- प्रो.सुधाकर शेंडगे
शोध सार : कोई भी लेखक अपने युग और परिवेश को रेखांकित करने का यत्न करता है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि रेणु एक सशक्त आंचलिक कथाकार हैं, परंतु आंचलिकता की परिधि में ही उनकी अधिक चर्चा की गयी है हालांकि वे एक प्रगतिशील, प्रतिबद्ध भारतीय लेखक हैं। फणीश्वर नाथ रेणु के कथाओं के केंद्र में गाँव है। उनके गाँव भारतीयता के प्रतीक के रूप में चित्रित किए गये हैं। गाँव की वर्ण व्यवस्था, जातिगत राजनीति को वे यथार्थ रूप में प्रस्तुत करते हैं। लोकतांत्रिक व्यवस्था से लोगों का मोहभंग हो गया है, इसलिए उनको ‘ये आजादी झूठी है' का एहसास होता है। भारतीयता का यथार्थवादी चित्रण रेणु की सबसे बड़ी विशेषता है। मठ, मंदिर, आश्रम के नाम पर हो रहा शोषण, राजनीतिक तिकड़मबाजी का पर्दाफाश करना, आम लोगों के प्रश्न उठाना, देश और समाज का चरित्र निर्माण करना ही रेणु का उद्देश्य रहा है। फणीश्वर नाथ रेणु हिंदी कथा साहित्य के मूर्धन्य हस्ताक्षर ही नहीं, बल्कि एक प्रगतिशील और प्रतिबद्ध लेखक हैं। प्रस्तुत आलेख इन्हीं बातों को रेखांकित करता है।
बीज शब्द : भारतीयता, आंचलिक, प्रगतिशील, प्रतिबद्ध, वर्ण वर्चस्ववाद, साझा संस्कृति, आजादी, तिकड़मबाजी, यथार्थवादी, चरित्र, सामाजिक विषमता, धार्मिक शोषण, ग्रामवासिनी, परिवर्तनशील।
मूल आलेख : लेखक अपने युग और परिवेश को अपने शब्दों में बांधने का प्रयास अवश्य करता है। रेणु का जन्म बिहार राज्य के मैथिल अंचल में हुआ है। इसी अंचल विशेष का चित्रण उनके कथा साहित्य में देखने को मिलता है। संभवतः पहली बार किसी लेखक ने एक अंचल की सभ्यता, संस्कृति, लोकजीवन और उस क्षेत्र के प्रश्नों को अत्यंत सार्थकता के साथ वाणी दी है। इसी कारण आंचलिक उपन्यासकार के रूप में ही उनको स्थापित किया गया है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि रेणु एक सशक्त आंचलिक कथाकार हैं, परंतु आंचलिकता की परिधि में ही उनकी अधिक चर्चा की गयी है जब कि वे एक प्रगतिशील, प्रतिबद्ध भारतीय लेखक हैं।
भारतीयता का प्रतीक गाँव : फणीश्वरनाथ रेणु के कथा साहित्य का मूल केंद्र गाँव है। वे खुद 'औराही हिंगना' जैसे छोटे गाँव में जन्मे, पले-बढ़े हैं। गाँव का लोकजीवन, गाँव की संस्कृति, प्रथा-परंपराएं, श्रद्धा-अंधश्रद्धाएं, रहन-सहन, गीत-संगीत आदि को अत्यंत बारीकी से उन्होंने देखा है, अनुभव किया है। लेखक में अपना समय पढ़ने की दृष्टि होनी चाहिए और वह निश्चित रूप से फणीश्वरनाथ रेणु के पास है। इसीलिए रेणु की कथाओं में गाँवों के नाम काल्पनिक नहीं है, बल्कि मेरीगंज, सिमराहा, परानपुर, इस्लामपुर, गोडीचर, नबीनगर जैसे गाँव उनकी जन्मभूमि के इर्द-गिर्द बसे हुए गाँव हैं, इन्हीं गाँवों की कथा वे हमें सुनाते हैं। रेणु के गाँव अपने अंचल के पिछड़ेपन के प्रतीक हैं। "रेणु ने इसी कारण उपन्यास की भूमिका में स्पष्ट कर दिया है कि 'मेरीगंज' अपने अंचल के पिछड़े गाँव का प्रतीक है।"1 महात्मा गांधी ने भी यह देश गाँवों का देश है, इसलिए ‘गाँव की ओर चलो’ का नारा दिया था। उनका मानना था कि जब तक गाँवों का विकास नहीं होगा तब तक देश का विकास नहीं हो सकता। “गांधी जी ने तो पहले ही देश का मुँह गाँव की ओर मोड़ना चाहा था। स्वाधीनता के बाद जब जनतांत्रिक व्यवस्था पर बल दिया गया तब जनमत का महत्त्व बढ़ गया। यह देश मुख्यत: गाँवों का ही है और सरकार की निर्मिति में गाँवों की अहम भूमिका होती है।”2 इस बात को रेणु भी बखूबी जानते थे। इसीलिए उन्होंने गाँव को केंद्र में रखकर ही अपनी कथाओं का तानाबाना बुना।
रेणु भले ही मिथिला अंचल के प्रतिनिधि हैं,
परंतु उनकी जन्मभूमि बंगाल और नेपाल के निकट है। उनकी रचनाओं में इन प्रदेशों का प्रभाव देखा जा सकता है। उनके 'जुलूस' की नायिका बंगाली है तो 'परती : परिकथा' का पात्र दिलबहादुर नेपाली है। भारत की तरह लेखक का अंचल भी साझा संस्कृति से युक्त है। गाँव का चित्रण करते समय लेखक जानता है कि 'मेरा गाँव ही मेरा देश' है। गाँव की तस्वीर ही एक अर्थ से देश की तस्वीर होती है।
गाँव का वर्ण वर्चस्ववाद : विद्वानों का मानना है गाँव पर सबसे अधिक हावी होता है,
वर्ण वर्चस्ववाद। वैसे तो मूलतः चार ही वर्ण माने जाते हैं, लेकिन एक ही वर्ण के लोग कई खेमों में बंटे हुए नजर आते हैं। इसलिए लेखक बताते हैं,
"मेरीगंज एक बड़ा गाँव है बारहों बरन के लोग रहते हैं"3 लेकिन गाँव की व्यवस्था में वर्चस्व केवल उन्हीं लोगों का होता है जो ऊंची जातियों से होते हैं। मेरीगंज के संबंध में लेखक लिखते हैं, "अब गाँव में तीन प्रमुख दल है, कायस्थ, राजपूत और यादव। ब्राह्मण लोग अभी भी तृतीय शक्ति है।"4 जातिवाद और वर्ण वर्चस्ववाद गाँव को लगी सबसे बड़ी घूण है ऐसा रेणु को लगता है। जातिवादी व्यवस्था से रेणु को घृणा है। अतः वे उसे मिटाने का संदेश देते हैं। 'मैला आंचल' में सब लोग डॉ. प्रशांत की असली जाति जानना चाहते हैं, पर लेखक यह संदेश देते हैं कि 'उसकी असली जाति डॉक्टर है'। हिंदू-मुस्लिम दंगों से बालदेव व्यथित है। उसे लगता है अंधेरा हो गया। एकदम सब पगला गये हैं। उसे सुराजी कीर्तन की पंक्तियां याद आती है- "अरे चमके मंदिरवा में चांद मस्जिदवा में बंसी बजे"5 ये बातें रेणु गाँव साझा संस्कृति को बचाना चाहते हैं, इसे स्पष्ट करती हैं। शायद इसीलिए ही उनके उपन्यासों में अंतरजातीय ही नहीं, बल्कि आंतरधर्मीय विवाह का महत्त्वपूर्ण संदेश दिया गया है। 'जुलूस' में भी यह संदेश है कि "चूल्हे में जाय जाति, गुण से बढ़कर क्या जाति ही है।"6 उनके 'परती : परिकथा' की मलारी महिचन चमार की बेटी है। वह मिडल पास करके गाँव के स्कूल में मास्टरनी बन गयी है। यह बात 'गुण तो सभी में होते हैं लेकिन मौका सभी को नहीं मिलता' को ही रेखांकित करती है। फणीश्वरनाथ रेणु केवल जातिवाद, धर्मवाद के साथ-साथ प्रांतवाद के भी विरोधी है। बंगाली, बिहारियों के बीच प्रांतीयता की भावना किस प्रकार थी, इस संबंध में 'जुलूस' में लिखा गया है कि "दोष केवल बंगालियों का नहीं है, प्रांतीयता की भावना बिहारियों में भी है। वे गोडीचर गाँव के लोग नबीनगर को पाकिस्तानी टोला कहते हैं। पाकिस्तान से निष्कासित इन बंगालियों को स्थानीय लोग बंगाली-कंगाली कहते हैं।"7
ये आजादी झूठी है : देश स्वतंत्र तो हो गया,
परंतु वह सुराज नहीं आया जिसका सपना दिखाया गया था। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी गाँवों में कोई परिवर्तन नहीं आया। गाँव में गंदगी है, पीने का स्वच्छ पानी नहीं है, इस कारण लोग हैजा, मलेरिया के शिकार होते हैं, लेकिन गाँव में अस्पताल नहीं है। मलेरिया सेंटर खुल रहा है, पर लोगों का विरोध है, क्योंकि लोगों के मन में अंधविश्वास भरा हुआ है। देश में जब तक समाजवाद स्थापित नहीं होगा तब तक सुराज आने की कतिपय संभावना नहीं है, इस बात को रेणु बहुत अच्छी तरह से जानते हैं। इसलिए लेखक स्वयं 15 अगस्त, 1947 की स्वतंत्रता को सच्ची स्वतंत्रता नहीं मानते। यही कारण है कि मेरीगंज में जो स्वराज उत्सव मनाया जा रहा है, उसमें एक समाजवादी कार्यकर्ता नारा लगाता है- "यह आजादी झूठी है, देश की जनता भूखी है।"8
राजनीतिक व्यवस्था का भंडाफोड़ : स्वतंत्रता संग्राम से ही गाँव राजनीति का शिकार होते आए हैं। आज की स्थिति में कोई भी गाँव राजनीति से मुक्त नहीं है। सुराज न आने का एक कारण यह भी है कि जिस कांग्रेस के भरोसे जनता ने सपना देखा था,
वह कांग्रेस तहसीलदार विश्वनाथप्रसाद जैसे जमीदारों को सत्ता का भागीदार बनाएगी तो सत्ता में परिवर्तन कहां से आयेगा। उनके लगभग सभी उपन्यासों में भारतीय राजनीति का खुलकर चित्रण किया गया है। मैला आंचल का बावनदास कांग्रेसी है, कालीचरण कम्युनिस्ट है, लेकिन वे स्वयं समाजवादी है। इसलिए मैला आंचल में यह संदेश भी आता है कि, "जमीन किसकी? जोतने वालों की! जो जोतेगा वह बोएगा, जो बोएगा वह काटेगा। कमानेवाला खाएगा, इसके चलते जो कुछ हो"9 इस बात के माध्यम से लेखक गाँव के किसानों की ओर ध्यान खींचना चाहते हैं जिनका निरंतर जमींदारों ने शोषण किया है।
यथार्थवादी चरित्रांकन : राजनीति के प्रति रेणु के मन में अतिरिक्त मोह नहीं है, लेकिन घिनौनी राजनीति की उन्होंने घोर निंदा की है। जातिवादी, धर्मवादी, प्रांतवादी राजनीति से उन्हें घृणा है। उनका मानना है कि जातिवादी दीमक मनुष्य की संवेदनशीलता को ही खा डालती है। सांप्रदायिकता का जहर फैलाने वाली पार्टियों की वे धज्जियां उड़ाते हैं। वे हिंदू-मुस्लिम के नाम पर की जाने वाली राजनीति की पोलखोल करते हैं और गाँव देश की साझा संस्कृति को बनाये रखने की अपील भी करते हैं। राजनीति में सक्रिय आदर्श नेताओं के चरित्र भी उन्होंने समाज के सामने रखे हैं। इनमें गांधी महात्मा से लेकर जवाहरलाल नेहरू, सुभाषचंद्र बोस, बाबू राजेंद्रप्रसाद आदि का खुलकर चित्रण किया गया है। रेणु ने गाँव का जैसा है वैसे ही चरित्र चित्रण किया हैं, उसी प्रकार चुन्नीदास, कामरूपनारायण सिंह जैसे वास्तविक जीवन के पात्र उठाकर अपनी कथाओं को यथार्थ रूप देने की भरसक कोशिश की है।“ रेणु ने अपने आंचलिक उपन्यासों में अंचल विशेष के उपेक्षित जीवन की समस्त छवि जैसे कुरूपता, विवशता, और संभावना को अत्यधिक मानवीय सूक्ष्मता के साथ रूपायित किया है। इन उपन्यासों में कई बिखरी हुई कथाएं मिलती है जिनको एक सूत्र में पिरोकर बड़ी सावधानी के साथ उनको प्रस्तुत किया गया है, जिससे अंचल-विशेष की अच्छाई-बुराई, नैतिकता-अनैतिकता, धार्मिक-अधार्मिक प्रवृत्ति आदि का यथार्थ रूप पाठकों के सामने आ जाता है।”10 प्रतिबद्ध लेखक की यह सबसे बड़ी पहचान होती है कि पहले वह समाजवादी हो, उसके बाद यथार्थवादी। सामाजिक समता का सूत्रपात करनेवाला मार्क्सवादी भी हो सकाता है, परंतु वह किसी भी हालत में समझौतावादी नहीं होता। यही कारण है कि रेणु किसी भी कहानी या उपन्यास में व्यक्तिवादी नजर नहीं आएंगे। संभवतः आंचलिक उपन्यास का सूत्रपात भी इसी कारण किया होगा कि आंचलिक उपन्यासों के केंद्र में समाज होता है, व्यक्ति नहीं। "आंचलिक उपन्यास में प्रचलित दृष्टिकोण के अनुसार कोई नायक नहीं होता। वस्तुतः इस प्रकार के उपन्यासों का नायक समाज होता है, व्यक्ति विशेष नहीं।"11
लाचार, बेबस लोगों के हिमायती : सामाजिक विषमता को उन्होंने कई उपन्यासों में उकेरा है। घास-पत्ती खाकर जीवन यापन करनेवाले आदिवासियों को गाँव के तथाकथित लोगों ने कभी गाँव का हिस्सा बनने नहीं दिया। संथाल और गाँववालों का संघर्ष ‘मैला आंचल’ में सुंदरता के साथ चित्रित किया गया है। ऊंची जातियों के जमींदार लोग छोड़ दिये जाए तो बाकी सभी लोग गरीब, लाचार और बेबस है, इसीलिए भंडारा या भोज गाँववालों के लिए बहुत मायने रखता है। भूख के कारण ही रमपियरिया को दासिन बनने पर मजबूर कर दिया है। भूख ही जवान बेटी को दुधारू गाय बनाती है। मेरीगंज के सभी गरीब किसी-न-किसी के कर्जदार है। सादे कागज पर अंगूठा लगवाकर उनका शोषण किया जाता है। ब्याज दुगना या तिगुना वसूला जाता है। यहाँ का हर आदमी गरीब है, लाचार है। डॉ.प्रशांत के शब्दों में- "यहां इंसान है ही कहाँ। सभी तो जानवरों की हालत में अपनी जिंदगी बिता रहे हैं। उसने सोचा कि पहले इन जानवरों को इंसान बनाना होगा। इनके रोगों की असली जड़ तो गरीबी और जहालत है।"12
धार्मिक शोषण का यथार्थ चित्रण : आम जनता अनपढ़ और गंवार है, इसीलिए उनमें अंधविश्वास भी फैला हुआ है। भूत-प्रेत की कहानियों से लेकर डॉक्टर ही मलेरिया-हैजा रोग फैलाते हैं, अंग्रेजी दवा में गाय का खून मिला हुआ होता है। इसलिए मलेरिया सेंटर खुलने के बाद भी लोग डॉक्टर और मलेरिया सेंटर से दूर भागते हुए नजर आते हैं। धार्मिक शोषण, गाँव की धार्मिक गतिविधियों के केंद्र मंदिर और मठ होते हैं। देश की जितनी पूंजी है, उससे कई गुना ज्यादा पूंजी मठ-मंदिरों में कैद है। धर्म के नाम स्थापित हुए मठ कैसे व्यभिचार के केंद्र बन गए हैं और देखते-देखते इंडस्ट्री के रूप में कैसे तब्दील हो गए हैं, किसी को पता भी नहीं चला। अनेक संत-महंत कहे जानेवाले मठाधीश आज जेल की सलाखों के पीछे बंद है। उनकी रासलीलाएं कैसे व्यभिचार की श्रृंखलाएं बन गयी हैं, यह भी लोगों ने देखा है। फणीश्वरनाथ रेणु ने 1950 के आस-पास इस मठ परंपरा की धज्जियां उड़ाई है। ऐसा व्यवस्था का विरोध करने के लिए और निडर बनकर यथावत यथार्थ समाज के सामने रखने के लिए बड़ी हिम्मत चाहिए जो रेणु के पास है।
'मैला आंचल' में चित्रित मठ की बहुत बड़ी संपत्ति है। लेखक लिखते हैं- "नौ सौ बीघे की काश्तकारी। कलमी आम का बाग। दस बीघे में सिर्फ केला ही लगा हुआ है।...दो कौड़ी गाय, चार गुजराती भैंस और सबसे कीमती संपत्ति - अमूल धन-लछमी दासिन।"13 मठ का महंत सेवादास लछमी को दासिन बनाने के लिए किस प्रकार मुकादमेबाजी लड़ता है और 'लछमी हमारे बेटी की तरह होगी' का आश्वासन देकर लछमी के लिए किस प्रकार लार टपकाता है, इस बात को सुंदरता से चित्रित किया गया है। मठाधीश बनने के लिए रामदास और लरसिंघदास में चल रही रस्साकस्सी, रामदास ने पहले गुरुमाई लछमी पर कब्जा करना चाहा और बाद में रमपिरिया को दासिन बना लिया और उसके बदले में उसकी जातवालों को मठ का भोज खिला दिया। ये बातें तथाकथित मठाधीशों की धज्जियां उड़ाते हैं। मठों में चल रही व्याभिचारी वृत्ति और तिकड़मबाजियों के संबंध में रेणु एक सार्थक टिप्पणी करते हैं- "ऊपर बाबाजी, भीतर दगाबाजी।"14 ये पंक्तियां मठ के नाम पर हो रहे धार्मिक शोषण का पर्दाफाश करती है।
प्रतिबद्ध भारतीय लेखक : गाँव के हर आदमी को अपनी मिट्टी से लगाव होता है। रेणु तो भारतमाता को ग्रामवासिनी ही कहते हैं। 'धूल भरा मैला-सा आंचल' लेखक अपने अक्षरों से साफ करना चाहता है। इस भारत भू के ग्रामों में वे प्यार की खेती करना चाहते हैं, स्वराज्य को सुराज्य में तब्दील करना चाहते हैं। उनके सभी उपन्यास स्वातंत्र्य, समता, बंधुता इन मूल्यों की ही मांग करते हुए नजर आते हैं। रेणु सामाजिक कार्यकर्ता भी है और लेखक भी। सामाजिक घनिष्ठता रेणु की बड़ी विशेषता है। इस संबंध में नागार्जुन लिखते हैं,”कथाकार फणीश्वरनाथ रेणु घनी बुनावट और विविध छवियां उरेहने के लिहाज से सर्वथा अपूर्व शब्द शिल्पी थे। रेणु के यहां न तो कथा-सामग्री का टोटा था न शैलियों के नमुनों का अकाल। सामाजिक घनिष्ठता रेणु को कभी गुफानिबध्द नहीं होने देती थी।“15 फणीश्वरनाथ रेणु कोई काल्पनिक कहानी या उपन्यास लिखकर नाम कमानेवाले, पुरस्कार पानेवाले लेखक नहीं है। वे जयप्रकाश नारायण जैसे समाजवादी कार्यकर्ता के शिष्य हैं। समाजवाद उनमें कूट-कूट कर भरा हुआ है। “रेणु के जीवन की अंतरंग कथा से परिचित होकर हमें यह अभिमान होता है कि हिंदी का यह लेखक कितना अद्भुत है, कितना अपूर्व है, कितना विराट है, कितना पारदर्शी है और कितना मानवीय एवं संवेदनशील है।”16 उनमें समाज को परिवर्तनशील, प्रगतिशील बनाने की दृष्टि है। इसीलिए ही उनकी रचनाएं निरंतर प्रांसगिक बनी हुई हैं। यथार्थ ही उनके लेखन की आधारशीला है। भारतमाता ग्रामवासिनी की समस्त पीड़ा-यातनाओं को समझनेवाले एक सशक्त और प्रतिबद्ध लेखक हैं। फणीश्वरनाथ रेणु एक ऐसे भारतीय लेखक हैं जो विचारों से विवेकी तथा प्रगतिशील हैं,
अपने देश और समाज के प्रति प्रतिबद्ध हैं और निरंतर प्रांसगिक बनें हुए हैं।
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) फणीश्वर नाथ रेणु विशेषांक, अंक-42, जून 2022, UGC Care Listed Issue
अतिथि सम्पादक : मनीष रंजन
सम्पादन सहयोग : प्रवीण कुमार जोशी, मोहम्मद हुसैन डायर, मैना शर्मा और अभिनव सरोवा चित्रांकन : मीनाक्षी झा बनर्जी(पटना)
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