पितृसत्ता के विविध रूपऔर
स्त्री-प्रतिरोध
- सुरेश कुमार जिनागल
शोध सार : पितृसत्ता एका-एक घटित कोई ऐतिहासिक घटना मात्र न होकर
जैसा कि एंगेल्स ने माना, प्रक्रिया में निर्मित होने वाली सामाजिक संरचनाओं की एक
प्रणाली है। भारतीय संदर्भों में जाति और पितृसत्ता के अंतर्संबंधों को समझे बगैर
पितृसत्ता और स्त्री मुद्दों पर बात एक तरह से बेमानी होगी। इसी क्रम में देखते
हुए कालक्रमानुसार पितृसत्ता के दो भेद – ब्राह्मणवादी पितृसत्ता और पूंजीवादी
पितृसत्ताकिये जा सकते हैं। ब्राह्मणवादी पितृसत्ता जहाँ ब्राह्मण धर्म ग्रंथों और
मनु-शास्त्र की उपज है तो पूंजीवादी पितृसत्ता को पूंजीवादी उत्पादन-प्रणाली की
उपज कहा जा सकता है। सामंती-उत्पादन प्रणाली के ध्वस्त होने के पश्चात स्त्रियों
की स्थिति में सुधार परिलक्षित हुए हैं जो कि पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली की
अधिरचनाएँ हैं परंतु पूंजीवाद ने भी पितृसत्ता को कुछ परिवर्तनों के साथ बनाये रखा
है। इस प्रकार प्रस्तुत आलेख में मुख्यतः पितृसत्ता की अवधारणा से लेकर पितृसत्ता
की संरचना और निर्माण तथा भारतीय समाज में पितृसत्ता और जाति की संरचना के
पारस्परिक अंतर्संबंधों पर प्रकाश डाला गया है।बीज शब्द : पितृसत्ता, यौनिकता, लैंगिकता, जेंडर, लिंग, ब्राह्मणवादी पितृसत्ता, पूंजीवादी पितृसत्ता।
मूल आलेख : 1. पितृसत्ता -: सामाजिक सरंचना में स्त्री-पुरुष संबंधों में शक्ति-संतुलन पुरुष केंद्रित होने को पितृसत्ता कहा जा सकता है। सिल्विया वाल्बी( Silvia Walby) के अनुसार “मैं पितृसत्ता को सामाजिक संरचनाओं और प्रथाओं की एक प्रणाली के रूप में परिभाषितकरूंगी जिसमें पुरुष महिलाओं पर हावी होते हैं, उनका दमन औरशोषण करते हैं।”1स्त्री पर पुरुष का यह नियंत्रण सामाजिक संरचनाओं और प्रथाओं की प्रणाली के रूप में है। इसलिए प्रत्येक समाज की संरचनात्मक भिन्नता के कारण पितृसत्ता का स्वरूप भी भिन्न-भिन्न होता है। ‘गर्दा लर्नर’ ने पितृसत्ता को पुरुष प्रभुत्व के संस्थाकरण के रूप में परिभाषित किया है – “अपनी व्यापक परिभाषा में पितृसत्ता का अर्थ है परिवार में महिलाओं और बच्चों पर पुरुष प्रभुत्व का प्रकटीकरण और संस्थाकरण तथा सामान्य रूप से समाज में महिलाओं पर पुरुष सत्ता का विस्तार।”2 लर्नर के अनुसार कहा जा सकता है कि पितृसत्ता एक संस्थागत रूप में वर्तमान रही है। यह परिवार से लेकर समाज और राज्य की विभिन्न अंदरूनी संरचनाओं तक में पैठ बनाए हुए है। इसे संस्थागतरूप प्रदान करने में धर्म ने प्रमुख योगदान दिया है। इसे समाज में स्त्री के अस्तित्व और अस्मिता के निर्धारक के एक प्रमुख कारक के रूप में देखा जा सकता है। स्त्री क्या करे और क्या न करे का निर्णय इसी सत्ता के हाथ में रहा है।
सिल्विया वाल्बी पितृसत्ता की छः संरचनाएं निर्धारित करती हैं3
1. उत्पादन का पितृसत्तात्मक तरीका
2. मजदूरी में पितृसत्तात्मक संबंध
3. पितृसत्तात्मक राज्य
4. पुरुष हिंसा
5. यौनिकता में पितृसत्तात्मक संबंध
6. पितृसत्तात्मक संस्कृति
सिल्विया वाल्वी के विभाजन में दोहराव तो है ही साथ ही यह परिस्थिति सापेक्ष भी है। ‘उत्पादन का पितृसत्तात्मक तरीका’ और ‘मजदूरी में पितृसत्तात्मक संबंध’ दोनों में कोई तात्त्विक और संरचनात्मक भेद परिलक्षित नहीं हो रहा है। सिल्विया वाल्वी का मानना है कि पितृसत्तात्मक संबंधों में स्त्री के उत्पादन पर पुरुष का अधिकार होता है। दूसरी ओर स्त्री की मजदूरी पर भी पुरुष का ही अधिकार समझा जाएगा। इसलिए इन दोनों को एक संरचनात्मक भेद मानते हुए इसको ‘श्रम विभाजन में पितृसत्तात्मक संबंध’ किया जा सकता है। ‘पुरुष हिंसा’, ‘यौनिकता में पितृसत्तात्मक संबंध’ और ‘पितृसत्तात्मक संस्कृति’ इन तीनों को भी एक संरचनात्मक-समूह : ‘पितृसत्तात्मक संस्कृति’ में रखा जा सकता है। पुरुष की हिंसा स्त्री-यौनिकता पर भी होती रही है। उसको सिर्फ़ शारीरिक हिंसा तक सीमित नहीं किया जा सकता है। पितृसत्तात्मक संस्कृति इनके लिए शरणस्थली है। इसलिए इन तीनों को अलग-अलग न मानकर एक ही में समाहित किया जाना चाहिए। इस प्रकार पितृसत्ता की मुख्य-मुख्य तीन संरचनाएँ हमारे सामने परिलक्षित होती हैं –
- श्रम विभाजन में पितृसत्तात्मक संबंध
- पितृसत्तात्मक संस्कृति
- पितृसत्तात्मक राज्य
स्त्री-यौनिकता पर नियंत्रण के इस तरह के सिद्धांत मनु-पूर्व काल में भी विद्यमान थे पर वे सभी सिद्धांत तक ही सीमित थे, उनको व्यवहारिक और कानूनी स्वीकृति सबसे पहले मनु ने ही प्रदान की। इन सभी कानूनों को लागू करवाने और सामाजिक स्वीकृति का जिम्मा ब्राह्मणों ने क्षत्रियों को सौंप दिया। इसी संदर्भ में देखा जाये तो महाकाव्यों आदि में किसी राजा का चरित्र और उसकी महानता इस बात से आँकी जाती थी कि उसने वर्णव्यवस्था के नियमों को कठोरता से लागू किया या नहीं। राम ने वर्ण-नियमों को अच्छी तरह से लागू किया था इसीलिए वे अच्छे राजा माना गये। मनु द्वारा लागू इन सिद्धांतों को राज्य के बाद किसी ने संस्थागत रूप प्रदान किया तो वह था भारतीय परिवार और उसके मुखिया (माता-पिता)। भारतीय परिवारों में बच्चों को जन्म से ही स्त्रियों के बारे में मनु-सिद्धांतों को घोलकर पिलाया जाता रहा है। ‘मनु द्वारा स्त्रियों पर अचानक इस तरह के नियमों को लागू करने के पीछे डॉ. अंबेडकर, मनु-पूर्व बौद्ध काल में स्त्रियों को दी गई छूट को नियंत्रित करने को कारण मानते हैं।39 पर देखा जाए तो बौद्ध संप्रदाय में शामिल होने की स्वतंत्रता के परिणाम स्वरूप मनु-व्यवस्था द्वारा स्त्रियों को परतंत्रता की तरफ धकेल देने को ही स्त्री-गुलामी का कारण नहीं माना जा सकता। क्योंकि बौद्ध-सिद्धांत सिर्फ विहारों तक प्रचलित थे। अन्य गृहस्थ लोग उन्हीं पुराने नियमों को मानते थे। बुद्ध के विचारों को गृहस्थों ने नहीं माना था। मनु ने स्त्रियों पर इस तरह के कठोर नियम वर्ण-व्यवस्था को लागू करवाने के लिए थोपा। इस प्रकार वर्णव्यवस्था को स्त्रियों की यौनिकता को नियंत्रित करके ही लागू करवाया जा सकता। रक्त-शुद्धता बनाये रखने और वर्ण-अतिक्रमण को रोकने के लिए स्त्रियों की स्वतंत्रता की बलि आवश्यक थी। मनु ने बड़ी निर्दयता से बली देने का कार्य किया।
I. श्रम विभाजन में पितृसत्तात्मक संबंध -: आदिम समाज में श्रम विभाजन निर्दिष्ट नहीं था या यह कहा जा सकता है कि श्रम विभाजन के आधार पर कोई लैंगिक भेदभाव नहीँ था। जेंडर ( स्त्री पुरुष की सामाजिक अवस्थिति ) का निर्धारण भी नहीं किया गया था “स्त्री और पुरुष के बीच श्रम विभाजन पाया जाता था। पुरुष युद्ध में भाग लेते, शिकार करते, मछली मारते, आहार की सामग्री जुटाते और इन तमाम कामों के लिए आवश्यक औजार तैयार करते थे। स्त्रियाँ घर की देखभाल करती थीं और खाना-कपड़ा तैयार करती थीं। वे खाना पकातीं, बुनती और सीतीं थीं। प्रत्येक अपने-अपने कार्य का स्वामी था : जंगल में पुरुषों का वर्चस्व था तो घर में स्त्रियों का”।4आगे चलकर श्रम का विभाजन लिंग के आधार पर किया गया जैसा की एंगेल्स मानते हैं- “संतान उत्पन्न करने के लिए पुरुष और नारी के बीच श्रम-विभाजन ही पहला श्रम-विभाजन था।”5 पुरुष के लिए संतान निजी संपत्ति हो गई, जिस पर स्त्री का कोई अधिकार नहीं रहा गया था। स्त्री सिर्फ संतानोत्पत्ति का साधन बनकर रह गई। यहीं से उसके वस्तुकरण की प्रक्रिया शुरू होती है। पर आगे चलकर गर्दा लर्नर ने एंगेल्स की इस स्थापना से असहमति व्यक्त की है। उनका मानना है कि श्रम विभाजन में स्त्रियाँ पुरुषों से अधिक कार्य करती थीं। शिकार संग्रह में पुरुष और स्त्री का योगदान लगभग बराबर ही नहीं बल्कि अधिक था – “अतीत के अधिकांश आदिम समाजों में और आज भी मौजूदा सभी शिकार संग्राहक समाजों में महिलाएं औसतन साठ प्रतिशत या अधिक भोजन उपलब्ध कराती हैं।”6 भारतीय संदर्भों में भी देखा जाए तो “बड़े अखेटों में पुरुषों के साथ स्त्रियों के भी शरीक होने के चित्रण मध्य भारत में प्राप्त हुए ईसा पूर्व 5000 ( मध्यपाषाणकालीन ) की भीमबेटका की गुफाओं के पेंटिंग में देखेने को मिले हैं। पेंटिंग में स्त्रियाँ फल और अन्य खाद्य पदार्थ बटोरने के साथ-साथ टोकरी और जाल द्वारा छोटे – मोटे आखेट करते हुए भी दर्शाई गई हैं।”7 इस प्रकार देखा जा सकता है कि शुरुआती श्रम-विभाजन में स्त्री-पुरुष संबंध पितृसत्तात्मक नहीं थे। आगे चलकर पशुपालन के रूप में निजी संपत्ति का विकास हुआ। जिसके परिणामस्वरूप एकल विवाह की परंपरा शुरू हुई ताकि अतिरिक्त संपत्ति अपने रक्त संबंधी उसमें भी बेटे को दिया जा सके। यहीं से श्रम-विभाजन में पितृसत्तात्मक संबंधों का उदय हुआ।
शुरुआती श्रम विभाजन में स्त्रियों को घरेलू कार्य की जिम्मेदारी दी गई थी। घरेलू कार्य को सार्थक श्रम में शामिल नहीं किया गया। खाना बनाना और बच्चे पालना निरर्थक कार्य समझे गये। इस कार्य के लिए कोई वेतन निर्धारित नहीं किया गया। पुरुष ने अपने कार्य को अधिक महत्त्व दिया। आगे चलकर स्त्रियों द्वारा विकसित किये गये कृषि कार्य को भी पुरुष ने हथिया लिया।“कृषि की खोज स्त्रियों ने की थी और प्रारंभ में केवल स्त्रियाँ ही कृषिकार्य करती थीं इसलिए समाज में उनकी आर्थिक और सामाजिक स्थिति को सर्वोच्च बनाने के लिए अनुकूल परिस्थियाँ उत्पन्न हो गईं।”8 देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय तो मानते हैं कि कृषि की खोज ने स्त्रियों की स्थिति को फिर से केन्द्रीय बना दिया था, वे फिर से पुरुषों से आगे निकलने लगी थीं परिणामस्वरूप पितृसत्ता कमजोर पड़ने लगी- “कृषि के प्रारंभिक चरण में देव स्तर पर स्त्री और पुरुष की प्रधानता उलट गई। स्त्री आगे बढ़ गई और पुरुष को या तो पृष्ठभूमि में पीछे धकेल दिया या कम से कम इतना हुआ कि उसे स्त्री की नकल करने के लिए बाध्य होना पड़ा। ये सब बातें तर्कसंगत थीं। कृषि के प्रारंभिक चरण में स्त्री का सामाजिक महत्त्व बढ़ गया था क्योंकि कृषि की खोज स्त्रियों ने ही की थी।”9 पर यह स्थितिअधिक दिनों तक स्थायी नहीं रह सकी। कृषि में शारीरिक श्रम अधिक था इसलिए स्त्रियों की जैविक स्थिति मसलन गर्भावस्था आदि के दिनों में कृषि कार्य नहीं कर सकती थीं। जैसे-जैसे श्रम में शारीरिक शक्ति का महत्त्व बढ़ता गया वैसे-वैसे स्त्रियों पर पितृसत्ता की जकड़ने भी तीव्र होती गईं। वर्तमान पूंजीवादी युग में कृषि कार्य लाभ का सौदा नहीं रह गया है। उद्योगों में कार्य करना अधिक लाभप्रद हो गया है इसलिए पुरुष कृषि कार्य को छोड़कर उद्योगों और अन्य तकनीकी कार्यों की ओर बढ़ रहे हैं। इस वज़ह से कृषि में फिर से स्त्रियों की संख्या बढ़ रही है – “कृषि में पूंजीवाद का जितना ही अधिक विकास होता है,उतना ही अधिक उसमें नारी-श्रम लगाया जाता है, यानी मेहनतकश अवाम की जीवन-स्थिति बदतर होती जाती है। जर्मन उद्योगों में 25 फीसदी औरतें हैं लेकिन कृषि में 50 फीसदी से ज्यादा हैं। इससे जाहिर है कि उद्योग अपने में बेहतरीन श्रम-शक्तियों को समाहित कर रहा है और कमज़ोर को कृषि के लिए छोड़ता जा रहा है।”10
घरेलू कार्य का विभाजन भी लैंगिक आधार पर हो गया है। इसमें स्त्रियों को कोई वेतन नहीं मिलता है। “महिलाओं पर घर की ज़िम्मेदारी रहती है जिसका मतलब है कि वे श्रम-शक्ति के पुनरुत्पादन का स्रोत होती हैं जिसके बल पर लोग-बाग दिन - ब - दिन काम करने की क्षमता विकसित कर पाते हैं ( भोजन, घर और कपड़े की साफ़- सफ़ाई तथा आराम)। औरत से अपेक्षा की जाती है कि वह इस तरह के काम खुद निबटाए या किसी गरीब महिला को मामूली मज़दूरी पर रखकर उससे काम कराए। दोनों ही स्थितियों में, घरेलू काम स्त्रियों की पहली ज़िम्मेदारी माना जाता है – भले ही और जैसा कि अक्सर होता भी है, वह घर से बाहर नौकरी या कोई अन्य काम करती हो”।11 यह विभाजन स्त्री को संसाधानों पर समान वितरण को रोकता है। गांवों में अक्सर देखा जाता है कि महिलाओं को पुरुषों की अपेक्षा कम मजदूरी दी जाती है- “समान पारिश्रमिक अधिनियम 1976 में पारित हो गया था परंतु स्थिति आज भी यही है कि महिला को उसी काम के बदले पुरुष से कम मज़दूरी दी जाती है। कानूनी प्रावधानों से बचाने के लिए ठेकेदार/नियोक्ता एक तरीका यह अपनाते हैं कि वे पुरुषों और महिलाओं को श्रम-प्रक्रिया के अलग-अलग खानों में बांटकर महिलाओं द्वारा किए जानेवाले काम की मज़दूरी दर कम कर देते हैं”।12 स्त्रियों को कम मजदूरी देने और उन्हें घरेलू काम में जकड़ देने से प्रतिरोध के लिए बनने वाली एकता भी बाधित होती है। भारत जैसे देश में यह स्त्री यौनिकता पर नियंत्रण के साधन के रूप में भी इसे इस्तेमाल किया जाता है। पुरुषों को लगता है कि स्त्री अगर बाहर काम करने जाएगी तो हमारे नियंत्रण में नहीं रहेगी। इसमें संतान के लिए रक्त शुद्धता का भी कारण शामिल है। पुरुष को यह डर है कि बाहर काम करने जाएगी तो अन्य पुरुषों से संबंध भी बन सकते हैं। इससे उसकी यौन शुद्धता बाधित होगी।
घरेलू कार्य के लिए नौकर भी स्त्री को रखा जाता है। घरेलू नौकर के रूप में उसको उचित वेतन और उचित सम्मान नहीं दिया जाता है। पुरुष भी वह काम कर सकता है पर उसको इस काम के लिए नियुक्त नहीं किया जाता है। अगर किया भी जाता है तो उसके साथ सम्मान-जनक व्यवहार किया जाता है। हालांकि भारतीय संदर्भों में उक्त व्यवहार जाति देखकर भी किया जाता है। यहाँ पितृसत्ता और जाति को अलग-अलग करके नहीं देख जा सकता। इस प्रकार कहा जा सकता है कि स्त्रियों द्वारा कम मजदूरी में किये जाने वाले इस घरेलू श्रम पर ही पितृसत्ता की मीनार खड़ी है- “नारीवादी यह तर्क बहुत लंबे समय से देते रहे हैं कि अगर महिलाएं यह नि:शुल्क श्रम करना छोड़ दें अथवा इस श्रम का इंतजाम करने की ज़िम्मेदारी से हाथ खींच लें तो अर्थव्यवस्थाओं का पहिया यकायक रुक जाएगा, सच यह कि पूरी अर्थव्यवस्था महिला के निशुल्क श्रम पर टिकी हुई है।”13
II. पितृसत्तात्मक संस्कृति – पितृसत्ता को बनाए रखने के लिए अपनाए जाने वाले तमाम हथकंडे पितृसत्तात्मक संस्कृति के अंदर आते हैं। गर्दा लर्नर के अनुसार पितृसत्ता 2500वर्षों में विकसित हुई है। तब यह निश्चित है कि इन वर्षों में इसको बनाए रखने और विकसित करने के लिए तमाम हथकंडे अपनाए जाते रहे हैं। इसको संस्थागत रूप देने के लिए धार्मिक और सांस्कृतिक प्रयास अनवरत चलते रहे हैं। “स्त्रीत्व और पुरुषत्व पर प्रवचन न केवल उन संस्थानों जैसे धर्म, मीडिया और शिक्षा में जिनका मुख्य लक्ष्य सांस्कृतिक उत्पादन में बल्कि सामाजिक जीवन के सभी क्षेत्रों में संस्थागत रूप में मौजूद है।”14 ये सांस्कृतिक प्रयास स्त्री को परंपरागत छवि से बाहर निकलने पर अपराधी मानते हैं। ये इस रूप में उन पर थोप दिए गये हैं कि वे खुद ही इससे बाहर निकालने के बारे में सोचने मात्र से अपराध-बोध से ग्रस्त हो जाती हैं। प्रत्येक गुलामी को बनाए रखने के लिए यह अपराध-बोध मुख्य कारक की भूमिका निभाता है। भारतीय जाति व्यवस्था और पश्चिमी राष्ट्रों की दास प्रथा इसके जीते जागते उदाहरण हैं। गर्दा लर्नर इसीलिए मानती हैं कि पितृसत्ता की उत्पत्ति और विकास में स्त्रियों का भी योगदान रहा है- “पितृसत्ता पुरुषों और महिलाओं द्वारा प्रक्रिया में बनाई गई एक ऐतिहासिक रचना है।”15 इसी सांस्कृतिक प्रक्रिया के तहत स्त्रियों को शिक्षा से वंचित रखा गया। अगर उनको शिक्षा दी भी गई तो कैसी? गुलामी के पक्ष में और पितृसत्ता को मजबूत प्रदान करने वाले हथियार के रूप में।
वैदिक समाज सीधा-साधा पशुपालक समाज था
इसलिए स्त्री यौनिकता पर नियंत्रण की गति
धीमी थी पर वहाँ भी पितृसत्तात्मक संस्कृति के अंश दिख जाते हैं। वैदिक ऋषि
अपने-अपने देवताओं से विभिन्न प्रकार इच्छाओं की पूर्ती हेतु प्रार्थना करते हैं
जिसमें वो पुत्र प्राप्ति की प्रार्थनाएं अधिक करते हैं-
“हे इन्द्र, यह कन्या पुत्रवती तथा सौभाग्यवती हो’’16
वृष्टिदाता इन्द्र, इस कन्या को सुपुत्रों की जननी बना, इसे अपने पति को सुख देनेवाली बना, इसे दस पुत्र दे, और इसके पति को ग्यारवाँ इन्द्र बना।”17
“हे अग्नि, हमारे कुल में पुत्र और शौर्य उत्पन्न हो और तेरी कृपा हमेशा इस पर रहे।”18
इन्द्र से उपर्युक्त मंत्रों में की गई
प्रार्थनाओं में देखा जा सकता है कि पुत्रोत्पत्ति को कितना महत्त्व दिया गया
है। पुत्र की इच्छा और पति की सेवा ही
स्त्री का धर्म बना दिया गया। मनु ने आगे चलकर इस व्यवस्था को कानूनी रूप दे दिया।
उसने स्त्री को सब तरह से गुलाम बनने की वकालत की। स्त्रियों के लिए पति की सेवा
ही गुरु सेवा और घर पर चूल्हे-चौके का काम ही गायत्री का जाप मान लिया गया।
पितृसत्तात्मक संस्कृति को स्थायी करते हुए मनु ने स्त्री यौनिकता को पूर्णत:
पुरुष के अधीन करते हुए कहा- स्त्री की रक्षा कौमार्य से पहले पिता को, उसके यौवन
में पति को और बुढ़ापे में पुत्र को करनी चाहिए। इसी कारण महिलाएं स्वतंत्रता के
योग्य नहीं हैं –
पिता रक्षति कौमारे भरता रक्षति यौवने।
पिता रक्षति कौमारे भरता रक्षति यौवने।
रक्षन्ती स्थाविरे पुत्रा: न स्त्री
स्वतन्त्र्यमर्हति॥19
धार्मिक प्रथाएं भी पितृसत्तात्मक
संस्कृति के लिए जिम्मेदार हैं। इन धार्मिक प्रथाओं को प्रवचनों में जिंदा रखा गया
है। तमाम उपदेशात्मक गाथाओं, कथाओं और कहानियों में पितृसत्ता की वकालत की गई।
पतियों की दीर्घ आयु के लिए रखे जाना वाला करवा चौथ का व्रत हो या फिर पुत्र
प्राप्ति के लिए रखे जाने वाले सभी व्रत और अनुष्ठान पितृसत्तात्मक संस्कृति को
बनाए रखने से जुड़े हुए हैं। ये सब पितृसत्ता को संस्थागत रूप प्रदान करते हैं।
III. पितृसत्तात्मक राज्य- मनुष्य सामाजिक उत्पाद है। उसकी चेतना उसके परिवेश से निर्मित होती है। वह जिस तरह की सामाजिक परिस्थतियों में रहेगा उसकी चेतना और उससे निर्मित उसके विचार वैसे ही होंगे। हो सकता है आगे चलकर वह अपने आत्मसंघर्ष से उस विचार से मुक्त होने का प्रयास करे, पर उसके अंश उसमें विद्यमान रह ही जाते हैं। किसी भी राज्य ( राष्ट्र ) का समाज अगर पितृसत्तात्मक है तो निश्चित रूप से उस राज्य को चलाने वाले लोग, भले ही कम ही सही पितृसत्तात्मक विचारों से युक्त होते हैं। भारत जैसा अर्द्ध-सामंती और अर्द्ध-पूंजीवादी देश में यह संभावना अधिक है।अधिकांशत: जब पितृसत्तात्मक राज्य की बात होती है तो उसको महिलाओं की ससंदीय चुनाव में भागीदारी से जोड़कर देखा जाता है। टिकिट वितरण में महिलाओं के प्रतिशत और उनके जीत के अनुपात पर आकार बात की इतिश्री समझ ली जाती है- “परंपरागत विश्लेषण से राजनीतिक भागीदारी का तात्पर्य निर्वाचकीय राजनीति से संबंधित गतिविधियों में भाग लेने से है, जैसे – मतदान करना, प्रचार करना, पार्टी कार्यालयों से संबंधित होना व चुनाव में भाग लेना।”21 इसका मतलब यह नहीँ है कि ससंदीय चुनाव में हार-जीत, भागीदारी और मंत्री पद तक पहुँचने वाली महिलाओं की संख्या को देखा ही नहीं जाना चाहिए। पर इसके साथ ही उनके अन्य मुद्दों को भी देखा जाना चाहिए। संसदीय पार्टियों की स्थिति पर ही अगर बात की जाए तो - किसी भी देश और उसके राज्यों में संसदीय पार्टियों द्वारा दी जानी वाली टिकटें और उनमें से चुनकर आने वाली स्त्रियों की संख्या से इस बात का अनुमान लगाना कठिन नहीं है कि राज्य की संरचना पितृसत्तात्मक तरीके से काम करती है। राजस्थान की 15 वीं विधानसभा चुनाव 2018 को उदाहरण के रूप में लिया जा सकता है। राजस्थान-विधानसभा- 2018 की 199 सीटों पर चुनाव में कुल 187 महिलाओं ने चुनाव लड़ा, जिसमें से सिर्फ 22 महिलाएं जीतकर आईं। यह आंकड़ा पिछले विधानसभा चुनाव से कम था। पिछले विधानसभा चुनाव में 166 महिलाओं ने भाग लिया था जिसमें से 28 महिलाओं ने जीत दर्ज की थी। कुल सीटों का प्रतिशत निकाला जाए तो यह संख्या नाममात्र है। 15 वीं विधानसभा की 2022 की वर्तमान स्थिति को देखें तो कुल 27 महिलाएं हैं, जो कि कुल सीटों का 13.5 प्रतिशत है। इसी तरह भारत की 17 वीं लोकसभा की वर्तमान स्थिति को देखें तो 545 में से 81 महिला सदस्य हैं।20 जो कुल लोकसभा सीटों का 14.86 प्रतिशत है।
संसदीय स्थिति के आंकड़ों से अलगस्त्रियों की इस स्थिति को भी देखा जाना चाहिए कि देश के महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर उसकी कितनी राय ली जाती है! आज भी यह मानकर चला जाता है कि देश के बड़े फैसले स्त्रियाँ नहीं ले सकतीं जबकि उनके सामने निर्णय लेने के उदाहरण दुनिया भर में प्रशंसित हैं। गांवों में महिला के सरंपच या प्रधान बन जाने पर भी उसको कोई महत्त्व नहीं दिया जाता है बल्कि उसके स्थान पर उसके पति या ससुर को महत्त्व दिया जाता है। यानी महत्त्वपूर्ण समझे जाने वाले निर्णयों में पुरुष को शामिल किया जाता है। वहाँ पर स्त्री का अस्तित्व और अस्मिता दोनों को ही विलोपित कर दिया जाता है। ससंदीय चुनावों में महिलाओं से संबंधित मुद्दे कभी केन्द्रीय मुद्दे नहीं बनाये जाते। देशभक्ति और राष्ट्रवाद जैसे खोखले जुमले अन्य महत्त्वपूर्ण मुद्दों को लील जाते हैं। भारत में स्त्रियों के साथ होने वाला बलात्कार और उसके बाद या तो मौत या मौत से भी बदतर स्थिति जैसे मुद्दे कभी मुख्य भूमिका में नहीं आते है। पितृसत्तात्मक राज्य द्वारा ऐसा जनमानस निर्मित कर दिया गया कि इन मुद्दों को मुद्दा ही नहीं समझता है।
स्त्रियों के शोषकों का राज्य किस तरह साथ देता है इसका भी एक उदाहरण यहाँ देखा जा सकता है। 2019 ई. में बीबीसी ने एक खबर छापी थी कि महाराष्ट्र में गन्ने की कटाई में बाधा न हो इसलिए महिलाएं गर्भाशय निकलवा रही हैं। अगर वे ऐसा नहीं करती हैं तो उनको काम नहीं मिलता है। महाराष्ट्र के स्वास्थ्य मंत्री ने इस बात को स्वीकार करते हुए बताया कि पिछले तीन सालों में 4605 महिलाओं नें अपना गर्भाशय निकलवाया। बीबीसी के अनुसार इन महिलाओं की उम्र तीस से चालीस के बीच है। यद्यपि इसके लिए कानून बने हैं, पर राज्य के संरक्षण के चलते इसको अमल में नहीं लाया जाता जिसका फायदा माफियाओं को मिलता हैं।22
नीरा देसाई पितृसत्तात्मक राज्य की सफलता तथा महिलाओं की राजनीति में सक्रिय भागीदारी न होने पीछे दो कारण मानती हैं- “पहला – महिलाएं परिवार में श्रम के लिंग आधारित विभाजन के कारण सभी पारिवारिक कार्यों की जिम्मेदारी का वहन करती हैं। ग्रामीण और शहरी क्षेत्र की महिलाओं से यह अपेक्षा की जाती है कि वे परिवार की देख-रेख की ज़िम्मेदारी लें... दूसरा – समान महत्त्वपूर्ण बाधाप्रचलित राजनीतिक संस्कृति है। जिसमें न केवल राजनीतिक प्रक्रिया उलझ जाती है वरन् कई निर्णय पर्दे के पीछे से लिये जाते हैं। सत्ता का खेल वित्तीय सौदों द्वारा नियंत्रित होता है इसलिए उन्हें बाजी लगाने के अयोग्य माना जाता है वर्तमान लोकतंत्र अपने सभी राजनीतिक दांव-पेचों के साथ है, इसलिए इस समय गुणों की अपेक्षा सामर्थ्य व समझौते, सम्मानीय हैं, चालक व्यक्ति और कार्य मानक हैं”।23
2. पितृसत्ता का निर्माण – कुछ परंपरावादी और कुछ तथाकथित प्रगतिशील विद्वान तर्क देते हैं कि पितृसत्ता मानव सभ्यता की शुरुआत से ही मौजूद रही है यानी स्त्रियों की वर्तमान स्थिति आदिम काल से रही है। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के समय अंग्रेजों के सामने अपने-आपको प्रगतिशील और भारतीय संस्कृति को सर्वश्रेष्ट साबित करने के लिए यहाँ के विद्वानों ने वेद आदि में स्त्रियों की स्थिति को अच्छी सिद्ध किया। उन्होंने वर्तमान समस्याओं के समाधान के लिए वैदिक युग की वकालत की। कुछ प्रगीतिशील विद्वानों ने वैदिक युग को प्रतिगामी मानकर एकदम से नकार दिया। उस पर बात करना ही उचित नहीं समझ। उन्होंने बताया कि उस समय स्त्री आदि की स्थिति एकदम गुलामों जैसी थी। हमारे विचार से ये दोनों ही विचार अतिवादी हैं। किसी घटना को ऐतिहासिक परंपरा और प्रक्रिया में मूल्यांकित करने पर ही अतिवाद से बचा जा सकता है।
प्रत्येक समाज एक ऐतिहासिक प्रक्रिया में गतिशील होता है। उसमें उतार- चढ़ाव आते रहते हैं। मानव सभ्यता विभिन्न पड़ावों के उतार-चढ़ावों को पार करके ही यहाँ तक पहुंची है। पितृसत्ता का निर्माण भी समाज के विभिन्न पड़ावों में से एक पड़ाव है। आदिम समाज के स्त्री-पुरुष संबंध में समानता थी तथा उनमें किसी तरह का भेदभाव नहीं था। धीरे-धीरे जैसे-जैसे समाज विकसित होता गया वैसे-वैसे स्त्री-पुरुष संबंधों में स्त्रियों की प्रधानता होती गई – “समाज के आदिकाल में स्त्री पुरुष की दासी थी, यह उन बिल्कुल बेतुकी धारणाओं में से एक है जो हमें अठारहवीं सदी के जागरण काल से विरासत में मिली हैं। सभी जांगल जातियों में और निम्न तथा मध्यम अवस्था की, यहाँ तक कि आंशिक रूप से उन्नत अवस्था के बर्बर लोगों में भी, स्त्री को स्वतंत्रता ही नहीं, बल्कि बड़े आदर और सम्मान का भी स्थान प्राप्त था।”24 स्त्रियों की प्रजनन क्षमता की वजह से उनको अधिक महत्त्व मिला होगा इसलिए इसको मातृसत्तात्मक समाज कहा गया। पर वह आज के पितृप्रधान समाज की तरह शोषणकारी नहीं रहा होगा। उस समय तक कोई निजी संपत्ति भी विकसित नहीं हुई थी क्योंकि “संपत्ति पर गोत्र का अधिकार होता था।”25“शुरुआत में व्यक्ति जन्म से ही विवाहित होता था- पुरुष स्त्रियों के एक पूरे समूह के साथ और स्त्री पुरुषों के समूह के साथ”26 धीरे- धीरे जब गोत्र और उनके आधार पर कबीले अस्तित्व में आए तबविवाह संबंध भी गोत्र में होने लगे। गोत्र में भी भाई-बहन और पिता-पुत्री और माँ-बेटे में संबंध बनते थे। उनसे उत्पन्न संतान पर गोत्र का सामूहिक अधिकार होता था- “हवाई की रक्त- संबंधों की व्यवस्था के लिए परिवार का ठीक ऐसा ही रूप स्वत: मान्य है। इसमें यह नियम था कि भाई- बहिन एक ही बच्चे के पिता-माता हुआ करते थे।”27 भारतीय संदर्भों में भी देखा जाए तो इस तरह के उदाहरण मिलते हैं- “एक तो प्रजापति की अपनी कन्या पर बलात्कार करने की बात (ऋग्. 6/ 55/ 5) है, दूसरा पूषाण अपनी माँ ( ऋग्. 7/ 78/ 3) से प्रेम निवेदन कर रहे हैं। इसके अतिरिक्त उषा अपने पिता सूर्य के साथ रमण करती है”।28 संपत्ति पर गोत्र का अधिकार होने से निजी संपत्ति का कोई अस्तित्व नहीं था। निजी संपत्ति के अस्तित्व में आने के सामाजिक और आर्थिक कारण रहे, यहाँ यह जान लेना जरूरी है कि ये सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन भी अपने-आप में निजी संपत्ति के परिणाम थे। इसलिए इन दोनों को एक दूसरे का पूरक और अन्योन्याश्रित कहा जा सकत है।
स्त्री-पुरुष संबंधों में परिवर्तन तत्कालीन समाज की आर्थिक व्यवस्था के परिणाम थे। उसके परिणामस्वरूप ही परिवार नामक संस्था अस्तित्व में आई। आपसी संबंध आर्थिक परिस्थियों के कारणस्वरूप परिवर्तित होते रहे हैं। आदिम समाज की आर्थिक व्यवस्था समतामूलक थी इसलिए मानव सभ्यता के सभी प्रकार के संबंध भी समतामूलक थे। धीरे-धीरे स्त्री का आर्थिक महत्त्व बढ़ा परिणामस्वरूप संबंधों में भी स्त्री का महत्त्व बढ़ा। फिर भी कहा जा सकता है की संबंधों में कोई ऊपर नीचे नहीं था। समाज जैसे-जैसे कबीलों में विभाजित होता गया तथा पशुपालन का महत्त्व बढ़ता गया वैसे-वैसे निजी संपत्ति अस्तित्व में आती गई। सबसे पहले पालतू पशु ही निजी संपत्ति के रूप में अस्तित्व में आए- “यहाँ पशुपालन ने संपदा का एक ऐसा स्रोत पैदा कर दिया था जिसकी पहले कल्पना भी नहीं की गई थी, और पूरी तरह नये सामाजिक संबंधों को जन्म दिया था। बर्बर युग की निम्न अवस्था तक मकान, कपड़े, अनगढ़ ज़ेवर और आहार तथा तैयार करने के औज़ार : नाव, हथियार और मामूली ढंग के घरेलू बर्तन-भांडे ही स्थायी संपत्ति होते थे...जो शिकार करना पहले जीवन के लिए आवश्यक था, वही अब शौक की चीज़ बन गया।”29निजी संपत्ति के परिणामस्वरूप एकल विवाह अस्तित्व में आए। इससे पहले संतान माता के नाम से जानी जाती थी क्योंकि समूह विवाह में एक स्त्री के अनेक पुरुषों से और एक पुरुष के अनेक स्त्रियों से संबंध बनते थे, जिससे बच्चों के पिता को चिन्हित करना कठिन कार्य था। स्त्री की संपत्ति भी उसकी पुत्री को ही मिलती थी। दूसरा यह भी होता था कि संपत्ति पर पूरे कबीले का अधिकार होता था। इसलिए संपत्ति वैयक्तिक नहीं होती थी। मनुष्य ने जब से शिकार करने की प्रवृत्ति से आगे बढ़कर कृषि को विकसित किया तब से उसे संग्रह की जरूरत पड़ने लगी। क्योंकि खेती का समय निश्चित होता है। फसल को बोने, सिंचित करने, पकने और काटने में एक निश्चित समय की आवश्यकता होती है। संग्रह की प्रवृत्ति मनुष्य में जैसे ही आने लगी वैसे ही निजी संपत्ति भी अस्तित्व में आने लगी। इस प्रकार निजी संपत्ति के अस्तित्व में आने के यहाँ दो कारण स्पष्ट रूप से दिखाई देते हैं- पहला पशुपालन और दूसरा कृषि कार्य से उत्पन्न अतिरिक्त पैदावार, जिसको आगामी दिनों के लिए संग्रह किया जा सकता था। एकल विवाह निजी संपत्ति का ही परिणाम था। एकल विवाह ने ही रक्त-शुद्धता को बढ़ावा दिया। इस प्रकार पुत्र पर पिता का अधिकार समझा गया और पितृसत्ता अस्तित्व में आई- “संपदा जब एक बार अलग-अलग परिवारों की निजी संपत्ति बन गयी और उसकी वहाँ खूब बढ़ोतरी हुई, तो उसने युग्म-विवाह तथा मातृसत्तावादी गोत्र पर आधारित समाज पर कठोर प्रहार किया। युग्म-विवाह के कारण परिवार में एक नये तत्त्व का प्रवेश हो चुका था। सगी माँ के साथ-साथ अब प्रामाणिक सगा बाप भी मौजूद था।”30 पितृसत्ता के विकास को एंगेल्स ने एक ऐतिहासिक घटना बताया- “मातृसत्ता का विनाश स्त्री जाति की विश्व-ऐतिहासिक पराजय था। अब घर के अंदर पुरुष ने अपना आधिपत्य जमा लिया। स्त्री अपने पद से वंचित कर दी गयी, जकड़ दी गयी, पुरुष की दासी, संतान उत्पन्न करने का यंत्र बनकर रह गयी”31
गर्दा लर्नर ने एंगेल्स के विपरीत पितृसत्ता को ऐतिहासिक घटना न मानकर ऐतिहासिक प्रक्रिया माना है- “पितृसत्ता पुरुषों और महिलाओं द्वारा एक ऐसी प्रक्रिया में बनाई गई एक ऐतिहासिक रचना है जिसे पूरा होने में लगभग 2500 वर्ष लगे।”32 उन्होंने माना कि यह निरंतर विकासमान रही है और अपने स्वरूप में निरंतर परिवर्तन करती रही है। लर्नर ने पितृसत्ता के विकासमान स्वरूप और उसमें बदलाव या परिवर्तन को कारण-कार्य संबंध के रूप में समझने का प्रयास किया है जैसे वह इस मत का आग्रह रखती हैं कि अगर पितृसत्ता की उत्पत्ति फलां-फलां कारण से हुई होगी तो उस कारण के नष्ट होने पर उसका परिणाम यानी पितृसत्ता भी नष्ट होनी चाहिए। पितृसत्ता के निर्माण और विकास के लिए भी वह यही तर्क देती हैं कि अगर इसकी उत्पत्ति निजी संपत्ति के कारण हुई है तो निजी संपत्ति के नष्ट होने पर पितृसत्ता का भी अंत हो जाना चाहिएथा पर ऐसा नहीं हुआ है। आज तो अनेकों स्त्रियों के पास निजी संपत्ति है फिर भी वे पितृसत्ता की जकड़नों में जकड़ी हुई हैं। इसलिए लर्नर इसे एक लंबी प्रक्रिया में विकसित हुई सांस्कृतिक परिघटना मानती हैं। इसके लिए वह स्त्रियों को भी उतना ही जिम्मेदार मानती हैं जितना पुरुषों को- “पितृसत्ता की व्यवस्था महिलाओं के सहयोग से ही चल सकती है। यह सहयोग विभिन्न माध्यमों से प्राप्त होता है: लैंगिक शिक्षा; शैक्षिक अभाव; महिलाओं को उनके इतिहास के ज्ञान से वंचित रखना; महिलाओं की यौन गतिविधियों के अनुसार ‘सम्मान’ और ‘विचलन’ को परिभाषित करके महिलाओं को एक दूसरे से विभाजित करना और जबरदस्ती; आर्थिक संसाधनों और राजनीतिक सत्ता तक पहुंच में भेदभाव द्वारा।”33
एकल विवाह स्त्री-पुरुष के आपसी प्रेम के फलस्वरूप अस्तित्व में न आकर निजी संपत्ति के कारण आस्तित्व में आयाअत: स्त्रियों के लिए यह घातक रहा, उसके कारण उनको अपनी स्वतंत्रता से हाथ धोना पड़ा- “व्यक्तिगत यौन-प्रेम के साथ तो एकविवाह की ज़रा भी समानता नहीं है क्योंकि इस प्रथा के प्रचलित होने के बाद भी विवाह पहले की ही तरह अपना लाभ देखकर किये जाते रहे। यह परिवार का वह पहला रूप था जो प्राकृतिक कारणों पर नहीं बल्कि आर्थिक कारणों पर आधारित था”34 एकल विवाह के विकसित होने की प्रक्रिया में भी स्त्री को शोषण अधिक झेलना पड़ा था। क्योंकि समूह विवाह में स्त्री का शोषण पहले से ही अधिक था। अनेक पुरुषों के साथ संबंध बनाने के कारण उसे शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकार के शोषण की प्रक्रिया से गुजरना पड़ता था इसलिए अब वह सिर्फ एक पति चाहती थी। जिसके साथ रहकर वह उस शोषण से मुक्त हो सके। परंतु पुराने समूह-विवाह के नियम तोड़ना खतरे से खाली नहीं था। एकल विवाह के दंड स्वरूप उसे कबीले के मुखिया आदि के साथ सोकर अपनी देह की कीमत चुकानी पड़ती थी। अतिथियों को भी उसे संतुष्ट करना पड़ता था- “पहले हर साल समर्पण करना पड़ता था, अब एक बार समर्पण करके काम चल जाता है। विवाहिताओं के हैटेरिज्म की जगह कुमारियों का हैटेरिज्म ले लेता है। पहले वह विवाह के दौरान होता था; अब विवाह के पहले होने लगा। पहले बिना किसी भेदभाव के हर किसी के सामने समर्पण करना पड़ता था; अब खास- खास व्यक्तियों के सामने किया जाने लगा।”35
3.भारतीय समाज और पितृसत्ता का स्वरूप- आर्थिक संबंधों के बदलाव की प्रक्रिया के साथ-साथ पितृसत्ता के स्वरूप में भी बदलाव आते रहे हैं। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो सभी प्रकार के आर्थिक संबंधों ने पितृसत्ता को संरक्षण दिया है। भारतीय संदर्भों में आर्थिक बदलाओं की प्रक्रिया के संदर्भ में पितृसत्ता के स्वरूप को देखा जाए तो मुख्य रूप से दो तरह की पितृसत्ता हमारे सामने आती है -
III. पितृसत्तात्मक राज्य- मनुष्य सामाजिक उत्पाद है। उसकी चेतना उसके परिवेश से निर्मित होती है। वह जिस तरह की सामाजिक परिस्थतियों में रहेगा उसकी चेतना और उससे निर्मित उसके विचार वैसे ही होंगे। हो सकता है आगे चलकर वह अपने आत्मसंघर्ष से उस विचार से मुक्त होने का प्रयास करे, पर उसके अंश उसमें विद्यमान रह ही जाते हैं। किसी भी राज्य ( राष्ट्र ) का समाज अगर पितृसत्तात्मक है तो निश्चित रूप से उस राज्य को चलाने वाले लोग, भले ही कम ही सही पितृसत्तात्मक विचारों से युक्त होते हैं। भारत जैसा अर्द्ध-सामंती और अर्द्ध-पूंजीवादी देश में यह संभावना अधिक है।अधिकांशत: जब पितृसत्तात्मक राज्य की बात होती है तो उसको महिलाओं की ससंदीय चुनाव में भागीदारी से जोड़कर देखा जाता है। टिकिट वितरण में महिलाओं के प्रतिशत और उनके जीत के अनुपात पर आकार बात की इतिश्री समझ ली जाती है- “परंपरागत विश्लेषण से राजनीतिक भागीदारी का तात्पर्य निर्वाचकीय राजनीति से संबंधित गतिविधियों में भाग लेने से है, जैसे – मतदान करना, प्रचार करना, पार्टी कार्यालयों से संबंधित होना व चुनाव में भाग लेना।”21 इसका मतलब यह नहीँ है कि ससंदीय चुनाव में हार-जीत, भागीदारी और मंत्री पद तक पहुँचने वाली महिलाओं की संख्या को देखा ही नहीं जाना चाहिए। पर इसके साथ ही उनके अन्य मुद्दों को भी देखा जाना चाहिए। संसदीय पार्टियों की स्थिति पर ही अगर बात की जाए तो - किसी भी देश और उसके राज्यों में संसदीय पार्टियों द्वारा दी जानी वाली टिकटें और उनमें से चुनकर आने वाली स्त्रियों की संख्या से इस बात का अनुमान लगाना कठिन नहीं है कि राज्य की संरचना पितृसत्तात्मक तरीके से काम करती है। राजस्थान की 15 वीं विधानसभा चुनाव 2018 को उदाहरण के रूप में लिया जा सकता है। राजस्थान-विधानसभा- 2018 की 199 सीटों पर चुनाव में कुल 187 महिलाओं ने चुनाव लड़ा, जिसमें से सिर्फ 22 महिलाएं जीतकर आईं। यह आंकड़ा पिछले विधानसभा चुनाव से कम था। पिछले विधानसभा चुनाव में 166 महिलाओं ने भाग लिया था जिसमें से 28 महिलाओं ने जीत दर्ज की थी। कुल सीटों का प्रतिशत निकाला जाए तो यह संख्या नाममात्र है। 15 वीं विधानसभा की 2022 की वर्तमान स्थिति को देखें तो कुल 27 महिलाएं हैं, जो कि कुल सीटों का 13.5 प्रतिशत है। इसी तरह भारत की 17 वीं लोकसभा की वर्तमान स्थिति को देखें तो 545 में से 81 महिला सदस्य हैं।20 जो कुल लोकसभा सीटों का 14.86 प्रतिशत है।
संसदीय स्थिति के आंकड़ों से अलगस्त्रियों की इस स्थिति को भी देखा जाना चाहिए कि देश के महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर उसकी कितनी राय ली जाती है! आज भी यह मानकर चला जाता है कि देश के बड़े फैसले स्त्रियाँ नहीं ले सकतीं जबकि उनके सामने निर्णय लेने के उदाहरण दुनिया भर में प्रशंसित हैं। गांवों में महिला के सरंपच या प्रधान बन जाने पर भी उसको कोई महत्त्व नहीं दिया जाता है बल्कि उसके स्थान पर उसके पति या ससुर को महत्त्व दिया जाता है। यानी महत्त्वपूर्ण समझे जाने वाले निर्णयों में पुरुष को शामिल किया जाता है। वहाँ पर स्त्री का अस्तित्व और अस्मिता दोनों को ही विलोपित कर दिया जाता है। ससंदीय चुनावों में महिलाओं से संबंधित मुद्दे कभी केन्द्रीय मुद्दे नहीं बनाये जाते। देशभक्ति और राष्ट्रवाद जैसे खोखले जुमले अन्य महत्त्वपूर्ण मुद्दों को लील जाते हैं। भारत में स्त्रियों के साथ होने वाला बलात्कार और उसके बाद या तो मौत या मौत से भी बदतर स्थिति जैसे मुद्दे कभी मुख्य भूमिका में नहीं आते है। पितृसत्तात्मक राज्य द्वारा ऐसा जनमानस निर्मित कर दिया गया कि इन मुद्दों को मुद्दा ही नहीं समझता है।
स्त्रियों के शोषकों का राज्य किस तरह साथ देता है इसका भी एक उदाहरण यहाँ देखा जा सकता है। 2019 ई. में बीबीसी ने एक खबर छापी थी कि महाराष्ट्र में गन्ने की कटाई में बाधा न हो इसलिए महिलाएं गर्भाशय निकलवा रही हैं। अगर वे ऐसा नहीं करती हैं तो उनको काम नहीं मिलता है। महाराष्ट्र के स्वास्थ्य मंत्री ने इस बात को स्वीकार करते हुए बताया कि पिछले तीन सालों में 4605 महिलाओं नें अपना गर्भाशय निकलवाया। बीबीसी के अनुसार इन महिलाओं की उम्र तीस से चालीस के बीच है। यद्यपि इसके लिए कानून बने हैं, पर राज्य के संरक्षण के चलते इसको अमल में नहीं लाया जाता जिसका फायदा माफियाओं को मिलता हैं।22
नीरा देसाई पितृसत्तात्मक राज्य की सफलता तथा महिलाओं की राजनीति में सक्रिय भागीदारी न होने पीछे दो कारण मानती हैं- “पहला – महिलाएं परिवार में श्रम के लिंग आधारित विभाजन के कारण सभी पारिवारिक कार्यों की जिम्मेदारी का वहन करती हैं। ग्रामीण और शहरी क्षेत्र की महिलाओं से यह अपेक्षा की जाती है कि वे परिवार की देख-रेख की ज़िम्मेदारी लें... दूसरा – समान महत्त्वपूर्ण बाधाप्रचलित राजनीतिक संस्कृति है। जिसमें न केवल राजनीतिक प्रक्रिया उलझ जाती है वरन् कई निर्णय पर्दे के पीछे से लिये जाते हैं। सत्ता का खेल वित्तीय सौदों द्वारा नियंत्रित होता है इसलिए उन्हें बाजी लगाने के अयोग्य माना जाता है वर्तमान लोकतंत्र अपने सभी राजनीतिक दांव-पेचों के साथ है, इसलिए इस समय गुणों की अपेक्षा सामर्थ्य व समझौते, सम्मानीय हैं, चालक व्यक्ति और कार्य मानक हैं”।23
2. पितृसत्ता का निर्माण – कुछ परंपरावादी और कुछ तथाकथित प्रगतिशील विद्वान तर्क देते हैं कि पितृसत्ता मानव सभ्यता की शुरुआत से ही मौजूद रही है यानी स्त्रियों की वर्तमान स्थिति आदिम काल से रही है। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के समय अंग्रेजों के सामने अपने-आपको प्रगतिशील और भारतीय संस्कृति को सर्वश्रेष्ट साबित करने के लिए यहाँ के विद्वानों ने वेद आदि में स्त्रियों की स्थिति को अच्छी सिद्ध किया। उन्होंने वर्तमान समस्याओं के समाधान के लिए वैदिक युग की वकालत की। कुछ प्रगीतिशील विद्वानों ने वैदिक युग को प्रतिगामी मानकर एकदम से नकार दिया। उस पर बात करना ही उचित नहीं समझ। उन्होंने बताया कि उस समय स्त्री आदि की स्थिति एकदम गुलामों जैसी थी। हमारे विचार से ये दोनों ही विचार अतिवादी हैं। किसी घटना को ऐतिहासिक परंपरा और प्रक्रिया में मूल्यांकित करने पर ही अतिवाद से बचा जा सकता है।
प्रत्येक समाज एक ऐतिहासिक प्रक्रिया में गतिशील होता है। उसमें उतार- चढ़ाव आते रहते हैं। मानव सभ्यता विभिन्न पड़ावों के उतार-चढ़ावों को पार करके ही यहाँ तक पहुंची है। पितृसत्ता का निर्माण भी समाज के विभिन्न पड़ावों में से एक पड़ाव है। आदिम समाज के स्त्री-पुरुष संबंध में समानता थी तथा उनमें किसी तरह का भेदभाव नहीं था। धीरे-धीरे जैसे-जैसे समाज विकसित होता गया वैसे-वैसे स्त्री-पुरुष संबंधों में स्त्रियों की प्रधानता होती गई – “समाज के आदिकाल में स्त्री पुरुष की दासी थी, यह उन बिल्कुल बेतुकी धारणाओं में से एक है जो हमें अठारहवीं सदी के जागरण काल से विरासत में मिली हैं। सभी जांगल जातियों में और निम्न तथा मध्यम अवस्था की, यहाँ तक कि आंशिक रूप से उन्नत अवस्था के बर्बर लोगों में भी, स्त्री को स्वतंत्रता ही नहीं, बल्कि बड़े आदर और सम्मान का भी स्थान प्राप्त था।”24 स्त्रियों की प्रजनन क्षमता की वजह से उनको अधिक महत्त्व मिला होगा इसलिए इसको मातृसत्तात्मक समाज कहा गया। पर वह आज के पितृप्रधान समाज की तरह शोषणकारी नहीं रहा होगा। उस समय तक कोई निजी संपत्ति भी विकसित नहीं हुई थी क्योंकि “संपत्ति पर गोत्र का अधिकार होता था।”25“शुरुआत में व्यक्ति जन्म से ही विवाहित होता था- पुरुष स्त्रियों के एक पूरे समूह के साथ और स्त्री पुरुषों के समूह के साथ”26 धीरे- धीरे जब गोत्र और उनके आधार पर कबीले अस्तित्व में आए तबविवाह संबंध भी गोत्र में होने लगे। गोत्र में भी भाई-बहन और पिता-पुत्री और माँ-बेटे में संबंध बनते थे। उनसे उत्पन्न संतान पर गोत्र का सामूहिक अधिकार होता था- “हवाई की रक्त- संबंधों की व्यवस्था के लिए परिवार का ठीक ऐसा ही रूप स्वत: मान्य है। इसमें यह नियम था कि भाई- बहिन एक ही बच्चे के पिता-माता हुआ करते थे।”27 भारतीय संदर्भों में भी देखा जाए तो इस तरह के उदाहरण मिलते हैं- “एक तो प्रजापति की अपनी कन्या पर बलात्कार करने की बात (ऋग्. 6/ 55/ 5) है, दूसरा पूषाण अपनी माँ ( ऋग्. 7/ 78/ 3) से प्रेम निवेदन कर रहे हैं। इसके अतिरिक्त उषा अपने पिता सूर्य के साथ रमण करती है”।28 संपत्ति पर गोत्र का अधिकार होने से निजी संपत्ति का कोई अस्तित्व नहीं था। निजी संपत्ति के अस्तित्व में आने के सामाजिक और आर्थिक कारण रहे, यहाँ यह जान लेना जरूरी है कि ये सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन भी अपने-आप में निजी संपत्ति के परिणाम थे। इसलिए इन दोनों को एक दूसरे का पूरक और अन्योन्याश्रित कहा जा सकत है।
स्त्री-पुरुष संबंधों में परिवर्तन तत्कालीन समाज की आर्थिक व्यवस्था के परिणाम थे। उसके परिणामस्वरूप ही परिवार नामक संस्था अस्तित्व में आई। आपसी संबंध आर्थिक परिस्थियों के कारणस्वरूप परिवर्तित होते रहे हैं। आदिम समाज की आर्थिक व्यवस्था समतामूलक थी इसलिए मानव सभ्यता के सभी प्रकार के संबंध भी समतामूलक थे। धीरे-धीरे स्त्री का आर्थिक महत्त्व बढ़ा परिणामस्वरूप संबंधों में भी स्त्री का महत्त्व बढ़ा। फिर भी कहा जा सकता है की संबंधों में कोई ऊपर नीचे नहीं था। समाज जैसे-जैसे कबीलों में विभाजित होता गया तथा पशुपालन का महत्त्व बढ़ता गया वैसे-वैसे निजी संपत्ति अस्तित्व में आती गई। सबसे पहले पालतू पशु ही निजी संपत्ति के रूप में अस्तित्व में आए- “यहाँ पशुपालन ने संपदा का एक ऐसा स्रोत पैदा कर दिया था जिसकी पहले कल्पना भी नहीं की गई थी, और पूरी तरह नये सामाजिक संबंधों को जन्म दिया था। बर्बर युग की निम्न अवस्था तक मकान, कपड़े, अनगढ़ ज़ेवर और आहार तथा तैयार करने के औज़ार : नाव, हथियार और मामूली ढंग के घरेलू बर्तन-भांडे ही स्थायी संपत्ति होते थे...जो शिकार करना पहले जीवन के लिए आवश्यक था, वही अब शौक की चीज़ बन गया।”29निजी संपत्ति के परिणामस्वरूप एकल विवाह अस्तित्व में आए। इससे पहले संतान माता के नाम से जानी जाती थी क्योंकि समूह विवाह में एक स्त्री के अनेक पुरुषों से और एक पुरुष के अनेक स्त्रियों से संबंध बनते थे, जिससे बच्चों के पिता को चिन्हित करना कठिन कार्य था। स्त्री की संपत्ति भी उसकी पुत्री को ही मिलती थी। दूसरा यह भी होता था कि संपत्ति पर पूरे कबीले का अधिकार होता था। इसलिए संपत्ति वैयक्तिक नहीं होती थी। मनुष्य ने जब से शिकार करने की प्रवृत्ति से आगे बढ़कर कृषि को विकसित किया तब से उसे संग्रह की जरूरत पड़ने लगी। क्योंकि खेती का समय निश्चित होता है। फसल को बोने, सिंचित करने, पकने और काटने में एक निश्चित समय की आवश्यकता होती है। संग्रह की प्रवृत्ति मनुष्य में जैसे ही आने लगी वैसे ही निजी संपत्ति भी अस्तित्व में आने लगी। इस प्रकार निजी संपत्ति के अस्तित्व में आने के यहाँ दो कारण स्पष्ट रूप से दिखाई देते हैं- पहला पशुपालन और दूसरा कृषि कार्य से उत्पन्न अतिरिक्त पैदावार, जिसको आगामी दिनों के लिए संग्रह किया जा सकता था। एकल विवाह निजी संपत्ति का ही परिणाम था। एकल विवाह ने ही रक्त-शुद्धता को बढ़ावा दिया। इस प्रकार पुत्र पर पिता का अधिकार समझा गया और पितृसत्ता अस्तित्व में आई- “संपदा जब एक बार अलग-अलग परिवारों की निजी संपत्ति बन गयी और उसकी वहाँ खूब बढ़ोतरी हुई, तो उसने युग्म-विवाह तथा मातृसत्तावादी गोत्र पर आधारित समाज पर कठोर प्रहार किया। युग्म-विवाह के कारण परिवार में एक नये तत्त्व का प्रवेश हो चुका था। सगी माँ के साथ-साथ अब प्रामाणिक सगा बाप भी मौजूद था।”30 पितृसत्ता के विकास को एंगेल्स ने एक ऐतिहासिक घटना बताया- “मातृसत्ता का विनाश स्त्री जाति की विश्व-ऐतिहासिक पराजय था। अब घर के अंदर पुरुष ने अपना आधिपत्य जमा लिया। स्त्री अपने पद से वंचित कर दी गयी, जकड़ दी गयी, पुरुष की दासी, संतान उत्पन्न करने का यंत्र बनकर रह गयी”31
गर्दा लर्नर ने एंगेल्स के विपरीत पितृसत्ता को ऐतिहासिक घटना न मानकर ऐतिहासिक प्रक्रिया माना है- “पितृसत्ता पुरुषों और महिलाओं द्वारा एक ऐसी प्रक्रिया में बनाई गई एक ऐतिहासिक रचना है जिसे पूरा होने में लगभग 2500 वर्ष लगे।”32 उन्होंने माना कि यह निरंतर विकासमान रही है और अपने स्वरूप में निरंतर परिवर्तन करती रही है। लर्नर ने पितृसत्ता के विकासमान स्वरूप और उसमें बदलाव या परिवर्तन को कारण-कार्य संबंध के रूप में समझने का प्रयास किया है जैसे वह इस मत का आग्रह रखती हैं कि अगर पितृसत्ता की उत्पत्ति फलां-फलां कारण से हुई होगी तो उस कारण के नष्ट होने पर उसका परिणाम यानी पितृसत्ता भी नष्ट होनी चाहिए। पितृसत्ता के निर्माण और विकास के लिए भी वह यही तर्क देती हैं कि अगर इसकी उत्पत्ति निजी संपत्ति के कारण हुई है तो निजी संपत्ति के नष्ट होने पर पितृसत्ता का भी अंत हो जाना चाहिएथा पर ऐसा नहीं हुआ है। आज तो अनेकों स्त्रियों के पास निजी संपत्ति है फिर भी वे पितृसत्ता की जकड़नों में जकड़ी हुई हैं। इसलिए लर्नर इसे एक लंबी प्रक्रिया में विकसित हुई सांस्कृतिक परिघटना मानती हैं। इसके लिए वह स्त्रियों को भी उतना ही जिम्मेदार मानती हैं जितना पुरुषों को- “पितृसत्ता की व्यवस्था महिलाओं के सहयोग से ही चल सकती है। यह सहयोग विभिन्न माध्यमों से प्राप्त होता है: लैंगिक शिक्षा; शैक्षिक अभाव; महिलाओं को उनके इतिहास के ज्ञान से वंचित रखना; महिलाओं की यौन गतिविधियों के अनुसार ‘सम्मान’ और ‘विचलन’ को परिभाषित करके महिलाओं को एक दूसरे से विभाजित करना और जबरदस्ती; आर्थिक संसाधनों और राजनीतिक सत्ता तक पहुंच में भेदभाव द्वारा।”33
एकल विवाह स्त्री-पुरुष के आपसी प्रेम के फलस्वरूप अस्तित्व में न आकर निजी संपत्ति के कारण आस्तित्व में आयाअत: स्त्रियों के लिए यह घातक रहा, उसके कारण उनको अपनी स्वतंत्रता से हाथ धोना पड़ा- “व्यक्तिगत यौन-प्रेम के साथ तो एकविवाह की ज़रा भी समानता नहीं है क्योंकि इस प्रथा के प्रचलित होने के बाद भी विवाह पहले की ही तरह अपना लाभ देखकर किये जाते रहे। यह परिवार का वह पहला रूप था जो प्राकृतिक कारणों पर नहीं बल्कि आर्थिक कारणों पर आधारित था”34 एकल विवाह के विकसित होने की प्रक्रिया में भी स्त्री को शोषण अधिक झेलना पड़ा था। क्योंकि समूह विवाह में स्त्री का शोषण पहले से ही अधिक था। अनेक पुरुषों के साथ संबंध बनाने के कारण उसे शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकार के शोषण की प्रक्रिया से गुजरना पड़ता था इसलिए अब वह सिर्फ एक पति चाहती थी। जिसके साथ रहकर वह उस शोषण से मुक्त हो सके। परंतु पुराने समूह-विवाह के नियम तोड़ना खतरे से खाली नहीं था। एकल विवाह के दंड स्वरूप उसे कबीले के मुखिया आदि के साथ सोकर अपनी देह की कीमत चुकानी पड़ती थी। अतिथियों को भी उसे संतुष्ट करना पड़ता था- “पहले हर साल समर्पण करना पड़ता था, अब एक बार समर्पण करके काम चल जाता है। विवाहिताओं के हैटेरिज्म की जगह कुमारियों का हैटेरिज्म ले लेता है। पहले वह विवाह के दौरान होता था; अब विवाह के पहले होने लगा। पहले बिना किसी भेदभाव के हर किसी के सामने समर्पण करना पड़ता था; अब खास- खास व्यक्तियों के सामने किया जाने लगा।”35
3.भारतीय समाज और पितृसत्ता का स्वरूप- आर्थिक संबंधों के बदलाव की प्रक्रिया के साथ-साथ पितृसत्ता के स्वरूप में भी बदलाव आते रहे हैं। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो सभी प्रकार के आर्थिक संबंधों ने पितृसत्ता को संरक्षण दिया है। भारतीय संदर्भों में आर्थिक बदलाओं की प्रक्रिया के संदर्भ में पितृसत्ता के स्वरूप को देखा जाए तो मुख्य रूप से दो तरह की पितृसत्ता हमारे सामने आती है -
ii. पूंजीवादी पितृसत्ता
i.ब्राह्मणवादी पितृसत्ता- ‘ब्राह्मणवादी पितृसत्ता’ वर्णव्यवस्था से उपजे आर्थिक संबंधों का परिणाम है। इन संबंधों को संस्थागत रूप देने में ब्राह्मणवादी धर्मशास्त्रों, धर्मसूत्रों और इन पर आधारित मिथकों, लौकिक साहित्य आदि का प्रमुख योगदान रहा है। ब्राह्मणवादी पितृसत्ता को निम्नलिखित बिंदुओं द्वारा समझने का प्रयास करेंगे-
· स्त्री-यौनिकता पर नियंत्रण – ब्राह्मणवादी पितृसत्ता ने भारतीय स्त्रियों के आचार-व्यवहार से लेकर पुरुषों के साथ उसके संबंधों की प्रकृति तक को नियंत्रित किया है। इस नियंत्रण से संबंधित मनु के विचार जान लेने चाहिए –
“रात दिन महिलायें अपने ( परिवारों के ) पुरुषों के अधीन होनी चाहिए और यदि वे अपने आप को इंद्रियजन्य सुखों से जोड़ लेती हैं तो उन्हें किसी एक नियंत्रण में रखा जाए।”36(ix. 2)
“एक पत्नी, एक पुत्र और एक दास इन तीनों की कोई संपत्ति नहीं होगी, संपदा जो वे अर्जित करेंगे उसकी होगी जिससे वे संबंधित हैं।”37 (ix. 46)
“वेदों द्वारा नियत दैनिक यज्ञ महिला द्वारा न किया जाये। यदि वह ऐसा करती है तो वह नरक में जाएगी।”38 (ix- 36-37)
· विवाह-विच्छेद और पुनर्विवाह पर रोक – ऋग्वेद में विधवा विवाह का उल्लेख मिलता है। प्रारंभिक वैदिक समाज पशुपालक था। इस कारण विधवा-विवाह हो जाना असंभव नहीं था। ऋग्वेद में उल्लेख मिलता है कि – “पति की मृत-देह के बगल में जिस समय सद्योविधवा लेटती थी, उस समय उसे पुरोहित यह कहकर उठाता था – “हे स्त्री, जीवन-जगत में आ। जिसकी बगल में तू लेटी है, वह अब जीवन हीन है। इस पति के साथ पत्नीत्व निभाना तेरा हिस्सा था, तभी इसने तेरा पाणिग्रहण किया और प्रेमिक के रूप में प्रेम निवेदन किया”(ऋग्. 18/2/8) । मृत व्यक्ति के हाथ से धनुष लेने का हक उसके भाई को था। वह धनुष लेते हुए अपनी भ्रातृवधू से कहता था – “मैं धनुषधारी मृतक हस्त से यह धनुष ले हूँ जिससे यह हम लोगों की शक्ति और ख्याति का कारण हो”( ऋग्. 18/2/9)40।इतना होने पर भी स्त्रियों पर प्रतिबंध लगने लगे थे। कुछ विद्वान मानते हैं कि पर्दा प्रथा वैदिक समाज से शुरू हो गई थी। पशुपालक वैदिक समाज में पशुओं के रूप में निजी संपत्ति अस्तित्व में आने लगी थी। निजी संपत्ति के परिणामस्वरूप ही स्त्री यौनिकता पर प्रतिबंध बढ़ते जा रहे थे। निजी संपत्ति की रक्षा और यौन शुद्धता को बनाये रखने के लिए ही तलाक और पुनर्विवाह पर रोक लगा दी गई थी। यूथ विवाह में तो विधवा जैसी कोई स्थिति पैदा नहीं होती थी क्योंकि वहाँ स्त्री पूरे समूह की पत्नी होती थी। विधवा जैसी स्थिति एकल-विवाह की ही देन है। एकल-विवाह निश्चित रूप से निजी संपत्ति की देन है। एकल विवाह में पत्नी भी निजी संपत्ति ही समझी जाती थी। जैसे किसी मृत व्यक्ति के साथ अन्य वस्तुओं को उसके साथ यह कहकर दफनाया या जलाया जाता था कि अलगे लोक में इसको उनकी जरूरत पड़ेगी, उसी प्रकार पत्नी को भी निजी संपत्ति और अगले लोक में काम आने वाली वस्तु मानकर ही जलाया (सती) जाता था। जो स्त्रियाँ नहीं जल पाती थीं उनका वैधव्य-जीवन बदतर बना दिया जाता था। वह न बाहर निकल सकती थी, न ही कोई शृंगार आदि कर सकती थीं। उनको सफेद कपड़े पहनकर रहना पड़ता था। इसके पीछे मुख्य कारण था किसी दूसरे पुरुष के साथ उसके संबंध बनने से रोकना। दूसरे पुरुष से संबंध बनने पर नाजायज संतान को जायज संतान के हिस्से की संपत्ति न देनी पड़े यही सोचकर मनु ने विधवा विवाह पर पूर्णत: रोक लगा दी थी। विधवा विवाह के विरोध में मनु के विचार इस प्रकार हैं -
“भेड़ और भैंसों से जीविका चलानेवाला, विधवा से विवाह करने वाला और द्रव्य के लिए प्रेत का दाह आदि करनेवाला श्राद्ध में यत्नपूर्वक वर्जनीय है।” (3/166)41
पति के मरने पर स्त्री पुष्प, फल, मूल खाकर देह को क्षीण करे, पर-पुरुष का कभी नाम न ले। विधवा स्त्री पतिव्रत के उत्तम धर्मों को चाहती हुई मरते दम तक क्षमायुक्त और नियमपूर्वक ब्रह्मचारिणी रहे।” (5/157-158) 42
ब्राह्मणवादी पितृसत्ता ने जिस तरह से विधवा विवाह पर रोक लगा रखी थी उसी तरह से विवाह विच्छेद भी निषिद्ध कर रखा था। विवाह के सातों प्रकारों में ब्राह्म विवाह को सर्वश्रेष्ठ माना जाता था। इसमें एक बार विवाह होने पर उसे सातों जन्मों का पवित्र बंधन समझा जाता था। उसको तोड़ना धर्म की अवहेलना समझी जाती थी। यद्यपि मनु ने स्त्रियों के लिए विवाह-विच्छेद का निषेध कर दिया था पर प्रकारांतर में कौटिल्य ने पुरुष को विवाह विच्छेद का अधिकार दिया था। उसने विभिन्न परिस्थितियाँ रखी जिसके आधार पर पुरुष विवाह तोड़ सकता था – “यदि स्त्री पति से द्वेष रखे और सात मासिक धर्म तक यानी सात महीने तक पर-पुरुष का चिंतन करती हो, तो वह अपने गहने पति को लौटा दे और उसको (पति) दूसरी स्त्री के साथ सोने की आज्ञा दे दे।” इस प्रकार देखा जा सकता है कि स्त्री को त्यागने का अधिकार भी पुरुष को ही था। ब्राह्मणवादी पितृसत्ता के ब्राह्म-विवाह पुरुष को व्यभिचार का अवसर उपलब्ध कराता था। वह व्यभिचार को बनाए रखने का साधन था। कामसूत्र की पूरी संस्कृति इसी का संदेश देती है। स्त्री अगर मन से ही पर-पुरुष का स्मरण करे तो पति को उसे त्यागने का अधिकार है परंतु पुरुष अगर दस-दस स्त्रियों के साथ व्यभिचार करे तो भी उसको कोई दंड नहीं मिलता था। स्त्री को ऐसा कोई अधिकार नहीं दिया गया था कि वह पुरुष से संबंध तोड़ सके। इसमें एक बात यह जोड़ देना उचित होगा कि शूद्र वर्ण, कामगार जातियों और अन्य अछूत जाति की स्त्रियों में विधवा-विवाह और विवाह-विच्छेद प्रचलित था। उच्च वर्ण की महिलाएं इस अधिकार से वंचित थीं। बौद्ध कालीन थेरी गाथाओं में एक थेरी ईसीदास का उदाहरण मिलता है जिसने अपने तीन पतियों को छोड़ था। इसीदास वैश्य वर्ण से आती थीं। अंत में विवाह-व्यवस्था से परेशान होकर उसने बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया था। स्वतंत्रता के बाद सभी वर्णों और जातियों की स्त्रियों को विवाह-विच्छेद और पुनर्विवाह का कानूनी अधिकार मिल गया था।
जाति और पितृसत्ता में अंतर्संबंध – भारतीय विवाह व्यवस्था पर विचार किया जाए तो ज्ञात होता है कि जाति और पितृसत्ता की समस्याएं अंतर्संबंधित हैं। भारतीय ब्राह्म-विवाह जातिके अंतर्गत ही किया जाता रहा है। सामाजिक दृष्टि से जाति के बाहर विवाह करना आज भी अपराध माना जाता है। ऐसा करने वाले/वाली को जाति या बिरादरी से बाहर कर दिया जाता है। भारतीय परिवार ब्राह्मणवादी पितृसत्ता और जातिवाद के स्कूल हैं। पारिवारिक व्यवस्था को सुचारु रूप से(ब्राह्मणवादी व्यवस्था के अनुसार) चलाने के लिए ही सजातीय विवाह को महत्त्व दिया जाता है। पारिवारिक व्यवस्था में संपत्ति का सवाल प्रमुख है। अपनी संतान को ही संपत्ति मिले इसके लिए रक्त शुद्धता बनाये रखने के लिए सजातीय-अरैंज़्ड-विवाह को महत्त्व दिया जाता है। सजातीय विवाह को उच्च-जातियों की स्त्रियों की यौन-शुद्धता को बनाये रखने का भी साधन माना जाता है। ताकि निम्न समझी जानी वाली जातियों के पुरुष सवर्ण स्त्रियों से संबंध न बना पायें। आगे चलकर उच्च जातियों के अनुसरण से ही निम्न समझी जाने वाली जातियों में भी सजातीय विवाह को महत्त्व मिलने लगा होगा। जब उच्च जातियों ने प्रतिलोम विवाह के लिए अधिक दंड देना शुरू किया तो निम्न समझी जाने वाली जातियों ने भी अपनी रक्त शुद्धता को बनाये रखने के लिए अनुलोम विवाह को प्रतिबंधित किया होगा।
इस प्रकार देखा जाए “ब्राह्मणवादी पितृसत्ता भूमि, स्त्री और अनुष्ठानिकता को बरकरार रखने का उपक्रम है। यहाँ यदि हम भूमि पर काम करने यानी कृषि-कार्य के लिए श्रम की उपलब्धता को सुनिश्चित करने की आवश्यकता का ख्याल करें तो हमें यह देखने को मिलता है कि प्राचीन भारत में जाति और पितृसत्ता के लिए ऊंची जातियों की स्त्रियों की प्रजनन क्षमता पर नियंत्रण जरूरी था, जिससे भूमि और आनुष्ठानिक शुद्धता सुरक्षित रहते, बल्कि सभी जातियों की स्त्रियों की प्रजनन क्षमता पर नियंत्रण था ताकि श्रम की पर्याप्त उपलब्धता सुनिश्चित रहती।”44 इस तरह कहा जा सकता है कि स्त्री को जाति व्यवस्था बनाये रखने के मुख्य साधन के रूप में इस्तेमाल किया जाता रहा है।
ii. पूंजीवादी पितृसत्ता – यद्यपि पँजीवाद ने सामंतवाद को धवस्त किया है फिर भी कहा जा सकता है कि सामंतवाद की जड़ें इतनी गहरी और जटिल हैं कि पूर्ण रूप से उसको उखाड़ पाना पूंजीवाद के वश में नहीं है। इसलिए पूंजीवाद सामंती मूल्यों को कुछ बदलाव के साथ बनाये रखता है। पूंजीवाद सामाजिक परिवर्तन के प्रति प्रतिबद्ध न होकर अपने मुनाफे के प्रति प्रतिबद्ध है। सामाजिक परिवर्तन उसका प्राथमिक उद्देश्य नहीं है। उत्पादन संबंध बदलने से पुराने मूल्यों में भी बदलाव आता है, यह ऐतिहासिक प्रक्रिया है। पूंजीवाद भी उनको बदलने से नहीं रोक सकता है। उद्योगों का विकास हुआ तो उसे सस्ते मजदूरों की आवश्यकता थी इसलिए पुराने किसान मजदूर बन गये। ये सभी परिवर्तन पूंजीवाद ने अपने हित-साधन के लिए किये थे।
पूंजीवादी उत्पादन संबंधों में बदलाव में से स्त्री-पुरुष संबंधों भी में बदलाव आए हैं। भारतीय संदर्भों में ही अगर बात की जाए तो मध्यकालनी पर्दा-प्रथा खत्म हुई है, स्त्री अब घर से बाहर निकलकर अपने कार्य क्षेत्र तक जा रही है और घूँघट जैसी प्रथा भी खत्म हुई है। इनता होने के बावजूद पितृसत्ता नये बदलावों के साथ वर्तमान है। मार्क्सवादी फैमेनिस्ट मानते हैं कि ये बदलाव पूंजीवादी मुनाफे के लिए ही हो रहे हैं – “पूंजीवादी व्यवस्था में परिवार न तो खत्म हो सकता है और न सही मायने में जनतांत्रिक बन सकता है, क्योंकि वह पूंजीवादी उत्पादन-प्रणाली का अंग है। वह पूंजीवाद के लिए काम करने वाली मानव शक्ति के- या आज की भाषा में कहें तो मानव-संसाधनों के – पुनरुत्पादन की जगह है। वहाँ श्रमिक पैदा किए जाते हैं, पाल-पोस के बड़े किए जाते हैं, उनको जिंदा और तरोताजा रखा जाता है और पूंजीवादी मूल्यों के अनुसार रहना-सहना सिखाया जाता है।”45 चूंकि स्त्री के रूप में उनको सस्ता श्रमिक मिल जाता है इसके बदले में पूंजीवादी उत्पादन-प्रणाली में उनको कुछ छूट मिल जाती है, पर पितृसत्ता और परिवार का अस्तित्व बना रहता है – “बात यह है कि पूंजी के लिए पितृसत्तात्मक संबंधों वाला परिवार बहुत जरूरी है। पूंजी का अगर कोई ‘जेंडर’ हो सकता है, तो वह ‘मेल’ है। इसलिए पूंजीवाद के अंतर्गत तो पुरुष का अस्तित्व रहेगा ही। इसके अंतर्गत मुनाफा कमाने के लिए शोषण की जो व्यवस्था है, वह केवल पुरुषों की श्रम-शक्ति को बाज़ार के भाव पर खरीदकर केवल उसी के शोषण के बल पर न तो चल सकती है, न टिक सकती है। उसे चाहिए ऐसी श्रम-शक्ति, जो उसे बहुत सस्ती मिले या जिससे काम लेने पर उसे कुछ न देना पड़े। यह उन स्त्रियों की श्रम शक्ति होती है, जो घरेलू स्त्रियाँ कहलाती हैं, जिन्हें बाकायदा नौकरी पर नहीं रखा जाता, लेकिन उनसे उनके घरों में ही बहुत कम मज़दूरी देकर या पुरुष आधिपत्य के ज़रिए मुफ़्त में ही काम कराया जाता है। दरअसल इसी श्रम शक्ति के पोषण पर पूंजीवादी पितृसत्तात्मक व्यवस्था जिंदा रहती है... इसीलिए पितृसत्तात्मक संबंधों वाला परिवार बनाए रखना और तरह-तरह से उसका आदर्शीकरण करना पूंजीवाद के लिए आवश्यक है।”46 वैसे देखा जाए तो प्रत्येक प्रकार की उत्पादन-प्रणाली अपने लाभ से समझौता नहीं करती है। सामंती उत्पादन प्रणाली को देखा जाए तो उसमें सामंतों की बेगारी और खेती-बड़ी करने के लिए दासों, गुलामों और किसानों की जरूरत थी। स्त्री की प्रजनन प्रक्रिया इन्हीं को उत्पन्न करने और पालने-पोसने के काम आती थी। यहाँ स्त्रियों के संदर्भ में देखा जाए तो सामंती और पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली में एक मुख्य अंतर यह आया है कि जहाँ सामंती काल में स्त्रियों को पर्दे में रखा जाता था वहीं अब वह खुद श्रमिक बन गई है। अब वह कार्य-क्षेत्र पर जा रही है। हालांकि भारतीय संदर्भों में देखा जाए तो यहाँ कामगार जातियों से संबंध रखने वाली स्त्रियाँ पहले से ही श्रमिक रही हैं। श्रमिक होने के बावजूद पितृसत्ता के तमाम बंधन उस समय भी काम करते थे और आज भी करते हैं। औद्योगिक-पूंजीवाद से पूर्व की उत्पादन प्रणालियों में कामगार जातियों से संबंध रखने वाली स्त्रियाँ खेत में, अपने कुटीर उद्योगों में पुरुषों के साथ काम कर सकती थी, परंतु पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली ने श्रमिक रूप में अधिकांशतः पुरुषों को ही रोजगार दिया है। इसलिए कामगार जातियों की स्त्रियाँ भी गृहिणि बनकर रह गईं हैं – “औद्योगिक पूंजीवाद के उदय के साथ, पुरुषों को घर से निकालकर श्रम-मज़दूरी अर्थव्यवस्था में लाया गया। महिलाओं को घर तक सीमित कर दिया गया और पुरुषों द्वारा उन्हें अनुत्पादक के रूप में देखा जाने लगा।... औद्योगिक पूंजीवाद से पहले स्त्री माँ थी, हालांकि यह कोई विशेष भूमिका नहीं थी, जबकि औद्योगोक पूंजीवाद के उदय के साथ महिलाएं गृहिणी बन गईं। अब सर्वहारा वर्ग के साथ-साथ गृहिणी का उदय हुआ- विकसित पूंजीवादी समाज के दो विशिष्ट मजदूर।”47 इस प्रकार देखा जाए तो एक तरह से पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली में भी पुराना श्रम विभाजन बना रहा है।
यह सही है कि पूंजीवाद ने सामंती गुलामी को तोड़कर स्त्री को नई तरह की स्वतंत्रता उपलब्ध कराई है। अब तक की ज्ञात किसी भी प्रकार की उत्पादन प्रणाली में स्त्रियों के लिए इस प्रकार की स्थिति नहीं रही है जैसी पूंजीवाद में रही है। पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली ने बाजार, विद्यालय, विश्वविद्यालय और अन्य क्षेत्रों में स्त्रियों की भागीदारी को सुनिश्चित किया है। अब वह स्कूल की अध्यापक से लेकर विमान उड़ाने तक का सफर तय कर रही है – “एक के बाद एक राष्ट्रों में पहले से कहीं ज़्यादा लड़कियां स्कूल जा रही हैं और अब वे जल्दी ही अपना नाम कटा कर पढ़ाई नहीं छोड़ती। नागरिक, राजनीतिक और बौद्धिक नेताओं के रूप में महिलाएं आगे आ रही हैं। ऐसे कानून बनाए जा रहे हैं जिनसे कार्यस्थलों पर औरतों के लिए बेहतर अवसर मुहैया करने और घरों में स्त्री-विरोधी हिंसा रोकने उम्मीद बंधती है।”48
स्त्री संदर्भों में पूंजीवाद विरोधियों का मानना है कि स्त्री को विज्ञापन की वस्तु बना दिया है। वह विभिन्न सौन्दर्य प्रतियोगिताओं द्वारा तीसरी दुनिया के देशों में अपने बाज़ार को मजबूत करने के लिए स्त्री देह का इस्तेमाल कर रहा है। इससे स्त्रियों को लगता है उनका महत्त्व स्वीकार किया जा रहा है। पूंजीवाद ने सौन्दर्य-मिथ को खड़ा किया है, जिसके द्वारा स्त्रियों को इस मिथ में उलझाकर अन्य महत्त्वपूर्ण कार्यों से बेदखल करने की साजिश करता है। पूंजीवाद मानव जाति की परंपरागत छवियों को और मजबूत करता है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो वर्ग और जेंडर के अंतर को और अधिक विस्तारित और मजबूत करता है। स्त्रियों को अन्य भूमिकाओं से दूर कर देता है। उदाहरण के लिए ब्यूटी-मिथ को ही लिया जाए तो वह चार स्तरों पर कार्य करता है – “पहला है – ख़बर से स्त्री को हटाना, दूसरा है संस्कृति से स्त्री को हटाना, राजनीति से हटाना नाओमी वुल्फ़ कहती हैं कि ग्लेमर पत्रिका से राजनीतिक कॉलम का हट जाना और कास्मो में भविष्यफल का आना यही बताता है। तीसरा तत्त्व यह है कि अगर औरत खुद को गंभीरता से लेगी तो उसका नारीत्व खत्म हो जाएगा। चौथा है कि औरत अपने रोल मॉडल के लिए अन्यों पर निर्भर रहे।”49 सौन्दर्य मिथ द्वारा स्त्रियों को एक खास शारीरिक और मानसिक ढांचे में ढालने का प्रयास किया जाता है। उस ढांचे में नहीं ढल पाने वाली स्त्रियाँ को हीनता बोध महसूस करवाया जाता है। इस प्रकार पूंजीवाद स्त्रियों की परंपरागत छवियों को ही मजबूत कर रहा है।
विज्ञापनों के द्वार उनका वस्तुकरण किया जाता है क्योंकि पुरुष उनको मध्यकालीन छवियों में ही देखना चाहते हैं। एक बार जिस स्त्री की छवि विज्ञापन के द्वारा जिस तरह की निर्मित कर दी जाती है उससे बाहर निकलना उसके लिए कठिन होता है। हालांकि बहुत सारी नारीवादी इसका यह कहकर समर्थन करती हैं कि पूंजीवाद में सब कुछ बिकने के लिए तैयार है, पुरुष देह से लेकर ज्ञान तक। फिर जब पुरुषों की भी छवि विज्ञापन द्वारा निर्मित की जाती रही है तो स्त्रियाँ ही इससे दूर क्यों रहें। पूंजीवाद ने कम से कम उनको इस योग्य तो समझ है। उनका मानना है विज्ञापन, यौनकर्म और सौन्दर्य प्रतियोगिताओं में होने वाले भेदभाव और शोषण को खत्म किया जाना चाहिए। उस शोषण के खिलाफ़ कानून बनने चाहिए न कि स्त्रियों द्वारा किए जा रहे कार्य की निंदा- “अब अगर ऐसे में महिलाएँ मॉडलिंग, या यौन कार्य अथवा किसी ऐसे व्यवसाय में उतरने का निर्णय लेती हैं जिसमें उन्हें अपने शरीर के कुछ खास हिस्सों का वस्तुकरण करना पड़ता है तो क्या नारीवादियों को कुछ खास तरह के कार्यों का अवमूल्यन करनेवाले स्त्री-विरोधी मूल्यों का साथ देने के बजाय, इस माँग का समर्थन नहीं करना चाहिए कि इन कार्यों में लगी महिलाओं को काम करने का बेहतर माहौल व उचित वेतन मिलना चाहिए और उनके साथ गरिमापूर्ण व्यवहार किया जाना चाहिए?”50
पूंजीवादी उत्पादन-प्रणाली में यद्यपि स्त्रियों की स्थिति में अपेक्षित सुधार आए हैं, पर श्रम विभाजन की पुरानी प्रणालियाँ काम कर रही हैं। पूंजीवाद में स्त्रियों को सस्ते श्रमिक के रूप में देखा जाता है। जब तक उनको जरूरत रहती है उनको कार्य-क्षेत्र में रखा जाता रहेगा है। जैसे ही जरूरत खत्म होती है वैसे ही उनको कार्य क्षेत्र से हटा दिया जाता है। किसी उद्योग आदि में घाटा होने पर स्त्री श्रमिकों को सबसे पहले काम से निकाल जाता है।
संदर्भ :
1. Silvia Walby, TheorisingPatriarchy, Sage Publication, Ltd, Vol. 23, No. 2, May 1989, P. 214 (“I shall define patriarchy as a system of social structures, and practices which men dominate, oppress and exploit women”.)
3. Silvia Walby, Theorising Patriarchy, P. 220 (I think that there are six main patriarchal structures which together constitute a system of patriarchy. These are: a patriarchal mode of production in which women's labour is expropriated by their husbands; patriarchal relations within waged labour the patriarchal state; male violence; patriarchal relations in sexuality; and patriarchal culture)
4. फ्रेडरिख एंगेल्स (हिन्दी अनुवाद- नरेश नदीम ), परिवार निजी संपत्ति और राज्य की उत्पत्ति, प्रकाशन संस्थान, नई दिल्ली, संस्करण 2017, पृष्ठ 170
5. वही, पृष्ठ 73
6. Gerda Lerner, The Creation of Patriarchy, p. 22
7. उमा चक्रवर्ती, जाति समाज में पितृसत्ता ( अनु.- विजय कुमार झा ), ग्रंथ शिल्पी, नई दिल्ली पुनर्मुद्रण 2016, पृष्ठ 45
8. देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय ( हिन्दी अनु.- बृज शर्मा), लोकायत, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, तीसरा संस्करण 2016, पृष्ठ 183
9. वही पृष्ठ 199
10. व्ला. इ. लेनिन, नारी मुक्ति, प्रगति प्रकाशन, मास्को, 1972, पृष्ठ 46-47
11. निवेदिता मेनन ( हिन्दी अनु. नरेश गोस्वामी), नारीवादी निगाह से, राजकमल पेपरबैक्स नई दिल्ली, पहला संस्करण 2021, पृष्ठ 22
12. वही, पृष्ठ 23
13. वही, पृष्ठ 31
14. Silvia Walby, TheorisingPatriarchy, p 227
16. मन्मथनाथ गुप्त, स्त्री पुरुष संबंधों का रोमांचकारी इतिहास, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, आवृत्ति, 2005, पृष्ठ 158
17. वही
18. वही
19. मनुस्मृति- 9.3
20. http://164.100.47.194/Loksabhahindi/Members/women.aspx
21. नीरा देसाई, भारतीय समाज में महिलाएं, राष्ट्रीय पुस्तक न्यास प्रकाशन नई दिल्ली, आवृत्ती 2021, पृष्ठ 81
22. https://www.bbc.com/hindi/india-48870484
23. नीरा देसाई, भारतीय समाज में महिलाएं, पृष्ठ 96
24. फ्रेडरिख एंगेल्स (हिन्दी अनुवाद- नरेश नदीम ), परिवार निजी संपत्ति और राज्य की उत्पत्ति, पृष्ठ 56
25. वही, पृष्ठ 61
26. वही, पृष्ठ 86
27. वही, पृष्ठ 38
28. मन्मथनाथ गुप्त, स्त्री पुरुष संबंधों का रोमांचकारी इतिहास, पृष्ठ 46-47
29. फ्रेडरिख एंगेल्स (हिन्दी अनुवाद- नरेश नदीम ), परिवार निजी संपत्ति और राज्य की उत्पत्ति, पृष्ठ 61
30. वही, पृष्ठ 62
31. वही, पृष्ठ 64
32. Gerda Lerner, The Creation of Patriarchy, p. 212
33. वही, पृष्ठ 217
34. फ्रेडरिख एंगेल्स (हिन्दी अनुवाद- नरेश नदीम ), परिवार निजी संपत्ति और राज्य की उत्पत्ति, पृष्ठ 72
35. वही, पृष्ठ 58 ( बखोफेन की स्थापना)
36. डॉ. अंबेडकर, संपूर्ण वाड़्मय खंड- 36, डॉ अंबेडकर प्रतिष्ठान, सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय, भारत सरकार, नई दिल्ली, दूसरा संस्करण 2020, पृष्ठ 504
37. वही, पृष्ठ 506
38. वही
39. वही, पृष्ठ 508
40. मन्मथनाथ गुप्त, स्त्री पुरुष संबंधों का रोंचकारी इतिहास, पृष्ठ 215
41. वही, 270
42. वही
43. वही, पृष्ठ 353
44. उमा चक्रवर्ती, जाति समाज में पितृसत्ता (अनु.- विजय कुमार झा ), पृष्ठ 41
45. अभय कुमार दुबे, संपा.- हिन्दी आधुनिकता एक पुनर्विचार, खंड-1 वाणी प्रकाशन नई दिल्ली, आवृत्ति 2015 पृष्ठ 136, (परिवार में जनतंत्र- सविता सिंह )
46. वही, 141
47. Zillah R. Eisenstein, edited by Capitalist Patriarchy and the Case for Socialiste Feminism, Monthly Review Press New York and London, 1979, p. 30( Developing a Theory of Capitalist Patriarchy and Socialiste Feminism - Zillah R. Eisenstein)
48. राजेन्द्र यादव, प्रभा खेतान और अभय कुमार दुबे द्वार संपादित पितृसत्ता के नए रूप, राजकमल पेपरबैक्स प्रकाशन, नई दिल्ली, दूसरा संस्करण 2019, पृष्ठ 65 ( भूमंडलीकरण का प्रतिभूगोल: पितृसत्ता के नए रूप – अभय कुमार दुबे) (फोर्ड फाउंडेशन की रिपोर्ट, शरद अंक, 2000)
49. वही, पृष्ठ 45, (एक अधखुला क्षण : सौन्दर्य मिथक की द्वन्द्वात्मकता – सुधीश पचौरी)
50. निवेदिता मेनन ( हिन्दी अनु. नरेश गोस्वामी), नारीवादी निगाह से, राजकमल पेपरबैक्स, 177
सुरेश कुमार जिनागल
शोधार्थी, हिन्दी विभाग, बीएचयू, वाराणसी
Sjinagal1994@gmail.com, 8104906286
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-41, अप्रैल-जून 2022 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक एवं जितेन्द्र यादव, चित्रांकन : सत्या सार्थ (पटना)
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