- वीणा शर्मा
दृश्यमान समूची सृष्टि एक लय में बंधी हुई दिखाई देती है। पृथ्वी, सूर्य,चाँद, ऋतुएँ एक क्रम से चलायमान है। प्रात: सूरज के उदय होने में एक लय विद्यमान है। रेणु का साहित्य जगत संगीत से भरपूर है। वह मानते हैं कि हर गाँव में संगीत की परम्परा है। संगीत लोक-जीवन से जुड़ा है। अथवा लोक-जीवन का संगीत से जुड़ाव रहा है। उनकी कहानियों के प्रत्येक गाँव में एक या एकाधिक मृदंग मौजूद रहते ही हैं। यहां इन कहानियों में गीतात्मकता भी लोक से ही ली गई है। लोक में गाए जाने वाले कजरी, चैती, बिरहा लोकगीतों से ही निकल कर आए हैं। लोक जीवन में संगीत, संस्कृति, नृत्य, वाद्ययंत्र, तीज-त्योहार और गाँव की बोली-बानी में रचा-बसा संसार जिन्हें वह अपनी कहानियों में बुनते हैं उन्हें अन्य रचनाकारों से अलगाता है।
प्रथमतया बात रसप्रिया कहानी की- रसप्रिया कहानी के संकलन का नाम ठुमरी है। लेकिन ठुमरी नाम से कोई कहानी इस संकलन में नहीं है। रसप्रिया कहानी के प्रारंभ में मोहना और पंचकौड़ी मिरदंगिया की मुलाकात होती है। पंचकौड़ी पर संगीत सीखने की धुन सवार है इसलिए वह जोधन गुरु के पास संगीत सीखने के लिए जाता है लेकिन वह मूलगैन ( गायक) नहीं बन पाता। जोधन गुरु ने उसके हाथ में मृदंग थमा दिया। तब से वह ता धिन ता धिन में रसप्रिया बजाता है। संगीत के रस में पगी रसप्रिया कहानी में पंचकौड़ी के माध्यम से रेणु विदापत गाने वालों की परम्परा को पुनर्नवा करते दिखाई देते हैं।
पंचकौड़ी मोहना के रूप को देख कर मोहित हो जाता है। गाँव के बड़े-बूढ़े कहते हैं –पंचकौड़ी मिरदंगिया का भी एक जमाना था। वह याद करता है अपने जमाने को और मोहना को देख कर सोचता है कि इस जमाने में भी मोहना जैसा लड़का है सुन्दर, सलोना और सुरीला- अपरूप-रूप। पन्द्रह-बीस साल पहले विद्यापति नाम की थोड़ी पूछ हो जाती थी। वह याद करता है- शादी-ब्याह,यज्ञ-उपनैन, मुंडन-छेदन आदि में विदपतिया मंडली को बुलाया जाता था। पंचकौड़ी मिरदंगिया की मंडली ने पूर्णिया और सहरसा जिले में काफी यश कमाया है। वह मोहना से रसप्रिया सुनाने को आग्रह करता है लेकिन मोहना लड़कपन में उसे चिढ़ाता है- तुम्हारी उँगली तो रसप्रिया बजाते टेढ़ी हुई है न?1
रसप्रिया की पूरी कथा संगीत के ताने-बाने में बुनी गई है। पंचकौड़ी मिरदंगिया गायन का रसिया गा तो नहीं पाया लेकिन मृदंग बजाते-बजाते भी गायन की प्यास नहीं गई। पंद्रह साल से गले में मृदंग लटका कर गाँव-गाँव घूमता है। दाहिने हाथ की टेढ़ी उँगली मृदंग पर बैठती ही नहीं,
मृदंग क्या बजाएगा। धा-तिंग,धा-तिंग बड़ी मुश्किल से बजाता है। वह गाने की कोशिश करता है लेकिन अब अतिरिक्त गाँजा-भाँग खाने से उसकी आवाज भौंथरी हो गई है। पंचकौड़ी खेतों में झरजामुन के नीचे बैठ कर रसप्रिया का स्मरण करता है।2
विदाप्त नाच वाले रसप्रिया को गाते थे। वह याद करता है एक समय वह था जब रसप्रिया की तान जनप्रिया हो गई थी लेकिन आज वह बात नहीं है। अब खेतों में काम करने वाले किसान भी नहीं गीत गाते। वह डरता है क्या कोयल भी कूकना भूल जाएगी। उसे आश्चर्य होता है कि कोई बिना गाए काम कैसे कर सकता है। वह बिरहा,चांचर,लगनी को याद करता है- हां रे हल जोते हलवाहा भैया रे,खुरपी रे चलावै मजदूर..,एहि पंथे धानी मोरा रे रुसली लेकिन चील की टिंहकारी को वह शैतान कहता है। मोहना, पंचकौड़ी और रमपतिया के इस त्रिकोण में रसप्रिया है। जोधन गुरु की मंडली में शामिल पंचकौड़ी और जोधन गुरु की बेटी बाल विधवा रमपतिया गुनगुनाती है- नव अनुरागिनी राधा किछु नहिं मानय बाधा.3.
पंचकौड़ी के मृदंग पर धिरिनागि, धिरिनागि, धिरिनागि धिनता बजाते ही सामने की झरबेरी से रसप्रिया की पदावली जोर पकड़ती है- नव वृन्दावन, नवन तरुंग गन, नव,नव विकसित फूल... पंचकौड़ी झूम कर मृदंग बजाता है मानो उसकी बरसों की साध पूरी हुई हो रसप्रिया को सुनकर। पूरी कहानी में 25 बार रसप्रिया का नाम आना ऐसा लगता है मानो उसे बार-बार गाया जा रहा हो।
तीसरी कसम,
अर्थात मारे गए गुलफाम कहानी की पहली पंक्ति में ही हिरामन गाड़ीवान की पीठ में गुदगुदी लगती है। गुदगुदी है अथवा चालीस साला कुँवारे हिरामन के मन में हीराबाई को अपनी गाड़ी में बिठा कर एक नई हिल्लोर उठी है। क्योंकि ऐसा पहली बार हुआ है। वैसे तो हिरामन ने ऐसी कौन-कौन सी दुष्कर लदनियाँ नहीं ढोयी हैं। लेकिन इस बार बाघगाड़ी की गाड़ीवानी करने वाला हिरामन की गाड़ी में चम्पा का फूल महक उठा तो उसकी पीठ में गुदगुदी होने लगी। जनानी सवारी है या चम्पा का फूल...रेणु के शब्द काव्य रचने लगते हैं। हिरामन को लगता है जब से जनानी सवारी बैठी है उसकी गाड़ी मह-मह महक रही है। उसके बैलों को मारते समय वह बोली तो हिरामन को लगा उसकी बोली फेनुगिलासी है- ग्रामोफोन से गूँजती हुई आवाज।4
हिरामन का मन उल्लसित है। वह बार-बार टप्पर के अन्दर एक नजर डालता है। एक तो उसकी पीठ में गुदगुदी कि उसे बार-बार अँगोछे से झाड़ना पड़ता है दूसरे चम्पा की महक तीसरे गाड़ी के पूरब की ओर मुड़ते ही टप्पर में चाँदनी का भी पसरना, नाक पर जुगनू का जगमगाना ऐसा लगता है रेणु सामान्य शब्दावली में नही गीतों की लड़ियों में सम्प्रेषण करते हैं। कहानी को पढ़ते हुए लगता है रेणु पूरा दृश्य विधान रचते हैं। रूप, रस, गंध, स्पर्श के शब्द-सौन्दर्य को कहानी में रुपायित करते हैं। फेनुगिलास...हिरामन के रोम-रोम बज उठे, मुस्कुराहट में खुश्बू है, नदी के किनारे घने खेतों से फूले हुए धान के पौधों की पवनिया गंध आती है, उसकी गाड़ी में फिर चम्पा का फूल खिला, उस फूल में एक परी बैठी है, हिरामन के मन में कोई अजानी सी रागिनी बज उठी, नाक की नकछवि का नग- लहू की बूँद ऐसे अनगिणत उदाहरण हैं।5
हिरामन गप रसाने का भेद जानता है। उसके पास अनगिणत कहानियाँ हैं हीराबाई से बात करने के लिए। हिरामन कथा कहता जाता है हीराबाई और-और सुनने का आग्रह करती जाती है और फिर रेणु का संगीत शब्द रूप में उतर आता है। हिरामन का मन पल-पल बदल रहा है। मन में सतरंगा छाता खुल रहा है। वह मानता है उसकी गाड़ी में भी कोई देवी विराजमान है। वह नहीं चाहता इस देवी को कोई अन्य देखे इसलिए टप्पर का पर्दा गिरा कर गाने लगता है- जै मैया सरोसती, अरज करत बानी, हमरा पर होखू, सहाई दे मैया, हमरा पर होखू सहाई। रेणु हिरामन के बहाने गीतों का संसार रचते है।वही हिरामन के मन से बिदेसिया, बलवाही, छोकड़ा नाच वाले गीतों को याद करते हैं।–
सजनवा बैरी हो गये हमार
अरे,
चिठिया हो तो हर कोई बांचे,
हाय करमवा, हाय करमवा
कोई न बांचे हमारो, सजनवा...हो करमवा ..6.
हिरामन हीराबाई की हर क्रिया पर भावों के नगर पहुँच जाता है। धन्न है धन्न है भगवती मैया भोग लगा रही है। लाल होठों पर गोरस का परस..पहाड़ी तोते को दूध-भात खाते देखा? वह हीराबाई के स्नेह-भाजन से रीझ जाता है। गाँव के बीच से निकलने वाली सड़क पर बच्चों की गाई गई पंक्तियों- लाली- लाली डोलिया में लाली रे दुलहिनिया पान खाये...7हिरामन का मन हुलसता है वह अपने सपनों में मानो अपनी लाली दुलहिनिया को ही लेकर जा रहा है। सपनों में डूबा हिरामन गुनगुनाता है-
सजन रे झूठ मति बोलो,
खुदा के पास जाना है
नहीं हाथी,
नहीं घोड़ा, नहीं गाड़ी
वहां पैदल ही जाना है।8
हीराबाई गाँव की बोली का गीत सुनना चाहती है। हिरामन हुलस कर कहता है गीत जरूर ही सुनिएगा...? इस्स इतना सौख गाँव का गीत सुनने का है आपको ?9 महुआ घटवारिन की कथा के साथ रेणु लोकगीतों का सुन्दर सांमजस्य बिठाते हैं। विशेष अंचल के चित्रित शब्दों के साथ पाठक कथा के भीतर कथा के रोमांच को पाते हैं। हिरामन का गीत-
सावना-भादवा के-र उमड़ल नदिया गे-मैं-यो-ओ मैया गे रैनि भयावनि हे-ए-ए,तड़का-तड़के-धड़के करेज-आ मोरा कि हमहूँ जे बारी नान्हीं रे
रे डाइनियां मैयौ मोरी ई-ई नोनवा चटाई काहे नाहिंमारलि सांरी घर-अ। एहि दिनवा खातिर छिनरों धिया तेंहुं पोसलि कि नेनू-दूध उटगन...।10
रेणु इस गीतमय कथा को एक विस्तार देते हैं। हिरामन का मन कथा को गाते-गाते कथा का आरोपन कर लेता है। उसे लगता है महुआ घटवारिन को उसका प्रेमी मिल गया है। कहानी के अंत तक आते-आते रेणु लोकगीतों की महक से विशेष अंचल का स्पर्श करवाते हैं।
-चिरैया तोंहके लेके न जईवै नरहट के बजरिया साथ ही मारे गए गुलफाम...अजी हां मारे गए गुलफाम।11
जहाँ गीतों का प्रयोग नहीं होता वहाँ भी रेणु की शब्दावली काव्यात्मक रहती ही है। गाड़ी गाँव के बाहर होकर खेतों के बगल से जाने लगी। चाँदनी, कार्तिक की ...खेतों से धान के झरते फूलों की गन्ध आती है। बांस की झाड़ी में कही दुद्धी की लता फूली है।12 संवदिया कहानी में रेणु कहते हैं-संवाद पहुँचाने का काम सभी नहीं कर सकते। आदमी भगवान के घर से ही संवदिया बन कर आता है।...हरगोबिन को गाड़ी पर सवार होते ही पुराने दिनों और संवादों की याद आने लगी। –
पैंया पड़ूँ दाढ़ी धरूं...
हमरो संवाद लेले जाहू रे संवदिया या-या13
फोन-मौबाइल जैसे तुरत सूचना पहँचा देने वाले आज के इस वर्तमान दौर में उस समय की पीड़ा का सहज अंदाजा लगाया जा सकता है जब एक नगर से दूसरे में ब्याही जाने वाली लड़कियाँ अपनी पीड़ा किसी से कह नहीं पाती थी। ऐसे में अधिकतर लोकगीतों का सृजन हुआ होगा। एक अन्य जगह गीत हृदय का दर्द बयान कर देते हैं। ससुराल से नैहर और नैहर से ससुराल की दूरी के बीच लोकगीतों की एक परम्परा फूली-फली है जिसे रेणु अपने कथा-साहित्य पूरी तन्मयता से प्रस्तुत करते हैं। लोकगीतों में विरह का सारा दुःख सिमट आता है। रेणु को गीतों के इस्तेमाल में महारत हासिल है।-
कि आहो रामा
नैहरा को सुख सपन भयो अब,
देश पिया को डोलिया चली...
माई रोओ मति,
यही करम गति14
एक आदिम रात्रि की महक कहानी में कुछ पंक्तियां संगीत जैसी धुन में बंधी लगती हैं। - बाबू नाम तो मेरा करमा ही है। वैसे लोगों के हजार मुँह हैं,
हजार नाम कहते हैं...निताय बाबू कोरमा कहते थे, घोस बाबू करीमा कह कर बुलाते थे, सिंघ जी ने सब दिन कामी ही कहा और असगर बाबू तो करम-करम कहते थे।15 रेणु की कहानियों में पेड़, नदी, तालाब सब बोलते बतियाते हैं।– धरती बोलती है, गाछ-बिरिछ भी अपने लोगों को पहचानते हैं...फसलें नाचती हैं और अमावस्या की रात रोती है।16
कितनी बातें सुख-दुःख की...खेत-खलिहान,पेड़-पौधे, नदी-पोखरे, चिरई-चुनमुन सभी एक साथ टानते हैं करमा को।...उसे लगता है कि जंगल का काला ताड़ का पेड़ कई दिनों से बुला रहा है। कभी जंगल के ऊपर से उड़ती हुई चील उसे पुकार जाती है।
बूढ़े ने कहा जरा देखो इस किल्लाठोंग जवान को ...पेट भर भात पर खटता है... इसी को कहते हैं पेटमाधोराम मर्द... लौटते समय करमा को लगा कि तीन जोड़ी आँखें उसकी पीठ पर लगी हुई हैं। जैसे आँखें नहीं –डिस्टन सिंगल,होम सिंगल और पैट सिंगल की लाल-लाल,गोल-गोल रौशनी।17
रेणु जिस लोक परम्परा में सान कर अपनी कहानियों की रचना करते हैं वे अंचल की आदिम महक से सराबोर हैं। लोक में प्रचलित गीतों, भाषागत प्रयोगों का एक अनवरत सिलसिला है। गँवई गाँव की कहानियों में कहीं छोटी-छोटी मासूम लालसाएँ हैं। इन्हीं के गिर्द बुनी गई कहानियों में घंटियों की तरह बजते हुए शब्द हैं। चील की टिंहकारी-टिं...ई...टिं-हिं-क, जन्म अवधि हम रूप निहारल, कनकन ठंडा-गेरुआ पानी, मधु-श्रावणी के गीत, साँवरी सुरतिया पे चमके टिकुलिया, पाट के खेतों सहित काली-काली जवान मुसहरनी छोकरियाँ आकाश में उड़ गई, दल बाँध कर मंडरा रही हैं, हँसती हैं तो बिजली चमक उठती है। रखवाला सूरज दो घड़ी पहले ही डूब गया।
कहीं-कहीं किसी कहानी में बारहमासा के बोल हैं तो कहीं प्रकृति से बातचीत- एहि प्रीति कारन सेतु बाँधन सिया उदेस सिर राम हे-ए-ए,
हथिया नक्षत्र की आगमनी गाती हुई पुरवैया हवा, बाँस-बन की प्रेतनियाँ, छहछह, अजगुत-अजगुत, गुजुर-गुजुर, बटगमनी,टुकुर-टुकुर, सरबे सित्तलमिंटी, जलन-डाही, भुकभुकाना, खसखसाहट, लुक्कड़, बैसकोप, खखोरन, शीतलपाटी, बतकुट्टी, गमकौआ जर्दा, हनहनाना, सिरसिराना, मुँहझौंसा आदि-आदि। रेणु का सम्बंध गाँव से था। वह गाँव की मिट्टी से जुड़े लोगों को ही अपने रचनासंसार के केन्द्र में रखते हैं। वह पुरानी परम्पराओं को रिवाइव करते हैं। इन परम्पराओं में गीत-संगीत बहुत गहरे बसा हुआ है जो उनकी लगभग हर कहानी में झलकता है। मृदंग की ता धिंग-धा धिंग के अलग-अलग तालों पर वह संवाद सम्बंध जोड़ते हैं।
रेणु स्वयं कहते हैं कि प्रत्येक गांव में एक अथवा एक से अधिक मृदंग अवश्य रहता था। रेणु की कहानियों का लोक इसीलिए संगीत से गहरे बंधा हुआ है। उनके पात्र लोक रस में पगे हैं। कहीं वे बिरहा,चैती,बारहमासा ,कजरी गाते हैं और कहीं नृत्य में रमते हैं। उनका गीत-संगीत का यह रिश्ता लोक-मानस से जुड़ा है। उनका शब्द-संसार भी बिम्बात्मक और चित्रात्मक है।
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) फणीश्वर नाथ रेणु विशेषांक, अंक-42, जून 2022, UGC Care Listed Issue
अतिथि सम्पादक : मनीष रंजन
सम्पादन सहयोग : प्रवीण कुमार जोशी, मोहम्मद हुसैन डायर, मैना शर्मा और अभिनव सरोवा चित्रांकन : मीनाक्षी झा बनर्जी(पटना)
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