- आरती शर्मा
बीज शब्द : महायुद्ध, चिकित्सा-शास्त्र, चीर-फाड़, पेनसिलिन, रिपोर्ताज, संस्कृति, भद्र, शिक्षित, शिथिल, मृदंग, कानाफूसी, ऋण, ग्रामीण, अंचल, आँचलिकता, काश्तकार, घूसखोर, देशद्रोही, जिजीविषा, उद्दाम, विह्वल, अभिव्यक्ति, अन्तःकरण, अस्तित्व, संवेदनाएँ, आंतरिकता, राग-विराग, पीड़ा, भारतीय, आत्महत्या, कटघरे, बुनियाद, प्रासंगिकता, वर्षपर्यंत।
मूल आलेख : फणीश्वर नाथ रेणु ने जितनी सफलता अपने कथा साहित्य में प्राप्त की है उतनी ही सफलता दूसरे विश्व युद्ध के बाद उपजी विधा संस्मरण और रिपोर्ताज में भी प्राप्त की है। राकेश रेणु लिखते हैं- “रेणु जिस परिवेश की कथा कह रहे होते अथवा जिस परिवेश के रिपोर्ताज लिख रहे होते उसकी जमीन उनकी अपनी जमीन थी, उसमें वे गहराई तक धँसे हुए थे, उसकी पीड़ा, राग-विराग, संवेदनाएँ रेणु की निजी संवेदनाएँ थी, उसका अनुभव रेणु का अनुभव था, उसके सुख-दुख रेणु के सुख-दुख थे। इसलिए जब वह उसे व्यक्त करते थे तो उस जनजीवन के सारे चित्र मुखरित होते थे, उनकी उद्दाम जिजीविषा मुखरित हो उठती थी। उनके लेखन में न केवल कथा भूमि की जीवंत धड़कन सुनी जा सकती है बल्कि संस्कृति के विभिन्न पक्षों पर उनकी गहरी समझ और आंतरिकता की अभिव्यक्ति भी देखी जा सकती है। बेचैन और विह्वल कर देने वाली भाषा और अभिव्यक्ति ज़मीन से जुड़े और उसमें धँसे बगैर संभव नहीं है।” रेणु स्वतंत्र भारत के ऐसे साहित्यकार हैं जिन्होंने अपने रचना साहित्य में अंचल को इस प्रकार चित्रित किया है कि जो बिहार के अंचल को ही प्रस्तुत नहीं करता बल्कि समूचे भारत के अंचल को अपने साहित्य में समेटे हुए है। रेणु का पालन-पोषण गाँव के परिवेश में हुआ। इसलिए गाँव का परिवेश उनके अंतर्मन में रचा-बसा हुआ है। रेणु स्वयं किसानी करते थे। किसान, दलित और मजदूर जिन-जिन संघर्षो से गुजरे, जिन-जिन परेशानियों से जूझते रहे हैं, उनको रेणु ने प्रत्यक्ष रूप से देखा-भोगा है। यही कारण है कि रेणु के साहित्य में दबे-कुचले, मजदूर, किसान, अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करने वाले निम्न एवं मध्यवर्ग के लोगों को स्थान दिया गया है। रेणु का मानना था - ...“गत महायुद्ध ने चिकित्सा-शास्त्र के चीर-फाड़(शल्य चिकित्सा) विभाग को पेनसिलिन दिया और साहित्य कथा-विभाग को रिपोर्ताज।” रेणु ने अपने सम्पूर्ण साहित्य में अपने प्रदेश की मिट्टी की सुगंध को कम नहीं होने दिया। चाहे उपन्यास हो, कहानियाँ हो या फिर संस्मरण- रिपोर्ताज, हर एक विधा में बिहार के गाँव, संस्कृति, देश-प्रेम, बोली और वहाँ बसने वाले लोगों का जीवन चित्र मिल ही जाते हैं। लेकिन वह जीवन सिर्फ बिहार का लोकजीवन नहीं रह जाता बल्कि उसमें सम्पूर्ण भारत के लोकजीवन की छवि नज़र आती है। ब्रजरतन जोशी लिखते हैं कि “रेणु का रचनाकार अपनी रचना प्रक्रिया में अपनी लोक संस्कृति के पूरे वैभव को प्रकट करता चलता है। इसलिए रेणु के रचना संस्कार में स्थान-स्थान पर अपने अंचल की लोकधुन, होली के गीत, विद्यापति का संगीत आदि मिलेंगे।” रेणु के साहित्य से यही प्रमाणित होता है कि अगर मनुष्य को अपनी अस्मिता और उसकी क्रमिक यात्रा का सहभागी बनाना है तो, उसको निश्चित रूप से अपनी सांस्कृतिक जड़ों से जुड़ना होगा। कई बीमारियों से जूझने के बावजूद भी रेणु सामाजिक क्रांति के लिए समर्पित अपने जीवन में कई आंदोलनों में सक्रिय रहे हैं। अपनी इसी विशेषता के चलते अपने अंचल के अन्तःकरण से रागात्मक संबंध रहा। इस रागात्मक संबंध के अस्तित्व के कारण ही विश्व की अन्यतम कृतियाँ भारतीय साहित्य को प्राप्त हुई।
ग्रामीण जीवन की विशेषता, उनका रहन-सहन, खान-पान, गाँव से जुड़े रहने और किसी भी परिस्थिति में अपने साहस को न छोड़ने की जो प्रवृति ग्रामीण लोगों में मिलती है वह कहीं और नहीं मिलती। रिपोर्ताज को साहित्य में स्थान दिलाने वाले लेखकों में रेणु का नाम महत्त्वपूर्ण है। इन्होंने अपने पहले उपन्यास 1954 में प्रकाशित मैला आँचल से ही आँचलिकता की नींव डाल दी थी। जो हिन्दी साहित्य जगत की महत्त्वपूर्ण उपलब्धि साबित हुई। रेणु समय की नब्ज को बखूबी पहचानते थे। उनका पहला रिपोर्ताज ‘बिदापत नाच’ ही इसका प्रमुख उदाहरण है। ‘बिदापत नाच’ रिपोर्ताज में लोक कला का चित्रण किया गया है। जो केवल निम्न स्तर के लोगो की ही चीज रह गई है। पढ़ा-लिखा वर्ग इन सब चीजों से स्वयं को दूर ही रखता है। भद्र समाज पर व्यंग्य करते हुए रेणु लिखते हैं- “जब से मैं अपने को भद्र और शिक्षित समझने लगा, तब से इस नाच से दूर रहने की चेष्टा करने लगा, किन्तु थोड़े दिनों के बाद ही मुझे अपनी ग़लती मालूम हुई और मैं इसके पीछे ‘फिदा’ रहने लगा। दु:ख है कि मुझे विफलता ही हाथ लगी। नाच के समय ज्योंही मैं पहुँचता, नाचने वाले के पाँव शिथिल पड़ जाते, मृदंग की आवाज़ धीमी पड़ जाती और नाच बंद होने-होने को हो जाता। दर्शकों में कानाफूसी होने लगती, मैं अपना-सा मुँह लेकर वापस हो आता।”
‘बिदापत नाच’ गरीब, मजदूर, दलित, आदि लोगो से जुड़ा लोक नाच है। जिसके माध्यम से गाँव के लोग अपने जीवन के सुख-दु:ख का वर्णन करते हैं। भारत की ग्रामीण समस्याओं का चित्रण रेणु अपने पूरे रचना संसार में करते हैं। भारतीय जन-जीवन में ऋण जैसी गंभीर समस्या आज भी समाज में बनी हुई है। और इस रोग से देश में किसान ऋण न चुका पाने के कारण आत्महत्या के लिए विवश है। रेणु इसी ऋण की समस्या और इसके साथ सूद के निरंतर बढ़ते जाने को जन गीत के माध्यम से प्रस्तुत करते हैं-
“हे नेक जी (नायक जी)!
हूँ!
आब हमरो सुनूँ! (अब मेरी सुनिए)
बाप रे!
बाप रे कोन दुर्गति नहीं भेल।
सात साल हम सूद चुकाओल,
तबहूँ उरिन नहीं भेलौ।..........
लोटा बेंच चौकीदारी।
बकरी बेंच सिपाही के देलियेन्ह,
फटकनाथ गिरधारी।”
एक गरीब व्यक्ति सात वर्ष से कर्ज चुकाता आ रहा है। पर कर्ज कम होने की बजाए बढ़ता ही जा रहा है। कोल्हू के बैल की तरह दिन-रात मेहनत की पर ऋण कम ही नहीं हुआ। थाली बेचकर पटवारी को दे दी,
लोटा बेचकर चौकीदारी में दे दिया और एक बकरी थी वो भी बेच दी और उसके रुपए सिपाही को दे दिए। अब तो फटकनाथ गिरधारी यानी पूरी तरह से कंगाल हो गया हूँ। आज़ाद भारत का आज का किसान भी ऋण से मुक्त नहीं है। किसान की समस्याएँ आज भी ज्यों-की-त्यों बनी हुई हैं। भले ही तकनीकी स्तर पर बदलाव हुआ है पर आज भी आज़ाद भारत का किसान गरीब का गरीब ही है। इस बिदापत नाच के बहाने दीन-दुःखी लोगों ने अपने लिए थोड़े ही समय के लिए पर खुशी के कुछ पल पा लिए। मेहनत से भरी इस ज़िंदगी में उनको थोड़ा समय स्वयं के लिए मिल गया।
भारत कृषि प्रधान देश है जहाँ प्राकृतिक आपदा,
अकाल के कारण सूखा पड़ जाने से खेती-बाड़ी ठप्प पड़ जाती है, वहीं बाढ़ के कारण फसल नष्ट हो जाती हैं। जिसका नतीजा ज़्यादातर किसानों और गरीब लोगो को ही भुगतना पड़ता है। ‘हड्डियों का पूल’ और ‘भूमिदर्शन की भूमिका’ रिपोर्ताज में इसी अकाल का वर्णन रेणु करते हैं। रेणु एकदम सजीव चित्र खींचते हैं ऐसा लगता है मानो कथा सामने ही चल रही है। “किसनपुर कोठी! ... पूर्णिया के सबसे बड़े काश्तकार... बिहार के सबसे बड़े काश्तकार... किसनपुर के गंभीर बाबू की हवेली यही है। ... सुफेद मकान... राजदरबार... अनाज के बखारों की कतार ... लक्ष्मी यहीं बिराजती हैं... अन्न मिलेगा... क्या?...?...
अन्न नहीं... काम नहीं... जिनके पास पचास से भी ज्यादे कामत हों और हरेक कामत पर औसतन बीस हज़ार मन से भी ज्यादे धान होता हो...वहाँ अन्न नहीं?... जिले के विशाल भू-भाग पर जिसके पुराने ‘हल’ से लेकर ‘ट्रैक्टर’ तक चलते हों... वहाँ अन्न नहीं?...
तो आगे बढ़ना बेकार है।...”
गरीब लोगो के पास खाने के लिए भोजन नहीं है,
करने के लिए काम नहीं है। पर रेलगाड़ी के द्वारा दूसरे देशों में सामान भेजा जा रहा है। क्योंकि वो गरीब लोग उस सामान की दगुनी कीमत नहीं दे सकते। रेणु राजनीति के दाँव-पेंच भी बखूबी समझते थे। सरकार पर भी व्यंग्य कसते हुए कहते हैं- “और जो कांग्रेस में नहीं- वह गलत आदमी है। जो चोरी नहीं करे, वह गद्दार है। जो घूसख़ोरी रोकने की बात करे, वह देशद्रोही है! भूख लगी है, रोटी दो! कहने वाला भिखारी है! भूख से दम तोड़नेवाला बीमार है! सब गलत एक गद्दी सत्य!” आज के समय की बात करें तो आज भी यही परिस्थितियाँ हैं। आप अगर सरकार के खिलाफ या उसके किसी फैसले के खिलाफ बोलते हैं तो आपको आतंकवादी या देशद्रोही कह दिया जाता है। आदमी पूरा दिन काम करता है ताकि दो वक़्त की रोटी का इंतजाम कर सके। पर आज बेरोज़गारी की समस्या बढ़ती ही जा रही है। सरकारी चीज़ों का निजीकरण किया जा रहा है और ऐसी अनैतिक नीतियों का विरोध करने पर आपको देशद्रोही कह दिया जाता है तब रेणु की यह पंक्तियाँ बरबस ही प्रासंगिक हो उठती हैं और सत्ता के चरित्र को उद्घाटित करती हैं।
‘भूमि दर्शन की भूमिका’ रिपोर्ताज में अकाल से पीड़ित लोगो और सरकारी भ्रष्ट तंत्र की ओर इशारा करते हुए दिखाई पड़ते हैं। “रोज़ दिल्ली अर्थात् केंद्र से कोई-न-कोई ‘अन्नदाता’ उड़कर आता है ‘ड्राउट’ देखने। (छत्तर का मेला हो गया यह ड्राउट!) रोज़ राज्य का कोई न कोई मालिक(बड़ा, छोटा, मँझला, सँझला, पांचू, छठ, सत्तों.... मालिकों का अकाल है यहाँ? एक पर एक मालिक हैं) ‘भयानक’ और ‘भीषण’ बयान दे डालता है, केंद्र के अन्नदाता कहते हैं, पहले उन चूहों का अंत करो जो अन्न-वस्त्र को ही नहीं, सारे राज्य की जनता की आत्मा को कुतर रहे हैं।”
अकाल से ऐसी स्थिति पैदा हो गई है कि मानवता की धज्जियां उड़ाई जाती हैं। सत्य,
अहिंसा, गांधी के विचार सबको कुचला गया। भूखमरी के कारण लोग मर रहे हैं और वहीं जमीदारों के यहाँ खीर, पूरी पकवान बना-बनाकर खाए जा रहे हैं। आज भी यही स्थिति है। आज जिस महामारी(करोना महामारी) से पूरा विश्व जूझ रहा है। वहाँ गरीब और भी गरीब होते चले गए हैं। न जाने कितने ही लोगो को नौकरियाँ से हाथ धोना पड़ा। बेरोज़गारी का स्तर तो बढ़ता ही चला गया। आज के युवा पढ़-लिखकर भी बेरोजगार बैठे हैं। सरकार के पास नई सीटें ही नहीं है। जो सरकारी नियुक्तियाँ निकाली भी जाती हैं तो उनकी भर्ती का कार्य कई वर्षों के बाद पूरा होता है। अर्थव्यवस्था ऊपर उठने की बजाए और नीचे गिरती गई है।
प्रकृति के प्रकोप से कौन बचा है आज तक?
बाढ़ न जाने कितने ही लोगों के घर-बारों को लील जाती है। बारिश अत्यधिक होने से बाढ़ की समस्या को भारत में हर साल ही देखा जाता है। कभी पूर्वोत्तर भारत में तो कभी दक्षिण भारत में तो कभी उत्तर भारत में। पर इस समस्या का हल अभी तक नहीं निकल पाया है। ‘पुरानी काहनी : नया पाठ’ और ‘पटना–जल प्रलय’ दोनों ही रिपोर्ताज में रेणु इसी भयानक बाढ़ का चित्रण करते हैं। जिसकी चपेट में पटना शहर भी आ जाता है। ‘पटना-जल प्रलय’ में तो रेणु ने स्वयं बाढ़ को आँखों से देखा और उन परिस्थितियों को भोगा है। लगातार बारिश होने के कारण पटना शहर धीरे-धीरे पानी की चपेट में आ रहा है। लेखक अपनी पुरानी स्मृतियों में चले जाते हैं, जहाँ रेणु बाढ़ पीड़ितों को राहत पहुँचाने का कार्य किया करते थे। यहाँ ‘फ्लैश बैक’ शैली का प्रयोग किया गया है। बाढ़ से पीड़ितों को राहत पहुँचाने आए लोग कैसे अमीर-गरीब में भेद करते हैं। कैसे सरकरी अफ़सर राहत-बचाव के नाम पर पैसा लेकर अपनी जेबों को भरते हैं। जो सामान बाढ़ पीड़ित जनता को मिलना चाहिए वो उन तक पहुँचता ही नहीं है। और अगर कुछ सामान पहुँच भी जाता है तो उसकी या तो मात्रा कम होती है या उसकी गुणवत्ता। “क्या तमाशा है! फिर, पीक थूककर चालू हो गए – एज़ एफ वी आर लेबरर... तमाशा है... दिल्ली का ब्रेड कहाँ है? बतलाइए। बटर, केक, ‘चीज़’ कुछ भी नहीं, सिर्फ चूड़ा-चना-फहरी?...”
यहाँ रेणु ये बताना चाहते हैं कि अखबारों और रेडियो पर जो सरकारी अफसर बड़ी –बड़ी बातें बघार रहे हैं, बाढ़ पीड़ित लोगों के लिए पौष्टिक भोजन, कपड़े और अन्य सामान भेजने की जो बात हो रही है, असल में वो सब दिखावा है। व्यंग्य का प्रयोग इस रिपोर्ताज में बखूबी किया गया है। लोक-कथाओं का प्रयोग भी रेणु ने रिपोर्ताज में किया है जिससे पाठक में रोचकता बढ़ती है। प्रतीकों, बिंबों और आंचलिक शब्दावली के प्रयोग से रिपोर्ताज में और भी निखार आया। इस रिपोर्ताज का ऐतिहासिक महत्त्व भी है क्योंकि बाढ़ किसी बाढ़ग्रस्त क्षेत्र में नहीं बल्कि पटना शहर में आई थी। भारत के लोग दुःख में भी कुछ न कुछ करके खुश होने का मौका ढूंढ ही लेते हैं। भारतीय लोग उत्सवधर्मी है इस ओर भी रेणु ने पाठक वर्ग का ध्यान आकर्षित किया है। रेणु ने अपने रिपोर्ताज में सामाजिक विसंगतियों, सरकारी भ्रष्ट-तंत्र पर बहुत तीखा और करारा प्रहार किया है। इनके रिपोर्ताज भी साहित्य जगत में आँचलिकता की छाप छोड़ते हैं। रेणु ने भाषा में भी देशज, विदेशी आदि शब्दों को सहर्ष स्वीकार किया है। इनके द्वारा प्रयोग किए गए मुहावरे और लोकोक्तियाँ जमीन से जुड़े रहने की ओर बाध्य करते हैं तो वहीं गीतों का प्रयोग भी हृदय को छूने वाला है। जो बिलकुल भी थोपे हुए नहीं लगते बल्कि पाठक को बांधे रखते हैं। रेणु के रिपोर्ताज नाटकीयता के तत्त्व भी लिए हुए हैं। संवादों का प्रयोग इस प्रकार से किया गया है कि पाठक के सामने चित्र बनते चले जाते हैं। रिपोर्ताज में प्रयुक्त हुए बिंबों और प्रतीकों के माध्यम से पाठक के सामने दृश्य चलायमान होने लगता है।
रेणु के जीवन का काफी समय नेपाल के विराटनगर में गुजरा था। जिसके कारण से रेणु वहाँ की परिस्थितियों से तो परिचित थे ही साथ ही वहाँ के तानाशाही तंत्र को भी बखूबी जानते थे। ‘सरहद के उस पार’ रिपोर्ताज में विराटनगर के मज़दूरों की दयनीय गाथा का चित्रण किया गया है। वहाँ मजदूरों के साथ पूंजीपति मनमाने ढंग से पेश आते थे। उनके साथ जानवरों जैसा सुलूक किया जाता था। मजदूर अपनी यूनियन भी नहीं बना सकते थे। न ही हड़ताल कर सकते थे। इस रिपोर्ताज के प्रकाशन के बाद विराटनगर में मजदूरों ने पूँजीपतियों और राणाशाही सरकार के खिलाफ आंदोलन शुरू कर दिया। रेणु भी इस आंदोलन में मजदूरों के साथ थे। उन्होंने ‘सरहद के उस पार’ रिपोर्ताज में ये भी बताया कि क्रांति होगी। मजदूर अपने ऊपर हो रहे अत्याचार के खिलाफ आवाज़ जरूर उठाएँगे। रेणु लिखते हैं- “उफ...! बहुत जल्दी ही इन पूँजीपतियों के घर में नेपाल राज्य बंधक पड़ जाएगा। बस,
आप निराश हो गए? मैं कहता हूँ, सुनिए – बहुत शीघ्र ही यहाँ जबरदस्त क्रांति होगी और सफल क्रांति होगी। निरंकुश नेपाली शासकों के साथ-साथ इन पूँजीपतियों के गठबंधन ने कोढ़ में खाज का काम किया है। नेपाल के चैतन्य समाज की आँखें खुल चुकी हैं।”
ऐसा होता भी है,
मजदूर, सरकार और पूँजीपतियों के खिलाफ आंदोलन करते हैं। गोलियां खाते हैं, मरते हैं, घायल होते हैं लेकिन टूटते नहीं हैं। अपना धैर्य और विवेक बनाए रखते हैं। इसी जिजीविषा और दृढ़ निश्चय के कारण ही नेपाल में प्रजातंत्र स्थापित हो पाया। रेणु किसान, मज़दूरों गरीबों और शोषित वर्ग के प्रति पूर्णत: समर्पित थे। किसान आंदोलन में वे स्वयं उनके साथ जाया करते थे। पटना में हुए किसान आंदोलन में रेणु पूर्णिया से पटना तक कई किसानों के साथ पैदल ही पहुँचे थे। ‘नए सवेरे की आशा’ रिपोर्ताज इसी तर्ज पर लिखा गया रिपोर्ताज है। कथा का नायक ‘ज्ञान’ रेणु के चरित्र को दर्शाता है। आज किसान अपने अधिकारों और अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है। पिछले कई दिनों से किसान आंदोलन की तस्वीरे अखबाओं और न्यूज चेनलों पर देखी ही जा सकती हैं। देश की परिस्थियाँ इतनी बिगड़ रही हैं कि देश के लिए अन्न पैदा करने वाले, दिन-रात मेहनत करके दूसरों को भोजन देने वाले किसान को देशद्रोही या आतंकवादी कहा जा रहा है। उसकी बातों को अनसुना किया जा रहा। लोकतंत्र के नाम पर राजतंत्र चलाया जा रहा है। रेणु के द्वारा लिखे गए रिपोर्ताज अपने समय की परिस्थितियों को तो बयाँ करते ही हैं साथ आज के भारत की भी तसवीर को भी सामने लाते हैं। आज भी भ्रष्टाचार, लूट-खसोरी, बाढ़ और अकाल के नाम पर होने वाले घोटाले निरंतर बढ़ ही रहे हैं। किसान-मजदूर-गरीब आज भी तिल-तिलकर मर रहा है और उसकी थाह लेने वाला कोई नहीं है।
रेणु के कथा संसार के संबंध में चितरंजन भारती लिखते हैं “रेणु की रचनाओं के अध्ययन-मनन के दौरान संवेदन मन एक तरफ संतप्त होता है,
तो दूसरी तरफ संतृप्त भी होता है। ठीक है कि उन पर आँचलिकता का ठप्पा लगा, मगर वह एक अंचल विशेष की बात कहते समग्र समाज और देस कि ही बात करते हैं। उनकी रचनाओं में ग्रामीण परिवेश मुखर है। मगर उन्होंने शहरों को अनदेखा किया, ऐसा नहीं कहा जा सकता। दरअसल, जब जब वह पटना में होते हैं, तो पूर्णिया उन्हें खींचता रहा है। वैसे ही, जैसे जब वह पूर्णिया में होते हैं, तो पटना उन्हें खींच रहा होता है। उनका विशाल परिवार, गाँव आदि, जिसका एक छोर नेपाल से, तो दूसरा छोर बंगाल से जुड़ा है। तिस पर उनका विद्रोही तेवर, जो कभी ब्रिटिश साम्राज्य से, तो कभी नेपाली राजशाही से टकराने का हौसला देता रहा। और यही हिम्मत और हौसला कहें कि वह भारतीय कांग्रेसी सत्ता का लाभ ले रहे और आपातकाल को अनुशासन पर्व कहने वालों के विपरीत उससे जा टकराए।” स्पष्ट रूप से फणीश्वर नाथ रेणु के रिपोर्ताज आज की विषम परिस्थितियों, देश की गंभीर समस्याओं को कटघरे में खड़ा करते हैं। उनका सम्पूर्ण साहित्य मानवीय मूल्यों की बुनियाद पर खड़ा है और वर्षों बाद भी अपनी प्रासंगिकता को बनाए रखेगा।
संदर्भ :
- राकेश रेणु : ‘रेणु की पत्रकारिता’, मधुमती
(वर्ष 61,
अंक
3),
मार्च,
2021, पृ. 86
- रेणु फणीश्वरनाथ. (2002).
समय
की शिला पर. नई दिल्ली: राजकमल प्रकाशन. पृ. 5
- ब्रजरतन जोशी : ‘रेणु: विद्रोही संत’ (संपादक
की बात),
मधुमती
(वर्ष 61,
अंक
3),
मार्च,
2021, पृ. 8
- रेणु फणीश्वरनाथ. (2002).
समय
की शिला पर. नई दिल्ली: राजकमल प्रकाशन. पृ. 15
- वही, पृ. 18-19
- वही, पृ. 50
- वही, पृ. 54
- वही, पृ. 170
- वही, पृ. 307
- वही, पृ. 24
- चितरंजन भारती : ‘रेणु का कथा संसार’, मधुमती (वर्ष 61, अंक 3), मार्च, 2021, पृष्ठ 65
शोधार्थी, पी-एच.डी. हिन्दी विभाग, त्रिपुरा विश्वविद्यालय, सूर्यमणिनगर
arti6945@gmail.com, 9250458560
अतिथि सम्पादक : मनीष रंजन
सम्पादन सहयोग : प्रवीण कुमार जोशी, मोहम्मद हुसैन डायर, मैना शर्मा और अभिनव सरोवा चित्रांकन : मीनाक्षी झा बनर्जी(पटना)
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