हिंदी के ‘मैला आँचल’ और असमिया के ‘नोई बोई जाय’ आंचलिक उपन्यासों में अभिव्यक्त लोकगीतों का तुलनात्मक स्वरूप
- टिंकू छेत्री
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शोध सार : भारत भाषिक एवं सांस्कृतिक रूप से विविधता पूर्ण देश है। उत्तर भारत और पूर्वोत्तर भारत की संस्कृति में यह भिन्नता परिलक्षित होती है। हिंदी एवं असमिया दोनों भाषाओं का साहित्य विस्तृत हैं। दोनों की भाषाओं में आँचलिक उपन्यास लिखे गए हैं। प्रस्तुत शोध आलेख में फणीश्वरनाथ कृत ‘मैला आँचल’ और असमिया रचनाकार डॉ. लीला गोगोई कृत ‘नोई बोई जाय’ आँचलिक उपन्यास में अभिव्यक्त लोकगीतों का तुलनात्मक अध्ययन किया गया है। दोनों भिन्न क्षेत्र के रचनाकारों ने अपने परिवेश के आँचलिक स्वरूप को दर्शाने के लिए लोकगीतों का सहारा लिया है। दोनों ही उपन्यासों में संस्कार गीत, कृषि गीत, पर्व-त्यौहार गीत, बारहमासा गीत, लोरी गीत, विभिन्न उत्सवों के नृत्य आदि लोकगीतों का वर्णन हुआ है। प्रस्तुत शोध आलेख में इन लोकगीतों का तुलनात्मक अध्ययन किया गया है।
बीज शब्द : लोकगीत, समाज, संस्कृति, श्रम गीत, वेश-भूषा, ग्रामीण जीवन, रीति-रिवाज, आस्था, लोक विश्वास, पर्व त्यौहार, बिहू, विवाह गीत, नृत्य, परंपरा, होली, लोरी गीत आदि।
मूल आलेख : संस्कृति मानव जीवन का महत्वपूर्ण अंग है। मनुष्य की संस्कृति का स्वरूप उसकी आस्था-परंपरा, रहन-सहन, वेश-भूषा, लोकगीत-नृत्य, लोक विश्वास आदि में निहित होती है। संसार में विद्यमान प्रत्येक समाज की अपनी अलग-अलग संस्कृति होती है। मनुष्य को एक-दूसरे के साथ बाँधे रखने में यह संस्कृति महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। किसी भी समुदाय के सांस्कृतिक इतिहास को उसके परंपरा, आस्था, विश्वास, रीति-नीति आदि के माध्यम से जाना जा सकता है। मनुष्य के जीवन में संस्कृति महत्त्वपूर्ण संपदा है, जिसकी झलक उनके पर्व-त्योहार, अनुष्ठान, विवाह, धर्मीय अनुष्ठान में दिखाई पड़ती है। भारत बहुभाषी देश है। भारत की समृद्ध सांस्कृतिक परंपरा ने विश्व भर का ध्यान आकर्षित किया है। इसकी कला-संस्कृति प्राचीन काल से ही लोक साहित्य के रूप में सुरक्षित रही है। ‘लोक’ लोक साहित्य के अंतर्गत लोक कला, लोककथा, लोक गाथा, लोकगीत आदि आते हैं। लोक जीवन को दर्शाने में लोकगीतों की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। ये लोकगीत अपने-अपने क्षेत्र या अंचल का प्रतिनिधि करते हैं। भारतीय लोकगीतों के साथ आस्थाएँ और मान्यताएँ जुड़ी हुई हैं। लोकगीत पीढ़ी दर पीढ़ी विरासत में मिले है। लोकगीत के साथ सामान्य जन प्रत्यक्ष रूप से जुड़े होते हैं, जिन्हें एक व्यक्ति नहीं पूरा लोक समाज स्वीकारता है। वस्तुतः लोक समाज में प्रचलित, जन द्वारा रचित एवं लोक के लिए रचित गीतों को लोकगीत कहा जाता है। “मानव हृदय का भाव विलास अपनी उत्कट स्थिति में लयात्मक आरोहावारोहों में जब भाषा-बद्ध होकर प्रवाहित होने लगा तो शब्द-शास्त्रियों ने उसे गीत कहा और इसी गीत परंपरा की एक धार जब अपनी देशज बोलियों में (अपने घरेलू भाषा) लोक वाणी को प्रवाहित करने लगी तो उसे लोकगीत के नाम से ज्ञापित किया गया।”1
लोकगीत में सुख-दुःख, इतिहास से संबंधित घटना, पौराणिक कथा, आस्था, परंपरा आदि की झलक दिखलाई पड़ती है। मनुष्य लोकगीत के माध्यम से अपने अनुभूतियों को अभिव्यक्त करता है। लोकगीत में न केवल व्यक्ति बल्कि समाज भी प्रतिबिंबित होता है। लोकगीतों में सामान्य जन की भावनात्मक आधार भूमि जुड़ी हुई होती है। लोकगीत वास्तव में लोक जीवन की भावनाओं को जीवंत रूप में प्रस्तुत करती है। साहित्य जैसे समाज का दर्पण है वैसे ही लोकगीत लोक जीवन का दर्पण है। लोकगीत के संबंध में डॉ. पूरनचंद टंडन कहते हैं “सामान्य जन की विशेष परिस्थिति में, स्थल, कर्म, संस्कार, भाव-विचार आदि में सम्बद्ध अनुभूतियों की लयात्मक अभिव्यक्ति से ‘लोकगीतों’ का सृजन होता है। इसमें रीति-रिवाज, सुख-दुख, परम्पराएँ, घात-प्रतिघात, सामाजिक घटनाएँ सभी कुछ साहित्य रहता है। लोक-सभ्यता, आचार-विचार, ऋतु वर्णन, व्रत आदि का माहात्म्य, जाति-गीत, श्रम गीत, वीरता के गीत, पूजा के गीत, भक्ति एवं स्तुति के गीत इनमें शामिल रहते हैं। इन्हें लोक-अनुभूतियाँ की शेष एवं संगीतात्मक अभिव्यक्ति कहा जा सकता है।”2 लोकगीत की सबसे महत्त्वपूर्ण बात तो यह है कि इसकी लय में अद्भूत मिठास, संवेदना और मर्म भरा होता है। जिसे सुनने और पढ़ने के पश्चात व्यक्ति तादात्म्य स्थापन करके आनंद प्राप्त करता है। लोकगीत विविध प्रकार के होते हैं - संस्कार गीत, ऋतु गीत, व्यवसाय गीत, पर्व-त्योहार के गीत, धार्मिक गीत, लीला गीत, लोरी, बाल क्रीड़ा गीत आदि। “लोकगीत मात्र लोक-कंठ की ही पुकार नहीं होते, उनमें जातीय अस्मिता और सामूहिक अवचेतना का सच्चा बिम्ब भी होता है।”3 लोकगीतों के माध्यम से लोक की भावना व्यक्त होने के साथ उसमें जातीय भावनाओं की भी अभिव्यक्ति होती है।
हिंदी और असमिया दोनों भाषाओं के साहित्य में लोक जीवन का सजीव वर्णन हुआ है। फनीश्वरनाथ रेणु कृत ‘मैला आँचल’ और असमिया रचनाकार डॉ. लीला गोगोई कृत ‘नोई बोई जाय’ आंचलिक उपन्यासों में लोक जीवन का स्वरूप प्रमुखता से उभर कर आया है। रेणु के साहित्य में लोकजीवन अद्वितीय रूप में मुखरित हुआ है। उनका साहित्य जनमानस के बहुत ही करीब है। लोक जीवन के विशिष्ट संस्कृति को पहचान कर रेणु ने उसे साहित्य में उकेरने का सफल प्रयास किया है।
‘मैला आँचल’ हिंदी साहित्य का कालजयी उपन्यास है। इस उपन्यास में रचनाकार ने मेरीगंज प्रांत में रहनेवाले जनमानस के जीवन के विविध पक्षों को दर्शाने के लिए लोकगीतों का सहारा लिया है। रेणु ने ‘मैला आँचल’ उपन्यास में मेरीगंज क्षेत्र में गाये जाने वाले लोकगीतों की पंक्तियों का उपयोग कहीं वातावरण सृष्टि के लिए तो कहीं पात्रों के मनोभावों को व्यक्त करने के लिए बड़े सटीक ढंग में किया है। डॉ. गोपाल के शब्दों में – “हर काम के लिए अलग-अलग गीत और नृत्य ही ग्रामीणों के शोषण-जर्जर दुःख पूरित जीवन को संतुलन प्रदान करते हैं। हिंदी उपन्यास में ‘रेणु’ ने पहली बार इस यथार्थ को प्रभावी रूप में प्रस्तुत किया है।”4
ठीक इसी प्रकार डॉ. लीला गोगोई कृत ‘नोई बोई जाय’ उपन्यास में असमिया संस्कृति के विविध पहलुओं- सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक जीवन का विशद विवेचन विश्लेषण मिलता है। यह उपन्यास दिखऊ नदी के किनारे अवस्थिति सेंदुरीपाम गाँव को केंद्र में रखकर लिखा गया है।
‘मैला आँचल’ और ‘नोई बोई जाय’ दोनों उपन्यासों में विभिन्न अवसरों पर गाए जाने वाले गीतों की भरमार है। भारत कृषि प्रधान देश है। खेती के लिए वर्षा अत्यंत महत्वपूर्ण है। वर्षा ऋतु के समय खेत सूखा पड़ जाता है तो ग्रामीण महिलाएँ इंद्र देव को प्रसन्न करने के लिए ‘जट-जट्टिन’ का खेल खेलती हैं। जट्- जट्टिन पति-पत्नी है। जट से रूठ कर जट्टिन नैहर चली जाती है। जट्टिन बड़ी सुंदर थी उसकी चर्चा चारों ओर थी। इस संदर्भ में ‘मैला आँचल’ उपन्यास में यह गीत वर्णित है-
“सुनरी हमर जटिनियाँ हो बाबूजी,
पातरि बाँस के छौंकिनियाँ हो बाबूजी,
गोरी हमर जटिनियाँ हो बाबूजी,
चाननी रात के इँजोरिया हो बाबूजी !
नान्हीं-नान्हीं देंवता, पातर ठोरवा...
टके जैसन बिजलिया.....।”5
‘नोई बोई जाय’ उपन्यास में इंद्र देवता को रिझाने के लिए ‘भेकूलीरबिया’ (मेंढक की शादी) नामक पर्व मनाया जाता है। गर्मीं बढ़ने के साथ साथ खेत में पानी की कमी होने के कारण वर्षा होने के लिए इस प्रकार का पर्व मनाया जाता है। इस पर्व में गाने वाले लोक गीतों में –
भेकूलिर बिया लोई आहे इंद्रदेव
बताह बरखुनत तिति
स्वर्गर अपेसरी नामि आहिसे
भेकुलिर बिया खूनी।”6
अर्थात-हवा पानी में भीग कर इन्द्रदेव मेढ़क की शादी में आए हैं। साथ ही स्वर्ग की अप्सराएँ भी मेढ़क की शादी में शामिल होने के लिए आई हैं।
लोकगीत सामान्य जन का गीत है। इन गीतों के माध्यम से जीवन को दर्शाने के साथ-साथ आस-पास के परिवेश को भी अभिव्यक्त किया जाता है। उपन्यास में लोकगीतों के माध्यम से मेरीगंज अंचल की लोक संस्कृति को दर्शाया गया है। मेरीगंज अंचल में होली त्योहार बड़े ही हर्षो उल्लास के साथ मनाया जाता है। ग्रामीण जनों के जीवन में यह उत्सव संजीवनी का काम करता है। रंगों के साथ खेलने के अलावा ग्रामीण जन ढोल-ढाक, झाँझ-डम्फ लेकर गीत गा कर नाचते हैं। होली के समय मेरीगंज में ‘जोगीड़ा गीत’ बहुत प्रचलित है। इसके कुछ पंक्तियाँ –
जोगीड़ा सर..र र...
जोगीड़ा सर...र र..
जोगी जी ताल न टूटे
तीन ताल पर ढोलक बाजे।
टाक धिना धिन, धिलक तिलक
जोगी जी।”7
केवल इतना ही नहीं होली के गीतों में समकालीन युग-बोध भी झलकता है-
“होली है! कोई बुरा न मानो होली है !
बरसा में गड्ढे जब जाते है भर बेंग हजारों उसमें करते टर्र
वैसे ही राज आज कांग्रेस का है
लीडर बने हैं सभी कल के गीदड़....।”8
होली का पर्व मेरीगंज में बड़े ही आनंद के साथ मनाया जाता है। गरीब जन भी कुछ समय तक अपने दुःख-दर्द भूलाकर आनंद के साथ होली मनाते हैं। ‘जोगीड़ा’ लोकगीत की तरह ‘भड़ैवा’ गीत द्वारा तत्कालीन मेरीगंज की सामाजिक स्थिति को दर्शाने की चेष्टा की है। जो निम्नलिखित है-
“अरे हो बुड़बक बभना, अरे हो बुड़बक बभना,
चुम्मा लेवे में जात नहीं रे जाए।
सुपति-मउनियाँ लाए डोमनियाँ,
माँगे पियास से पनियाँ कुआँ के पानी न पाए बेचारी,
दौड़ल कमला के किनरियाँ सोही डोमनिया जब बनली नटनियाँ,
आँखी के मारे पिपनियों दिन भर पूजा पर आसन लगाके पोथी-पुरान बंचनियाँ
रात के तटमाटोली के गलियन में जोतखी जी पतरा गननियाँ भकुआ बभना,
चुम्मा लेवे में जात नहीं रे जाए।”9
“अतिकोई सेनेहर मुगारे महुरा
तातोकोई सेनेहर माको,
तातोकोई सेनेहर बहागर बिहूटि
नेपाती केनेकोई थाकु।”10
अर्थात- जो मूंगाका महुरा(assmese weaving tool mahura)है वह प्रिय है, उससे भी प्रिय माकु(a part of hand loom used to shuttle the thread), लेकिन इन सबसे से प्रिय बिहाग बिहू है और इसे बिना मनाया हम नहीं रह सकते हैं।)
साल में एक बार ही आता है बहाग बिहू। हुसोरी लम्बें समय तक गाना स्वाभाविक है। इन लोकगीतों के माध्यम से असमिया समाज, उनके रहन-सहन की अभिव्यक्ति होती है। मन के आवेग-अनुभूति को साल भर हुसोरी के लिए युवक-युवती संभालकर रखते है-
एपर दुपर करि निखा पारे ह’व
आमार बिहुत आमनि नाई
रातिर परे-परे फेंसाई कुरुलियाई
आमार बिहुत भांगुन नाई।”11
अर्थात्- क्षण-प्रति क्षण करते-करते रात्रि कट जाएगी। हमारे हुसोरी गीत में आलस्य भाव नहीं है। चाहे रात्रि उल्लू भी आवाज देने लगे हमारे हुसोरी समाप्त नहीं होगा।
हुसोरी समाप्त होने के पश्चात बिहू नाम गाते हैं। जैसे-
“एटा बाटित नहरू एटा बाटित पनरू
एटा बाटित खूतरा शाक,
मुरर सुलि सिगी आशीर्वाद करिसू
गृहस्थ कुखले थाक।”12
अर्थात्- यहाँ हुसोरी दल घर बड़े बुजुर्ग को हार्दिक रूप से आशीष देते हैं।
‘मैला आँचल’ में डॉ. प्रशांत विदापत नाच के बारे में सोचता है - “विद्यापति की चर्चा होते ही कविवर ‘दिनकर’ का एक प्रश्न बरबस सामने आकर खड़ा हो जाता था – “विद्यापति कवि के गान कहाँ ? बहुत दिनों बाद मन में उलझे हुए उस प्रश्न का जवाब दिया – जिंदगी भर बेगारी खटनेवाले, अनपढ़, गवार और अर्धनग्नों में कवि! तुम्हारे विद्यापति के गान हमारी टूटी झोंपड़िया में जिंदगी के मधुरस बरसा रहे हैं। अरे कवि ! तुम्हारी कविता ने मचलकर एक दिन कहा था – चलो कवि, बनफुलों की ओर।”13
‘मैला आँचल’ उपन्यास में मेरीगंज गाँव में होने वाले नृत्यों का सजीव चित्रण प्रस्तुत हुआ है। उपन्यास में शामियाना तान दिया जाता है –
“धिनागि धिन्न, तिरनागि तिला
धिनक धिनता तिटकत ग-ड-ध।
आहे चलहु सखि सुखधाम, चलहू
आहे कन्हैया जहाँ सुखधाम, चलहू
राम रचाओ हे ! चलहू हे चलहू
धिन्ना तिन्ना ना धि धिन्ना।”14
इस प्रकार के ढोल के ताल पर नृत्य का वर्णन ‘नोई बोई जाय’ उपन्यास में भी हुआ है। विवाह घर का पंडाल हो या बिहू का मंच जब ढोलक ढोल बजता है तो लोग अपने आपको नहीं रोक पाते है और उसके ताल के साथ ताल मिलाकर थिरकने लगते है। ‘नोई बोई जाय’ उपन्यास में ढोल के ताल पर इसी प्रकार के नृत्य करने का उल्लेख है-
“घिनि टिघेन् इघेन् दाऊँ घिन दाऊँ खित् दाऊँ
दाऊँ कुरु कुरु दाऊँ कुरु कुरु दाऊँ दाऊँ
घिनि टिघेन्......दाऊँ दाऊँ
दाऊँ कुरु कुरु......
इदि दाऊँ कुरु कुरु दाऊँ दाऊँ..।”15
बारहमासा के लोकगीतों का उल्लेख दोनों ही उपन्यासों में मिलता है। ‘मैला आँचल’ उपन्यास में रेणु फागुन महीने के बंसती रंग का वर्णन करते हैं। बंसत महीने में नव विवाहित स्त्री के व्याकुलता से संबंधित गवना गीत गाये जाते हैं-
“अरे फागुन मास रे गवना मोरा होइल
कि पहिरू बसंती रंग हे,
बाट चलैत-आ के शिया सँभारि बांहू,
अंचरा हे पवन झेरे हे ए एए।”16
‘नोई बोई जाय’ उपन्यास में भी बिहू के आगमन के संदर्भ में बारहमासा के गीत गाये जाते हैं। चैत्य महीने के अंत और वैशाख महीने के आगमन से विभिन्न प्रकार के फूल खिलने लगे हैं। बूढ़े भी इस आनंद में गीत गाने और नाचने से स्वयं को नहीं रोक पाते हैं। बहाग बिहू में युवक-युवतियाँ आनंद से झूम उठते हैं और ढोलक की आवाज सुनते ही शरीर अपने आप नाच उठता है-
“चते गई गई बहागे पालेहि
फुलिले भेबेलि लता ;
कोईनो के थाकिले उरके नपरे
रंगाली बिहूरे कथा।”18
अर्थात्- चैत महीने की समाप्ति के बाद बैशाख महीना आ गया है और भेबेलिलता (गंधप्रसारणी) फूल खिल चुका है। बोलने पर भी समाप्त नहीं होती रंगाली बिहू की कथा।
प्रेम, विरह की व्याकुलता के लोकगीत दोनों ही उपन्यासों में मिलता है। मैला आँचल में वर्णित ‘भउजिया का गीत’ मिथिला अंचल का प्रचलित लोकगीत है। फणीश्वरनाथ रेणु ने सड़क पर जा रहे गाड़ीवानों के माध्यम से उपन्यास में भउजिया गीत को व्यक्त किया है –
“चढली जवानी मोरा अंग अंग फड़के से
कब होइ रे गवना हमार रे भउजिया।”19
दूसरी ओर ‘नोई बोई जाय’ उपन्यास के नायक भगीरथ फुकन अपनी प्रेमिका सुवागी से अब तक प्रेम की बात नहीं कह पाया है, परंतु गीतों के माध्यम से सुवागी के प्रति अपना प्रेम-समर्पण आदि को दर्शाता है। भगीरथ फुकन जब भी सुवागी को नदी किनारे देखता हैं और व्याकुल होकर अपनी मन की भावना गीतों के माध्यम से बोल देता है-
“तुमार घर खिपारे आमार घर इपारे
माजत बरतानि हाबि
खरि खुकुवादि खुकालूँ लाहरी
तुक दिने राति भाबि।”20
अर्थात् – तुम्हारा घर इस पार है और मेरा घर उस पार है, दोनों के बीच एक विशाल जंगल है जिस कारण हम दोनों मिल नहीं पा रहे हैं। इस विरह की अग्नि में जलकर प्रियतमा मैं सूखी लकड़ी के समान हो गया हूँ।
लोकगीत में संस्कार गीत का विशेष महत्त्व है। किसी भी समाज विशेष की संस्कृति में जन्म, मृत्यु, विवाह आदि से संबंधित अनुष्ठानों को महत्त्वपूर्ण माना जाता है। असमिया समाज में इस प्रकार के लोक गीतों की प्रधानताहै। भगीरथ फुकन के बेटे सोन की शादी में जब उसे दुल्हे की पोषाक पहनाकर तैयार करते समय गाँव की बूढी महिलायें इस प्रकार गीत गाती हैं –
“जुकारि पिंधिले पाटरे सुरिया
माके आसिल साई,
एईनु ठाने-गढ़े मूर बूपाई बरने
असमर देशते नाई।”21
अर्थात् - दूल्हे की पोषक में माँ अपने पुत्र को एकटक देखती रह जाती है, और उनको लगता है कि उनके पुत्र के समान रूपवान पूरे असम में कोई नहीं है।
मैला आँचल उपन्यास में भी विवाह संबंधी गीत का वर्णन हुआ है। यहाँ विवाह गीत में शिवजी पार्वती के पिता की टोकरी भर शिकायत करते हैं-
“एक बेर गेलीं गौरा तोहारो नैहरवा से,
बइठे ले दलक पुआर
कोदो के खिचुड़ी रंधाओल मैना सासू...!”22
विवाह, उत्सव-त्योहार के अलावा भी दैनंदिन जीवन में कुछ विशेष प्रकार के गीत असमिया समाज में प्रचलित है। लोरी गीत इनमें से एक है। माँ या दादी अपने बच्चों को जल्दी सूलाने के लिए या उनका ध्यान आकर्षित करने के लिए, या रोना बंद कराने के लिए लोरी गा कर सुनाती है। गाँव- से लेकर देश-विदेश तक में किसी न किसी रूप में लोरी की परंपरा रही है। भाषा, शब्द और उनका अर्थ भले ही भिन्न हो परंतु माँ के दिल से निकले भाव सभी में एक समान है। ‘नोई बोई जाय’ उपन्यास में भगीरथ फुकन की माँ अपनी पोती को सुलाने के लिए इस प्रकार लोरी गाती है -
“जुनवाई ए, एटि तरा दिया
एटि तरा नालागेदूटि तरा दिया
पात नाई सूत नाई
किहतकोई दिम।”23
अर्थात् - चंदा मामा एक तारा दे दीजिए, एक तारा नहीं चाहिए दो तारा दो, तुम्हें देने के लिए कुछ नहीं है किसमें मैं दूँ।
निष्कर्ष : निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि हिंदी के ‘मैला आँचल’ और असमिया के ‘नोई बोई जाय’ आँचलिक उपन्यास में लोक गीतों की भरमार है। इन लोक गीतों में दो भिन्न क्षेत्रों के समाज और संस्कृति को स्पष्ट देखा जा सकता है। ‘मैला आँचल’ उपन्यास में होली के अवसर पर आपसी भेद-भाव को त्यागकर लोग आनंद के साथ नाच-गान करते हैं। होली के गीतों के माध्यम से ग्रामीण जनों में उत्सव का माहौल पैदा होता है। गरीब ग्रामीण जन भी कुछ समय के लिए इस माहौल में अपने दुःख दर्द भूलकर आनंद मनाते हैं। दूसरी ओर ‘नोई बोई जाय’ उपन्यास में असमिया समाज में मनाने वाले बिहू का विस्तृत उल्लेख किया गया है। रचनाकार बिहू में गाने वाले लोकगीत एवं लोकनृत्य के माध्यम से असमिया संस्कृति की झलक प्रस्तुत करते हैं। इसके साथ ही विवाह में गाने वाले पारंपरिक गीतों के साथ लोरी गीतों का भी उल्लेख मिलता है। बिहू में जिस प्रकार लोकनृत्य का उल्लेख ‘नोई बोई जाय’ उपन्यास में किया गया है उसी प्रकार ‘मैला आँचल’ में विदापत नाच का उल्लेख किया गया है। यौवन के गीतों का उल्लेख भी दोनों उपन्यासों में हुआ है।
संदर्भ :
1. विद्या चौहान: लोकगीत की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि, प्रगति प्रकाशन, आगर (उ.प्र.), 1972 ई., पृ-73
2. संपा. डॉ. सुरेश गौतम,आलेख- डॉ. पूरनचंदटंडन : भारतीय लोक साहित्य कोश, भाग-1, संजय प्रकाशन, दिल्ली, 2010 ई., पृ.- 395
3. कृष्णदत्त पालीवाल: जनसत्ता रविवार अक्टूबर, 1989 ई., लेख- भूले बिसरे रामनरेश त्रिपाठी, पृ.-6
4. लेख-मैला आँचल चंदन भी कीचड़ भी,
समीक्षा, अंक- 3, अक्टूबर-दिसंबर 1988 ई., पृ.-29
5. फनीश्वरनाथ रेणु : मैला आँचल,
राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2014 ई., पृ.-133
6. डॉ. लीला गोगोई: नोई बोई जाय,
वनलता प्रकाशन,डिब्रूगढ़ (असम), 2017 ई., पृ.-158
7. फनीश्वरनाथ रेणु : मैला आँचल,
राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2014 ई., पृ.- 92
8. वही,
पृ.- 92-93
9. वही,पृ.- 50
10. डॉ. लीला गोगोई: नोई बोई जाय,
वनलता प्रकाशन,डिब्रूगढ़ (असम), 2017 ई., पृ.-77
11. वही,पृ.- 72
12. वही,
पृ.- 73
13. फनीश्वरनाथ रेणु : मैला आँचल,
राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2014 ई., पृ.-61-62
14. वही,पृ.- 58-59
15. डॉ. लीला गोगोई: नोई बोई जाय,
वनलता प्रकाशन,डिब्रूगढ़ (असम), 2017 ई., पृ.- 228
16. फनीश्वरनाथ रेणु : मैला आँचल,
राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2014 ई., पृ.- 50
17. डॉ. लीला गोगोई: नोई बोई जाय,
वनलता प्रकाशन,डिब्रूगढ़ (असम), 2017 ई., पृ.- 72
18. फनीश्वरनाथ रेणु : मैला आँचल,
राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2014 ई., पृ.-50
19. डॉ. लीला गोगोई: नोई बोई जाय,
वनलता प्रकाशन,डिब्रूगढ़ (असम), 2017 ई., पृ.- 12
20. वही,
पृ.- 232-233
21. फनीश्वरनाथ रेणु : मैला आँचल,
राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2014 ई., पृ.-157
22. डॉ. लीला गोगोई: नोई बोई जाय,
वनलता प्रकाशन,डिब्रूगढ़ (असम), 2017 ई., पृ.- 143
टिंकू छेत्री
शोध छात्रा, हिंदी विभाग, पूर्वोत्तर पर्वतीय विश्वविद्यालय, शिलांग, मेघालय
tinkuchetry175@gmail.com, 9864746307
शोध छात्रा, हिंदी विभाग, पूर्वोत्तर पर्वतीय विश्वविद्यालय, शिलांग, मेघालय
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अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) फणीश्वर नाथ रेणु विशेषांक, अंक-42, जून 2022, UGC Care Listed Issue
अतिथि सम्पादक : मनीष रंजन
सम्पादन सहयोग : प्रवीण कुमार जोशी, मोहम्मद हुसैन डायर, मैना शर्मा और अभिनव सरोवा चित्रांकन : मीनाक्षी झा बनर्जी(पटना)
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