट कर रहे हैं।"11
इस प्रकार देखें तो कृष्णा जी की विस्तृत भाषाई क्षमता उसका दक्ष प्रयोग उनके संपूर्ण वाङ्गमय में फैला हुआ है। अलग-अलग रचनाओं के साथ-साथ उनका भाषाई कलेवर भी बदलता है और सफल भी रहता है। उनकी पृष्ठभूमि व जीवन संस्कार की बहुरंगी भाषा उनके संपूर्ण लेखन में अपनी सुंदरता के साथ उपस्थित है। भाषा कृष्णा सोबती के यहाँ कोई निष्प्राण वस्तु नहीं है बल्कि वह जीवंत एवं नियमित अस्तित्व है। भाषा के साथ कृष्णा सोबती का रिश्ता बहुत जीवंत व सक्रिय है।
कृष्णा सोबती की सृजनात्मकता पर बात करते हुए एक और बात पर खासा ध्यान जाता है कि उन्होंने कविता व नाटक इत्यादि विधाओं में लेखन नहीं किया, सृजन नहीं किया। यहाँ ध्यान देने की बात है कि 'जिंदगीनामा' में उन्होंने जगह-जगह गीत या कविताएँ रची हैं व सुंदर कविताएँ रची हैं। हालाँकि ! नाटक उन्होंने एक भी नहीं लिखे। इस बारे में कभी उन्होंने खुलकर बात भी नहीं की है परंतु कृष्णा सोबती ने कई बार, कई लोगों से कई अवसरों पर साफतौर से कहा है कि- "कविता लिखना उनकी सामर्थ्य से बाहर है।"12
अंततः संपूर्ण विश्लेषण को देखें तो कृष्णा सोबती जैसी बड़ी कथाकार को सृजनात्मकता और उनकी लेखकीय इतिमत्ता का एक संक्षिप्त स्वरूप हमारे मस्तिष्क में आकार लेता हुआ दिखाई देगा। सृजन की प्रेरणा, अनुभूति की तीव्रता, स्मृतियों की स्पंदना, भाषाई क्षमता, लेखन का अपना निजी तरीका(यथा- कृष्णा सोबती ने अँधेरे में या रात में सृजनकर्म में प्रवृत्त होने की अपनी आदत का जिक्र किया) विचारों का घटाटोप व लेखकीय मूल्यों का संवहन यह सभी वे महत्त्वपूर्ण व मार्केबल तत्त्व हैं जो कृष्णा सोबती के सृजन संसार में देदीप्यमान ग्रह-नक्षत्रों की भांति सुशोभित हो रहे हैं। सृजनकर्ता अपने इन तमाम माध्यमों अथवा तत्त्वों के जरिए अपनी कृतियां रचता है।कृष्णा सोबती की रचनाएं इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। कृष्णा सोबती की रचनात्मकता में निजता के आयाम का अपना खास किस्म का महत्त्व है। एक रचनाकार और ख़ासतौर से मौलिक रचनाकार कभी भी विचारधाराओं के झंडाबरदार, पार्टी के पैरोकार, संस्थाओं के प्रचारक अथवा बाजारु माँग के अनुसार लिखने वाला कभी नहीं होता। यदि वह ऐसा बनकर अवार्ड-जगत, धन-जगत, अकादमिक-जगत में सफल हो भी गया तो पाठकों के संसार में कभी भी स्वीकृत नहीं होगा। इसलिए कोई भी मौलिक रचनाकार सिर्फ और सिर्फ अपने विचारों-संवेदनाओं का वहन अपनी कृतियों में करता है और अपनी शैली में करता है। इस तरह से एक नए कलेवर की कृति जन्म लेती है। जो अपनी मौलिकता के कारण गहरी स्वीकृति भी पाती है। अपनी रचनात्मकता के तथा सृजनात्मकता के संदर्भ में कृष्णा सोबती ने जो विचार व्यक्त किए हैं उससे पूर्वोक्त बातों की पुष्टि होती है। इस वक्तव्य में उन्होंने बहुत हद तक स्पष्ट किया है कि उनके भीतर जो एक रचनात्मक ऊर्जा किस प्रकार से कार्य करती है, किस तरह से उनके भीतर का लेखक लेखन कर्म में प्रवृत्त होता है और एक सृजनकर्ता के सृजन में प्रवृत्त होने की शर्त क्या है?
"मैं किसी प्रेरणा या बाहरी दबाव से नहीं लिखती। मैं अपने समूचे होने में, रचकर, पैठकर जीने की तरह लिखती हूँ। उसी वक्त लिखती हूँ जब लिख डालने के सिवाय कोई चारा न रह जाए।"13
अपने कथन के आखिरी हिस्से में लिखने की जिस शर्त का जिक्र सोबती कर रही हैं, वही रचनात्मकता या रचनात्मक जगत् में प्रवेश की दरअसल पहली शर्त है। जर्मन विद्वान राझेर मारिया रिल्के ने भी यही कहा था कि- 'तभी लिखो जब तुम्हारे पास खुद को जीवित रखने के लिए अभिव्यक्त करने के लिए लिख डालने के अलावा कोई रास्ता न बचा हो।'
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-41, अप्रैल-जून 2022 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक एवं जितेन्द्र यादव, चित्रांकन : सत्या कुमारी (पटना)
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