- डॉ. सिन्धु सुमन
शोध सार : हिन्दी के अमर कथा-शिल्पी फणीश्वरनाथ रेणु हिन्दी साहित्य जगत में विशिष्ट स्थान के अधिकारी हैं।उनकी साहित्यिक प्रतिभा का स्वाभाविक विकास उपन्यासों और कहानियों में ही नहीं, बल्कि उनके रिपोर्ताज, स्केच, निबन्ध, संस्मरण, नाटिका, हास्य-व्यंग्य, पत्र, रपटें, साक्षात्कार आदि विभिन्न विधाओं में भी हुआ है। ये विधाएँ साहित्य के विविधताओं की द्योतक होने के साथ-साथ रेणु की सृजनशीलता और उनके जीवानुभवों के नये आयाम भी प्रस्तुत करती हैं। यहाँ हम उनके साक्षात्कारों पर चर्चा करने जा रहे हैं। रेणु के साक्षात्कार उनके बहुआयामी व्यक्तित्व के विभिन्न पक्षों को उजागर करते हैं। ये साक्षात्कार उनकी मान्यताओं, संस्कारों, मूल्यों, जीवन-दर्शन, विश्वास, प्रतिबद्धता के आग्रहों को प्रकट करते नजर आते हैं। इन साक्षात्कारों में रेणु अपने विभिन्न अनुभवों से गुजरते हुए कभी उल्लास मग्न दिखलाई पड़ते हैं, कभी आक्रोश से भरे हुए तो कभी हताश और दुखी। इनके साक्षात्कार ये प्रमाणित करते हैं कि रेणु क्रांतिकारी, आंदोलनकारी, किसान और साहित्यकार हैं और इन सबको मिलाकर ही बना है उनका यह प्रेरक व्यक्तित्व।
बीज शब्द : जीवानुभव, रचनाधर्मिता, प्रतिबद्धता, यथार्थपरक दृष्टि, जनपक्षधरता।
मूल आलेख : साक्षात्कार आधुनिक साहित्य की एक नव्यतम विधा है। इसलिए नव्यतम है, क्योंकि यह संस्मरण, रेखाचित्र आदि से भी नया है। साक्षात्कार अंग्रेजी के ‘इंटरव्यू’ का हिन्दी रूपान्तर है। ‘विशेष परिचर्चा’, ‘भेंट-वार्ता’ आदि जो शब्द हैं, वे इसके समानार्थी शब्द के रूप में प्रयुक्त होते रहे हैं। पर आज ‘साक्षात्कार’ तथा ‘इंटरव्यू’ शब्द ही अधिक प्रचलित हैं। साक्षात्कार के उद्भव में उन परिस्थितियों का बहुत बड़ा योगदान है, जिन्होंने विश्व-स्तर पर व्यक्ति-स्वातंत्र्य तथा व्यक्ति की महत्ता को प्रतिष्ठित किया। ‘हिन्दी साहित्य के वृहत, इतिहास’ में साक्षात्कार को परिभाषित करते हुए लिखा गया है, ‘इंटरव्यू’ शब्द से आज एक ऐसी विशिष्ट कोटि की साहित्यिक विधा का बोध होता है जिसमें एक जिज्ञासु व्यक्ति जीवन के किसी क्षेत्र में विद्यमान अन्य किसी व्यक्ति (विशेषकर प्रख्यात और महत्त्वपूर्ण व्यक्ति) से प्रत्यक्ष मिलकर उसके बारे में सीधे-सीधे जानकारी प्राप्त करता है।”1 डॉ. रामचन्द्र तिवारी भी साक्षात्कार के सम्बन्ध में लिखते हैं, “इंटरव्यू लघु और बड़े के बीच ही अधिक बनता है।”2 हिन्दी में साक्षात्कार को प्रारंभ करने का श्रेय पं. बनारसी दास चतुर्वेदी को जाता है जबकि इस विधा की प्रथम स्वतंत्र कृति बेनीमाधव शर्मा की ‘कवि दर्शन’ को माना गया है। साक्षात्कार विधा की समृद्धि में सारिका, नई धारा, धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान आदि पत्रिकाओं का महत्त्वपूर्ण योगदान है जिसे भुलाया नहीं जा सकता।
साक्षात्कार को आज एक लोकप्रिय विधा के रूप में जाना जाता है। किन्तु यह जानना भी जरूरी है कि महज प्रश्नोत्तर या वार्तालाप को एक सफल साक्षात्कार नहीं माना जा सकता है। साक्षात्कार उन मनःस्थितियों तथा परिस्थितियों का लेखा-जोखा है जिनके बीच साहित्यकार अपनी रचना भूमि की नींव रखता है। यह तत्कालीन परिस्थितियों के बीच रचनाकार के जीवन-संघर्ष को निरूपित करता है। आजकल विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में पत्रकार के माध्यम से विपुल मात्रा में इंटरव्यू प्रकाशित हो रहे हैं जिन्हें हम साहित्यिक नहीं मान सकते।
साहित्यिक जगत में प्रतिष्ठित होने के बाद रेणु के साक्षात्कार भी विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगे थे। रेणु को समझने, उनके रचना संसार को समझने में ये साक्षात्कार महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। अपने साक्षात्कारों में रेणु बहुत ही बेपरवाह और बहुत अधिक खुले दिखलाई पड़ते हैं। अपने निबन्धों में रेणु अपनी बातों को स्पष्ट रूप से व्यक्त नहीं कर पाते हैं, लेकिन अपने साक्षात्कारों में वे अपने-आपको खोलकर रख देते हैं। इन सबका कारण यह है कि रेणु का जो रचनाकार मन है, वह सिर्फ सहज-भूमि पर ही अपने आपको प्रतिष्ठित कर पाता है। निबंधों की जो भूमि होती है, वह बँधी हुई होती है, उस पर वे असहज हो उठते हैं। रेणु जब वार्तालाप के स्तर पर आते हैं तो वे पूरी तरह सहज, उन्मुक्त एवं आत्मीय हो उठते हैं, क्योंकि गप्पे लड़ाना, उनके सबसे प्रिय कार्यों में से एक है। उनके साक्षात्कारों के सम्बन्ध में भारत यायावर का यह कथन ठीक ही है, “रेणु के साक्षात्कारों को पढ़ना - उनसे मिलने की तरह है।”3
रेणु के साक्षात्कार सिर्फ विचारों की परिधि तक ही सीमित नहीं हैं। वे अपने साक्षात्कारों में जीवन के विभिन्न अनुभवों से गुजरते दिखलाई पड़ते हैं। उनमें वे कभी खुशी से झूमते दिखलाई देते हैं तो कभी गुस्से से भरे दिखलाई देते हैं। कभी वे बहुत ही चिन्तित होते हैं,
तो कभी दुखी। तात्पर्य यह है कि उनके ये साक्षात्कार उनके विचारों को तो प्रकट करते ही हैं, साथ-ही-साथ उनके अनुभव-जगत को भी उजागर करते दिखलाई पड़ते हैं। उनके साक्षात्कारों से गुजरते हुए हम सहज ही रेणु को बीमारों के देश में विचरते, अपने प्रान्त की जनता के साथ खड़े होते, छात्रों के साथ कंधा मिलाते, खेती करने में कविता का आनन्द पाते, जेल की यातनाएँ सहते और अपनी जुल्फों को छेड़ते हुए देख सकते हैं।
रेणु के साक्षात्कार हमें सिर्फ रेणु को समझने में ही मदद नहीं करते,
बल्कि रेणु के समय को, उनके समाज को भी करीब से उकेरते हैं। रेणु के साक्षात्कारों की विशिष्टता को उद्धृत करते हुए रेणु रचनावली के संपादक भारत यायावर कहते हैं, “इसमें एक कृषक का, एक लेखक का, एक राजनीतिक का, एक बीमार का, एक कैदी का और भी कई आयाम एवं प्रसंग! रेणु से लिए गए साक्षात्कार इन सभी प्रसंगों पर है, यानी ये रेणु के पूरे जीवन से साक्षात् कराते हैं। खेती करने में कविता करने का आनंद पाने वाले रेणु का मन, बीमारों की दुनिया में जी रहे रेणु का मन, जेल में पीड़ित मनः स्थिति में रह रहे रेणु का मन, चुनाव लड़ रहे रेणु का मन, आंदोलन में भाग ले रहे रेणु का मन और इमरजेंसी के दौरान का रेणु का मन - एक ही मन है या अनेक? रेणु बातचीत करते हुए और अपने बारे में लंबे संस्मरण सुनाते हुए इसमें मिलते हैं जिनका रेणु के पाठकों के लिए बहुत महत्त्व है।”4
रेणु ने अपने जीवन की शुरूआत राजनीति से की थी। लेकिन गंदी राजनीति ओर उसकी गुटबन्दी से वे संतुष्ट नहीं रह सके और साहित्य को अपने कैरियर के रूप में चुना। इन साक्षात्कारों में हमें रेणु के राजनीतिक जीवन की झलकियाँ तो मिलती ही हैं,
साथ-ही-साथ समाज के संबंध में उनकी जो मान्यताएँ हैं, उनसे भी हम रू-ब-रू होते हैं।
रेणु को जाननेवाले यह भी जानते हैं कि जब 1972 ई. में बिहार विधान सभा का मध्यावधि चुनाव हुआ था, तो वे अपने क्षेत्र फारबिसगंज से एक निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में खड़े हुए थे। हालाँकि उनका राजनीति में यह पहला प्रवेश न था। इससे पहले भी 1942 ई. के आंदोलन के दौरान समय की माँग पर उन्होंने कलम छोड़ बंदूक उठा ली थी। इस समय रेणु से अनेक सवाल किये गये जैसे आपने राजनीति को छोड़कर साहित्य के क्षेत्र में कदम क्यों रखा, फिर आपने राजनीति को ज्वाईन कर लिया और चुनाव लड़ रहे हैं, आदि आदि।
1942 ई. में जब ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ हुआ था, उसमें रेणु ने भाग लिया था और वे जेल भी गए थे। जिस पीढ़ी ने पराधीनता का दर्द झेला था, उसी पीढ़ी से जुड़े हुए थे रेणु। उनके लिए स्वाधीनता की प्राप्ति संघर्षों - यातनाओं की लम्बी गाथा थी। इसलिए स्वाधीनता राष्ट्र-निर्माण की आशा का संदेश लेकर आयी थी उनके लिए। पर 20-25 वर्ष के अन्तराल में नव-निर्माण के सारे सपने धुंधले हो गये और देश स्वार्थी राजनीतिज्ञों का गन्दा अखाड़ा बन कर रह गया।
रेणु की सतर्क आँखें इन सब चीजों को देख रही थीं। उन्हें अपनी रचनाधर्मिता पर संदेह होने लगा था। उनके मन में अनेक तरह के सवाल उठने लगे थे। वे इसकी चर्चा समीर राय चौधरी को दिए अपने एक साक्षात्कार में करते हैं। उन्होंने जो देश के लिए स्वप्न देखा था उसकी भी चर्चा वे करते हैं,
“ऐसा भारतवर्ष हमने चाहा था? पच्चीस वर्षों में हम कहाँ आकर खड़े हैं?”5 पूरे समाज को खोखला करनेवाले अंतर्विरोधों को वे एक नजर में पहचान लेते हैं। वे कहते हैं, “इन छब्बीस - सत्ताइस सालों में काफी होशियारी से हिन्दुस्तान के जीवन से उन्होंने अच्छाइयों को सुस्त कर हर क्षेत्र को स्वार्थ और निष्ठुरता से भर दिया है।”6 रेणु को इस बात का भी दुख है कि, “अन्याय की जिस प्रक्रिया का आरंभ आजादी के बाद हुआ, उसका सक्रिय विरोध मुझे आरंभ में ही करना चाहिए था।”7
रेणु साहित्य को समाज को परिवर्तित करने का अस्त्र मानते थे,
लेकिन समाज में सर्वत्र फैल रही गंदगी और सड़े समाज को देखकर उनको अपना लेखन व्यर्थ लगने लगता है। वे साहित्यकार की तटस्थता को अपराध मानते थे। पत्रकार विश्वनाथ को दिए अपने साक्षात्कार में वे रचनाकारों का आह्वाहन करते हुए कहते हैं, “आज लेखक को सिर्फ कलम ही नहीं चलानी है, बल्कि परिवर्तन की इस प्रक्रिया में सक्रिय भाग भी लेना है।”8
साहित्य की जानी-पहचानी प्रतिष्ठा को छोड़कर राजनीति में प्रवेश करने का एकमात्र यही कारण था,
इसलिए वे चुनाव लड़ने का जोखिम उठाते हैं। वे चुनाव लड़ने का स्पष्ट कारण जुगनू शारदेय को बताते हैं, “तो मैं चुनाव लड़ रहा हूँ- अपने क्षेत्र के साधारण जन के सुख-दुख में सक्रिय रूप से हाथ बँटाने के लिए। अपने क्षेत्र की नयी पीढ़ी, नयी पौध, नयी फसल की निगरानी करने के लिए।”9
राजनीति से रेणु का जुड़ाव उनकी सृजनशीलता के लिए ख़ाद-पानी की तरह भी था। उनकी रचनाएँ उनके अनुभव जगत की देन थीं। उनके पाँव हमेशा जमीन से जुड़े रहे और वे अपनी रचनाशीलता के लिए जमीन से ही ऊर्जा प्राप्त करते रहे। उनका मानना था कि कल्पना के आकाश में जाकर जो अपनी रचनाओं का सृजन करता है, उनकी रचनाओं में प्रायः गहराई का अभाव होता है।
रेणु यह स्वीकार करते हैं कि उनके साहित्य को समृद्ध करने में चुनाव में उनकी भागीदारी अहम भूमिका निभाएगी। उनके साहित्य को प्रभावशाली बनाने में उपयोगी सिद्ध होगी। वे यह स्वीकार करते हैं,
“अपने राजनीतिक दिनों के अनुभव को ही मैंने अपने उपन्यासों और कहानियों में सहेजा, समेटा। फिर जब मेरा अनुभव संसार रिक्त पड़ने लगा तो मन में बेचैनी बढ़ने लगी।”10 यथार्थ से रेणु का गहरा लगाव ही उन्हें इतनी अच्छी रचनाओं के सृजन की प्रेरणा देता था।
राजनीति में भाग लेकर भी रेणु किसी पार्टी-विशेष के समर्थक नहीं बने थे। वे केवल जन-साधारण के दुख में भागीदार बनना चाहते थे। उनकी प्रतिबद्धता केवल मनुष्य के साथ थी। वे कहते हैं,
“मैं प्रतिबद्धता का केवल एक ही अर्थ समझता हूँ - आदमी के प्रति प्रतिबद्धता, बाकी सब बकवास है।”11 राजनीतिक विडम्बनाओं की, साहित्य के राजनीति में रंग जाने की चर्चा वे एक उदाहरण देकर बताते हैं, “एक युवती जुलूस में है, उसके उठे हाथ में एक झण्डा है। यहाँ तक तो ठीक है। क्या अपने आप में यह एक प्रगतिशील रचना नहीं है? लेकिन नहीं, उस झण्डे में रंग भरा जाता है - उस पर अपने सिंबल्स चस्पा किए जाते हैं। इसी को रोकना होगा।”12
राजनीति से गहरा संबंध रखने के बावजूद भी रेणु मुख्य रूप से एक कलाकार ही रहे,
एक ऐसा कलाकार जिसकी हर लड़ाई केवल मनुष्य के साथ थी। किसी राजनीतिक पार्टी, किसी व्यक्ति या किसी संस्था के साथ उनका कोई मत भेद नहीं था, यहाँ तक कि किसी सिद्धान्त-विशेष के साथ भी नहीं। 1974 ई. में जो आंदोलन हुआ था। उस आन्दोलन के सम्बन्ध में वे यादवेन्द्र पांडेय से बातचीत करते हुए कहते हैं, “डायरेक्ट इन्वाल्मेंट द्वारा मृत्युपर्यन्त अब आदमी की लड़ाई लड़ता रहूँगा, कलाकार की हैसियत से आदमी की खोज करना ही मेरी प्रतिबद्धता है।”13
जीवन की खोज व इसी प्रतिबद्धता का प्रमाण और परिणाम है,
रेणु का साहित्य। 1974 ई. में हुए आंदोलन में उनका भाग लेना, उनके मन की छटपटाहट, उनके अंदर का गुस्सा इसी का प्रमाण था। यदि आज वे जिंदा रहते तो अपने इन नये अनुभवों से साहित्य को पुनः कोई अनोखा उपहार दे जाते। सृजन की जिस पीड़ा को रेणु झेल रहे थे, उसे अपनी रचना का रूप दिए बिना ही वे मृत्यु के आगोश में चले गए। इस दर्द का उनके पत्रों एवं साक्षात्कारों में बार-बार उल्लेख किया गया है। उनका इस तरह से दुनिया से चले जाना, साहित्य जगत की एक अपूरणीय क्षति थी।
अपने साक्षात्कारों में रेणु गाँव एवं शहरी जीवन के बदलाव की चर्चा बार-बार करते हैं। उनकी दृष्टि यथार्थपरक थी। वे हमेशा समय की नब्ज पकड़ते थे। छोटे-से-छोटे परिवर्तन भी उनकी सतर्क नजर से छूट नहीं पाते थे। सुवास कुमार के साथ हुए अपने साक्षात्कार में वे इन सबकी चर्चा विस्तारपूर्वक करते हैं। उनका मानना था कि ‘आदर्श यथार्थ से और यथार्थ आदर्श से निरपेक्ष हो ही नहीं सकता।’ इसलिए वे नये आदर्श गढ़ने की आवश्यकता को महसूस करते हैं।
युवा कथाकार सुवास कुमार से हुए अपने साक्षात्कार में वे अपने गाँव तथा फसल की चर्चा करते हुए जिस प्रकार खुश होते हैं,
उससे गाँव के प्रति उनकी सच्ची एवं हार्दिक आत्मीयता का पता चलता है। वे सुवास कुमार को अपना खेत दिखाने ले जाते हैं। फसलों को दिखाते हुए वे इतने खुश हैं कि उनकी यह खुशी शब्द बनकर छलक उठती है, “इस फसल की लहलहाट से तो अब पात्र भी लहलहा रहे हैं। लिखने को मन कुलबुला रहा है।”14
बहुत ही निश्छल एवं जीवन्त प्रेरणा थी रेणु की। वे मुख्यतः एक किसान ही थे। उनका यह किसानी रूप उनके ही शब्दों में निखरकर सामने आता है,
“मेरा तो कभी-कभी मन करता है और यदि मुझसे बन पड़े तो लिखना-विखना छोड़कर केवल खेती ही करूँ।”15 रेणु को खेती करने में कविता जैसा आनन्द आता है। खेती को वे सर्जना ही मानते हैं। अपने इन साक्षात्कारों में वे बार-बार अपने खेत एवं फसल की ही चर्चा करते हैं, “मेरे विचार से तो अभी एक बीघा खेत में खेती कर लेना पाँच लेख और पाँच कहानियाँ लिखने से ज्यादा फायदेमंद है।”16 अच्छी लहलहाती फसलों को देखकर रेणु इतने अधिक खुश होते हैं कि उनकी यह खुशी शब्द बनकर फूटती है, “धान की इतनी अच्छी फसल जितनी अच्छी इस साल है, हो तो खेती करने में कविता का आनन्द आता है।”17
‘खेती में कविता का आनन्द’ उठाने वाले रेणु अपने ढंग के अकेले रचनाकर हैं। वे अपने साक्षात्कार में अपना हृदय खोलकर रख देते हैं। वार्तालाप की भूमि पर आकर वे बिल्कुल सहज व उन्मुक्त हो उठते हैं। यह उनके साक्षात्कारों से पता चलता है। गाँव से वे कितना प्रेम करते हैं, कितना लगाव रखते हैं, यह उनके साक्षात्कारों से पता चलता है। भले ही वे पटना, कलकत्ता, मुंबई जैसे शहरों में आते-जाते रहे हों, पर जीते तो वे अपने गाँव में ही हैं। ग्रामीण जीवन की आबोहवा रेणु के लिए प्राण-तत्त्व है। रेणु जितने बड़े साहित्यकार हैं, जितने बड़े सामाजिक कार्यकर्ता और आंदोलनकारी, उतने ही बड़े किसान भी हैं। उनसे प्रश्न किया गया,
“इस बार तो धान की फसल काफी अच्छी मालूम होती है। आपका क्या विचार है?”
रेणु - “सो तो आप देख ही रहे हैं। धान की इतनी अच्छी फसल जितनी अच्छी इस साल है,
हो तो खेती करने में कविता करने का आनन्द है। खेती और कविता में जरा भी फर्क न लगे। एक बार ताइचून रोपते समय वर्षा में भीगते हुए मैंने एक कविता रची। मन हुआ कि राजकमल चौधरी (अब स्वर्गीय) को भेज दूँ। लेकिन बाढ़ में भूल-भाल गया। मेरा तो कभी-कभी मन करता है और यदि मुझसे बन पड़े तो लिखना-पढ़ना छोड़कर केवल खेती ही करूँ।”18
रेणु की मान्यताओं एवं उनके विचारों का परिचय भी हमें उनके साक्षात्कारों में मिलता है। रेणु अपने साहित्य में और विचार में,
कहीं भी दोहरापन नहीं रखते हैं। इनके साक्षात्कार से गुजरते हुए, ‘मैला आँचल’, ‘परती परिकथा’ (उपन्यास), ‘ठेस’, ‘लाल पान की बेगम’, तीसरी कसम’ (कहानियाँ) आदि आती हैं। रेणु अपने साक्षात्कारों में उभरकर (खुलकर) सामने आते हैं। उनके ‘मैला आँचल’ पर जब अनेक तरह के आरोप लगाए जा रहे थे, उसी समय ‘अवंतिका’ (जनवरी, 1956 ई.) में गौरा मुखर्जी के काल्पनिक नाम से उनका एक इंटरव्यू प्रकाशित हुआ था। उन्होंने अपने इस साक्षात्कार में नैतिकता, साहित्य आदि कई विषयों पर अपने स्पष्ट विचार व्यक्त किए हैं। वे इस साक्षात्कार के माध्यम से ‘मैला आँचल’ पर लगे आरोपों का भी खण्डन करते हैं। ‘मैला आँचल’ के संबंध में ‘नैतिकता’ का भी प्रश्न उठा था। उस रचना पर यह आरोप लगा था कि इसके जितने भी चरित्र हैं, वे आदर्श और अनुकरणीय नहीं हैं। जब उनसे प्रश्न पूछा गया कि, “नैतिकता-अनैतिकता के संबंध में आपका क्या मत है?” उत्तर में उन्होंने कहा - “मेरी राय से सब लोग सहमत न होंगे। नैतिकता का अर्थ मेरे लिए बहुत व्यापक है, उस व्यापकता में यौन-नैतिकता का बड़ा गौण स्थान है। नैतिक मूल्यों की चर्चा में मैं मानवीयता को सबसे राजनीतिक या धार्मिक मतवाद पर अनावश्यक ध्यान नहीं देता। सारांश यह है कि नैतिकता के लिए अंध आग्रह मुझ में नहीं है। कला पर नैतिकता थोपना मैं अच्छी बात नहीं समझता। आस्कर वाइल्ड की तरह कला को नैतिकता-अनैतिकता से परे मानता हूँ, अर्थात् तटस्थ यथार्थनुकारी एवं मर्यादित। स्पष्टतः यह मर्यादा कोई प्रिजुडिस्ट धर्मध्वजी या कुत्सित समाजशास्त्री नहीं नियत कर सकता।”19
रेणु अपने जीवन के हर मोर्चे पर संघर्ष करते हुए नजर आते हैं। एक ओर साहित्यकार, दूसरी ओर किसान, तीसरी ओर सामाजिक कार्यकर्ता, चौथी ओर राजनैतिक जीवन,
पांचवी ओर जेल में गुजारे गये दिन। इतने मोर्चों की कच्ची सामग्री साहित्य में उड़ेलते हैं। रेणु का लेखन ‘मानवीय अस्तित्व’ को बचाने का लेखन है। रेणु किसी साहित्यिक खेमे से बंधकर लेखन नहीं करते हैं। वे आदमी के यथार्थ को अपने लेखन के केन्द्र में रखते हैं। एक प्रश्न के उत्तर में कहते हैं, “यह समान्तर फमान्तर क्या होता है,” उन्होंने कहा था। उनके अनुसार, “साहित्य समाज के समान्तर या समानान्तर नहीं चलता। साहित्यकार किसी स्थिति का दर्शक मात्र नहीं हो सकता। वह स्थितियों को जीता है, उन्हें भोगता है, प्रतिक्रिया करता है।”20
साक्षात्कार से उनकी विनम्रता का भी परिचय मिलता है। आज के लेखक बिकाऊ होकर सुविधाओं को हथियाने की होड़ में लगे हैं,
वहीं रेणु इन सबसे बिल्कुल अलग थे। आम लोगों से रेणु को कितना लगाव था, उनके प्रति वे कितने ईमानदार थे, उन सबका परिचय उनके साक्षात्कार से मिलता है। वे साहित्यकार के रूप में प्रतिष्ठित हो जाने के बाद भी आम जन-जीवन से अपने आपको अलग नहीं रख सके। रेणु का जुड़ाव लोक-जीवन से है। लोक-जीवन के हर्ष-विषाद, गीत-गजल, रीति-रिवाज, सभ्यता-संस्कृति, जीनी-मरनी, प्रेम-घृणा, नैतिक-अनैतिक, स्वतंत्रता, परतंत्रता आदि तमाम जीवन-परिस्थितियाँ रेणु साहित्य में समाहित हैं। रेणु-साहित्य का रेशा-रेशा उनके द्वारा भोगे गए जीवन-यथार्थ का लिखित दस्तावेज है।
निष्कर्ष : रेणु के साक्षात्कार उनके विविध आयामी व्यक्तित्व की झलकियाँ प्रस्तुत करते नजर आते हैं। उनके ये साक्षात्कार उनके व्यक्तित्व का समग्र निरूपण, उनकी रचनाशीलता व उनके जीवन-दर्शन को समझने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते नजर आते हैं। साक्षात्कार एक ऐसी विधा है जो एक रचनाकार से हमारा परिचय सीधे-सीधे तो करवाती ही है, उनके व्यक्तित्व के विभिन्न पहलुओं को भी परत-दर-परत खोलती चली जाती है। वे अपने साक्षात्कारों में बहुत ही खुले और बेपरवाह दिखलाई पड़ते हैं। उनके साक्षात्कार से गुजरने के बाद यह स्पष्ट हो जाता है कि उसमें उनके जीवन के कई संस्मरण, उनके कार्यों की सूची, उनकी मनःस्थिति, उनका घर-परिवार, गाँव-घर, मित्र, लेखन-कार्यों का ब्यौरा आदि भरा पड़ा है जो अपने स्वरूप में जितना आंचलिक है, अपने स्वर में उतना ही राष्ट्रीय। उनके साक्षात्कार के माध्यम से यह भी पता चलता है कि उनका व्यक्तित्व कितना पारदर्शी, सरल, आत्मीय, बेलाग और ठोस था। उनके समग्र आकलन के लिए ये साक्षात्कार एक आवश्यक मनोभूमि प्रस्तुत करते हैं।
1. हिन्दी साहित्य का वृहत इतिहास, चतुर्दश खण्ड, नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी, 1970, पृ.497
3. भारत यायावर (सं.) : रेणु रचनावली, भाग-4, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 1995, संपादकीय पृ.
4. वही, पृ. 16
सहायक प्राध्यापक, हिन्दी विभाग, राजेन्द्र मिश्र महाविद्यालय, भूपेन्द्र नारायण मंडल विश्वविद्यालय मधेपुरा, बिहार
dr.sindhusuman@gmail.com, 6283832652
अतिथि सम्पादक : मनीष रंजन
सम्पादन सहयोग : प्रवीण कुमार जोशी, मोहम्मद हुसैन डायर, मैना शर्मा और अभिनव सरोवा चित्रांकन : मीनाक्षी झा बनर्जी(पटना)
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