- डॉ. भैरव सिंह
मूल आलेख :
रेणु की
कहानियों
को
पढ़ते हुए पता नहीं क्यों मुझे धूमिल की
कविता 'मोचीराम'की
कुछ
पंक्तियाँ याद आ रही हैं, “बाबूजी!
सच कहूँ- मेरी निगाह में/ न कोई छोटा है/ न कोई बड़ा है/
मेरे लिए हर आदमी एक जोड़ी जूता
है/ जो
मेरे सामने/ मरम्मत के
लिए
खड़ा है।”(1 )साथ
ही
केदारनाथ
अग्रवाल की यह छोटी-सी कविता कि,
“मैं उसे
खोजता हूँ/
जो आदमी है/ और अब भी
आदमी है /तबाह होकर
भी आदमी है/ चरित्र पर खड़ा /देवदार की तरह बड़ा।”
(2) और
अंत में रेणु का
यह
कथन कि, “अपनी
कहानियों
में
मैं अपने
को
ही ढूंढता फिरता हूँ। अपने को अर्थात् आदमी को।”(3) आपको यह बात
थोड़ी बेतूकी-सी लग
सकती है कि
कहाँ रेणु
की कहानियाँ और कहाँ
धूमिल और केदार
की कविताएँ? यह सही है
कि इन तीनों रचनाकारों के
लेखन
का समय, क्षेत्र, भारतीय
समाज, साहित्य और राजनीति में इनकी
पैठ,
उसे देखने का
इनका नजरिया, सोच एवं
विचारधारा,
अभिव्यक्ति का तरीका एवं तेवर भले ही अलग हो,
लेकिन जो
एक
बात इन तीनों को एक बिंदु पर लाकर खड़ा कर देती है,
वह है- 'आदमी और आदमियत
की तलाश। ‘
अब सवाल यह कि यहाँ
आदमी
और आदमियत के
तलाश
की बात क्यों कहीं जा रही है? क्यों धूमिल यह कह रहे हैं कि
‘मेरे लिए हर आदमी एक जोड़ी जूता
है / जो
मेरे सामने मरम्मत के लिए खड़ा है?’ क्यों रेणु
और
केदार ऐसे लोगों की तलाश में हैं, ‘
जो अब भी
आदमी है/तबाह हो कर भी आदमी है/ चरित्र पर खड़ा/ देवदार की तरह बड़ा। 'आखिर
ऐसा क्या
हो गया है कि
‘आदमी
और आदमियत’ की बात इतनी महत्त्वपूर्ण हो
गई
है? इन सारे सवालों का जवाब पाने के
लिए
हमें तात्कालिक सामाजिक-राजनीतिक जीवन परिस्थितियों को टटोलना होगा। क्योंकि यहाँ
'समय’ महत्त्वपूर्ण है।
हम सभी जानते हैं
कि हिंदुस्तान ने कई सौ
वर्षों
तक ब्रिटिश हुकूमत की गुलामी
का दंश झेला। पूरा
हिंदुस्तान उनके अन्याय, अत्याचार, दमन
और शोषण की मार से त्रस्त था। एक लंबे संघर्ष, त्याग और बलिदान के बाद हमें
हमारी आजादी मिली। हमने
एक
असंभव से दिखने वाले कार्य को संभव कर दिखाया था। अंग्रेजों ने
हमारी जिन कमजोरियों (जाति,
धर्म, भाषा, क्षेत्र, रंग, लिंग के
आधार
पर बँटा हुआ समाज) का फायदा उठाकर हमें बाँटा
और हम पर राज किया, उन्हें खदेड़ने
के लिए हमने उन्हीं कमजोरियों
को
एक किनारे रख, एक पंक्तिबद्ध
हो, एक महान
सामाजिक लक्ष्य (आजादी) की
तरफ
बढ़े
और अंततः हमने अपने
लक्ष्य
को प्राप्त कर लिया। हमने
एकता और संगठन की ताकत
को पहचाना। आजादी की
इस
लड़ाई में क्या हिंदू, क्या मुस्लिम, क्या किसान,
क्या मजदूर, क्या
अमीर,
क्या गरीब, क्या
काँग्रेसी,
क्या समाजवादी
,
क्या
आंदोलनकारी, क्या क्रांतिकारी,
क्या
विद्वान,
क्या विद्यार्थी, क्या दलित, क्या ब्राह्मण, क्या स्त्री और
क्या पुरुष सभी एक पंक्ति में खड़े दिखाई दे रहे थे। सब ने अपनी
भूमिका को पहचाना और सभी लग
गए। एक
सशक्त राष्ट्र के निर्माण के लिए हमें इसी एकता और संगठन को बनाए रखना
था।
लेकिन
हमने पाया कि आजादी तो हमें मिली
पर
बँटवारे के
दंश
के साथ। जो
आज
भी किसी ना
किसी रूप में हमें
सालता रहता है। यह सत्ता के स्वार्थ के टकराव का परिणाम था, जिसका अंग्रेजों
ने भरपूर फायदा उठाया और
जाते-जाते ‘हिंदुस्तान’ को 'भारत’
और 'पाकिस्तान’ दो राष्ट्रों में बाँट दिया। खैर जो
हमें
मिला, हमें उसे
ही
सहेजना और सँवारना
था। अब 'नए भारत’ के निर्माण का जिम्मा पंडित नेहरू के
हाथों में था। उन्हें एक ऐसे राष्ट्र व
मानवीय
समाज का निर्माण करना था
जो जाति, धर्म, भाषा, क्षेत्र,
रंग, लिंग के भेदभाव से ऊपर उठकर समाज में व्याप्त
भूख, गरीबी, अशिक्षा, अंधविश्वास, अन्याय, शोषण, अत्याचार, सांप्रदायिकता के
खिलाफ
लड़ाई लड़ सके।
उन्हें
महात्मा गांधी के
'स्वराज’
और 'रामराज्य’ की परिकल्पना को साकार करना
था।
जिन
सांस्कृतिक
जीवन-मूल्यों (सत्य,
अहिंसा, प्रेम, अपरिग्रह, स्वावलंबन) को आधार बनाकर
गांधी जी ने
आजादी
की लड़ाई लड़ी, एक
विशाल जनसमूह
को एक किया। उन्हीं मूल्यों से भारतीय
राजनीति को आवेशित कर उन्हें देश निर्माण के कार्यों
में लग जाना था। देश की
जनता भी अपने सबसे प्रगतिशील और आधुनिक
समझे जाने वाले नेता से बड़ी उम्मीद लगाए बैठी थी। उसे विश्वास था
कि लोकतंत्र में अब जनता का
शासन
होगा। जनता
द्वारा
चुनी गई सरकार अब लोकतांत्रिक तरीके से जनता के
सुख-दुख
को सर्वोपरि मान जनता के हित के लिए कार्य करेगी। भूख,
गरीबी, अशिक्षा, अन्याय, शोषण, अत्याचार से मुक्ति मिलेगी,
सत्य, अहिंसा, प्रेम, न्याय का
जोर होगा,
सबको समान अधिकार मिलेगा। लेकिन हमने
पाया
कि एक लंबे इंतजार के बाद भी भारत का व्यापक जन समूह अपने जीवन में कोई व्यापक
बदलाव नहीं देख पा रहा था।
जाति,
धर्म, भाषा, क्षेत्र, लिंग, अमीर-गरीब
के साँचों
में बँटा हुआ मनुष्य
और
समाज आधुनिक और प्रगतिशील कहे जाने
वाले
आजाद भारत का भी सच बनता
जा
रहा था।
स्वतंत्रता के
बाद
भी भारत की अधिसंख्य आबादी रोटी,
कपड़ा, मकान, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी
मूलभूत
सुविधाओं के लिए संघर्ष कर रही थी। बड़ी
संख्या
में किसान अपनी
किसानी छोड़ मजदूर बनने को विवश थे और गाँव छोड़ शहर की तरफ पलायन कर रहे थे।
जब सारा संघर्ष रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी मूलभूत सुविधाओं
के लिए हो और देश की एक बड़ी आबादी
इस सुविधा से वंचित हो, तब ऐसी स्थिति में उन जीवन मूल्यों को बचाए रखना बड़ा कठिन हो जाता है,
जो समाज को मानवीय और मनुष्य
को सामाजिक बनाए रखें। रही- सही कसर पूंजीवाद
( बाजारवाद के गर्भ से जन्मी उपभोक्तावाद
की संस्कृति)
और भौतिकवादी आधुनिक दृष्टि ने
पूरी
कर दी। मनुष्य स्वार्थ, अवसरवाद,
भ्रष्टाचार की गहरी खाई में ऐसा गिरा
की अब तक उठ नहीं पाया। समाज
का कोई भी वर्ग इस
रोग से
अछूता नहीं। याद कीजिए
मुक्तिबोध की कविता 'अंधेरे
में'। व्यक्तिगत
जीवन का संघर्ष इतना बड़ा हो गया कि सामाजिक संघर्ष और
मूल्यों के
लिए मनुष्य के पास समय ही नहीं बचा। पूंजीवादी
संस्कृति ने
मनुष्य
के व्यक्तिगत, सामाजिक,
आध्यात्मिक सारे नेह-नातों को खत्म कर दिया। 'आत्मबद्ध्ता’
इस पूंजीवादी संस्कृति
की नई पहचान
बन गई। अब मनुष्य सारे मानवीय भावों से युक्त होकर भी मनुष्य ना
रहा।
ऐसे
में
'आदमी और आदमियत के
तलाश’
की बात महत्त्वपूर्ण हो
जाती
हैं।
भारतीय समाज और राजनीति में हो रहे इस बदलाव का बड़ा ही सूक्ष्म, सटीक
और प्रमाणिक अंकन हमें रेणु के साहित्य में देखने को मिलता
है। उनका
सृजन-कर्म
आजादी के आर-पार के समयों में शामिल है। गुलाम हिंदुस्तान से नए आजाद भारत को बनते हुए उन्होंने बहुत करीब से देखा था।
रेणु हिंदी के उन कुछ एक
रचनाकारों में हैं, जो
राजनीति
से साहित्य में आए थे।
रेणु लेखक से
पहले एक सक्रिय राजनीतिक कार्यकर्ता
थे और राजनीति उनकी पहली प्राथमिकता
थी। हमारे
लिए
यह जानना दिलचस्प होगा कि
रेणु राजनीति में क्यों थे
और फिर
सक्रिय
राजनीति छोड़ साहित्य में क्यों आए? रेणु की
चेतना का
विकास स्वाधीनता
संघर्ष
के दिनों में हुआ था।
तब
प्रत्येक बुद्धिजीवी के सामने महान सामाजिक लक्ष्य थे। रेणु आजादी के बाद भी इन लक्ष्यों के लिए सामाजिक- राजनीतिक
मोर्चे पर सक्रिय हुए। वह हिंदी की
उन
रचनाकारों में नहीं, जो
अपने सपनों को केवल अपनी
रचनाओं में जीता
हो, बल्कि उन सपनों को वास्तविक रूप देने के
लिए
व्यावहारिक जीवन में सक्रिय होना, उसके
लिए
संघर्ष करना वह आवश्यक समझते थे।
अपने
सपनों
को जीने के
लिए,
उन्हें सच होता हुआ देखने के
लिए
कितना
संघर्ष,
कितना
त्याग
और कितनी तकलीफों
से
होकर गुजरना
पड़ता है,
इस बात को जानने के
लिए
हमें रेणु की
कहानी, "खंडहर"
अवश्य पढ़नी चाहिए। गोपाल कृष्ण
एक गरीब माँ- बाप का
बेटा,
जो शहर आकर वकालत की
पढ़ाई
के दौरान सोशलिस्ट पार्टी
से जुड़ कर देश सेवा के कार्यों में संलग्न होना
चाहता है।
वह
अपना और अपने परिवार के हितों
और आकांक्षाओं
को एक किनारे रख "सुराज की लालसा" लिए वकालत पढ़ते-पढ़ते क्रांति की राह पर चल पड़ता है।
गोपाल कृष्ण भारत के उन लाखों लोगों में से
एक था, जो
इस
देश और समाज का निर्माण पूंजीवाद के
रास्ते
नहीं, बल्कि
समाजवाद के रास्ते चाहता था।
जैसा
कि आजादी के ठीक पहले भारतवासियों से वायदा (कांग्रेस का
लाहौर
अधिवेशन, 1929) किया गया था।
देश
को समाजवाद के रास्ते गढ़ने का
मतलब
केवल ‘ब्रिटिश आधिपत्य’ और ‘ब्रिटिश साम्राज्यवाद’
से छुटकारा नहीं, बल्कि
एक ऐसे समाज और राष्ट्र का निर्माण
करना था,
जो भारतीय संस्कृति और जीवन आदर्शों के अनुकूल हो, जो
सामाजिक
समरसता और सद्भाव में विश्वास
रखता हो,
जो उन जीवन-मूल्यों के
रक्षा
और प्रचार-प्रसार के लिए प्रतिबद्ध हो, जो
हमारे पारिवारिक और सामाजिक
संरचना के
आधार
हैं।
जो समाज के आखिरी छोर पर खड़े व्यक्ति
के जीवन में भी
आधारभूत
और व्यापक बदलाव लाने के लिए प्रतिबद्ध
हो।
लेकिन हमने
पाया
कि वायदे चाहे जो भी किए गए हो
पर
उस पर अमल बहुत ही कम किया गया। दुष्यंत
कुमार के शब्दों में कहें तो,
"कहाँ तो तय
था चराग़ां हर एक घर के लिए,
कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए।”
ऐसी
परिस्थिति
में गोपालकृष्ण जैसे लोगों को अपने
सपनों
के भारत के निर्माण के लिए एक नए संघर्ष की आग में कूदना पड़ा। एक
संघर्ष हिंदुस्तान
की आजादी के लिए और दूसरा संघर्ष
'नए भारत के निर्माण’ के लिए। यह
संघर्ष इतना आसान नहीं इसके लिए अपना बहुत कुछ दांव पर लगाना पड़ता है।
कहानी इस यथार्थ को चरितार्थ
करती है कि
'सुराज’ चाहने से कुछ नहीं होता
बल्कि
उसके लिए अपना सब कुछ उत्सर्ग
करना होता
है।
गोपाल कृष्ण के
सोशलिस्ट
होने से पूरे
परिवार
में निराशा और हताशा का
माहौल
है। उसके
इस
फैसले ने सबकी उम्मीदों पर पानी फेर दिया इसीलिए कोई भी उससे
खुश
नहीं।
माँ सदा मन ही मन कूढ़ा
करती
थी।
बेटे को पढ़-लिख कर
वह
बड़े आदमी बने देखना चाहती थी किंतु गोपाल
के इस तरह घर छोड़कर चले
जाने से वह अपने भाग्य को कोसती
रहती। पिता जिसने अपनी
औकात से बढ़कर बेटे
की पढ़ाई पर खर्च ( घर
की चीजों से लेकर खेत- खलिहान तक कुर्क करवा
देते हैं)
किया, यह सोच कर कि
बेटा
बड़ा होकर उनके
दुखों
का निराकरण करेगा लेकिन
उसके कुछ न कर पाने पर वह आहत होते हैं। पिता
के दर्द को बयां करते हुए रेणु लिखते हैं, "बाबूजी की
आँखें लाल हो
गई
थीं- दुख से, दर्द से, गुस्से से। एक
धक्का-सा लगा था, पुराने
मकान की
दीवार
में अचानक दरारें पड़ गई थीं।”। (4)
दूसरी तरफ पत्नी अपनी इच्छाओं
और
शौक के
पूरे ना
होने पर अंदर ही अंदर खिझती
रहती। उसकी
शिकायत है
कि उसे
ना अपनी
पत्नी
की फिक्र है और ना अपनी
बेटी
की।
चार साल
की बेटी बाँसुरी को पिता
के हाथों
कभी भी एक पैसे का बिस्कुट नहीं मिला। दूध-दही
तो उसने आँखों
से देखा तक नहीं। दूसरी तरफ वह पाती है कि
रमिया का
कांग्रेसी
पति उसे किसी
भी चीज के लिए तरसने नहीं देता।
उसके घर गाँठ के
गाँठ कपड़े भरे हैं। रोज सुनार
की दुकान उसके
यहाँ लगी रहती है, परंतु उसके
सुराजी
पति के राज में उसे कुछ नहीं मिला। उसकी फटी साड़ी की
चिथियाँ देखकर सभी उसे
ताना मारती
हैं।
ऐसे में
उसके भीतर की क्रोधाग्नि जल
उठती है। उसका
पति जब खाने के
लिए
घर आता है,
तब वह
उसे जली-कटी सुनाने से बाज़
नहीं आती।
यह स्थिति भारत के अधिकांशतः सभी मध्यवर्ग,
निम्न-मध्यवर्ग और सर्वहारा वर्ग के परिवारों की
है।
हम
पाते हैं
कि रिश्तो में जो अपनत्व,
प्रेम और सम्मान का भाव होता है,
जीवन
की बढ़ती जरूरतों ने
उसे खत्म कर दिया है।
जीवन
की बेलगाम जरूरतों ने
मनुष्य
को इतना असहाय और कमजोर
बना दिया है कि
उसके लिए अब नैतिकता, मर्यादा, सिद्धांत की बात करना जैसे बेईमानी
है। मनुष्य की
भावसत्ता
को विकृत करने में इस
‘पूंजीवाद सभ्यता’ की महत्त्वपूर्ण
भूमिका है,
जिसका जिक्र रेणु गोपाल के माध्यम से करते हुए कहते हैं, "पूंजीवादी समाज
ने मध्यवर्ग विशेषतया
निम्न-मध्यवर्ग
और सर्वहारा वर्ग के
दैनिक
जीवन में जैसे विकृतियाँ पैदा की है,
उनका चित्रण तीव्र
अनुभूति
के माध्यम से हो। यह विकृतियाँ जीवन
के हर एक पहलू में वर्तमान
है- पारिवारिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, मनोवैज्ञानिक। संपूर्ण
भावसत्ता विकृत हो गई है।”(5) ऐसी परिस्थिति
में गोपालकृष्ण जैसे लोगों की
प्रासंगिकता न समाज के लिए है न
परिवार
के लिए। ऐसे
लोग दोनों ही
तरफ
से तिरस्कृत
और
परित्यक्त
हैं।
गोपाल भले ही परिवार और समाज
द्वारा तिरस्कृत हो लेकिन उसने
इस
पारिवारिक
हताशा, निराशा और क्रोध को कभी
अपने ऊपर हावी नहीं
होने दिया है।
अपनी पुत्री के प्रति उसका प्रेम ही उसे विपरीत परिस्थितियों में हारने
नहीं देता
और
भविष्य के लिए आशान्वित
बनाए रखता
है, "बाँसुरी को बहुत दिनों के बाद बाप की गोद मिली थी। खुशी से वह फूली नहीं
समाती
थी। वह आप ही हँसती
थी।” (6)
इस
हँसी और प्रेम ने ही उसके भीतर के सपनों को मरने नहीं दिया। गोपालकृष्ण
जैसे लोग हमारे समाज में बहुत कम रह
गए हैं, जो
अपना और अपनों का हित
छोड़
समाज के हित का सोचते हैं। गोपालकृष्ण के
जीवन का सारा संघर्ष समाज-परिवर्तन
को लेकर है। वह न सिर्फ अपनों के
जीवन
में परिवर्तन
लाना चाहता
था, बल्कि
पूरे समाज की दिशा बदल देना चाहता
था। यह अलग बात है कि
वह
ऐसा बदलाव ला न सका। न परिवार में और न ही
समाज
में। क्योंकि इस समाज में ‘भूपाल' (गोपालकृष्ण
का भाई) जैसे लोगों की संख्या दिन-प्रतिदिन
बढ़ती जा रही है, जिन्हें न सुराज और न सुराजियों से कोई मतलब है।
ऐसा लगता है
जैसे
गोपालकृष्ण के माध्यम
से रेणु अपने
जीवन
की कथा कह रहे हों। उन्होंने
राजनीति
में प्रवेश कर जनहित और समाज-कल्याण की बात सोची लेकिन बहुत जल्द उन्हें यह समझ में आ गया था कि राजनीति
में लेखक की स्थिति दूसरे दर्जे की होती है। वह पार्टी चाहे सोशलिस्ट ही क्यों ना हो। इनके
‘सांस्कृतिक
मोर्चे भी अर्थहीन ‘होते हैं। सन 1952 के
प्रथम
आम चुनाव से पहले ही अपने
को
वह राजनीति के लिए अनुपयुक्त समझने लगे थे। रेणु ने
लिखा, “पार्टी में हमारी
नियति
यही है कि
हम
राजनेताओं के
भाषण
लिखें और उसे किस
पॉइंट से छापा जाए, कहाँ छापा
जाए, किस तरह से छापा जाए, यह तय करें। .…..दलगत
राजनीति चाहती है कि
बुद्धिजीवी
अपनी बुद्धि गिरवी रख पार्टी
के लिए काम करे,
उसके आदेश मानें। वहाँ किसी
व्यक्ति, किसी गुट का
अपना आदमी होना आवश्यक है।”(7)
इसलिए उन्होंने पार्टी छोड़ दी लेकिन "जिन मूल्यों
के लिए पार्टी में आया था, वे
मूल्य मेरे साथ रहे।”
रेणु
भले ही सक्रिय राजनीति से अलग हो
गए थे, मगर राजनीति से उन्होंने कभी संन्यास नहीं
लिया था, "अपने क्षेत्र की
राजनीति का सीधा असर मुझ पर अब तक पड़ता रहा
है।
गाँव समाज में संग्रामी-सूराजी किसान का
बेटा पहले हूँ- लेखक बाद में।”(8) अपनी
प्रतिबद्धता को केवल
कागजों और मंचों
तक
सीमित रखना
उन्हें आता ही नहीं
था, जैसा कि आज हो
रहा है।
वे सामाजिक आंदोलन में तपे हुए लेखक थे। आज के
लेखक वर्ग में सामाजिक और राजनीतिक सक्रियता
का नितांत अभाव है।
कारण-’ एक
सुविधा-संपन्न और सुरक्षित जीवन’ है। 'रिस्क’ लेना कोई नहीं
चाहता। सामाजिक और राजनीतिक सक्रियता यह दोनों तत्त्व
एक लेखक की वैचारिक समझ को समृद्ध करते हैं।
बिना इस सक्रियता
के साहित्य के
समाजशास्त्र (जीवन के
दुख,
अभाव,
अज्ञान,
सामाजिक-
शोषण,
कुचक्र,
मानवीय
पीड़ाओं और संघर्षों का ज्ञान) और सत्ता के चरित्र को समझा नहीं
जा सकता। यही समझ लेखन को प्रमाणिक और विश्वसनीय
बनाती है। इसीलिए लेखन में अब वह धार भी नहीं है,
जो पहले होती
थी।
आजादी के
ठीक
बाद भारत
की अधिकांश जनता की
मानसिकता में हमें एक बड़ा बदलाव
देखने को मिलता
है।
उन्हें
लगता है
कि आजादी मिलते ही देश और
समाज
के प्रति एक नागरिक के
रूप
में हमारी जो
जिम्मेवारी
बनती
है, वह खत्म। अब
उनका पूरा ध्यान अपना
और
अपने परिवार की खुशहाली पर आकर टिक गया। यानी 'संचित तप
के बाद भोग का अवसर।' जहाँ तक
सवाल समाज-निर्माण और देश-निर्माण का
है, इसका जिम्मा उन्होंने सरकारों पर और उन्हें चलाने वाले नेताओं पर छोड़ दिया। उन्हें
लगने लगा कि
जैसे
कांग्रेस 'आजादी’
लेकर आई उसी तरह वह एक 'आधुनिक, प्रगतिशील और सशक्त राष्ट्र
का निर्माण’ भी करेगी। वह यह
भूल
गए कि कांग्रेस
अब
वह संगठन नहीं रही, जिसने इस देश को आज़ादी दिलाने में ऐतिहासिक भूमिका
निभाई
थी। अब वह धीरे-धीरे
शुद्ध
राजनीतिक
पार्टी बनने की
ओर
अग्रसर हो रही थी। उसका चरित्र बदल रहा था। साम्राज्यवादी और पूंजीवादी ताकतों से दूर रहने की
बात
करने वाली पार्टी; कैसे पूंजीवादी ताकतों से अपना गठजोड़ स्थापित कर रही
है, इस पर ‘मैला आंचल ‘का बावनदास अपने
राजनीतिक
साथी बालदेव
को
याद दिलाता हुआ कहता है
-
विलायती कपड़े की पिकेटिंग करते
समय
जिस सागरमल मारवाड़ी ने वॉलंटियरों
को
पीटा था, वह आज नरपत नगर थाना
कांग्रेस का
सभापति
है।
जुआ
कंपनी वाला दुलार चंद कापरा जो नेपाली
लड़कियों को भगा कर लाते समय जोगबनी में पकड़ा गया था, वह आज कटहा
थाना का
सेक्रेटरी
है। कथनी और करनी की
भिन्नता पार्टी और उसे चलाने वाले नेताओं
के चरित्र की खूबी बनती जा रही थी। एक
तरफ देश
भक्ति का नारा
और दूसरी तरफ देश की जनता और उसके संसाधनों को लूटने वालों का साथ। सभी
पार्टियाँ पैसे वालों की
मुट्ठी
में हैं। अंग्रेज़ तो चले
गए पर शासन करने की
नीति
और
कार्यपद्धति
‘बाँटो और राज करो’ हमारे
नेताओं को विरासत के
रूप
में सौंप
गए। यह स्थिति केवल
कांग्रेस पार्टी की नहीं, देश में जितनी भी पार्टियाँ हुई हैं,
सबकी दशा लगभग-लगभग
एक
ही है। सत्य, न्याय, नीति, सिद्धांत, जनहित जैसी
बातें धीरे-धीरे
हाशिए पर पहुँच गई। मनुष्य-मात्र
की महत्ता पार्टी
और उनके नेताओं
के लिए केवल ‘वोट-बैंक’
तक आकर सीमित हो
गई। जनहित
के कार्य
अब जाति, धर्म, प्रांतीयता के
आधार
पर किए जाते हैं। आजादी के
बाद
यह
रोग
कम
होने के
बजाय
धीरे-धीरे
बढ़ा
ही है। इसीलिए बामनदास
कहता है कि
भारतमाता और भी जार-बेजार रो रही
हैं।
देश-सेवा, जन-सेवा और लोकतंत्र
की रक्षा के नाम
पर इस देश में जितना विकास राजनीतिक पार्टियों,
संगठनों और नेताओं का
हुआ
है, उतना
विकास शायद ही किसी का
हुआ
हो। जितने
नेता उतनी पार्टियाँ। यहाँ नेता
और
पार्टियाँ बनने
में
देर नहीं लगती। और
यह कोई नई बात नहीं, आजादी के
समय
से
ही होता आ रहा है। रेणु लिखते हैं, "जब से कांग्रेस
ने चुनाव लड़ने
की घोषणा की है,
यार लोग रंग बदल रहे हैं। जिन्होंने सरकार बहादुर
के सामने प्रतिज्ञा की थी कि कभी किसी पार्टी में भाग नहीं लूँगा,
उन्होंने भी 1942 की धुली हुई,
बक्स
में बंद, गांधी
टोपी
निकालकर पहनना
शुरू
कर दिया। कांग्रेस शब्द का उच्चारण करने से पहले जो इधर-उधर देख लेते थे, वे ही आज राह रोककर चुनाव की
चर्चा
करने लग गए
हैं।” (9)
चुनाव आते ही नई पार्टियों का
बनना, नेताओं
का एक दल से दूसरे दल में आना-जाना
यहाँ आम बात है। जहाँ स्वार्थ टकराया, नेता अलग, पार्टी अलग। ऐसे
में आलम
यह ,
"... यहाँ तो सैकड़ों
पार्टियाँ हैं। अपने को किसी पार्टी से अलग रखकर एक कदम भी
चलना मुश्किल है। महाशय
'क’ से जरा हँस कर बात कर ली कि मिस्टर
'ख’
की आँखों
में चढ़
जाता है। पंडित 'ग’ के
यहाँ ट्यूशन करने जाता हूँ
तो मुंशी 'घ’
का मुँह
फुला लेते हैं। श्रीमान 'त’ एक मिल
मालिक हैं, एक दिन मैंने
उनका निमंत्रण स्वीकार कर उनके
यहाँ जरा खीर क्या
चख
ली,
कार्ल-मार्क्स का
सारा
'कैपिटल’ कलंकित हो
गया। बड़ी
दुकानों की
बात
तो जाने
दीजिए,
फेरी लगाने वालों की भी पार्टी है।”(10)
कहने
को
भारत एक विकासशील देश है,
लेकिन जब हम विकसित देशों की तरफ देखते हैं
तो पाते
हैं कि
वहाँ पार्टियों की
संख्या
न्यूनतम है। कम पार्टियाँ, अधिक विकास। बहुत
सीधा सिद्धांत है। लेकिन
भारत में यह सिद्धांत उल्टा है-
अधिक पार्टियाँ, कम विकास। भारत
में बढ़ती पार्टियों की
संख्या
ने इस देश की जनता और लोकतंत्र को
मजबूत नहीं बनाया
बल्कि उसे अंदर ही अंदर कमजोर और खोखला करने
का काम
किया है। बंटे हुए समाज को और बाँटना
तथा उस पर अपनी राजनीतिक रोटियाँ सेंकना
इनका पहला काम है। वैसे इसके लिए पूरा दोष हम इन्हें
नहीं दे सकते। ऐसा करने का
मौका इन्हें हम ही देते हैं। बंटे हुए समाज को एक करने के
लिए
सिर्फ थोड़ी समझ विकसित करने
की जरूरत है। जिसे हमने पैसे,
स्वार्थ और द्वेष के अधीन कर रखा है। अपने जीवन की
एक
घटना का
जिक्र
करते हुए कहानीकार
बताता है
कि पाठशाला की पढ़ाई समाप्त करके शहर के हाईस्कूल
में पहुँचा। सौभाग्यवश या दुर्भाग्यवश
मेरे पिताजी के
वकील एक बंगाली
सज्जन थे। अपने मुवक्किल के पुत्र को आपने सहर्ष अपने परिवार में सम्मिलित
कर लिया। बंगालियों
से
घनिष्ठता तो हुई
ही
साथ ही ‘बांग्ला-भाषा’ और 'बांग्ला-संगीत’ की
ओर
भी
मैं झुका। दो-तीन वर्षों के
बाद
तो स्वयं मुझे संदेह होने
लगा
कि मैं
अ-बंगाली हूँ। कुछ दिन के
बाद
ही
बंगाली-अबंगाली की
लड़ाई
छिड़ी। दोनों
ओर से खुलकर गालियाँ दी जाने
लगी। "बंगालियों
की गाली की हम परवाह
नहीं करते क्योंकि वे
जो कुछ कहते या करते हैं,
प्रांतीयता के
नाम पर। किंतु अबंगाली होकर
भी जो बंगालियों का
पक्ष
लेते हैं,
वे दगाबाज हैं, मक्कार हैं,
मिर्जाफर
हैं। हमें ऐसे व्यक्तियों
से
कोई संबंध नहीं
रखना चाहिए।”(11)
हम सभी जानते
हैं कि
भारत
विभिन्न जातियों, भाषाओं, संस्कृतियों
और
धर्मों का देश है। यह हमारी
कमजोरी नहीं,
हमारी ताकत
है। 'अनेकता में एकता’ भारतीय संस्कृति
का मूल मंत्र है। सभी धर्मों, जातियों,
भाषाओं, संस्कृतियों के
प्रति
प्रेम, सम्मान
और
सद्भाव को
बनाए रखना न केवल हमारी
नैतिक
जिम्मेदारी
है, बल्कि
इसका अधिकार हमें हमारा संविधान भी देता है। यहाँ कहानीकार जब एक बंगाली परिवार के
बीच
रहने आता है
तो केवल रहता
नहीं, बल्कि
उनकी भाषा, उनके
संगीत
को भी
अपना लेता है,
जो कि
स्वाभाविक
है। इसका
यह
कतई मतलब नहीं कि
वह
अपनी भाषा और संस्कृति से प्रेम नहीं करता या जब वह
अपनी संस्कृति
और
भाषा के बारे में बात करता है
तो दूसरी भाषाओं और संस्कृतियों
से
उसका विरोध है। हमें बस करना
यह है कि
जो हमारे
पास बेहतर है, उसे
सँजोए रखते
हुए दूसरों तक संप्रेषित कर देना है
और जो दूसरों
के पास बेहतर है,
उसका सम्मान करते
हुए उसे अपने
में शामिल कर लेना
है। लेन-देन की
इस प्रक्रिया में प्रेम और सम्मान का
भाव जितना अधिक होगा,
जीवन
उतना ही सहज, सरस
और आनंदपूर्ण होगा। यही बात
हमें बचपन से सिखाई और पढ़ाई जाती है। लेकिन यह जरूरी नहीं
कि हमें जितना पढ़ाया और समझाया जाय
हम
उतना ही उसे अपने
जीवन-आचरण
में उतार पायें। बदलते समय के साथ हर चीज स्वार्थ और
राजनीति के भेंट चढ़ गई। राजनीतिक
हुआ समाज अब
इस सोच और मानसिकता को बहुत बढ़ावा नहीं देता। अब अगर आप इन सब से ऊपर उठकर बात करते हैं,
तो संभव है
की आप 'मिरजाफर’ की श्रेणी में डाल दिए जाएँ। इसे जीवन
की विडंबना नहीं तो और
क्या कहेंगे कि जिन महापुरुषों(राम,
बुद्ध , विवेकानंद, कबीर,
तुलसी,
रवींद्र
,
गांधी, सुभाष, अंबेडकर आदि
) को
हम अपना आदर्श कहते हैं,
जिनकी जयंती और पुण्यतिथि को
हम
बड़ी धूमधाम
से मनाते हैं,
उन्हीं के विचारों पर चलना हमें स्वीकार नहीं। हमने
उन्हें
केवल मंचों
और
कागजों तक सीमित
रख दिया है।
लोकतंत्र में लोगों के पास यह अधिकार
होता है
कि वह अपने
मताधिकार
का प्रयोग कर एक ऐसे व्यक्ति को देश की संसद तक पहुँचाए
जो जनसेवा और लोक-कल्याण को ही राजनीति का ईष्ट समझता
हो। स्वयं से पहले जनता
के हित की
सोचता हो,
उनके लिए कार्य
करता हो। उनके
सुख-दुख में उनका सहभागी हो। पर बीते
70 साल का अनुभव यह बताता
है कि
देश के नेताओं
(अधिकांशत:) ने राजनीति के
इस चरित्र को नहीं अपनाया, बल्कि जनता
के हित से इतर राजनीति उनके लिए अपार संपत्ति बनाने , शक्ति
के विस्तार, अहंकार प्रदर्शन, महत्वाकांक्षा-पूर्ति
और सत्ता पर काबिज होने
का माध्यम बन गई। 'मैला आंचल’
का गांधीवादी
चरित्र बावनदास कहता है-
‘सब
एमएलए मंत्री होना चाहते
हैं बलदेव! देश का
काम, गरीबों
का काम,
जो भी करते
हैं इसी एक ही लोभ से। ‘ उनके इस काम
में देश का अफसरशाही, मीडिया,
व्यापारी-वर्ग
भी खूब साथ देता है। क्योंकि
इसमें इन सब का लाभ छुपा है। भोली-भाली जनता
की चेतना
को एक सांँचें में ढालना, उलझाए
रखना, सच को झूठ और झूठ को
सच बताने में यह सरकार
का बखूबी साथ देते
हैं। राजनीति अब सच्चाई,
नैतिकता और दायित्व बोध की
भावना से रिक्त होती
जा रही है। राजनीति के
इसी चरित्र को सामने लाती है,
उनकी कहानी ‘पुरानी कहानी : नया पाठ।‘
प्राकृतिक आपदा (बाढ़,
अकाल) कैसे इनके
(नेता, व्यापारी) लिए एक
सुअवसर में बदल जाता है,
इसका बखूबी चित्रण इस कहानी में किया
गया है। 'कोसी’ को बिहार
का शोक कहा जाता है। हर साल कोसी नदी में आने वाली बाढ़ जन-धन की अपार क्षति
का कारण
बनती है। उतराही-गाँव
का दृश्य भी कुछ ऐसा ही
भयावह है, जहाँ
कोसी-
मैया का प्रकोप देखते ही देखते पूरे
गाँव को निगल गया-
" नाचती
हुई कोसी-मैया आई और देखते-ही-देखते खेत-खलिहान गाँव-घर-पेड़ सभी इसी ताल
पर नाचे लगे-ता-ता थैया, ता-ता
थैया...मुँह बाये, विशाल मगरमच्छ की
पीठ
पर सवार दस-भुजा कोसी नाचती निकलती अट्टहास करती आगे बढ़ रही है। अब मृदंग-झांझ नहीं,
गीत नहीं- सिर्फ हाहाकार!"
(12)
लेकिन
यह आपदा, यह विपत्ति किसी के लिए शुभ अवसर का कारण
भी बन सकती है, यह बात हैरत
में डालने वाली है। जी हाँ
! इस क्षेत्र के पराजित उम्मीदवार, पुराने जनसेवक जी का सपना सच हुआ। कोसी
मैया ने उन्हें फिर जनसेवा का 'औसर’ दिया है। नहीं, नहीं
इस
बार यह नहीं होगा। इस
बार उन्हें किसी भी कीमत
पर पीछे नहीं रहना है। उन्होंने
तुरंत
संवाददाता को बुलाया और कहा कि सुनो। मैंने कितने
बाढ़ग्रस्त
गाँवों के
बारे में लिखाया था? पचास? उसको डेढ़ सौ कर दो। ..ज्यादा
गाँव बाढ़ग्रस्त होगा तो रिलीफ
भी ज्यादा-ज्यादा मिलेगा, इस इलाके
को। अपने
क्षेत्र
की भलाई के लिए मैं कुछ भी कर सकता हूँ। और झूठ क्यों? भगवान ने चाहा तो कल
तक दो सौ गाँव जलमग्न हो जा सकते हैं।
यहाँ
जो हम पढ़, देख या समझ रहे
हैं, उसे
शुद्ध
रूप से ‘लीपापोती’ कहते
हैं। देश के अधिकांश
मीडिया-हाउस अपना
एजेंडा,
अपनी विचारधारा, अपनी टीआरपी और अपना लाभ के लिए खबर बेचते हैं। इसीलिए खबर में सच्चाई कम, मसाला और सनसनी
फैलाने का
सामान
अधिक होता है। उसको इस कार्य में महारत
हासिल है। पत्रकारिता को लोकतंत्र का
चौथा स्तंभ कहा
जाता है। पर हमने
पाया कि ये
सरकार, पूंजीपतियों
की ही जुगाली अधिक करते हैं। रेणु ने
इनकी कार्य-
पद्धति का बड़ा ही सटीक चित्रण किया है। नेतागिरी और पत्रकारिता की
इस कार्य- पद्धति पर इसी कहानी से उद्धृत गीत की
यह दो पंक्तियाँ -
"..जा
जा जा रे बेईमान तो रा एको न धरम। एको ना धरम हाय कछु ना
शरम।”
कुछ दिन बीत जाने
के बाद बाढ़ के पानी का स्तर धीरे-धीरे
नीचे
आ गया है। बाढ़ के
अवसान
का यह दृश्य कम भयावह नहीं, जिसका
चित्र
खींचते हुए रेणु ने
लिखा- "आकाश
में गिद्धों की टोली भंँवरी ले रही है। सैकड़ों काले-काले पंख- मँडराते
हुए
बादलों जैसे।
धरती
पर मरे हुए पशुओं की
लाशें- कंकाल! हरी-भरी फसलों के
सड़ते हुए पौधे!
दुर्गंध-
दुर्गंध-गंध!
कीचड़-केंचुए-कीड़े-धरती
की सड़ी हुई लाश !"(13)
यह जीवन का
एक
पक्ष है। इसका
दूसरा
पक्ष अपार संभावनाओं और उम्मीदों से भरा हुआ है,
"लोगों ने
पानी
घटने की
खबर
सुनते ही डेरा-डंडा तोड़ दिया। वे पानी
के जानवर हैं। पानी-कीचड़
में वे महीनों रह सकते हैं। ..भीख माँग
कर खाना अच्छा, मगर रिलीफ या
हलवा-पूड़ी नहीं छूना। छी: छी: !! ....सर्वहारा लोगों की
टोली,
सिर झुकाए बचे-खुचे पशुओं को हाँकते,
बाल- बच्चों, मुर्गे-मुर्गियों,
बकरे-बकरियों
को
गाड़ियों, बहँगियों और पीठ पर लादकर अपने-अपने
गाँव की
ओर
जा रही है, जहाँ
न
उनकी मड़ैया साबित है और न खेतों में एक चुटकी फसल। किंतु
उनके पैर तेजी से बढ़ रहे हैं। 30-32 दिन के
रौरववास
के बाद उनके दिलों में अपने बेघर के गाँव
और
कीचड़ से भरे
खेतों के
लिए
प्यार की बाढ़ आ गई है। .. कीचड़
पर उनके पैरों के
छाप
दूर-दूर तक अंकित हो
रहे
हैं।
गाँव फिर से बस रहे हैं।”(14)
रेणु
की रचनाओं में आए मनुष्य ने
जैसे
हार मानना
सीखा
ही ना हो। रात्रि की
विभीषिका को सिर्फ पहलवान की ढोलक ही ललकारकर चुनौती देती रहती थी। उसके लिए ढोलक की थाप
से निकलने वाली ध्वनियों के
पर्याय
अलग हैं, "..चटाक्-
चट्-धा, चटाक्- चट्-धा यानी 'मारो बहादुर’
, तो कभी 'उठा पटक दे! उठा पटक दे!’ पहलवान बार-बार
कहता है
कि यह ढोलक ही उसकी गुरु है, जो
जिंदगी
की हर विपरीत परिस्थितियों को चुनौती देने के
लिए
बार-बार यही संदेश देती है कि, "चट्-धा, गिड़-धा, चट्-धा, गिड़-धा
अर्थात् 'आ जा भिड़ जा!! ‘ बीच-बीच में ‘चटाक्-चट्-धा चटाक् चट्-धा
'यानी उठाकर पटक दे!!" (15)
ढोलक से निकलने वाली ध्वनियों का
संदेश
एक ही है- विपरीत परिस्थितियों, विषमताओं
से जूझने का
और
उन्हें हराने का। ढोलक की
यही
ध्वनि पूरे गाँव
में
संजीवनी-शक्ति भरती रहती थी।
जीवन की
इस
संजीवनी-शक्ति को रेणु पहचानते हैं। जीवन-संघर्ष के
भँवर
में फँसकर मनुष्य भले ही कुछ समय के
लिए
हताश-निराश हो,
कमजोर पड़ जाए पर उसकी
अदम्य
जिजीविषा अंततः उसे जीत के लिए, चुनौतियों से लड़ने के
लिए
प्रेरित करती है। मनुष्य की
इसी
अदम्य जिजीविषा के रचनाकार हैं, फणीश्वर नाथ
रेणु।
भारतीय राजनीति की
दिशा और दशा तथा पार्टियों
की कार्य
पद्धति से रेणु भले ही निराश हुए हों लेकिन
साहित्य और लोक की संपदा अभी भी उनके
पास थी। अगर जीवन को गढ़ने
का एक माध्यम राजनीति है, तो दूसरा
माध्यम कला और साहित्य भी है। जीवन
और समाज के प्रति अपने
सरोकारों को उन्होंने
छोड़ा नहीं था। रेणु के
रचनाकार की
सबसे बड़ी खूबी अपने जनपद की
माटी,
लोक
जीवन और संस्कृति से गहरा लगाव। यह लगाव
ही
उन्हें उस मनुष्य के बिल्कुल करीब
ले जाता है,
जो गरीबी, भूख,
रोग, अशिक्षा, अंधविश्वास, अन्याय, शोषण की
मार से
त्रस्त है, फिर भी
जीवन-रस
से हीन नहीं। मोहन गुप्त लिखते
हैं, "रेणु के
रचनाकार की
मूल शक्ति उस गहरी मानवीय संवेदना में है,
जो लोगों के
दुख को रेणु का
अपना दुख बना
देती है, और इस दुख के निवारण के
लिए वह खुद को जलसे-जुलूसों और आंदोलनों में झोंक देता
है और कहीं
भी त्राण नहीं मिलता तो अंत
में कलम लेकर बैठ जाता है। रेणु की
अदम्य मानवीय संवेदना
उसे अपने
लोगों के इतने
करीब,
बल्कि
इतने भीतर ले जाती है
कि द्वैत कतई नहीं
रहता तब उनकी
पीड़ा,
उनकी हताशा,
उनकी आशा और उनके
सपने रेणु
की निज मन-माटी में घुल जाते हैं
और जब वह इस माटी से मूरतें गढ़ता
है तो उन
उदास मूरतों के
धूसरित चेहरों पर असह्य पीड़ा,
अपने समय की
कड़ुवाहट,
विषमताओं का
विद्रूप और साथ ही कल की आशा की नन्हीं सी मुस्कान भी होती है। रेणु के
थके-हारे
पात्र भी 'फेनुगिलासी’ बोली
बोलते हैं।” (16)
इस पूंजीवादी
सभ्यता में
गिरते मानवीय-मूल्यों ने
भारत
की पारिवारिक और सामाजिक
संरचना को विशेष क्षति पहुँचाई है। भौतिकवादी युग में जन्मीं
उपभोक्तावादी मानसिकता ने मानव -जीवन
की जरूरतों
और उद्देश्य को बदल दिया है। बदलती
जरूरतों के
साथ 'जीवन
की सार्थकता’
भी
कहीं खो गयी है। जीवन की
इसी
सार्थकता की
खोज
में लगे हैं, रेणु के
'रसूल
मिसतिरी'। धर्म
इस्लाम
और पेशे से मिस्त्री हैं।
इंसान को इंसान के नजरिए से देखने
के आदी और टूटे-फूटे सामानों की मरम्मत के साथ-साथ टूटे हुए
इंसानों (कमजोर, असहाय, जरुरतमंद
लोग)
की मरम्मत
को भी तत्पर रहते हैं। उनके
व्यक्तित्व
की विशेषताओं
से हमारा
परिचय कराते हुए रेणु लिखते हैं, " मझोला कद, कारीगरों सी काया और नुकीले चेहरे
पर
मुट्ठी
भर ‘गंगा-जमनी
‘दाढ़ी। साठ वर्ष की
लंबी उम्र का कोई विशेष लक्षण शरीर पर प्रकट नहीं हुआ। फुर्ती-चुस्ती
जवानों से बढ़कर। सादगी का
पुतला-मोटिया
कपड़े की एक लुंगी और कमीज़। पानी,
चाय
और बीड़ी का भक्त। कभी हाथ पर हाथ
धरकर
चुपचाप बैठना, वह जानता ही नहीं। 'गप्पी’
भी
एक नंबर का, पर अपनी जिम्मेदारी को कभी न भुलनेवाला।”(17 आजादी की
दहलीज
पर खड़ा हिंदुस्तान बदलाव चाहता
है। बदलाव हो
भी
रहा है
लेकिन भविष्य में यह बदलाव मानव जीवन को
किस दिशा में ले
जाएगा,
उसका जीवन कितना सार्थक और सुखद होगा, इन्हीं प्रश्नों
का जवाब तलाशने की
कोशिश
करती
है, रेणु
की कहानी-‘रसूल
मिसतिरी।‘ रसूल
मिस्त्री जिस छोटे से गँवारू शहर के निवासी हैं, वहाँ
काफी परिवर्तन देखने
को
मिलता
है,
"स्कूल और हॉस्टल की भव्य इमारत को देखकर कोई
कल्पना भी नहीं कर सकता कि
आज
से महज
आठ साल
पहले अधिकांश क्लास पीपल के
नीचे
लगते थे। शहर
भर का कूड़ा जिस स्थान पर फेंका जाता
था, वहीं
आज
विशाल-टाउन हाल है,
क्लब है और पुस्तकालय है। खलीफा फरीद की
फटफटानेवाली फटीचर सिंगर-मशीन और
उनकी कैंची की काट-छांट
के दिन लग गये हैं। ‘ मॉडर्नकट-फिट’ के
'लत्तू-मास्टर
‘का जमाना है। ‘रेस्त्रां’
और
‘टी-स्टालों’
की संख्या तो 'शाक-भाजी’
की दुकानों से भी बढ़ गयी है।” (18)
इस ‘गंवारु
शहर
‘में हो रहा
परिवर्तन
रेणु को आशा से अधिक और आवश्यकता से अधिक प्रतीत होता है। अब सवाल यह कि क्यों? क्या रेणु आधुनिकीकरण की
विरोधी
है? दरअसल रेणु
नगरोचित सुविधाओं को ही गाँव या शहर का विकास नहीं
मानते जब तक समाज पुरानी जड़
एवं प्रतिगामी सोच
से मुक्त ना हो,
उसकी काया
शहरी हो या ग्रामीण क्या फर्क
पड़ता है?
गाँव गाँव
नहीं रह गए थे, शहर पूरी तरह
से शहर नहीं हो
पाए
थे, यही रेणु की
दृष्टि
में मूल समस्या थी। रेणु ने
आधुनिकीकरण का
स्वागत
किया लेकिन
ऐसे आधुनिकीकरण का
जिसका विज्ञान और मानवीय संवेदना
से
गहरा संबंध हो। आज आधुनिकीकरण
या तकनीकी प्रगति का वैज्ञानिक दृष्टि तथा मानवीय संवेदना
दोनों
से संबंध-विच्छेद हो गया है। खलीफा फरीद की
पुरानी दुकान की
जगह लत्तू मास्टर की मॉडर्न कटफिट और शाक-भाजी की दुकानों
से भी ज्यादा रेस्टोरेंट्स टी-स्टालों की बाढ़ एक नए ढाँचागत बदलाव
का अहसास तो दे
सकते हैं
पर इससे लोगों की मानसिकता
में बदलाव नहीं हो
सकता। यहाँ सिर्फ चोला बदल रहा
है, रंग-ढंग वही है।
रेणु
बताते हैं
कि कायापलट
की इस आँधी में पूरा देश शामिल था, सदर रोड में उस पुराने बरगद के बगल में रसूल मिस्त्री की
मरम्मत
की दुकान को जैसे जमाने
की हवा लगी ही नहीं थी। ‘
उस बरगद के पेड़
के तने पर जहाँ रोज नई-नई स्कीमों के इश्तहार
चमकते थे, वहीं एक पुरानी टीन
की तख्ती न जाने कितने वर्षों से लटक रही है, जिस पर टेढ़ी-मेढ़ी अक्षरों से लिखा हुआ ‘रसूल मिसतिरी-
यहाँ मरम्मत होता है।‘ न हिज्जे का
ख्याल,
न
स्त्रीलिंग-पुलिंग
की चिंता। भाषा की
बेवजह
वर्जिश
की जरूरत ही नहीं। होती भी क्यों ‘अक्षरों के
बीच
गिरे हुए आदमी को पढ़ने की
तमीज
‘रसूल मिस्त्री के
पास
आले दर्ज की थी। जैसे
कुछ विद्वान आलोचक रेणु को
अपनी भाषा दुरुस्त करने की
सलाह
दे रहे थे। न रेणु
ने उनकी सुनी, न रसूल मिस्त्री को ही फुर्सत थी उन्हें सुनने की। रेणु ने
इस
कहानी में जो
आगे
लिखा है वह उनके लिखे पर सवाल उठाने वाले हिंदी के कई विद्वान आलोचकों को
उनका जवाब भी हो सकता है। इस साइन बोर्ड पर बहुत दिनों से पढ़े-लिखे
लोगों की मंडली ने टीका टिप्पणी की है,
व्यंग्य कसे हैं और रसूल के सामने संशोधन के प्रस्ताव भी रखे गए हैं पर आज भी वह
तख्ती उसी
तरह लटक रही है। हाँ किसी
शैतान लड़के
ने उस पर खल्ली
से लिख दिया था, ‘यहाँ आदमी की मरम्मत होती है।’
इसी समझ के कारण
रसूल मियाँ अपने आसपास को ही सँवारने
की कोशिश करते हैं। लोगों की
छोटी
से छोटी परेशानी भी उन्हें परेशान
कर देती है और वह उसे तत्काल दुरुस्त करने की
कवायद
में लग जाते हैं। इसी कारण
वह घर से दुकान के
निकलते तो सुबह
हैं, पर लोगों की
खैरख्वाह
लेते दोपहर का खाना लेकर घर से बाद में चले
बेटे रहीम के बाद दुकान पहुँचते
हैं। किसी की
खेती
कैसी चल रही है, उसकी
चिंता रहती है। किसी का
बैल
बीमार है, तो तत्काल
इलाज करने निकल पड़ते हैं। मलेरिया के
प्रकोप
के बीच गाँव-गाँव
घूमकर
जड़ी-बूटियों की
दवा
बनाकर कुनैन की पैदा हुई कमी को दूर
करने में जुट जाते हैं।
एक पात्र रचनाकार
के विचारों
का संवाहक होता
है। रेणु की
कहानियों
में आया मनुष्य अपने सहज रूप अपनी
अच्छाइयों-बुराइयों
के साथ उपस्थित है। वह अपनी
कर्मठता, संघर्षशीलता, रसिकता, भावुकता, संवेदनशीलता
के साथ-साथ
कठोरता-कोमलता लिए हुए है,
जिससे
वह हममें से
कोई एक लगता है। वह हमारे
भीतर छिपी
कमियों और अंतर्विरोध को न केवल उजागर करता है
बल्कि हमें एक नई उम्मीद, उत्साह और हिम्मत से
जोड़ते
हुए जीवन को एक सार्थक दिशा देने
का काम
भी करता है। उसका
किसी धर्म, जाति,
संप्रदाय,
समाज,
पार्टी,
वर्ग
या व्यक्ति से घृणा, द्वेष या विरोध का
भाव
नहीं है। प्रेमचंद और रेणु
के कथा-साहित्य
में आए पात्रों के बीच का
अंतर समझाते हुए शंभूनाथ
जी कहते हैं
कि, “प्रेमचंद
से रेणु का
एक बड़ा फर्क यह है कि
प्रेमचंद की कथा-साहित्य
में निम्नवर्गीय पात्र या वंचित पात्र ट्रेजडी के
शिकार होते
हैं, चाहे वह घीसू-माधव
(कफन) हो, होरी(
गोदान) हो। रेणु के
पात्र अपने अभावों,
दुखों
और कष्टों के बीच भी जीवन की
सुंदरताए रचते
हैं और बंधनों
को तो ड़ते
हैं। प्रेमचंद के
गाँवों पर औपनिवेशिक
सामंतवाद का गहरा दबाव था। मध्यवर्ग के
प्रोफेसर मेहता
और डॉक्टर मालती गाँवों की
दुर्दशा देखकर होरी के
गाँव से उल्टे पांँव लौट जाते हैं। रेणु के
गाँव पर सामंतवाद और धार्मिक अंधविश्वासों का दबाव कम न था। लेकिन
महत्त्वपूर्ण बात यह है
कि देश की
स्थितियाँ बदलने
पर गाँव में आधुनिकीकरण
का प्रवेश
हो रहा
था। डॉक्टर प्रशांत गाँव
से उल्टे लौटने की
जगह यहीं बस जाते
हैं। ... रेणु
के भीतर स्वराज्य का
टूटा स्वप्न था, जो
तरह-तरह से व्यक्त होता है। वह जहाँ
भी ग्रामीण मन की सरलता,
अबोधता और निश्छलता का
चित्र खींचते हैं,
मानवीय
मूल्यों और गुणों को बचाना
चाहते हैं। वे चाहते
हैं कि
मनुष्य हर सच्चे परिवर्तन का
वाहक बने।”(19)
कहने
को तो रेणु एक 'आंचलिक कथाकार’
हैं, लेकिन इस अंचल की
मार्फत ‘पूरा भारत किधर
गया’ अगर
हम यह जानना चाहते
हैं, तो हमें
रेणु के
उपन्यासों के साथ-साथ उनकी
कहानियों
पर भी एक दृष्टि जरूर डालनी चाहिए। इनकी
कहानियाँ भले
ही एक अंचल या जनपद के लोक-जीवन पर लिखी कहानियाँ लग सकती हैं,
मगर
सच्चाई यह है कि
गहरी मानवीय संवेदनाओं
और बदलते सामाजिक मूल्यों
के साथ-साथ ये
पूरे भारतीय लोक-जीवन की
संवेदनाओं
का मार्मिक आख्यान प्रस्तुत करती हैं। शंभूनाथ
जी ने जो
बात उनकी रचना
'मैला आंचल’
को
केंद्र में रखकर जो बात कही है,
वही
बात उनकी कहानियों पर भी लागू होती
है। उनके
अनुसार, "उनकी
कृतियाँ मुख्यतः अंचल-केंद्रिक नहीं, मूल्य
केंद्रिक हैं। रेणु के
वर्णन में भले आंचलिकता हो, अंतर्दृष्टि में
सार्वभौमिकता
है। उनकी
कृतियों में स्थानीय रंग और आवाजें होने के
बावजूद उनकी अंतर्दृष्टि में किसी
किस्म की
स्थानीयता, क्षेत्रीयता या फिर पृथकतावाद
नहीं है। उन्होंने
लोक-संस्कृति के
पानी
और वाणी को छुआ है। अंचल के
फूल,
शूल, धूल, सुंदरता-कुरूपता
किसी से भी अपना
दामन
नहीं बचाया। यह
कथाकार किसी
एक जगह ठहरा हुआ नहीं है। .. आजादी की
देहरी पार कर रहे गाँवों के
जीवन से विषयवस्तु लेकर रेणु भारतीय परिदृश्य की विविधता
को उद्घोषित करते हैं। निश्चय ही गाँव
के प्रति किसी
'नॉस्टैल्जिया’
का शिकार
नहीं होते
उलटे वे 'विडंबना’
को
उजागर करते हैं,
जो एक आधुनिक शैली है।”(20)
रेणु की
आंचलिकता में भी आधुनिकता
बोध है, जागरण का छंद है। यहाँ "अंचल राष्ट्र का प्रतिबिंब" हो
जाता है। निश्चित तौर पर रेणु का
महत्त्व ‘उनकी आंचलिकता
में नहीं, आंचलिकता के
अतिक्रमण ‘में
निहित है।
निष्कर्ष : रेणु ने अपने समय के संकट को पहचाना था। वह यहाँ की मिट्टी में बिखरे लाखो इंसानों की जिंदगी के सुनहरे सपनों को बटोरकर यहाँ के प्राणी के जीवन कोष में भर देने की कल्पना करता है। वह प्यार की खेती करना चाहता है, आँसू से भीगी धरती पर प्यार के पौधे लहलहाना चाहता है। वह एक बेहतर मनुष्य और समाज की परिकल्पना को साकार होते देखना चाहता है। अगर हम रेणु के इस विजन और सोच से जुड़ना चाहते हैं या उसे साकार होते देखना चाहते हैं तो इसके लिए सबसे जरूरी है, मिट्टी और मनुष्य की मोहब्बत। रेणु के रचनात्मक संसार का यही सार है।
2. www.kavitakosh.org
4. किशन कालजयी, संपादक, संवेद, अंक: 03, मार्च 2021, पृ. 335
6. वही, पृ. 336
7. विष्णु नागर, परिचर्चा, फणीश्वरनाथ रेणु का महत्त्व, vagarth.bhartiya bhasha parishad.org
8. वही
10.वही, पृ. 70
12. मोहन गुप्त, संपादक, प्रतिनिधि कहानियाँ : फणीश्वर नाथ रेणु , राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण: 2018, पृ. 82
13. वही, पृ. 84
14. वही, पृ. 89
15. किशन कालजयी, संपादक, संवेद , अंक 03, मार्च: 2021, पृ. 297
16. मोहन गुप्त , संपादक, प्रतिनिधि कहानियाँ : फणीश्वर नाथ रेणु, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2018, पृ. 05
17. फणीश्वरनाथ रेणु , एक श्रावणी दोपहरी की धूप, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2020, पृ. 143
18. भारत यायावर, संपादक, रेणु रचनावली भाग 1 , राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 1995 , पृ. 73
19. किशन कालजयी, संपादक, संवेद, अंक 03, मार्च 2021, पृ. 31
सहायक अध्यापक, हासीमारा हिंदी हाई स्कूल, अलीपुरद्वार
bhairaw.singh490@gmail.com, 9002285850
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) फणीश्वर नाथ रेणु विशेषांक, अंक-42, जून 2022, UGC Care Listed Issue
अतिथि सम्पादक : मनीष रंजन
सम्पादन सहयोग : प्रवीण कुमार जोशी, मोहम्मद हुसैन डायर, मैना शर्मा और अभिनव सरोवा चित्रांकन : मीनाक्षी झा बनर्जी(पटना)
एक टिप्पणी भेजें