शोध आलेख :- स्त्री लेखन की परंपरा, स्त्री विमर्श से पहले - ज्योति

स्त्री लेखन की परंपरा, स्त्री विमर्श से पहले
- ज्योति

 
शोध-सार : वर्तमान समय में पिछले कुछ दशकों से हिंदी साहित्य के अंतर्गत कई विचारधाराओं ने साहित्य के केंद्र में स्थान बनाया, अर्थात् एक बड़े विमर्श के रूप में उपस्थित हुई हैं। जिसमें दलित विमर्श, आदिवासी विमर्श, स्त्री विमर्श आदि थे। स्त्री विमर्श आज हिंदी साहित्य के अंतर्गत एक बड़े रूप में उपस्थित है। हो भी क्यों न, समाज के आधे हिस्से के पूरे-पूरे अधिकार की बात थी। ऐसे में एक प्रश्न खड़ा हुआ (स्त्री पक्ष की ओर से) कि, स्त्री के अधिकार, उसकी वास्तविक स्थिति, उसके जीवनानुभवों आदि के विषय में पुरुष लेखकों द्वारा वास्तविक यथार्थ की अभिव्यक्ति संभव नहीं हो सकती। तब हिंदी साहित्य में स्त्री लेखिकाओं ने स्त्री विमर्श को लेकर अपने विचार प्रकट किए, जो समय विशेष की भी मांग थे। जिसे स्त्री की सदी एवं महिला सशक्तिकरण का युग आदि नामों से पुकारा गया। ये सब अकस्मात् नहीं था, इसकी छटपटाहट पहले से ही साहित्य में मौजूद थी। जिस समाज में स्त्रियों को दूसरे दर्जे का माना जाए, वहां स्त्री लेखन को स्थान मिलना दुर्लभ कार्य है। वर्तमान में साहित्यिक अनुसंधानों द्वारा प्राप्त लेखन इस बात की पुष्टि करता है कि, स्त्री के, स्त्री लेखन द्वारा अपनी स्वतंत्रता के प्रयास होते रहे। उन प्रमुख लेखिकाओं में रेपा, रोहा, जयंती, क्षेमा, गौतमी, अनुपमा, अम्बपाली, आंडाल, महादम्बा, मीराबाई, सीमंतनी उपदेश की लेखिका, शिवरानी देवी, राजरानी देवी, तोरन देवी, सुमित्रा कुमारी, शांति अग्रवाल, सत्यवती मलिक, महादेवी वर्मा आदि लेखिकाओं ने स्त्री अधिकारों के लिए लेखनी चलाई। जिसे स्त्री लेखन की परंपरा में स्त्री विमर्श के आरम्भिक प्रयास के रूप में देखा जा सकता है।
 
बीज शब्द : स्त्री लेखन, स्त्री विमर्श, अस्मिता का संघर्ष, विद्रोह का स्वर, पराधीनता, उपेक्षित लेखन, मुक्ति का उदघोष, परंपरा आदि।
 
मूल आलेख : सृष्टि की सुंदर रचना में स्त्री का सर्वश्रेष्ठ स्थान है। भारतीय जन जीवन में या यूं कहें कि, प्राचीन सभ्यताओं में स्त्री रूप में ही ईश्वर की कल्पना की गई। वैदिक अध्ययन से पता चलता है कि, भारतीयों के सभी आदर्श स्त्री रूप में मिलते हैं। विद्या का आदर्श सरस्वती, धन की लक्ष्मी, शक्ति की दुर्गा, सौंदर्य की रति, पवित्रता में गंगा तथा जगतजननी के नाम से स्त्री को ही पुकारा गया, साथ ही शोषण का केंद्र भी स्त्री शरीर ही रहा। समय-समय पर स्त्री का स्थान परिवर्तित होता रहा है। उसकी उपस्थिति हमेशा पुरुषों द्वारा पुरुषों के लिए ही रही। जैसा पुरुष चाहता था, अपनी इच्छानुसार उसी रूप में स्त्री को प्रस्तुत करता रहा, कभी देवी तो कभी कुलटा, कभी प्रियतमा तो कभी भोग्या, कभी युद्ध का कारण, कभी माया का जंजाल, हर रूप में उसका शोषण होता रहा। अंत में उसे देवी के रूप गंगा तथा जगतजननी इन्हीं दो शब्दों से उसे पहचाना गया या यूं कहें कि यही दो रूप उसके जीने और मार देने की वजह बन गए। इससे अन्यत्र उसकी कोई पहचान नहीं थी। इसके बावजूद भी ममता, त्याग, दया, क्षमा, उदारता, सेवा, सहनशीलता एवं सहिष्णुता इत्यादि मानव मूल्यों का कर्ता-धरता भी स्त्री को ही माना गया।
 
सन् 1990 ई० के बाद विश्व परिदृश्य में कुछ घटनाएं इस तरह से घटित हुई कि, सारा विश्व का ढांचा ही बदल गया। इनमें सन् 1991 ई० में सोवियत संघ का विघटन और उसके साथ ही विश्व अर्थव्यवस्था में भूमंडलीकरण, उदारीकरण और निजीकरण का दौर का आना प्रमुख है। इस बात का परिणाम सामाजिक स्तर पर अस्मिताओं के संघर्ष के रूप में देखने को मिलता है। जो अभी तक हाशिए की अस्मिताएं थीं वह अब केंद्रीकृत होने लगीं। लंबे समय से जिन आवाज़ों को दबाया गया था, अब वे स्वयं को अभिव्यक्ति देने लगीं। उन्हीं में से एक है- स्त्री लेखन। मोटे तौर पर देखा जाए तो स्त्री लेखन समाज की मुख्य धारा के द्वारा उपेक्षित किया गया लेखन है, उसी उपेक्षा के फलस्वरूप हाशिए से केंद्रोंमुख होनेवाला, आधी आबादी के अर्थात् स्त्री-अस्तित्व के संघर्ष का साहित्य है। अभी तक सामाजिक व्यवस्था में स्त्री अस्मिता पुरुष प्रधान समाज के बनाए नियमों और मान्यताओं के अनुसार अपनी जीवन प्रकिया संपादित करती थी। एक अर्थ में स्त्री पहचान पुरुष सत्ता के वर्चस्व की शिकार थी। इतने लंबे संघर्ष के उपरांत भी स्त्री अस्मिता अपने अस्तित्व की पहचान करने में पूर्णतः सफल नहीं रही, परंतु मुख्यधारा में अपने को समाहित कर अपनी भूमिका सुनिश्चित करने की ओर अग्रसर अवश्य हुई।
 
स्त्री अस्मिता ने पारंपरिक साहित्य में अपनी स्थितियों के चित्रण को नकार दिया। क्योंकि यह परंपरा पितृपक्ष की रक्षक थी, तथाकथित रूप में बनाए नियमों की हिमायती थी। स्त्री लेखन का अपना तर्क था कि, बिना स्वानुभूति के अभिव्यक्ति संभव नहीं। दूसरे आपके प्रति सहानुभूति ही रख सकते हैं, पर-काया प्रवेश सहज नहीं हो पाता। वास्तविक अनुभूति तभी संभव है, जब उसका भोक्ता स्वयं उसकी अभिव्यक्ति करता हो। यह एक तरह से पूरी परंपरा और मुख्यधारा पर प्रश्न चिह्न था।
 
बीसवीं शताब्दी के बाद के दशकों में इस तरह के प्रयास साहित्य में देखें जा सकते हैं। जहां स्त्री लेखिकाओं द्वारा अस्मिता के लिए संघर्ष दिखाई देता है। इन संघर्षों की बड़ी उपलब्धि थी 'महिला अध्ययन' केंद्रों की स्थापना। सन् 1980 के बाद ही एक विषय के रूप में 'महिला अध्ययन' के विभाग भारतीय विश्वविद्यालयों में खुले। यह कुछ घटनाएं ऐसी थी, जिन्हें आत्मसात् करते हुए, विश्व एवं भारतीय भाषाओं के समानांतर हिंदी में भी लेखिकाओं में कई महत्त्वपूर्ण नाम जैसे चंदकिरण सौनेरेक्सा, शशिप्रभा शास्त्री, दीप्ति खंडेलवाल, कृष्णा सोबती, उषा प्रियवंदा, मन्नू भंडारी, राजी सेठ, मंजुल भगत, प्रभा खेतान, मृदुला गर्ग इत्यादि प्रमुख हैं। इन लेखिकाओं ने अपने लेखन से न केवल पारंपरिक स्त्री छवि (जो पुरुष लेखकों द्वारा गढ़ी गई थीं) को ध्वस्त किया बल्कि, अपनी पहचान के संघर्ष के लिए उठ खड़ी हुईं। स्त्री की यह नई दुनिया अपने अस्तित्व को तलाश करती हुई दुनिया है। यह पुरुष प्रधान सत्ता से संघर्ष कर, स्वयं को परिभाषित तथा प्रमाणित करने की स्त्री चरित्र की दुनिया थी। आज यह साहित्य में स्त्री विमर्श के रूप में उपस्थित है। कुछ विद्वानों का मानना है कि इसका आविर्भाव पश्चिमी देशों से आयातित है। कई अन्य इसे देशव्यापी घटनाओं से जोड़ने का प्रयास करते भी दिखाई देते हैं। हां ये बात कहना कहीं तक ठीक है कि, स्त्री विषयक मुद्दों को एक समय विशेष में अधिक महत्त्व दिया गया अर्थात् वह साहित्य में उभरकर आया। लेकिन हमें इस संदर्भ में दूसरी दृष्टि से भी देखने की आवश्यकता है। जब भारतीय भूमि पर स्त्री का द्वितीयक दर्जे का होना, अर्थात् उसका शोषण सदियों से चला आ रहा है तो उसकी गूंज न सही, हल्की छटपटाहट कहिए, वह पश्चिमी देशों से आयातित कैसे हो सकती है। उसकी छटपटाहट हमें बहुत पहले से ही दिखाई देती है। भले ही वह भक्ति का स्वर लिए हो या अन्य किसी और आवरण में हो।
 
जितना पुराना इतिहास स्त्री का रहा है, उतना ही उसकी दासता और शोषण का भी है। स्त्री अपने त्रासद जीवन से मुक्ति के लिए प्रयास करती रही है। सबसे पहले (भारतीय संदर्भ) हम वेदोंकी बात करें तो स्त्री अपने सशक्त रूप में दिखाई देती है। ऐतिहासिक दृष्टि से वैदिककाल स्त्री पहचान के सशक्त लिखित दस्तावेज प्रस्तुत करता है। जहां स्त्री पुरुष के समान जीवन व्यतीत करती थी। शिक्षा हो, गृहस्थ जीवन हो, चाहे युद्ध कला या धार्मिक क्षेत्र हो, सभी जगह स्त्री को समान अधिकार प्राप्त थे। बाल-विवाह, पर्दा-प्रथा तथा सती-प्रथा को निषेध माना गया था। पुनर्विवाह प्रचलन में था। स्त्री पहचान का जाग्रत उदाहरण ऋग्वेद के एक सौ छब्बीसवें सूक्त के सातवें मंत्र से स्पष्ट दिखाई देता है। जिसकी दृष्टा 'रोमेश' का पति से कहा गया कथन, "हे राजन! जैसे पृथ्वी राज्य धारण एवं रक्षा करनेवाली होती है, वैसे ही मैं प्रशंसित रोमोंवाली हूं। मेरे सभी गुणों को विचारों। मेरे कामों को अपने सामने छोटा न माने।"1 वह अपनी सृजनता को पहचानती है। उसे अपनी क्षमताओं का ज्ञान है। युद्ध क्षेत्र में विजयी होनेवाली 'मुदगलपत्नी' एवं 'विशपला' विरांगना रूप में अपनी अस्मिता दर्ज कराती हैं। 'ममता; 'अदिति; 'विश्वारा; 'आत्रेयी; 'शाश्वती; 'अपाला; 'शिखंडिनी; 'घोषा; 'उर्वशी; 'इंद्राणी इत्यादि कीउपस्थिति सूक्त दृष्टा के रूप में दृष्टव्य है। वेदों की बारह-पन्द्रह ऋचाओं की दृष्टा स्त्री रही है। इसे स्त्री लेखन का आरम्भिक प्रयास कहा जा सकता है।
 
वेदों के उपरांत संभवतः 'थेरी गाथा' स्त्री लेखन की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण उदाहरण हैं। जिसे 'सुमन राजे' प्रथम भारतीय नवजागरण की संज्ञा देती हैं। 'थेरी गाथा' बौद्ध धर्म के 'सुत्तपिटक' के पांचवें निकाय में 'खुद्दक निकाय' के अंतर्गत '522' गाथाओं का संकलन है। जिसमें '73' थेरीओं (बौद्ध धर्म में दीक्षित ऋषिकाएं) के उद्गार सोलह भागों में विभक्त हैं। ये गाथाएं स्त्री पीड़ा की गहनता से उबरने के लिए 'निर्वाण' का मार्ग प्रशस्त करती हैं। "थेर गाथाओं में भिक्षुओं के प्रवज्या ग्रहण करने के कोई विशेष कारण नहीं दिये गये हैं। कुछ अपवादों को छोड़ दें तो बुद्ध वचनों से प्रेरित होकर ही वे इस मार्ग के पथिक बने। परंतु थेरीयों के संबंध में यह सच नहीं है। यहां कारण है और ठोस भौतिक कारण है और शत प्रतिशत स्त्रीत्व से संबंधित है।"2 जिसमें दरिद्र ब्राह्मण की कन्या 'मुक्ता' निर्वाण ग्रहण करने पर, अपनी मुक्ति की अभिव्यक्ति कुछ इस प्रकार करती है-

"मैं सुमुक्त हो गयी! अच्छी विमुक्त हो गयी!
तीन टेढ़ी चीजों से मैं भली विमुक्त हो गयी।
ओखली से, मुसल से, और अपने कूबड़े स्वामी से,
मैं अच्छी मुक्त हो गयी।"3
 
इसी तरह थेरी 'सुमंगल माता' पुरुषसत्ता से मुक्ति और अपनी स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति कुछ इस प्रकार करती है-

"अहो! मैं मुक्त नारी, मेरी मुक्ति धन्य है।
पहले मैं मुसल लेकर धान टूटा करती थी।
आज उससे मुक्त हुई।
मेरी दरिद्रावस्था के वे छोटे-छोटे बर्तन।
जिनके बीच मैं मैली-कुचली बैठती थी
और मेरा निर्लज्ज पति मुझे उन छातों से भी तुच्छ समझता था
जिन्हें अपनी जीविका के लिए बनाता था।"4
 
'आम्रपाली' (थेरी) की जीवन कहानी स्त्री विमर्श की दृष्टि से अनूठा उदाहरण है। 'आम्रपाली' अत्यधिक सुंदर होने के कारण इनका जीवन 'सब्बेसं होतु' अर्थात् सभी के लिए बना दिया गया, जो गणिका का जीवन जीने को मजबूर हुई। इनकी गाथाओं में सौंदर्य का ऐसा वर्णन किया गया है जो अन्यत्र कहीं नहीं मिलता। भले ही हमारे यहां साहित्य का पूरा एक कालखंड स्त्री सौंदर्य चित्रण तथा नख-शिख से भरा हो। 'आम्रपाली' कहती है-

"काले भौंरे के रंग के समान जिनके अग्रभाग घुंघराले हैं,
ऐसे किसी समय मेरे बाल थे।
आज वही जरावस्था में सन की छाल जैसे हो गये हैं।
सत्यवादी के वचन कभी मिथ्या नहीं जाते
पुष्पों से गुथां हुआ मेरा केशपाश कभी सुगंध की
पिटारी की भांति महकता था,
उसी में से आज जरा के कारण खरहे के रोयों की सी
दुर्गन्ध आती है
चित्रकार के हाथ से कुशलता पूर्वक अंकित की हुई जैसी
मेरी दोनों भौंहें थीं।
आज वही जरावस्था में झुर्रियां पड़कर नीचे लटकी हुई हैं
एक समय ऐसा था, इस समय यह
जर्जर और अनेक दुखों का आलस्य है।
एक ऐसे जीर्णघर के समान
जिसकी लीपन टूट-टूटकर नीचे गिर गई है।"5

'कृषा गौतमी' का स्वर स्त्री जीवन की वेदना को व्यक्त करता है-
"स्त्री होना दुःख है।
ऐसा मनुष्यों के चित्त को संयमी बनानेवाले उन सारथी
स्वरूप (भगवान बुद्ध) ने कहा है।
(विद्वेषी) सपत्नियों के साथ
एक घर में रहना दुःख है।"6
 
‘थेरी गाथा’ की मोत्तिका, अपरा, उत्तमा, रोमा, संकरा, जयंती, सोमा, अभय, विमला, अभंगमाता इत्यादि थेरीयों की गाथाएं, स्त्री लेखन की दृष्टि से अमूल्य संग्रह है। लोक जीवन का चित्रण करनेवाली तथा प्रगतिवादी कविता का प्रथम उदाहरण कही जानेवाली 'हाल' या 'शालीवाहन' कृत 'गाथा सप्तशती' (बारहवीं सदी) में 'रोहा, 'चंद्र पुट्टिका, 'पृथिवी, 'ग्राम कुट्टिका, 'रेखा, 'रेद्दा, 'आंध्रलक्ष्मी, 'शशिप्रभा, 'गुणमुग्धा इत्यादि की रचनाओं का उल्लेख मिलता है।
 
मध्यकाल में नायनमार भक्तों में 'पुनीतवती; 'भेड़यर्भराशि' एवं 'तिलकावती' मराठी की 'महादम्बा' जिनकी रचनाएँ ‘धवले’, 'मातृकी रूक्मिणी-स्वयंवर’ तथा 'गर्भकांड ओत्या' हैं। इन्हें मराठी की प्रथम काव्य रचयिता का दर्जा प्राप्त है। मैथिली की 'चन्द्रकला' कश्मीर की 'लल्लद्येद्' दक्षिण की अलवार भक्त 'आंडाल' मुख्य हैं। इनकी प्रमुख रचनाएँ 'तिरुमोली' एवं 'तिरुपावै-श्री-व्रतम' हैं। मीराबाई की तरह इनकी भक्ति का स्वर भी समाज विरोधी रहा है।
 
महिला भक्त कवयित्रियों की परंपरा में संत वेणास्वामी, संत सोयराबाई, संत निर्मलाबाई, संत मीराबाई रही हैं। मीराबाई राजसत्ता से मुठभेड़ करती हुई, कृष्ण भक्ति में लीन रहती। इनका काव्य स्त्री उत्पीड़न की अभिव्यक्ति ही नहीं करता, बल्कि राज, धर्म और सामंत जैसी शक्तिशाली संस्थाओं की दोहरी नीतियों का ज़ोरदार तरीके से भर्त्सना करता है। जिस समाज में स्त्री को मौन रहने की शिक्षा दी जाए, वहां स्त्री का अपनी इच्छा से निर्णायक स्वर में अभिव्यक्ति करना 'अब कोए कछु कहो दिल लागारे, जाकी प्रीत लालन से, कंचन मिला सुहागा रे' स्वाधीन चेतना का परिचायक है। मध्यकालीन समाज में पर्दाप्रथा, सतीप्रथा स्त्रीत्व के अभिन्न अंग माने जाते थे, लेकिन मीरा इसका विरोध करते हुए कहती हैं-

"जग सुहागा मिथ्या ये सजती होवां हो मिट जाती।
गिरधर गास्यां सती न होस्या मन मोहयो धनमाणी।।
 
मीराबाई के संदर्भ में 'सुमन राजे' लिखती हैं कि, "मध्ययुगीन साहित्य में मीरा का जीवन और साहित्य नारी-विद्रोह का रचनात्मक आगाज है।"7 मीराबाई का 'गीत गोविंद टीका, 'नरसीजी का मायरा, 'राग सोरठा, 'सत्यभामा नु रूसण' तथा 'मीरा की गरीबी' आदि ग्रन्थों का पता चलता है। लेकिन इनके स्फुट पद ही प्राप्त होते हैं। कारण, एक तो स्त्री लेखन होना दूसरा, इतिहासकारों का स्त्री उपेक्षित दृष्टिकोण। अंतिम समय में मीराबाई रणछोड़ जी के मंदिर में नृत्य करते हुए विलीन हो गईं। इसी तरह 'आंडाल' के विषय में भी कहा जाता है कि, वहईश्वर की इच्छा से, मंदिर के गर्भगृह में ईश्वर में विलीन हो गईं। सिर्फ स्त्री के साथ ऐसी अलौकिक घटनाओं का घटित होना? हमारे पितृसत्तात्मक समाज में कोई आश्चर्य की बात नहीं है। स्त्री इसी तरह के धार्मिक दुशाले में बली चढ़ाई जाती रही है। ऐसे समय में स्त्री लेखन को सुरक्षित एवं संरक्षण देने का प्रश्न ही नहीं उठता।
 
सोलहवीं सदी में नाभादास की भक्तमाल से 'गंगास्त्री' एवं 'यमुनास्त्री' कवयित्रियों के नाम मिलते हैं। इस समय में चारण कवयित्रियों के नाम प्राप्त होते हैं। जिसमें बीकानेर की 'झीमा, 'पदमा’ चारिणी एवं 'चंपादे' आदि का नाम प्रमुख है। उत्तर मध्यकाल में 'शेख' और 'आलम', 'रूपमती' और 'बाज बहादुर साईं' तथा 'गिरधर कविराय' युगल कवियों का नाम आता है। शेख के बारे में कहा जाता है कि "मीरा ने जैसे समाज और धर्म की वर्जनाओं का उल्लघंन किया था वैसे ही शेख ने नारी-अभिव्यक्ति की वर्जनाओं का उल्लघंन किया है। इस दृष्टि से उनका नाम पहला है।"8 घनानंद की प्रेयसी सुजान की रचनाओं के बारे में कोई ठोस प्रमाण उपलब्ध नहीं होते, लेकिन उनके सवैये में जिस प्रकार उलहाना दिया गया है, वह उनकी काव्य प्रतिभा का परिचायक है-

"वेदहु चारि की बात कौन बांचि, पुरान अठारह अंग में धारै।
चित्रहु आज लिखै समझै कवितान की रीति मैं वार ते पारै।
राग को आदि जिती चतुराई 'सुजान' कहै सब याही के लारै।
हीनता होय जो हिम्मत की तो प्रवीणता लै कहा कूप में डारै।"9
 
रीतिकालीन 'प्रवीणराय पातुर' जिसकी प्रशंसा में केशवदास अतिश्योक्ति की सीमाएँ लांघ जाते हो, उनके किसी काव्य ग्रंथ का विवरण नहीं मिलता। इनके स्फुट पदों का ही पता चलता है।
 
अठारहवीं सदी की ब्रजकुंवारि बाई कृत ‘नेहनिधि’, ‘रामरहस्य’, ‘संकेतयुगल’, गोपी महात्म्य’, ‘रसपुंज सात संग्रह’, ‘वृंदावन गोपी महात्म्य’, ‘भावना प्रकाश’, ‘प्रेमसम्पुट’, ‘रंगझर’ तथा ‘स्फुट छंद’ प्राप्त होते हैं। सोनकुंवारि कृत ‘सुबरन बेलि की कविता’, रत्नकुंवारि (राजा शिवप्रसाद सितारे हिंद की दादी) कृत ‘प्रेमरत्न’, आनंदीबाई कृत ‘निजभाव विचार’, महारानी बृजभानु कुंवारि कृत ‘विरुदावली’ एवं ‘दानलीला’, रघुराज कुंवारि कृत ‘रामप्रिया विलास’ रचनाओं का पता चलता है। इन रचनाओं में अधिकांश रचनाओं के एक दो पद ही प्राप्त होते हैं।
 
आधुनिक युग के प्रारंभकर्ता के रूप में भारतेंदु का नाम अग्रणीय है, तो इनकी प्रेयसी मल्लिका जी को आधुनिककाल के स्त्री लेखनकी दृष्टि से अग्रणीय स्वीकार किया जा सकता है। इन्होंने 'कुमुदिनी’, 'कुलीनकन्या' (चंद्रप्रभा/पूर्ण प्रकाश) तथा 'पारस्य' तीन उपन्यासों की रचना की। कुमुदिनी के संदर्भ में नीरजा माधव कहती हैं कि, "मल्लिका जी का उपन्यास 'कुमुदिनी' बंकिम जी के उपन्यास कृष्णकांत का वसीयतनामा से बहुत प्रभावित है और स्त्री विमर्श की महत्त्वपूर्ण कड़ी है ।"10 'चंद्रप्रभा' बेमेल विवाह पर आधारित सामाजिक उपन्यास है, जिसे "आधुनिक युग के स्त्री विमर्श का प्रथम पाठ कहा जा सकता है।"11
 
अज्ञात हिंदू विधवा का 'सीमंतनी उपदेश' सन् 1822 में हिंदी साहित्य में स्त्री पराधीनता को तोड़ने एवं मुक्ताकाश में विचरण करने की कामना का आख्यान है। जिस समाज में स्त्रियों को शीलवती, पतिव्रता और धर्मपरायण बनाने की कोशिश की जा रही थी, उसी माहौल में एक अज्ञात लेखिका ने पितृसत्ता के दोगले व्यवहार का परदा खींच फेंका है। विधवा जीवन की त्रासदी को जिस प्रकार बयां किया है तथा उसके साथ ही सती प्रथा जैसे कलंक का विरोध किया है, वह प्रभावित करता है। धर्म के नाम पर स्त्री की गुलामी के लिए फैलाए गए जाल को तर्क की कसौटी पर रखकर छिन्न-भिन्न किया गया है। ‘सीमंतनी उपदेश’ के प्रत्येक पन्ने से हिंदू स्त्री की गुलामी और पीड़ा की चीख सुनाई देती है, जिसका उद्देश्य आज़ादी की दूर-दूर तक गूंजनेवाली पुकार है। 'सीमंतनी उपदेश' की लेखिका के मन में पराधीनता की पीड़ा तथा आज़ादी की चाह कितनी गहरी थी, इस कथन द्वारा देखा जा सकता है कि "अगर इस दुनिया में कुछ खुशी है तो उन्हीं की है जो अपने तई आजादी रखते हैं हिंदुस्तानी औरतों को तो आजादी किसी हाल में नहीं हो सकती। बाप, भाई, बेटा, रिश्तेदार सभी हुकूमत रखते हैं। मगर जिस कद्र खाविन्द जुल्म करता है उतना कोई नहीं करता। उतना कोई नहीं करता, लौंडी तो यह सारी उम्र सबकी ही रहती है पर शादी करने से तो बिल्कुल जरखरीद हो जाती है। इस दुनिया में चाहे कोई बादशाहत की नियामत मिले, और आजादी ना हो तो नर्क के बराबर है।"12 तत्कालीन समय में स्त्रियों को वसुंधरा की अर्थात्  सबकुछ शांत तथा शालीन तरीक़े से रहने की शिक्षा दी जाती हो, ऐसे में अज्ञात लेखिका का मुखर विद्रोह एक बड़ा क्रांतिकारी क़दम था।
 
'श्रीमती हरदेवी' का लघु उपन्यास 'हुक्म देवी' (1892) में लेखिका ने पर्दाप्रथा एवं वैधव्य के नीचे झटपटाती स्त्री जीवन की विडंबनाओं को उकेरा है। 'राजरानी देवी' (1869) की काव्य कृतियाँ '‌प्रमदा प्रमोद' तथा 'सती संयुक्ता' प्रकाशित हुई, जिसमें वे स्त्रियों को संबोधित करते हुए कहती हैं-

"देवियों, क्या पतन अपना देखकर,
नेत्र से आंसू निकलते हैं नहीं।
भाग्य ही ना क्या स्वयं को देखकर
पाप से कलुषित हदय जलते नहीं।"13
 
'रूपकुमारी चंदेल’, 'गिरिराज कुंवारि’, 'कमलाबाई किसे’, 'ब्रह्मचारिणी चंद्राबाई पंडिता’, 'श्रीमती गोपाल देवी’, 'प्रियवंदा गुप्त’, 'उषादेवी मित्रा’, 'राजेन्द्र बाला घोष' (बंग महिला) तथा 'शिवरानी देवी' का लेखन प्राप्त होता है। 'शिवरानी देवी' की कहानी 'सिंदूर की रक्षा' को जिस सूझ-बूझ के साथ प्रस्तुत किया है, वह आज भी ध्यान देने योग्य है। जिसे देखते ही मन में कई विचार उभरते हैं कि निःसंदेह यह स्त्री अस्मिता के लिए जुड़ी कड़ियों में से एक है। कहानी का अंत कुछ इस तरह है कि "बारात आने का समय हो गया है। शहर भर में हिंदू और मुसलमान इसी मोहल्ले में फटे पड़ते हैं। सभी अपनी-अपनी जान हथेली पर लेकर निकलते हैं। घरों में रोना पीटना मचा हुआ है। कहीं अल्लाहो अकबर के नारे हैं, कहीं महावीर की जय ध्वनि है। सभी पर नशा छाया हुआ है। हिंदू कहता है आज मुसलमान का निशान मिटा देंगे। मुसलमान कहता है आज काफ़िरों की दुनिया को पाक कर देंगे। सहसा चंदा एक कटार लिए हुए कोठरी में से निकलती है और माता से बोली- ‘अम्मा मैं अपने कोटे पर जाकर छज्जे से इन लोगों को शांत करने की चेष्टा करती हूं या तो उन्हें यहां से हटा ही दूंगी या वहीं अपने प्राणों का अंत कर दूंगी। अगर यह सिलसिला यूं ही चलता रहा तो एक भी मुसलमान या हिंदू स्त्री की आबरू न बचेगी, इससे तो अच्छा है कि हिंदू और मुसलमान मर्दों का अंत हो जाए। औरतें उनके नाम को रो लेंगी।"14

'तोरन देवी शुक्ल' (लली 1893) स्त्री स्वाधीनता के लिए पर्दा प्रथा का विरोध करते हुए कहती हैं-

"कहो बंधु अब क्या कहते हो,
अब तक मुक्त करोगे ?
इस धुंधर की कड़ियों से।
हम दुर्बल दीन मलीन हुईं।
सुख शांति, स्वास्थ्य बलहीन हुईं।
मिलती अंतिम घड़ियों से।"15
 
बीसवीं सदी में कुमारी रेहाना बहन तैयब जी, सुभद्रा कुमारी चौहान, ओमवती देवी, महादेवी वर्मा, कमला चौधरी, चंद्रवती ऋषभसेन जैन, रामेश्वरी देवी गोयल, सत्यवती शर्मा, पुरुषार्थवती, सुमित्रा कुमारी सिन्हा, तारा पांडे, विद्यावती कोकिल, शकुंतला सिरोठिया, हीरादेवी चतुर्वेदी, रामेश्वरी देवी चकोरी, शांति अग्रवाल, चंद्रकिरण सौनेरेक्सा, चंद्रमुखी ओझा, शांति मल्होत्रा, कुमारी शकुंतला आदि महिला लेखिकाओं का लेखन सामने आता है। जिसमें मुख्य रूप से चौथे दशक की महादेवी वर्मा कृत 'श्रृंखला की कड़ियाँ' स्त्री विमर्श की दृष्टि से स्त्री जागरण का घोषणापत्र है। जिसमें स्त्री की पराधीनता की पहचान और उससे मुक्ति की राह की खोज की चिंता व्यक्त की गई है। महादेवी वर्मा कहती हैं कि "भारतीय नारी जिस दिन अपने संपूर्ण प्राण प्रवेश से जाग उठे उस दिन उसकी गति रोकना किसी के लिए संभव नहीं, उसके अधिकारों के संबंध में यह बात सत्य है कि भिक्षावृत्ति से न मिले और न मिलेगी क्योंकि स्थिति आदान-प्रदान योग्य वस्तु से भिन्न है।"16 स्त्री विमर्श के स्वर इन लेखिकाओं का लेखन हिंदी साहित्य में महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है।
 
निष्कर्ष: इस अध्ययन से ज्ञात होता है कि हिंदी साहित्य में स्त्री विमर्श के रूप में जो लेखन आज उपस्थित है उसका छुटपुट प्रयास वेदों में भी मिलता है। जो स्त्री की सशक्त स्थिति का परिचायक है। वेद मंत्रों की दृष्टा के रूप में उपस्थित स्त्री इसका साक्षात् प्रमाण है। इसके पश्चात् स्त्री लेखन की दृष्टि से कई लेखिकाओं के नाम तथा उनकी रचनाओं का पता चलता है। जो अधिकांशतः स्फुट पद रूप में ही मिलते हैं। थेरियाँ, भक्त कवयित्रियाँ हो या आधुनिककाल की कवयित्रियों का लेखन, सभी ने स्त्री की पराधीनता, उसकी दुर्दशा की ओर ध्यान दिलाने का प्रयास किया है। पचास के दशक से पहले स्त्री लेखन के जो प्रमाण मिलते हैं, यकीनन वह आज के स्त्री विमर्श की आरंभिक कड़ियाँ हैं, इसे निःसंदेह स्वीकार किया जा सकता है। साथ ही हमें इस बात पर भी ध्यान देना चाहिए कि, जिस प्रकार समाज स्त्री और पुरुष दोनों से मिलकर बना है, किसी एक के बिना समाज की कल्पना नहीं की जा सकती, उसी प्रकार बिना स्त्री लेखन के साहित्य को पूर्ण साहित्य नहीं कहा जा सकता। अतः पुराने समय के स्त्री लेखन को खोजे जाने की आवश्यकता है ताकि पूर्ण साहित्य की कल्पना को साकार किया जा सके।
 
संदर्भ :
1. सुमन राजे, ‘हिंदी साहित्य का आधा इतिहास’, ज्ञानपीठ प्रकाशन दिल्ली, पाँचवाँ संस्करण, 2015, पृष्ठ सं० 69
2. वही, पृष्ठ सं० 91
3. विमल कुमार कीर्ति, ‘थेरीगाथा’, सम्यक प्रकाशन नई दिल्ली, प्रथम संस्करण, 2003, पृष्ठ सं० 21
4. वहीं, पृष्ठ सं० 22
5. सुमन राजे,‘हिंदी साहित्य का आधा इतिहास’, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन दिल्ली, पाँचवाँ संस्करण, 2005, पृष्ठ सं० 21
6. वही, पृष्ठ सं० 99
7. वही, पृष्ठ सं० 148
8. वही, पृष्ठ सं० 158
9. वही, पृष्ठ सं० 162
10. नीरजा माधव‘हिंदी साहित्य का ओझल नारी इतिहास’ (1857-1947), (नान्दी पाठ), सामयिक बुक्स नई दिल्ली, 2014, पृष्ठ सं० 25
11. वही, पृष्ठ सं० 55
12. डॉ धर्मवीर, ‘सीमंतनी उपदेश’, शेष प्रकाशन, पृष्ठ सं० 75
13. नीरजा माधव ‘हिंदी साहित्य का ओझल नारी इतिहास’, (1857-1947), (नान्दी पाठ), सामयिक बुक्स नई दिल्ली, 2014, पृष्ठ सं० 79
14. वही, पृष्ठ सं० 100
15. वही, पृष्ठ सं० 107
16. महादेवी वर्मा, ‘श्रृंखला की कड़ियाँ', लोकभारती प्रकाशन गांधी मार्ग इलाहाबाद, तीसरा प्रकाशन, 2015, पृष्ठ सं० 9
 
ज्योति
शोधार्थी, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, अलीगढ़


 अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  अंक-41, अप्रैल-जून 2022 UGC Care Listed Issue

सम्पादक-द्वय : माणिक एवं जितेन्द्र यादव, चित्रांकन सत्या सार्थ (पटना)

1 टिप्पणियाँ

  1. कितने विस्तार से अपने स्पष्ट किया है कि सारी विमर्श भारतीय समाज मे कितना प्राचीन है। लेख पढ़कर आश्चर्य भी हुआ और गर्व भी की हमारे साहित्य में कितनी महिलाए हुई है जो कि इतनी विद्वान थी। आपका हार्दिक धन्यवाद

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