शोध आलेख :- उठ और जीवितों के जगत में प्रवेश कर ! (भगवतशरण उपाध्याय कृत नारी रिपोर्ताज पर आधारित) / डॉ. नमस्या

उठ और जीवितों के जगत में प्रवेश कर !
(भगवतशरण उपाध्याय कृत नारी रिपोर्ताज पर आधारित)
डॉ. नमस्या

शोध सार :                                                                             
एक हाथ में है उसके निद्रादायी हलाहल
दूसरे में उज्जीवन,नील-स्वप्न का भूर्ण
वह है सारा इहलोक,परलोक
मृत्यु और फागुन

- (नारी-वर्षा की सुबह-सीताकान्त महापात्र)
 
अपने अधिकारों के लिए सदा से उदासीन स्त्री के लिए यह विचार मात्र भी अचरज से भरा है कि वह जो आज तक अपने अधिकारों के लिए सदैव से ही पुरुष के सम्मुख नतमस्तक है, वास्तव में यह वही स्त्री है जो सृष्टि के आरम्भ में मानव समाज की स्वामिनी थी, शक्ति सम्पन्न उसकी शिराएं मनुज समाज का संचालन करती थीं, यह समय मातृसत्ता का समय था, जिसे घोर अनर्थकारी विचारों ने पितृसत्ता में परिवर्तित कर न केवल स्त्री के समस्त अधिकारों का हनन किया, अपितु यहीं से स्त्री दासता का चिरकालीन षड़्यंत्र आरंभ हुआ, जिसे समयान्तराल में स्त्री ने अपनी नियति ही मान लिया। स्त्री विमर्श के इस दौर में भगवतशरण उपाध्याय जी का नारी रिपोर्ताज नितांत पौराणिक और ऐतिहासिक प्रसंगों को आधार बनाकर स्त्री दमन और संघर्ष की विधिवत आख्या को प्रस्तुत करता है और स्त्री को अपने अस्तित्त्व के प्रति जागृत करता है। लेखक के स्त्री विषयक ये विचार आधुनिक स्त्री विमर्श की सैधांतिक पृष्ठभूमि का प्रबल संवर्धन करते हैं।
 
बीज शब्द : नारी, संघर्ष, असूर्यपश्या, विज्जिका, सती प्रथा, पशुधन, मातृसत्ता, पितृसत्ता, स्त्री दासता।
 
मूल आलेख : एक प्रख्यात पुरातत्त्वविद्, इतिहासकारआलोचकविचारक, निबंधकार भगवतशरण उपाध्याय का साहित्य सृजन हिन्दी साहित्य की बहुमूल्य धरोहर है। बहुविषय विज्ञाता के रूप में एक सजग पाठक को वह सदैव प्रभावित करते हैं। आलोचना के क्षेत्र में सामाजिक और ऐतिहासिक परिस्थितिजन्य आलोचनात्मक बिन्दुओं को आधार बनाकर समीक्षा करना उनका वैशिष्ट्य है। इतिहास का समीचीन विश्लेषण और समाज पर पड़ने वाले उसके दूरगामी और निकटवर्ती प्रभावों को व्यापक क्षमता से प्रस्तुत करने वाला उनका साहित्य दिलोदिमाग पर एक अमिट प्रभाव का सृजन करता है। ‘नारी’ रिपोर्ताज नारी जीवन की सतत् परिवर्तनशील एवं संघर्षशील  आख्या को प्रस्तुत करता है। मानवीय परितंत्र का मूल महत्त्वपूर्ण सृजनात्मक अंग जो मूलतः संपूर्ण सृष्टि की मानव जाति का स्वामी है वह किस प्रकार पददलित किया जाता है और मनुष्य होने के अपने समस्त अधिकारों से भी वंचित किया जाता है। इस प्रकार की घटनाओं का संपूर्ण ब्यौरा नारी रिपोर्ताज में कलमबंद किया गया है। नारी रिपोर्ताज ‘खून के छींटे इतिहास के पन्नों पर’ संग्रह में संकलित है। यह रिपोर्ताज संग्रह ऐसे विभिन्न विषयों, घटनाओं को रेखांकित करता है, जिनका खामियाज़ा कई संततियों तक मनुष्य ने भरा और आज भी उसके गहरे जख़्म और उनके निशान गाहेबगाहे सामने आ जाते हैं, कुछ ऐसे षड़्यंत्र जिनसे  प्राकृतिक समाज व्यवस्था का स्वरूप पूर्णरूपेण परिवर्तित हो गया। संग्रह के कई लेखों में से एक नारी रिपोर्ताज लेखक की श्रेष्ठ कृतियों में से एक है। भगवतशरण उपाध्याय जी का यह रिपोर्ताज मूलतः स्त्री को और जिस समाज में वह रहती है, उस समाज को सच्चाई का आईना दिखाता है।स्त्री को  उसके अधिकारों के प्रति सचेष्ट करता है। जैसा कि एक सामान्य रिपोर्ट में भी होता है कि उसमें समस्त रिपोर्ट का मूलभाव आरंभ में दिया जाता है और फिर धीरे-धीरे उसका विस्तार होता है, अन्त में कुछ प्रश्न, कुछ ज्वलंत समस्याएं पाठकों के सम्मुख रखी जाती हैं, उसी प्रकार नारी रिपोर्ताज 12 बिन्दुओं के अन्तर्गत समाज में नारी की भूमिका और अधिकारों का चरण-दर-चरण विश्लेषणात्मक ब्यौरा है। पुराकाल की नितांत प्राकृतिक अवस्था से लेकर अर्वाचीन नारी की मुखरता तक, जंतु जगत में अपने अस्तित्व की स्वतंत्रता के बोध तक की यात्रा का विधिवत लेखन लेखक के सामाजिक विश्लेषण की अनूठी क्षमता को पाठक के सम्मुख रखता है। भगवत शरण उपाध्याय का जीवनकाल 1910 से 1982 तक का है एक पुरातत्त्वविद एक इतिहासकार होने के कारण उनका लेखन तथ्यों की कसौटी पर एकदम खरा सिद्ध होता है। रिपोर्ताज विधा की विशेषताओं के अनुरूप वह वार्तालाप शैली में स्त्री आख्या प्रस्तुत करते हैं, यह वार्तालाप शैली ही रिपोर्ताज की गंभीरता और संवेदनशीलता को बढ़ाती है।

रिपोर्ताज का आरंभ जिन पंक्तियों से होता है वह स्त्री मुक्ति की वह सूक्ति है जो स्त्री को उसकी अस्मिता का बोध कराती है-

‘‘उठ नारी, वह मृतक है जिसके पार्श्व में तू लेटी है उठ और इस नवोदित को वर, उठ और जीवितों के जगत में प्रवेश कर’’1

अर्थात् हे स्त्री उठो ! अब तक तुम जिस पुरुष का सानिध्य प्राप्त करती रही वह संवेदनाहीन है मूलतः नितांत व्यंजना से भरी यह वह पंक्तियां हैं, जो तत्कालीन समाज में नारी के अस्तित्व को सामने लाती हैं। युगों-युगों तक नारी अधिकारों के विपरीत पशु से भी निम्नतर जीवन जीने के लिए बाध्य एक ऐसा जीव जिसका स्वयं अपने ही जीवन पर कोई अधिकार नहीं। स्त्री जीवन की इस सबसे बड़ी त्रासदी को बाद के स्त्रीवादी आधुनिक लेखकों ने भी समय-समय पर अभिव्यक्त किया है।मातृसत्ता से पितृसत्ता के इसी षड्यंत्रकारी परिवर्तन को अपनी सरल कविता में अनामिका पूरी गंभीरता के साथ अभिव्यक्त करती  हैं -

“सृष्टि की पहली सुबह थी वह
कहा गया मुझसे
................
कहा गया मुझसे
तू पानी है सृष्टि की आँखों का
और मुझे ब्याहा गया रेत से
सुखा दिया गया मेरा सागर!
कहा गया मुझसे
तू बिम्ब है सबसे सुन्दर
और तोड़ दिया गया मेरा दर्पण!”2
 
जंतु जगत में सभी मादाओं को नर के समान अधिकार प्राप्त हैं, केवल विवेकशील मनुष्य के षड़्यंत्रकारी समाज में स्त्री वो जीव है, जो अपने प्रारब्ध का चिर अधिकारी नर को मानती चली आयी है। नर जिसने नारी को शक्ति कहकर समस्त नैतिकता को नारी की झोली में डालकर बड़ी सरलता से उसके अधिकारों को सीमित कर दिया। देवी बनने के स्वप्न की महती आकांक्षा ने नारी के सहज जीव होने के अत्यंत प्राकृतिक अधिकार को भी नष्ट कर दिया। प्रकृति ने नारी को ऐसा नहीं बनाया था और ना ही सृष्टि के आरंभ में उसकी यह दशा थी। नारी के प्रारब्ध निर्माण का अधिकारी नर क्यों? नारी को अपने जीवन का अधिकार पुरुष की भांति क्यों नहीं? उसे जीवित रहना है या मृत इसका अधिकार भी उसका अपना नहीं। यह रिपोर्ताज ऐसे ही प्रश्नों को जीवंत करता है। फलतः बाल्यावस्था से जीवनपर्यन्त स्त्री अपने इर्द-गिर्द बुने गए वातावरण से परिस्थितियों से प्रभावित होती रहती है और इसी के मध्य उसके व्यक्तित्व का निर्माण होता है। एक प्रकृतिजन्य सहज विकास से भी वह वंचित रहती है। विकास की यह कैसी सैद्धान्तिक प्रक्रिया है, जिसमें सभी प्राणी सहचर हैं और सर्वाधिक शक्तिशाली मनुष्य प्रजाति में नर राजा और स्त्री दास के रूप में जन्म लेती है। अपने सीमित अधिकार क्षेत्र में वह कुछ इस तरह बंध गई है कि इससे परे जीने को वह अस्वाभाविक स्वीकारती है, जिसके संबंध में जॉन स्टुअर्ट मिल भी यही मानते हैं कि -

‘‘जिसे आज स्त्री स्वभाव कहा जाता है, वह एक नकली चीज़ है, और कुछ दिशाओं में बाध्यतापूर्ण दमन और कुछ दिशाओं में अप्राकृतिक फैलाव का परिणाम है।”3
 
वास्तव में वो स्त्री स्वभाव जिसको हम देखते हैं अनुभूत करते हैं उसमें एक बड़ा हिस्सा नितांत अप्राकृतिक विकास का परिणाम है। विकास की एक दीर्घ नकारात्मक कथा और व्यवहार जो स्वभाव बन गई जिसे भगवत शरण उपाध्याय क्रमशः प्रस्तुत करते हैं वास्तव में वह स्त्री निर्माण की कथा को प्रस्तुत करते हैं। रिपोर्ताज में नारी संघर्ष की आरंभिक स्थितियों को संपूर्ण विचार चिंतन के साथ प्रस्तुत किया गया है। नारी के जीवन संघर्ष की भावनात्मक एवं विचारात्मक आख्या को नारी स्वयं प्रस्तुत करती है। वह सीधे पाठकों से बात करती है और इस प्रस्तुति के मध्य उठने वाले तमाम विचारोत्तेजक संदर्भों पर लेखक स्त्री की ओर से स्वयं विचार करते जाते हैं। समस्त रिपोर्ट को हम निम्न बिन्दुओं के अन्तर्गत समझ सकते हैं–
 
मातृसत्ता और नारी : लेखक मातृसत्ता के महत्त्व को रूपायित करते हुए सृष्टि के आरंभ में नारी की स्थिति पर विचार करते हैं। वह कहते हैं कि एक समय था जब स्त्री पुरुष से बलवान थी। सारा जीवन उसी के इर्द-गिर्द था, बिजली-सा तेज उसका शरीर किसी की आज्ञा की प्रतीक्षा नहीं करता था। यह वह समय था जब नर निरीह था, स्त्री पर निर्भर था, संवेदना और शक्ति सम्पन्न नारी प्रकृति में सर्वशक्तिशाली रूप में विद्यमान थी। यह मातृसत्ता का युग था। यह व्यवस्था प्रकृति प्रदत्त थी।

‘‘शक्ति परिचायक मेरे अंगों में तब भरी स्फूर्ति थी। शशक की गति का मैं परिहास करती थी, मृग की कुलांच का तिरस्कार।..........सिंहवाहिनी थी तब मैं काल्पनिक दुर्गा नहीं, प्रयोग सिद्ध चण्डी।”4
 
स्त्री अपने प्राकृतिक रूप का वर्णन करती हुई अपने लौकिक बलवान स्वरूप पर गर्व करती है और क्षोभ के साथ अपनी मनःस्थिति व्यक्त करती है। अपने अत्यंत प्राकृतिक रूप में सृष्टि के आरंभ में परिवार की पालनकर्ता स्त्री ही थी अपने यथार्थ रूप में सिंह से भी न डरने वाली स्त्री।  रिपोर्ताज का यह आरंभ ही पाठक को कथा सुनने के लिए प्रेरित करता है, क्योंकि जिस स्त्री का वर्णन लेखक आंरभ के अनुच्छेद में करते हैं वह स्त्री जीवन की स्वप्निल कथा अनुभूत होती है। अपनी रिपोर्ट के आरंभ में लेखक उस स्त्री के समक्ष पुरुष की स्थिति का आंकलन करते हुए स्पष्ट करते हैं कि-

‘‘पुरुष मेरा दास था, मेरे श्रम से उपार्जित आहार का आश्रित।”यह मातृसत्ता का युग था। श्रम आधारित विभाजन जहां महत्त्वपूर्ण था। यह सर्वाधिक परिश्रमी स्त्री सत्ता का युग था।
 
पितृसत्ता नारी के अधिकार संकोच की कथा- यही वह युग था, जहां से आज की नारी के स्वभाव को गढ़ा गया निर्मित किया आया। तकनीकी विकास की आरंभ से सत्ता का परिवर्तन हुआ, वह पुरुष जो अब तक स्त्री आधीन था, बार-बार अपनी जीविका के लिए उसका मुख देखा करता था,शक्तिशाली हो उठा यह श्रम पर तकनीक की चिर विजय का समय था। जिसने स्त्री को पुरुष के आधीन बना दिया।

‘‘जीवन बदल गया था, वन बदल गये थे, पर्वत ओर जल स्रोत बदल गए थे। मैं स्वयं अपने को पहचान न सकी। मैं अब उसकी गुलाम थी जो कभी मेरा गुलाम रह चुका था।”यह वह समय था जब कबीले बन चुके थे नारी पुरुष की वासना की अभितृप्ति मात्र करती थी। नारी की सत्ता में पुरुष का अस्तित्व संबल पाता था, किन्तु विपरीत परिस्थिति आते ही सत्ता को समेट कर नर अधिपति बन बैठा और नारी रह गई मात्र उसका पशुधन।

‘‘नारी की उसे आवश्यकता थी, अतीव आवश्यकता थी और वह उसे बचाता था। जैसे वह शत्रु के पशुओं को बचाता था..............।”एक नितांत भौतिक लगाव जहां संवेदनाएं शून्य थीं। इस समय की नारी की स्थिति उसी के शब्दों में संक्षेप में कहें तो- ‘‘मैं उपेक्षिता, सर्वहारा, निरादृता नारी!”8
 
सभ्यताओं का विकास और स्त्री का अस्तित्व- लेखक रिपोर्ताज के तीसरे चरण में आकर पुनः स्त्री की स्थिति को विश्लेषित करते हैं। नारी की स्थिति इस युग में और भी अधोमुखी हो जाती है।श्रम से नर का नया रूप सामने आया, मर्द और यह मर्द काम करने में पशु से भी बढ़कर था। यह वो युग था, जब युद्ध होते थे और हारे हुए नर दास बनते थे। एक और नई विपत्ति का आरम्भ हुआ, वह विपत्ति थी आर्योंका आक्रमण, जिसने देश  की समस्त व्यवस्था को ध्वंस कर दिया। लेखक के अनुसार वह नितांत रिक्त हस्त आए थे।उन्होंने अपना आधिपत्य स्थापित किया। आर्य नितांत मनस्वी थे और उनकी मनस्विता ने यह निर्णय किया कि पुरुष भोगी है और स्त्री भोग्या, भेागी के जीवन के बाद भोग्या को तन रखने का कोई अधिकार नहीं और तब आरम्भ हुई सती प्रथा। यह वह युग था, जिसमें एक पुरुष के लिए निश्चित किए जाने पर भी सर्वथा नारी एक की नहीं थी, कोई भी उसे उठा ले जाता था और भोगता था। इसी क्रिया से गुजरते जब एक ऋषी को उसकी दशा पर क्षोभ आया, तब उसने स्त्री का विधान कर दिया वैवाहिक विधान। अब उसका जीवन एक पुरुष के साथ व्यतीत होने लगा।यह वही वैवाहिक विधान है जिस पर फ्रेडरिक एंगल्स विचार करते हैं कि

“इतिहास में पहला वर्ग विरोध एक विवाह प्रथा के अंतर्गत पुरुष और स्त्री के विरोध के विकास के साथ-साथ और इतिहास का पहला वर्ग-उत्पीड़न पुरूष द्वारा स्त्री के उत्पीड़न के साथ साथ प्रकट होता है। इतिहास की दृष्टि से एक विवाह प्रथा आगे की ओर एक बहुत बड़ा कदम थी। लेकिन इसके साथ ही वह एक ऐसा कदम भी थी जिसने दास प्रथा और निजी संपत्ति के साथ मिलकर उस युग का श्री गणेश किया जो आजतक चला आ रहा है।”9
 
विभिन्न प्रथाएं और स्त्री जीवन- यह युग था स्वयंवर का युग कैकयी, सीता जैसी स्त्रियों का युग जहां राम केवल अपने महात्म्य की स्थापना हेतु अग्निपरीक्षा के उपरान्त भी मात्र लोकोपवाद के भय से अपनी गर्भवती स्त्री का त्याग कर देते हैं, जिसे कालीदास ने सीता के कर्मों का विपाक कहा। उपाध्याय जी की सीता स्त्री अधिकारों के प्रति सचेत है, वह पुराणों में मर्यादा पुरुषोत्तम राम के निर्णय को  स्पष्ट शब्दों  में अस्वीकार करती हैं,लेखक गर्भवती सीता की मनःस्थिति का विश्लेषण करते हुए कहते हैं कि-

“मैंने कहा-उस राजा से कहो- मैं उसके समक्ष नागरिका तक नहीं इन्द्रियतृप्ति का साधन मात्र हूँ और तुममें लोकोपवाद की भीरुता है, न्याय पथ पर आरूढ़ रहने का साहस नहीं।”10
 
सीता का यह सवाल राम के मर्यादा पुरुषोत्तम स्वरुप पर एक प्रश्न खड़ा करता है कि उन्होंने अपनी महिमा और महात्म्य के निमित्त जो न्यायिक उदाहरण प्रस्तुत किया, क्या वह वाकई न्याय संगत था?
 
समय आगे बढ़ा, यह वह समय था जब सती प्रथा कुछ समय के लिए समाप्त हुई और उसके स्थान पर अब स्त्री देवृकामा हो गई। पति की मृत्यू के बाद देवर को सौंप दी गई, जिससे घर की स्त्री घर में ही रहे, यही वह युग था जब नियोग प्रथा ने भी जन्म लिया। क्लीव पति होने के कारण स्त्री परिवार के किसी अन्य पुरुष, गुरु इत्यादि से नियोग कर संतान को जन्म देती थी। नारी द्रौपदी आदि के रूप में बहुपतिका भी हुई और इसी युग में अश्वमेघ आदि यज्ञों ने नारी के जीवन को पाश्विक बना दिया। अश्वमेघ यज्ञों में रानी के साथ होने वाले अप्राकृतिक संबंधों की भर्त्सना लेखक द्वारा की जाती है।
 
द्रौपदी का संदर्भ स्त्री जीवन की सर्वाधिक त्रासदपूर्ण घटनाओं में से एक है,जिसका वर्णन समय-समय पर कवियों के द्वारा किया जाता रहा है किन्तु उपाध्याय जी के शब्दों के समान यदि किसी कवि ने उसे वाणी दी है तो वह हैं सीताकान्त महापात्र वस्त्रहरण कविता में कवि श्रेष्ठ द्रौपदी के अवसाद और कष्ट को सटीक शब्दप्रदान करते हैं, जहाँ द्रौपदीकेशव से कहती हैं कि ऐसा नहीं कि प्रभू आप सदैव ही अपने प्रत्येक जीव की पुकार को सुनते हैं, आपने क्यों मेरी पुकार को सुना आपने जिस अपमान से मुझे रक्षित किया वह मात्र देह का अपमान था अपमानित तो मैं उसी समय हो गई थी, जब मेरे पति द्वारा मैं दांव पर लगा दी गई थी, पीड़ा से भरी द्रौपदी कहती हैं -

“हे केशव क्यों सुनी तुमने वह पुकार
फिर से बाँध लिया निकम्मे इस जीवन को
शेषअपमान के बाद।’’11 -वस्त्रहरण-सीताकान्त महापात्र
भगवत शरण उपाध्याय की द्रौपदी सवाल करती है कि कैसे कोई नारी पांच पतियों को अव्यभिचारिणी  निष्ठा से एक साथ स्वीकार कर सकती है। इस प्रकार वेदों, पुराणों, महाकाव्यों में वर्णित स्त्री जीवन की त्रासदी को लेखक लौकिक स्तर पर रखकर समान अधिकार नीति के साथ विश्लेषित करते हैं।
 
पुरोहितों के षड्यंत्र और नारी– अश्वमेघादि कुछ और नहीं था, ऋषियों और पुरोहितों का षड्यंत्र ही था। सत्यकाम जाबाल का संदर्भ और उसका यह सवाल कि उसका पिता कौन है, हर अतिथि के सत्कार हेतु प्रस्तुत उसकी माता यह नहीं बता पाती कि वह निर्वर्ण जाबाल किसका है। ऋषियों की एक पत्नी नहीं होती थी और क्यों एक मेधावी ऋषि की पत्नी होने पर भी कात्यायिनी निरक्षर रह गई। ये वह षडयंत्रथे, जिन्हें स्त्री ने अपना भाग्य स्वीकार करते हुए उसका क्षणिक विरोध मात्र भी नहीं किया।यह सभी संदर्भ अरस्तू के द्वारा स्त्री की जो परिभाषा दी उसके मन्तव्य को स्पष्ट करते हैं कि -

.....पुरुष औरत को औरत के लिए परिभाषित नहीं करता, बल्कि पुरुष से संबंधित ही परिभाषित करता है और औरत  को स्वायत्त व्यक्ति नहीं मानता..... वह अनिवार्यतः पुरुष के लिए एक भोग की वस्तु है और इसके अलावा कुछ भी नहीं।12
 
बाल विवाह आदि कुप्रथाएं- लेखक विचार करते हैं कि यह वह समय था जब एक नई प्रथा का आरंभ हुआ बाल विवाह होने लगा और परिणामस्वरूप बाल विधवाओं की भी संख्या बढ़ गई। इस युग में नारी को वेश्या, रूपजीवा, वारांगना, पण्यस्त्री आदि की संज्ञा स्त्री को दी जा जाने लगी। बौद्ध आदि धर्मों में भी स्त्री की दुर्दशा ही हुई-

भगवान तथागत ने अत्यंत कृपा से संघ की हजार वर्ष के बजाय, अगर मेरा सम्पर्क हो गया तो, पांच सौ वर्षों की आयु ही आंकी थी..........पांच सौ वर्षोंबाद संघ भी न टूटा, और मेरी वजह से उनके भिक्षुओं की संख्या में नित्य वृद्धी होती गई।1नितांत निर्द्वन्द्व भाव से बड़ी से बड़ी धर्म संस्था पर वह अपनी बेबाक और स्पष्ट टिप्पणी अपने रिपोर्ताज के माध्यम से रखते हैं।
 
असूर्यपश्या, ऋत्विज, परकीया, अस्त्रवाहिका, नैमित्तिक, विज्जिका नारी की स्थितियों का अंकन-

‘‘धर्म सूत्रों और धर्मशास्त्रों की मार सहकर भी मैं जिन्दा रह गई। नन्द-शूद्रों के उत्कर्ष के साथ मैंने सोचा था कि संभवतः मेरा भी अभ्युदय होगा। परन्तु नहीं इस संबंध में ब्राह्मण शूद्र सब एक से थे।1नर मूलतः नर थे चाहे वह ब्राह्मण हों या शूद्र, स्त्री के प्रति संवेदना सभी के भीतर मृत थी।सृष्टि के आरंभ में स्त्री अस्त्रवाहिका थी, पितृयुग में समस्त अधिकारों का दमन कर दिया गया, यह वह समय था जब स्त्री अपने नैमित्तिक मार्ग पर चुपचाप चल रही थी। जहां वह साधन थी, विभिन्नकार्यों  के लिए प्रयुक्त की जाती थी। असूर्यपश्या नारी तब हुई जब पर्दा प्रथा आरंभ हुई। नारी ऋत्विज हुई तो केवल यज्ञ अनुष्ठानों में उसकी उपस्थिति का ढोंग कर पुनः उसका शोषण किए जाने हेतु।नारी तत्कालीन समय में परकीया भी हुई किन्तु वह भी अपनी इच्छा और अधिकारों से नहीं। 
 
इतिहास के स्वर्ण युग में भी स्त्री दशा में कोई सुधार नहीं हुआ, जिसका एक उदाहरण ध्रुवस्वामिनी की जीवन कथा है। अब स्त्री विज्जिका के रूप में भी पहचानी जाने लगी-  यह वह समय था जब स्त्री ने कौमुदी महोत्सव लिखा, किन्तु उसे खुले रूप में संस्कृत बोलने का अधिकार नहीं था। वह आज भी प्राकृत ही बोलती थी। साहित्यकारों ने, संस्कृत आचार्यों ने स्त्री को घृणित और त्याज्य बताया फिर वहीं दूसरी ओर उसी स्त्री के चित्र अजंता और एलोरा में किस निमित्त बनाए गए, उड़ीसा के मंदिरों में क्यूंकर इतने खुले चित्रों का अंकन किया गया। कुछ स्मृतिकारों ने स्त्री को कतिपय अधिकार भी दिए विज्ञानेश्वर और जीमूतवाहन द्वारा स्त्री को दिया गया तुच्छ औदार्य भी संसार को सहन न हुआ और फिर पुनर्जीवित हुई सती प्रथा, जिसे बंगाल में सर्वाधिक प्रश्रय मिला। उसे शिक्षा का अधिकार तो छोड़  जीवन का अधिकार भी नहीं था।
 
मुसलमानों, आक्रमणकारियों का आगमन और स्त्री दशा- मुसलमानों का आगमन होने पर स्त्री की दशा और भी दयनीय हो गई। फिरोजशाह के हरम में स्त्रियों की संख्या गणनातीत थी। अकबर के हरम में लगभग प्रत्येक जाति की स्त्री थी। सती दाह के साथ जौहर प्रथा भी बलवती हुई, आक्रमणकारियों द्वारा दुर्दशा किए जाने से कहीं अधिक सरल मार्ग स्त्री को यही प्रतीत हुआ। यही वह समय था जब पर्दा प्रथा ने जन्म लिया और पुनः स्त्री अपनी प्राचीन असूर्यपश्या स्थिति में आ गई। विदेशी होकर भी केवल अकबर ही एक ऐसा शासक था जो सती प्रथा का पूरी तरह अन्त अवश्य न कर सका किन्तु उसने कुछ सीमा तक अवश्य त्राण किया।
 
यूरोपीय अफसरों, समाज सुधारकों के प्रयास और स्त्री- यूरोपीय नारी स्वातंत्र्य की परंपरा ने स्त्री को आज़ाद किया। राजा राममोहन राय और विलियम बैंटिक के प्रयासों से स्त्री को सती प्रथा से मुक्ति मिली। ऐसे तमाम प्रयासों से उम्मीद की किरणें प्रस्फुटित हुईं।

‘‘सामने देखती हूँ, भविष्य की ओर हृदय आशा से भर उठता है। सदियों झेला है, पर सामने पौ फट रही है, उषाथिरक रही है। संघर्ष सामने है सही, पर जोर लगा कर बंधन तोड़ दूंगी, आगे की मंजिल सर करूँगी, जिन्होंने लाल सूरज को छिपा रखा है।”15

12 भागों में विभाजित नारी अस्तित्व की विकास यात्रा पर आधारित लेखक का यह रिपोर्ताज उस समय केवल रिपोर्ट मात्र नहीं रह जाता जब किसी सजग स्त्री पाठक के द्वारा यह पढ़ा और समझा जाता है,तब अतीत में अपनी जाति के प्रति हुए दुराव के क्षोभ से एक स्त्री हृदय भर उठता है। अपने व्यक्तित्व अपने अस्तित्व की उस निर्द्वन्द्व स्वछंदता को पाने के लिए उसका मन कसमसा उठता है। यही है एक रचना की सार्थकता कि उसका अपने समाज के प्रति देय क्या है? उसकी रचना क्या किसी भी प्रकार की क्रिया प्रतिक्रिया को जन्म देती है। किसी आवश्यक प्रतिरोध के प्रति और भी जागृत कर पाने में समर्थ हो पाती है। यदि ऐसा है तो निस्संदेह वह एक श्रेष्ठ कृति है।
 
लेखक की भाषायी सुदृढ़ता और परिपक्वता, अकथनीय व्यंजनाशक्ति ने रिपोर्ताज को प्रभावशाली बनाया। दर्शन और इतिहास के ज्ञाता भगवतशरण उपाध्याय की भाषा अत्यंत संस्कृत बहुल तत्सम प्रधान परिष्कृत परिमार्जित प्रभावशाली भाषा है। तत्सम, तद्भव, देशज, विदेशी, शब्द युग्म आदि के प्रयोग से वह भावों और विचारों का सतत प्रवाह उपस्थित करते हैं।समस्त रिपोर्ताज भाव, विचारों और तथ्यों का संगुम्फन है। इस रिपोर्ताज में प्रागैतिहास, मिथक, इतिहास, प्रकृति, साहित्य, समाज में नारी के अस्तितत्व संघर्ष और उसके दमन की कथा है, जो व्यवस्थित रूप में पाठक के सम्मुख प्रस्तुत की गई है।
 
स्त्री विमर्श की सैद्धान्तिकी के जन्म से बहुत पहले ही भगवत शरण उपाध्याय जी का यह रिपोर्ताज स्त्री संघर्ष की विधिवत आख्या को प्रस्तुत करता है। पौराणिक, ऐतिहासिक, नारी पात्रों के माध्यम से एक स्त्री की पीड़ा को सारगर्भित रूप से प्रस्तुत करता है। रिपोर्ताज में उठने वाले स्त्रियों के सवाल मानव समाज के कतिपय महिमामंडित पुरुष पात्रों के कृत्यों को न केवल समाज के सामने लाते हैं, अपितु उनके वैभवशाली व्यक्तित्व पर संशय की लकीर खींच देते हैं। जंतु परितंत्र में किसी भी मादा की स्थिति इतनी शोचनीय नहीं है। सतत् भोग्या और दास अपने अधिकारों के प्रति सदा से ही निश्चेष्ट
 
पुरुष के द्वारा नष्ट की गई मातृसत्ता पुनः यदि जीवित हो सकती है, तो पुनः पुरुष और स्त्री के समवेत प्रयास से। नारी एक सार्थक रिपोर्ताज है, जो प्रत्येक स्त्री को पढ़ना और समझना चाहिए और इस पृथ्वी पर अपने अस्तित्त्व के प्रति सटीक दिशा में सजग होना चाहिए। स्त्री के प्रति सदा से उदासीन समाज को उसके दैवीकरण से परे उसे मनुष्य होने, प्राणी होने के अपने स्वायत्त अधिकार से परिचित कराना होगा। इस दिशा में स्त्री के प्रयास के बिना कुछ भी संभव नहीं।उसे केवल एक स्तर पर ही नहीं अपितु प्रत्येक स्तर पर संघर्ष करना होगा। अपने अधिकारों की लड़ाई लड़नी होगी और उसमें उसके साथ देना होगा, उदारवादी समतावादी कतिपय पुरुषों को। जो प्रयास आज दिखाई भी देतेहैं, निरे नगण्य  प्रयास हैं -

“सरकारी ऋणों के आवंटन में भी खासा लिंग भेद है। कृषि, बागवानी, ट्रैक्टर या इस तरह की ठोस ज़रूरतों का पूरा सौ प्रतिशत पुरुषों के खाते में जाता है, स्त्रियों को सहायता मिलती है अचार, बड़ी, पापड़ या सिलाई कढ़ाई के काम के लिए।.........औरतों के लिए सामाजिक सुरक्षा के मायने भी उसके निराश्रित या विकलांग होने तक सीमित हैं और अगर उसे 150 रूपए प्रतिमाह की पेंशन भी मिलती है तो वह उसकी हकदार नहीं रह जाती।”16
 
“इतिहास की दृष्टि से एक विवाह प्रथा आगे की ओर एक बड़ा कदम थी, जिसने दास प्रथा और निजी सम्पत्ति के साथ मिलकर उस युग का श्री गणेश किया जो आज तक चला आ रहा है।”1ऐसी विषम परिस्थिति में मात्र शिक्षा ही वह हथियार है जो स्त्री अस्मिता और आत्मबल के भाव को उत्प्रेरित करता है।  वास्तव में उसे परिचित करता है कि एक मनुष्य के रूप में उसके क्या अधिकार हैं और क्या कर्त्तव्य हैं।  स्त्री शिक्षा ही स्त्री को उसके जायज़ हक़ के लिए जगाती है,जिस पर विचार करती हुई मैत्रेयी पुष्पा कहती हैं कि–

“इसीलिए स्त्री के शिक्षित होने से, स्त्री का जानकार और जुझारूपन पीढ़ियों को ज़िम्मेदार बनाता है जो दबे कुचले के संघर्ष को वाणी देने के लिए तत्पर करता है।”18
 
वस्तुतः यह रिपोर्ताज़ स्त्री को उसके वज़ूद के प्रति अभिप्रेरित करता है, और समाज को सृष्टि नियामक नारी की वास्तविक सत्ता और शक्ति के प्रति चेतन करता है, जिसके बिना जीवन की कोई गति नहीं। 1970-80 के दशक में लिखा गया यह रिपोर्ताज आज के स्त्रीवादी लेखकों के समकक्ष निर्भीकता के साथ स्त्री संघर्ष की एक विधिवत आख्या प्रस्तुत करता है।आज़ादी के 20-25 साल बाद की परिस्थितियों में लेखक का यह स्त्री विषयक पुरुष प्रतिरोधी लेखन स्त्रीवादी चिंतनधारा का प्रमुख अंग है। समस्त रिपोर्ताज स्त्री विषयक साम्यवादी विचारों की नीव है, जिसे नज़रअंदाज़ करना स्त्री विमर्श का अधूरा चिंतन है। स्त्री विमर्श की आरंभिक विचारधारा में यह महत्त्वपूर्ण सन्दर्भ है, जिसका अनुशीलन हमें वैचारिक परिपक्वता प्रदान करता है।
 
संदर्भ:
1. भगवतशरण उपाध्याय -ख़ून के छींटे इतिहास के पन्नों पर-वाणी प्रकाशन,4695, 21-, दरियागंज नई दिल्ली-110002, संस्करण 2004-2005-पृष्ठ-9
अनामिका-जन्म ले रहा है एक नया पुरुष-1-कविता कोश
3. जान स्टुअर्ट मिल(अनुवादक-युगांक धीर)-स्त्री और पराधीनता-संवाद प्रकाशन,आई-499, शास्त्रीनगर, मेरठ-250004 यू.पी. संस्करण-2020- भूमिका।
4. भगवतशरण उपाध्याय -ख़ून के छींटे इतिहास के पन्नों पर-वाणी प्रकाशन,4695, 21-, दरियागंज नई दिल्ली-110002, संस्करण 2004-2005 -पृष्ठ-9
5. वही-पृष्ठ-9
6. वही-पृष्ठ-10
7. वही-पृष्ठ-11
8. वही-पृष्ठ-11
9. फ्रेडरिक एंगेल्स-परिवार निजी सम्पत्ति और राज्य की उत्पत्ति, प्रकाशन संस्थान, 4268 बी,3, अंसारी रोड, दरियागंज नई दिल्ली-110002, संस्करण -2014-पृष्ठ-73
10भगवतशरण उपाध्याय -ख़ून के छींटे इतिहास के पन्नों पर-वाणी प्रकाशन,4695, 21-, दरियागंज नई दिल्ली-110002, संस्करण 2004-2005 -पृष्ठ-15
11सीताकान्त महापात्र-वर्षा की सुबह -राजकमल प्रकाशन लिमिटेड 1-बी नेताजी सुभाष मार्ग, नई दिल्ली-110002 संस्करण-1995- पृष्ठ -33
12. सीमोन द बोउवार (अनुवादक- डॉ.प्रभा ख़ेतान)-स्त्री: उपेक्षिता-हिन्दी पाकेट बुक्स प्रा.लि, दिलशाद गार्डन, जी. टी. रोड,दिल्ली-110005-संस्करण -1998- पृष्ठ-25
13. भगवतशरण उपाध्याय -ख़ून के छींटे इतिहास के पन्नों पर-वाणी प्रकाशन,4695, 21-, दरियागंज नई दिल्ली-110002, संस्करण 2004-2005 -पृष्ठ -19
14. वही-पृष्ठ-19
15.  वही-पृष्ठ-27
16. अनामिका-स्त्री विमर्श का लोकपक्ष, वाणी प्रकाशन, 4695, 21-, दरियागंज नई दिल्ली-110002, संस्करण -2012-–आवरण पृष्ठ
17.  वही-आवरण पृष्ठ
18. डॉ. नीलम, डॉ. नामदेव-स्त्री स्वर अतीत और वर्तमान-अक्षर पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स, दिल्ली -110094,संस्करण-2019-पृष्ठ -8
19. कात्यायनी -दुर्ग द्वार पर दस्तक-परिकल्पना प्रकाशन, 69 ए-1 बाबा का पुरवा, पेपर मिल रोड, निशांतगंज, लखनऊ-226006 यू.पी. संस्करण-2018
20. सीता कान्त महापात्र- शब्द, समय और संस्कृति -भारतीय ज्ञानपीठ 18, इंस्टीट्यूशनल एरियालोदी रोड नई दिल्ली-110003- संस्करण-2006
21. पुरुषोत्तम नारायण अग्रवाल- नालंदा अद्यतन कोष – आदिश बुक डिपो 7-A /29 डब्ल्यू. ई.ए. करौलबाग़, नई दिल्ली -110005 - संस्करण-1979
22. हजारीप्रसाद द्विवेदी - भाषा साहित्य और देश भारतीय ज्ञानपीठ 18, इंस्टीट्यूशनल एरियालोदी रोड नई दिल्ली-110003- संस्करण-1998
 
डॉ. नमस्या
सह-आचार्य, हिंदी विभाग, कला संकाय, डी. ई. आई. दयालबाग,
 
 
 अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  अंक-41, अप्रैल-जून 2022 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक एवं जितेन्द्र यादव, चित्रांकन : सत्या कुमारी (पटना)

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