भारतीय किसान की चुनौतियाँ
और संभावनाएं
-जितेन्द्र यादव
शोध सार : इस
शोध आलेख में किसान जीवन में आए आर्थिक बदलाव के पहलू पर विचार किया गया है। आज
किसान हाड़तोड़ मेहनत करने के बाद भी आर्थिक विपन्नता से बाहर नहीं आ पा रहा है।
सरकारी नीतियाँ भी किसान के अस्तित्व को कुचलने में लगी हुई हैं। सरकार जितना
ध्यान उद्योग घरानों को दे रही है उसका आधा भी ध्यान किसानों को नहीं दे रही है,
इसलिए
खेती में दिन -प्रतिदिन संकट बढ़ता जा रहा है। किसानों की आत्महत्या राष्ट्रीय
चर्चा का विषय बना हुआ है। खेती में लागत तो बढ़ता जा रहा है लेकिन उस अनुपात में
आमदनी नहीं बढ़ पा रही है। यह किसानों के लिए चिंता का विषय है। विकास के नाम पर
भूमि अधिग्रहण भी किसान के लिए एक बड़ी समस्या है। एक तरफ उसे अपनी जमीन से
विस्थापित होना पड़ता है तो दूसरी तरफ रोजगार की समस्या मुंह बाये खड़ी हो जाती है।
इन विभिन्न पहलूओं पर पड़ताल करने का
प्रयास इस शोध आलेख में किया गया है।
बीज शब्द : किसान,
आर्थिक
नीति,
भूमि
अधिग्रहण,
खेती,
आत्महत्या,
कर्ज
इत्यादि।
मूल आलेख : भारतीय किसान के लिए कौन -सा ऐसा काल या युग रहा है जिसको कहा जाए कि भारतीय किसान के लिए स्वर्णयुग था। भारतीय इतिहास की गाथायें किसानों के शोषण और अत्याचार से भरी हुई हैं। शासक बदले, परिस्थितियाँ बदली लेकिन किसान की बदहाली और लाचार भरी ज़िंदगी में बदलाव कभी नहीं आ पाया। नई आर्थिक नीति नब्बे के दशक में लागू हुई, भारत वैश्विक दुनियाँ में शामिल हो गया। बहुराष्ट्रीय कंपनियों का भारत में व्यापार करना आसान हो गया। विश्व बैंक के अनुबंध के तहत भारत ने आयात शुल्क और किसानों को दी जाने वाली सब्सिडि घटा दी जिससे खेती में लागत पहले से ज्यादा बढ़ गई। और भारत के किसानों को वैश्विक प्रतिस्पर्धा में झोक दिया गया। 2011 की जनगणना के अनुसार लगभग 70 प्रतिशत आबादी आज भी गांवों में रहती है। गांवों की अधिकांश निर्भरता कृषि और कृषि कार्यों से जुड़े व्यवसायों पर आधारित है। “2011 की जनगणना के अनुसार लगभग 55 प्रतिशत ग्रामीण आबादी या तो खुद की खेती में संलग्न है या खेतिहर मजदूर है”।1 यह इस बात का भी संकेत है कि अभी भी गांवों में गैर कृषि कार्यों में रोजगार के अवसर सीमित है। कृषि पर जनसंख्या का दबाव अधिक है। तेजी से बढ़ती हुई जनसंख्या के कारण कृषि योग्य जमीन का आकार घटा है। अधिक रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग से जमीन की उर्वरता में भी कमी आई है। सिंचाई संसाधनों का अभाव होने के कारण भारतीय कृषि अब भी मानसून की जुआ बनी हुई है। कभी बाढ़, कभी सूखा और मानसून का असमय होना, यह सब मिलकर खेती और किसान की नियति तय करते हैं।
भारत में प्रति हेक्टेयर उत्पादन भी विकसित
देशों की तुलना में कम है। दूसरी ओर यह भी कठोर सत्य है कि विकसित देशों में खेती
पर निर्भरता भी भारत की तुलना में कम है। “भारत
के 56 प्रतिशत की तुलना में आस्ट्रेलिया में 15 प्रतिशत, कनाडा
में 19 प्रतिशत,
फ्रांस
में 16 प्रतिशत,
अमेरिका
में 5 प्रतिशत और पश्चिमी जर्मनी में 10 प्रतिशत जनसंख्या कृषि पर निर्भर है”।2 भारत इतना बड़ा कृषि सेक्टर होने के बावजूद भी
देखा जाए तो कृषि का योगदान जीडीपी में निरंतर घट रहा है। उदारीकरण के बाद तो
स्थिति और भयावह हुई है। भारतीय अर्थव्यवस्था एक तरफ तेजी से आगे बढ़ रही है। दूसरी
तरफ कृषि का जीडीपी के योगदान में गिरावट आ रही है। कृषि को भारतीय अर्थव्यवस्था
का रीढ़ माना जाता था। “1960-61 के
दशक में कृषि व उससे सम्बद्ध व्यवसायों का योगदान 52.48 प्रतिशत था जो 2005-06 में
21.65 प्रतिशत हो गया। और 2012-13 में आते –आते सिर्फ 13.90 प्रतिशत रह गया है”।3
विकसित देश अपने किसानों को अधिक से अधिक
सब्सिडी मुहैया करा रहे हैं। जबकि विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसी
संस्थाएं तीसरी दुनिया के देशों को उनकी सरकारों द्वारा किसानों को दी जा रही
सब्सिडी कम करने का दबाव बनाते हैं। “अमेरिका अपने किसानों को 32 डालर प्रति
हेक्टेयर की दर से सब्सिडी दे रहा है, जापान 35
डालर,
चीन
30 डालर जबकि भारत अपने किसानों को 14 डालर प्रति हेक्टेयर सब्सिडी दे रहा है”।4
यानी विकसित देश अपने किसानों को भारत की तुलना में दुगुना से भी ज्यादा सब्सिडी
दे रहे हैं। अब सोचने वाली बात यह है कि भारतीय कृषि इन विकसित देशों की तुलना में
पहले से ही पिछड़ी हुई है और ऊपर से सब्सिडी भी कम मिल रही तो विश्व बाजार में
भारतीय किसान इन देशों के किसानों से कैसे बराबरी कर पाएंगे। साठ के दशक में शुरू हुई हरित क्रांति अन्न के
रूप में भारत को आत्मनिर्भर तो बना दिया किन्तु बाद के वर्षों में उसकी चमक फीकी
पड़ गई। ज़मीनें भी अपनी उर्वरता खोने लगी, भूजल के
स्तर में भयंकर गिरावट आई। जल और जमीन
जहरीले हो गए जिसके कारण खाद्यान्नों की गुणवत्ता और मानव स्वास्थ्य पर बहुत
नकारात्मक प्रभाव पड़ा। जिस पंजाब और हरियाणा में हरित क्रांति सबसे ज्यादा सफल रही
उसी जगह कैंसर से लोग पीड़ित हो रहे हैं। इसके पीछे का कारण अत्यधिक कीटनाशक
दवाइयाँ और रासायनिकों का प्रयोग है। “निसंदेह
हरित क्रांति से कुछ वर्षों के लिए खाद्यान्नों की पैदावार बहुत बढ़ गई थी। लेकिन
इसने हमारी सदियों से आजमाई परंपरागत कृषि प्रणाली पर दूरगामी नकारात्मक प्रभाव भी
छोड़ा है। यह हमारे लिए आयातित नयी कृषि प्रणाली थी। इसने कृषि रसायनों के
अविवेकपूर्ण उपयोग और सिंचाई की अनिवार्यता से हमारी कृषि संस्कृति में आमूल-चूल
परिवर्तन किया। संकर बीजों के प्रवेश ने सदियों से किसानों द्वारा विकसित स्थानीय
बीजों का स्थान ले लिया”।5
आज किसानों की आत्महत्या भारत की एक बड़ी समस्या
बनी हुई है। सबसे ज्यादा आत्महत्याएँ उन राज्यों में हो रही हैं जहां किसान नगदी
अथवा व्यावसायिक फसल उपजा रहे हैं। इसमें महाराष्ट्र, कर्नाटक,
आंध्रप्रदेश,
तेलंगाना,
तमिलनाडु
राज्य अग्रणी हैं। “1995 से लेकर 2010 तक, 2.5
लाख से ज्यादा किसानों ने आत्महत्या की है”।6 उदारीकरण के बाद किसानों की आत्महत्या का एक
लंबा सिलसिला शुरू हो गया है। जो रुकने के नाम
नहीं ले रही है। खेती एक घाटे का सौदा बन चुकी है क्योंकि महंगे होते बीज,
खाद,
कीटनाशक
दवाएं,
डीजल
और जुताई की वजह से लागत मूल्य बढ़ गया है लेकिन आमदनी घट गई है। किसान अच्छी फसल
और अच्छी आमदनी की चाहत में बैंक या स्थानीय साहूकार से कर्ज लेकर खेती कर रहा है।
लेकिन घाटे की सौदा हो चुकी खेती उसे इतना मुनाफा नहीं दे पा रही है कि वह लिया
हुआ कर्ज चुका सके। इस वजह से मजबूरन उसे आत्महत्या करनी पड़ रही है। ज़्यादातर जो किसान आत्महत्या कर रहे हैं वे
छोटे और सीमांत किसान हैं। जो कपास, सोयाबीन और
मूँगफली जैसी नगदी फसल की खेती कर रहे हैं। ‘राष्ट्रीय
नमूना सर्वेक्षण संगठन’ (एनएसएसओ)
59वें दौर के आकलन के अनुसार, देश में
सबसे ज्यादा 81 प्रतिशत कर्जदार किसान आंध्र प्रदेश राज्य में थे,
दूसरे
स्थान पर तमिलनाडु 74.5 प्रतिशत, पंजाब 65.4
प्रतिशत,
केरल
64.4 प्रतिशत,
कर्नाटक
61.6 प्रतिशत,
महाराष्ट्र
54 प्रतिशत किसान परिवार कर्जदार थे। और यदि पूरे भारत के कर्जदार किसानों का आकड़ा
देखे तो “(एनएसएसओ)
2005 मई की रिपोर्ट के अनुसार भारत के 48.6 किसान ऋणग्रस्त है”।7 यह कर्ज ही उनके गले का फंदा बन रहा है। किसानों
का यदि सामाजिक वर्गीकरण के हिसाब से देखा जाए तो ज़्यादातर आत्महत्या दलित और
पिछड़े समुदाय के किसानों ने किया है जिनके पास खेती के सिवाय आमदनी का कोई और
स्रोत नहीं है।
उदारीकरण का फायदा पूँजीपतियों तथा बीज और
कीटनाशक बेचने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियों को हुआ है, किसानों
के लिए यह मृगमिरीचिका साबित हुआ। शहरी वर्ग भले लाभान्वित हुआ हो लेकिन भारत के
किसान,
मजदूर
और आदिवासियों के लिए इसका उल्टा प्रभाव पड़ा। भारत में तेजी से विषमता की खाई बढ़ी
है। भारत में भी दो भारत की तस्वीर साफ दिखाई दे रही है। एक भारत में बेशुमार
समृद्धि है,
उनके
पास असीमित पैसा है, पावर है, महंगे
–महंगे स्कूल और अस्पताल हैं, मॉल
संस्कृति है। वही दूसरे भारत में गांवों की गरीबी, दरिद्रता,
लाचारी
और भुखमरी है। बेहतर इलाज के अभाव में दम तोड़ती जिंदगियाँ हैं और खराब स्कूली
व्यवस्था के कारण पिछड़ते ग्रामीण युवाओं की कहानियाँ है। किसान अपनी उपज का सही
दाम नहीं ले पा रहा है कभी उसे सूखा, ओला और बाढ़
मार रही है यदि उससे बच जाए तो बिचौलिये और दलाल उसकी फसल का कई गुना फायदा उठा ले
रहे हैं। यदि ज्यादा पैदावार हो गया तो यह भी नौबत आ जाती है कि सड़क पर उत्पादन को
फेकना पड़ता है। इसीलिए “राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संस्थान के सर्वे के मुताबिक 40
प्रतिशत किसानों का मानना है कि खेती –किसानी का कोई विकल्प उनके पास हो तो वे
खेती छोड़ देंगे”।8
आजादी के बाद किसानों को उम्मीद थी कि उनकी
खुशहाली आएगी देश तरक्की करेगा तो उनकी समृद्धि बढ़ेगी लेकिन यह क्या,
किसानों
को फांसी का फंदा मिल रहा है। मैनेजर पाण्डेय ने ठीक ही लिखा है कि “अँग्रेजी राज
के जमाने की महाजनी सभ्यता से आज की महाजनी सभ्यता अधिक चालाक और अधिक खूंखार है।
इसलिए आज की महाजनी सभ्यता के शिकंजे में फंसे जितने किसानों ने आत्महत्या की है
उतने किसानों ने अंग्रेजी राज के समय भी आत्महत्या नहीं की थी”।9
जब किसान आत्महत्या करता है तो सबसे बड़ी समस्या
जो आती है वह है उसके परिवार के देखभाल की समस्या। घर की महिला पर ज़िम्मेदारी का
बोझ बढ़ जाता है। भारत में किसान का अर्थ प्रायः पुरुष किसान ही लगाया जाता है
किन्तु पुरुष के साथ सुबह से शाम तक कंधे से कंधा मिलाकर महिलाएं भी खेतों में काम
कर रही हैं। रोजगार की तलाश में पुरुष जब गाँव से पलायन करता है तो खेती –किसानी
महिलाएं ही करा रही हैं। लेकिन जमीन पर उनका मालिकाना हक नहीं होने के कारण सरकारी
सहायता मिलने में उन्हें काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। भारत में कृषि पहले से समृद्ध हुई है,
उत्पादन
और उत्पादकता दोनों बढ़ा है। लेकिन उस दर से किसानों के आय में बढ़ोत्तरी नहीं हो पा
रही है। बाजार किसान के पक्ष में नहीं बल्कि बिचौलियों के पक्ष में खड़ा है।
न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) सिर्फ
किसानों के लागत को ही पूरा कर पा रहा है। उससे किसान को मुनाफा नहीं हो पा रहा
है। “1970-71 में खाद्य उत्पादन 106.42 मिलियन टन था जो 2003 -04 में
212.05 मिलियन टन हो गया। वही पैदावार 1970-71 में प्रति हेक्टेयर 872 किलो था,
जो
2003-4 में 1704 किलो प्रति हेक्टेयर हो गया”।10 चावल, गेहूं और
तिलहन के उत्पादन में चीन के बाद भारत का दूसरा स्थान है।
हरितक्रांति के समय उत्पादन पर ज़ोर दिया गया
लेकिन किसानों के आय की बढ़ोत्तरी पर उतना ध्यान नहीं दिया गया। अर्थात उत्पादन तो
दुगुना हो गया लेकिन किसान की आय दुगुनी नहीं हो पाई। उत्पादकता के साथ –साथ इस
बात पर ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है कि किसान के आय में बढ़ोत्तरी किस प्रकार
किया जाए। सरकार द्वारा किसानों को दिया जाने वाला न्यूनतम समर्थन मूल्य की
बढ़ोत्तरी प्रतिवर्ष बहुत कम रहा है। उदाहरण के लिए यदि पिछले 2001 से 2005 तक के
धान के एमएसपी का आकड़ा देखें तो पता चलता है कि धान के दाम में प्रति क्विंटल
कितनी अपर्याप्त वृद्धि हुई है। 2000-01 में 510, 2001-02
में 530,
2002-03
में 550,
2003-04
में 550 और 2004-05 में 560 रुपया धान की एमएसपी में क्रमशः वृद्धि हुई अर्थात इस
पाँच साल में सिर्फ पचास रुपया का फायदा किसान को हुआ। गेहूं के दाम में भी प्रति
क्विंटल 40 रुपया की बढ़ोत्तरी इन पाँच सालों में की गई है।
किसानों के आय कृषि कार्यों के अतिरिक्त ग्रामीण
क्षेत्रों में रोजगार के अवसर उपलब्ध करवाकर किया जाना चाहिए उसके साथ ही किसान की
आय कैसे लागत से दुगुनी मिले इस पर सरकार
को लक्ष्य निर्धारित करने की जरूरत है। मांग और आपूर्ति का जो चेन है उस पर
बिचौलियों के बजाय सरकार को नियंत्रण रखने की जरूरत है। अतिरिक्त उत्पादन होने पर
किसान को नुकसान न उठाना पड़े इसे सरकार को सुनिश्चित करना चाहिए। इसके साथ ही ऋण
की व्यवस्था स्थानीय साहूकार के बजाय संस्थानिक बैंकों से आसानी से उपलब्ध हो ताकि
किसान साहूकारों के शोषण के चक्र में न आने पाये। कुल मिलाकर देखा जाए तो खेती में
उत्पादन बढ़ा है,
पहले
से खेती समृद्ध हुई है लेकिन किसान गरीब हुआ है। अनाज का भंडारण बढ़ा है और दूसरी
तरफ किसान के आत्महत्या में वृद्धि हुई है। यह विरोधाभास ही किसान जीवन की त्रासदी
है।
भूमि अधिग्रहण कानून और उससे उपजी समस्याएँ- भारत में सड़क, रेलवे, बांध और औद्योगिक विकास के लिए समय –समय पर भूमि की जरूरत पड़ती रहती है। भूमि किसानों की निजी संपत्ति और आजीविका का सहारा होने के कारण जब भी सरकार भूमि अधिग्रहित करने की कोशिश करती है तो किसान और सरकार के बीच एक बड़ी टकराहट देखने को मिलती है। नर्मदा बचाओ आंदोलन, नंदीग्राम, सिंगूर, महा मुंबई सेज़, वेदांता, यमुना एक्सप्रेसवे इत्यादि प्रमुख उदाहरण हैं। भारत में भूमि अधिग्रहण को लेकर अंग्रेजों ने 1894 में एक कानून बनाया था, 2013 में नए भूमि अधिग्रहण कानून से पहले उसी पुराने कानून से किसानों की भूमि को अधिगृहीत किया जा रहा था। 1894 भूमि अधिग्रहण अधिनियम में कई सारी कमियाँ थी। भूस्वामी के सहमति के बिना भूमि अधिग्रहण की कारवाई करना, सुनवाई की न्यायोचित व्यवस्था की कमी, विस्थापितों के पुनर्वास और पुनर्व्यवस्थापन के प्रावधानों का अभाव, तत्काल अधिग्रहण का दुरुपयोग, भूमि के मुआवजें की कम दरें, मुकदमेबाजी आदि प्रमुख समस्याएँ थी। विकास और परियोजना के नाम पर भूमि अधिग्रहण हमेशा से एक विवादित और जटिल प्रक्रिया रहा है। इस विकास की सबसे ज्यादा कीमत जंगल में रह रहे आदिवासी, किसान और खेतों पर काम कर रहे भूमिहीन मजदूरों को चुकाना पड़ता है। ‘वर्किंग ग्रुप ऑन ह्यूमन राइट इन इंडिया ऐंड यूएन की रिपोर्ट के मुताबिक आजादी के बाद विकास की विभिन्न परियोजनाओं के चलते देश में छह से साढ़े छह करोड़ लोगों को विस्थापित होना पड़ा है। यानी औसतन हर साल दस लाख लोगों को विस्थापन के रूप में विकास की कीमत चुकानी पड़ी है।‘ आजादी के तुरंत बाद बड़े –बड़े बांध, परियोजनाएं और औद्योगिक इकाइयों का निर्माण किया गया जिसे नेहरू ने आधुनिक मंदिर कहा था। उस आधुनिक मंदिर के नाम पर सैकड़ों गांवों को विस्थापित कर दिया गया। पंजाब और हिमाचल में भाखड़ा नांगल परियोजना, उड़ीसा में हीराकुड बांध और पश्चिम बंगाल और झारखंड में दामोदर घाटी परियोजना ये सभी 1948 में शुरू हुआ था जो 1953 और 1963 के बीच पूरा हुआ। भिलाई, राउरकेला और दुर्गापुर का स्टील प्लांट इनमें से प्रत्येक के लिए 100, 000 से ज्यादा एकड़ भूमि अधिग्रहित की गई। उदाहरण के लिए “उड़ीसा का हीराकुड बांध के लिए जलमग्न लगभग 240 गांवों के 22 हजार परिवार की जमीन ले ली गई। उस समय क्षतिपूर्ति के लिए 12 करोड़ के बजट का प्रावधान किया गया था जिसे बाद में घटाकर 9.5 करोड़ कर दिया लेकिन अंतिम रूप से 3.32 करोड़ का ही क्षतिपूर्ति किया गया। भूमिहीन परिवार भी प्रभावित हुआ था लेकिन मुआवजे के लिए उन्हें विचार नहीं किया गया”।11
भारत सरकार ने निर्यात में बढ़ावा
देने के लिए 2005 में ‘विशेष
आर्थिक क्षेत्र’ (Special Economic Zone-SEZ) अधिनियम लाया गया।
इसमें उन्हें आयकर, सेंट्रल
सेल्स, राज्य सेल्स, सर्विस टेक्स इत्यादि कई तरह के कर देने से छूट है। यह उपक्रम भारत
सरकार के वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय के अधीन काम करता है। इसका उद्देश्य
अतिरिक्त आर्थिक संवर्धन करना, वस्तु और सेवा के निर्यात को बढ़ावा देना,
रोजगार के अवसरों का सृजन करना,
ढांचागत सुविधाओं का विकास करना और घरेलू और विदेशी निवेशकों को
बढ़ावा देना है। इसके लिए अत्यधिक लंबी प्रक्रिया से न गुजरना पड़े इसलिए सिंगल
विंडो की मंजूरी दी गई है। विशेष आर्थिक क्षेत्र के लिए सबसे बड़ी समस्या जो देखने
को मिली वह है निवेशकों के लिए भूमि उपलब्ध कराना। भूमि अधिग्रहण के दौरान कई जगह
किसानों और पुलिस के बीच खूनी संघर्ष भी देखने को मिला। किसान अपनी उपजाऊ जमीन
किसी भी हालत में जल्दी देने के लिए तैयार नहीं होते हैं। कई बार यह भी देखा गया
है कि जब सरकार अपने लिए जमीन अधिग्रहित करती है तो उतना तनाव नहीं होता है जितना
कि किसी निजी उद्योगपतियों के लिए अधिगृहीत की जा रही भूमि को लेकर किसान उग्र हो
जाते हैं। उनके अंदर कहीं न कहीं यह भावना होती है कि निजी क्षेत्र अपने मुनाफा के
लिए भूमि अधिग्रहण कर रहा है जबकि सरकार तो जनहित के लिए अधिग्रहित करती है।
किन्तु एक तथ्य यह भी है कि निजी सेक्टर केवल 10 प्रतिशत या उससे कम के लिए
जिम्मेदार है जबकि राज्य 90 प्रतिशत से अधिक भूमि अधिग्रहण के लिए जिम्मेदार है।
भारत में विशेष आर्थिक क्षेत्र (SEZ) की वजह भूमि अधिग्रहण की कुछ घटनाएँ राष्ट्रीय स्तर पर लोगों का
ध्यान खींचा था जिसमें नंदीग्राम, सिंगूर और वेदांता के हवाले उसकी चुनौतियों विस्तार से समझा जा सकता
है।
नंदीग्राम – पश्चिम बंगाल के पूर्व मेदिनीपुर जिला का एक गाँव है नंदीग्राम। 2006 में वामपंथी सरकार ने रसायन केंद्र बनाने के लिए इण्डोनेशियाई कंपनी सलीम ग्रुप के लिए सेज के अंतर्गत भूमि अधिग्रहण करना शुरू किया लेकिन ग्रामीणों ने विरोध करना शुरू कर दिया। 14 मार्च 2007 में राज्य सरकार ने भूमि अधिग्रहण का विरोध करने वाले विरोधियों का दमन करने के लिए बड़ी संख्या में पार्टी कार्यकर्ता और पुलिस बल को तैनात कर दिया, जो हिंसा का रूप ले लिया जिसमें 14 लोग पुलिस की गोली से मारे गए, महिलाओं के खिलाफ हिंसा और अत्याचार की घटनाओं की खबर भी आई। यह क्षेत्र महिना भर के लिए राज्य प्रशासन के नियंत्रण से बाहर रहा। ग्रामीणों ने सड़क और संचार को जगह –जगह से काट दिया था ताकि पुलिस आसानी से उनके यहाँ न पहुचने पाए। यह घटना दुनिया भर का ध्यान अपनी ओर खींचा था। नंदीग्राम हल्दिया विकास अथॉरिटी के अंतर्गत आता था। इसकी सबसे बड़ी खासियत यह भी थी कि सही जानकारी भी ग्रामीणों को नहीं दी गई थी कि कौन सी और कितनी जमीन अधिग्रहित की जाएगी।
भूमि अधिग्रहण के खिलाफ अनेक
पार्टियों ने आवाज उठाना शुरू कर दिया इसके साथ ही भूमि उच्छेद प्रतिरोध कमिटी(BUPC) की स्थापना की गई। सत्तारूढ़
सीपीआई(एम) पार्टी के समर्थक भी इसमें जुड़ गए,
किसानों की भूमि का रक्षा करना बीयूपीसी का लक्ष्य था लेकिन सत्तारूढ़
पार्टी के वरिष्ठ नेताओं ने इसे औद्योगीकरण के खिलाफ करार घोषित किया। इस हिंसा में सरकार के खिलाफ लेखिका महाश्वेता
देवी, फिल्ममेकर अपर्णा सेन और गायक कबीर सुमन जैसे प्रसिद्ध
संस्कृतिकर्मियों ने भी विरोध प्रदर्शन में हिस्सा लिया। इस आंदोलन में किसानों ने
रणनीति के तहत महिलाओं और बच्चों को आगे करके जमीन की बचाव करने की प्रयास किया।
उनके पास हथियार भी आ गए थे यह हथियार कहाँ से आए,
इसमें माओवादी के सम्मिलित होने से इंकार नहीं किया जा सकता। इस
आंदोलन से तृणमूल कांग्रेस को भी राजनीतिक फायदा हुआ इसमें कोई संदेह नहीं।
नंदीग्राम और सिंगूर भूमि अधिग्रहण की घटना वामपंथ की 30 साल से चली आ रही सत्ता
को पतन की ओर धकेल दिया।
सिंगूर – यह पश्चिम बंगाल के हुगली जिले का एक कृषि क्षेत्र है। जो चारों तरफ शहर से घिरा हुआ है। 2006 में वामपंथी सरकार ने टाटा मोटर्स की नैनो परियोजना के लिए लगभग 1000 एकड़ भूमि का अधिग्रहण शुरू हुआ। बंगाल की वामपंथी सरकार ने उद्योग को बढ़ावा देने के लिए नैनो की लखटकिया कार के लिए भूमि अधिग्रहण की मंजूरी दी। कुछ किसानों ने रजामंदी से जमीने दी थी किन्तु कुछ किसानों की जमीन जबर्दस्ती छिन ली गई थी। किसानों को प्रति एकड़ 9 लाख रुपया दिया गया। “भूमि अधिग्रहण से प्रभावित किसानों की संख्या विभिन्न मीडिया रिपोर्ट में 15000 हजार तक बताई गई। जबकि कारख़ाना से लगभग एक हजार से दो हजार के बीच प्रत्यक्ष नौकरी तथा अप्रत्यक्ष रूप से लगभग 8000 नौकरी का सृजन होता। यानी जितनी संख्या में किसान बेरोजगार होते उसकी तुलना में बहुत कम नौकरी युवाओं को मिल पाती”।12
विभिन्न किसान संगठनों और राजनीतिक
दलों ने एकजुटता के साथ सरकार के भूमि अधिग्रहण का विरोध किया। बहुत से किसानों ने
पैसा लेने से मना कर दिया, किसानों ने फैक्ट्री का जिधर निर्माण कार्य चल रहा था उधर का
राजमार्ग को बंद कर दिया, हड़ताल और धरने पर बैठ गए। 400 एकड़ जमीन जो किसानों के इच्छा के
विरुद्ध ले लिया गया था उसे वापस करने के लिए ममता बनर्जी ने 2008 में हड़ताल पर
बैठ गई। अंततः टाटा मोटर्स ने अपने नैनो परियोजना को वहाँ से समेटकर गुजरात के
सानंद जाना पड़ा। वहाँ पर भूमि अधिग्रहण के लिए गुजरात सरकार ने 55 से 70 लाख प्रति
एकड़ के हिसाब से मुआवज़ा दिया, कोई परेशानी नहीं झेलनी पड़ी। सिंगूर के गतिरोध ने एक समय मीडिया में
तूफान ला दिया था। पुलिस और किसान के बीच हिंसक झड़पे हुई। ममता बनर्जी ने वादा
किया कि उनकी सरकार आई तो किसानों कि जमीन वापस लौटा दी जाएगी। सिंगूर किसान
आंदोलन ने ममता बनर्जी के पक्ष में राजनीतिक माहौल बना दिया। जो वामपंथी सरकार
भूमि सुधार करके किसानों को भूमि बांटकर 30 साल तक बंगाल में शासन किया, वह सरकार भूमि के मुद्दे पर ही सत्ता से बाहर हो गई।
वर्तमान स्थिति को देखें तो ममता
बनर्जी ने सत्ता में आने के बाद किसानों के जमीन वापसी मामले को लेकर एक विधेयक
बनाया जिसे हाईकोर्ट में टाटा मोटर्स ने चुनौती दिया और फैसला टाटा मोटर्स के पक्ष
में आया, फिर मामला सुप्रीम कोर्ट पहुँच गया। जहां सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि
भूमि अधिग्रहण कानून 1894 का सही पालन नहीं किया गया था इसलिए किसानों की जमीन
वापस करनी होगी। विभिन्न मीडिया रिपोर्ट से पता चलता है कि अब वहाँ कि जमीन में
कंकड़ और पत्थर भारी मात्रा में हो गए हैं। जमीन अनउपजाऊ हो गई है। सिर्फ 30
प्रतिशत जमीन ही खेती के लायक बची है। अब किसानों का कहना है कि उसपर उद्योग ही लग
गया होता तो अच्छा होता।
वेदांता - वेदांता रिसोर्सेस एक यूके स्थित कंपनी है। जो बाक्साइट से एल्यूमिनियम बनाने का कार्य करती है। इसने 2002 में उड़ीसा के कालाहांडी जिले के नियमगिरि और लांजीगढ़ में 4000 करोड़ का एल्यूमिनियम प्रोजेक्ट शुरू किया। किन्तु आदिवासियों ने विरोध शुरू कर दिया। नियमगिरि पहाड़ी आदिवासियों के धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान का केंद्र है। उनकी इसमें अटूट आस्था है। उनका मानना है कि नियम देवता हैं जो हमारे जल, जंगल, जमीन की रक्षा करते हैं। किन्तु इस जमीन के अंदर बॉक्ससाइट होने के कारण वेदांता कंपनी सरकार के साथ मिलकर इसका अधिग्रहण करना चाह रही थी। ‘नियमगिरि सुरक्षा समिति’ संगठन के अंतर्गत हजारों की संख्या में आदिवासी और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने विरोध मार्च निकाला। इस प्रोजेक्ट को पर्यावरण क्लियरेंस भी नहीं मिला था और मानवाधिकार संगठन ने भी इसका विरोध किया था। मामला उच्चतम न्यायालय में जाने के बाद कोर्ट ने आदेश दिया कि वहाँ की पंचायत सभाओं से अनुमति लिए जाए। पंचायत सभाओं ने इस वेदांता के इस प्रोजेक्ट को सिरे से खारिज कर दिया।
भूमि अधिग्रहण अधिनियम 2013 - एक लंबे समय से मांग हो रही थी कि भूमि अधिग्रहण के लिए नया कानून बने पुराने कानून 1894 में बहुत सारी खामिया थी। 2013 में यूपीए की सरकार ने भूमि अधिग्रहण का बिल पास किया। इस अधिनियम के बारे में कहा गया है कि तेजी से उभरती हुई अर्थव्यवस्था और उन सामाजिक संरचनाओं के बीच एक समझौता है जिन्हें संवेदनशीलता से समझे जाने की जरूरत है। जो कानून आदिवासी, भूमिहीन और किसान के हित में है वह राष्ट्रहित में होता है। इस कानून में उनके हितों को प्राथमिकता दी गई है। अब जबर्दस्ती भूमि अधिग्रहण नहीं किया जा सकता है। विधेयक का सबसे मजबूत पक्ष यह है कि ग्रामीण क्षेत्रों में न्यूनतम चार गुना तथा शहरी क्षेत्रों में दुगुनी मुआवज़ा राशि का प्रावधान रखा गया है। राज्य सरकार चाहे तो इसमें बढ़ोत्तरी कर सकती है। अब तक देखा जाए तो भूमि पर काम करने वाले भूमिहीनों को आजीविका गवाने के एवज में कोई लाभ नहीं मिलता था लेकिन इस नए अधिनियम में यह प्रावधान रखा गया है कि आजीविका गँवाने वालों के पुनर्वास एवं उनके पुनर्व्यवस्थापन की जब तक व्यवस्था नहीं की जाएगी उन्हें विस्थापित नहीं किया जा सकेगा। इसके साथ ही भूमि अधिग्रहण की कोई भी प्रक्रिया शुरू करने से पहले जनभागीदारी का प्रावधान रखा गया है, साथ ही पुनर्वासन और पुनर्स्थापन संबंधी प्रावधानों की क्रियान्वयन की निगरानी हेतु केंद्र राज्य और जिला स्तर पर कमेटी गठित की जाएगी। आदिवासी और अन्य कमजोर समूहों के क्षेत्रों को बिना पंचायत के अधिग्रहण अब नहीं किया जा सकता है। उनके हितों की रक्षा के लिए यह बड़ा कदम है। नए कानून में यह भी सुनिश्चित करने का प्रयास किया गया है कि पंचायत( अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार) अधिनियम 1996 तथा वन अधिकार अधिनियम 2006 का भी पालन हो।
इस नए कानून में उस अप्रयुक्त भूमि
के वापसी का प्रावधान भी किया गया है। यदि अधिग्रहण की गई भूमि का उपयोग नहीं किया
जाता है तो उसे पुनः भू-स्वामी को लौटा देने का अधिकार राज्य को दिया गया है। इसके
साथ ही यह पहला कानून होगा जो भूमि अधिग्रहण से मिले पैसे पर आयकर और स्टांप शुल्क नहीं लिया जाएगा। यदि अधिग्रहित की गई
भूमि तीसरी पार्टी को बढ़ी हुई कीमत पर हस्तांतरित की जाती है तो बढ़ी हुई कीमत का
40 प्रतिशत हिस्सा भूस्वामी को देना होगा।
इस कानून में सबसे महत्वपूर्ण बात
यह है कि अब पुनर्वासन तथा पुनर्व्यवस्थापन सम्बन्धी एक बेहतर उपबन्ध बनाया गया
है। इस अधिनियम में ‘प्रभावित’ की परिभाषा को व्यापक बनाया गया है। अब इसमें बटाईदार, पट्टीदार, कृषि मजदूर इत्यादि जो प्रभावित क्षेत्र में अधिग्रहण से तीन वर्ष
पूर्व तक खेत पर काम कर रहे हों और जिनकी आजीविका खेती पर ही निर्भर हो। इसमें
प्रत्येक प्रभावितों को आवास की व्यवस्था भी की गई है। शर्त यह है कि अधिग्रहित
भूमि पर तीन वर्ष या उससे अधिक समय तक रह रहे हों। अगर उन्हें आवास की सुविधा नहीं
होगी तो एकमुश्त राशि दी जाएगी। इसके अलावा इस अधिनियम में सामाजिक प्रभाव आकलन और
पंचायती राज संस्थाओं की भूमिका को भी सुनिश्चित किया गया है। पंचायत राज संस्थाओं
के प्रतिनिधि से राय लेकर सामाजिक प्रभाव का आकलन किया जाएगा।
निष्कर्ष : भारतीय किसान आर्थिक रूप से आज भी अभिशप्त है। भारत में व्यक्तिगत कृषि जोत कम हो गई है, इसलिए ज़्यादातर किसान खुद के लिए ही अनाज पैदा कर पाते हैं, उनके पास कृषि से आय की संभावना कम हो गई है। जो किसान बेचने के लिए फसल पैदा करते हैं वे निरंतर नुकसान ही उठा रहे हैं। कुछ बड़े किसान ही सरकारी सुविधाओं का लाभ ले पाते हैं, बाकी मध्यम श्रेणी के किसान कर्ज और अभाव में ही गुजारा करते हैं। उन्हें अपने फसल के उचित मूल्य की जरूरत है। सरकार को ऐसी नीति बनाने की जरूरत है जिसमें बिचौलिया के बजाय किसान की आय में बढ़ोत्तरी हो सके।
बहुत अच्छा लिखा है आपने। बधाई स्वीकार करें जितेंद्र जी।
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