- डॉ. प्रमोद कुमार द्विवेदी
शोध सार : हिंदी साहित्य में फणीश्वरनाथ रेणु एक बड़े रचनाकार के रूप में समादृत हैं। साहित्य-जगत में उनकी प्रतिष्ठा का मूल आधर उनका कथा-साहित्य है। लेकिन रेणु कथा-साहित्य के साथ-साथ कई अन्य विधओं में भी सृजनरत रहे जिनमें एक विध ‘कविता’ भी है, जिसकी ओर हिंदी आलोचना एवं शोध् का ध्यान संभवतः सबसे कम गया है। एक तथ्य यह भी है कि संख्या की दृष्टि से उन्होंने कम ही कविताओं की रचना की है। किन्तु, अपने सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक सरोकारों एवं काव्य-शिल्प की उत्कृष्टता के कारण रेणु का काव्यकर्म भी महत्त्वपूर्ण दिखायी देता है और उनका अनुशीलन करते हुए हम पाते हैं कि उनमें एक देशभक्त, आमजन पक्षधर कवि-मन उपस्थित है। उनकी कविता अपने समय के सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक यथार्थ की पहचान करती है और तमाम आमजन विरोधी एवं मनुष्यता-विरोधी शक्तियों एवं स्थितियों के प्रति रचनात्मक प्रतिरोध् भी दर्ज करती है। ऐसा करते हुए रेणु काव्य-शिल्प के ध्रातल पर सामान्य जन-व्यवहार की भाषा को रचनात्मक आभा प्रदान करते दिखायी देते हैं।
बीज शब्द : रेणु, कवि, कविता, काव्यकर्म, आमजन।
मूल आलेख : हिंदी के सुप्रशिद्ध कथाकार फणीश्वरनाथ रेणु एक कवि भी हैं, इस बात की चर्चा हिंदी आलोचना संसार में बहुत ही कम, या कहे तो नहीं के बराबर हुई है। बड़े रचनाकारों के साथ ऐसा अक्सर होता है कि उनके द्वारा सृजित विभिन्न विधओं में कुछ विधओं की चमक इतनी ज्यादा होती है कि उसकी तीव्रता में उनके द्वारा सृजित अन्य विधओं की रचनाएँ अनदेखी-सी रह जाती हैं। रेणु की कविताएँ भी ऐसी ही स्थिति का शिकार हुई हैं और वे हिंदी आलोचना में वंचित-सी दिखायी देती हैं। रेणु जैसा बड़ा रचनाकार यदि कविता भी लिखता है तो हमारा ध्यान उस ओर भी जाना चाहिए और यही प्रेरणा हमें रेणु की कविताओं के अनुशीलन की ओर ले जाती है।
यदि हम संख्या के धरातल पर देखें तो रेणु ने कम ही कविताओं की रचना की है। लेकिन संख्या की दृष्टि से सीमित होते हुए भी उनके काव्यकर्म का कैनवास बड़ा है जिसके भीतर व्यापक सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक सरोकार समाहित हैं।
रेणु में काव्य-प्रतिभा बचपन से ही मौजूद थी। संभवतः उनकी पहली कविता का जन्म स्कूली दिनों में हुआ था। भारत यायावर ने रेणु की जीवनी ‘रेणुः एक जीवनी’ में इस संदर्भ में एक घटना का जिक्र किया है। रेणु कई बार अपने गाँव चले जाने या इध्र-उध्र घूमने के कारण अपनी कक्षा में अनुपस्थित रहते थे। इसका वर्णन करते हुए भारत यायावर ने लिखा है,
“एक बार उनके अंग्रेजी शिक्षक ने पूछा-तुम कल स्कूल क्यों नहीं आए थे?”
रेणु ने इसका उत्तर तुकबंदी में दिया। यह तुकबंदी अंग्रेजी और हिंदी के मिश्रण से तैयार की गयी थी और अनोखी थी। इस तुकबन्दी में उनकी बहानेबाज़ी कितनी मासूमियत से प्रकट हुई थी,
यह देखने लायक है।
पैर फिसल गया, गिर गये हम
देअरफोर सर¬!
इसे सुन कर उनके अंग्रेजी शिक्षक खिलखिला कर हँस पड़े थे। उन्होंने रेणु से कहा,
‘इसे फिर से सुनाओ! रेणु ने फिर से सुनाया। उनके शिक्षक ने कहा, वाह! वाटर रेनिंग झमाझम! खूब कहा।”1
यह वर्णन दर्शाता है कि रेणु के भीतर काव्यसर्जना के बीज बचपन में ही पड़ चुके थे जो समय के साथ विकसित होता गया। रेणु के काव्य-कर्म की प्रकृति, सरोकारों एवं उसके महत्त्व को समझना ही इस शोधलेख का उद्देश्य है।
रेणु की आरंभिक कविताओं में एक महत्त्वपूर्ण कविता है ‘होली’। आजादी से दो वर्ष पूर्व 1945 में उन्होंने यह कविता लिखी थी। यह दौर देश की पराथीनता का दौर था। यदि हम उस दौर की हिंदी कविता पर दृष्टिपात करें तो पराधीनता की व्यथा, उससे मुक्ति की छटपटाहट और उससे संघर्ष की चेतना उसमें दिखाई देती है। रेणु की इस कविता में भी पराधीनता का दंश उपस्थित है। लेकिन परंपरानुरूप यह कविता उल्लास और खुशी की आकांक्षा से भरी हुई है,
सुख से हँसना जी भर गाना-मस्ती से मन को बहलाना
पर्व हो गया आज-/साजन होली आई है!/हँसाने हमको आई है!
इसी बहाने/क्षण भर गा लें/दुःखमय जीवन को बहला लें,
उपर्युक्त पंक्तियों में तमाम विपरीत परिस्थितियों में भी कुछ क्षणों के लिए उल्लास मना लेने की बात रेणु ने कही है। यह जिजीविषा और जीवंतता भारतीय जीवन-परंपरा का मूल स्वर है जिसे रेणु भी प्रस्तावित करते हैं। वस्तुतः यह रेणु के संपूर्ण रचनाकर्म का विशिष्ट गुणध्र्म है। तमाम अमानवीय स्थितियों के बीच भी मानवता का उल्लास उनकी रचनाओं में लगातार दिखाई देता है।
रेणु के कविकर्म पर दृष्टिपात करने पर हम पाते हैं कि उनका कवि-मन एक छोर पर निराला के काव्य-व्यक्तित्व से प्रेरणा पाता नजर आता है तो दूसरे छोर पर राष्ट्रकवि दिनकर से। रेणु ने 1946 ई. में एक कविता की रचना ‘नूतन वर्षाभिनंदन’ शीर्षक से की थी। इस कविता में कवि रेणु की आकांक्षा यही है कि भारतीय जन-मन पराधीनता के बंधनों से मुक्त हो और उसके जीवन में नवीन प्रकाश की आभा फैल जाए। यह कविता ब्रिटिश साम्राज्यवाद द्वारा दलित भारतीय जनमानस में स्वातंत्रय-चेतना के बीज भरने का रचनात्मक प्रयत्न थी। इस कविता की कुछ पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं,
शुद्ध स्वतंत्रा वायुमंडल में/निर्मल तन, निर्भय मन हो!
प्रेम-पुलकमय जन-जन हो/नूतन का अभिनंदन हो!”3
“वर दे, वीणावादिनि वर दे।
प्रिय स्वतंत्रा-रव अमृत-मंत्रा नव
भारत में भर दे!
काट अंध-उर के बंधन-स्तर
बहा जननि, ज्यातिर्मय निर्झर,
जगमग जग कर दे!”4
वस्तुतः रेणु के कविकर्म का अवगाहन करने पर हम पाते हैं कि उसका प्रेरणा-स्रोत आम भारतीय जनजीवन था,
न कि कोई आन्दोलन विशेष। इसलिए उनकी कविता प्रगतिवाद, प्रयोगवाद या नई कविता के खाँचे में फिट नहीं बैठती। रेणु ने जब काव्य-लेखन आरंभ किया था तो हिंदी कविता में प्रगतिवाद की धर मंद पड़ने लगी थी, 1943 ई में अज्ञेय द्वारा संपादित ‘तारसप्तक’ के बाद प्रयोगवादी कविता उभार पर थी और फिर 1951 में प्रकाशित ‘दूसरा सप्तक’ के बाद नई कविता आन्दोलन का प्रादुर्भाव हुआ था। लेकिन रेणु इन काव्यान्दोलनों से विलग अपनी तरह की कविताएँ लिख रहे थे जिसे हम साहित्य-परंपरा से जोड़ने का प्रयत्न करें तो वे निराला और प्रेमचंद के साहित्य में उपस्थित उस समाजिकता के स्वर से जुड़ती हैं जो सामाजिक विषमताओं को चिंतित करने और उसके खिलाफ प्रतिकार का स्वर पैदा करने का काम कर रही थीं। रेणु को यह उम्मीद थी कि ब्रिटिश पराधीनता से मुक्ति के बाद उस सूर्य का उदय होगा जो सामाजिक विषमताओें के अंध्कार को अपने प्रकाश से विलीन कर देगा। रेणु इसी सूर्य को बार-बार ‘सुराज’ के नाम से संबोध्ति करते हैं।
15 अगस्त, 1947 मे स्वतंत्राता की प्राप्ति का उत्साह कई अन्य कवियों की तरह रेणु के यहाँ भी है। वस्तुतः यह उस समय का एक सामान्य भाव था और लगभग हर रचनाकार आशा, उमंग और आस्था से युक्त नव-रोमांटिक भाव-भूमि का शिकार हुआ। इसी मनोभूमि में रेणु लिखते हैं,
पराधीनता-पाप-पंकिल घुले!
मुझे तुम मिले!
रहा सूर्य स्वातंत्रय का हो उदय!
हआ कर्मपथ पूर्ण आलोकमय!
युगो के घुले आज बंधन खुले!
मुझे तुम मिले!”5
वस्तुतः उस समय के रचनाकार पंडित जवाहरलाल नेहरू के लोकतांत्रिक मूल्यों एवं आशावादी दृष्टिकोण के प्रति आकर्षित एवं सम्मोहित थे। पंडित नेहरू ने 14 अगस्त, 1947 की रात्रि में अपने अविस्मरणीय संबोधन में कहा था, ”वर्षों पहले हमने किस्मत के साथ बाजी लगाई थी, और अब समय आ गया है कि हम अपनी प्रतिज्ञा को, पूरी न सही, काफी हद तक पूरा करें। मध्यरात्रि में जब सारी दुनिया सो रही होगी, भारत नया जीवन और स्वतंत्रता लेकर जागेगा। एक क्षण, जो इतिहास में विरले ही आता है, ऐसा होता है जब हम पुरातन से नूतन की ओर जाते हैं, जब एक युग समाप्त हो जाता है, और जब किसी राष्ट्र की बहुत दिनों से दबी आत्मा को वाणी मिल जाती है। यह उपयुक्त है कि हम इस पवित्र क्षण में भारत तथा उसकी जनता की सेवा, और उससे भी अधिक बड़े मानवता के उद्देश्य की पूर्ति के लिए अपने आप को अर्पित करें....आज हम एक दुर्भाग्यपूर्ण अवधि को समाप्त कर रहे हैं और भारत को अपने महत्त्व का फिर एक बार अहसास हो रहा है।“6
किन्तु, यथार्थ भूमि पर नेहरू द्वारा प्रस्तावित उपर्युक्त आशावाद क्षणिक साबित हुआ। स्वाधीनता के बाद भी शासन-व्यवस्था का स्वरूप और चरित्रा पहले की तरह ही बना रहा। लोकतंत्रा के मुखौटे में साम्राज्यवादी शासन-व्यवस्था पूरी ताकत के साथ मौजूद दिखाई पड़ी। जनता दमन और शोषण का शिकार होती रही। रजनी पामदत्त ने इस संबंध् में लिखा है, “साम्राज्यवाद के पुराने शासन-तंत्रा को ज्यों का त्यों अपना लिया गया था, वही नौकरशाही थी, वे ही अदालतें थीं, वही पुलिस थी, और दमन के तरीके भी वही थे। निहत्थी जनता पर पुलिस अब भी पहले की तरह ही गोली चलाती थी, लाठी-चार्ज करती थी। अब भी पहले ही तरह की सभा पर रोक लगायी जाती थी, अखबार बंद किये जाते थे, लोगों को बिना मुकदमा जेलों में बंद किया जाता था, मजदूर यूनियनों और किसान संगठनों का दमन किया जाता था और जेलों में हजारों उग्रवादी राजनीतिक कार्यकत्र्ता भरे हुए थे। भारत में साम्राज्यवाद के आर्थिक हितों की, उसकी पूंजी की, उसकी अतुलित संपत्ति की बड़ी वपफादारी के साथ रक्षा की जाती थी, और साम्राज्यवादी शोषण का चक्र अबाध् गति से घूम रहा था।”7 इस स्थिति को रेणु ने भी लक्षित किया और इसके लिए सत्ता को उत्तरदायी माना। उन्होंने अपने क्षोभ को व्यक्त करते हुए लिखा,
नेहरू रोपत पियाज
जमींदरवन के पीठ ठोकि के पोसे
पटेल सरदार।” 8
इस तरह स्वतंत्राता-प्राप्ति के कुछ ही वर्षो में कई अन्य बुद्धिजीवियों और साहित्यकारों की तरह रेणु में भी मोहभंग उत्पन्न हुआ। इसलिए वे अपनी कविता ‘खड्गहस्त’ में लिखते हैं,
भीख नहीं हम माँग रहे हैं, अब अपना अधिकार!
श्रमबल और दिमाग खपावें/तुम भोगो हम भिक्षा पावें,
मुँह की रोटी मन की रानी, छीन बने सरदार!
दे दो हमें अन्न मुट्ठी भर, औ थोड़ा सा प्यार!”9
वस्तुतः रेणु एक ऐसे रचनाकार हैं जो हमेशा समाज में उपेक्षित, वंचित, हाशिए पर स्थित लोगों के साथ खड़े दिखायी देते हैं। स्वतंत्राता के बाद भी इन लोगों की स्थिति में अपरिवर्तन उन्हें निराश करता है। अपनी निराशा को अभिव्यक्त करते हुए और ऐसी अपूर्ण आजादी को अस्वीकार करते हुए वे लिखते हैं, “यह कैसा स्वप्नभंग है? यह कैसी छलना है? कलाइयों और पैरों में बेड़ियाँ मौजूद हैं। अपने अंग-अंग पर बंधनों को देखकर हम कैसे विश्वास कर लें कि हम स्वतंत्रा हैं। सुराज हुआ है जरूर, लेकिन वह हमारे लिए नहीं हुआ है। वह सुराज हुआ है बिड़लाओं के लिए, टाटाओं के लिए। यह जनता का सुराज नहीं है। महाभारत छिड़ा हआ है। दरिद्रता, भूख और रोगों से मरने वाले एक-एक प्राणी को आज हम ‘शहीद’ कहते हैं। क्यों दुश्मनों के इन शास्त्रों से जूझने वाले, मरने वाले वीरों को हम वर्ग-संघर्ष में लड़ने वाला सिपाही समझते हैं। इस भ्रष्टाचार के आलम में घुल-घुलकर मरने से अच्छा है एक बार कुछ करना या करते-करते मर जाना।”10
आम जनता को सुराज का स्वप्न दिखाकर सत्ता स्वयं के लिए सुखसाज की व्यवस्था करती है,
रेणु राजनीति के इस चरित्रा को बखूबी पहचान चुके थे। वे समझ चुके थे कि राजनेता अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए तमाम तरह के हथकण्डों का इस्तेमाल करते हैं। रेणु राजनीति के इस जनविरोधी चरित्र के विरुद्ध आम जनता के पक्ष में खड़े होते हैं। इसके लिए वे किसी राजनीतिक प्रतिबद्धता का भी आश्रय नहीं लेते। वे कहते हैं, “मैं प्रतिबद्धता का केवल एक अर्थ समझता हूँ-आदमी के प्रति प्रतिबद्धताएँ। बाकी सब बकवास है। अंततः झण्डे और टोपी लेखक का विषय नहीं बन सकते, लेखक का विषय है-मनुष्य।”11 अपनी इसी प्रतिबद्धता के अंतर्गत वे सत्तापक्ष के स्वार्थी चरित्रा को व्यंग्यात्मक शैली में अनावृत करते हुए लिखते हैं,
तीसरी रात में मोटर मारा, जिनगी सुपफल हमारी। जोगी जी स--र--र--र।
बाप हमारा पुलिस सिपाही, बेटा है पटवारी।
हाल साल में बना सुराजी, तीनों पुस्त सुधरी। जोगी जी स--र--र--र।
चच्चा मेरा कंट्रोल की चोर दुकान चलाता।
मैं लीडर हूँ खादीधरी, अंगुली कौन उठाता। जोगी जी स--र--र--र।
कांग्रेस की करो चाकरी योग्य सदस्य बनाओ।
परमपूज्य का ले परवाना, खुलकर मौज उड़ाओ। जोगी जी स--र--र--र।
खादी पहनो चाँदी काटो, रहे हाथ में झोली।
दिनदहाड़े करो डकैती, बोल सुदेशी बोली। जोगी जी स--र--र--र।”12
रेणु की कविता मनुष्य विरोधी स्थितियों की पहचान करते निराशा का शिकार नहीं होती। स्वतंत्रता के बाद अपने एवं उच्च वर्गों के हितों की पूर्ति करती भारतीय राजनीति को लक्षित कर रेणु का कवि-मन आशाहीनता के अंधकार में नहीं रह पाता और वे इन स्थितियों पर व्यंग्यात्मक चोट तो करते ही हैं,
साथ ही सुराज की उम्मीद भी नहीं छोड़ते,
अरे एतना जुलुम जानि करू रावन, फेरू होइहैं राम के राज।
जनता के नामें गद्दी चढ़ बैठे, झूठन के सरताज।
गांधी के सत्य अहिंसा रोए, रोवत राम के राज। अरे एतना जुलुम जानि--
भूखी नंगी जनता रोवे नेहरू रोपत पियाज।
जमींदरवन के पीठ ठोकि के, पोसें पटेल सरदार। अरे एतना जुलुम जानि--
गाँव-गाँव में जनमत निशिदिन नव कंगरेसिया चुहाड़
गाँव उजाड़ि के चोरवा बसावै चुगलन के दरबार। अरे एतना जुलुम जानि।”13
रेणु लोकतंत्रा के मूल्यों के प्रति सचेत कवि हैं। सांप्रदायिकता किसी भी लोकतंत्र के लिए बड़ा खतरा होती है। धर्मिक संकीर्णता और उग्रता लोकतंत्र में सेंध लगाती है और मानवीय मूल्यों को भी तार-तार कर देती है। स्वतंत्रता-प्राप्ति के पूर्व यह धरणा थी कि स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद इस समस्या को हल कर लिया जाएगा। किन्तु ऐसा नहीं हुआ और आजादी के बाद सांप्रदायिकता नए रूप में सामने आ खड़ी हुई। अवसरवादी राजनीति ने इसमें सत्ता तक पहुँचने का रास्ता देखा और उसने सांप्रदायिक उन्माद को बढ़ावा दिया। उन्मादी सांप्रदायिकता पर व्यथित और चिंतित रेणु लिखते हैं,
हमल के बोझ ढोती औरतों पर
खिलौनों सी अबोली बच्चियों
गली बाजार सड़क नुक्कड़ों पर
ध्रम का मुँह काला किया
ध्रम परस्तों ने
हमल चीर नन्हों को निकाल
नचाया भांके कर भाला
लगाकर कौम का नारा
हर-हर बम। अल्लाह हो अकबर।”14
रेणु का कवि-मन ऐसी घोर प्रतिमानवीय सांप्रदायिक शक्तियों के सामने भी हार नहीं मानता और इनका सामना करने के संकल्प से युक्त दिखाई देता है। उनके इस संकल्प को उनकी कविता ‘अपने जिले की मिट्टी से’ में देखा जा सकता है,
लहू का एक भी कतरा/किसी असहाय बेबस का
किसी मासूम बच्चे का/बिला घर-बार लोगों का
तिरंगे की कसम/रक्षा करेंगे हम/माँ-बहनों की पाक अस्मत
तुम्हारे जिस्म पर पड़ने नहीं देंगे/कदम नापाक उन फिरकापरस्तों का!”15
रेणु की कविताओं में स्वातंत्रयोत्तर विद्रूपताओं के प्रति जो चिंता और चिंतन मौजूद है, वह उनके देशभक्त हृदय का परिणाम है। रेणु के इस देशभक्त मानस के निर्माण में उनके सक्रिय सामाजिक-राजनीतिक जीवन का भी हाथ रहा। आजादी के पहले उनका जुड़ाव भारतीय स्वाधीनता-आन्दोलन से रहा। सातवीं कक्षा का छात्रा रहते हुए ही उन्होंने अपनी पहली जेल-यात्रा की। उन्हें चौदह दिनों की जेल हुई। जेल में भी उनकी देश-भक्ति जारी रही। भारत यायावर ने इसका वर्णन करते हुए लिखा है, “इन चौदह दिनों की जेल में ही जेल-प्रशासन को काफी परेशानी उठानी पड़ी। सुबह होते ही इन छात्रों के कौमी नारे गूँजने लगते। फिर भजन शुरू होता। रेणु भजन की एक पंक्ति बोलते, फिर सभी छात्रा दोहराते-
अब जेल तुम्हें भरना होगा
सत्याग्रह के समरक्षेत्रा में
आ-आकर डटना होगा
शूर लड़ाके मर्दाने हो
पैर हटाना कभी नहीं
मरते-मरते माता का
अब करज अदा करना होगा
गीत से एक समाँ बंध् जाता। पूरे जेल में इन छात्रों की आवाज गूँजती रहती।”16
भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन में छात्रा-जीवन से ही भाग लेने के बाद रेणु ने 1950 में नेपाली क्रांतिकारी आन्दोलन में भी भाग लिया था। बाद में वे जयप्रकाश नारायण के संपूर्ण क्रांति आन्दोलन का भी महत्त्वपूर्ण हिस्सा रहे थे। 1971 के भारत-पाक युग के समय उन्होंने कई देशभक्ति पूर्ण कविताएँ लिखीं। एक कविता की कुछ पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं-
माँ के हम लायक बेटे
अंध्कार से भय पाएँगे?
हम कहीं नहीं जा पाएँगे।
अपने पवित्रा रक्त की उसी नदी में
माँ को नहलाएँगे
पवित्रा बनाएँगे,
रेणु सत्य और अहिंसा को कमजोरी समझने वाले शत्रुओं को भी अगाह करते हैं कि यह देश भगवान शिव का देश है और किसी भी अमानवीय ताकत को कुचलने में सक्षम है,
कौन है यह जो हमारे साथ/करना चाहता है पैर?
नहीं ये जानते हैं/मूरखों के दल,
रेणु में जो जागरण और देशभक्ति का स्वर दिखाई देता है,
उस पर निराला और दिनकर का गहरा प्रभाव रहा है। जब दिनकर की मृत्यु हुई तो अंत्येष्टि स्थल से लौटकर रेणु ने एक कविता लिखी, “अपनी ज्वाला से ज्वलित आप जो जीवन’। रेणु दिनकर की पहचान एक ऐसे समर्थ और सशक्त कवि के रूप में करते है जिसमें जनमानस को झकझोरने का विवेक और ओज था। वे लिखते हैं,
हमें अग्निस्नान कराकर
पापमुक्त खरा बनाया/पल विपल हम अवरूद्ध जले,
हमें झकझोर कर तुमने जगाया था
वह आया सचमुच एक हाथ परशु
और दूसरे में कुश लेकर किंतु...
तुम ही रूठकर चले गए।”19
रेणु इस कविता में इस बात पर संतोष भी प्रकट करते हैं कि वे आज के समय को देखने से बच गए,
तो पता नहीं और क्या-क्या होता
पता नहीं, अब तक क्या-क्या हो जाता
और तब तुमको पफास्स्टि और चीनी
और अमेरिकी और देसी सेठों की दलाली
और देशद्रोह के जुर्म में
निश्चय ही देश से बाहर निकाल दिया जाता।”20
अपनी काव्य-संवेदना को रूप प्रदान करने के लिए रेणु सामान्य जनव्यवहार की भाषा को अपनाते हैं। आँचलिकता रेणु के संपूर्ण रचनाकर्म का विशिष्ट गुणधर्म है और यह उनकी कविताओं में भी उपस्थित है। सहजता और खरापन उनके काव्य-शिल्प का स्वभाव है।
समग्रतः कविता की भूमि पर भी रेणु एक महत्त्वपूर्ण रचनाकार के रूप में दिखायी देते हैं। देशभक्ति और आमजन की पक्षधरता उनकी कविता का मूल स्वर है। आमजन विरोधी शक्तियों एवं षड़यंत्रों के प्रति सजगता और उनका प्रतिरोध् उनकी कविताओं में मौजूद है जो उन्हें हिंदी कविता के उल्लेखनीय कवि के रूप में प्रतिष्ठित करता है।
1. भारत यायावर : रेणु एक जीवनी, सेतु प्रकाशन, दिल्ली, पृ. 153-154
एसोसिएट प्रोपेफसर, हिन्दी विभाग श्यामलाल महाविद्यालय ;सांध्यद्ध, दिल्ली विश्वविद्यालय
9818303888
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) फणीश्वर नाथ रेणु विशेषांक, अंक-42, जून 2022, UGC Care Listed Issue
अतिथि सम्पादक : मनीष रंजन
सम्पादन सहयोग : प्रवीण कुमार जोशी, मोहम्मद हुसैन डायर, मैना शर्मा और अभिनव सरोवा चित्रांकन : मीनाक्षी झा बनर्जी(पटना)
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